शनिवार, 23 मई 2020

यूजीसी नेट पाठ्यक्रम (संस्कृत कोड-25) इकाई - I

यू.जी.सी नेट पाठ्यक्रम
इकाई – 1

वैदिक-साहित्य

(क)    वैदिक साहित्य का सामान्य परिचयः

  •  वेदों का काल :- मैक्समूलर, ए. वेबर, जैकोबी, बालगंगाधर तिलक, एम. विण्टरनिट्त्ज, भारतीय परम्परागत विचारक ।
मैक्समूलर – बुद्ध के अविर्भाव को आधार मानकर प्रो. मैक्समूलर ने वेद-रचना का काल १२०० वर्ष ई० पूर्व माना । उन्होंने सम्पूर्ण वैदिक काल को चार भागों में विभक्त किया :


(क) १२०० ई. पूर्व से १००० ई. पू. – छन्दोकाल तथा प्रकीर्ण मन्त्रों का रचना काल । इसी काल में ऋग्वेद की रचना हुई ।
(ख) १००० ई.पू. से ८०० ई.पू.-मन्त्र-काल । इस काल में मन्त्रों का संहिताओं के रूप में संकलन किया गया ।
(ग)   ८०० ई.पू. से ६०० ई.पू. - ब्राह्मण-काल । ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना इसी अन्तराल में हुई ।
(घ)  ६०० ई.पू. ४०० ई.पू. – सूत्रकाल । श्रौतसूत्रों और गृह्यसूत्रों की रचना इन्हीं २०० वर्षों में हुई ।
        यह मत कुछ समय तक बहुत प्रचलित रहा, किन्तु बाद में स्वयं इसके प्रस्तावक प्रो. मैक्समूलर ने ही इसे अमान्य कर दिया । बोघाजकोई से शिलालेख के प्राप्त होने पर तो यह बिल्कुल ही निरस्त हो गया ।
ए. वेबर - जर्मन विद्वान् ए. वेबर ने कहा है – वेदों का समय निश्चित नहीं किया जा सकता । वे उस स्थिति के बने हुए हैं, जहां तक पहुँचने के लिए हमारे, पास उपयुक्त साधन नहीं है । वर्तमान प्रमाण – राशि, हम लोगों को उस समय के उन्नत शिखर तक पहुँचाने मे असमर्थ है । उन्होंने यह भी कहा कि वेदों के समय को कम-से-कम 1200 ई. पू. या 1500 ई. पू. के बाद का कथमपि स्वीकार नहीं किया जा सकता ।यह कथन उस वेद विद्यार्थी का है जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन वेदों के अध्ययन में ही व्यतीत कर दिया था ।
याकोबी - प्रो. याकोबी का आधार भी ज्योतिष शस्त्र ही है । याकोबी ने पता लगाया कि ध्रुव तारे की जिस तेजस्वी स्थिति की उपमा कल्पसूत्र के विवाह सम्बन्धी प्रकरण का वाक्य ध्रुव इव स्थिरा भव में दी गई है वह स्थिति लगभग 2700 ई. पू. की है । इस आधार पर कल्प सूत्रों का समय 2700 ई. पू. का निश्चित किया जा सकता है और तदनुसार याकोबी ने वेदों का रचनाकाल 4500 से 2500 ई. पू. का माना है ।
बालगंगाधर तिलक - तिलक जी ने ज्योतिष के आधार पर वेद की रचना का सर्वप्राचीन काल ई. पू. ६००० से ४००० ई.पू. माना है । उन्होंने यह तिथि विभिन्न नक्षत्रों के वसन्त-सम्पात के आधार पर निश्चित की है तथा वेदकाल को चार भागों में विभक्त किया हैः-

(क) अदिति- काल- ६००० ई.पू. से ४००० ई.पू.। इस काल में निविद् मन्त्रों की रचना हुई ।

(ख) मृगशिरा-काल- ४००० से २५०० ई.पू.। ऋग्वेद के अधिकांश मन्त्र इसी युग में रचे गये ।

(ग) कृत्तिका-काल- २५०० ई.पू. से १५०० ई.पू.। चारों वेद-संहिताओं का संकलन और तैत्तिरीय संहिता तथा कुछ ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना इसी युग में हुई । मन्त्रों की रचना भले ही ६००० ई.पू. में प्रारम्भ हो गई थी, किन्तु यज्ञों की दृष्टि से उनका परिष्कार और संग्रह इसी काल में हुआ। वेदाङ्ग ज्योतिष की रचना भी इसी युग में हुई, क्योंकि इसमें सूर्य और चन्द्रमा के श्रविष्ठा के आदि में उत्तर की ओर घूम जाने का वर्णन है, जो गणना के अनुसार १४०० ई.पू. की घटना है ।

(घ) अन्तिम काल- १४०० ई.पू. से ५०० ई.पू. । श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों तथा विभिन्न दर्शन-सूत्रों की रचना का यही काल है ।

        अन्त में तिलक ने एक सुझाव दिया कि यदि वेद का रचनाकाल 4000 ई. पू. मान लिया जाये तो भारतीय और पाश्चात्य मतों का समन्वय हो जायेगा ।

विन्टरनित्ट्ज - वैदिक काल २५०० ई.पू. से ५०० ई.पू. तक माना जा सकता है । पं. दीनानाथ शास्त्री चुलेट ने भी ज्योतिष के आधार पर वेद का रचना-काल आज से तीन लाख वर्ष प्राचीन माना है।

  • संहिता साहित्य
वेद का स्वरूप

'वेद' शब्द 'विद्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय लगने पर निष्पन्न हआ है, जिसका अर्थ है पवित्र ज्ञान । वेद शब्द का प्रयोग मन्त्र तथा ब्राह्मण के लिए प्रयुक्त किया जाता है । आपस्तम्ब ने अपने यज्ञ परिभाषा में वेद का लक्षण दिया है- मन्त्र ब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् (आप० परिभाषा ३१)। मननात् मन्त्राः । जिनके द्वारा यज्ञ यागों का अनुष्ठान किया जाता है तथा उनमें उल्लिखित देवताओं का स्तुतिवधान किया जाता है उन्हें मन्त्र कहते हैं । ब्राह्मण का अभिप्राय ग्रन्थ विशेष है । ब्रह्मन् के विविध अर्थों में से एक अर्थ है यज्ञ । बृहू वर्धने धातु से निष्पन्न इस शब्द का अर्थ है वर्धन, विस्तार, वितान या यज्ञ । (ब्राह्मण ग्रन्थों की विशेष जानकारी उस प्रकरण में यथा स्थान की जायेगी)

वेद शब्द स्वर की दृष्टि से दो रूपों में प्राप्त होता है प्रथम आद्युदात्त और दूसरा अन्तोदात्त । आद्युदात्त वेद शब्द ज्ञानार्थक है, जबकि अन्तोदात्त 'वेद' शब्द का अर्थ है कुशमुष्टि । पाणिनि के  गणपाठ में यह वृषादिगण तथा उञ्छादिगणों में प्राप्त होता है । 'विद्' धातु लाभ, सत्ता, ज्ञान और विचारणा अर्थों में पृथक्-पृथक् वर्णित है। इसलिए 'वेद' का निर्वचन विद्वानों ने सभी दृष्टियों से किया है –

ऋक्प्रातिशाख्य के अन्तर्गत विष्णुमित्र की 'वर्गद्वयवृत्ति' से स्पष्ट है - 'विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते एभिर्धर्मादि पुरुषार्थाः इति वेदाः।' तीनों धात्वर्थ इसमें समाविष्ट हो गये हैं । सायणाचार्य ने कहा है - इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण का अलौकिक उपाय जो ग्रन्थ बतलाए, वह वेद है इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः।

जिसका ज्ञान न तो प्रत्यक्ष विधि से सम्भव है और न ही अनुमान से उसका ज्ञान वेद ही करा सकता है -

            प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते ।

            एनं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता ।।'


        वेद को श्रुति' त्रयी', छन्दस्', 'निगम', 'आम्नाय' और स्वाध्याय' नामों से भी अभिहित किया जाता है । गुरुमख से सुनकर प्राप्त होने के कारण यह 'श्रुति है । यास्क ने निगम' का अर्थ अर्थयक्त बताया है । निगम नाम वेदों की गम्भीर अर्थवत्ता पर बल देता है । रचना-वैविध्य के कारण त्रयी नाम रूढ़ हुआ । वेद ऋक्, यजुष् और सामन् अर्थात् पद्य, गद्य और गीति हैं । आम्नाय समाम्नाय प्रसिद्धि वेद के पर्याय में हैं । जिन मन्त्रों में अर्थवशात् पादों की व्यवस्था है उन छन्दोबद्ध मन्त्रों क नाम ऋचा या ऋक् है – तेषामृग् यत्रार्थवशेनपादव्यवस्था । इसलिए वेद को छन्द भी कहते हैं । आगे चलकर 'छन्द' शब्द सामवेदीय मन्त्रों के विशिष्ट अर्थ में भी दिखलाई देता है । स्वाध्याय' नाम वेदों के प्रतिदिन भलीभाँति अध्ययन किये जाने के कारण रूढ़ हुआ ।

ऋग्वेद

        चार वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन है । यह विभिन्न देवताओं के स्तुतिपरक मन्त्रों का संकलन है । जिसके द्वारा देवता की स्तुति की जाए, उसे ऋक् कहते है। ऋच्यते स्तूयते यया इति ऋक् । इसलिए ऐसी ऋचाओं के संग्रह का नाम है ऋग्वेद । ऋग्वेद का ऋत्विक- होता है जो कि देवताओं का आह्वान करता है ।  ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्नि है तथा अन्तिम सूक्त संज्ञान सूक्त है ।

(क) शाखाएं – भाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार 21 शाखाएं हैं- एकविंशतिधावाहवृच्यम्, किन्तु चरणव्यूह के कथनानुसार ये 5 शाखाएं ही उपलब्ध हैं  - 1. शाकल 2. बाष्कल 3. आश्वलायन 4. शांखायन 5. माण्डूकायन

(ख) ब्राह्मण – 1. ऐतरेय ब्राह्मण        2. शांखायन या कौषीतकी ब्राह्मण

(ग) आरण्यक – 1. ऐतरेयारण्यक       2. शांखायनारण्यक

(घ) उपनिषद – 1. ऐतरेयोपनिषद     2. कौषीतकी उपनिषद्        3. बाष्कलोपनिषद्

(ङ) कल्प सूत्र –
        1.  श्रोतसूत्र -  1. आश्वलायन           2. कौषीतकी (शांखायन)
        2.  गृहसूत्र -    1. आश्वलायन           2. शांखायन (कौषीतकी)     3. शाम्बव्य
        3.  शुल्वसूत्र- कोई नहीं
        4.  धर्म सूत्र- वशिष्ठ धर्म सूत्र

(च) शिक्षाग्रन्थ/प्रातिशाख्य – 1. पाणिनीय शिक्षा    2. ऋक्प्रातिशाख्य

(छ) उपवेद- आयुर्वेद

ऋग्वेद के दो प्रकार के विभाग है-

1 अष्टक क्रम- ऋग्वेद 8 अष्टकों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक अष्टक में 8 अध्याय हैं। इस प्रकार 64 अध्यायों में पूरा ग्रन्थ विभक्त है । प्रत्येक अध्याय के अवान्तर विभागों का नाम वर्ग है । वर्गों की संख्या -2006 है ।

2.मण्डल क्रम- यह विभाग ही अधिक प्रचलित है और महत्वपूर्ण है । ऋग्वेद 10 मण्डलों में विभक्त हैं । इसीलिए ऋग्वेद को दशतयी भी कहते हैं । प्रत्येक मण्डल अनुवाकों में विभक्त है, अनुवाकों की संख्या है – 85 । सूक्त – 1017 । कहीं कहीं 1028 सूक्तों का वर्णन है । सूक्तों की मण्डलानुसार व्यवस्था इस प्रकार है – 191, 43, 62, 58, 87, 75, 104, 92, 114, 191 । इसके अतिरिक्त 11 सूक्त बालखिल्य के नाम से विख्यात हैं । खिलों का स्थान अष्टम मण्डल के बीच में सूक्त 49 से 56 तक है  तथा मन्त्रों की संख्या 80 है । ऋग्वेद में ऋचाओं की संख्या – 10580 ¼ है । ऋचाओं के शब्दों की संख्या – 153826 है तथा शब्दों के अक्षरों की संख्या – 432000 है ।

मण्डलों के ऋषियों के नाम –

          प्रथम मण्डल            -        मधुच्छन्दा (इस मण्डल के     ऋषि शतर्चिनः                                             (सौ ऋच वाले)कहे जाते हैं ।

          द्वितीय मण्डल          -        गृत्समद

          तृतीय मण्डल           -        विश्वामित्र

          चतुर्थ मण्डल            -        वामदेव

          पंचम मण्डल            -        अत्रि

          षष्ठ मण्डल              -        भरद्वाज

          सप्तम मण्डल            -        वसिष्ठ

          अष्टम मण्डल            -        कण्व तथा अङ्गिरा वंश के

         नवम मण्डल            -      इस मण्डल में समग्र मंत्र सोम देवता के विषय में हैं। इसे पवमान मण्डल भी कहते हैं ।

          दशम मण्डल            -        क्षुद्रसूक्त तथा महासूक्त (नासदीय सूक्त से पहले के सूक्त महासूक्त तथा पीछे के सूक्त क्षुद्रसूक्त माने जाते हैं ।

        इस प्रकार प्रथम मण्डल तथा दशम मण्डल अन्य मण्डलों की अपेक्षा अर्वाचीन है । द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक को वंशमण्डल कहते है क्योंकि यह अत्यन्त प्राचीन अंश है ।

यजुर्वेद

         यजुर्वेद का प्रतिपाद्य विषय याज्ञिक कर्मकाण्ड है तथा इसका ऋत्विक् अध्वर्यु है । इसके देवता – वायु, आचार्य वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन हैं । यास्क ने कहा है - यजुष् शब्द यज् धातु से बना है - यजुर्यजतेः।   यजुर्वेद का अर्थ है यजुषां वेदः । यजुष् का अर्थ है- इज्यतेऽनेनेति यजुः अर्थात् जिन मन्त्रों से यज्ञ यागादि किए जाते हैं‘अनियताक्षरावसानो यजुः’ अर्थात् जिसमें अक्षरों की संख्या नियत न हो । ‘’गद्यात्मको यजुः’ अर्थात् यजुष् गद्यात्मक मन्त्र हैं,  ‘शेषे यजुर्शब्दः’ का भी तात्पर्य यही है कि ऋक् और साम से भिन्न गद्यात्मक मन्त्रों का अभिधान यजुष् है । इसे अध्वर्युवेद भी कहा जाता है ।

        सम्प्रति यजुर्वेद की दो प्रमुख शाखाएँ हैं कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद । कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म सम्प्रदायान्तर्गत है और शुक्ल यजुर्वेद आदित्य सम्प्रदाय से सम्बद्ध ।

1. शुक्ल यजुर्वेद - शुक्ल यजुर्वेद की मन्त्र संहिता ‘वाजसनेयि संहिता’ के नाम से विख्यात है । शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं - माध्यन्दिन या वाजसनेयि और काण्व । वाजसनेय याज्ञवल्क्य का ही पितृ परम्परागत नामान्तर है । इनके पिता का नाम वाजसनि था । पुराणों में कहीं कहीं याज्ञवल्क्य के पिता का नाम देवरात है ।

माध्यन्दिन संहिता की विषय-वस्तु -

        इसमें 40 अध्याय, 1975 मन्त्र है, जिनमें 15 खिल माने जाते हैं । विषय-वस्तु का विवरण इस प्रकार है -

       प्रथम दो अध्याय दर्शपूर्णमास इष्टियों के मन्त्र, तीसरे अध्याय में अग्न्याधान के उपस्थान और चातुर्मास्य से सम्ब्द्ध मन्त्र । चौथे से आठवें अध्याय तक अग्निष्टोम के मन्त्र । नव तथा दस अध्यायों में वाजपेय और राजसूय यागों के मन्त्र । ग्यारह-बारह अध्यायों में उरवा-सम्भरण और धारण के मन्त्र । तेरह से अट्ठारवें अध्याय तक अग्निचयन से सम्बद्ध मन्त्र हैं । यज्ञ-वेदी की रचना विशिष्ट स्थानों से समानीत 10800 ईंटों से होती है । 16 वें अध्याय में शतरुद्रिय होम का विवरण है । वेदपाठियों में इसे रुद्राध्याय या संक्षेप में रुद्री कहा जाता है - जिसकी लोक में भी अनेक अरिष्टों के निवारणार्थ मान्यता है। 18वें अध्याय में वसोर्धारा विषयक मन्त्र हैं । वसोर्धारा का अभिप्राय घृत की वह अविच्छिन्न धारा है, जिससे यजमान होम करता है । इसमें उदुम्बर के स्रुवा का प्रयोग किया जाता ह । उन्नीस से इक्कीस अध्यायों में सौत्रामणी संज्ञक याग से सम्बद्ध मन्त्र है । सौत्रामणी याग का अनुष्ठान राज्यच्युत राजा अपने राज्य को पुनः पाने के लिए करता है । उव्वट-भाष्य के अनुसार इन्द्र की चिकित्सा के लिए अश्विनदेवयुग्म और सरस्वती ने इस याग का साक्षात्कार किया था । यही एक ऐसा श्रौतयाग है, जिसमें सुरा-पान विहित है-सौत्रामण्यां सुरां पिबेत् । बाइस से उनतीस अध्याय तक अश्वमेध याग के विभिन्न कृत्यों के मन्त्र संकलित हैं । इस याग का अनुष्ठान वे सम्राट् करते रहे हैं, जो सार्वभौम साम्राज्य की उपलब्धि के लिए महत्वाकांक्षी रहे हैं । तीसवें अध्याय में पुरुषमेध के मन्त्र हैं । इकतीसवें अध्याय (16 मन्त्रों तक) में सुप्रसिद्ध पुरुषसूक्त है । इस अध्याय के अन्तिम छह मन्त्र आदित्योपस्थानपरक हैं । बत्तीस और तैंतीस अध्यायों में सर्वमेधपरक मन्त्र और पुरोरुक् हैं । चौंतीस अध्याय में अपनी उदात्त भावनाओं और मनोविज्ञान के कारण सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय में विख्यात शिवसंकल्प सूक्त संगृहीत है । पैंतीसवें अध्याय में पितृमेध के मन्त्र हैं । छत्तीसवें से उनतीसवें अध्याय में प्रवर्ग्येष्टि से सम्बद्ध मन्त्र हैं । चालीसवाँ अध्याय ईशावास्योपनिषद् के रूप में प्रसिद्ध है ।

शाखाएं- 1. माध्यन्दिन या वाजसनेयिशाखा        2. काण्व शाखा

(ख) ब्राह्मण  1. शतपथ ब्राह्मण

(ग) आरण्यक- 1. बृहदारण्यक

(घ) उपनिषद्- 1. ईशावस्योपनिषद्                  2. बृहदारण्यकोपनिषद्

(ङ) कल्पसूत्र

        1. श्रौत सूत्र- कात्यायन श्रौतसूत्र

        2. गृहसूत्र- पारस्कर गृहसूत्र

        3. शुल्वसूत्र  कात्यायन, बौद्धायन, आपस्तम्ब, मानव, वराह, हिरण्यकेशीयमैत्रायणी

        4. धर्मसूत्र  हारीत, शंख, विष्णु

(च) शिक्षाग्रन्थ/प्रातिशाख्य  1. वाजसनेयि प्रातिशाख्य, 2. तैत्तिरीय प्रतिशाख्य    3. याज्ञवल्क्य शिक्षा

(छ) उपवेद - धनुर्वेद

कृष्ण यजुर्वेद -

    (क) शाखाएं –    1. तैत्तिरीय          2. मैत्रायणी       3. कठ          4. कपिष्ठल-कठ ।

    1.    तैत्तिरीय संहिता में 7 काण्ड, 44 प्रपाठक तथा 631 अनुवाक हैं ।

    2.    मैत्रायणी संहिता में 4 काण्ड, 54 प्रपाठक तथा कुल 2144 मन्त्र हैं ।

    3.    काठक संहिता के विषय में चरणव्यूह में 12 कठों का उल्लेख है । काठक संहिता में पाँच खण्ड हैं- इठिमिका, मध्यमिका, ओरिमिका, याज्यानुवाक्या तथा अश्वमेधाद्यनुवचन । प्रथम चार खण्डों में 40 स्थानक हैं । पञ्चम खण्ड अनुवचनों में विभक्त है - जिसमें 13 अनुवचन हैं । सम्पूर्ण संहिता में 843 अनुवाक तथा 3091 मन्त्र हैं । 

4.    कपिष्ठल-कठ संहिता का विभाजन ऋग्वेद के सदृश अष्टकों और अध्यायों में है

    (ख) ब्राह्मण –     तैत्तिरीय ब्राह्मण

    (ग) आरण्यक –    1. तैत्तिरीयारण्यक आरण्यक        2. मैत्रायणी आरण्यक    3. बृहदारण्यक

   (घ) उपनिषद् –    1. कठोपनिषद्    2. तैत्तिरीयोपनिषद्  3. श्वेताश्वतरोपनिषद्                                                    4.  मैत्रायणीयोपनिषद्    5. महानारायणोपनिषद्

   (ङ) कल्पसूत्र

                  1. श्रौतसूत्र  बौधायन, वाधूलमानव, आपस्तम्ब,काठक, वाराह, सत्याषाढ़, वैखानस,                         भारद्वाज, कठ, मैत्री ।

                  2. गृहसूत्र  बौधायनमानव, आपस्तम्ब, काठक, अग्निर्वेश्य, हिरण्यकेशीय, वाराह,                           चारायणीयसत्याषाढ़, वैखानस, भारद्वाज, कठ, वाधूल

                   3. शुल्वसूत्र         मैत्रायणी, मानव, वराह, वाधूल

                   4. धर्मसूत्र  विशिष्ठ, बौधायन, आपस्तम्ब, वैखानस, हिरण्यकेशी

    (च) शिक्षाग्रन्थ/प्रातिशाख्य –    वाशिष्ठौ शिक्षा, माण्डव्य शिक्षा, भारद्वाज शिक्षामाध्यन्दिन शिक्षा,                                            अवसान निर्णय शिक्षा ।

    

सामवेद

          सामवेद के आचार्य जैमिनी हैं । इसके पदपाठकर्ता - गार्ग्य हैं । साम का अर्थ है गान । ऋग्वेद के मन्त्र जब विशिष्ट गान पद्धति से गाए जाते हैं तो उनको साम कहा जाता है । जैसा कि जैमिनि का सूत्र है - गीतिषु सामाख्या । वस्तुतः ऋग्वेद की ऋचाओं का लयबद्ध गान ही साम है। साम शब्द की एक निरुक्ति बृहदारण्यक उपनिषद् में दी गई है – ‘सा च अमश्चेति तत्साम्नः सामत्वम्’ ‘सा’ शब्द का अर्थ है ऋक् और ‘अम्’ शब्द का अर्थ है गान्धार आदि स्वर । अतः साम  शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ हुआ ऋक् के साथ संबद्ध स्वर-प्रधान गायन तया सह संबद्धः अमो नाम स्वरः यत्र वर्तते तत्साम । साम संहिता का संकलन उद्गाता नामक ऋत्विक् के लिये किया गया है तथा यह उद्गाता देवता के स्तुतिपरक मन्त्रों को ही आवश्यकतानुसार विविध स्वरों में गाता है । सामवेद को उद्गातृवेद भी कहा जाता है । 

साम का अभिप्राय -

    साम ऋगाश्रित होता है । साम शब्द का निर्वचन भी यही प्रदर्शित करता है - सा च अमश्च तत् साम्नः सामत्वम् । सा का अर्थ है ऋक् उससे सम्बद्ध अम् षड्जादि स्वरों का उपलक्षक है ।

        सामवेद के दो भाग हैं – 1. पूर्वार्चिक तथा 2. उत्तरार्चिक । यहाँ आर्चिक का अर्थ है ऋक् समूह । पूर्वार्चिक में 6 प्रपाठक हैं । प्रथम प्रपाठक को आग्नेयकाण्ड या अग्निपर्व कहते है, द्वितीय से चतुर्थ प्रपाठक तक को ऐन्द्रपर्व कहते है, पञ्चम प्रपाठक को पवमानपर्व कहते हैं और षष्ठ प्रपाठक को आरण्यकपर्व कहते हैं । पूर्वार्चिक के मन्त्रों की संख्या 650  है ।

        उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक हैं । पहले 5 प्रपाठकों में दो-दो भाग हैं जो ‘प्रपाठकार्ध’ कहे जाते हैं, परन्तु अन्तिम चार प्रपाठकों में तीन-तीन अर्ध हैं । उत्तरार्चिक के समग्र मन्त्रों की संख्या 1225 है । अतः दोनों आर्चिकों की सम्मिलित मन्त्र संख्या 1875 है । पूर्वार्चिक के 267 मन्त्र उत्तरार्चिक में पुनरुल्लिखित की गई हैं । ऋग्वेद की 1504 ऋचायें ही सामवेद में उद्धृत हैं, 99 ऋचायें नवीन हैं ।

    सामगान – सामगान 4 प्रकार के होते हैं 1. ग्राम (गेय गान, जिसे प्रकृति गान तथा ‘वेय गान’भी कहते हैं) 2. आरण्यक गान 3, ऊहगान 4. ऊह्य गान (रहस्य गान) । भारतीय संगीत शास्त्र का मूल इन्हीं साम-गायनों पर आश्रित है ।

साम-गान की पाँच (अथवा सात) भक्तियाँ -

    1.   प्रस्ताव  यह मन्त्र का आरम्भिक भाग है जो हुँ से प्रारम्भ होता है । इसे प्रस्तोता नामक ऋत्विज् गाता है ।

    2.   उद्गीथ  इसे साम का प्रधान ऋत्विज् उद्गाता गाता है । इसके आरम्भ में ऊँ लगाया जाता है ।

    3.   प्रतिहार  इसका अर्थ है दो को जोड़ने वाला । इसे प्रतिहर्ता  नामक ऋत्विज् गाता है।

    4.   उपद्रव  जिसे उद्गाता गाता है 

   5. निधन  जिसमें मन्त्र के अन्तिम दो पदांश या ऊँ रहता है । इसका गायन प्रस्तोता, उद्गाता, प्रतिहर्ता एक साथ मिलकर करते हैं ।

   हिङ्कार और ओङ्कार को भी सम्मिलित करने पर भक्तियों की संख्या सात हो जाती है ।

        नारदीय शिक्षा में सामगान के मान के रूप में वेणु (वंशी) के मध्यम स्वर को आधार माना गया है । नारद शिक्षा के अनुसार साम के स्वरमण्डल इतने हैं 7 स्वर, 3 ग्राम, 21 मूर्छना तथा 49 तान । इन सात की तुलना स्वरों की तुलना लौकिक स्वर (वेणु स्वर)  , , रि, /, नि, प से की गई हैः-

                  साम                                वेणु स्वर

              1.   प्रथम                               मध्यम (म)

2.   द्वितीय                             गान्धार (ग)

3.   तृतीय                              ऋषभ (रे)

4.   चतुर्थ                               षड्ज (सा)

5.   पञ्चम                               निषाद (नि)

6.   षष्ठ                                  धैवत (ध)

7.   सप्तम                               पञ्चम (प)

    सामगानों में ये ही 7 तक के अंक तत्तत् स्वरों के स्वरूप को सूचित करने के लिए लिखे जाते हैं ।

सामविकार - सामवेद में सामविकार भी पाए जाते हैं जिन्हें गान करते समय कुछ घटाया-बढ़ाया भी जाता है । ये 6 प्रकार के होते हैं

1.   विकार                         2. विश्लेषण

     3. विकर्षण                       4. अभ्यास

     5. विराम                         6. स्तोभ

(क)  शाखाएं  पुराणों के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएं थी, जिसकी पुष्टि पतञ्जलि के ‘सहस्रवर्त्मा सामवेदः’ वाक्य से होती है । वर्तमान में केवल 3 ही शाखाएँ मिलती हैं -

    1. कौथुमीय   2. राणायनीय  3. जैमिनीय ।

(ख)        ब्राह्मण  1. पंचविंश ब्राह्मण  2. षडविंश ब्राह्मण 3. छान्दोग्य ब्राह्मण 4. सामविधान ब्राह्मण  5. आर्षेय ब्राह्मण 6. देवताध्याय ब्राह्मण 7. संहितोपनिषद् ब्राह्मण  8. वंश ब्राह्मण     9. जैमिनीय ब्राह्मण

(ग)  आरण्यक – तवल्कार

(घ)  उपनिषद्  1. केनोपनिषद्      2. छान्दोग्योपनिषद्

(ङ)  कल्पसूत्र

1.   श्रौतसूत्र  1. लाट्यायन  2. द्राह्यायण   3. मशकसूत्र (आर्षेय)  4. जैमिनीय 5. क्षुद्र     कल्प सूत्र  6. निदान श्रौतसूत्र  7. उपनिषद श्रौत सूत्र

2.   गृहसूत्र  1. खादिर  2. गोभिल     3. गौतम       4. जैमिनीय 5. कौथुम  6.     द्राह्यायण  7. छांदोग्य  8. छंदोग्य

3.   शुल्वसूत्र  कोई नहीं

4.   धर्मसूत्र  गौतम धर्मसूत्र

(च) शिक्षाग्रन्थ/प्रातिशाख्य – 1. नारदीय शिक्षा2. ऋक्तन्त्र शिक्षा,  3. पुष्यसूत्र प्रातिशाख्य ।

(छ) उपवेद - गान्धर्ववेद

अथर्ववेद

        अथर्व शब्द की व्याख्या तथा निर्वचन निरुक्त तथा गोपथ ब्राह्मण में मिलता है । थर्व धातु कौटिल्य तथा हिंसावाची है। अतः अथर्व शब्द का अर्थ है अकुटिलता तथा अहिंसा वृत्ति से मन की स्थिरता प्राप्त करने वाला व्यक्ति । अथर्वण तथा आङ्गिरस ऋषियों के द्वारा वेद के अनेक मन्त्र इष्ट हुए है, इसलिए इस वेद को अथर्वाङ्गिरस वेद भी कहते हैं । इसे ब्रह्मवेद, अंगिरोवेद, अथर्वाङ्गिरस भिषग्वेद, क्षत्रवेद के नाम से भी जाना जाता है । इस वेद के देवता – सोम तथा आचार्य – सुमन्तु है । यज्ञ के पूर्ण निष्पादन के लिए जिन चार ऋत्विजों की आवश्यकता होती है उनमें से अन्यतम् ऋत्विज् – ब्रह्मा का साक्षात् सम्बन्ध इसी वेद से है । ब्रह्मा नामक ऋत्विज् यज्ञ का अध्यक्ष होता है । ब्रह्मा सम्पूर्ण यज्ञ का निरीक्षण करता है । वह तीनों वेदों का ज्ञाता होता है लेकिन उसका प्रधान वेद अथर्ववेद ही होता है । गोपथ ब्राह्मण का कथन है कि तीनों वेदों के द्वारा यज्ञ के दूसरे पक्ष का संस्कार होता है । ब्रह्मा मन के द्वारा यज्ञ के दूसरे पक्ष का संस्कार करता है ।

          अथर्ववेद में 20 काण्ड, 731 सूक्त और 5987 मन्त्र हैं । संहिता के प्रारम्भिक 13 काण्डों का विषय जरण, मरण, उच्चाटनादि से सम्बन्धित है । 12वें काण्ड के आरम्भ में पृथ्वी सूक्त  है । 13वाँ काण्ड अध्यात्म-विषयक है । 14वें काण्ड में विवाह की प्रधानता है । 15वां काण्ड व्रात्य काण्ड है जिसमें व्रात्यों के यज्ञ सम्पादन का अध्यात्मिक वर्णन है । 16वां काण्ड दुःस्वप्ननाशक मन्त्रों का संग्रह हैं। 17वें काण्ड में केवल एक ही सूक्त 30 मन्त्रों का है जिसमें अभ्युदय के लिये भव्य प्रार्थना की गई है । 18वां काण्ड श्राद्ध-काण्ड है । 19वें काण्ड में भैषज्य, राष्ट्रवृद्धि तथा अध्यात्म-विषयक मन्त्र हैं । 20वें काण्ड में लगभग 1000 मन्त्र है जो विशेष रूप से सोमयाग  से सम्बन्धित हैं तथा ये मन्त्र ऋग्वेद से लिये गये हैं । अन्तिम दोनों काण्ड खिल काण्ड के नाम से जाने जाते है ।

विषय विवेचन – 

    अथर्ववेद में विषयों का तीन प्रकार का विभाजन प्राप्त होता है –

अध्यात्म  2. अधिभूत   3. अधिदैव । अथर्ववेद की विषय-वस्तु में कुछ सूक्त निम्नलिखित हैं –

भैषज्यानि सूक्त – इसमें रोग, रोगों के लक्षण, रोगों के निदान, विविध जड़ी-बूटियों का विवेचन है।

 आयुष्याणि सूक्त – इन सूक्तों का विशेष प्रयोग पारिवारिक उत्सवों के अवसर पर होता था जैसे –उपनयन संस्कार, गोदान तथा बालक का मुण्डन । दीर्घ आयु के लिए प्रार्थना करने वाले मन्त्रों का सम्बन्ध इस विभाग से है ।

3.   पौष्टिकानि – इस  विभाग में हल जोतने, बीज बोने, अनाज उत्पन्न करने, घर बनाने, विदेश में व्यापार करने के लिए जाने वाले वणिक् के लिए नाना प्रकार के आशीर्वाद की प्रार्थना की गई है  । इसमें वृष्टि सूक्त बहुत ही रमणीय है ।

4.   प्रायश्चित्तानि सूक्त -   इन सूक्तों में प्रायश्चित का विधान है , जैसे- ज्ञात और अज्ञात अपराध हेतु, धर्मविरूद्ध विवाह हेतु, ऋण का प्रतिशोध न करने हेतु।

5.   स्त्रीकर्माणि सूक्त – इसमें विवाह एवं प्रेम का निर्देश करने वाले मन्त्र है । सपत्नी को वश मे करने के लिये तथा अपने पति के स्नेह का सम्पादन करने के लिये अनेक जादू-टोनों का वर्णन है । अनेक आभिचारिक मन्त्र इस सूक्त में है ।

6  राजकर्माणि सूक्त – राजाओं से संबद्ध अनेक सूक्त है । क्षत्रवेद नाम का यही कारण है ।

7. भूमिसूक्त – इस सूक्त में आथर्वण ऋषि ने 63 मन्त्रों में मातृरूपिणी भूमि की समग्र पार्थिव पदार्थों की जननी तथा पोषिका के रूप में महिमा उद्घोषित की है तथा प्रजा को समस्त बुराईयों, अनर्थों तथा क्लेशों से बचाने और सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना की है ।

8. ब्रह्मण्यानि सूक्त – इनमें जगत् के परमतत्त्वभूत परमात्मा तथा परब्रह्म के स्वरूप तथा कार्य का विवेचन है । इन सूक्तों में दर्शन के गम्भीरतम तथ्यों की विशद समीक्षा प्रस्तुत की गई है ।

कुन्ताप सूक्त – ये 20वें काण्ड में पाए जाते हैं । इनमें यज्ञ सम्बन्धी दान स्तुतियाँ, राजकुमारों और यजमानों की उदारता की प्रशंसा और अनेक पहेलियाँ और उसके समाधान हैं ।

(क) शाखाएँ - भाष्यकार पतञ्जलि ने नवधाऽऽर्थवणो वेदः कहकर इस वेद की 9 शाखाओं का उल्लेख किया है -

    1. पिप्लाद  2. स्तौद या तौद  3. मौद  4. शौनक  5. जाजल  6. ब्रह्मवेद  7. देवदर्श  8. जलद  9. चारण वैद्य ।

(क) ब्राह्मण - गोपथ ब्राह्मण

(ग) आरण्यक - कोई नहीं

(घ) उपनिषद् – 1. प्रश्नोपनिषद्  2. माण्डूक्योपनिषद्  3. मुण्डकोपनिषद्

(ङ)   कल्पसूत्र –

            1. श्रौतसूत्र –  वैतान श्रौतसूत्र

            2. गृहसूत्र – 1. कौशिक गृहसूत्र

            3. शुल्वसूत्र – कोई नहीं

            4. धर्मसूत्र – कोई नहीं

(च) शिक्षाग्रन्थ/प्रातिशाख्य – 1. माण्डूकीशिक्षा  2. शौनकीय प्रातिशाख्य  3. अथर्ववेद प्रातिशाख्य

(छ) उपवेद - सर्प, पिशाच, असुर, इतिहास, पुराण, स्थापत्य

देवता -

        देव शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य यास्क  ने लिखा है – देवो दानाद्वादीपनाद्वाद्योतनाद्वा दीपनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा। यो देवः, सा देवता । अर्थात् पदार्थों को देने वाले, प्रकाशित होने वाले अथवा प्रकाशित करने वाले को देवता कहा जाता है । ऋग्वेद में देवताओं की कुल संख्या 33 है । ये तीन भागों में विभक्त हैं – 11 पृथ्वीस्थानीय, 11 अन्तरिक्षस्थानीय तथा 11 द्युस्थानीय । शतपथ ब्राह्मण में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य, 1 इन्द्र तथा 1 प्रजापति को मिलाकर 33 देवों का उल्लेख मिलता है । प्रायः मन्त्रों में निर्दिष्ट देवता ही उनके प्रधान देवता समझे जाते हैं । जिन मन्त्रों में देवता का स्पष्ट निर्देश नहीं रहता उसका निर्णय करने का उपाय भी यास्क ने बतलाया है । जब वह मन्त्र किसी यज्ञ में प्रयुक्त हो रहा हो या उसके किसी अंगविशेष में प्रयुक्त हो तब यह पता लगाना चाहिए कि यह यज्ञ या यज्ञाङ्ग किस देवता का है – वही उस मन्त्र का भी देवता है । यज्ञ से सम्बन्ध नहीं होने पर ऐसे मन्त्रों में याज्ञिकों के मत से प्रजापति प्रजापति तथा निरुक्तकारों के मत से नराशंस देवता होते हैं ।

प्रमुख देवतओं का परिचय –

1. अग्नि -

        महत्ता की दृष्टि से अग्नि का स्थान इन्द्र के बाद आता है । पृथ्वीस्थानीय इस देवता की स्तुति 200 सूक्तों में की गई है । प्रत्येक मण्डल में अग्नि सूक्त इन्द्र सूक्त के पूर्व आये हैं । इन्द्र जहां जल के उत्पादक हैं, अग्निदेव स्वयं अग्निस्वरूप ही है । इसीलिए इन्द्र को अग्नि का जुड़वा भाई  कहा जाता है । मित्र, वरुण, द्यौः, विष्णु इत्यादि देवताओं के साथ भी इनका तादात्म्य दिखलाया गया है ।

अग्नि का शरीर मुख्यतः यज्ञाग्नि से सम्बद्ध है – घृत क पृष्ठभाग, घृत की ही मुख, रक्त जिह्वा, घृत के केश, ज्वालामय केश, चमकीले दाँत, तीक्ष्ण जबड़े, तीन सिर, सहस्र नेत्र और श्रृंङ्ग – ये उनके अवयव संस्कार हैं । अग्नि का भोजन लकड़ी तथा घृत है, इन्हें तीन बार भोजन कराया जाता है ।

अग्नि देवताओं का मुख है । अग्नि की जिह्वा द्वारा देवता हवियों का उपभोग करते हैं । सोमपान के लिए इन्हें अन्य देवताओं के साथ बुलया जाता है  - प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि ।। इसकी लपटें चम्मच हैं । अग्नि को पुरोहित है, यज्ञ का देव है, ऋत्विक् है, नेता है, इसे होता भी कहते हैं ।

अग्नि की त्रिविध उत्पत्ति का उल्लेख है । प्रथम जन्म यज्ञ में दो अरणियों से होता है , जो अग्नि के माता-पिता कहे गये हैं और जिन्हें ये उत्पन्न होते ही निगल जाते हैं । इनकी दस कुमारी माताएं अंगुलियों की प्रतीक हैं जिनकी सहायता से अरणि-मंथन होने पर ये उत्पन्न होते है । अरणियों के घर्षण में बल की आवश्यकता होती है, अतः इसे बल का पुत्र भी कहा गया है – त्वामाहुः सहसस्पुत्रमङ्गिरः, ऊर्जोनपात् तथा सहस्रः सूनुः । प्रतिदिन जन्म होने से इन्हें युवा और यज्ञियों में प्रथम होने के कारण पुरातनतम भी कहा गया है । इनका द्वितीय जन्म जल से होता है । इसलिए इन्हें अपां नपात् कहा गया है । अग्नि का तृतीय जन्म द्युलोक में होता है जहाँ उत्पन्न होते ही ये मातरिश्वा के समक्ष प्रकट हुए हैं । मातरिश्वा अग्नि को पृथ्वी पर देवताओं के वरदान के रूप में लाये । अग्नि का द्युलोकीय रूप सूर्य ही है । निरुक्त में अग्नि के जातवेदस् तथा वैश्वानर ये दो नाम पार्थिव, मध्यस्थानीय तथा द्युस्थानीय अग्नि के अर्थ में निर्दिष्ट हैं । अग्नि के शरीर से अग्नि की पुनः उत्पत्ति होने के कारण इन्हें तनू-नपात् भी कहा गया है । ये एकमात्र देवता है जिन्हें गृहपति कहा गया है । इन्हें उषाकाल में प्रज्वलित होने के कारण उषर्बुध भी कहा गया है ।
2. इन्द्र -
        अन्तरिक्षस्थानीय इस देवता की स्तुति ऋग्वेद के लगभग 250 सूक्तों में है तथा इसके अतिरिक्त 50 सूक्तों में अन्य देवताओं के साथ भी इनकी स्तुति की गई है । द्यौ इनका पिता है तो कहीं देवशिल्पी त्वष्टा को इनका पिता कहा गया है । निष्टिग्री को इनकी माता कहा गया है  । अग्नि और पूषा इन्द्र के भाई हैं । इन्द्राणी पत्नी है । मरुद्गण इनके घनिष्ठ मित्र है, इसलिए इन्हें मरुत्सखा, मरुत्थान आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। वरुण, वायु, सोम, बृहस्पति और विष्णु के साथ भी इनका आवाहन हुआ है । पुरुष सूक्त में इन्द्र की उत्पत्ति विराट् पुरुष के मुख से बतलाई गई है – मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च । इनका वर्ण पिङ्गल है, केश-दाढ़ी उसी रंग के हैं । इन्हें मायावी, शक्र, शचीवान्, शतक्रतु, मघवन्, वसुपति, पुरभिद्, वृत्रहा, सुशिप्र, हिरण्यवर्ण, हिरण्यबाहु,  तथा वज्रबाहुः कहा गया है । इनकी भुजाएँ वज्र के समान दृढ़ है । इनका एकमात्र शस्त्र वज्र है । वज्र का निर्माण त्वष्टा ने किया था । यह वज्र शतपर्व (सौ जोड़ों वाला) तथा सहस्रभृष्टिः (सहस्र नोकों वाला) है। वज्र शब्द से बने हुए विशेषण इन्द्र के लिए प्रयुक्त होते हैं – वज्रहस्त, वज्रबाहु, वज्रभृत । ऋभुओं के द्वारा सजाए अरुण वर्ण के रथ पर ये चलते हैं । यह रथ मन की गति से भी तेज चलता है । इन्द्र का रथ दो हरे रंग के घोड़ों द्वारा खींचा जाता है परन्तु कभी-कभी यह संख्या हजार या ग्यारह सौ तक पहुंच जाती है । सोमपान के कारण इनका उदर विशाल है तथा वृत्र वध के लिए इनके तीन कुल्या सोम पीने का वर्णन है । सोमपान के बाद ही ये अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हैं । सोमपान के अनन्तर इन्द्र की गर्वोक्तियों से परिपूर्ण एक पूरा सूक्त ही है जिसके अन्तिम पाद में कुवित्सोमस्यापामिति का निर्देश है ।
        इन्द्र का प्रमुख आख्यान वृत्र-वध है, इसके अतिरिक्त उषा के रथ का विध्वंस, सूर्य के घोड़ों को रोकना, सोम पर विजय पाना, सरमा की सहायता से पणियों द्वारा रोकी गयी गायों की रक्षा इत्यादि आख्यान भी इन्द्र से जुड़े हैं । इन्द्र का वर्णन सुदास-राजा के रक्षक के रूप में भी है ।
3. सवितृ -
        यह द्युस्थानीय देवता है । ऋग्वेद के 11 सूक्तों में इनका वर्णन है । सविता का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है । इनके नेत्र, हाथ और जीभ सभी स्वर्णिम है । इनका रथ सुवर्ण की आभा वाला है । रथ को दो या अधिक लाल या सफेद घोड़े खींचते हैं । सविता दिन और रात का स्वामी है । प्रदोष तथा प्रत्यूष दोनों से इनका सम्बन्ध है । यह स्वर्ण रूपी भुजाओं को आकाश में व्याप्त करता हुआ उदित होता है । सवितृ उदित होते हुए सूर्य की शक्ति क प्रतिरूप है । सविता का प्रत्येक कार्य प्रसव से सम्बन्धित है। अतः प्रासवीत्, आसुवत्, सवे, साविषत् आदि क्रियाएँ मुख्यरुपेण सविता के लिए प्रयुक्त की गई हैं । पवित्र गायत्री मन्त्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना गया है – यथा ऊँ भूर्भुवः स्वः  तत्सवितुर्वरेण्यं । भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो न प्रचोदयात्।।
4. विष्णु -
        विष्णु द्युस्थानीय देवता है । 5 सूक्तों में विष्णु की स्तुति की गई है । ऋग्वेद में विष्णु द्वारा तीन पगों में ब्रह्माण्ड को नापने के कार्य का वर्णन किया गया है । विष्णु के लिए त्रिविक्रम शब्द का प्रयोग हुआ है। विष्णु को उरुक्रम, उरुगाय भी कहा गया है । पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ इनका वाहन है । विष्णु के चिरत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये गर्भ के रक्षक है । गर्भाधान के निमित्त अन्य देवताओं के साथ इनकी भी स्तुति की जाती है । ये परोपकारी, प्रचुर धन का दान करने वाले, उदार, सबके रक्षक हैं। विष्णु को इन्द्र का छोटा भाई भी कहा गया है । वृत्र के वध के समय विष्णु ने इन्द्र का साथ दिया था तथा वहाँ उनका मरुतों से भी सम्पर्क हुआ। विष्णु शब्द का अर्थ क्रियाशील भी है । विष्णु को परमपद का अधिष्ठाता कहा गया है । उनका परमपद उच्च लोक है । जहाँ मधु का सरोवर है और बड़े सींगों वाली चञ्चल गायें रहती हैं । पुराणों के अनुसार विष्णु लोक को गो-लोक भी कहा गया है ।
5. रुद्र -
        रुद्र अन्तरिक्षस्थानीय देवता है । सम्पूर्ण ऋग्वेद में रुद्र से सम्बद्ध 3 ही सूक्त उपलब्ध होते हैं । रुद्र मध्याह्नकालीन सूर्य के समान चमकता है । वह सोने के आभूषणों को धारण करता है और गले में चमकदार हार को पहनता है । इनका वर्ण भूरा है तथा होंठ बहुत सुन्दर हैं, इसीलिए इनके लिए ऋग्वेद में क्रमशः बभ्रु एवं सुशिप्र विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है । इनके पास विशेष आयुध हैं । शस्त्र के रूप में धनुष तथा बाण धारण करते हैं । साथ ही साथ इन्हें वज्र धारण करने वाला भी माना गया है । इनके हाथों को मृणयाकुः, जलाषः, भेषजः कहा गया है क्योंकि रुद्र को स्वास्थ्य का देवता एवं देवतओं का वैद्य कहा गया है । ऋग्वेद में रुद्र को मरुतों का पिता एवं स्वामी भी कहा गया है ।
6. बृहस्पति -
        यह पृथ्वी स्थानीय देवता है । ऋग्वेद के 11 सूक्तों में बृहस्पति देवता की उपासना स्वतन्त्र रूप से की गई है । इसके अतिरिक्त 2 अन्य सूक्तों में इन्द्र के साथ उपासना की गई है । अग्नि की ही भांति बृहस्पति भी एक पुरोहित हैं, जिन्हें शक्ति का पुत्र एवं अंगिरस भी कहा गया है । अग्नि की ही भांति बृहस्पति के भी तीन स्थान है तथा ये सभी गृहों के पूज्य एवं आवासों के अधिपति अर्थात् सदस्पति कहे जाते है । इन्हें सप्तमुख, सप्तरश्मि, सप्तजिह्व, नीलपृष्ठ, तीक्ष्ण सींगोवाला, शतपंखोवाला कहा गया है । ये स्वयं स्वर्ण के समान दैदीप्यमान है । बृहस्पति इन्द्र के साथ घनिष्ठ रूप से प्रशंसित किए गए हैं । बृहस्पति मनुष्यों को उत्तम वय और सौभाग्य प्रदान करते हैं ।
7. अश्विनौ -
        द्युस्थानीय अश्विन् युगल देवता हैं । अश्विनौ इस द्विवचन में इनका प्रयोग किया जाता है । दो होते हुए भी ये अविभक्त रूप से एक-दूसरे से संयुक्त हैं । इनकी स्तुति 50 सूक्तों में की गई है । ये युवा हैं, प्राचीन हैं, चमकदार हैं और कान्तिमान् हैं । इनके लिए दस्र, नासत्य, हिरण्यवर्तन, निचेतास, माध्वी, मधुयुवा, स्यूमगभास्ति आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है । इनका सम्बन्ध मधु से है । इनके पास मधु से भरा हुआ कोश है । इनका रथ भी मधुमय है । रथ में तीन पहिये लगे है और उसकी गति वायु से भी तेज है । रथ में सुनहरे पंखों वाले घोड़े जुते हैं । इस रथ को ऋभु नामक देवताओं ने बनाया था । कभी-कभी रथ में भैंसे और गधे भी  जोते जाते हैं । उषा तथा सूर्य के उदयकाल के मध्य में इनका आविर्भाव होता है । अश्विनी देवता स्वर्ग के पुत्र है । उनको विवस्वान् और त्वष्टा की पुत्री सरण्यु का पुत्र भी कहा गया है । इनको पूषा का पुत्र भी बताया गया है । उषा को इनकी बहन कहा गया है । इनको सूर्यपुत्री सूर्या का पति कहा गया है । ये देवता कुशल चिकित्सक हैं तथा स्वर्ग के वैद्य हैं । शारीरिक व्याधियों को दूर करने, नवयौवन प्रदान करने और नये अङ्गों की रचना करने में वे समर्थ हैं।इन्होंने भुज्यु नामक राजा को समुद्र में डूबने से बचाया था । इन्होने ही च्यवन ऋषि को वृद्धता से मुक्त कर यौवन प्रदान किया था । पेदु को इन्होने एक सफेद शीघ्रगामी अश्व प्रदान किया था तथा अन्धकारयुक्त कारगृह में बन्द अत्रि का उद्धार इन्होंने  ही किया था ।
8. वरुण -
        इन्द्र और अग्नि के बाद देवताओं में वरुण का महत्त्व है । वरुण द्युस्थानीय देवता है । 12 सूक्तों में इनकी स्तुति की गई है । सूर्य इनके नेत्र है । इनका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है । इनका मुख्य रूप शासक का है । लोगों के पाप-पुण्यों तथा सत्य-असत्य का हिसाब वरुण देवता रखते हैं । वरुण के गुप्तचर सर्वत्र घूमते हैं । वरुण को राजा या सम्राट् कहा गया है । वरुण विश्व के नैतिक अध्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनका कवच सुनहरा है । इनके नेत्र सहस्र हैं । वरुण के लिए असुर, क्षत्रिय, स्वराट्, मायावी, धृतव्रत, ऊरुशंस आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है ।
9. उषस् -
        यह द्युस्थानीय देवता है । 20 सूक्तों में उषा की स्तुति की गई है । उषा सूर्य की प्रेयसी है । कहीं कहीं सूर्य को उसका पुत्र भी बताया गया है । उषा को स्वर्ग की पुत्री तथा रात्रि की बड़ी बहन कहा गया है । उषा शब्द वस् दीप्तौ धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – चमकना या प्रकाशमान होना । उषा नित्य नवीन होकर भी पुरानी है । यह वेगवान सौ रथों पर चलती है, जिसमें लाल रंग के घोड़े जुते हैं । सूर्य की प्रातःकालीन किरणें घोड़े हैं । उषा के मघोनी, विश्ववारा, प्रचेता, सुभगा, रेवती, दुहितादिवः, अमृत्यकेतुः, गोमती, ऋतावरी, अश्ववती आदि विशेषण हैं ।
10. सोम -
        यह पृथ्वीस्थानीय देवता है । इनकी स्तुति ऋग्वेद के नवम मण्डल के सम्पूर्ण 144 सूक्तों तथा अन्य मण्डलों के 6 सूक्तों में की गई है । ऋग्वेद के वर्णनों के अनुसार सोम एक वनस्पति होती थी, जो मुञ्जवान्  पर्वत पर उगती थी । सोम का रस निकालने के लिए प्रायः इसके तन्तु को पत्थर से कुचला या दबाया जाता था,  फिर उस रस को छलनी में डालकर पवित्र किया जाता था और द्रोण नामक पात्र में इसे एकत्रित किया जाता था, जिसे पवमान या पुनाव सोम कहा जाता था । सोम को परिष्कृत करने के लिए दस अङ्गुलियों की आवश्यकता होती थी । अतः सोम को दस युवतियों द्वारा परिष्कृत किए जाने का वर्णन है । द्रोण में रखकर सोम को जल, दूध, दही व जौ में मिलाया जाता था । इसी कारण गवाशिर् (दूध मिश्रित), दध्याशिर् (दधि मिश्रित)  तथा यवाशिर् (जौ मिश्रित) होने के कारण, इसे त्रयाशिर् कहा गया  है ।
        सोम के पौधे का और तद्नुसार सोम देवता का रंग भूरा, लाल और हरा बताया गया है । सोम को विश्वस्य राजा कहा गया है । यह सूर्य का प्रकाशक – एष सूर्यमरोचयत्, दुष्टों का वध करने वाला – अघशंसहा, दोनों लोकों का उत्पादक – जनिता रोदस्योः, अद्वितीय योद्धा, राक्षसों को नष्ट करने वाला - रक्षोहन्, अपने हाथों में भयंकर और तीक्ष्ण आयुध धारण करने वाला – सहस्रभृष्टीः है ।
        सोम इन्द्र को सबसे ज्यादा प्रिय है । इसके विशेषण हैं – मौञ्जवत्, पर्वतावृध, गिरिष्ठा

  • संवाद सूक्त -

1. पुरुरवा-उर्वशी - यह ऋग्वेद के 10वें मण्डल का 95वां सूक्त है । इसमें कुल 18 मन्त्र हैं। इसमें परुरवा-उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है । सुदीर्घकाल तक पुरुरवा के जीवन को उच्छवासित आनन्द से उल्लसित कर उर्वशी जब जाना चाहती है तो पुरुरवा उसे रोकता है, किन्तु उर्वशी लौटना नहीं चाहती। शतपथ ब्राह्मण, कालिदास और अन्य अनेक कवियों ने इस आख्यान की मार्मिकता को पहचानकर इसे अपने काव्य का विषय बनाया है । यह संवाद शतपथ ब्राह्मण, विष्णुपुराण और महाभारत में भी प्राप्त होता है । पुरुरवा-उर्वशी संवाद सू्क्त के मन्त्र निम्नलिखित हैं -

               ऋषि - पुरुरवा ऐळ और उर्वशी
               देवता - उर्वशी और पुरुरवा ऐळ
               छन्द - त्रिष्टुप्
               स्वर - धैवत

    1.    हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु ।
           न नौ मन्त्र अनुदितास एते मयस्करन् परतरे चनाहन्   ।।1।।
    2.    किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
           पुरुरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वातइवाहमस्मि ।।
    3.    इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
           अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ।।
    4.    सा वसु दधती श्वसुराय वय उषो यदि वष्ट्यन्तिगृहात् ।
           अस्तं ननक्षे यस्मिञ्चाकन्दिवा नक्तं श्नथिता वैतसेन ।।
    5.   त्रि: स्म माह्र: श्नथयो वैतसनोत स्म मेSव्यत्यै पृणासि ।
          पुरुरवोSनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्वस्तदासी: ।।
    6.   या सुजूर्णि: श्रेणि: सुम्नआपिहृत्देचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्यु: ।
          ता अंजयोSरुणयो न सस्रु: श्रिये गावो न धेनवोSनवन्त ।।
    7.   समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नद्य: स्वर्गूता: ।
          महे यत्त्वा पुरुरवो रणायावर्धयन् दस्युहत्याय देवा: ।।
    8.   सचा यदासु जहतीष्वत्कममानुषीषु मानुषों निषेवे ।
          अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसन्नथस्पृशो नाश्वा: ।।
    9.   यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभिः क्रतुभिर्न पृङ्क्ते  ।
          ता आतयो न तन्वः शुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीडयो दन्दशानाः ।।
   10.  विद्युन्न या पतन्ती दविद्योद्भरन्ती मे अप्या काम्यानि ।
          जनिष्टो अपो नर्यः सुजातः प्रोर्वशीं तिरत दीर्घमायुः ।।
    11. जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरुरवो म ओजः ।
          आशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आश्रृणोः किमभुग्वदासि ।।
   12.  कदा सूनुः पितरं जात इच्छाच्चक्रन्नाश्रु वर्तयद्विजानन् ।
          को दम्पती समनस्प्र वि यूयोदध यदग्निः श्वशुरेषु दीदयत् ।।
   13.  प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्येे शिवायै ।
           प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यस्तं नहि मूर मापः ।।
    14. सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ ।
          अधा शयीत निर्ऋतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्युः ।।
    15. पुरुरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन् ।
          न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता ।।
    16. यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्रीः शरदश्चतस्रः ।
          घृतस्य स्तोकं सकृदह्र आश्नां तादेवेदं तातृपाणा चरामि ।।
    17. अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः ।
          उप त्वा रातिः सुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे ।।
    18. इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः ।
          प्रजा ते देवान् हविषा यजाति स्वर्ग उत्वमपि मादयासे ।।

2.    यम-यमी -  यह सूक्त ऋग्वेद के दशम मण्डल का 10वाँ सूक्त है, जिसमें कुल 14 मन्त्र हैं । यमी संवाद सूक्त मानवीय चरित्र की उत्कट उज्जवलता का प्रतीक है। यम-यमी जुड़वा भाई बहन हैं । वासना विह्वल यमी अपने भाई यम पर आसक्त होकर उससे समागम की प्रार्थना करती है किन्तु दृढ़ चरित्र यम उसे, बहन-भाई का सम्बन्ध अनुचित बतलाकर अन्य पुरुष को वरने का परामर्श देता है । सम्भवतः इसी कारण से न केवल हिन्दुओं में अपितु संसार के किसी भी कोने मे सगोत्र भाई-बहन का विवाह अनुचित समझा जाता है ।
ऋषि - यमी वैवस्वती यम वैवस्वत        देवता - यम वैवस्वत यमी वैवस्वती 
छन्द - त्रिष्टुप्                                    स्वर - धैवत

 इस सूक्त के मन्त्र -
    1.    ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान् ।
           पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ।।
    2.    न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत् सलक्ष्मा यद्विपुरुषा भवाति ।
           महस्पुत्रासो असुरस्य वारा दिवो धर्तार उर्विया परि ख्यन् ।।
    3.    उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित् त्यजसं मर्त्यस्य ।
           नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्वमा विविश्याः ।।
    4.    न यत्पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम ।
           गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ ।।
    5.    गर्भे नु नै जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः ।
           नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथ्वी उत द्यौः ।।
    6.    को अस्य वेद प्रथमस्याह्नः क ईं ददर्श क इह प्रवोचत् ।
           बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु ब्रव आह्नो वीच्या नृन् ।।
    7.    यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय ।
           जायेव पत्ये तव्नं रिरिच्यां वि चिद्वृहेव रथ्येव चक्रा ।।
    8.    न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति ।
           अन्येन मदाहनो याहि तूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा ।।
    9.    रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्ययेत् सूर्यस्यचक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात् ।
            दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि ।।
    10.   आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि ।
            उप बर्वृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ।।
    11.   किं भ्रातासद्यदनाथं भवाति किमु स्वस यन्निर्ऋतिर्निगच्छात्
            काममूता वह्वेतद्रपामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि ।।
    12.   न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
            अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ।।
    13.   बतो बतासि यम नैव ने मनो हृदयं चाविदाम ।
             अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।।
    14.    अन्यमू षु त्वं यम्यन्य उ त्वां परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।
             तस्य वा त्वं मन इच्छा स व तवाऽधा कृणुष्व संविद सुभद्राम् ।।

3.    विश्वामित्र-नदी -    यह संवाद सूक्त ऋग्वेद के तीसरे मण्डल का 33वाँ सूक्त है, जिसमें कुल 13 मन्त्र हैं । विश्वामित्र सुदास से पौरोहित्य कर्म का धन लेकर अपने गन्तव्य मार्ग के लिए जाने लगा तो अन्य लोग भी उसका अनुकरण करने लग जाते हैं । रास्ते में नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण उन्हें पार करना मुश्किल था । 13 मन्त्रों में विश्वामित्र द्वारा शुतुद्री और विपाट् निदियों से मार्ग देने के लिए प्रार्थना की गई है ।
इस सूक्त के मन्त्र -
            ऋषि -  विश्वामित्र
            देवता- नदियाँ (विपाट् और शुतुद्री)
            छन्द - पंक्ति, त्रिष्टुप्, उष्णिक्
            स्वर - 1, 7, 5 पञ्चम; 2, 4, 6, 8 से 12 धैवत; 13 ऋषभ
    1.    प्र पर्वतानामुशती उपस्थाद् अश्वे इव विषिते हासमाने ।
           गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे विपाट्छुतुद्री पयसा जवेते ॥
    2.    इन्द्रेषिते प्रसवं भिक्षमाणे, अच्छा समुद्रं रथ्येव याथः ।
           समाराणे ऊर्मिभिः पिन्वमानेअन्या वामन्यामप्येति शुभ्रे ॥
    3.    अच्छा सिन्धुं मातृतमामयासंविपाशमुर्वीं सुभगामगन्म ।
           वत्समिव मातरा संरिहाणे, समानं योनिमनु संञ्चरन्ती ॥
    4.    एना वयं पयसा पिन्वमानाअनुयोनिं देवकृतं चरन्तीः ।
           न वर्तवे प्रसवः सर्गतक्तःकिंयुर्विप्रो नद्यो जोहवीति ॥
    5.    रमध्वं मे वचसे सोम्यायऋतावरीरुप मुहूर्तमेवैः।
           प्र सिन्धुमच्छा बृहती मनीषा-वस्युरह्वे कुशिकस्य सूनुः ॥
    6.    इन्द्रो अस्माँ अरदद्वज्रबाहुर-पाहन्वृत्रं परिधिं नदीनाम् ।
           देवोऽनयत्सविता सुपाणिस्तस्य वयं प्रसवे याम उर्वीः ॥
    7.    प्रवाच्यं शश्वधा वीर्यं तदइन्द्रस्य कर्म यदहिं विवृश्चत् ।
           वि व्रजेण परिषदो जघाना-यन्नापोऽयनमिच्छमानाः ॥
    8.    एतद्वचो जरितर्मापि मृष्ठाआ यत्ते घोषानुत्तरा युगानि ।
           उक्थेषु कारो प्रति नो जुषस्वमा नो नि कः पुरुषत्रा नमस्ते ॥
    9.    ओ षु स्वसारः कारवे श्रृणोत, ययौ वो दूरादनसा रथेन ।
           नि षू नमध्वं भवता सुपारा,  अधो अक्षाः सिन्धवः स्रोत्याभिः ॥
    10. आ ते कारो शृणवामा वचांसि, ययाथ दूरादनसा रथेन ।
          नि ते नंसै पीप्यानेव योषामर्यायेव कन्या शश्वचै ते ॥
    11. यदङ्ग त्वा भरताः संतरेयुर्गव्यन्ग्राम इषित इन्द्रजूतः ।
          अर्षादह प्रसवः सर्गतक्तआ वो वृणे सुमतिं यज्ञियानाम् ॥
    12. अतारिषुर्भरता गव्यवःसमभक्त विप्रः सुमतिं नदीनाम् ।
          प्र पिन्वध्वमिषयन्तीः सुराधाआ वक्षणाः पृणध्वं यात् शीभम् ॥
    13. उद्ध ऊर्मिः शम्या हन्त्वापो योक्त्राणि मुञ्चत ।
          मादुष्कृतौ व्येनसाघ्न्यौ शूनमारताम् ॥

4.    सरमा-पणि -    यह ऋग्वेद के 10वें मण्डल का 108वाँ सूक्त है, जिसमें कुल 11 मन्त्र हैं । इस सूक्त में सरमा नामक एक शुनी और पणि नामक असुर का संवाद मिलता है । पणि लोगों ने आर्यों की गायोंं को चुराकर कहीं अन्धेरी गुफा में डाल दिया । इन्द्र ने अपनी शुनी (सरमा) को उन्हें खोजने के लिए और पणियों को समझाने के लिए दूती बनाकर भेजा । सरमा इन्द्र के अतुलित पराक्रम के विषय में बतलाती है किन्तु वे उसकी बात नहीं मानें ।

इस सूक्त के मन्त्र -

    1.    किमिच्छन्ती सरमा प्रेदमानदूरे ह्यध्वा जगुरिः पराचैः ।
           कास्मेहितिः का परितक्म्यासीत्कथं रसाया अतरः पयांसि ॥
    2.    इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामिमह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः  ।
           अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि ॥
    3.    कीदृङ्इन्द्रः सरमे का दृशीकायस्येदं दूतीरसरः पराकात् ।
           आ च गच्छान्मित्रमेना दधामाथा गवां गोपतिर्नो भवाति ॥
    4.    नाहं तं वेद दभ्यं दभत्सयस्येदं दूरीरसरं पराकात् ।
           न तं गूहन्ति स्रवतो गभीराहता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ॥
    5.    इमा गावः सरमे या ऐच्छःपरिदिवो अन्तान् सुभगे पतन्ती ।
           कस्त एना अव सृजादयुध्व्यु तास्माकमायुधा सन्ति तिग्मा ॥
    6.    असेन्या वः पणयो वचांस्य निषव्यास्तन्वः सन्तु पापीः ।
           अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्थाबृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ।।
    7.    अयं निधिः सरमे अद्रिबुध्नोगोभिरश्वेभिर्वसुभिन्यृष्टः।
           रक्षन्ति तं पणयो ये सुगोपारेकु पदमलकमा जगन्थ ॥
    8.    एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः।
           त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित् ॥
    9.    एवा च त्वं सरम आजगन्थप्रबाधिता सहसा दैव्येन ।
           स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गाअप ते गवां सुभगे भजाम ॥
    10.  नाहं वेद भ्रातृत्वं नो स्वसृत्वमिइन्द्रो विदुराङ्गिरसश्च घोराः ।
           गोकामा मे अच्छदयन्यदायमपात इत पणयो वरीयः ॥
    11.  दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीर्ऋतेन ।
           बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळ्हाःसोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्राः ॥
  • ब्राह्मण साहित्य
ब्राह्मण का अर्थ -  ब्राह्मण ग्रंथों के अर्थ में ब्राह्मण शब्द विभिन्न तीन अर्थों को लेकर ब्रह्म शब्द में 'अण्' प्रत्यय करके बना है । यह तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है -
  1. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ब्रह्म शब्द का अर्थ है मंत्र। अतः वेद मंत्रों की व्याख्या और विनियोग को प्रस्तुत करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण ग्रंथ कहते हैं ।
  2. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ही ब्राह्मण का दूसरा अर्थ यज्ञ है ।  अंत: यज्ञों की व्याख्या और विवरण प्रस्तुत करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण कहते हैं ।
  3. ब्राह्मण शब्द का एक अन्य अर्थ है पवित्र ज्ञान या रहस्यात्मक विद्या । अंत: जिन ग्रन्थों में वैदिक रहस्यों का उद्घाटन किया गया है उन्हें ब्राह्मण कहते हैं । इन ग्रन्थों में यज्ञ का आध्यात्मिक आधिदैविक और वैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत किया गया है ।
        इस प्रकार से स्पष्ट है कि ब्राह्मण ग्रंथों का मुख्य विषय यज्ञ का सर्वांगपूर्ण निरूपण है । इस याग मीमांसा के दो प्रमुख भाग हैं विधि तथा अर्थवाद । विधि से अभिप्राय है कि यज्ञ अनुष्ठान कब, कैसे और किन अधिकारियों के द्वारा होना चाहिए । याग-विधियां अप्रवृत्त कर्मादि में प्रवृत्त करने वाली तथा अज्ञातार्थ का ज्ञापन कराने वाली होती हैं । इन्हीं के माध्यम से ब्राह्मण ग्रंथ कर्मानुष्ठानों में प्रेरित करते हैं- कर्मचोदना ब्राह्मणानि । विधि का स्तुति और निन्दा रूप में पोषण तथा निर्वाह करने वाले ब्राह्मणगत अन्य विषय अर्थवाद कहलाते हैं । अर्थवाद परक वाक्यों में यज्ञ निषिद्ध वस्तुओं को निंदा तथा यज्ञोपयोगी वस्तुओं की प्रशंसा रहती है । अतः शबरस्वामी के मतानुसार वस्तुतः विधियां ही अर्थवादादि के रूप में ब्राह्मण ग्रन्थों में 10 प्रकार से व्यवहृत हुई हैं -
                            हेतुर्निर्वचननिन्दा प्रशंसा संशयो विधि: ।
                            परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारण कल्पना ।।
                            उपमानं दशैते तु विधयो ब्राह्मणस्य वै ।

ऋग्वेदीय ब्राह्मण
ऐतरेय ब्राह्मण - यह ऋग्वेदीय ब्राह्मणों में प्रथम है । पारंपरिक दृष्टि से इसके दृष्टा ऋषि महिदास ऐतरेय है । 12वीं शती के भाष्यकार षड्गुरुशिष्य ने महिदास को किसी याज्ञवल्क्य नामक ब्राह्मण की इतरा नाम्नी भार्या का पुत्र बतलाया है। ऐतरेय आरण्य के भाष्य में षड्गुरुशिष्य ने इस  नाम की व्युत्पत्ति भी दी है- इतराख्यस्य माताभूत् स्त्रीभ्यो ढक्यैतरेयगी: सायण ने भी अपने भाष्य के उपोद्घात में इसी प्रकार की आख्यायिका दी है,जि अनुसार किसी महर्षि की अनेक पत्नियों में से एक का नाम इतरा था- महिदास उसी के पुत्र थे। पिता की उपेक्षा से खिन्न होकर महिदास ने अपनी कुलदेवता भूमि की उपासना की जिसकी अनुकंपा से उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण के साथ ही ऐतरेयारण्यक का भी साक्षात्कार किया ।
ऐतरेय ब्राह्मण का स्वरूप  और प्रतिपाद्य - सम्पूर्ण ऐतरेय ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं । प्रत्येक 5 अध्यायों को मिलाकर एक पंचिका निष्पन्न हो जाती है । जिनकी कुल संख्या आठ है । अध्याय का अवान्तर विभाजन खण्डों में है, जिनकी संख्या प्रत्येक अध्याय में पृथक-पृथक है । समस्त चालीस अध्यायों में कुल 285 खण्ड हैं ।
    ऋग्वेद की प्रसिद्धि होतृवेद के रूप में है, इसलिए उससे सम्बद्ध इस ब्राह्मण ग्रन्थ में सोमयागों के होत्र पक्ष की विशद मीमांसा की गई है । होतृमण्डल में जिनकी होत्रक' के नाम से प्रसिद्धि है, सात ऋत्विक् होते हैं- होता, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी , नेष्टा, पोता, अच्छावाक और आग्नीध्र । ये सभी सोमयागों के तीनों सवनों में ऋङ्मन्त्रों से 'याज्या' (ठीक आहूति-सम्प्रदान के समय पठित मन्त्र) का सम्पादन करते हैं । इनके अतिरिक्त पुरोऽनुवाक्याएँ होती हैं । जिनका पाठ होम से पहले होता है । होता, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी और अच्छावाक - ये आज्य, प्रउग प्रृभति शस्त्रों (अप्रगीतमन्त्रसाध्य स्तुति) का पाठ करते हैं । इन्हीं का मुख्यतया प्रतिपादन इस ब्राह्मण ग्रन्थ में है । होता के द्वारा पठनीय प्रमुख शस्त्र ये हैं - आज्य शस्त्र, प्रउगशस्त्र, मरुत्वतीय शस्त्र, निष्केवल्य शस्त्र, वैश्वदेव शस्त्र, आग्निमारुत शस्त्र, षोडशीशस्त्र, पर्यायशस्त्र, तथा आश्विन शस्त्र प्रृभति याज्या और पुरोऽनुवाक्या को छोड़कर अन्य शस्त्र प्रायः तृच होते हैं, जिनमें पहली और अन्तिम ऋचा का पाठ तीन-तीन बार होता है । उत्तमा ऋचा को ही परिधानीया भी कहते हैं । पहली ऋचा का पारिभाषिक नाम प्रतिपद भी है । इन्ही के औचित्य का विवेचन वस्तुतः ऐतरेय ब्राह्मणाकार का प्रमुख उद्दिष्ट है। अग्निष्टोम समस्त सोमयागों का प्रकृतिभूत है, अब तो इसका सर्वप्रथम विधान किया गया है जो पहली पंचिका से लेकर तीसरी पंचिका के पांचवें अध्याय के पांचवे खंड तक है - यद्यपि अग्निष्टोम का नाम्ना उल्लेख 14वें अध्याय (तीसरी पंचिका के चतुर्थ अध्याय) में प्रथम बार हुआ है । यह एक दिन का प्रयोग है- सुत्यादिन की दृष्टि से सामान्यतः इसके अनुष्ठान में कुल 5 दिन लगते हैं। इसके अनन्तर अग्निष्टोम की विकृतियों- उक्थ्य क्रतु, षोडशी और अतिरात्र का वर्णन चतुर्थ पंचिका के द्वितीय अध्याय के पंचम खंड तक है । इसके पश्चात् सत्रयागों का विवरण है, जो ऐतरेय ब्राह्मण में ताण्ड्यादि अन्य ब्राह्मणों की अपेक्षा कुछ कम विस्तार से है । सत्रयागों में गवामयन का चतुर्थ पंचिकागत दूसरे अध्याय के षष्ठ खंड से तीसरे अध्यायान्तर्गत अष्टम खंड तक निरूपण है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, सत्रयागों के अनुष्ठान में 1 वर्ष लगता है। पांचवीं पंचिका में विभिन्न द्वादशाह संज्ञक सोमयागों का निरूपण है। इसी पंचिका में अग्निहोत्र भी वर्णित है । छठी पंचिका में सोमयागों से सम्बद्ध प्रकीर्ण विषयों का विवेचन है। सप्तम पंचिका का प्रारंभ यद्यपि पशु-अंगों की विभक्ति प्रक्रिया के विवरण के साथ होता है, किंतु इसके दूसरे अध्याय में अग्निहोत्री के लिए विभिन्न प्रायश्चितों, तीसरे में शुन:शेप का प्रसिद्ध उपाख्यान और चतुर्थ अध्याय में राजसूय याग के प्रारंभिक कृत्यों का विवरण है। आठवीं पंचिका में प्रथम 2 अध्यायों में राजसूय याग का ही निरूपण है।
संक्षेप में 1-16 अध्याय तक 1 दिन में होने वाले अग्निष्टोम नामक सोमयाग का वर्णन है। 17 से 18 अध्याय में 360 दिन में होने वाले गवामयन नामक सोमयाग का वर्णन है। 19 से 24 अध्याय तक 12 दिन में संपन्न होने वाले द्वादश नामक सोमयाग का वर्णन है। 25 में अध्याय में कोई अपराध हो जाने पर किए जाने वाले प्रायश्चित संबंधी उत्सवों व अग्निष्टोम करते समय ऋत्विक् का वर्णन है। 26 से 30 अध्याय तक छोटे-छोटे कुल पुरोहितों का वर्णन है। 31 से 40 अध्याय तक राज्याभिषेक तथा राजपुरोहित आदि की स्थिति तथा उनके अधिकारों का वर्णन है।  ऐतरेय ब्राह्मण के 33 वें अध्याय में प्राप्त होने वाले शुन:शेप का आख्यान है।
शांखायन या कौषीतकि ब्राह्मण - इसमें कुल  30 अध्याय हैं। पहले से 6 अध्यायों में अन्य यज्ञों का वर्णन है। 7 से 30 अध्याय तक अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, चातुर्मास आदि सोमयागों का वर्णन है ।

यजुर्वेदीय ब्राह्मण
शतपथ ब्राह्मण - शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन तथा काण्व दोनों शाखाओं पर यह ब्राह्मण ग्रंथ उपलब्ध होता है। इसकी प्रथम शाखा के अंतर्गत 100 अध्याय तथा 14 कांड हैं, जबकि द्वितीय शाखा के अंतर्गत 104 अध्याय तथा सात कांड हैं। इन दोनों में माध्यन्दिन शाखा ही प्रचलित है। 100 अध्याय होने के कारण ही इसका नाम शतपथ पड़ा। ऋषि याज्ञवल्क्य इसके रचयिता माने जाते हैं।
आख्यान की दृष्टि से भी या ब्राह्मण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसमें पुरुरवा- उ्रवशी, दुष्यंत- शकुंतला, जल-प्लावन, वाणी-सोम तथा वशिष्ठ-विश्वामित्र संबंधी आख्यान प्राप्त होते हैं। महाकवि कालिदास ने सी ब्राह्मण में प्राप्त पुरुरवा-उर्वशी तथा दुष्यंत-शकुंतला से प्राप्त आख्यान पर क्रमशः विक्रमोर्वशीयम् तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम् दो नाटकों की रचना की।
तैत्तिरीय ब्राह्मण-  यह कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित है। यह तीन खंडों में विभक्त है। प्रथम कांड में अग्न्याधान, वाजपेय, सोम, राजसूय आदि का वर्णन है। द्वितीय काण्ड  में सौत्रामणि, वैश्यसव आदि का तथा तृतीय काण्ड में नक्षत्रेष्टि प्रधान रूप से वर्णित है। इन विषयों के अतिरिक्त इसमें भारद्वाज, नचिकेता, प्रह्लाद और अगस्त्य विषयक आख्यायिकाएं, सत्य भाषण, वाणी की मधुरता, तपोमय में जीवन, अतिथि सत्कार, संगठनशीलता, ब्रह्मचर्य पालन आदि आचार दर्शन तथा सृष्टि विषयक वर्णन प्राप्त होता है।

सामवेदीय ब्राह्मण
जैमिनीय ब्राह्मण - इसमें यागानुष्ठानों का वर्णन है। इसे तवल्कार ब्राम्हण भी कहा जाता है। यह मुख्यतः तीन भागों में विभक्त है, जिस के प्रथम भाग में 360, द्वितीय भाग में 437 और मध्य भाग में 385 खंड है।
पञ्चविंश ब्राह्मण-  इसको ताण्ड्य, प्रौढ़ और महाब्राह्मण भी कहते हैं। इसमें 25 अध्याय हैं एवं इसका प्रमुख विषय सोम याग है। 1 दिन से लेकर अनेक वर्षों तक चलने वाले यज्ञों का इसमें वर्णन है। इसका सबसे महत्वपूर्ण अंग व्रात्यस्तोम है। इसके द्वारा व्रात्य को शुद्ध करके ब्राह्मण वर्ग में सम्मिलित किया जाता था। 
सामविधान ब्राह्मण -  सामवेदीय ब्राह्मणों के मध्य इसका तृतीय स्थान है। यह ब्राह्मण जादू टोने से संबद्ध सामग्री का प्रस्तावक है। इसमें प्रतिपादित विषय अधिकांशतया धर्मशास्त्र के क्षेत्र में आ जाते हैं। अर्थात इसमें श्रौतयागों के साथ ही प्रायश्चित-प्रयोग,कृच्छादि व्रत, काम्ययाग तथा विभिन्न लौकिक अभिचार कर्म आदि भी निरूपित हैं।
आर्षेय ब्राह्मण - कर खल्वयमार्षप्रदेशो भवति। तदनुसार इसमें सामवेद के ऋषियों से संबद्ध विवरण है।
देवताध्याय ब्राह्मण - इसमें केवल चार खंड हैं। इसमें मुख्य रूप से निधन भेद से सामों के देवताओं का निरूपण हुआ है।
उपनिषद् ब्राह्मण - इसका नामांतर छान्दोग्य ब्राह्मण है। जिसने 10 प्रपाठक हैं। प्रथम 2 प्रपाठकों में गृह्यकृत्यों में विनियुक्त मंत्र संकलित है। शेष 8 प्रपाठक छान्दोग्योपनिषद् कहलाते हैं।
संहितोपनिषद् ब्रह्मण- यह ब्राह्मण संहिता के निगूढ़ रहस्य का प्रकाशक है। इसमें साम पद्धति का वर्णन किया गया है।
वंश ब्राह्मण - इस ब्राह्मण में साम-संप्रदाय प्रवर्तक ऋषियों और आचार्यों की वंश परंपरा दी गई है, जिनसे सामवेद का अध्ययन क्रम अग्रसर हुआ है।

अथर्ववेदीय ब्राह्मण
गोपथ ब्राह्मण - यह अथर्ववेद का एकमात्र उपलब्ध ब्राह्मण है। ऋषि गोपथ इस ब्राह्मण के प्रवक्ता है। गोपथ ब्राह्मण में दो भाग हैं- पूर्व और उत्तरभाग। पूर्व भाग में पांच प्रपाठक हैं और उत्तरभाग में 6 प्रपाठक हैं। पूर्व भाग के पांचो प्रपाठकों की कुल कण्डिकाएं 135 हैं और उत्तर भाग में 123 ।
  • आरण्यक साहित्य
 आरण्यक ग्रंथों का उद्भव नैसर्गिक प्रक्रिया के अनुसार ब्राह्मण ग्रंथों के पश्चात हुआ है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना मानवीय प्रवृत्ति है। वेदों और ब्राह्मणों में वर्णित यज्ञ प्रक्रिया कष्ट साध्य दूर बोध और नीरस होने के कारण अरुचि कर होती जा रही थी। अंत: आत्मिक शांति के लिए अध्यात्म की आवश्यकता अनुभव की गई और स्थूल द्रव्यमय यज्ञ से सूक्ष्म अध्यात्म यज्ञ की ओर प्रवृत हुई। दूसरा कारण यह था कि यज्ञ गृहस्थ के लिए है, वानप्रस्थ और सन्यास यों के लिए आत्म तत्त्व और ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिए अध्यात्मपरक ग्रंथों की आवश्यकता थी। आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है।अ आरण्यकों की सृष्टि हुई।
आरण्यक का अर्थ - आरण्यक शब्द का अर्थ है अरण्य में होने वाला अध्ययन, अध्यापन, मनन-चिंतन, शास्त्रीय चर्चा, आध्यात्मिक विवेचन अरण्य के अंतर्गत आते हैं। इन विषयों के संकलनात्मक ग्रंथों को आरण्यक कहते हैं। तैत्तिरीयारण्यक भाष्य भूमिका में सायणाचार्य का कथन है कि अरण्यों अर्थात वनों में संपन्न हुआ -
                            अरण्याध्ययनादेतदारण्यक मितीर्यते ।
                            अरण्ये तदधीयीतेत्येवं वाक्यं प्रवक्ष्यते ।।
ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करने वाला ही इन ग्रंथों के अध्ययन का अधिकारी है-
                            एतदारण्यकं सर्वं नाव्रती श्रोतुमर्हति ।
गोपथ ब्राह्मण में सारहस्या: के द्वारा रहस्य शब्द से अरण्यकों का निर्देश है । आरण्यकों में यज्ञ का गूढ़ रहस्य और ब्रह्म विद्या का प्रतिपादन है। अतः इन्हें रहस्य कहा गया है ।
  • वेदाङ्ग
वेदाङ्ग का अर्थ - वेदाङ्ग का अर्थ है - वेदस्य अङ्गानि अर्थात वेद के अंग। अंग का अर्थ है - 'अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते एभि : इति अङ्गानि' अर्थात वे उपकारक तत्त्व जिससे वस्तु के स्वरूप का बोध होता है । वेदों के वास्तविक अर्थ के ज्ञान के लिए जिन साधनों की उपयोगिता थी उन्हें वेदाङ्ग कहते थे । वेदाङ्गों के द्वारा मंत्रों का अर्थ उनकी व्याख्या एवं यज्ञ आदि में उनके विनियोग का बोध होता था। प्रारंभ में वेदाङ्ग स्वतंत्र विषय होकर वेद अध्ययन के विशिष्ट उपयोगी प्रकार थे। बाद में ये स्वतंत्र विषयों के रूप में विकसित हुए । सर्वप्रथम वेदाङ्ग के भेदों का उल्लेख मुंडकोपनिषद् में अपरा विद्या के अंतर्गत चार वेदों के नामोल्लेख के बाद हुआ है -
    तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोSथर्ववेद: शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्दोज्योतिषमिति ।
वेदाङ्ग 6 माने जाते हैं- शिक्षा व्याकरण, जनरल, निरुक्त, ज्योतिष तथा कल्प।
पाणिनीय शिक्षा में वेदपुरुष का वर्णन करते हुए उसके 6 अंगों के रूप में सभी वेदाङ्ग उल्लेखित हैं तदनुसार छन्द वेदपुरुष के पैर, कल्प हाथ, ज्योतिष नेत्र, निरुक्त कान, शिक्षा नासिका और व्याकरण मुख है -
                    छन्द: पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोSथ पठ्यते ।
                                    ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोतमुच्यते ।।
                    शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।
                                    तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ।।

1. शिक्षा -
        शिक्षा का अर्थ है वर्णोच्चारण की शिक्षा देना । सायण ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में शिक्षा का अर्थ दिया है - जिसमें स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण की शिक्षा दी जाती है उसे शिक्षा कहते हैं -             
                'स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षा।'
अतः शिक्षा का उद्देश्य है वर्ण उच्चारण की शिक्षा देना । किस वर्ण का किस स्थान से उच्चारण किया जाता है । उसमें क्या प्रयत्न करना पड़ता है । वर्ण कितने हैं, उनका किस रूप में विभाजन होता है । कितने स्थान और प्रयत्न हैं; शरीर, वायु किस प्रकार वर्ण रूप में परिवर्तित होती है। कितने स्वर हैं, किस स्वर का किस प्रकार उच्चारण किया जाता है इत्यादि । शिक्षा ग्रंथों का वैदिक संहिताओं से घनिष्ठ संबंध है । इसमें शुद्ध उच्चारण स्वर संचार के नियम दिए हैं। इस विषय का विशेष वर्णन प्रातिशाख्य ग्रन्थों  में है । वेदों के प्रत्येक शाखा से संबद्ध होने के कारण इन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं ।
मुख्य प्रातिशाख्य ये हैं - ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनक रचित ऋक्प्रातिशाख्य, शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा का तैत्तिरीय प्रातिशाख्य, सामवेद के तीन प्रातिशाख्य हैं - सामप्रातिशाख्य, पूर्ण सूत्र और पञ्चविध सूत्र । अथर्ववेद का अथर्वप्रातिशाख्य जिसे चतुर्ध्यायिका भी कहते है । इसके अतिरिक्त छोटे आकार के कुछ शिक्षा ग्रंथ भी हैं जिनमें विशेष उल्लेखनीय हैं - ऋग्वेद की पाणिनीय शिक्षा, शुक्ल यजुर्वेद की याज्ञवल्क्य शिक्षा, कृष्ण यजुर्वेद की व्यास शिक्षा, सामवेद की नारद शिक्षा और अथर्ववेद की माण्डूकीय शिक्षा । इनके अतिरिक्त भारद्वाज शिक्षा, वशिष्ठ शिक्षा, पाराशरी शिक्षा आदि ग्रंथ भी हैं।
        तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा के 6 अंगो का वर्णन है - वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और संतान -             'शिक्षां व्याख्यास्याम:। वर्ण: स्वर: मात्रा बलम् साम सन्तान इत्युक्त: शीक्षाध्याय: ।
इनका विवरण इस प्रकार है - 
वर्ण - इनमें पाणिनीय शिक्षा ने 63 (संवृत अ को विवृत अ से पृथक मानने पर 64) वर्ण बतलाए है -                     त्रि: षष्टिश्चतु:षष्टिर्वा वर्णा: शंभुमते मता: ।
स्वर - उदात्त, अनुदात्त और स्वरित  ये तीन स्वर हैं तथा इनके अवान्तर भेदोपभेदों का ज्ञान भी आवश्यक है ।
मात्रा - स्वरों के उच्चारण में लगने वाला काल मात्रा कहलाता है । ये तीन हैं - ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत । ह्रस्व को एक मात्रा कालिक , दीर्घ को द्विमात्राकालिक और प्लुत को त्रिमात्राकालिक माना गया है ।
बल - वर्णोच्चारण में होने वाले प्रयत्न तथा उनके उच्चारण स्थान को बल कहते हैं । आभ्यन्तर और बाह्य प्रयत्न हैं तथा कण्ठ और ताल्वादि उच्चारण स्थान हैं ।
साम -  साम का अभिप्राय स्पष्ट एवं सुंदर स्वर में उच्चारण है। पाणिनीय शिक्षा में ये 6 पाठक के गुण बताए गए हैं -
                        माधुर्यमक्षरव्यक्ति: पदच्छेदस्तु सुस्वर: ।
                        धैर्य्यं लयसमर्थञ्च षडेते पाठका गुणा: ।।
अर्थात् माधुर्य, स्पष्ट अक्षर विन्यास, पदों की पृथकता, सुस्वरता धैर्य और लय ये 6 पाठक के गुण हैं ।
सन्तान - साम का अभिप्राय है संहितापाठ अर्थात् पदपाठ में प्रयुक्त शब्दों में संधि नियमों का संन्निवेश। सन्धि नियमों का ज्ञान और उनका यथा स्थान प्रयोग बहुत आवश्यक है ।
2. कल्प - 
    वेदाङ्गों में कल्पसूत्रों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है । सायण केे अनुसार कल्प का अर्थ है यज्ञीय विधियों का समर्थन और प्रतिपादन - 
                    'कल्प्यते समर्थ्यते यागप्रयोगोSत्र इति व्युत्पत्ते: ।'
कल्प की दूसरी व्याख्या है जिसमें विष्णुमित्र ने वैदिक कर्मों का व्यवस्थित रूप से वर्णन या प्रतिपादन को कल्प कहा है -
                    'कल्पो वेदविहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पना शास्त्रम् ।'
कल्प सूत्रों के चार भेद हैं - श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र तथा शुल्वसूत्र ।
1. श्रौतसूत्र - ब्राह्मण ग्रंथों के काल तक याग विधियां इतनी जटिल और विस्तृत हो गई थी कि उनके सुव्यवस्थित, संश्लिष्ट, क्रमबद्ध और सुबोध रीति से वर्णन की आवश्यकता याज्ञिकवर्ग तीव्रता से अनुभव कर रहा था श्रौतसूत्रों की रचना इसी व्यावहारिक उद्देश्य से की गई । किन का प्रयोजन वैदिक यज्ञ का यथावत् अनुवर्तन है ।
2. गृह्यसूत्र -  गृह्यसूत्रों में सोलह संस्कारों, पांच महायज्ञों, बात पाक यज्ञों, पशुपालन, ग्रह प्रवेश, गृह निर्माण, कृषि एवं विविध विधियों का निरूपण है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि गृहस्थ जीवन से संबद्ध सभी संस्कारों और विधियों का इसमें वर्णन है । लौकिक दृष्टिकोण को आत्मसात करने के लिए गृह्यसूत्र अत्यंत महत्वपूर्ण सूत्र है ।
3. धर्मसूत्र -  धर्मसूत्रों में नीति ,धर्म, रीति, प्रथाओं, चारों वर्णों और आश्रमों के कर्तव्यों और सामाजिक नियमों का वर्णन है ।
4. शुल्वसूत्र - शुल्वसूत्रों में यज्ञ वेदी के निर्माण से संबद्ध नाम आदि का तथा वेदी के निर्माण प्रक्रिया आदि के नियमों का वर्णन है । इसमें भारतीय ज्यामिति के विकास का उत्कृष्ट रूप मिलता है । भारतीय ज्यामिति शास्त्र के उद्भव और विकास का मूल यही है ।

3. व्याकरण - 
     व्याकरण शास्त्र के विवेचन को दो भागों में बांटा जा सकता है -  1. लौकिक व्याकरण   2. वैदिक व्याकरण । लौकिक व्याकरण में अष्टाध्यायी तथा वैदिक व्याकरण में प्रातिशाख्य ग्रंथ है ।
व्याकरण का अर्थ - 'व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम् ।' अर्थात् जिस शास्त्र के द्वारा शब्दों के प्रकृति प्रत्यय का विवेचन किया जाता है उसे व्याकरण कहते हैं । इसमें यह विवेचन किया जाता है कि शब्द कैसे बनता है, उसमें क्या प्रकृति है और क्या प्रत्यय लगा है तदनुसार शब्द का अर्थ निश्चित किया जाता है । व्याकरण के विषय में पाणिनीय शिक्षा में कहा जाता है कि - मुखं व्याकरणम् स्मृतम् अर्थात् व्याकरण वेद पुरुष का मुख है । जिस प्रकार शरीर में मुख सौंदर्य, भावाभिव्यक्ति और गौरव का प्रतीक है, उसी प्रकार व्याकरण शास्त्र शब्दानुशासन, शब्द साधुत्व, प्रकृति प्रत्यय विवेचन और शब्दार्थ ज्ञान का साधन है । इसमें पद-पदार्थ, वाक्य-वाक्यार्थ आदि का विस्तृत विवेचन होता है । व्याकरण ही शुद्ध, अशुद्ध, संस्कृत, असंस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश, आख्यात् आदि का विश्लेषण प्रस्तुत करता है ।
व्याकरण के उद्देश्य - पतञ्जलि ने महाभाष्य में व्याकरण के प्रयोजन बताए हैं-
1. रक्षा -  वेदों की रक्षा के लिए ।
2. ऊह - यथा स्थान विभक्ति परिवर्तन, वाच्यादि परिवर्तन के लिए ।
3. आगम - ब्राह्मण को निष्काम भाव से वेद पढ़ना चाहिए इस आदेश की पूर्ति के लिए ।
4. लघु - सरल ढंग से शब्द ज्ञान के लिए ।
5. असंदेह - शब्द और अर्थ विषयक संदेह के निराकरण के लिए ।
4. निरुक्त - 
    'अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्' अर्थात् अर्थ ज्ञान के लिए स्वतंत्र रूप से जहां पदों का समूह कहा गया है, उसे निरुक्त कहते हैं । निरुक्त में वैदिक शब्दों के निर्वचन की पद्धति दी गई है । सम्प्रति यास्क कृत निरुक्त ही इस विषय का प्रामाणिक ग्रंथ उपलब्ध है। यह निघण्टु नामक वैदिक शब्दकोश पर आश्रित हैं तथा उसी का व्याख्या ग्रंथ है । इसमें वैदिक मंत्रों की विवेचनात्मक व्याख्या का सर्वप्रथम स्तुत्य प्रयास किया गया है । इस वेदार्थ पद्धति को नैरुक्त पद्धति कहा जाता है । यास्क ने वैदिक देवता वाचक शब्द अग्नि, वरुण, इंद्र, सविता आदि को निर्वचनात्मक मानकर इनसे संबद्ध ग्रंथों के चार प्रकार के अर्थ प्रस्तुत किए हैं - 1. आध्यात्मिक। 2. आधिदैविक 3. आधिभौतिक  4. अधियज्ञ
स्वामी दयानंद सरस्वती ने यास्क की प्रक्रिया को प्रामाणिक माना है और तदनुसार ऋग्वेद और यजुर्वेद का भाष्य किया है । यास्क ने तो अपनी पूर्ववर्ती औदुम्बरायण, गार्ग्य, शाकपूणि आदि निरुक्तकारों का निरुक्त में उल्लेख किया है। निरुक्त के प्राचीन का टीकाकारों में विशेष उल्लेखनीय हैं - दुर्गाचार्य, स्कन्दस्वामी, महेश्वर । निरुक्त का आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित करने का श्रेय डॉक्टर लक्ष्मण स्वरूप को है । इन्होंने इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया है । यास्क ने निरुक्त में निघण्टुगत 230 शब्दों का निर्वचन किया है । निघण्टु में 5 अध्याय हैं । प्रथम 3 अध्यायों में पर्यायवाची शब्द हैं, जैसे-पृथ्वी वाचक 21 शब्द, मेघ वाचक 30 शब्द आदि । इन 3 अध्यायों को नैघण्टुक काण्ड कहते हैं । निघंटु के चतुर्थ अध्याय में कठिन और अस्पष्ट वैदिक शब्द दिए हैं । इसे नैगम काण्ड या एकाधिक कहते है । निघंटु के पंचम अध्याय में देवता वाचक शब्द हैं । इनकी व्याख्या निरुक्त के 7 से 12 अध्याय में है । इसे दैवतकाण्ड कहते हैं । इसमें पृथ्वी, अंतरिक्ष, द्यूलोक के विषय में विवेचना है । इसका एक परिशिष्ट भी 13वें अध्याय के नाम से उपलब्ध है । इसमें नक्षत्र, सोम, जातवेदस आदि का वर्णन है । निरुक्त के प्रतिपाद्य विषय पांच हैं - वर्णागम, वर्णविपर्यय, वर्णविकार, वर्णनाश तथा धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग-
                            वर्णागमो वर्णविपर्य्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ ।
                            धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते  पंचविधं निरुक्तम् ।।
शब्द की उत्पत्ति, शब्द निर्वचन-शास्त्र, भाषा विज्ञान, अर्थ विज्ञान का यह सबसे प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ है ।
5. छन्द - 
       छन्द वेद का पाँचवां अङ्ग है । मन्त्रों के उच्चारण के लिए छन्दों का ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है ।  छन्दों के ज्ञान के बिना मंत्रों का उच्चारण ठीक से नहीं हो सकता है । पिंगलाचार्य कृत छन्द: सूूत्र इस वेदांग का प्रतिनिधि ग्रन्थ ह । । यह ग्रंथ सूत्र रूप में है और इसमें 8 अध्याय हैं । आरंभ से चौथे अध्याय के 7वें सूूूूत्र तक वैैदिक छंदों के लक्षण दिये गये हैं । उसके बाद  लौकिक छंदों का वर्णन है । इस ग्रंथ पर भट्ट हलायुध की मृत संजीवनी व्याख्या प्रसिद्ध है । किसी मन्त्र की फलवत्ता तब ही सम्पन्न हो सकती है जब उसके दृष्टा ऋषि तथा देवता के साथ साथ छंद का भी ज्ञान हो । पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है - छन्द: पादौ तु वेदस्य अर्थात् छन्द वेद के पैर हैं ।
    यास्क ने छन्द की व्युत्पत्ति छद् धातु से बताई है । ये वेदों के आवरण हैं – छन्दासि छादनात् । वैदिक छन्दों का आधार अक्षर गणना है । कात्यायन ने सर्वानुक्रमणी में लिखा है – यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः । लौकिक छन्दों में चार ही चरण होते हैं, लेकिन वैदिक छन्दों मे चार से कम चरण भी हैं और चार से अधिक भी हो सकते हैं ।

मुख्य वैदिक छन्द सात हैं –

    छन्द का नाम                     अक्षर                                                            योग

    गायत्री                    8       8       8                                                         24

    उष्णिक                   8       8       12                                                       28

    अनुष्टुप्                    8       8       8       8                                                32

    बृहती                     8       8       12     8                                                36

    षङ्क्ति                    8       8       8       8       8                                       40            

    त्रिष्टुप्                     11     11     11     11                                              44

    जगती                     12     12     12     12                                              48

    इन छन्दों में एक या दो अक्षर कम या अधिक होने से कोई अन्तर नहीं आता । यदि किसी छन्द में एक अक्षर कम हो तो उस छन्द से पहले निचृत्  लगाते हैं तथा एक अक्षर अधिक होने पर भुरिक् लगाते हैं । जैसे – गायत्री छन्द में 24 अक्षर होते हैं किन्तु 23 अक्षरों के होने पर उसे निचृद्गायत्री कहते है और एक अक्षर अधिक अर्थात् 25 होने पर उसे भरिक् गायत्री कहते है । जिस छन्द में दो अक्षर कम हो उसे विराट तथा जिसमें दो अक्षर अधिक होते हैं उसे स्वराट कहते हैं । जैसे – गायत्री छन्द में दो अक्षर कम होने पर उसे विराट गायत्री कहते है  तथा दो अक्षर अधिक होने पर स्वराट् गायत्री कहते है ।

उपर्युक्त सात छन्दों के अतिरिक्त चौदह प्रकार के अन्य वैदिक छन्द भी है, जिन्हें अतिच्छन्द कहा गया है

    1.     अतिजगती                 52 अक्षर

    2.     शक्वरी                       56 अक्षर
    3.     अतिशक्वरी                 60 अक्षर
    4.     अष्टि:                       64 अक्षर
    5.     अत्यष्टि:                    68 अक्षर
    6.     धृति                        72 अक्षर

    7.     अतिधृति                  76 अक्षर

    8.     कृति                       80 अक्षर

    9.     प्रकृती                     84 अक्षर
    10.   आकृति                   88 अक्षर

    11.  विकृति                    92 अक्षर

    12.  संस्कृति                   96 अक्षर
    13.  अभिकृति                100 अक्षर
    14.  उत्कृति                    104 अक्षर

6. ज्योतिष -

        यज्ञों के शुभ मुहुर्त निर्धारण के लिए ज्योतिष नामक वेदांग की आवश्यकता हुई । वेदाङ्गों में ज्योतिष अन्तिम वैदाङ्ग है । वैदिक यागों में तिथि, नक्षत्र, पक्ष, मास, ऋतु तथा सम्वत्सर का अत्यन्त सूक्ष्म विधान हैं । इन नियमों के यथार्थ निर्वाह के लिये ज्योतिष का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है । इसीलिए वेदाङ्ग ज्योतिष में कहा गया है –

                  वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानि पूर्वा विहिताश्च यज्ञाः ।

                  तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेदसवेद यज्ञम् ।।

    ज्योतिष का प्राचीन ग्रन्थ वेदाङ्ग ज्योतिष है । इसकी रचना आचार्य लगध ने की है । आर्च ज्योतिष के द्वितीय श्लोक में कहा गया है – कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः । इसका दो वेदों से सम्बन्ध है –

1. यजुर्वेद से याजुष ज्योतिष । इसमें 43 श्लोक हैं ।

2. ऋग्वेद से आर्च ज्योतिष । इसमें 36 श्लोक हैं ।

    डॉ. बालकृष्ण दीक्षित, लोकमान्य तिलक, सुधाकर द्विवेदी आदि विद्वानों ने इसके श्लोकों की यथाशय व्याख्या की है । ज्योतिष के सिद्धांत ग्रन्थों में गणना 12 राशियों से की जाती है किन्तु इस ज्योतिष में राशियों का कहीं नाम निर्दिष्ट नही है अपितु 27 नक्षत्र ही गणना के आधार हैं । शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने वेदाङ्ग ज्योतिष का समय 1400 ई. पूर्व माना है ।

( इस प्रकार यहां तक यूजीसी नेट (संस्कृत कोड-25) के पाठ्यक्रम के इकाई- I के नोट्स पूरे हो गये हैं । अध्ययन करने के पश्चात् आप इस इकाई के विषय को कितना समझ पाये हैं, यह देखने के लिए, स्वमूल्यांकन हेतु टेस्ट देने के लिए यहाँ क्लिक करें तथा इकाई-II के नोट्स के लिए यहाँ क्लिक करें)

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शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...