मानवता की आशा गीता ।
विश्व बन्धुत्व की भाषा गीता ।।
शब्द दूंढू तो संहिता निकले,
खोदूं मैं सरोवर तो सरिता निकले ।
अलग तासीर है इस भूमि की
यहाँ महाभारत बोए तो गीता निकले ।।
ऐसी मानवता का प्रतीक गीता का अर्जुन है । 'जन्तु नाम नर जन्म दुर्लभं' क्यों
कहा ? प्राणी जगत् में Can do की वृत्ति सिर्फ
और सिर्फ मनुष्य में है । मनुष्य कौन ? जो मानवता से भरा हो अर्थात्
'धर्मो हितेषां अधिको विशेषो' से
युक्त हो । जो भगवान् के बताए रास्ते पर चल सके अर्थात् 'मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः' और जिसके अन्दर कृतज्ञता,
अस्मिता,
तेजस्विता,
भावमयता,
समर्पण ये पाँच गुण हैं वही मनुष्य है । पर आज मानव अपने
भीतर की मानवता एवं स्वकर्मों को भूल गया है – गीता कहती है – 'कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।' आज मनुष्य स्वयं को सभ्य और सुधरा हुआ समझता है । तो क्या अच्छे ब्राण्ड के कपड़े पहनने से या
मोटर, मोबाइल जैसे साधनों
से क्या हम सुधरे हुए हैं, इसके कारण तो Fearing mentality बढ़ रही है,
बौद्धिक एवं शारीरिक मजबूती खत्म हो रही है, पशु वृत्ति
एवं हीन ग्रन्थि बढ़ी है । तब गीता मानव को आश्वासन देती है - 'छुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप' पापी मनुष्य जब समाज द्वारा बहिष्कृत होता है, तब गीता उसे 'अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्य भाक्' कहकर पास में लेती है ।
समाज मे दुःख, सुख के द्वन्द्व हैं । जब समाज में दुःख बढ़ता है तो मनुष्य दीन, हीन, लाचार हो जाता है । ऐसे समय गीता दुःख के सामने Face to Face देखने की हिम्मत देते हुए कहती है - 'न त्वं शोचितुमर्हसि' और समझाती है - 'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्' । और जब समाज में सुख बढ़ता है तो मनुष्य उदण्ड होकर ईश्वराविमुख हो जाता है, उसके अन्दर असुर वृत्ति बढ़ जाती है 'भुंजते ते त्वघं पापा' यानि 'अशुषु रमन्ते इति असुराः' इसीलिए तो पास्कल ने भी कहा है You Should be learn how to be happy । आज समस्या सुखों और दुःखों के साथ सही ढंग से जीने की है, इसीलिए गीता मानव जीवन में आने वाले सुख-दुःख जैसे संघर्षों मे प्राणवान जीवन जीने की आशा देते हुए कहती है - "सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ" और इन दोनों का योग्य समन्वय साधने को कहती है - 'समत्वं योग उच्यते' क्योंकि जब-जब इन दोनों मे समन्वय हुआ, तभी समाज भौतिक, सांस्कृतिक, अध्यात्मिक प्रगति कर सका, इसलिए समाज में भावनात्मक एकता होनी चाहिए ।
आज मनुष्य की परिभाषाएं
अलग-अलग हैं –
कार्ल मार्क्स ने मनुष्य को Economical animal माना, दूसरे रशियन
फिलास्फरों ने Social Animal माना, फ्रायड ने Psychological
animal माना तथा वैज्ञानिकों ने mechanical animal माना । परन्तु हमारे पू. दादा जी आपने मानव में भगवान को देखा 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूता सनातनः ।' की दृष्टि से उसे Devotional Son माना ।
आज जिस समाज में मनुष्य रहता है उसकी उन्नति के बारे में कोई सोचने के लिए तत्पर नहीं है, यह समाज की शोकान्तिका है । प्रान्त भेद, धर्म भेद, वर्ण भेद, भाषा भेद के कलह से समाज त्रस्त है । प्रश्न है कि समाज का उदात्त एकीकरण कैसे करें ? समय-समय पर इसके लिए प्रयास भी हुए हैं । धार्मिक प्रयासों में भी राजपूत और मराठा एक होने के बावजूद आपस मे लड़े हैं । जीसस क्राइस के प्रयासों से सुधरे ईसाई समुदाय से प्रोटेसेटेन्ट और कैथोलिक के भेद उत्पन्न हुए । ब्रिटेन और फ्रान्स आपस में लड़े हैं । वंशतत्त्व की एकता के प्रयासों से पाण्डव, कौरव आदि आपस में लड़े हैं, मुगलों में भी आपस मे द्वन्द्व हुए हैं । मार्क्स के साम्यवादी राष्ट्रवाद से रूस और यूगोस्लोवाकिया में द्वन्द्व हुए हैं । तो किस प्रयास से मानव वंश में एक्य भाव आ सकेगा ? उसके लिए 'पू. दादाजी' ने भक्ति का रास्ता उठाया – Friendship for Devotion 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्नि विष्टो' यानि प्रभु मेरे साथ रहकर मुझे सम्भालता है, वैसे ही वह दूसर को भी सम्भालता है, दूसरे मे भी विद्यामान है । इस नाते Other is not other but he is my Devine brother तथा दूसरे के साथ का सम्बन्ध बताया Devine brother, hood of men under the father hood of God. 'पू. दादाजी' ने ऐसी आत्म गौरव और परसम्मान की भावना समाज में निर्माण कर 'कृण्वन्तो विश्वं आर्यम्' की गर्जना कर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' निर्माण किया । और इसके लिए दादाजी ने अपने जीवन के 83 वर्ष हमारे लिए घिसे हैं । ऐसे विचार समाज के unto the last मानव तक ले जाने के लिए पू. दादा जी ने भक्तिफेरी, भावफेरी तथा स्वाध्याय जैसे अति महत्वपूर्ण प्रयोग देकर 'सर्व भूत हिते रतः' द्वारा पूरे विश्व को एक किया । 'स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः' के आधार पर व्यक्ति को अपनी कर्म कुशलता प्रभु चरणों में रखने की प्रेरणा दी । इसके लिए दादा जी ने 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' के आधार पर अनेक प्रयोग जैसे – योगेश्वर कृषि, मत्स्य गंधा, अमृतालयम्, वृक्षमन्दिर, तीर्थयात्रा, एकादशी, गोरस आदि देकर आर्थिक क्षेत्र में आयी असमानता और गरीबी हटाने वाली अपौरुषेय लक्ष्मी का निर्माण किया । Graceful giving and Graceful taking द्वारा असमर्थ को समर्थ बनाकर छोटे-बड़े को एक किया । दादाजी ने मानव-मानव के बीच के भेद को हटाने के लिए गीता का 'परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ' का आधार लेकर आगरी, बागरी, नागरी, सागरी, गरीब, श्रीमंत, के बीच दैवी भातृत्व का निर्माण किया, जो विश्व बन्धुत्व का प्रतीक है ।
आज ऐसा कार्य समाज में टिकाने के लिए 'आ.दीदी जी' ने स्नेह से वक्तृत्व स्पर्धा देकर हम जैसों को गीता के पास जाने का रास्ता दिखाया, इसलिए हम 'आ.दीदी जी' से कहेंगे दीदी जी आपकी ऊष्मा एवं प्यार से हम भी 20 घरों की 20 युवतियों का एक छोटा सा दैवी विश्व बनाऊँगी और इस ईकाइ को लेकर मैं जीवन पर्यन्त प्रभु कार्य करती और बढ़ती रहूंगी ।
इस प्रकार पूरा वक्तृत्व समाप्त हुआ । बाकी के बचे प्रतिभागियों ने भी अपना वक्तृत्व रखा । फिर अन्त में जजमेन्ट होना था । सभी जजों को थोड़ा समय दिया गया जजमेन्ट देने के लिए । कुछ देर बाद दीदी जी मंच पर आई और उनके हाथों में जजमेन्ट का कागज आया । दीदी ने तृतीय और द्वितीय विजेता का नाम घोषित किया लेकिन प्रथम विजेता का नाम घोषित करने की जिम्मेदारी दर्शकों पर डाल दी और कहा कि दर्शकों का जो फैसला होगा वही मान्य होगा । सम्पूर्ण दर्शकों ने एक सुर में नाम पुकारा श्वेता गुप्ता । सौभाग्य से जजों का भी यही फैसला था । इसके बाद तृतीय और द्वितीय विजेता मंच पर गए और दीदी जी के हाथों से प्रमाण पत्र और सिल्वर और कांस्य पदक प्राप्त किया । मैं भी मंच पर गई । दीदी जी ने मुझे पुरस्कार स्वरूप प्रमाण पत्र और गोल्ड मेडल दिया। फिर पूरा जन समूह अपने हाथों में मोमबत्ती लिये हुए, मनवा सबका नचत देखो डोल डोल के, गीत पर झूम उठा, जिसकी कोरियोग्राफी के लिए सुबह से ही तैयारी चल रही थी । मोमबत्ती की रोशनी से पूरा लक्ष्मण मेला मैदान जगमगा रहा था । यह खबर सुबह के अखबार में भी निकली थी । उस समय मोबाइल का इतना चलन नहीं था, नहीं तो मैं उस हर एक पल को कैमरे में कैद करती । मेरा पूरा परिवार मेरे साथ था । सभी बहुत खुश थे । मेरी मां तो सबसे ज्यादा खुश थी, जब पूरे जन समूह ने मेरा नाम लिया था ।
यह राज्य स्तर की स्पर्धा पूरी कर वैश्विक स्तर पर जाना था । जिसका आयोजन मुम्बई में श्रीमद्भगवद्गीता पाठशाला में हुआ था । हमारे घर से मेरे साथ मेरे पिता जी, ताऊ जी, ताई जी, दद्दू, भाभी, सुरेश चाचा और चाची गये थे । मुम्बई के लिए हम लोगों को बिदा करने के लिए बहुत सारे स्वाध्यायी भाई-बहन आए थे । यह यात्रा बहुत सुखद थी । सभी रेल के एक डिब्बे में । वहां हम लोग एक स्वाध्यायी भाई प्रभु अंकल के यहाँ रुके थे । अगले दिन सुबह कार्यक्रम था । सुबह सब तैयार होकर पाठशाला पहुंच गये । वहाँ अपार जन समूह था, जो कि राज्य स्तर की स्पर्धा से कहीं ज्यादा । वहाँ 32 प्रतिभागी आए हुए थे, जो अलग-अलग देश से थे । कोई अमेरिका से, कोई अफ्रीका से, कोई दुबई से, कोई बैंगलोर से । कई प्रतिभागियों से मिलकर मैंने उनके पते भी लिये थे, जिनमें अमी मजूमदार अमेरिका से थी, मेनल जयेश पटेल बैंगलोर से थी, शीना अफ्रीका से थी, सरिता दुबइ से थी । यहाँ यह स्पर्धा शुरु हुई और मेरा वक्तृत्व 5-6 सेकेण्ड ज्यादा हो गया था । मेरे पिता जी मंच के सामने ही बैठे हुए थे लेकिन किसी काम से उन्हे पाठशाला से बाहर जाना पड़ा और वापस आने में इतनी भीड़ थी कि वापस आना मुश्किल था और पिता जी ने सारा कार्यक्रम बाहर लगी एल.ई.डी में ही देखा । यहां की स्पर्धा में मैने छठा स्थान प्राप्त किया था ।
प्रथम स्थान पर मुम्बई की विद्यापीठ का ही एक युवा विजेता हुआ था । यह क्षण बहुत ही याद आते हैं । वहां से वापस आकर गीता जयंती के वैश्विक स्तर पर प्रतिभाग करने की खुशी में हम लोगों ने पार्टी भी की, जिसका एक चित्र प्राप्त हुआ था, जो नीचे दे रही हूं । प्रत्येक गीता जयंती पर वे दिन बहुत याद आते हैं ।
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