महाकवि ने वर्णन की दृष्टि से मेघदूत को दो भागों में विभक्त किया है 1. पूर्वमेघ 2. उत्तरमेघ।
पूर्वमेघ में अलका के लिए प्रस्थान करने वाले मेघ के मार्ग का वर्णन है।इसी के वर्णन प्रसङ्ग में अनेक देशों, नदी, पर्वत एवं नगरों का वर्णन है । और उत्तरमेघ में अलका की समृद्धि, ऐश्वर्य, यक्षिणी का सौन्दर्य एवं उसकी वियोगदशा का वर्णन है। अन्तिम कुछ पद्यों में यक्ष का सन्देश वर्णित है।
पूर्वमेघ की कथावस्तु -
- अलकापुरी के अधीश्वर धनपति कुबेर ने अपने किंकर यक्ष को प्रतिदिन मानसरोवर से 100 ताजे स्वर्णकमल के पुष्प तोड़कर शिव की आराधना के लिए मन्दिर में लाने के काम पर नियुक्त किया था।
- यह कार्य उसे प्रतिदिन प्रातः काल में करना होता था परन्तु अपनी नव-विवाहिता पत्नी के साथ अधिक समय बिताने के कारण वह प्रातःकाल जल्दी उठ नहीं पाता था। इस कष्ट के निवारण के लिए एक युक्ति का सहारा लेकर अपने कर्तव्य से हटकर प्रातःकाल की बजाय सायंकाल पुष्प तोड़कर मन्दिर में पहुँचाना प्रारम्भ कर दिया। यह क्रम चलता रहा लेकिन इस चालाकी का पता नहीं चल पाया। दुर्भाग्य से एक दिन सायंकाल एक भ्रमर कमल में बन्द हो गया और प्रातःकाल कुबेर के पुष्पार्पण के समय निकलकर उसने कुबेर को डंक मार दिया। पता करने पर कुबेर को यक्ष की कर्तव्यच्युति की जानकारी मिली तो राजा ने इस कर्तव्य के प्रमाद का कारण यक्ष की पत्नी को माना । यक्ष अपनी पत्नी के आसक्ति के कारण अपने कार्य में प्रमाद करता है इसलिए अपने कर्तव्य के पालन में प्रमाद करने वाले यक्ष को स्वामी कुबेर ने एक वर्ष का निर्वासन अर्थात् अपनी पत्नी से वियुक्त रहने का शाप दे दिया।
यद्यपि कालिदास ने मेघदूत में कहीं भी इस यक्ष का नाम नहीं लिया परन्तु ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस यक्ष का नाम हेममाली तथा यक्षिणी का नाम विशालाक्षी मिलता है । मेघदूत के आरम्भ में यक्ष अपने शापावधि के 8 माह काट चुका है और चार माह शेष हैं।
- शाप के कारण अपनी महिमा को खो देने वाला यक्ष अपना निर्वासित जीवन सीता के स्रान करने से पविल हुए जल वाले तथा घने छायादार वृक्षों वाले रामगिरि पर्वत पर व्यतीत कर रहा है । रामगिरि पर्वत मल्लिनाथ के अनुसार चित्रकूट में है। (श्लो. 1)
- एक दिन, आषाढ़ मास के प्रथम दिन में यक्ष जो अत्यन्त निर्वल हो गया है, तथा जिसकी कलाई का कंगन शारीरिक दुर्बलता के कारण गिर गया है, वह मिट्टी के टीले पर टेढ़े होकर दन्त-प्रहार करने वाले हाथी के समान दर्शनीय पर्वतचोटी से सटे मेघ को देखता है। (श्लो. 2)
- मेघ को देखते हुए अत्यन्त विरह-वेदना से व्याकुल यक्ष विचार करता है कि मेघ को देखने से सुखी पुरुषो का मन भी आसक्त हो जाता है, तो फिर कंठालिंगन की प्रार्थना करने वाले लोग केसे अपनी प्रियतमा से दूर रह सकेंगे । (श्लो. 3)
- यक्ष सर्वप्रथम मेघ के आने पर उसका स्वागत कुटज पुष्प व खिले हुए चमेली के पुष्पों से करता है । तदनन्तर अपनी प्रियतमा के जीवन को चाहते हुए, अपनी कुशलवार्ता अपनी प्रिया तक पहुँचाने के लिए, मेघ को संदेशवाहक बनाने का निश्चय करता है। (श्लो. 4)
- कालिदास यहाँ पर मेघ किन किन पदार्थों से बना है, बताते हैं- धूमज्योतिः सलिलमरुतां अर्थात् मेघ धूआँ, अग्नि, जल एवं वायु से बना है । काम-पीड़ित यक्ष उस समय यह भी भूल जाता है कि अचेतन मेघ उसका सन्देशवाहक कैसे बनेगा ? यक्ष जड़ मेघ से भी कामार्त के कारण सन्देश ले जाने का निवेदन करता है। (श्लो. 5)
- यक्ष मेघ से कहता है कि आप पुष्कर एवं आवर्तक नाम के मेघों के प्रसिद्ध वंश में पैदा हुए हो, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले हो, इन्द्र के प्रधानपुरुष हो और मैं कान्ता-वियुक्त दूरदेश में स्थित हूँ । इसलिए आपसे अपनी प्रियतमा तक सन्देश भेजने की प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि सूक्ति भी है - याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा' अर्थात् गुणवान् से ही याचना करनी चाहिए भले ही याचना व्यर्थ हो जाये, नीच व्यक्ति से याचना नहीं करनी चाहिए, भले ही सफलता प्राप्त हो जाये । (श्लो. 6)
- यक्ष मेघ को सन्तप्तों का शरण बताता है और उससे अपना सन्देश अपनी प्रियतमा तक अलका भेजना चाहता है। अलका के बाहरी उद्यान में स्थित भगवान् शिव के मस्तक पर सुशोभित चन्द्र की चाँदनी से वहाँ के महल धवल हैं। (श्लो. 7)
- यक्ष मेघ से कहता है कि जब तुम वायु मार्ग में आरोहण करोगे तो उस समय प्रवासी पुरुषों की स्त्रियाँ पति के आगमन की आशा से विश्वास के साथ अपनी केशों के अग्र भाग को उठा कर तुमको देखेंगी । तुम्हारे दिखने पर विरह से व्याकुल स्त्री की कौन उपेक्षा करेगा । (श्लो. 8)
- यक्ष मेघ से कहता है कि मन्द-मन्द बहता अनुकूल पवन तुम्हारी यात्रा में सहायता करेगा। चातक पक्षी वामभाग में मधुर ध्वनि करेंगे। गर्भाधान के उत्सव काल के परिचय से बगुलों की पंक्ति आकाश में मेघ की सेवा करेंगी। (श्लो. 9)
- यक्ष को विश्वास है कि निर्बाधगति वाला मेघ अलका पहुँचने पर, वियोग के दिनों को गिनने में आसक्त होने के कारण प्राणधारण करती हुई मेरी उस पतिव्रता स्त्री तथा अपनी भाभी यक्षिणी को अवश्य देखेगा । (श्लो. 10)
- यक्ष मेघ से कहता है कि तुम्हारा कानों को मधुर लगने वाला गर्जन सुनकर मानसरोवर जाने को उत्सुक तथा मार्ग में भूख मिटाने के लिए चोंच में कमलनाल के टुकड़े लिए हुए राजहंस तुम्हारे के साथी होंगे। (श्लो.11)
- यक्ष मेघ से कहता है कि श्रीरामचन्द्र के चरणचिह्नों से युक्त रामगिरि पर्वत का आलिंगन करके और अपने इस मित्र (रामगिरि पर्वत) से जाने की विदाई लेना। (श्लो. 12)
- यक्ष मेघ से कहता है कि हे जलद ! पहले मैं तुम्हारे जाने के अनुकूल मार्ग को कह रहा हूँ, उसे सुनो, फिर उसके बाद मेरा सन्देश सुनना । मार्ग में थक जाने पर पर्वतों पर विश्राम कर लेना और कमजोर हो जाने पर नदियों का हल्का एवं सुपाच्य जल पीकर स्वास्थ्य लाभ कर लेना। (श्लो. 13)
- यक्ष मेघ से कहता है कि तुम्हें जाते देख भोली-भाली सिद्धाङ्गनाएँ ऊपर की ओर मुख करके तुम्हे देखेंगी और सोचेंगी कि, वायु पहाड़ की चोटी को उड़ाये लिए जा रहा है", और इसी भाव के कारण चकित होकर अपने नयनों से तुम्हें देखेंगी। तुमको इस स्थान से उत्तर की ओर मुख करके आकाश में उड़ना है और रास्ते में तुम्हे दिशाओं के दिग्गजों के प्रहार से बचते हुए जाना। आठ दिङ्नाग हैं, ये प्रत्येक आठों दिशाओं के अधिष्ठाता हैं - 1. ऐरावत 2. पुण्डरीक 3. वामन 4. कुमुद 5. अंजन 6. पुष्पदन्त 7. सार्वभौम 8. सुप्रतीक । (श्लो. 14)
- यक्ष मेघ से कहता है कि दीमकों की बाम्बी से निकल रहा इन्द्रधनुष भी यात्रा के लिए शुभ शकुन प्रकट कर रहा है । जब इन्द्रधनुष रत्नों की कान्तियों के सम्मिश्रण सा दिखाई देगा तब मेघ की शोभा गोपवेशधारी कृष्ण की शोभा जैसी हो जाएगी । (श्लो. 15)
- यक्ष मेघ से कहता है कि कृषि का फल मेघ पर ही आधारित है, अतः जनपद की वधुएँ अपने नेत्रों से तुम्हें निहारेंगी । मेघ यात्रा में सर्वप्रथम माल प्रदेश में वर्षा कर वहाँ की भूमि को सुगन्धित करता हुआ कुछ पश्चिम की ओर जाकर पुनः उत्तर की ओर जाएगा। (श्लो. 16)
- यक्ष मेघ से कहता है कि क्योंकि पूर्व में तुमने मूसलाधार वर्षा कर वन की अग्नि को शान्त किया था, तुम्हारे मार्ग जन्य थकान को दूर करने के लिए आम्रकूट पर्वत तुमको अपने सिर पर (चोटी पर) धारण करेगा, क्योंकि - न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्यैः ॥ अर्थात् - क्षुद्र व्यक्ति भी अपने उपकारी मित्र के आने पर विमुख नहीं होता। फिर आम्रकूट तो अवश्य ही स्वागत करेगा । (श्लो. 17) (आम्रकूट पके हुए आम्र से युक्त आम्र वृक्षों वाला पर्वत है।) मेघ की यात्रा का पहला पर्वत आम्रकूट है ।
- आम्रकूट पर्वत पके हुए पीले आम्रफलों से भरा है और उस आम्रकूट पर्वत पर जब काली चोटी के समान वर्ण वाला मेघ पहुँचेगा तब देव युगल जब ऊपर से इस पर्वत को देखेंगे तब पृथिवी रूपी नायिका का कुच सा प्रतीत होगा, और मेघ कुच का मध्य श्यामल भाग सा प्रतीत होगा। (श्लो. 18)
- यक्ष मेघ से कहता है कि आम्रकूट पर्वत वनवासियों की स्त्रियों द्वारा उपभुक्त हैं। उस आम्रकूट पर्वत पर दो घडी रुककर, जल बरसा कर जब तुम हल्का हो जाओगे तो तुम्हारी गति तीव्र हो जाएगी । आम्रकूट से प्रस्थान करने के बाद मेघ को उबड़-खाबड़ विन्ध्याचल पर्वत मिलेगा, उसी विंध्याचल की तलहटी में बिखरी हुई रेवा नदी अर्थात् जैसे हाथी के शरीर पर चित्रित रेखाएं होती हैं वैसी ही विंध्याचल की तलहटी में रेवा (नर्मदा) नदी मिलेगी। (श्लो.19) मेघ के मार्ग में पहली नदी रेवा ( नर्मदा) मिलती है ।
- मेघ आम्रकूट पर्वत पर अपना जल बरसा चुका है इसलिए खाली (हल्का) हो गया है और यदि मेघ खाली रहेगा तो मेघ को वायु इधर-उधर उड़ाने में सक्षम होगा लेकिन जब मेघ भारी रहेगा तो वायु नहीं उड़ा पाएगा। इसलिए यक्ष मेघ से कहता है कि रेवा (नर्मदा) का जल हाथियों के मदों से सुगन्धित तथा जामुन के कुञ्जों से अवरुद्ध है। उस रेवा का जल पीकर भीतर से मजबूत हो जाना, तब तुमको हवा उड़ा नहीं सकेगी। क्योंकि 'रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय', यह लोकोक्ति है । जिसका अर्थ है - भरे हुए को कोई हिला-डुला नहीं सकता है, न ही उड़ा सकता है। किन्तु खाली व्यक्ति को सभी इधर उधर हिला सकते हैं, या उड़ा सकते हैं। (श्लो. 20)
- यक्ष कहता है कि जब तुम आगे जाओगे तो हरे और पीले कदम्ब- पुष्प को देखकर, केलों को उखाड़ कर खा कर और तुम्हारे बरसने से पृथ्वी और वनों में जो अत्यधिक सुगन्धि आ गई है उसे सूंघ कर कर तुम्हारे मार्ग को सूचित करेंगे । (श्लो. 21)
- सिद्धजन अपनी सिद्धांगनाओं को चातक पक्षी को दिखा रहे है तभी मेघ गर्जन से सिद्ध जनों की स्त्रियाँ मेघ के कम्पन से भयभीत होकर अपने प्रेमियों का आलिङ्गन करेंगी । इसलिए सिद्धांगनाएं तुमको बहुत सम्मान देंगी । (श्लो. 22)
- हे मेघ, तुम मेरा प्रिय करने के लिए संदेश को पहुंचाने के लिए शीघ्र ही जाने की इच्छा रखते हो फिर भी मै ऐसी सम्भावना करता हूं कि पर्वतीय चमेली फूलों से सुगन्धित प्रत्येक पर्वतों पर बैठोगे जिससे तुमको विलम्ब होगा । लेकिन हे मेघ! तुम पर्वतीय चमेली फूलों की सुगंधि तथा मयूरों की सुन्दर एवं लुभावनी वाणी रूप सत्कार के लोभ में देर न करते हुए शीघ्र ही प्रस्थान करने का प्रयास करना। (श्लो. 23)
- वहाँ से आगे दशार्णों की प्रसिद्ध राजधानी विदिशा है। विदिशा वेत्रवती नदी के तट पर स्थित है। अर्थात् रेवा को पार कर मेघ दशार्ण देश पहुँचता है । वहाँ पहुंचने पर वहां के सब उपवन केतकी की फूलों से पीले हो जाएंगे, वहाँ के गाँव के वृक्ष काकादि के घोंसला बनाने से भर जाएंगे, पके श्यामवर्ण जम्बूफल से यह देश रमणीय हो जाएगा । (श्लो. 24)
- यक्ष मेघ से कहता है कि, उस विदिशा नामक राजधानी में जाकर तुम वहाँ पर अपनी सम्पूर्ण कामुकता का फल प्राप्त करोगे । तुम वेत्रवती नदी के किनारे सुन्दर गर्जना के साथ चञ्चल लहरों वाले जल को, भ्रू-विलासयुक्त नायिका के अधर-पान के समान स्वादिष्ट जल पियोगे । अर्थात् तुम वेत्रवती का जल वहाँ पीयोगे । वेत्रवती नदी की उपमा भ्रूभङ्गयुक्त नायिका से की गई है। (श्लो. 25)
- विदिशा में मेघ 'नीचैः' नामक पर्वत पर निवास करेगा । वहाँ की गुफाएं नगरवासियों के बढ़े हुए यौवन को प्रकट करते हैं । अर्थात् यह पर्वत वेश्याओं द्वारा प्रयुक्त सुगन्धित पदार्थों से युक्त गुफाओं वाला है। (श्लो. 26)
- यक्ष कहता है कि तुम इस प्रकार मार्ग की थकान को दूर करते हुए आगे बढ़ना । (श्लो. 27)
- उत्तर की ओर जा रहे मेघ का मार्ग यद्यपि टेढ़ा हो जायेगा, फिर भी यक्ष मेघ को उज्जयिनी जाने का निवेदन करता है। उज्जयिनी के प्रासाद अत्यन्त धवल हैं। यक्ष मेघ को वहाँ की रमणियों के प्रणय-भाव को देखना तथा उनके चंचल चितवनों की मार का आनन्द लेने का निर्देश देता है। और कहता है कि यदि तुमने सुंदरियों के कटाक्षपात से घायल होते हुए भी कल्पनातीत आनन्द प्राप्त नहीं किया तो तुम्हारा जीवन विफल ही रहेगा। (श्लो. 28)
- उज्जयिनी जाते हुए मेघ मार्ग में निर्विन्ध्या नदी से मिलता है जो पक्षियों की पंक्ति रूपी करधनी वाली है। निर्विन्ध्या अपनी भंवर रूपी नाभि दिखाती है और उसके द्वारा दिखाया गया विभ्रम ही प्रथम प्रणयवचन है। अर्थात् प्रेमी के निकट हाव भाव का प्रगट करना ही स्त्रियों का प्रथम प्रेम-वचन है - स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु। (श्लो. 29)
- यक्ष कहता है - निर्विन्ध्या को पार कर मेघ सिन्धु नदी के समीप पहुँचेगा जो मेघ के विरह में कृश हो गयी है और मेघ को वह उपाय करना चाहिए जिससे वह दुर्बलता त्याग दे।
- यक्ष मेघ को अवन्ति प्रदेश पहुँचकर सम्पत्ति एवं शोभा से परिपूर्ण विशाला (उज्जयिनी) नामक नगरी को जाने को कहता है। जिस अवन्ती' में वृद्धजन वत्सराज उदयन-वासवदत्ता की कथा कहा करते हैं। उज्जयिनी को दैदीप्यमान स्वर्ग का टुकड़ा कहा गया है। उज्जयिनी को विशाला भी कहा जाता है।
- वायु को शिप्रा नदी के चाटुकार प्रेमी के रूप में चित्रित किया गया है इसी नदी के तट पर उज्जयिनी है। उज्जयिनी के बाजार को अत्यन्त वैभवशाली बताते हुए उज्जयिनी को रत्न-सम्पत्तियों के कारण समुद्र से भी बढ़कर बताया है।
- यक्ष ने मेघ को बताया है कि उज्जयिनी के पुष्पों से सुगन्धित एवं सुन्दरियों के पाद राग से चिह्नित महलों की शोभा को देखते हुए मार्ग का श्रम दूर कर लेना।
- यक्ष ने मेघ को निर्देश देते हुए कमलों के परागों से सुगन्धित व जलक्रीड़ा में संलग्न युवतियो के स्नान द्रव्यों से सुरभित गन्धवती नामक नदी की वायु से कम्पित (झूमते) उद्यानों वाले महादेव के पवित्र मंदिर में जाने को कहता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें