मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त जी का खड़ीबोली कविता को प्रौढ़ता प्रदान करने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी कविता के क्षेत्र में मैथिलीशरण गुप्त का स्थान निस्सन्देह गौरवपूर्ण है। 'परम्परा और प्रगति, वैयक्तिकता और सार्वजनीनता, अन्तर्जगत् और बाह्यजगतु, शैलियों की विविधता आदि की दृष्टि से जितनी व्यापकता और नवीनता गुप्त जी के काव्यों में मिलती है उतनी अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अनेक प्राचीन और नवीन कथासूत्र ग्रहण कर हिन्दी कविता को समाज और राष्ट्र-सापेक्ष बनाया।
जीवनवृत्त : मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 14 अगस्त, 1886 ई० को उत्तरप्रदेश के झाँसी जनपद में विरगाँव नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीरामचरण था। यह अपनी पिता की तीसरी संतान थे। गुप्त जी के पिता एक संपन्न व्यवसायी थे । चूँकि गुप्त जी के पिता उदार, वैष्णव, कला-प्रेमी एवं गुणग्राहक थे, इसलिए गुप्त जी को बचपन से ही साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण मिला। उनकी माता जी भी अत्यन्त संस्कारित महिला थीं। उनके संस्कारों का प्रभाव भी उनके व्यक्तित्व पर पर्याप्त मात्रा में पड़ा।
गुप्त जी की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव की प्राइमरी पाठशाला में प्रारम्भ हुई, किन्तु वे वहाँ अधिक दिनों तक नहीं टिक पाये। झाँसी के हाईस्कूल में प्रवेश हुआ, परन्तु वहाँ भी उनका मन नहीं लगा। मैकडॉनेल स्कूल झाँसी में भी वही हाल रहा। इसी बीच उनका विवाह मात्र 9 वर्ष की अवस्था में सम्पन्न हो गया । इन्हीं दिनों मुंशी अजमेरी से इनके परिवार का सम्पर्क हुआ। अजमेरी जी गुप्त जी को कवित्त-सवैया और कहानी सुनाते थे। इस प्रकार मुंशी जी के सम्पर्क से गुप्त जी में साहित्यिक संस्कार उत्पन्न हुआ।
अब गुप्त जी घर में आनेवाली समस्त पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ डालते। उन्होंने 'चन्द्रकान्ता' और 'चन्द्रकान्ता-सन्तति' के साथ अनेक जासूसी उपन्यासों को भी पढ़ा। 12 वर्ष की अवस्था उन्होंने एक छप्पय अपने पिताजी की कॉपी में लिखा, जिसकी सराहना की गयी। बड़ों के आशीर्वाद एवं प्रोत्साहन से वे काव्य-रचना में प्रवृत्त हुए, जिससे उन्हें प्रसिद्धि मिली। काव्य रचना के लिए मनोभूमि तैयार हो जाने पर उन्होंने 'रसिकेन्द्र' उपनाम से ब्रजभाषा में कविता लिखना आरम्भ किया। प्रारम्भिक रचनाएँ 'वैश्योपकारक' पत्र में छपीं। महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से खड़ीबोली में लिखना प्रारम्भ किया और 'सरस्वती' में उनकी पहली कविता 1905 ई० में 'हेमन्त' शीर्षक से छपी।
युवावस्था में ही गुप्त जी को अनेक दु:खद घटनाओं का सामना करना पड़ा। एक ही वर्ष में पत्नी, पुत्री, माता और पिता का देहान्त हो गया। आर्थिक स्थिति भी जर्जर हो गयी । दूसरे विवाह के दस साल बाद ही पत्नी और नवजात शिशु भी दिवंगत हो गये। चाचा के अनुरोध पर तीसरा विवाह करना पड़ा। इससे उत्पन्न सन्तानें भी एक-एक कर जाती रही । इन विपरीत परिस्थितियों में मुंशी अजमेरी, प्रेमचन्द प्रसाद और आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसे शुभचिन्तक भी साथ छोड़ गये। गुप्त जी ने सन् 1916 में चिरगाँव में ही एक प्रेस स्थापित किया, जहाँ से उनकी समस्त रचनाएँ प्रकाशित हुई।
गुप्त जी गांधी जी के व्यक्तित्व से सर्वाधिक प्रभावित थे। गांधी जी भी गुप्त जी के प्रशंसक थे। जब भी वे चिरगाँव आते थे तो गुप्त जी के घर पर ही ठहरे। गांधी जी से प्रभावित होकर उन्होंने चरखा चलाना प्रारम्भ किया और भारतरक्षा कानून के अन्तर्गत सात माह तक वे आगरा-जेल में निरुद्ध रहे। उनकी रचनाएं 'अजित' और 'कुणालगीत' जेल जीवन की ही रचनाएँ हैं। वे 1952 और 1958 में दो बार राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किये । 78 वर्ष की आयु में 12 दिसम्बर, 1964 ई० को हृदयगति रुक जाने से उनका देहावसान हो गया ।
व्यक्तित्व : गुप्त जी जितने सहज-सरल थे उतने ही कठोर भी। गुप्त जी के व्यक्तित्व का निर्माण बुन्देलखण्ड की धरती ने किया था। विनम्रता और सरलता उनके व्यक्तित्व की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान, बात- व्यवहार सब में बुन्देलखण्ड के ग्रामीण संस्कार झलकते थे। महादेवी वर्मा ने उनके व्यक्तित्व का जो शब्द-चित्र खींचा है, वह स्वयं साहित्य की एक निधि बन गया। उनके अनुसार : "गुप्त जी के बाह्य दर्शन में ऐसा कुछ नहीं है, जो उन्हें असाधारण सिद्ध कर सके। साधारण मझोला कद, साधारण छरहरा गठन, साधारण गेहुंआ या हल्का साँवला रंग, साधारण पगड़ी या उसका आधुनिक संस्करण गांधी टोपी, कुर्ता, अँगरखा, धोती और इस व्यापक भारतीयता से सीमित साम्प्रदायिकता का गठबन्धन-सा करती हुई तुलसी-कण्ठी। अपने रूप और वेश दोनों में वे इतने अधिक राष्ट्रीय हैं कि भीड़ में मिल जाने पर शीघ्र ही नहीं खोज निकाले जा सकते।"
साहित्यिकों के बीच ‘दद्दा' नाम से चर्चित गुप्त जी अपनी आत्मीयता और मृदुभाषिता से सबको अभिसिक्त रखते थे। धैर्य एवं सहिष्णुता में तो उनका सानी नहीं। उनके भक्तिभाव एवं समर्पण ने ही उन्हें सहज ही सब-कुछ सहन करने लायक बना दिया था। धैर्य के नाते ही अपनी जीवन और काव्य यात्रा में उन्होंने कभी विश्राम नहीं लिया। उनकी वैष्णव-भावना व्यापक सामाजिक उत्थान, राष्ट्रीय भावना एवं सांस्कृतिक चेतना के रूप में परिवर्तित हुई।
कृतित्व : - गुप्त जी की लगभग चालीस काव्य कृतियां हैं। 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक से लेकर सन् 1964 तक उनकी लेखनी अबाध गति से प्रवाहित रही ।
उनकी कृतियां निम्न है -
हिन्दू, त्रिपथगा, शक्ति, गुरुकुल, विकट भट, काबा और कर्बला, रंग में भंग (खण्ड काव्य), भारत भारती, किसान, शकुंतला, पंचवटी, अनघ, साकेत (महाकाव्य), यशोधरा (मुक्तक-काव्य), द्वापर, सिद्धराज, नहुष, कुणालगीत, पृथ्वीपुत्र, प्रदक्षिणा, जयभारत, विष्णुप्रिया आदि ।
पुरस्कार और सम्मान : हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें सन् 1946 में 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि दी । 1948 में आगरा विश्वविद्यालय में डी.लिट्० की मानद उपाधि से विभूषित किया । सन् 1952 में राष्ट्रपति ने उन्हें 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया । 1960 में राष्ट्रपति ने डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की अध्यक्षता में संपादित 'राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त अभिनंदन ग्रन्थ' प्रदान किया और 1960 में ही काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने डी. लिट्० की उपाधि से सम्मानित किया। गुप्त जी के महाकाव्य साकेत पर उस समय का उत्कृष्ट 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' प्रदान किया गया ।
काव्य समीक्षा :- आधुनिक युग में भाव और कला का इतना अधिक विस्तार शायद ही किसी अन्य कवि में दिखाई दे । उनकी कविताओं में भावों की संपन्नता जितनी है इतनी ही अभिव्यंजना की समृद्धि भी । श्रंगार वात्सल्य मानव प्रेम मातृप्रेम प्रकृति प्रेम आदि के अनेक रूप उनकी रचनाओं में पाए जाते हैं ।
भावपक्ष:- भावों की उदात्त योजना के कारण गुप्त जी के काव्य में सत्ता और पवित्रता दिखाई देती हैं । इसलिए गुप्त जी को आधुनिक युग का तुलसीदास कहा जा सकता है ।
कला पक्ष :- ंं गुप्त जी के काव्य में खड़ी बोली का विकास दिखाई देता है । छायावादी काव्य शैली का समस्त काव्य सौंदर्य उनकी कविताओं में पाया जाता है । गुप्तजी ने मात्रिक छन्द, वर्णिक छन्द, मिश्रित छन्द आदि जितनी शैलियों का प्रयोग किया उतना किसी अन्य आधुनिक कवि ने नहीं किया।
मातृभूमि
(1)
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है,
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है।। नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे-मण्डल हैं, वन्दीजन खग-वृन्द, शेष-फन सिंहासन है।। करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की !
है मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की ।।
(2)
मृतक-समान अशक्त विवश आँखों को मीचे गिरता हुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे।
करके जिसने कृपा हमें अवलम्ब दिया था, लेकर अपने अतुल अङ्क में त्राण किया था ।। जो जननी का भी सर्वदा, थी पालन करती रही।
तू क्यों न हमारी पूज्य हो, मातृभूमि मातामही ।।
(3)
जिस की रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाये,
जिसके कारण 'धूल भरे हीरे कहलाये ।।
हम खेले-कूदे हर्ष युत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि ! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में ?
4.
पालन-पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष:स्थल पर हमें कर रही धारण तू ही ।
अभ्रंकष प्रासाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो ! तुझी से तुझ पर सारे ।।
मातृभूमि जब हम कभी, शरण न तेरी पायेंगे।
बस तभी प्रलय के पेट में, सभी लीन हो जाएंगे।।
5.
हमें जीवनाधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है।
श्रेष्ठ एक-से-एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेमभाव से सदा हमारा ।।
हे मातृभूमि ! उपजे न जो, तुझसे कृषि-अंकुर कभी।
तो तड़प-तड़प कर जल मरें, जठरानल में हम सभी ।।
6.
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा ?
तेरी ही यह देह तुझी से बनी हुई है,
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।।
हा ! अन्त समय तू ही इसे, अचल देख अपनायगी ।
हे मातृभूमि ! यह अन्त में, तुझमें ही मिल जायगी ।।
7.
जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता।
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्मभर जिनसे नाता ।।
उन सब में तेरा सर्वदा, व्याप्त हो रहा तत्त्व है। हे मातृभूमि ! तेरे सदृश, किसका महा महत्त्व है।
8.
निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,
शीतल-मन्द-सुगन्ध पवन हर लेता श्रम है।
षट्-ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है,
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है। सुचि सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्र प्रकाश है।
हे मातृभूमि ! दिन में तरणि, करता तम का नाश है।।
9.
सुरभित सुन्दर सुखद सुमन तुझपर खिलते हैं,
भाँति-भाँति के सरस सुधोपम फल मिलते हैं। ओषधियाँ हैं प्राप्त एक-से-एक निराली,
खानें शोभित कहीं धातुवर-रत्नोंवाली ।।
आवश्यक जो होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि ! 'वसुधा', 'धरा', तेरे नाम यथार्थ हैं ।।
10.
दीख रही है कहीं दूर तक शैली श्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी ।
नदियाँ पैर पखार रही हैं बनकर चेरी,
फूलों से तरुराजि कर रही पूजा तेरी।।
मृदु मलय-वायु मानो तुझे, चन्दन चारु चढ़ा रही।
हे मातृभूमि ! किसका न तू, सात्त्विक भाव बढ़ा रही?
11.
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
भव-निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है।।
हे शरणदायिनी देवि ! तू करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि ! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥
12.
आते ही उपकार याद हे माता ! तेरा,
हो जाता मंन-मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा।
तू पूजा के योग्य, कीर्ति सारी हम गावें,
मन तो होता तुझे उठाकर शीश चढ़ावें।।
वह शक्ति कहाँ, हाँ! क्या करें क्यों हमको लज्जा न हो।
हम मातृभूमि ! केवल तुझे, शीश झुका सकते अहो ।।
13.
कारणवश जब शोकदाह से हम दहते हैं,
तब तुझ पर ही लोट-लोटकर दुःख सहते हैं।
पाखण्डी भी धूल चढ़ाकर तन में तेरी,
कहलाते हैं साधु नहीं लगती है देरी।।
इस तेरी ही शुचि धूलि में, मातृभूमि ! वह शक्ति है।
जो क्रूरों के भी चित्त में, उपजा सकती भक्ति है।
14.
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय ! देखता वह सपना है।
तुझको सारे जीव एक-से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे-न्यारे हैं ॥
हे मातृभूमि ! तेरे निकट, सब का सम सम्बन्ध है।
जो भेद मानता वह अहो, लोचनयुत भी अन्ध है।।
15.
जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान् कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोटकर वहीं हृदय को शान्त करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।।
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन मुक्त हम, आत्मरूप बन जायेंगे।
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया
"निज सौध-सदन में उटज पिता ने छाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया ।
सम्राट् स्वयं प्राणेश, सचिव देवर हैं,
देते आकर आशीष हमें मुनिवर हैं।
धन तुच्छ यहाँ, यद्यपि असंख्य आकर हैं,
पानी पीते मृग-सिंह एक तट पर हैं।
सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया,
मेरी कुटिया में राज भवन मन भाया ।
क्या सुन्दर लता-वितान तना है मेरा,
पुञ्जाकृति गुज्जित कुञ्ज घना है मेरा।
जल निर्मल, पवन पराग-सना है मेरा,
गढ़ चित्रकूट दृढ़-दिव्य बना है मेरा।
प्रहरी निर्झर परिखा प्रवाह की काया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया ।
औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ।
श्रमवारि- बिन्दु- फल स्वास्थ्य शुचित फलती हूँ
अपने अंचल से व्यजन आप झलती हूँ।
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