14वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के मध्य के समय को हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। यह कालखण्ड काव्यानुभूति की गहनता और कलात्मक उत्कर्ष दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। विद्वानों ने काव्यगत प्रवृत्तियों की दृष्टि से इसे पूर्व मध्यकाल अथवा भक्तिकाल (संवत् 1375-1700) और उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल (संवत् 1700-1900) के नाम से दो भागों में विभाजित किया है।
भक्तिकाल जर्जर जीवन-मूल्यों एवं सामाजिक परम्पराओं के पतन तथा नये जीवन आदर्शों के विकास की रोमांचकारी कहानी है। इस काल के कवियों की रचना अध्यात्म की पृष्ठभूमि पर जीवन के जिन मूलभूत प्रश्नों को उभारती है, वे हमें तत्कालीन यथार्थ से जोड़ने के साथ एक आदर्शमूलक संस्कार से सम्पन्न बनाते हैं । वस्तुतः इस युग के कवियों की काव्य-संवेदना तत्कालीन जीवन की विसंगतियों का आदर्शमूलक समाधान प्रस्तुत करती हैं। तत्कालीन समाज की आध्यात्मिक स्थिति भी अत्यन्त दयनीय थी। भगवान् बुद्ध का दर्शन स्थूल अर्थ में ग्रहण करके अनेकविध कृत्यों को प्रोत्साहित करने के साथ ही वीभत्स वामाचार का मार्ग प्रशस्त कर रहा था। वज्रयानी साधक गुप्त रहस्य और सिद्धि का प्रचार करते हुए यौन उत्तेजनाओं की वकालत कर रहे थे। उन्होंने तत्सम्बद्ध क्रियाओं को महासुख प्राप्ति का सबसे विश्वसनीय मार्ग बताया। बौद्ध धर्म में हृदय की सात्त्विक वृत्तियों का इस सीमा तक अभाव होना और पंचमकारों - मद्य, मांस, मत्स्य, (मैथुन) से सिद्धि प्राप्ति की अभिलाषा करना, सचमुच बहुत बड़ी विडम्बना में भी बौद्ध वामाचारों का प्रवेश हो चुका था। पाशुपत, कापालिक और कलामुख नाम से प्रसिद्ध धर्म-सम्प्रदाय पतित अवस्था को पहुँच गये थे। पाशुपात कहलाने वाले साधक नरबलि तक देने लगे थे। वे मृत मनुष्यों के मांस का नैवेद्य लगाते थे। लोकायत दर्शन के कारण वस्तुमूलकतावादी दृष्टिकोण को बल मिल रहा था।
इन सबका विरोध सर्वप्रथम आचार्य शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट ने किया । भावात्मक धरातल पर दक्षिण के आलवार भक्तों और शैव संप्रदाय साधकों ने आत्मा का परिष्कार करके लोकमानस में भक्ति, प्रेम, सौंदर्य और आनंद की सृष्टि की।
इन्हीं परिस्थितियों में भारतीय समाज को मुस्लिम संस्कृति से परिचय हुआ । यवन आक्रामक देश की सामाजिक राजनीतिक और धार्मिक विश्रृंखलता का लाभ लेते हुए एक धार्मिक उन्माद के साथ पूरे देश में छा गए। मंदिर ध्वस्त किए जाने लगे, मूर्तियां तोड़ी जाने लगी, मुसलमान शासकों ने भय और लोभ के दम पर धर्म परिवर्तन करवाने लगे । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार - 'चोटी और बेटी का ऐसा संकट भारतीय इतिहास में इससे पूर्व कभी नहीं आया था । धार्मिक व्यवस्था से असंतुष्ट निम्न जाति उत्पन्न जन समुदाय तथा वेद-बाह्य समझे जाने वाले धर्मावलंबी सामूहिक रूप से इस्लाम धर्म में सम्मिलित होने लगे । पंजाब में नाथों, निरंजनियों और पाशुपातों की अनेक शाखाएं मुसलमान हो गयीं ।
इस प्रकार भक्ति कालीन काव्य चेतना की पृष्ठभूमि में यवन संस्कृति के पदार्पण और उसके कारण उत्पन्न सांस्कृतिक संकट का बहुत बड़ा योगदान रहा है। वस्तुतः संपूर्ण भक्तिकाल जर्जर जीवन मूल्यों के पतन और स्वस्थ जीवन मूल्यों के विकास की अद्भुत गाथा है ।
इन परिस्थितियों में कबीर दास जैसे जननायक का आविर्भाव हुआ। उन्होंने सत्य का आख्यान किया । घट के भीतर ब्रह्मांड की स्थिति बताते हुए मन के मथुरा, दिल के द्वारिका और काया के काशी में परम सत्य का अनुसंधान करने की बात कही । यही नहीं उन्होंने संसार को पानी का बुलबुला कागज की पुड़िया तथा मृग मरीचिका बताते हुए उसकी ओर से सर्वथा निश्चिंत रहने का संदेश दिया। किन्तु कबीर की वाणी समग्र जीवन को आत्मसात करने में असमर्थ थी । सूफियों का प्रेम मार्ग भी सर्वथा एकांतिक होने के कारण प्रस्तुत समस्याओं का समाधान नहीं कर सका । इसलिए सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों ने तथ्यात्मक सत्य को आत्यंतिक सुख और सत्य का आधार मानते हुए गोकुल, गोपिका, गोधन और गोरस के माध्यम से समाज की वृत्ति को पुनरुज्जीवित किया । गोस्वामी तुलसीदास ने निर्गुण-सगुण, अंतर्जगत्-बहिर्जगत् ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन को एक सूत्र में पिरोया। विद्वानों ने भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा है। भक्ति काल को दो धाराओं में विभाजित किया जा सकता है - निर्गुण और सगुण । निर्गुण धारा को संत काव्य अथवा ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेमाख्यान काव्य अथवा प्रेमाश्रय शाखा तथा सगुण धारा को कृष्ण भक्ति और राम भक्ति शाखा के अंतर्गत विभक्त किया है।
सन्त काव्यधारा - इस काव्य धारा के प्रवर्तक संत कबीर थे । संतमत को एक सांस्कृतिक आंदोलन का रूप कबीर ने दिया । रैदास धन्ना सेना आदि कबीर के समकालीन संतो में हैं । इसके बाद गुरु नानक देव धर्मदास सुंदर दास जगजीवन साहब हरिराम दास चरणदास की यारी साहब सहजोबाई गुलाल साहब आदि अनेक संत हुए और उन्होंने अलग-अलग संप्रदाय भी चलाए। संतों की साधना समस्त भारतीय अध्यात्म चिंतन का निचोड़ है । संतो ने अपनी साधना के रूप में काव्य रचना की, जिसे सामान्यतः वाणी या अनुभव वाणी की संज्ञा दी जाती है । इन रचनाओं को प्रबंध और मुक्तक दोनों कोटियों में रखा जा सकता है ।
प्रेमाख्यान काव्यधारा - प्रेम वर्णन के कारण ही इस काव्य धारा को प्रेमाश्रयी, प्रेममार्गी या प्रेमाख्यान कहा जाता है । आचार्य शुक्ल ने इस धारा को प्रेमाश्रयी नाम दिया । 12 वीं शताब्दी को भारत में सूफी विचारधारा का उद्भव समय माना जाता है। कुछ विद्वान् भारत में सूफी मत का प्रवेश मुईनुद्दीन चिश्ती से मानते हैं और कुछ लोग अल्हुज्वरी से । सूफी धर्म कई शाखाओं में बट गया। सूफियों के 16 संप्रदायों का उल्लेख मिलता है किंतु प्रमुख चार हैं - १. चिश्तिया संप्रदाय २. कादरिया संप्रदाय ३. सुहर्वर्दिया संप्रदाय ४. नक्सबन्दिया सम्प्रदाय। इन चार सूफी संप्रदाय में सबसे प्रमुख चिश्तिया संप्रदाय है। भारत में इस संप्रदाय का उदय ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती से हुआ । सूफी संप्रदाय ने अधिकतर एकेश्वरवाद को मान्यता दी गई । इस कॉपी में सब के प्रति सहिष्णुता समन्वय और प्रेम की भावना का चित्रण मिलता है । सूफियों ने जगत को सत्य मानते हुए उसने परमात्मा का दर्शन किया । सूफीवाद के अनुसार सृष्टि परमात्मा के स्वरूप का ही विस्तार है । सूफियों ने मनुष्य को विधाता की सबसे सुंदर सृष्टि माना है।
हिंदी में सूफी काव्य परंपरा का सूत्रपात चन्दायन नामक प्रेमाख्यान से हुआ, जिसके रचनाकार मुल्लादाऊद थे । इसके बाद मुग्धावती, खण्डरावती, प्रेमावती आदि प्रेमाख्यानों की रचना हुई किंतु यह उपलब्ध नहीं है । मलिक मोहम्मद जायसी के कृतित्व के माध्यम से यह परंपरा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। उन्होंने पद्मावत के माध्यम से इतिहास और कल्पना की समन्वित पीठिका या हिंदू परिवार की प्रेम कहानी में सूफी सिद्धांतों को पिरोया और भारतीय जनमानस को आकृष्ट करने का प्रयत्न किया। मधुमालती (मंजन), चित्रावली (उस्मान), इंद्रावती (नूर मुहम्मद), यूसुफ जुलेखा (शेख निसार), हंस जवाहिर (कासिमशाह) इस परम्परा की महत्वपूर्ण रचनाएं हैं।जायसी ने आखिरीकलाम, मसलानामा जैसी अन्य रचनाएं भी की हैं ।
रामभक्ति काव्यधारा - स्वामी रामानन्द का नाम भक्ति आन्दोलन के इतिहास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। स्वामी रामानन्द जी ने उत्तरी भारत में भक्ति के प्रचार प्रसार का महनीय कार्य किया । दाशरथि राम को भक्ति का आलंबन घोषित करने के कारण रामानन्द इस शाखा के संस्थापक माने जाते हैं और उनकी परम्परा को रामावत सम्प्रदाय की संज्ञा दी जाती है। उनके शिष्यों में सखानन्द, भावानंद, कबीर, रैदास, सेना आदि उल्लेखनीय हैं। हिन्दी में राम-भक्ति काव्य के आदिकवि भूपति माने जाते हैं। भूपति ने 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दोहा चौपाई छन्द में में रामकथा का गान किया । 16वीं शताब्दी में रामभक्ति काव्य के अप्रतिम गायक गोस्वामी तुलसीदास का समय आया । इन्होंने रामचरितमानस तथा अन्य रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य और हिंदू समाज की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए कार्य किया।
कृष्ण भक्ति काव्यधारा - दक्षिण भारत के तीन प्रसिद्ध आचार्य - निम्बार्काचार्य, माध्वाचार्य और विष्णु स्वामी ने विष्णु के स्थान पर कृष्ण और राधा की भक्ति को प्रतिष्ठित किया । वल्लभाचार्य और इनके अनुयायियों ने कृष्ण भक्ति को बहुत अच्छी तरह से स्थापित किया। वल्लभाचार्य ने विष्णु स्वामी के शुद्धाद्वैतवाद की विस्तृत व्याख्या करके भक्ति का एक नया मार्ग प्रशस्त किया, जिसे पुष्टिमार्ग के नाम से जाना जाता है। इन आचार्यों ने कृष्ण-राधा की भक्ति की पीठिका बनाई । कृष्ण भक्ति को लोक व्यापी बनाने में जयदेव रचित गीत गोविंद ने बहुत अच्छी भूमिका निभाई और विद्यापति के पदों के माध्यम से जन जन के हृदय में व्याप्त होने लगी। वल्लभाचार्य के बाद उनके पुत्र विट्ठलनाथ ने अपने चार शिष्यों को मिलाकर अष्टक्षाप नाम से श्रीनाथ जी के मंदिर में अष्टयाम पूजा के लिए नियुक्त किया । अष्टक्षाप के कवियों के नाम है - परमानंददास, कृष्णदास, सूरदास, कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, चतुर्भुजदास और नन्ददास ।
राधावल्लभ संप्रदाय, गौड़ी संप्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय ने भी अपने कृतित्व के माध्यम से हिन्दी साहित्य की वृद्धि की । राधावल्लभ संप्रदाय के कवियों में श्री हित हरिवंश का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने व्रज भाषा में राधा-सुधा-निधि और हित-चौरासी नामक ग्रन्थों की रचना की । गौड़ीय सम्प्रदाय के मुख्य हिन्दी कवि - गदाधर भट्ट है । निम्बार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध कवि श्री भट्ट और हरिव्यास हैं।
कृष्ण भक्ति कवियों में रसखान और मीरा का नाम उल्लेखनीय है। रसखान ने कृष्ण के प्रति उत्कट् रूप से आकृष्ट होने के कारण इस्लाम धर्म का परित्याग कर हिन्दुत्व का वरण किया था। मीरा ने गोपियों के रूप में स्वयं को मानकर श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम की व्यंजना की है।
रीतिकाल - संवत 1700 से 1900 तक के काल को हिंदी साहित्य में उत्तर मध्य काल माना जाता है । इस काल की कविताओं में सामान्य रूप से श्रृंगार रस से ओत-प्रोत ग्रंथों की रचना हुई । कई विद्वान् इसे अलंकृत काल भी कहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे रीतिकाल नाम दिया । आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे श्रृंगार काल की संज्ञा दी ।
रीति निरूपण की प्रवृत्ति भक्तिकाल में ही प्रारम्भ हो गई थी। सूरदास की साहित्य लहरी, नन्ददास की रस मंजरी और कृपाराम की हित तरंगिणी में यह प्रवृत्ति उपलब्ध होती है।
रीतिकाल का वर्गीकरण - रीतिकालीन हिन्दी साहित्य को 3 वर्गों में विभक्त किया गया है -
1. रीतिबद्ध - इस वर्ग में वे कवि आते हैं, जो रीति के बन्धन में बंधे हुए हैं अर्थात् जिन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना की। लक्षण ग्रन्थ लिखने वाले इन कवियों में प्रमुख हैं- चिन्तामणि, कुलपति मिश्र, श्रीपति, सुरति मिश्र, सोमनाथ, भिखारीदास, दूलह, रघुनाथ, रसिकगोविन्द, प्रतापसिंह, ग्वाल आदि। इन्होंने काव्य के विशिष्टांग के भीतर रस, अलंकार और छन्द को महत्त्व दिया। रसनिरूपण करने वाले आचार्य कवियों ने नायक नायिका भेद पर भी विचार किया । काव्य के विशिष्टांग पर लक्षणग्रन्थ लिखनेवाले इन कवियों में रसलीन, मतिराम, भूषण, सुखदेव आदि के नाम आते हैं।
2. रीतिसिद्ध - तीसरे वर्ग में वे कवि आते हैं जिन्होंने रीति ग्रन्थ नहीं लिखे, किन्तु 'रीति' की उन्हें भली-भाँति जानकारी थी। वे रीति में पारंगत थे। इन्होंने इस जानकारी का पूरा-पूरा उपयोग अपने-अपने काव्य ग्रन्थों में किया। इस वर्ग के प्रतिनिधि कवि हैं- बिहारी। 'बिहारी-सतसई' इस काव्य धारा का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। अनेक प्रकार की नायिकाओं का इसमें समावेश है तथा विशिष्ट अलंकारों की कसौटी पर भी उनके अनेक दोहे खरे उतरते हैं। जब तक किसी पाठक को रीति की जानकारी नहीं होगी तब तक वह 'बिहारी सतसई' के अनेक दोहों का अर्थ नहीं समझ सकता। इस काल के कवियों ने श्रंगार तथा रति के विभिन्न आयामों का वर्णन किया है । इस काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं - बिहारी, बेनी, नेवाज, पद्माकर आदि।
3. रीतिमुक्त - इस वर्ग में वे कवि आते हैं, जो 'रीति' के बन्धन से पूर्णतः मुक्त हैं । इन्होंने रीति की परिपाटी का अनुसरण न करके अपनी भाव व्यंजना स्वच्छंद रूप से प्रकट की है । इन कवियों में प्रमुख हैं- घनानन्द, बोधा, आलम और ठाकुर आदि।
कबीरदास
कबीरदास जी 15वीं सदी के युग प्रवर्तक माने जाते है। कबीरदास जी भगवान् राम के बहुत बड़े भक्त थे। कबीरदास जी का जन्म वि० संवत् 1456 जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार को काशी में हुआ था । कबीरदास जी के जन्म के बारे में बहुत मतभेद है। इसके अलावा उनके जन्म के बारे में कहा जाता है कि एक विधवा महिला के गर्भ से पैदा होने के कारण वह महिला उन्हें लोक-लाज के डर से लहरताला नामक तालाब के किनारे छोड़ आयी, जहां वह नीरू-नीमा नामक जुलाहे दंपत्ति को प्राप्त हुआ । इसी जुलाहा परिवारों ने कबीर का पालन पोषण किया कबीर दास जी की पत्नी का नाम लो ही था । कबीर दास जी को कमाल और कमाली नामक दो संतानें हुईं । कबीर रामानंद के शिष्य थे रामानंद से ही इनको राम नाम की दीक्षा मिली थी । जीवनभर कबीर काशी में रहे किन्तु अंतिम समय में मगहर चले गए, जहां सं० 1575 वि० में इनकी मृत्यु हो गई ।
कबीर ने कभी किसी भी दोहे को लिखा नहीं क्योंकि - 'मसि कागद छूयो नहीं कलम गही नहिं हाथ' अर्थात् ये पढ़ना और लिखना नहीं जानते थे। आचार्य शुक्ल ने कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी' अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिश्रित खड़ी बोली कहा है। रमैनी और सबद में ब्रजभाषा तथा कहीं-कहीं पूरबी बोली का प्रयोग किया गया है। कुछ लोग उनकी भाषा को ‘पंचमेल-खिचड़ी' कहते हैं ।
कबीर की वाणी के असाधारण प्रभाव का एकमात्र कारण इनकी अद्भुत व्यंग्यशक्ति है, किन्तु, इससे भी ऊपर वे एक सच्चे भक्त थे जिसने निर्गुण ब्रह्म को अपना आराध्य बनाया और उसके सम्मुख गर्व एवं अहंकार का सर्वथा परित्याग कर एक सच्चे भक्त बने । कबीर एक समाज सुधारक भी थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सच ही कहा है- "हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर-जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई दूसरा पैदा ही नहीं हुआ ।"
कबीरदास जी के रचनाएं - कबीरदास जी के शिष्यों ने उनकी वाणी का जो संग्रह तैयार किया वह बीजक नाम से उपलब्ध है। इसके साखी, सबद और रमैनी तीन खण्ड हैं।
साखी - साखी में कबीरदास जी की शिक्षाओं तथा उनके सिद्धांतो के बारे में बताया गया है। साखी में व्यवहारिक ज्ञान, पाखंडवाद, गुरुवचन तथा कर्मकांड का भी उल्लेख मिलता है। इनमें कहीं-कहीं पर सोरठा छंद का भी प्रयोग किया गया है।
सबद - इसमें गुरु की शिक्षा, निर्भयवाणी, परमात्मा तथा शब्दब्रह्म का भी उल्लेख मिलता है।
रमैनी - रमैनी के द्वारा कबीर ने हिन्दू तथा मुस्लिम एकता के लिए समान रूप से शिक्षा दी है । रमैनी में कुल 84 पद हैं, जिनमें 14 लाख योनियों का वर्णन मिलता है। रमैनी में चौपाई छंद का भी प्रयोग मिलता है।
कबीर का काव्यरूप - कबीर ने कुल चौदह काव्यरूपों का प्रयोग किया है । साखी कबीर का सबसे प्रिय काव्यरूप है।
भाषा और शैली - ऊपर बताया जा चुका है कि कबीर पढ़ें लिखे नहीं थे इसलिए इनकी वाणी को श्रुति परम्परा से संकलित किया गया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि- "भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है।"
आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने कबीर की साखियों में 'खड़ी बोली', सबदियों में 'ब्रजी' और रमैनियों में अवधी बताया है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सधुक्कड़ी भाषा कहा है।
कबीर जैसे व्यंग्यकार के लिए मुक्तक शैली उपयुक्त थी । कबीर की रचनाओं में जहाँ पद-शैली का प्रयोग किया गया है और जहाँ उन्होंने जीवनानुभूति को सहज रूप में प्रस्तुत किया है, वहाँ साखी या दोहावाली मुक्तक शैली अपनायी में गयी है।
साखी
गुरुदेव कौ अंग
1. बलिहारी गुरु आपणैं, द्यौं हाड़ी के बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।
शब्दार्थ : बलिहारी - न्यौछावर होना, तन-मन से समर्पित होना। देवता - मृत्यु से अमर बनाना। बार = देर, विलम्ब ।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक "मध्यकालीन काव्य कौस्तुभ" के ‘साखी’ शीर्षक से उद्धृत है, जो साखी ग्रंथ से लिया गया है। जिसके रचयिता 'कबीरदास जी' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत साखी में अज्ञानी जीव को ज्ञान द्वारा मुक्ति प्रदान करने वाले गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि-
व्याख्या - गुरु की महिमा है कि वह सामान्य जन को मनुष्य से देवता बना देता है और ऐसा करने में उसे तनिक भी देर नहीं लगती है। ऐसे गुरु को मैं दिन में कितनी बार बलिहारी जाऊं या नमन करूँ, भाव यह है कि ऐसे गुरु के चरणों में जितनी भी बार नमन करें कम ही है। देवता से क्या अर्थ है ? देवता से भाव यह है कि जो सामान्य जन जिसके सभी विकार दूर हो जाएँ, वही देवता है। गुरु भी अपने शिष्य के विकारों को दूर कर देता है और उसे शुद्ध करके देव रूप में ले जाता है, ऐसे गुरु को नमन है। यहाँ एक बात वर्तमान सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि कबीर ने गुरु की महिमा का जितना वर्णन किया है उससे भी अधिक वर्णन गुरु की पहचान अर्थात् गुरु कैसा होना चाहिए, इस पर बहुत जोर दिया है। वर्तमान में आप जो देखते हैं उन लोगों ने कपड़े तो रंगवा लिए हैं लेकिन मन को नहीं रंगवाया है। इसलिए जो व्यक्ति माया के जाल में फंसा है, चाहे वो इसके कितने भी तार्किक कारण बताएं, गुरु नहीं है बल्कि कोई बहरूपिया है, जिसे जानने और समझने की आवश्यकता है।
टिप्पणी - 1. 'बार' में यमक अलंकार है ।
2. सतगुरु के सदकै करूँ, दिल अपणीं का साछ ।
कलियुग हम स्यूँ लड़ि पड्या, मुहकम मेरा बाछ।।
शब्दार्थ- सदकै = न्यौछावर, बलिहारी जाऊँ। साछ = साक्ष्य, साक्षी, प्रमाण । मुहकम = प्रबल, दृढ़। बाछ = वांच्छा, इच्छा।
प्रसंग- गुरु की कृपा से शिष्य कैसे भवसागर के पार हो जाता है, इसी बात को बताते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि -
व्याख्या - सद्गुरु के प्रति सच्चा समर्पण करने के बाद कलियुग के विकार मुझे विचलित न कर सके और मैंने कलियुग पर विजय प्राप्त कर ली। मैं अपने हृदय को साक्षी करके अर्थात् सच्चे मन से अपने आपको सद्गुरु पर न्यौछावर करता हूँ। कलियुग रूपी समस्त विकार मेरे मार्ग के बाधक बने हुए थे, परन्तु मेरी इच्छा प्रबल थी और मैं सद्गुरु द्वारा निर्देशित मार्ग पर अटल बना रहा।
टिप्पणी - अलंकार- छेकानुप्रास
(3) सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सईं न दाति ।
हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।
शब्दार्थ : सर्वा = समान। सोधी = चित्त शुद्धि सई = से दाति = दान। हरिजन - रामभक्त
प्रसंग : प्रस्तुत साखी में अज्ञानी जीव को ज्ञान द्वारा मुक्ति प्रदान करनेवाले गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि -
व्याख्या:- इस संसार में सच्चे गुरु के समान कोई अपना सगा-सम्बन्धी नहीं है। सगा-सम्बन्धी सांसारिक भलाई करता है, किन्तु गुरु आत्म-साक्षात्कार कराके परमात्मा से मिलाता है। इसी प्रकार परमतत्त्व के खोजी के समान कोई दाता नहीं है। दाता सांसारिक नश्वर वस्तुएँ देता है, तत्त्व का खोजी तत्त्व से साक्षात्कार कराकर अमरता प्रदान करता है। परमात्मा के समान अपना कोई हितकारी नहीं है। अन्य व्यक्ति सांसारिक विषय-सम्बन्धी भलाई करते हैं, परमात्मा अपने में मिला लेता है। ईश्वर-भक्त के समान कोई जाति नहीं होती, क्योंकि अन्य जातियाँ कुछ सांसारिक स्वार्थों के आधार पर गठित होती हैं, किन्तु हरिभक्त भक्ति-रस के आस्वादन के लिए संगठित होते हैं, जिसमें स्वार्थ की गंध नहीं है।
टिप्पणी : (1) सहज, लोकात्मक भाषा का सुन्दर प्रयोग हुआ है। (2) अनुप्रास और वक्रोक्ति अलंकार ।
(4) सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार ।।
(5) राम नाम के पटंतरे, देबे कौ कुछ नाहिं ।
क्या ले गुरु संतोषिए, हौंस रही मन मांहि ।।
बिरह कौ अंग
(6) रात्यूँ रूंनी बिरहनीं, ज्यूं बंचौ कूं कुंज ।
कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज ।।
(7) अंबर कुंजाँ कुरलियाँ, गरजि भरे सब ताल ।
जिनि थैं गोविंद बीछुटे, तिनके कौन हवाल ।।
(8) चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति ।
जो जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति ।।
(9) बासुरि सुख नाँ रैंणि सुख, नाँ सुख सुपिनै माहिं ।
कबीर बिछुट्या राम सूं, नाँ सुख धूप न छाँह ।।
(10) बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाई ।
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ ।।
मलिक मुहम्मद जायसी
मलिक मुहम्मद जायसी सूफी काव्य-परम्परा के कवि हैं। कुछ विद्वान् इनका जन्म 900 हिजरी (सन् 1493) में मानते हैं । कुछ इनका जन्मकाल 'तीस बरिस ऊपर कवि बदी' के आधार पर 900 में से तीस वर्ष निकालकर 870 हि० (सन् 1463) में मानते हैं। जायसी ने 'पद्मावत' में अपने पीर के रूप में सैयद असरफ का उल्लेख किया है- "सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उजियारा" किन्तु, कतिपय अन्य पंक्तियों से यह भी प्रमाणित होता है कि वे मुहीउद्दीन नामक किसी अन्य सूफी संत के मुरीद थे- "गुरु मोहदी खेवक मैं सेवा । चलैं उताइल जेहिं कर खेवा।।” वस्तुतः ये फैजाबाद जिले के किछौछा निवासी सैयद अशरफ जहाँगीर की वंशपरम्परा के बाराबंकी जिलांतर्गत हुनहुना निवासी सूफी संत सैयद शाह मुहीउद्दीन के शिष्य थे। इनका निधन सन् 1542 ई० में माना जाता है।
स्थानीय मान्यतानुसार जायसी के पुत्र दुर्घटना में मकान के नीचे दब कर मारे गए जिसके फलस्वरूप जायसी संसार से विरक्त हो गए और कुछ दिनों में घर छोड़ कर यहां वहां फकीर की भांति घूमने लगे। अमेठी के राजा रामसिंह उन्हें बहुत मानते थे। अपने अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। लोग बताते हैं कि अंतिम समय निकट आने पर उन्होंने अमेठी के राजा से कह दिया कि मैं किसी शिकारी के तीर से ही मरूँगा, जिस पर राजा ने आसपास के जंगलों में शिकार की मनाही कर दी। जिस जंगल में जायसी रहते थे, उसमें एक शिकारी को एक बड़ा बाघ दिखाई पड़ा। उसने डर कर उस पर गोली चला दी। पास जा कर देखा तो बाघ के स्थान पर जायसी मरे पड़े थे। जायसी कभी कभी योगबल से इस प्रकार के रूप धारण कर लिया करते थे। काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, मलिक मुहम्मद का मृत्युकाल रज्जब 949 हिजरी (सन् 1542 ई.) बताया है। इसके अनुसार उनका देहावसान 49 वर्ष से भी कम अवस्था में सिद्ध होता है किन्तु जायसी ने 'पद्मावत' के उपसंहार में वृद्धावस्था का जो वर्णन किया है वह स्वत: अनुभूत - प्रतीत होता है। जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान महल से लगभग तीन-चैथाई मील के लगभग है। यह वर्तमान किला जायसी के मरने के बहुत बाद बना है। अमेठी के राजाओं का पुराना किला जायसी की कब्र से डेढ़ कोस की दूरी पर था। अत: यह धारणा प्रचलित है कि अमेठी के राजा को जायसी की दुआ से पुत्र हुआ और उन्होंने अपने किले के समीप ही उनकी कब्र बनवाई, निराधार है। इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि अमेठी नरेश इनके संरक्षक थे। एक अन्य मान्यता अनुसार उनका देहांत 1558 में हुआ।
'पद्मावत' सूफी काव्य-परम्परा की सर्वश्रेष्ठ कृति है; जिसका कथारम्भ कवि ने 947 हि० (सन् 1540 ई०) में किया था - “सन् नौ सै सैतालिस अहा। कथा अरंभ बैन कवि कहा।” यह तिथि शाहेवक्त में वर्णित तत्कालीन दिल्ली सुलतान शेरशाह के शासनकाल से मेल खाती है। किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ० वासुदेश शरण अग्रवाल आदि विद्वानों ने 'सन् नौ सै सैतालिस' के स्थान पर 'सन् नव सै सत्ताइस पाठ शुद्ध माते हैं, जो शाहेक्त से मेल नहीं खाता। 'पद्मावत' में चित्तौर के राजा रत्नसेन और सिंघलद्वीप के राजा गंधर्वसेन की पुत्री पद्मावती की प्रेमकथा का वर्णन है। इस कहानी में इतिहास और कल्पना का अद्भुत सामंजस्य है। जायसी ने प्रत्यक्ष रूप में नायक और नायिका के विरह का वर्णन किया है।
रचनाएँ - जायसी ने चार पुस्तकों की रचना की - 'पद्मावत', 'अखरावट', 'आखिरी कलाम' और 'मसलानामा'। इनकी प्रसिद्धि का आधार पद्मावत है ।
- 'पद्मावत' में पद्मावती और रत्नसेन की प्रेमकथा वर्णित है।
- 'अखरावट' में वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सूफी-सिद्धांत का निरूपण किया गया है।
- 'आखिरी कलाम' में कयामत का वर्णन किया गया है।
- 'मसलानामा' में ईश्वर-प्रेम, मायामोह का त्याग तथा नीति सम्बन्धी बातों के समर्थन के लिए लोकोत्तियों की रचना की गयी है जिसे 'मसल' भी कहा जाता है।
- अब जायसी कृत 'कहरानामा' भी प्राप्त हो गया है।
- इनकी 'कन्हावत' नामक एक और रचना प्राप्त हुई है, जिसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।
भाषा-शैली - जायसी की भाषा ठेठ अवधी है । जायसी की काव्यभाषा का सौन्दर्य उनके द्वारा प्रयुक्त लोकोक्तियों और मुहावरों में देखा जा सकता है । काव्यरूप की दृष्टि से जायसी ने प्रबन्धशैली का प्रयोग किया है । इन्होंने अपने समय में प्रचलित फारसी की मसनवी शैली और हिन्दी के चरितकाव्यों में प्रचलित एक विशेष शैली को मिलाकर एक नवीन शैली को जन्म दिया । पद्मावत में इसी रूप के दर्शन होते हैं । जायसी ने चौपाई, दोहा, छन्द में इस शैली का सुन्दर निर्वाह किया है ।
नागमती वियोग खण्ड
1. नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ।।
नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ।।
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ ।।
भएउ नरायन बावन करा। राज करत राजा बलि छरा।।
करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ।।
मानत भोग गोपिचंद भोगी। लेइ अपसवा जलंधर जोगी ।।
लेइगा कृस्नहिगरूड़ अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिंकिमि गोपी ? ।।
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह ? ।
झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह ।।
2. पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा निति बोले 'पिऊ पीऊ' ।।
अधिक काम दाधै सो रामा। हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा।।
बिरह जान तस लाग न डोली। रकत पसीज, भींजि गइ चोली ।।
सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी ।।
खन एक आव पेट महँ ! साँसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा ।।
पवन डोलावहिं, सीचहिं चोला । पहर एक समुझहिं मुख बोला।।
प्रान पयान होत को राखा ? । को सुनाव पीतम कै भाखा ? ।।
आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि ।।
हंस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि ।।
3. पाट महादेइ ! हिये न हारू । समुझि जीउ, चित चेतु संभारू ।।
भौंर कंवल संग होइ मेरावा। संवरि नेह मालति पहं आवा ।।
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियासु, बाँध मन थीती ।।
धरतिहि जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव, बरषा तु मेहा ।।
पुनि वसन्त ऋतु आव नवेली । सो रस, सो मधुकर, सो बेली ।।
जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिवर पुनि उठिहिं संवारी ।।
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोइ सरवर, सोई हंसा ।।
मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेटि अहंत ।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ।।
4. चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा ।।
धूम, साम, धौरे घन धाए । सेत धजा बग पांति देखाए ।।
खड़ग बीजु चमकै चहुं फेरी । बुंद बान बरसहिं घन घोरा ।।
ओनई घटा आइ चहुं फेरी । कंत ! उबारु मदन हौं घेरी ।।
दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ ।।
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मंदिर को छावा ? ।।
अद्रा लाग लागि भुईं लेईं । मोहि बिनु पिउ को आदर देई ?।।
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब ।।
5. सावन बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी ।।
लाग पुरनबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि, कहं कंत सरेखा ।।
रकत कै आँसु परहिं भुईं टूटी । रेगिं चलौं जस बीरबहुटी ।।
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हिरयरि भूमि, कुसुंभी चोला ।।
हियं हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ।।
बाट असूझ अथाह गंभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भंभीरी ।।
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ।।
परबत समुद अगम बिच, बीहड़ घन बनढाँख ।
किमि कै भेंटों कंत तुम्ह ? ना मोहि पाँव न पाँख ।।
6. भा भादो दूभर अति भारी । कैसे भरौं रैनि अंधियारी ।।
मंदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा ।।
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ।
चमक बीजु घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा ।।
बरसै मघा झकोरि झकोरी । मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी ।।
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ । अबहुं न आएन्हि सोचेन्हि नाहाँ ।।
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आक जवास भई तस झूरी ।।
थल जल भरे अपूर सब, धरति गगन मिलि एक ।
धनि जोबन अवगाह महं, दे बूड़त, पिउ ! टेक ।।
7. लाग कुवार, नीर जग घटा। अबहूँ आउ, कंत ! तन लटा ।।
तोहिं देखैं पिउ ! पलुहै कया। उतरा चीतु बहुरि करु मया ।।
चिता मित्र तीन कर आवा। पपिहा पीउ पुकारत पावा ।।
उआ अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा ।। स्वाति बूंद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ।।
सरवर संवरि हंस चलि आए। सारस कुरलहि, खँजन देखाए।।
भा परगास, बाँस बन फूले। कंत न फिरे बिदेसहि भूले।
बिरह हस्ति तन सालै, धाय करै चित चूर
वेगि आइ, पिउ ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर ।।
8. कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल, हौं बिरहै जारी ।।
चौदह करा चाँद परगासा। जनहुं जरैं सब धरति अकासा ।। तन मन सेज जरै अगिदाहू। सब कहं चंद, भएउ मोहि राहू।।
चहूं खंड लागै अंधियारा। जौं घर नाहीं कंत पियारा ।।
अबहूं निठुर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ।।
सखि, झूमक गावैं अंग मोरी। हौं झुरावं, बिछुरी मोरि जोरी ।।
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कहुं बिरह, सवति दुःख दूजा ।।
सखि मानैं तिडहार सब, गाइ देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ।।
9. अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी। दूभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी ? ।।
अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती।।
काँपैं हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ संग पीऊ ।।
घर-घर चीर रचे सब काहू। मोर रूप रंग लेगा नाहू ।।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई । अबहूं फिरे, फिरै रंग सोई।।
बज्र अगिनि बिरहनि हिय जारा। सुलुगि सुलुगि दगधै होइ छारा ।।
यह दुःख दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ।।
पिउ सौ कहेहु संदेसड़ा, है भौंरा ! हे काग ! |
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ।।
10. पूस जाड़ थर थर तन काँपा। सुरुज जाइ लंका दिसि चाँपा।।
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ। कंपि-कंपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ।।
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे। पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ।। सौंर सपेती आवै जूड़ी। जानहु सेज हिवंचल बूड़ी ।।
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं दिन राति बिरह कोकिला।।रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पखी ।।
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा। जियत खाइ और मुए न छाँड़ा।
रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई, पीउ समेटहि पंख ।।
11. लागेउ माघ, परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला ।।
पहल पहल तन रूई काँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै ॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा। तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा ।।
एहि माह उपजै रसमूलू। तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ।।
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिन अंग लाग सर चीरू ।।
टप टप बूंद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारै झोला ।।
केहि क सिंगार, को पहिरु पटोरा। गीठ न हार, रही होइ डोरा ।।
तुम बिनु काँपै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ाया झोल ।।
12. फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ।।
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ।।
तरिवर झरहिं, झरहिं बन ढाखा। भइ ओनंत फूलि फरि साखा ।।
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहं भा जग दून उदासू ।।
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी।।
जौ पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा।।
राति दिवस सब यह जिउ मोरे । लागौं निहोर कंत अब तोरे ।।
यह तन जारौं छार कै, कहौं कि 'पवन ! उड़ाव'।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहं पाव ।।
13. चैत बसन्ता होइ धमारी। मोहिं लेख संसार उजारी ।।
पंचम बिरह पंच सर मारै । रकत रोड़ सगरौं बन ढारै ।।
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मजीठ, टेंसु राता ।।
बौरे आम फरै अब लागे । अबहु आउ घर कंत सभागे ।।
सहस भावफूलीं बनसपती। मधुकर घूमहिं संवरि मालती ।।
मोकहं फूल भए सब काँटे। दिस्टि परत जस लागहि चाँटे ।।
फिर जोबन भए नारंग साखा। सुआ बिरह अब जाइ न राखा ।।
घिरिनि परेवा होइ पिउ ! आउ बेगि परु टूटि ।
नारि पराए हाथ है, तोहि बिनु पाव न छूटि ।।
14. भा बैसाख तपनि अति लागी। चोआ चीर चंदन भा आगी।।
सूरुज जरत हिवंचल ताका । बिरह बजागि सौंह रथ हाँका।।
जरत बजागिनि करु, पिउ छाहाँ । आइ बुझाउ, अंगारन्ह माहाँ।।
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ ओगि तें करु फुलवारी ।।
लागिउं जरैं, जरै जस भारू। फिर फिर भूंजेसि, तजेउँ न बारू।।
सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइ कै बिहराई ।। बिहरत हिया करहु पिउ ! टेका। दीठि दवंगरा मेरवहु एका ।।
कंवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ।
कबहुं बेलि फिरि पलुहै, जौ पिउ सींचै आइ ।।
15. जेठ जरै जग, चलै लुवारा । उठहिं बवंडर परहिं अंगारा ।।
बिरह गाजि हनुवंत होइ जागा। लंकादाह करै तनु लागा ।।
चारिहु पवन झकोरै आगी। लंका दसहि पलंका लागी ।।
दहि भइ साम नदी कालिंदी। बिरह क आगि कठिन अति मंदी ।।
उठै आगि और आवै आँधी। नैन न सूझ, मरौ दुःख बाँधी ।।
अधजर भइउं, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा ।।
माँसु खाइ सब हाड़न्ह लागे। अबहु आउ, आवत सुनि भागे ।।
गिरि, समुद, ससि, मेघ, रवि, सहि न सकहिं वह आगि ।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि ।।
16. तपै लागि अब जेठ असाढ़ी। मोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी ।।
तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुःख आगरि जरी ।।
बंध नाहिं और कंध न कोई बात न आव कहौं का रोई ? ।। साँठि नाठि, जग बात को पूछा ? । बिनु जिउ फिरै मूंज तनु छूछा ।।
भई दुहेली टेक बिहूनी। थाँम नाहिं उठि सकै न थूनी ।।
बरसै मेघ चुवहि नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा ।।
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा ? तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा ।।
अबहू मया दिस्टि करि, नाह निठुर ! घर आउ ।
मंदिर उजार होत है, नव कै आइ बसाउ ।।
17. रोइ गंवाए बारह मासा । सहस सहस दुःख एक एक साँसा ।।
तिल तिल बरख बरख परि जाई। पहर पहर जुग जुग न सेराई ।।
सो नहिं आवै रूप मुरारी। जासौं पाव सोहाग सुनारी ।।
साँझ भए झुरि झुरि पथ हेरा। कौन सो घरी करै पिड फेरा ?।।
दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ।।
रकत न रहा, बिरह तन गरा। रती रती होइ नैनन्ह ढरा ।।
पाय लागि जोरै धनि हाथा। जारा नेह, जुड़ावहु नाथा ।।
बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।।
मानुस घर घर बूझ कै, बूझे निसरी पंखि।।
18. भई पुछारि, लीन्ह बनबासू। बैरिनि सवति दीन्ह चिलवाँसू ।।
होइ खग बान बिरह तनु लागा। जौ पिउ आवै उड़ति तो कागा।।
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहं पठवौं कौर परेवा।।
धौरी पंडुक कहु पिउ नाऊं। जौं चितरोख दूसर ठाऊं।।
जाहि बया होइ पिउ कंठ लवा। करै मेराब सोइ गौरवा।।
कोइल भई पुकारति रही। महरि पुकारै 'लेइ लेइ दही' ।।
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा ।।
जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह कै बात।
सोइ पंखी जाइ जरि तरिवर होइ निपात ।।
19. कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुंघुची बन बोई।।
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव ? बिरहा दुःख ताती ।। जहं जंह ठाढ़ि होइ बनबासी। तहं तहं होइ घुंघची कै रासी।।
बूंद-बूंद महं जानहु जीऊ। गूंजा गूंजि करै 'पिउ पिऊ'।।
तेहि दुःख भए परास निपाते। लोहू बूड़ि उठे होड़ राते ।।
राते बिंब भोजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूं ।।
देखौँ जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता ?।।
नहिं पावस ओहि देसरा, नहिं हेवंत वसन्त ।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत
सूरदास
हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के महान साहित्यकारों में सूरदास का नाम प्रथम स्थान पर लिया जाता है । हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि सूरदास हिन्दी साहित्य के अग्रगण्य माने जाते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। सूरदास का जन्म सं0 1540 वि. में माना जाता है । कुछ विद्वान् इनका जन्म काल संवत् 1535 में मानते हैं । सूरदास का रुनकता गांव में हुआ था । यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूरदास के पिता, रामदास बैरागी प्रसिद्ध गायक थे। सूरदास ने हजारों पदों की रचना की, अकबर से भेंट की और अन्त में पारसौली में 105 वर्ष के होकर परमगति प्राप्ति की ।
सूरदास जी वल्लभाचार्य के शिष्य थे । सूरदास की मोक्ष विषयक अवधारणा वल्लभ सम्प्रदाय के अनुकूल है । मुक्ति का स्वरूप बताते हुए सूरदास जी लिखते हैं कि -
मम स्वरूप को सब घट जान ।
मगन रहै तज उद्यम आन
अरु सुख दुख कछु मन नहि आवै ।
माता सो नर मुक्त कहावै ।
सूरदास ने जीव को गोपाल का अंश बताया है । इन्होने अविद्या के प्रभाव से पंच अध्यासों में भ्रमित जीव का विशेष रूप से वर्ण किया है ।
रचनाएं - सूरदास जी के प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण हैं -
1. सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं। सूरसागर, ब्रजभाषा में सूरदास द्वारा रचे गए कीर्तनों-पदों का एक सुंदर संकलन है, जो शब्दार्थ की दृष्टि से उपयुक्त और आदरणीय है। इसमें प्रथम नौ अध्याय संक्षिप्त है, दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग "कृष्ण की बाल-लीला' और "भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
2. सूरसारावली - इसकी कथावस्तु भी सूरसागर जैसी है । यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक "वृहद् होली" गीत के रूप में रचित है।
3. साहित्य लहरी - साहित्यलहरी 118 पदों की एक लघु रचना है। इसमें श्रृंगार-रस और नायिका भेद का निरूपण शास्त्रीय आधार पर किया गया है । इसके अन्तिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम 'सूरजदास' है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। अब इसे प्रक्षिप्त अंश माना गया है ओर शेष रचना पूर्ण प्रामाणिक मानी गई है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह संवत् 1607 विक्रमी में रचित सिद्ध होती है।
काव्यकला पक्ष - सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने बहुत ही अद्भुत कुशलता एवं सूक्ष्मता का परिचय दिया है़-
मैया कबहिं बढैगी चौटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
कालिदास के काव्य में प्रीति के सभी रूपों- दास्य, सख्य, वात्सल्य और दाम्पत्य का विशद वर्णन हुआ है । सूर के काव्य में सबसे विशद वर्ण दाम्पत्य प्रेम का है । काव्यगत सौन्दर्य की दृष्टि से भ्रमरगीत विप्रलम्भ काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है ।
सूरदास ने सबसे पहले ब्रजभाषा को साहित्यिकता प्रदान की । बोलचाल की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग कर सूर ने ब्रजभाषा को व्यापक काव्यभाषा का रूप दिया । उसे व्यापक बनाने के लिए कवि ने फारसी, अवधी तथा पंजाबी के शब्दों को ग्रहण करने के साथ ही गुजराती, बुन्देलखण्डी और प्राकृत के शब्दों को भी अपनाया। हृदय की कोमलतम भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए गीत शैली से उपयुक्त कोई दूसरी काव्य-शैली नहीं है ।
सूरदास ने विविध प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया । घनाक्षरी, दण्डक, हिरगीतिका, लावनी, कुण्डल, सार, चौपाई, सवैया आदि छन्द सूरदास के काव्य में कहीं अपने मूलरूप में और कहीं थोड़े परिवर्तित रूप में मिलते हैं ।
सूरदास ने राधा-कृष्ण और गोपियों के रूप और प्रभवा-वर्णन में उपमा, रूपक आदि सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग किया है ।
विनय
अविगत-गति कछु कहत न आवै ।
ज्यौं गूँगें मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै ।
परम स्वाद सबही सु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु, निरालम्ब कित धावै ।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातैं, सूर सगुन-पद गावै ।।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी, फिरि जहाज पर आवै ।
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्यावै ।।
परम गंग कौं छाड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ।।
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भावै ।
सूरदास - प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ।।
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनियम कनक नंद कँ आँगन, बिंब पकरिबै, धावत ।
कबहुँ निरखि हरी आपु छाँह कौँ, कर सौँ पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ।
कनक -भूमि पर कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।
बाल-दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलावत ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ।।
जसोदा हरि पालनैं झुलावै ।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै ।
मेरे लाल कौं आज निंदरिया, काहैं न आनि सुलावै ।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ।
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै ।
इहिं अन्तर अकुलाइ उठे हरि, असुमति मधुरै गावै ।
तो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नन्द-भामिनि पावै ।।
चरन गहे अँगुठा मुख मेलत ।
नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत ।।
जे चरनारबिंद श्री - भूषन, उर तैं नैंकु न टारति ।
देखौं धौं का रस चरननि मैं, मुख मेलत करि आरति ।।
जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि करत बिषाद।
सो रस है मोहूँ कौं दुरलभ, तातैं लेत सवाद ।।
उछरत सिंधु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ ।
सेष सहसफन डोलन लागे हरि पीवत जब पाड़ ।।
बढ्यौ बृक्ष बट, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात ।
महाप्रलय के मेघ उठे करि जहाँ-तहाँ आघात ।।
करुना करी, छाँड़ि पग दीन्हौं, जानि सुरनि मन संस।
सूरदास प्रभु असुर निकंदन, दुष्टनि कैं उर गंस ।।
सोभित कर नवनीत लिये ।
घुटरुनि चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिये।
लट-लटकनि मनु मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिये ।
कठुला-कंठ, बज्र केहरि नख राजत रुचिर हिये ।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिये ।।
कान्ह चलत पग द्वै द्वै धरनी।
जो मन मैं अभिलाष करति हो, सो देखति नँद-घरनी।
रुनुक, झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहिं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं, सो छवि जाइ न बरनी।
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुन्दरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा को नन्दन, सूरदास कौं तरनी ।।
कहन लागे मोहन मैया-मैया ।
नंद महर साँ बाबा बाबा, अरु हलधर सौं भैया।
ऊँचे चढ़ि चढ़ि कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया ।
दूरि खेलन जनि जाहु लला रे, मारैगी काहु की गैया।
गोपी ग्वाल करत कौतूहल, घर-घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौँ, चरननि की बलि जैया ।
मैया री मैं चंद लहौंगौ ।
कहा करौं जलपुट भीतर कौ, बाहर ब्यौंकि गहौंगौ।।
यह तौ झलमलात झकझोरत, कैसैं कै जु लहौंगौ ?
वह तौ निपट निकटहीं देखत, बरज्यौ हौं न रहौंगौ।।
तुम्हरौ प्रेम प्रगट मैं जान्यौ, बौराएँ न बहौंगौ।
सूरस्याम कहै कर गहि ल्याऊँ ससि-तन-दाप दहौंगौ।।
माखन बाल गोपालहिं भावै ।
भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै ।।
आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै।
जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै ।।
हौं यह जानति बानि स्याम की, अँखियाँ मीचे बदन चलावै ।
नंद-सुवन की लगौं बलैया, यह जूठनि कछु सूरज पावै
खेलत स्याम ग्वालनि संग ।
सुबल हलधर अरु श्रीदामा, करत नाना रंग ।।
हाथ तारी देत भाजत, सबै करि करि होड़।
बरजै हलधर ! तुम जनि, चोट लागै गोड़।।
तब कह्यौ मैं दौरि जानत, बहुत बल मो गात।
मेरी जोरी है श्रीदामा, हाथ मारे जात ।।
उठे बोलि तबै श्रीदामा, जाहु तारी मारि ।
आरौं हरि पार्छौं श्रीदामा, धर्यो स्याम हँकारि ।।
जानि कै मैं रह्यो ठाढ़ौ छुवत कहा जु मोहि ।
सूर हरि खीझत सखा सौं, मनहिं कीन्हौ कोह।।
खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते सुदामा, बरबस ही कत करत रिसैयाँ ।
जाति पाँति हमते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत यातै, जातैं अधिक तुम्हारे गैयाँ ।
रूठहि करै तासौँ को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ।।
मैया हौं न चरैहौं गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ।
जौ न पत्याहि पूछि बलदाउहिँ, अपनी सौंह दिवाइ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ।
मैं पठवति अपने लरिका कौ, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाई ।
प्रेमलीला
खेलत हरि निकसे ब्रज-खोरी ।
कटि कछनी पीताम्बर बाँधै, हाथ, लए भौंरा, चक डोरी ।।
मोर मुकुट, कुंडल सवननि वर, दसन-दमक दामिनि छवि छोरी।
गए स्याम रवि-तनया कै तट, अंग लसति चंदन की खोरी ।।
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी ।
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी ।।
सँग लरिकिनी चली इत आवति दिन-थोरी, अति छबि-तन गोरी।
सूर स्याम देखत हीं रीझे, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी ।।
वियोग
खंजन नैन सुरंग रस माते ।
अतिसय चारु बिमल, चंचल ये, पल पिंजरा न समाते।
बसे कहूँ सोइ बात सखी, कहि रहे इहाँ किहि नातैं ?
सोई संज्ञा देखति औरासी, बिकल उदास कला तैं ।।
चलि-चलि जात निकट स्रवननि के सकि ताटंक फंदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके, नतरु कबै उड़ि जाते ।।
ब्रज बसि काके बोल सहौं ।
तुम बिनु स्याम और नहिँ जानौं, सकुचि न तुमहिं कहौं ।
कुल की कानि कहा लै करिहौं, तुमकौं कहाँ लहौं ।
धिक माता, धिक पिता बिमुख तुव, भावै तहाँ बहौं ।
कोउ कछु करै, कहै कछु कोऊ, हरष न सोक गहौं ।
सूरस्याम तुमकौं बिनु देखें, तनु मन जीव दहौं ।
भ्रमर गीत
गोकुल सबै गोपाल उपासी ।
जोग अंग साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी ।।
यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासी।।
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यद्यपि है ससि राहु-गरासी ।।
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी।
सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगति मुक्ति तजे गुनरासी ।।
जीवन मुँहचाही को नीको ।
दरस परस दिनरात करति हैं कान्ह पियारे पी को।।
नयननि मूँदि-मूँदि किन देखौ बँध्यो ज्ञान पोथी को।
आछे सुन्दर स्याम मनोहर और जगत सब फीको।।
सुनौ जोग को का लै कीजै जहाँ ज्यान है जी को।
खाटी मही नहीं रुचि मानै सूर खवैया घी को।।
आयो घोष बड़ो व्यापारी ।
खेप लादि गुन ज्ञान जोग की, ब्रज में आय उतारी ।
फाटक दै कर हाटक माँगत, भोरौं निपट सु धारी।
धुरही तें खोटो खायो है लिए फिरत सिर भारी ।
इनकै कहे कौन डहकावै, ऐसी कौंन अनारी ।
अपनौं दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप कौं बारी ।
ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तैं, बेगि गहरु जनि लावहु ।
मुख मार्गोंौं पैहौ सूरज प्रभु, साहुहिं आनि दिखावहु ।।
जोग ठगौरी बज न बिकैहै।
मूरी के पातनि के बदलैं को मुक्काहल दैहै।
यह व्यौपार तुम्हारी ऊधौ, ऐसे ही धर्यो रैहै।
जिन पै तैं ले आए ऊधौ, तिनहिं के पेट सबैहै।
दाख छाँड़ि के कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै।
गुन करि मोही 'सूर' साँवरै, को निरगुन निरबैहै है।।
आए जोग सिखावन पाँड़े।
परमारथी पुराननि लादे, ज्यों बनजारे ठाँड़े ।।
हमरे गति-पति कमल-नयन की, जोग सिखें ते राँड़े।
कहौ मधुप कैसे समाहिंगे एक म्यान दो खाँड़े ।।
कहु षट्पद कैसे खैयतु है, हाथिन के सँग गाँड़े।
काकी भूख गई बयारि भषि, बिना दूध घृत भाँड़े ।।
काहे कौं झाला लै मिलवत कौन चोर तुम डाँड़े।
'सूरदास' तीनौं नहिं उपजत, धनिया धान कुम्हाँड़े ।।
ए अलि ! कहा जोग में नीको ?
तजि रसरीति नन्दनन्दन की सिखवत निर्गुण फीको ।।
देखत सुनत नाहिं कछु सवननि, ज्योति ज्योति करि ध्यावत ।
सुन्दर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलें।
अपनी भुजा ग्रीव पर मेलै गोपिन के सुख फूलैं ।।
लोककानि कुल को भ्रम प्रभु मिलि मिलि कै घरु बन खेली।
अब तुम सूर खवावन आए जोग जहर की बेली।।
हमरे कौन जोग ब्रत साधै ?
मृगत्वच, भस्म, अधारि, जटा को को इतनों अवराधै।
जाकी कहूँ थाह नहिं पैए अगम, अपार, अगाधै।
गिरधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधे ?
आसन पवन भूति मृगछाला ध्याननि को अवराधे ?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधे ?।।
हम तो दुहूँ भाँति फल पाये।
जो ब्रजनाथ मिलैं तौ नीको नातरु जग जस गायो।।
कहँ वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघु जाती।
कहँ वै कमला के स्वामी संग मिलि बैठीं इक पाँती ।।
निगम ध्यान मुनि ज्ञान अगोचर तो भए घोष निवासी ।
ता ऊपर अब साँच कहो धौं मुक्ति कौन की दासी ।।
जोग कथा पा लागौं ऊधो ना कहु बारम्बार ।
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार ।।
हमतें हरि कबहूँ न उदास ।
राति खवाय पिवाय अधररस सों क्यों बिसरत ब्रज को बास।।
तुमसों प्रेमकथा को कहिबो मनहुँ काटिबो घास।
बहिरो तान- स्वाद कह जानै, गूँगो बात मिठास ।।
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख विविध विलास ।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास।।
निरखति अंक स्याम सुंदर के बार बार लावतिं लै छाती ।
लोचन जल कागद मसि मिलि कै है गइ स्याम, स्याम जू की पाती।
गोकुल बसत नन्दनन्दन के, कबहुँ बयारि न लागी ताती ।
अरु हम उती कहा कहैं, ऊधौ, जब सुनि बेनु नाद सँग जाती ।
उनकै लाड़ बदति नहिं काहूँ, निसि दिन रसिक-रास-रस राती।
प्राननाथ तुम कबहिं मिलौगे, सूरदास प्रभु बाल सँघाती ।।
देखियति कालिंदी अति कारी ।
अहौ पथिक कहियौ उन हरि सौं, भई बिरह जुर जारी ।।
गिरिप्रजंक तैं गिरति धरनि धँसि, तरँग तरफ तन भारी ।
तट बारू उपचार चूर, जलपूर प्रस्वेद पनारी ।।
बिगलित कच कुस काँस कूल पर, पंक जु काजल सारी।
भौंर भ्रमत अति फिरति, भ्रमित गति दिसि दिसि दीन दुखारी ।।
निसि दिन चकई पिय जु रटति है, भई मनौ अनुहारी ।
'सूरदास' प्रभु जो जमुना गति, सो गति भई हमारी ।।
ऊधौ इतनी कहियौ बात ।
मदन गुपाल बिना या ब्रज मैं, होन लगे उतपात।
तृनावत, बक, बकी, अघासुर, धैनुक फिरि-फिर जात ।
ब्योम, प्रलंब, कंस केसी इत, करत जिअनि को घात।
काली काल-रूप दिखियत है, जमुना जलहिँ अन्हात ।
बरुन फाँस फाँस्यौ चाहत है, सुनियत अति मुरझात ।
इंद्र आपने परिहँस कारन, बार-बार अनखात ।
गोपी, गाइ, गोप, गोसुत सब, थर-थर काँपत गात ।
अंचल फारति जननि जसोदा, पाग लिये कर तात।
लागौ बेगि गुहारि सूर प्रभु, गोकुल बैरिनि घात।
ऊधौ ! भली करी तुम आए ।
ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हँसाए।।
कौन काज वृन्दावन को सुख, दही भात की छाक ?
अब वै कान्ह कूबरी राचे, बने एक ही ताक।।
मोर मुकुट मुरली पीतांबर, पठवौ सौज हमारी।
अपनी जटा-जूट अरु मुद्रा, लीजै भस्म अधारी ।।
वै तौ बड़े सखा तुम उनके, तुमको सुगम अनीति ।
सूर सबै अति भली स्याम कीं, जमुना जल सो प्रीति ।।
पुनर्मिलन
राधा माधव भेंट भई ।
राधा माधव माधव राधा कीट, भृंग गति है जु गई ।।
माधव राधा के रंग राँचे, राधा माधव रंग रई ।
माधव राधा प्रीति निरन्तर, रसना करि सो कहि न गई ।।
बिहँसि कह्यौ-हम तुम नहिं अन्तर, यह कहिकै उन ब्रज पठई ।
सूरदास प्रभु राधा माधव, ब्रज-बिहार नित नई-नई ।।
तुलसीदास
तुलसीदास का प्रामाणिक जीवनवृत्त प्रस्तुत कर पाना अभी तक सम्भव नहीं हुआ है । कुछ विद्वानों के अनुसार इनका श्रावण मास, शुक्ल पक्ष सप्तमी, सम्वत् 1554 वि. को, बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था । कुछ विद्वान् कहते हैं कि तुलसी की जन्मभूमि फैजाबाद और गोण्डा क्षेत्र में ही कहीं है । तुलसीदास जी की माता का नाम हुलसी और पिता का नाम आत्माराम दुबे था । तुलसीदास का पूर्व नाम रामबोला था । तुलसीदास का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था । जन्म के समय ही इनके दाँत निकले हुए थे । पैदा होने पर इनके मुख से रुदन नहीं वरन राम शब्द उच्चरित हुआ । बाल्यावस्था में ही इनके माता-पिता का देहान्त हो गया और वे दाने-दाने के लिए द्वार-द्वार भटकने लगे । अंततः अल्पवय में ही इन्होंने गोंडा जिला स्थित सूकर खेत निवासी भक्त नरहरिदास से दीक्षा ग्रहण कर ली । तुलसीदास इनका यह नाम श्रीहरिदास ने ही रखा था। ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूँकि गौना नहीं हुआ था अतः कुछ समय के लिये ये काशी चले गये और वहाँ शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। वहाँ रहते हुए अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी और वे व्याकुल होने लगे। जब नहीं रहा गया तो गुरुजी से आज्ञा लेकर ये अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। पत्नी रत्नावली चूँकि मायके में ही थी क्योंकि तब तक उनका गौना नहीं हुआ था अतः तुलसीराम ने कर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन कक्ष में जा पहुॅचे रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लाज के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से इन्हें बहुत फटकारा -
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
जो होती श्रीराम मेंह होती न तौ भवभीति ।।
कहते हैं कि इन्होंने पत्नी की इस फटकार पर वैराग्य धारण कर लिया । इसको सुनने के बाद ही तुलसीदास, तुलसीदास बन गए ।
इन्होंने बनारस निवासी शेष सनातन जी से वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि का गम्भीर ज्ञान प्राप्त किया था। अब्दुर्रहीम खानखाना, महाराजा मानसिंह, नाभादास जी, मधुसूदन सरस्वती, टोडरमल आदि से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध था । इनका निधन सम्वत् 1680 में काशी में हुआ। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा अत्यन्त प्रसिद्ध है -
सम्वत् सोलह सौ असी असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो सरीर ।
रचनाएं -
गोस्वामी तुलसीदास के नाम से प्रचलित ग्रंथों की संख्या तो 37 तक पहुँच गयी है किन्तु सामान्य रूप से विद्वानों ने इनकी प्रामाणिक रचनाओं की संख्या 12 बताई है - 1. रामलला नहछू 2. जानकी मंगल 3. रामाज्ञा प्रश्न 4. वैराग्यसंदीपिनी 5. रामचरितमानस 6. पार्वती मंगल 7. कृष्ण गीतावली 8. बरवै रामायण 9. विनय पत्रिका 10. गीतावली 11. दोहावली 12. कवितावली। 'हनुमान बाहुक' और 'कलिधर्म-निरूपण' नामक इनकी अन्य दो रचनाएँ भी प्रामाणिक कही जाती है।
रामचरितमानस
सोरठा
जो सुमिरत सिधि होइ, गन-नायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ।।1।।
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउसकल कलि मल दहन।।2।।
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन ।
करउ सो मम उर धाम सदा छीर-सागर सयन ।।3।।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ।। 4 ।।
बन्दउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।5।।
चौपाई
गुरु वन्दना
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जेती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिंराम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रकट जहँजो जेहिखानिक ॥
दोहा
जथा सुअंजन अंजि दूंग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ।।1।।
चौपाई
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँराम चरित भव मोचन ।।
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना।।
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।।
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥ अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
दोहा
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ।।2।।
चौपाई
ब्राह्मण-सन्त-वन्दना
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।।
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई ।।
बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ।।
जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहि पाई ॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहूँ बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई ।।
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।।
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी ।।
सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
दोहा
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ।।
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ।। 3 ।।
चौपाई
खल-वन्दना
"बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।।
पर हित हानि-लाभ जिन्ह करें। उजरें हरष बिषाद बसेरें ॥
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।।
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ।।
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा ।।
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।।
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा ।।
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना।।
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ।।
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा ॥
दोहा
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति ।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ।।4।।
बिहारी
बिहारी हिन्दी के रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि है। बिहारी का जन्म सं० 1652 वि० में ग्वालियर के गोविन्दपुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवराय था जो कि निम्बार्क सम्प्रदाय के महन्त नरहरिदास के शिष्य थे। बिहारी ने नरहरिदास से ही संस्कृत-प्राकृत के काव्य ग्रन्थों का अध्ययन किया था। बाद में वे मथुरा चले आते और वहीं पर किसी ब्राह्मण-परिवार में उनका विवाह हो गया। तब से वे वहीं रहने लगे। उसी बीच उन्होंने फारसी काव्यरचना का अभ्यास किया और बादशाह शाहजहाँ से भेंट की। शाहजहाँ के कृपापात्र बन जाने से अन्य राजपरिवारों से भी इनका अच्छा संपर्क हो गया। अनेक राज्यों से उन्हें वृत्ति मिलने लगी। सं० 1702 के आसपास वे जयपुर गये तो पता लगा कि वहाँ के महाराज जयसिंह अपनी नवविवाहिता रानी के प्रेम में मुग्ध होकर महलों में पड़े रहते हैं। सामंतों की सलाह से उन्होंने महाराज के पास यह दोहा लिख भेजा -
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सो बिंध्यो आगे कौन हवाल।।
इस दोहे को पढ़कर महाराज जयसिंह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होनें बिहारी को काली पहाड़ी नामक गाँव दिया और प्रत्येक छन्द पर पुरस्कार रूप में एक अशर्फी प्रदान करने का संकल्प किया। तब से बिहारी जयपुर में ही रहने लगे और आमेर दरबार के राजकवि के रूप में प्रसिद्ध हो गये। सं० 1720 में उनकी मृत्यु हो गई।
बिहारी की ख्याति का मुख्य आधार उनका अप्रतिम ग्रंथ 'सतसई' है। यह गाथासप्तशती, आर्यासप्तशती, अमरूकशतक आदि ग्रंथों की शैली पर निर्मित एक श्रेष्ठ मुक्तक रचना है, जिसमें अधिकांशतः दोहों का और कहीं-कहीं सोरठों का प्रयोग किया गया है। ये दोनों छन्द मुक्तक की कसौटी हैं। मुक्तककार को दोहा-जैसे छन्दों के भीतर अपने संपूर्ण अर्थगौरव को अत्यल्प शब्दों में अत्यन्त कौशल के साथ अभिव्यक्त करना पड़ता है और यह कला बिहारी में पूर्णरूपेण थी। इसी से वे दोहा जैसे छोटे छन्द में इतना रस भर सके हैं। आचार्य शुक्ल ने ठीक ही कहा है- "मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
रीतिकाल रीतिग्रंथों के प्रणयन के काल था। रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि होने के कारण बिहारी का काव्य रीतिकालीन कविता का प्रच्छन्न घोषणा-पत्र है। बिहारी ने यद्यपि लक्षणग्रन्थ के रूप में अपनी सतसई नहीं लिखी है, पर सतसई में श्रृंगारिकता, नायक-नायिका-भेद, नाशिक निरूपण, षड्ऋतु वर्णन आदि के साथ ही चमत्कारपूर्ण भाषा-शैली कवि की रीतिनिष्ठता का परिचायक है।
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