आकाशदीप (जयशंकर प्रसाद)
जयशंकर प्रसाद की आकाशदीप कहानी विशिष्ट कहानियों में से गिनी जाती हैं। इस कहानी में एक असफल प्रेम कहानी को अत्यंत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। लेखक यह बताना चाहते हैं कि मानव के आचरण और व्यवहार को प्रेम और त्याग से काफी बदला जा सकता है । मूल संवेदना प्रेम और कर्म के द्वंद्व पर आधारित है और अंत में कर्त्तव्य भावना का समर्थन करती है । नायिका चम्पा कर्त्तव्य के आगे प्रेम का बलिदान कर देती है । इस कहानी में नारी के त्याग त्याग और लोक कल्याण की भावना भी मुखरित हुई है।
यह नायिका प्रधान प्रेम कहानी है। इसमें समुद्री जीवन को ऐतिहासिक परिवेश में चित्रित किया गया है। कहानी में मानवीय प्रेम को स्पष्ट करते हुए एक आदर्श प्रेम को स्थापित किया गया है। कहानी की नायिका एक त्याग की मूर्ति के रूप में हमारे सामने आती हैं।
कहानी के पात्र -
- बुद्धगुप्त - तामलिप्ति का एक क्षत्रिय है । मुख्यतः यह जलदस्यु है जिसका काम समुद्र में आने वाली जहाजों को लूटना होता है ।
- चम्पा - एक क्षत्रिय बालिका, कहानी की नायिका । वणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने चंपा को बंदी बना लिया । इसके पिता मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे जिसकी मृत्यु जलदस्यु के कारण हुई थी ।
- नायक - जिससे बुद्धगुप्त का युद्ध होता है ।
- जया - सेविका (चम्पा की सेविका)
- पोताध्यक्ष - मणिभद्र
आकाशदीप कहानी का सारांश -
समुद्र में अपने गन्तव्य पर जा रहे पोत पर दो बन्दी, दस नाविक और कुछ प्रहरी हैं। आँधी-तूफान आने की सम्भावना है। एक बन्दी, दूसरे से पूछता है कि मुक्त होना चाहते हो। दूसरा पूछता है कि शस्त्र मिल जाएगा। एक बन्दी अपने को स्वतन्त्र कर दूसरे के बन्धन खोलता है और हर्ष से दूसरे को गले लगा लेता है। पता चलता है कि वह स्त्री है। वह आश्चर्य करता है। पूछने पर वह अपना नाम चम्पा बताती है और एक नाविक के शरीर से टकराकर वह उसका कृपाण निकाल लेती है। उसी समय भयंकर आँधी आती है। एक बन्दी पोत से जुड़ी नाव को अलग करता है। दोनों बन्दी, पोत के कुछ नाविक और उनका नायक नाव पर आ जाते हैं और पोत अपने अध्यक्ष मणिभद्र के साथ ही समुद्र में डूब जाता है।
प्रात: होने पर नायक देखता है कि बन्दी मुक्त हो चुके हैं। बन्दी का नाम बुद्धगुप्त है, जो कि एक जलदस्यु है। नायक बुद्धगुप्त को बन्दी बनाना चाहता है। दोनों में वर्चस्व के लिए युद्ध होता है, जिसमें बुद्धगुप्त विजयी होता है। नायक स्वयं को बुद्धगुप्त का अनुचर स्वीकार करता है। चम्पा बुद्धगुप्त को स्नेहिल दृष्टि से देखती है। चलती हुई नौका बाली द्वीप से दूर एक नवीन द्वीप पर पहुँचती है। बुद्धगुप्त उस द्वीप का नाम चम्पाद्वीप रखता है। द्वीप के मार्ग में ही दोनों; चम्पा और बुद्धगुप्त; एक-दूसरे को अपना परिचय देते हैं। बुद्धगुप्त के मन में चम्पा के प्रति कोमलता उत्पन्न होती है। वह स्वयं में भी परिवर्तन अनुभव करता है। धीरे-धीरे दोनों के पाँच वर्ष उसी द्वीप पर व्यतीत हो जाते हैं। बुद्धगुप्त का समीप के बाली, सुमात्रा, जावा द्वीपों पर वाणिज्य का अधिकार हो जाता है। चम्पा उसे महानाविक कहती है। एक शाम चम्पा द्वीप के किसी उच्च स्थान पर बैठकर आकाशदीप जला रही होती है कि बुद्धगुप्त आता है और आकाशदीप के लिए उसकी किंचित् हँसी उड़ा देता है। इस पर चम्पा नाराज होती है और उसे अपनी माता द्वारा पिता के लिए जलाये जाने वाले आकाशदीप का इतिहास बताती है तथा दस्युवृत्ति छोड़ देने के बाद भी ईश्वर की हँसी उड़ाने के लिए व्यंग्य-बाणों से प्रताड़ित करती है।
एक दिन चम्पा और जया एक छोटी नौका में समुद्र में चल देती हैं। सूर्यास्त हो जाता है। पास ही एक बड़ी नौका पर स्थित बुद्धगुप्त चम्पा को उस पर चढ़ा लेता है और उसके पास बैठ अश्रुपूर्ण नेत्रों से प्रेमपूर्ण निवेदन करता है। चम्पा रो पड़ती है और स्वीकार करती है कि वह भी उससे प्यार करती है। बुद्धगुप्त इस प्रेमपूर्ण क्षण की स्मृतिस्वरूप समुद्र में एक प्रकाश-गृह का निर्माण कराने के लिए कहता है।
चम्पा द्वीप के दूसरे भाग में एक पर्वत श्रृंखला थी। सम्पूर्ण द्वीप को किसी देवी की भाँति सजाया गया था। पर्वत के ऊँचे शिखर पर एक दीप-स्तम्भ बनवाया गया था। उसी के समारोह में चम्पा वहीं समारोह स्थल पर पालकी से जा रही थी। बुद्धगुप्त से अत्यधिक प्रेम करते हुए भी वह मानती थी कि वह ही उसके पिता का हत्यारा है। बुद्धगुप्त उसके सम्मुख स्वीकार करता है कि वह उसके पिता का हत्यारा नहीं, और उससे विवाह के लिए निवेदन करता है। वह कहता है कि इस द्वीप पर इन्द्र और शची की तरह पूजित वे दोनों आज भी अविवाहित हैं। वह उसे उस द्वीप को छोड़कर स्वदेश भारत चलने के लिए कहता है। चम्पा उसे मना कर देती है और कहती है कि वह वहीं रहेगी। बुद्धगुप्त कहता है कि वह यहाँ रहकर अपने हृदय पर अधिकार नहीं रख सकता। उसकी साँसों में विकलता थी। चम्पा उससे इसी द्वीप में रहकर आकाशदीप की तरह स्वयं जलने के लिए कहती है।
एक दिन प्रात: बुद्धगुप्त अपनी नौकाओं को लेकर द्वीप छोड़कर चला जाता है। चम्पा की आँखों से आँसू बहने लगते हैं। चम्पा उसी द्वीप-स्तम्भ में जीवनपर्यन्त दीपक जलाती रही। द्वीप के निवासी उसकी देवी सदृश पूजा करते थे।
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बूढ़ी काकी (प्रेमचंद्र) -
बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की और आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घरवाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और उन्हें न मिलती, तो वे रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारणा रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।
उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालान्तर हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के सिवा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी थी। भतीजे ने सम्पत्ति लिखते समय तो खूब लम्बे-चौड़े वादे किये, परन्तु वे सब वादे केवल कुलीडिपो के दलालों के दिखाये हुए सब्ज़बाग थे । यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपये से कम न थी, तथापि बूढ़ी काकी को पेट-भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पण्डित बुद्धिराम का.अपराध था अथवा उनकी अर्द्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराभ स्वभाव के सज्जन थे, किन्तु उसी समय तक, जब तक कि उनके कोष पर कोई आँच न आये। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थो, जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत ।
बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था। विचारते कि इसी सम्पत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ। यदि मौखिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता तो उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सचेष्टा को दबाये रखता था। यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगतीं तो वह आग हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डाँटते । लड़कों को बुड्ढ़ों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता । काकी चीख मारकर रोतीं, परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके सन्ताप और आर्त्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काफी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं, तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती, इस भय से काकी अपनी जिह्वा-कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।
सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी । लाडली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई-चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी । यही उसका रक्षागार था, और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत महंगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से कहीं सुलभ थी। इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था ।
रात का समय था । बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुण्ड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था। चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे। समीप ही खड़ा हुआ भाट बिरदावली सुना रहा था और कुछ भावज मेहमानों की 'वाह-वाह' पर ऐसा खुश हो रहा था, मानो इस वाह-वाह का यथार्थ में वही अधिकारी है। दो-एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे। वे इस गंवार मण्डली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे ।
आज बुद्धिराम के बड़े लड़के सुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन के प्रबन्ध में व्यस्त थी । भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ- कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हण्डे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। धी और मसाले की क्षुधावर्द्धक सुगन्ध चारों ओर फैली हुई थी ।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भांति बैठी हुई थी। यह स्वाद् मिश्रित सुगन्धि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, सम्भवत: मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगी। इतनी देर हो गयी, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वह न रो सकीं ।
“आहा ! कैसी सुगन्धि है। अब मुझे कौन पूछता है? जब रोटियों के ही लाले पड़ें, तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भर-पेट पूड़ियाँ मिलें ?” यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी। परन्तु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया।
बूढ़ी काकी देर तक इन्हीं दुःखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगन्धि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किये देती थी। मुँह में पानी भर-भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूँ, आज लाड़ली बेटी भी नहीं आयी। दोनों छोकरे सदा दिक किया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है।
बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल-लाल, फूली फूली, नरम-नरम होंगी। रूपा ने भली-भांति मोयन दिया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती, तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चलकर कड़ाह के सामने ही बैठूं। पूड़ियाँ छन-छनकर तैरती होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूंघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और ही बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकडू बैठकर हाथों के बल सरकती हुई कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास आ बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ, जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है ।
रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास आती, कभी भण्डार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा-“महाराज ठण्डाई माँग रहे हैं ।” ठण्डाई देने लगी। इतने में फिर किसी ने कहा-“भाट आया है, उसे कुछ दे दो।” भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा- “अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है। जरा ढोल-मजीरा उतार दो ।” बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ी। प्यास से स्वयं उसका कण्ठ सूख रहा था, गरमी के मारे फुंकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश भी नहीं था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि जरा आंख हटी और चीज़ों की लूट मची।
इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा, तो जल गयी । क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई मन में क्या कहेंगी, पुरुषों में लोग सुनेंगे, तो क्या कहेंगे । जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटककर बोली- “ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता है? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान् को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गयी। जल जाये ऐसी जीभ । दिन-भर खाती न होती, तो न जाने किसकी हाँडी में मुँह डालती ? गाँव देखेगा, तो कहेगा कि बुढ़िया भर-पेट खाने को नहीं पाती, तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। डायन न मरे न माँचा छोड़े । नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवाकर दम लेगी। इतना ढूँसती है, न जाने कहाँ भस्म हो जाता है। लो! भला चाहती हो, तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुन्हें भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाये, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाये।”
बूढ़ी काकी ने सिर न उठाया; न रोईं, न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गयीं । आघात ऐसा कठोर था कि हृदय और मस्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गये थे। नदी में जब कगार का कोई वृहत् खण्ड कटकर गिरता है, तो आस-पास का जल-समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।
भोजन तैयार हो गया। आंगन में पत्तल पड़ गयीं, मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार-गीत गाना आरम्भ कर दिया।। मेहमान के नाई और सेवकगण भी उसी मण्डली के साथ, किन्तु कुछ हटकर भोजन करने बैठे थे, परन्तु सभ्यतानुसार जब तक सब के सब खा न चुकें, कोई उठ नहीं सकता था। दो-एक मेहमान, जो कुछ पढ़े-लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुंझला रहे थे। वे इस बन्धन को व्यर्थ और बे-सिर-पैर की बात समझते थे ।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चात्ताप कर रही थीं कि मैं कहाँ-से-कहाँ गयी । उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाजी पर दुःख था। सच ही तो है, जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे, घरवाले कैसे खायेंगे। मुझसे इतनी देर भी नहीं रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने न आएगा, न जाऊंगी ।
मन-ही-मन इसी प्रकार का विचार कर वह बुलावे की प्रतीक्षा करने लगीं। परन्तु घी की रुचिकर सबास बड़ी ही धैर्य-परीक्षक प्रतीत हो रही थी। उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था। अब पत्तल बिछ गयी होंगी। अब मेहमान आ गये होंगे। लोग हाथ-पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है। मालूम होता है, लोग खाने बैठ गये। जेवनार गाया जा रहा है, धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गयी। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे। किसी की आवाज़ नहीं सुनायी देती, अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गये। मुझे कोई बुलाने नहीं आया। रूपा चिढ़ गयी है, क्या जाने न बुलाये। सोचती हो कि आप ही आयेंगी, वह कोई मेहमान तो नहीं, जो उन्हें बुलाऊँ । बूढ़ी काकी चलने के लिए तैयार हुई। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियाँ सामने आयेंगी, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बाँधे- तरकारी से पूड़ियाँ खाऊँगी, फिर दही और शक्कर से, कचौड़ियाँ रायते के साथ मजेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो माँग-माँगकर खाऊँगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं ? कहा करें, इतने दिन बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं, तो मुँह जूठा करके थोड़े ही उठ आऊँगी।।
वह उकड़ू बैठकर हाथों के बल सरकती हुई आँगन में आयीं। परन्तु हाय दुर्भाग्य ! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी! मेहमान मण्डली अभी बैठी हुई थी। कोई खाकर उगलियाँ चाटता, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। कोई इस चिन्ता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छुटी जाती हैं, किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता। कोई दही खाकर जीभ चटकारता था, परन्तु दूसरा दोना माँगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में जा पहुँची। कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे- अरे यह बुढ़िया कौन है? यह कहाँ से आ गयी? देखो, किसी को छू न दे ।
पण्डित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गये। पूड़ियों का थाल लिये खड़े थे, थाल को जमीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दय महाजन अपने किसी बेईमान और भगोड़े कर्जदार को देखते ही झपटकर उसका टेटुआ पकड़ लेता है, उसी तरह लपककर उन्होंने बूढ़ी काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया । बूढ़ी काकी की आशा रूपी वाटिका लू के एक ही झोंके से नष्ट-विनष्ट हो गयी। मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया, बाजेवाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परन्तु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दण्ड देने का निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हतज्ञान पर किसी को करुणा न आती थी। अकेली लाडली उनके लिए कुढ़ रही थी ।
लाडली को काकी से अत्यन्त प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी । बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गन्ध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा, तो लाड़ली का हृदय ऐंठ कर रह गया। वह झुंझला रही थी कि यह लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं दे देते ? क्या मेहमान सब की सब खा जायेंगे ? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया, तो क्या बिगड़ जायेगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परन्तु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खायी थीं। अपनी गुड़ियों की पिटारी में बन्द कर रखी थीं। वह उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका हृदय अधीर हो रहा था । बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगी, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगी! मुझे खूब प्यार करेंगी।
रात के ग्यारह बज गये थे। रूपा आँगन में पड़ी सो रही थी। लाड़ली की आँखों में नींद न आती थी। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। उसने गुड़ियों की पिटारी सामने ही रखी थी। जब विश्वास हो गया कि अम्मा अब सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ। चारों ओर अंधेरा था। केवल चूल्हे में आग चमक रही थी, चूल्हे के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था । लाड़ली की दृष्टि द्वार के सामने वाले नीम की ओर गयी । उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमानजी बैठे हुए हैं। उनकी पूँछ, उनकी गदा, सब स्पष्ट दिखाई दे रही है। मारे भय के उसने आँखें बन्द कर लीं। इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाड़ली को साहस हुआ। कई सोये हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ। उसने पिटारी उठायी और बूढ़ी काकी की ओर चली।
बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाये लिये जाता है। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराये । तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूर्छित हो गयीं।
जब वे सचेत हुई, तो किसी की जरा आहट भी न मिलती थी । समझीं कि सब लोग खा-पीकर सो गये और उनके साथ मेरी तक़दीर भी सो गयी। रात कैसे कटेगी? राम ! क्या खाऊं? पेट में अग्नि धधक रही है ! हा! किसी मेरी सुध न ली ! क्या मेरा ही पेट काटने से धन जुड़ जायेगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि जाने बुढ़िया कब मर जाये ? उसका जी क्यों दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ ? इस पर यह हाल। मैं अन्धी अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूँ न बूझें। यदि आँगन में चली गयी तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खा रहे हैं, फिर आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्हीं पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया मेरी बात तक न पछी । जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे ? यह विचार कर काकी निराशमय सन्तोष के साथ लेट गयीं। ग्लानि से गला भर- भर आता था, परन्तु मेहमानों के भय से रोती न थीं ।
सहसा उनके कानों में आवाज़ आयी-“काकी उठो, मैं पूड़ियाँ लायी हूँ।” काकी ने लाड़ली की बोली पहचानी। चटपट उठ बैठीं। दोनों हाथों से लाड़ली को टटोला और उसे गोद में बैठा लिया। लाड़ली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं। काकी ने पूछा-“क्या तुम्हारी अम्मा ने दी हैं?”
लाडली ने कहा-“नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं।"
काकी पूड़ियों पर टूट पड़ीं। पांच मिनट में पिटारी खाली हो गयी। लाड़ली ने पूछा काकी पेट भर गया ?" जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठण्डक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है, उसी भाँति इन थोड़ी-सी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा को और इच्छा को उत्तेजित कर दिया था। बोलीं “नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और माँग लाओ।”
लाड़ली ने कहा-“अम्मा सोती हैं, जगाऊँगी, तो मारेंगी।”
काकी ने पिटारी को फिर टटोला । उसमें कुछ खुर्चन गिरे थे। उन्हें निकालकर वे खा गयीं। बार-बार होंठ चाटती थीं। चटखारे भरती थीं।
हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ । सन्तोष-सेतु जब टूट जाता है, तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदान्ध बनाता है। काकी का अधीर मन इच्छा के प्रबल प्रवाह में बह गया । उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। सहसा लाडली से बोलीं- "मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चल, जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है।”
लाडली उनका अभिप्राय न समझ सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर जूठी पत्तलों के पास बैठा दिया। दीन, क्षुधातुर, हत-ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुन कर खाने लगी। ओह, दही कितना स्वादिष्ट था, कचौरियाँ कितनी स्वादिष्ट, खस्ता, कितनी सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूँ, जो मुझे कदापि न करना चाहिए। मैं दूसरों की जूठी पत्तल चाट रही हूँ। परन्तु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अन्तिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएँ एक ही केन्द्र पर आ लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह केन्द्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी।
ठीक उसी समय रूपा की आँखें खुलीं। उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहाँ न पाकर वह उठ बैठी, तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठी पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही हैं।
रूपा का हृदय सन्न हो गया। किसी गाय की गर्दन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की जूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असम्भव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा पतित और निकृष्ट कर्म कर रही है। यह वह दृश्य था, जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता, मानो जमीन रुक गयी, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई नयी विपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आयीं। इस अधर्म के पाप का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन-मण्डल की ओर हाथ उठाकर कहा-“परमात्मा! मेरे बच्चों पर दया करो। बस, अधर्म का दण्ड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जायेगा।”
रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में भी न देख पड़े थे । वह सोचने लगी-हाय! कितनी निर्दयी हूँ। जिसकी सम्पत्ति से मुझे दो सौ रुपया वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति! और मेरे कारण! हे दयामय भगवान्! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो। आज मेरे बेटे का तिलक था। सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया। मैं उनके इशारे की दासी बनी रही। अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपये व्यय कर दिये । परन्तु जिसकी बदौलत हज़ारों रुपये खाये, उसे इस उत्सव में भी भर-पेट भोजन न दे सकी। केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है।
रूपा ने दिया जलाया, अपने भण्डार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियाँ सजाकर लिये हुए बूढ़ी काकी की ओर चली ।
आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परन्तु उनमें किसी को वह परमानन्द प्राप्त न हो सकता था, जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ। रूपा ने कण्ठावरुद्ध स्वर में कहा- “काकी! उठो, भोजन कर लो । मुझसे बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दें।"
भोले- भाले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थीं। उनके एक-एक रोयें से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी स्वर्गीय दृश्य का आनन्द लेने में निमग्न थी।
अज्ञेय कृत 'रोज' (गैंग्रीन) -
दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मंडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था....
मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली मुझे देखकर पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, "आ जाओ" और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।
भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, "वे यहाँ नहीं है?""
"अभी आये नहीं, दफ्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़ दो बजे आया करते हैं।"
"कब के गये हुए हैं?"
"सवेरे उठते ही चले जाते हैं।"
"मैं 'हूँ' कर पूछने को हुआ, "और तुम इतनी देर क्या करती हो?" पर फिर सोचा, आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपति करते हुए कहा, "नहीं, मुझे नहीं चाहिए। पर वह नहीं मानी, बोली, “वाहा चाहिए कैसे नहीं" इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो..."
मैंने कहा, "अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।"
यह शायद ना करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और
घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई हुई करके उठी और भीतर चली गयी।
मैं उसके जाते हुए दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा, यह क्या है... यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है ....
मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा...
मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है... और विशेषतया मालती पर...
मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, “इसका नाम क्या है?
मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।"
मैंने उसे बुलाया, "टिटी", टीटी, आ जा, पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, “उहु-उहु-उहु-ऊं..."
मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी...
काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की... यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ.. चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती... पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए...
कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, “जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई -
उसने एकाएक चौंककर कहा, "हूँ?”
यह 'हूँ' प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। यह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो... वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि यह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता... मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, यह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये...
तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।
वे, यानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर...
मालती के पति का नाम है 'महेश्वर'। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने... उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं.....
मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, “तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?"
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, "वह पीछे खाया करती है..... पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, “आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?"
मैंने उत्तर दिया, “वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।"
मालती टोककर बोली, “ऊँहू, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है... रोज़ ही ऐसा होता है..."
मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था। मैंने कहा, “यह रोता क्यों है?”
मालती बोली, “हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।”
फिर बच्चे को डॉटकर कहा, “चुपकर।” जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया और बोली, "अच्छा ले, रो ले।” और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी !
जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा.... दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है... थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, “अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।"
वह बोली, “खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,” किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।
दूर... शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है “तीन बज गये..." मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो...
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, “तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो...
“बहुत था।”
“हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।" मैंने हँसकर कहा।
मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, “यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं, मुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है...
मैंने पूछा, “नौकर कोई नहीं है?"
“कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए।”
“बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?”
“और कौन?” कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।
मैंने पूछा, “कहाँ गयी थीं?”
“आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?"
“क्यों, पानी को क्या हुआ?"
“रोज़ ही होता है.... कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मजेंगे।"
“चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई." कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई"
यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।
थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा ही नहीं, और बोली, " यहां कैसे आये?"
मैंने कहा ही तो, “अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?”
“तो दो-एक दिन रहोगे न?”
“नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।”
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।
थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ यह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाये? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती...
मैंने पूछा, “तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?" मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़े।
“यहाँ!” कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी. 'यहाँ पढ़ने को है क्या?"
मैंने कहा, "अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूंगा..." और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया....
थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, “आये कैसे हो, लारी में?"
"पैदल।"
“इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।"
“आखिर तुमसे मिलने आया हूँ।"
“ऐसे ही आये हो?"
“नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर मैंने सोचा बिस्तरा ले ही चलूँ।”
“अच्छा किया, यहाँ तो बस..." कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, "तब तुम थके होगे, लेट जाओ।" “नहीं, बिलकुल नहीं थका।" “रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?”
“और तुम क्या करोगी?"
“मैं बरतन माँज कर रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।"
मैंने कहा, "वाह!" क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं।
थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा... मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा....
एकाएक वह एक-स्वर टूट गया- मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा....
चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी... वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यन्त्रवत् वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, “चार बज गये", मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया... न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।
तब छह कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, “आपने बड़ी देर की?"
उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, "हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।"
मैंने पूछा "गैंग्रीन कैसे हो गया।"
“एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के..."
मैंने पूछा, "यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?"
बोले, "हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी..."
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, "बोली, “हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!"
महेश्वर हँसे, बोले, “न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?”
“हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि कॉटों के चुभने से मर जाते हैं..."
महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, “ऐसे ही होते हैं, डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो खयाल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी। "
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा- टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्...
मालती ने कहा, “पानी!" और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोए जाने लगे हैं....
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, “उधर मत जा!" और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।
महेश्वर बोले, “अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।”
मैंने पूछा, “आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?"
"होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाये? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।" फिर कुछ रुककर बोले, “आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।"
टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, "मैं मदद करता हूँ". और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।
अब हम तीनों... महेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्तव्य याद करके रो उठता था, और फिर एकदम चुप हो जाता था... और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे।
मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, "थोड़े से आम लाया हूँ, यह भी धो लेना।"
“कहाँ हैं?”
“अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए।"
मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार थे का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी... वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।
मुझे एकाएक याद आया...बहुत दिनों की बात थी... जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बगीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया... कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न मन लौट आया करता था।
मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे. एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, "किताब समाप्त कर ली?" तो उत्तर दिया... "हॉ, कर ली, "पिता ने कहा, “लाओ, मैं प्रश्न पूछूंगा, तो चुप खड़ी रही। पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, "किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूंगी।"
उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय में यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है... यह क्या, यह...
तभी महेश्वर ने पूछा, "रोटी कब बनेगी!"
“बस, अभी बनाती हूँ।"
पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी...
और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।
हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।
मैंने महेश्वर से पूछा, “आप तो थके होंगे, सो जाइये।"
वह बोले, "थके तो आप अधिक होंगे... अट्ठारह मील पैदल चल कर आये हैं। " किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया... थका तो मैं भी हूं।"
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।
तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।
पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।
मैंने देखा उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो...
मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष... गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष... धीरे-धीरे गा रहे हों... कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं...
मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं...
मैंने देखा दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से आप से उठकर यातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे यह करने के लिए पर्वत शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं..
पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने... महेश्वर ऊँधे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी. अभी छुट्टी हुई जाती है। और मेरे कहने पर ही कि " ग्यारह वाले हैं,” धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज ही इतने बज जाते हैं... मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था.....
चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा- “क्या हुआ?" मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस खट्' शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, “चोट बहुत लग गयी बेचारे के।”
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।
मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, “इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है।"
एक छोटे क्षण भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा मेरे मन न भीतर ही बाहर एक शब्द भी नहीं निकला "माँ युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!"
और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि ये उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया....
इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?
तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जाने वाली आवाज़ में उसने कहा, “ग्यारह बज गये..."
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