न केवलं कृष्ण सुमाञ्जलिं मम्
गृहाण गन्धान्धितषट्पदावलीम् ।
अनेक दुष्कर्मविदूषिताङ्गुलि
निजे करे मेऽपि करद्वयम् कुरु ॥
अर्थ - हे कृष्ण ! मेरी इस अंजली भर को मत ग्रहण करना जिसमें सुगंध की अधिकता से भौरों को उन्मत्त कर देने वाले फूल भरे हैं। मेरी इन हथेलियों को भी अपने हाथों में ले लेना जिनकी उंगलियां अनेक दोष कर्मों से दूषित हैं।
न केवलं कृष्ण पटीरलेपनम्
गृहाण निर्वापकमङ्गतेऽङ्गके ।
कठोरलोकेषु विघर्षतापितं
कदापि मेऽङ्गं निगृहाण चर्चया ॥
अर्थ - हे कृष्ण ! अंगों को सुशीतल करने वाले इस चंदन के लेप मात्र को ग्रहण करके बस मत कर देना, कठोर संसार में घिस घिसकर व्यथित हुए मेरे इन अंगों की भी चर्चा को कभी स्वीकार कर लेना ।
न केवलं कृष्ण सुमन्दगन्धितै:
सुतृप्य धूपैर्मधुधूमवन्दितै: ।
तुषाग्निगर्भीकृतमर्म जीवनं
ममापि धूम्रं परिदृश्यतामिदम् ॥
अर्थ - हे कृष्ण ! केवल मीठे और मंद सुगंध वाले धूपों से ही मत तृप्त हो जाइएगा, मर्म स्थलों में सुलगते हुए भूसी की आग से धुआं धुआं मेरे जीवन की ओर भी थोड़ी दृष्टि डाल लीजिएगा ।
भवेन्नवे ते नवनीतभोजने
रुचिः परा गोकुलचन्द्र सुन्दर ।
अथ व्यथामन्थसुमन्थितान्तरं
मनो ममापि स्वदतां समर्पितम् ॥
अर्थ - हे गोकुल के चंद्र सुंदर श्री कृष्ण! माखन खाने में आपकी रूचि अगर है तो है, व्यथाओं की पीड़ा की मथानी से अच्छी तरह मथे गए मेरे मन में भी आपकी रूचि हो जाए, जिसे मैंने आपको समर्पित किया है।
गृहाण हे कृष्ण नवार्थसंभृतां
रसानुकूलाक्षरसुन्दरीं स्तुतिम् ।
तथाऽतथासुन्दरवर्णवर्णितां
कथामुरीकुर्वथ मामिकामपि ॥
अर्थ - हे कृष्ण ! नए-नए अर्थों से भरी हुई रस के अनुकूल शब्दों अक्षरों के प्रयोग से मनोहर लगने वाली इस स््तुति को स्वीकार कीजिए । रूखे और फीके वर्णनों के कारण वितृष्णाजनक मेरी इस जीवन कथा को भी ।
दलं च पुष्पं च फलं तथोदकं
शुभं भवेत्तेऽर्चकवृन्ददापितम् ।
अपत्रपुष्पे विफले सुनीरसे
तदीयजीवेऽप्यवधेहि माधव ॥
अर्थ - तुम्हारे अर्चकों द्वारा समर्पित फूल, फल, पत्ते और जल तुम्हारे लिए मंगलमय और पथ्य हों, हे कृष्ण ! लेकिन तुम्हारा ध्यान उनके जीवन पर भी अवश्य जाये जिनमें पत्ते, फूल, फल या रस कुछ भी नहीं है ।
(डॉ. बलराम शुक्ल:)
(आदरणीय बलराम शुक्ल द्वारा रचित ये पद्य मुझे अत्यंत प्रिय हैं। यह हिन्दी अनुवाद भी आपके द्वारा किया गया है।)
1 टिप्पणी:
भक्तिभावप्रवणा कुसुमांजलीयम्....🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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