निर्ममो....
भगवान पूछते हैं-"तुझे मेरे साथ शादी करनी है ?" मुझे आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करके तुम्हारे साथ शादी करके तुममें मिल जाना है- इह जन्मनि जन्मान्तरे वा; मैंने कहा।
अब वह कहने लगे-" तुझे ज्ञान है कि मैं बंधा हुआ नहीं, मुक्त हूँ। तू यदि बँधी हुई होगी तो मैं तेरे साथ कैसे विवाह कर सकता हूं। तो बता- तू बंधनयुक्त है या बन्धन मुक्त?
अब प्रश्न उठता है कि बंधा हुआ कौन? मुक्त कौन? हमारे शास्त्रकारों ने बंधन और मोक्ष की परिभाषा इस प्रकार दी है - 'मम' बोलने वाला बंधनयुक्त है और 'न मम' बोलने वाला मुक्त। ममेति बन्धमूलं स्यात् निर्ममेति च निवृति: ।
'मम' में बन्धन और 'न मम' में मुक्ति है। भगवान के साथ विवाह करना हो तो यह समझ लेना चाहिए कि कीर्ति, वित्त, श्री, पुत्रादि मेरे नहीं हैं। 'न मम' परन्तु इसमें शुष्कता- नीरसता नहीं होनी चाहिए। सामान्य तौर पर 'न मम' अमुक चीज मेरी नहीं है, बोलने में रूखापन और तिरस्कार-भावना रहती है।
कृष्ण 'न मम' होने के लिए कहते हैं, पर उसमें शुष्कता और तिरस्कार अपेक्षित नहीं है। यह थके, ऊबे और जीवन से उकलाए हुए लोगों का 'न मम' न होकर ऋषियों के द्वारा बोले हुए 'न मम ' के समान सरस होना चाहिए । ऋषि को विश्वम्भर का विश्व, मधुर और आकर्षक लगता है, फिर भी विश्वम्भर उन्हें अधिक मधुर और आकर्षक लगते हैं। इसीलिए सृष्टि के सम्बन्ध में 'न मम' बोलते हैं। उनके बोलने में माधुर्य है, शुष्कता और तिरस्कार नहीं है।
अश्माश्च मे, मृत्तिकाश्च मे, सिक्ताश्च मे, वनस्पतयश्च मे, ' ऐसा कहने में ऋषियों को सृष्टि के प्रति कितना आकर्षण है ? उन्होंने रुद्राष्टाध्यायी के 'चमक प्रकरण' में भगवान से क्या नहीं माँगा है ?और तो और मिट्टी, पत्थर, रेत भी माँगी है-' चमे चमे ', ' न मे ' कहीं दिखाई ही नहीं देता। और वही ऋषि जब 'न मम' बोलते हैं, तो उसमें भी माधुर्य है। यही उनकी विशिष्टता है।
विश्व सुन्दर, आकर्षक, आवश्यक और उपयोगी है, तो फिर 'न मम' कैसे कहा जा सकता है ? मानव यदि अपने अपनत्व को विश्व के साथ मिला दे तो तब आसानी से 'न मम' कहा जा सकता है।
'मेरे ऊपर किसी का अधिकार होना चाहिए' ऐसी इच्छा प्रत्येक व्यक्ति में रहती है। मनुष्य को लगता है कि कोई उसको पूछनेवाला होना चाहिए। मैं किसी की बनकर रहूं और कोई मुझे अधिकार पूर्वक पूछ सके ऐसी प्रत्येक मानव मन की मांग है । 'मैं किसी का हूं' यदि यह मांग मनुष्य की पूरी न हो तो वह अंदर ही अंदर छटपटाता रहता है। किसी का बने बिना मनुष्य का अपनापन नहीं जाता और इसके बिना 'मम' नहीं छूटता तथा जब तक 'मम' नहीं छूटता, तब तक मनुष्य बंधा रहता है और बंधे हुए मानव के साथ भगवान ब्याह नहीं करते। 'मम' छोड़ने के लिए संसार को खराब और निरुपयोगी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि वह सुन्दर और उपयोगी है। इसलिए 'मम' को वस्तु के साथ मिलाना-लय कर देना ही 'न मम' का एक मात्र मार्ग है।
भगवान के साथ विवाह करने का निश्चय करने पर तत्क्षण ही अपना 'मम' भगवान के साथ मिला देने पर फिर अपना कुछ नहीं रहता।
भगवान कहेंगे-' मेरे घर-'निज बोध रूपे; आनंद रूपे' आना है, तो क्या तू अपने साथ अपनी दुर्गन्धि लेकर आएगा ? ' यद् गत्वा न निर्वतन्ते' ऐसे धाम में अपनी दुर्गन्ध फैलाने वाले को स्थान नहीं मिलता। इसलिए तुझे यदि मेरे साथ शादी करनी है, तो अपने मायके के गोबर को लेकर मत आना, अन्यथा तुझे तत्क्षण बाहर निकालना पड़ेगा।
यह सत्य बात है कि सृष्टि हमारा मायका है और यहां कामना वासनाओं की अनन्त दुर्गन्धियों में हम डूबे रहते हैं। भक्त कहता है- "भगवान ! मैं इस सृष्टि के लौकिक व्यवहार का 'मम' रूपी गोबर तो अपने साथ लाने वाला नहीं हूँ, परन्तु मेरे पास जो तेरा अमृत है, वह भी मेरा नहीं है। उसके लिए भी मेरा 'मम' नहीं है। मैं बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इस स्थिति तक पहुँच चुका हूँ कि मैं अपना 'न मम' तो करता ही हूं, परन्तु मेरे पास जो तेरा वैभव, सत्ता, सम्पत्ति, महत्ता और अमृत है, उन सबके लिए भी मेरा 'न मम' है । इस जगत में मेरा कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि मैं भी अपना नहीं हूँ।
अरे जब सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान तेरा होने पर भी तूने गीता में यही कहा है- ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ ( गीता. १३/४)
और कहते हैं कि 'एवं परम्परा प्राप्तं'- मैं तो परम्परा से चलते आने वाले योग को ही कह रहा हूँ। इसलिए मैं तेरी परम्परा जानती हूं।
लेकिन अपने सत्कर्मों के लिए मुझमें 'मम' विद्यमान है। देखो तुम मेरे साथ विवाह करो या न करो लेकिन बहाने मत बनाओ। जब लोग मेरी प्रसंशा करते हैं और मेरे सत्कर्मों का वर्णन करते हैं तो मुझे आनन्द और गुदगुदी की अनुभूति होती थी, परन्तु अपने सत्कर्मों के लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे प्रेम के लिए थी कि तुम कितने महान हो! पति अपने खून-पसीने की कमाई से जब कहीं दान देता है, तो रसीद अपने नाम की नहीं, पत्नी के नाम की कटाता है। इसको देखकर पत्नी के हृदय में प्रेम और गुदगुदी निर्माण होती है! बशर्ते उसमें हृदय हो, अन्यथा कहेगी कि आयकर से बचने के लिए ऐसा किया होगा, इसमें कौन सी विशेषता है।
'प्रभु! इसी प्रकार जब लोग मेरे सत्कर्मों की प्रशंसा करते थे, तो मुझे लगता है कि सत्कर्म तो स्वयं तुमने किए और रसीद मेरे नाम से कटवाई है। अपने किए हुए सब कर्म मेरे नाम पर चढ़ा दिए। इसीलिए मुझे तुम्हारे प्रेम के लिए गुदगुदी होती थी। मेरे हाथों द्वारा हुए सत्कर्मों के लिए मुझमें तनिक भी 'मम' नहीं, बल्कि 'न मम' है। मेरा मन शुद्ध है, और मैं तुम्हें देने आई हूँ - मय्येव मन आधत्स्वमयि बुद्धिं निवेशय' प्रभु तुम बहुत दिनों से लोगों से मन मांगते रहे हो, इसलिए मैं अपने मन को लाई हूं तुम्हें समर्पित करने ।
भगवान के साथ सचमुच में शादी करनी हो, तो अपने अंदर एक-एक गुण लाकर जन्मपत्री मिलाने का यत्न करना चाहिए। छत्तीस गुणों को प्राप्त करना कोई सामान्य बात नहीं है, कठिन लगने जैसी बात है, परन्तु तभी 'निर्मम - 'न मम' बना जा सकता है और तभी भगवान के हाथ में अपना हाथ सौंपा जा सकता है ।
पैसा, पत्नी, पुत्र और घर आदि के लिए ' न मम' नहीं कहा जा सकता। कोई यदि अपनी पत्नी के लिए 'न मम' बोलता है तो वह मात्र घृणा, नफरत, ऊब और तिरस्कार से बोलता है । इस प्रकार ऊबकर 'न मम' बोलना भगवान के यहाँ नहीं चलेगा । भौतिक वस्तुओं से लेकर सद्गुणों और सत्कर्मों के लिए भी 'न मम' कहना है और वह भी नफ़रत से नहीं, प्रेम से कहना है। यह बात कठिन अवश्य है, परन्तु असम्भव नहीं है।
सृष्टि के सर्जनहार के साथ जुड़ना आना चाहिए। हमको जो वित्त, यश, कीर्ति आदि मिलती है, उसको यदि भगवान के साथ जोड़ देंगे तो उनमें सुगन्ध आएगी और हमारा जीवन भी सुगन्धित हो जाएगा।
भारत को जो स्वतंत्रता मिली, उसका श्रेय किसको है? यह विचारणीय प्रश्न है। लोग कहते हैं कि स्वतंत्रता हमने प्राप्त की । उपनिषद में एक सुंदर कथा है। देव और असुरों की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के पश्चात् विजयोत्सव मनाने के लिए देवराज इन्द्र की अध्यक्षता में देवताओं की एक सभा हुई। सभा में विजय के लिए सब एक दूसरे की प्रशंसा करने लगे-' अस्माकमेवायं विजयः अस्माकमेवायं विजयः ।" हमने विजय प्राप्त की । चित्शक्ति को लगा कि देवताओं ने क्या मेरे बिना ही विजय प्राप्त की? क्या विजय का श्रेय केवल देवताओं को ही है ? ऐसा विचार करके अतीन्द्रिय शक्ति विचित्र रूप धारणकर वहाँ उपस्थित हुई। उसे देखकर सबका ध्यान उधर आकर्षित हुआ । इन्द्र ने अग्नि को आदेश दिया कि वह जाकर देखो कि वह अद्भुत व्यक्ति कौन है ?
अग्नि जब उस विचित्र व्यक्ति की ओर बढ़ा तो उसने अग्नि की सम्पूर्ण शक्ति खींच ली। चित्शक्ति ने उसमें थोड़ी शक्ति भरकर पूछा- 'तुम कौन हो ?' उत्तर मिला- मैं अग्नि हूँ।"
चित्शक्ति ने पूछा- तुममें क्या शक्ति है और तुम क्या करते हो, अग्नि को लगा, यह कोई नया ही मालूम पड़ता है, इसको मेरी शक्ति का पता ही नहीं है। अग्नि ने कहा-' अग्निर्वा अहमस्मि जातवेदो वा अहमस्मि' ।
चित्शक्ति ने पूछा-' पर तुम्हारी शक्ति क्या है ?' अग्नि ने कहा, तुमको मेरी शक्ति का पता ही नहीं है? मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक मिनट में सारी दुनिया को जला सकता हूँ। अतीन्द्रिय ने कहा- 'सारी दुनिया की बात छोड़ो, लो, इस तिनके को जलाकर दिखाओ।' पूरी शक्ति लगाने पर भी वह घास के एक तिनके को नहीं जला सका, इसलिए लज्जा से सिर झुकाकर वापस लौट आया ।
अग्नि कुछ नहीं बोला, इसलिए इन्द्र ने वायुदेव को भेजा। उसे भी अतीन्द्रिय शक्ति ने पूछा- 'तुम कौन हो और तुम्हारा खिताब क्या है ?
वायु ने कहा- 'वायुर्वा अहमस्मि मातरिश्वा वा अहमस्मि'। चित्शक्ति ने पूछा- तो, तुम्हारी शक्ति क्या है?' वायु ने कहा - मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक क्षण में संपूर्ण पृथ्वी को उड़ा सकता हूँ।
चित्शक्ति ने उसके सामने भी वही तिनका रखा और कहा पृथ्वी की बात रहने दो, इस घास के तिनके को उड़ाकर दिखाओ।
वायु ने बहुत फूँ-फाँ की, पर तिनका हिला भी नहीं। वह भी शर्म से नीचा सिर किए झेंपते हुए अपनी जगह पर वापस जा बैठा। इसी प्रकार अन्य देवता भी जा जा कर वापस लौटे। इन्द्र को लगा कि वह कौन है ?
चित्शक्ति ने विचार किया कि अब स्वयं सरदार ही आता है, इसलिए अपमान करना उचित नहीं है। इसलिए अदृश्य होकर उसने कहा-' तुम लोग विजयगर्व से उन्मत्त होकर अपनी प्रशंसा करते हो ! तुम इस बात को भूल गये हो कि तुम्हारी विजय के पीछे अतीन्द्रिय शक्ति का हाथ था, इस ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है। इसलिए तुम्हारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया है।
इसी प्रकार भारत के सत्ता परिवर्तन के पीछे भी प्रभु शक्ति थी. यह नहीं भूलना चाहिए। आप एक बार विचार कीजिए कि भारत से सत्ता हस्तान्तरण के समय यदि इंग्लैंड में Conservative Party सत्ता पर होता, तो हमें स्वतंत्रता न मिलती। द्वितीय विश्वयुद्ध में पराजय की कगार पर खड़े इंग्लैंड को 'V for victory' का नारा देकर गिरने से बचाने और विजय दिलाने वाले चर्चिल की पार्टी चुनाव में हार गई और मजदूर पार्टी जीत गई, जो फिर लम्बे समय तक सत्ता में ही नहीं आई। ठीक उसी समय कंजरवेटिव पार्टी के हारने और लेबर पार्टी के जीतने में प्रभु संकेत ही हो सकता है। भारत को स्वतंत्रता मिले, ऐसी चित्शक्ति की इच्छा रही होगी, इसीलिए इंग्लैंड में उक्त पार्टियों के हार-जीत की अप्रत्याशित घटना घटी।
भारत को स्वतंत्रता मिले, चित्शक्ति की ऐसी इच्छा क्यों हुई होगी ? भारत के मानव समूह के पीछे दस-दस हजार वर्ष की तपश्चर्या है। चढ़ते-गिरते पड़ते लोगों ने मानव-जाति के उत्थान और विकास के लिए यहाँ अनन्त प्रयोग किये हैं। यहाँ किये गये प्रयोग समग्र विश्व के लिए उपयोगी सिद्ध हों, इसिलिए ही कदाचित् भारत की स्वतन्त्रता के लिए चित्शक्ति की इच्छा हुई हो। मनुस्मृति भी कहती है-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥
प्रभु को पसंद होना, यह पहली सीढ़ी है। प्रभु का बनना, यह दूसरी सीढ़ी है और प्रभु के हाथों में हाथ देकर प्रभु के साथ विवाह करना, यह तीसरी और अंतिम सीढ़ी है। इस सीढ़ी पर पहुँचने के पश्चात् वापस लौटना अर्थात् पुनर्जन्मनहीं होता। ' यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । ' हमें भगवान के यहाँ मेहमान के तौर पर नहीं जाना है, मेहमान तो थोड़े दिन रहकर वापस लौट जाता है। हमें तो भगवान के साथ विवाह करके स्थाई तौर पर अधिकार पूर्वक वहीं रहना है, फिर लौटना नहीं है। परन्तु भगवान की रुचि अरुचि को समझ लेना 'चाहिए। उन्हें 'निर्मम ' रुचता है। इसलिए जीवन में निर्ममत्व ' लाना चाहिए।
सौ-डेढ़ सौ रुपये की नौकरी ढूँढने वाले युवक को कदाचित् कोई निःसंतान राजा गोद ले ले तो क्या फिर उसमें नौकरी की आसक्ति रहेगी? नहीं रहेगी। इसी प्रकार यदि भगवान हमें अपनी गोद में ले लें, तो फिर भौतिक वस्तुरूपी गोबर की आसक्ति नहीं रहेगी। प्रभु ! तुम्हारे हाथ में हाथ सौंपने के पश्चात् मुझे इस गोबर की आसक्ति नहीं हो सकती। उसके प्रति मेरा ' न मम ' है !
वित्त, पुरुष, संतान, सद्गुण, यश, सद्विचार आदि सभी वस्तुओं के लिए 'न मम' बोलेंगे, पर शरीर के लिए ? मनुष्य इतना तो स्पष्ट समझता है कि मैं घोड़े के ऊपर बैठता हूँ, पर घोड़ा नहीं हूँ, घर में रहता हूँ, पर घर नहीं हूँ। इसी प्रकार यह समझ भी दृढ़ होनी चाहिए कि मैं शरीर का प्रयोग करता हूँ, परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ। ऐसी समझ होने पर ही 'न मम' पूर्ण होता है और तभी भगवान के साथ शादी हो सकती है।
भगवान यह शरीर न तो मेरा है और न मेरे लिए है। वह तेरा है और तेरे लिए है। जीवन में कभी ऐसी समस्या उठ खड़ी हो जाती है कि भगवान का काम और अपना काम दोनों के साथ समुपस्थित हो जाते हैं। ऐसे अवसर पर कौन सा काम पहले किया जाय ? यह उलझन होती है और यहीं पर भगवान परीक्षा लेते हैं। मनुष्य सोचता है कि भगवान का काम करने वाले तो बहुत हैं और मेरा काम करने वाला अकेला मैं ही हूँ। इसलिए मुझे अपना काम पहले ही करना चाहिए। ऐसा सोचने वाले पर भगवान अप्रसन्न हो जाएँगे, ऐसा तो नहीं हैं, परन्तु परीक्षा में उसे कम अंक तो मिलने ही वाले हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि किसी सत्कर्म के प्रारम्भ करने पर बाधाएँ आती ही हैं। परन्तु भगवान गीता में कहते हैं, 'प्रत्यवायो न विद्यते' - यह बाधा नहीं, परीक्षा है। भगवान कहते हैं-' शरीर भी मेरा नहीं है' तू ऐसा कहने के लिए तैयार है ? तू यदि शुद्ध होकर आएगी, मायके की गंदगी नहीं लायेगी, तो मैं तेरे साथ विवाह करूँगा ।' यह है 'निर्ममः' की भूमिका ।