मंगलवार, 2 सितंबर 2025

शिव मंदिर में कछुआ और नन्दी की पूजा क्यों ?

     श्रावण मास आते ही शिव मन्दिर में शिव के भक्तगणों की भीड़ थामे नहीं थमती है। हर तरफ शिवमय वातावरण रहता है। बच्चे हों या बूढ़े सभी महादेव के दर्शन को लालायित रहते हैं और होना भी चाहिए। लेकिन क्या कभी किसी ने विचार किया है कि शिव मन्दिर में कछुए और नन्दी की पूजा क्यों करते हैं?

         सभी विद्वतजन इस पर बहुत सारी बातें बताते हैं और बहुत प्रवचन होते ही रहते हैं। शास्त्रों में भी बहुत कुछ बताया गया है। आप सबके भी अपने मन्तव्य होंगे इस प्रश्न पर । जब मैं इस प्रश्न पर विचार करती हूं तो मेरे मन में भी बहुत सारी बातें आती रहती हैं। आज कुछ मन के भावों को आपसे साझा कर रही हूं -
       शिव मन्दिर में जब हम दर्शन करने जाते हैं तब प्रथम नन्दी और कछुए को नमस्कार कर मंदिर में प्रवेश करते हैं। अर्थात् भगवान को प्राप्त करने से पहले, भगवान् के पास जाने से पहले कछुए जैसा बनना जरूरी है। यह समझाने के लिए ऋषियों ने मंदिर में कछुए को प्रथम स्थान दिया है । उसे यह स्थान मिलने का कारण है इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण। मनुष्य को विकास के मार्ग पर प्रलोभन आने पर भी अविचल रहना सीखना चाहिए। लेकिन आज तो कुछ पैसों का प्रलोभन आते ही हम गलत करने से नहीं चूकते, हमारी इन्द्रियां कहीं भी पतित हो जाती हैं।
        समय आने पर जो अपनी इंद्रियों को खींच सकता है वही अपनी प्रज्ञा स्थिर रख सकता है।  ऐसी स्थिति में आँख इधर-उधर दृष्टि नहीं डालनी चाहिए, कान हर चीज सुनने के लिए तैयार नहीं होने चाहिए, पैर किसी भी दिशा में नहीं पड़ने चाहिए, वाणी बेलगाम नहीं बोलनी चाहिए। अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना हमें आना चाहिए तभी हम शिव तक पहुंच सकते हैं।
हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि मैंने तो पूरे सावन भोलेनाथ के लिए व्रत रखा, जल चढ़ाया लेकिन भोलेनाथ ने मेरी सुनी ही नहीं। अरे भई! भोलेनाथ आपकी बात सुने ऐसी पात्रता आपमें विकसित करने के मार्ग पर भी आप नहीं चले, तो कैसे भोलेनाथ आपकी आवाज सुनेंगे। यह कछुआ हमें हर बार शिव के पास जाने से पहले ही याद दिलाता है कि हम उस योग्य बन सकें क्या कि हमारी बात, हमारा पुष्प, जल, अक्षत वह स्वीकार करें?
    भक्ति की ढाल मजबूत होनी चाहिए। कछुए की पीठ मजबूत और अंदर की चमड़ी मृदु है। कठोरता और कोमलता दोनों का संयोग है। ढाल भी कैसी? शान्ति के समय में सैनिक पीछे और लड़ाई के समय में आगे। क्या हमारी भक्ति की ढाल मजबूत है? 
       कछुआ ऐसा प्राणी है, जो स्थल और जल दोनों में चल सकता है। अर्थात् किसी भी परिस्थिति में गति नहीं बदलनी चाहिए। हां, गति धीमी हो सकती है - जैसे खरगोश - कछुए की कहानी । कछुआ ध्येय तक पहुंच सकता है।

       मन्दिरों में अलग-अलग प्रतीक रखकर ऋषियों ने मानव को संदेश देने की कोशिश की है। ऐसा ही एक प्रतीक है "नन्दी"
      नन्दी यानि वृषभ, बैल। हमारा देश कृषि प्रधान है। इसका महत्व बना रहे इस दृष्टि से भी उसे भक्ति के साथ जोड़ दिया गया । दूसरी बात है पशु सृष्टि के लिए प्रेम, पशु का गौरव । इसलिए उसे भगवान के वाहन का स्थान दिया गया है।
      नन्दी का मुँह भगवान की ओर हो, तो भले ही बुद्धि कम हो फिर भी उसका कर्म प्रभु स्वीकार करते है । हम व्यवहार में उस व्यक्ति को बैल जैसा ही कहते हैं न जिसकी बुद्धि, कम हो या जो किसी भी बात को तुरन्त समझने में सक्षम हो न हो! जैसे कि छिद्र वाला घड़ा किसी भी काम में नहीं आता लेकिन उसे भगवान के ऊपर स्थान मिलता है। ताश के खेल में हुक्म की तीरी बादशाह को भी मात कर सकती है। बैल हल से जुड़कर अनाज उत्पन्न करने में किसान को सहायक हुआ और मनुष्य को मांसाहार से वनस्पत्याहार की ओर ले जाने में उसका बहुत बड़ा योगदान हैं। इस कारण से भी उसे भगवान के चरणों में स्थान मिला है। इसलिए भले ही हममें बुद्धि कम है लेकिन हमारा कर्म सत् होना चाहिए।
     इस प्रकार कछुआ और नन्दी जीवन विकास की प्रेरणा देते है। इसलिए शिव मन्दिर में शिव के पास जाने से पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि क्या हमारी इस मार्ग पर चलने की तैयारी है या नहीं ?

श्वेता गुप्ता 

शिव मंदिर में कछुआ और नन्दी की पूजा क्यों ?

     श्रावण मास आते ही शिव मन्दिर में शिव के भक्तगणों की भीड़ थामे नहीं थमती है। हर तरफ शिवमय वातावरण रहता है। बच्चे हों या बूढ़े सभी महादेव...