सोमवार, 25 जुलाई 2022

राजा शूद्रक तथा राजा नल का वर्णन

जिन प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में कादम्बरी कथामुख तथा नलचम्पू ग्रन्थ लगे हैं उन प्रतियोगी परीक्षाओं में अक्सर राजा शूद्रक तथा राजा नल के वर्णन से प्रश्न आते रहते हैं। अतः दोनों राजाओं का वर्णन निम्नवत् है -

 राजा शूद्रक

आसीदशेष-नरपति-शिरः-समभ्यर्च्चित-शासनः पाकशासन इवापरः, चतुरुदधिमालामेखलाया भुवो भर्त्ता, प्रतापानुरागावनत- समस्त सामन्तचक्रः, चक्रवर्तिलक्षणोपेतः, चक्रधर इव करकमलोपलक्ष्यमाण-शङ्ख-चक्र लाञ्छनः हर इव जितमन्मथ:, गुह इवाप्रतिहतक्ति कमलयोनिरिव विमानीकृतराजहंसमण्डलः, जलधिरिव लक्ष्मीप्रसूतिः, गङ्गाप्रवाह इव भगीरथपथप्रवृत्तः, रविरिव प्रतिदिवसोपजायमानोदयः मेरुरिव सकलोपजीव्यमानपादच्छाय:, पादच्छायः, दिग्गज इवानवरतप्रवृत्तदानार्द्रीकृतकरः कर्त्ता महाश्चर्याणाम्, आहर्त्ता क्रतूनाम्, आदर्शः सर्वशास्त्राणाम्, उत्पत्तिः कलानाम्, कुलभवनं गुणानाम्, आगमः काव्यामृतरसानाम्, उदयशैलो मित्रमण्डलस्य, उत्पातकेतुरहितजनस्य, प्रवर्त्तयिता गोष्ठीबन्धानाम्, आश्रयो रसिकानाम्, प्रत्यादेशो धनुष्मताम्, धौरेयः साहसिकानाम्, अग्रणी विदग्धानाम्, वैनतेय इव विनतानन्दजननः, वैन्य इव चापकोटिसमुत्सारित सकलारातिकुलाचलो राजा शूद्रको नाम ।

अर्थ - दूसरे इन्द्र के समान प्रभावशाली शूद्रक नाम का एक राजा था । सभी राजा उसकी आज्ञा सिर झुकाकर मानते थे। वह चतुःसमुद्ररूपिणी मेखला धारण करने वाली पृथ्वी का स्वामी था । उसने अपने प्रताप और अनुराग से सभी सामन्तों को अपने वश में कर रखा था । वह चक्रवर्ती राजा के लक्षणों से युक्त था । वह भगवान् विष्णु, जिनके हाथ में शंख और चक्रायुध रहता है; के समान था, उसके कर कमल में शंख और चक्र आकार की रेखाएँ अंकित थीं। वह कामदेव को जीत लेने वाले भगवान् शंकर के सदृश था, उसने कामविकारों को जीत रखा था। वह कार्तिकेय, जो अचूक 'शक्ति' नामक अस्त्र धारण करते हैं; के सदृश था, जिसकी शक्ति को कोई रोक नहीं सकता था। वह ब्रह्माजी; जो राजहंसों के समूह को अपना विमान बनाकर रखते हैं; के समान था, जिसने बड़े-बड़े राजाओं के मण्डल का अभिमान ध्वस्त कर दिया था। वह समुद्र; जो लक्ष्मी का जनक है; के समान था, जो धन-सम्पत्ति का उद्गम स्थल था । वह राजा भगीरथ के मार्ग पर चलती गंगा के प्रवाह की तरह था, जो भगीरथ द्वारा प्रदर्शित (उद्योग, उत्साह और साहस आदि) राह पर चलता था। वह प्रतिदिन उदित होने वाले सूर्य की तरह था, जिसका दिन-प्रतिदिन अभ्युदय होता रहता था। वह मेरु पर्वत; जिसकी तलहटियों की छाया का सब देवगण आश्रय लेते हैं; की तरह था, जिसके चरणों की छाया अर्थात् आश्रय सभी जन लेते थे। वह दिग्गज; जिसकी अनवरत बहते मदजल से सूँड गीली बनी रहती है; की तरह था, जिसका हाथ दान देने के संकल्प-जल से निरन्तर गीला बना रहता था। वह बड़े-बड़े आश्चर्यो का कर्ता, यज्ञों का अनुष्ठाता, समस्त शास्त्रों का आदर्श, समस्त कलाओं का उत्पत्ति स्थल, गुणों का पारम्परिक निवास और काव्यामृत रसों का उद्गम स्थान था। वह मित्रमंडल का उदयगिरि, शत्रु-जन का धूमकेतु, गोष्ठियों का प्रवर्तक, रसिकों का आश्रय, धनुर्धारियों का तिरोधाता साहसिकों का अग्रणी और चतुर-जनों का मुखिया था। वह गरुड़; जो अपनी माता विनता को आनन्द देता था; के समान था; जो विनत जन को आनन्द = सुख देता था। वह वैन्य (पृथु) जिसने धनुष के किनारे से अपने शत्रुभूत कुलपर्वतों को हटा दिया था; के समान था, जिसने करोड़ों धनुषों द्वारा पर्वत जैसे (मजबूत) शत्रुओं को नष्ट कर दिया था।

नाम्नैव यो निर्भिन्नारातिहृद‌यो विरचितनरसिंह-रूपाडम्बरम्, एकविक्रमाक्रान्तसकलभुवनतलो विक्रमत्रयायासितभुवतत्रयं जहासेव वासुदेवम् ।अतिचिरकाललग्नमतिक्रान्तकुनृपतिसहस्रसम्पर्ककलङ्कमिव क्षालयन्ती यस्य विमले कृपाणधाराजले चिरमुवास राजलक्ष्मीः।

अर्थ - शूद्रक के नाम से ही शत्रुओं की छाती फट जाती थी और अपने अद्वितीय पराक्रम से उसने समस्त भुवनतल को अपने अधीन कर लिया था। इसलिए वह, जिन्होंने (शत्रु हिरण्यकशिपु की छाती फाड़ने के लिए) नरसिंह के रूप का आडम्बर रचा था तथा तीन पगों से केवल तीन भुवनों को ही व्याप्त किया था उन भगवान् विष्णु का मानो मखौल उड़ा रहा था। पुरातन काल से लगे आ रहे अतीत के हजारों कुनृपतियों के सम्पर्करूपी कलंक को धोती हुई राजलक्ष्मी उसकी तलवार के निर्मल धारा-जल में चिरकाल तक के लिए आ बसी थी।

यश्च मनसि धर्मेण, कोपे यमेन, प्रसादे धनदेन, प्रतापे वह्निना, भुजे भुवा, दृशि श्रिया, वाचि सरस्वत्या, सुखे शशिना, बले मरुता, प्रज्ञायां सुरगुरुणा, रूपे मनसिजेन, तेजसि सवित्रा च वसत, सर्वदेवमयस्य प्रकटितविश्वरूपाकृतेरनुकरोति भगवतो नारायणस्य ।

अर्थ -  शूद्रक में समस्त देवों का निवास था - राजा शूद्रक अपने मन में बसे धर्म से, अपने कोप में बसे यमराज से, अपने प्रसाद में बसे कुबेर से, अपने प्रताप में बसे अग्निदेव से, अपने भुजदण्ड में बसी पृथ्वी से, अपनी दृष्टि में बसी लक्ष्मी से, अपनी वाणी में बसी सरस्वती से, अपने मुख में बसे चन्द्रमा से, अपनी बुद्धि में बसी सरस्वती से, अपने रूप में बसे कामदेव से, अपने तेज में बसे सूर्य से सर्वदेवमय भगवान् विष्णु, जो विश्वरूप के आकार में प्रकट होते है; का अनुकरण करता था।

यस्य च मदकल–करि—कुम्भ-पीठपाटनमाचरत । लग्न-स्थूलमुक्ताफलेन, दृढे-मुष्टि-निष्पीडन-निष्ठ्यूत-धाराजलबिन्दु-दन्तुरेव-धाराजलबिन्दु-दन्तुरेव कृपाणेनाकृष्यमाणा सुभटोरः कपाट-घटितै-कवच-सहस्रान्धकार-मध्यवर्तिनी करि-करट-गलित-मदजलासार- दुर्दिनास्वभिसारिकेव समरनिशासु समीपं सकृदाजगाम राजलक्ष्मीः ।

अर्थ - मद (मस्ती) के कारण मनोज्ञभूत (अर्थात् रमणीयता युक्त) हाथियों के कुम्भस्थल का विदारण करने वाले जिस ( शूद्रक) के पास (कुम्भविदारण के कारण) लगे हुए बड़े-बड़े गजमौक्तिकों वाले तथा सुदृढ़ मुट्ठी से निष्पीड़ित किये (दबाये) जाने के कारण निर्गलित (तलवार की) धारा रूपी जलबिन्दुओं से उच्चावच प्रतीत होने वाले कृपाण से खींची जाती हुई तथा योद्धाओं के वक्षःस्थल रूपी कपाटों से विच्छिन्न किये गये सहस्रों कवच रूपी अन्धकार के बीच रहने वाली (शत्रुपक्ष की) साम्राज्य लक्ष्मी, हाथियों के कपोल मण्डल से झरने वाले मदजल की वेगमयी वर्षा के कारण उत्पन्न दुर्दिनों वाली संग्राम-रात्रियों में, अभिसारिका की भाँति एक बार ही आ गयी ।

यस्य च हृदयस्थितानपि पतीन् दिधक्षुखि प्रतापानलो वियोगिनीनामपि रिपुसुन्दरीणामन्तर्जनितदाहो दिवानिशं जज्वाल ।

अनुवाद - (पतिविनाश के कारण पहले से ही) विरहिणी शत्रु वनिताओं के अन्त:करण में दाह उत्पन्न करने वाली जिस (शूद्रक) की प्रतापाग्नि मानों हृदय में निवास करते हुए भी ( अर्थात् न जला सकने योग्य) पतियों को भस्म कर देने की इच्छा से दिन-रात जलती रहती थी ।

यस्मिंश्च राजनि जितजगति परिपालयति महीं चित्रकर्मसु वर्णसङ्कराः, रतेषु केशग्रहाः, काव्येषु दृढबन्धाः, शास्त्रेषु चिन्ता, स्वप्नेषु विप्रलम्भाः, छत्रेषु कनकदण्डाः, ध्वजेषु प्रकम्पाः, गीतेषु रागविलसितानि, करिषु मदविकाराः, चापेषु गुणच्छेदाः, गवाक्षेषु जालमार्गः, शशिकृपाणकवचेषु कलङ्काः, रतिकलहेषु दूतसम्प्रेषणानि, सार्य्यक्षेषु शून्यगृहाः न प्रजानामासन् ।

अनुवाद - विश्वजयी जिस राजा (शूद्रक) के पृथ्वी पालन करते समय अर्थात् आलेखन क्रियाओं में (रक्तपीतादि) वर्णों का सम्मिश्रण होता था, कामक्रीडाओं में केश खीचा जाता था, काव्यों में दृढ़बन्ध अर्थात् क्लिष्ट पदरचनाएँ होती थीं, सिद्धान्तों में चिन्तन होता था, स्वप्नदशाओं में वियोग होते थे, आतपत्रों में सुवर्णघण्टियाँ होती थीं, पताकाओं में फरफराहट होती थी, गीतों में (बसन्त, धमाश्री प्रभृति शास्त्रीय एवं देशीय) रागों के प्रयोग होते थे, हाथियों में मदविकार होते थे, धनुषों में गुणच्छेद अर्थात् डोरियों का टूटना होता था, वातायनों में जालियाँ होती थीं, चन्द्रमा, कृपाण तथा कवचों में कलंक (दाग) होते थे, रतिक्रीडाघटित मनमुटावों में सन्देशहरों के गमन होते थे, खेलने में योग्य पाशों अर्थात् शतरञ्ज प्रभृति द्यूतक्रीडाओं में निर्जन स्थान होते थे (किन्तु) प्रजाओं में ये सब नहीं थे ।

प्रत्येक वाक्य का एक-एक निषेध पक्ष भी है और प्रत्येक का सम्बन्ध प्रजा से भी है ।

यस्य च परलोकाद्भयम्, अन्तःपुरिकालकेषु भङ्गः, नूपुरेषु मुखरता, विवाहेषु करपीडनम्, अनवरतमखाग्निधूमेनाश्रुपातः, तुरगेषु कशाभिघातः, मकरध्वजे चापध्वनिरभूत् ।

अर्थ -  जिसे अर्थात् राजा शूद्रक को परलोक अर्थात् जन्मान्तर से भय था, अन्तःपुर रमणियों के केशपाशों में घुंघरालापन था, नूपुरों अर्थात् पायलों में मुखरता (अनुरणन या झङ्कार ) थी, विवाहों में पाणिग्रहण होता था, निरन्तर प्रवृत्त यज्ञाग्नि के धूम से अश्रुपात होता था, अश्व पर कोड़े का प्रहार होता था तथा कामदेव (के सन्दर्भ) में धनुष की टंकार होती थी ।

शूद्रक राजधानी वर्णन -

तस्य च राज्ञः कलिकाल-भयपुञ्जीभूत-कृतयुगानुकारिणी-कृतयुगानुकारिणी त्रिभुवनप्रसवभूमिरिव विस्तीर्णा मज्जन्मालवविलासिनीकुचतटास्फालन-जर्जरितोर्म्मिमालया जलावगाहनावतारित-जयकुञ्जर-कुम्भ-सिन्दूर-सन्ध्यायमान-सलिलया उन्मद-कलहंस-कुल-कोलाहल-मुखरित कूलया वेत्रवत्या परिगता विदिशाभिधाना नगरी राजधान्यासीत् ।

अर्थ - राजा शूद्रक की राजधानी का नाम विदिशा था । उसमें पुण्य का बोलबाला था । लगता था, जैसे कलियुग के डर से सत्ययुग अपने समस्त वैभव के साथ वहाँ आ गया था — वह नगरी कलियुग के डर से आकर इकट्ठे हुए सत्ययुग का अनुकरण करती थी। वह तीनों लोकों के उत्पत्ति-स्थान के समान विस्तीर्ण थी। वह वेत्रवती (आजकल की बेतवा नदी से घिरी हुई थी। वेत्रवती की तरंग-माला स्नान करती मालव-विलासिनियों के उतार-चढाव वाले स्तनों की टकराहट से छितरा जाती थी। उसका जल स्नान के लिए उतरे जयकुंजरों के कुम्भस्थल पर लगे सिन्दूर से सन्ध्या-काल का आचरण करने लगता था अर्थात् लाल हो जाता था। उसके तट झुण्ड के झुण्ड मदमत्त कलहंसों के कोलाहल से शब्दायमान रहते थे।

शूद्रक युवावस्था वर्णन -

स तस्याञ्च विजिताशेष-भुवनमण्डलतया विगतराज्यचिन्ताभारनिर्वृतः, द्वीपान्तरागतानेक-भूमिपाल-मौलिमाला-लालित-चरणयुगलः वलयमिव लीलया भुजेन भुवनभारमुद्वहन्, अमरगुरुमपि प्रज्ञयोपहसद्भिरनेककुलक्रमागतैरसकृदालोचित-नीतिशास्त्र- निर्म्मलमनोभिरलुब्धैः स्निग्धैः प्रबुधैश्चामात्यैः परिवृतः, समानवयोविद्यालङ्कारैरनेकमूर्द्धाभिषिक्त-पार्थिवकुलोद्गतैरखिल-कलाकलापालोचन -कठोरमतिभिरतिप्रगल्भै: कालविद्भि: प्रेमानुरक्तहृदयैरग्राम्यपरिहासकुशलैरिङ्गिताकारवेदिभिः काव्य-नाटकाख्यानकाख्यायिकालेख्यव्याख्यानादिक्रियानिपुणैरतिकठिन-पीवर-स्कन्धोरु- बाहुभिरसकृदवदलित-समद- रिपुगज-घटा-पीठबन्धैः केसरिकिशोरकैरिव, विक्रमैकरसैरपि विनयव्यवहारिभिरात्मनः प्रतिबिम्बैरिव राजपुत्रैः सह रममाणः प्रथमे वयसि सुखमतिचिरमुवास ।

अर्थ - शूद्रक ने विदिशा नामक राजधानी में अपनी युवावस्था में लम्बे समय तक सुखपूर्वक निवास किया । उसने समस्त भुवनमण्डल को जीत लिया था। अतः उस पर राज्य की चिन्ता का कोई भार नहीं था, इसीलिए वह निश्चिन्त था। उसके दोनों चरण दूसरे दूसरे द्वीपों से आनेवाले राजाओं के मुकुट माला से सेवित थे। वह अपने हाथों पर भुवन का भार कंकण की तरह अनायास भाव से वहन किए हुए था। वह जिन अमात्यों से घिरा रहता था वे अपनी बुद्धि से देवगुरु बृहस्पति का भी मखौल उड़ाते थे, अर्थात् बहुत ही बुद्धिमान थे। वे अमात्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे थे। उनके मन नीतिशास्त्र का निरन्तर पर्यालोचन करने से निर्मल हो चुके थे। वे निर्लोभ, स्नेहशील और ज्ञान सम्पन्न थे। वह जिन राजपुत्रों के साथ रमण किया करता था, वे उसके हमउम्र थे, विद्या और अलंकारों में उसके समकक्ष थे। वे मूर्धाभिषिक्त राजाओं के कुल में उत्पन्न हुए थे। उनकी मति समस्त कलाओं के पर्यालोचन से परिपक्व हो चुकी थी। वे राजकुमार अत्यन्त प्रतिभाशाली और कलाविद् थे। उनके मन अनुराग रंजित थे। वे शिष्ट परिहास करने में कुशल थे और इशारों का अभिप्राय समझते थे। वे काव्य, नाटक, आख्यान, आख्यायिका, आलेख्य, व्याख्यान आदि की क्रियाओं में निपुण थे। उनके कन्धे, जंघा और भुजदण्ड अत्यन्त कठोर और पुष्ट थे। उन्होंने सिंह-शावकों की तरह अनेक बार घटाओं की तरह घिर आए शत्रु के मदमत्त हाथियों के गण्डस्थल का विदारण किया था। वे राजकुमार पराक्रमैकरूचि होने पर भी विनय का व्यवहार करते थे। वे राजा शूद्रक के अपने प्रतिबिम्ब-सदृश थे। (आजकल की भाषा में उसकी कार्बन कॉपी थे)।

शूद्रक मनोरंजन वर्णन -

तस्य चातिविजिगीषुतया महासत्त्वतया च तृणमिव लघुवृत्ति स्त्रैणमाकलयतः प्रथमे वयसि वर्त्तमानस्यापि रूपवतोऽपि सन्तानार्थिभिरमात्यैरपेक्षितस्यापि सुरतसुखस्योपरि द्वेष इवासीत् । सत्यपि रूपविलासोपहसित-रतिविभ्रमे लावण्यवति विनयवत्यन्वयवति हृदयहारिणि चावरोधजने, स कदाचिदनवरतदोलायमान-रत्नवलयो घर्घरिकास्फालन-प्रकम्प-झणझणायमान- मणिकर्णपूरः स्वयमारब्धमृदङ्गवाद्यः सङ्गीतकप्रसङ्गेन, कदाचिदविरल-विमुक्त-शरासार - शून्यीकृतकाननो मृगयाव्यापारेण, कदाचिदाबद्धविदग्धमण्डलः काव्यप्रबन्धरचनेन, कदाचिच्छास्त्रालापेन, कदाचिदाख्यानकाख्यायिकेतिहासपुराणाकर्णनेन, कदाचिदालेख्यविनोदेन, कदाचिद्वीणया, कदाचिद्दर्शनागत-मुनिजन-चरणशुश्रूषया, कदाचिदक्षरच्युतकमात्राच्युतक-बिन्दुमती -गूढचतुर्थपाद-प्रहेलिका- प्रदानादिभिः, वनिता-सम्भोग-सुख-पराङ्मुख: सुहृत्परिवृतो दिवसमनैषीत् । यथैव च दिवसमेवमारब्ध-विविध-क्रीडा-परिहास-चतुरैः सुहृद्भिरुपेतो निशामनैषीत् ।

अर्थ - अत्यन्त विजिगीषु और असाधारण पराक्रमी और धैर्यवान् होने की वजह से शूद्रक स्त्रियों को तिनके के समान तुच्छ समझता था। यद्यपि वह नौजवान भी था और रूपवान् भी, उधर अमात्य भी यह चाहते थे कि अब इसके सन्तान होनी ही चाहिए तथापि उसे स्त्री-सम्भोग सुख के प्रति द्वेष-सा बना हुआ था। उसके अन्तःपुर में रूप और विलास में कामदेव की पत्नी रति के विलासों का मखौल उड़ानेवाली, लावण्ययुक्त, विनयशील, कुलीन और मनोरम स्त्रियों की कोई कमी नहीं थी फिर भी वह स्त्री सम्भोग के सुखों से विमुख होकर मित्रों के बीच अपना दिन और रात बिता देता । वह कभी स्वयं मृदंग बजाना प्रारंभ कर देता, जिससे उसके रत्नजटित कंकण (कड़े) लगातार हिलते रहते थे। कभी घर्धरिका नामक वाद्य बजाने से शरीर में उत्पन्न होते कम्पन के कारण उसके मणिनिर्मित कर्णपूर झनझनाने लगते थे। इस प्रकार कभी तो वह संगीत के शौक में दिन बिता देता । निरन्तर बाणों की वर्षा करता हुआ वह जंगलों को खाली कर देता। इस प्रकार कभी शिकार खेलने में दिन बिता देता। कभी वह विद्वद्-गोष्ठी बुलाता, काव्यों और प्रबन्धों की रचना करता कराता, कभी शास्त्रीय चर्चा करता, कभी आख्यान, आख्यायिका, इतिहास, पुराण आदि का श्रवण करता, कभी चित्रकारी करता, कभी वीणा बजाता, कभी दर्शनार्थ आए मुनिजन की चरण-शुश्रूषा करता और कभी अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक, बिन्दुमती, गूढचतुर्थपाद, पहेली जैसी जटिल काव्य-विधाओं को बूझने-बुझाने में दिन बिता दिया करता था। जैसे दिन बिताता, वैसे हो विविध क्रीड़ा करनेवाले, हँसी-मजाक में निपुण, मित्रों के साथ मिलकर रात भी बिता देता था।

शूद्रक प्रतिहारी वर्णन -

एकदा तु नातिदूरोदिते नव-नलिन दलसम्पुट-भिदि किञ्चिन्मुक्त-पाटलिम्नि भगवति सहस्रमरीचिमालिनि, राजानमास्थानमण्डपगतमङ्गनाजनविरुद्धेन वामपार्श्वावलम्बिना कौक्षेयकेण सन्निहितविषधरेव चन्दनलताभीषणरमणीयाकृतिः, अविरलचन्दनानुलेपन-धवलित-स्तनतटा उन्मज्जदैरावतकुम्भमण्डलेच मन्दाकिनी, चूडामणिसंक्रान्तप्रतिबिम्बच्छलेन राजाज्ञेव मूर्तिमती राजभिः शिरोभिरुह्यमानाः, शरदिव कलहंसधवलाम्बरा, जामदग्न्यपरशुधारेव वशीकृतसकलराजमण्डला, विन्ध्यवनभूमिरिव वेत्रलतावती, राज्याधिदेवतेव विग्रहिणी, प्रतीहारी समुपसृत्य क्षितितल-निहित-जानु-करक्मला सविनयमब्रवीत् - "देव ! द्वारस्थिता सुरलोकमारोहत्रिशङ्कोरिव कुपितशतमखहुङ्कार-निपातिता राजलक्ष्मीर्दक्षिणापथादागता चण्डाल-कन्यका पञ्जरस्यं शुकमादाय देवं विज्ञापयति-सकल-भुवनतल-सर्वरत्नानाम् उदधिरिवैकभाजनं देव:, विहङ्गमश्चायमाश्चर्यभूतो निखिल-भुवनतल-रत्नमिति कृत्वा देवपालमूलनेनमादायागताऽहमिच्छामि देवदर्शनसुखमनुभवितुम् इति। एतदाकर्ण्य देव: प्रमाणित त्यक्त्वा विरराम । उपजातकुतूहलस्तु राजा समीपवर्त्तिनां राज्ञामवलोक्य मुखानि 'को दोष:, प्रवेश्यताम्' इत्यादिदेश। अथ प्रतिहारी नरपतिकथनानन्तरमुत्थाय तां मातङ्गकुमारीं प्रावेशयत् ।

अर्थ -  एक दिन अभी नवीन कमल-दल के सम्पुटों को खिलानेवाले भगवान् सहस्रमरीचिमाली सूर्य बहुत ऊपर भी नहीं चढ़े थे, उनकी लाली कुछ ही कम हुई थी कि शरीरधारिणी राज्याधिदेवता के सदृश तोहारी उनके पास आई। उसकी आकृति स्त्रियों के प्रतिकूल बाएँ पार्श्व से लटकी तलवार के कारण विषधर सर्पों से युक्त चन्दनलता का अहसास कराती थी जो भीषण भी होती है और मनोहर थी। यह गहरे चन्दन के लेप से धवल स्तनों के उधार से ऐसी लग रही थी जैसे मन्दाकिनी (स्वर्गगा) में स्नान करते ऐरावत (इन्द्र का हाथी जो सफेद है) के कुम्भ-स्थल जल से ऊपर की ओर उठ आए हों। उसका प्रतिबिम्ब राजाओं की चूड़ामणियों में संक्रान्त हो रहा था, जिससे ऐसा लगता था जैसे वह राजाओं द्वारा अपने सिरों पर धारण की गई मूर्तिमती राजाज्ञा ही हो। उसने कल-हंस के समान धवल वस्त्र धारण कर रखे थे, लगता था जैसे कलहंसों से धवल आकाशवाली शरद् ऋतु ही आस्थान मण्डप में आ गयी हो। अपनी उपस्थिति से उसने पूरे राजमण्डल को अपने बस में कर लिया था, लगता था वह परशुराम के फरसे की धार ही थी, जिसने क्षत्रियों को अपने अधीन कर लिया था। वह बेंत की लताओं से युक्त विन्ध्याटवी की भूमि की तरह लग रही थी क्योंकि उसके हाथ में भी बेंत की एक छड़ी थी । उसने अपने घुटनों और कर-कमल को जमीन पर टेककर आस्थानमण्डप में बैठे राजा शूद्रक से बड़े विनय के साथ कहा- 'हे देव! दक्षिणापथ से एक चाण्डाल-कन्या आई है जो पिंजरे में बन्द तोता लिए द्वार पर खड़ी है। वह कुपित इन्द्र के हुंकार से गिराई गई, स्वर्गारोहण करते त्रिशंकु की राजलक्ष्मी के समान लगती है। वह आपसे निवेदन करती है-महाराज आप समुद्र की भाँति अखिल भुवन-तल के समस्त रत्नों के एकमात्र अधिकारी हैं और आश्चर्य का मूर्तरूप यह तोता समस्त भुवनतल का एक ही रत्न है ऐसा करके मैं आपके चरणों के छोर तक आई हैं। मैं आपके दर्शनों का आनन्द लेना चाहती हूँ।' प्रतीहारी ने कहा कि 'उसका निवेदन सुनकर आप जैसा उचित समझें वही किया जाए। यह कहकर वह चुप हो गयी। इससे राजा भी उत्सुक हो गया। उसने पास बैठे अन्य राजाओं के मुखों पर दृष्टिपात किया और प्रतीहारी से कहा- 'क्या हर्ज है, उसे भीतर ले आओ',  इस प्रकार आदेश दिया । महाराज के आदेश के अनन्तर तम प्रतीहारी ने उठकर उस चाण्डाल कन्या को सभामण्डम में प्रवेश कराया ।

चण्डाल कन्या की दृष्टि से शूद्रक का वर्णन -

    प्रविश्य च स नरपतिसहस्र-मध्यवर्त्तिनमशनिमय-पुञ्जितकुलशैलमध्यगतमिव कनकशिखरिणम्, अनेक-रत्नाभरण-किरण-जालकान्तरितावयवमिन्द्रायुध-सहस्र-सच्छादिताष्टदिग्विभागमिव जालधरदिवसम्, अवलम्बितस्थूलमुक्ताकलापस्य कनकश्रृङ्खला-नियमितमणिदण्डिकाचतुष्टयस्य गगन-सिन्धु-फेन-पटल-पाण्डुरस्य नातिमहतो दुकूलवितानस्याधस्तादिन्दुकिन्तमणिपर्य्यङ्किकानिषण्णम्, उद्धूयमा-कनकदण्डचामरकलापम्, उन्मयूखमुख-कान्तिनिचय-पराभव-प्रणते शशिनीव स्फटिकपादपीठे विन्यस्तवामपादम्, इन्द्रनीलमणि-कचट्टिम-प्रभासम्पर्क-श्यामायमानै: प्रणत-रिपु-निश्वासमलिनीकृतैरिव चरण-नखमयूखजालैरुपशोभमानम् , आसनोल्लसित- हरिमिवोरुयुगलेन विराजमानम्, अमृतफेन-धवले गोरोचना-लिखित-हंस-मिथुन-सनाथ-पर्य्यन्ते चामर-पवनप्रनर्त्तितान्तदेशे, दूकूले वसानम् । अतिसुरभि-चन्दनानुलेपन-धवलितोर:स्थलम्, उपरि-विन्यस्त-कुङ्कुम-स्थासकम्, अन्तरनिपतितवालातपच्छेदमिव कैलाशशिखरिणम्, अपर-शशि-शङ्क्या नक्षत्रमालयेव हारलतया कृतमुखपरिवेषम्, अतिचपल-राज-लक्ष्मी-बन्धनिगड-शङ्कामुपजनयतेन्द्रमणि-केयूरयुगलेन मलयज-रस-गन्धलुब्धेन भुजङ्गद्वयेनेव-वेष्टितबाहुयुगलम्, ईषदालम्बि-कर्णोत्पलम्, उन्नतघोणम्, उत्फुल्लपुण्डरीक-लोचनम्, अमल-कलधौत-पट्टायतम्, अष्टमीचन्द्र-शकलाकारम्, अशेष-भुवन-राज्याभिषेक-सलिल-पूतम्, ऊर्णसनाथं ललाटदेशमुद्वहन्तम्, आमोदित-मालती-कुसुम-शेखरम्, उषसि शिखर-पर्य्यस्त-तारकापुञ्जमिव पश्चिमाचलम्, आभरण-प्रभा-पिशङ्गिताङ्गतया लग्न-हर-हुताशनमिव मकरध्वजम्, आसन्नवर्त्तिनीभि: सेवार्थमागताभिरिव दिग्वधूभिर्वारविलासिनीभि: परिवृतम्, अमलमणिकुट्टिमसंक्रान्त-सकल-देह-प्रतिबिम्बतया पतिप्रेम्णा वसुन्धरया हृदयेनेवोह्यमानम्, अशेषजनभोग्यतामुपनीतयाप्यसाधारणया राज-लक्ष्म्या समालिङ्गितम्, अपरिमित-परिवार-जनमप्यद्वितीयम्, अनन्त-गज-तुरग-साधनमपि खड्गमात्रसहायम्, एकदेशस्थितमपि व्याप्तभुवनमण्डलम्, आसने स्थितमपि धनुषि निषण्णम्, उत्सादिताशेषद्विषदिन्धनमपि ज्वलत्प्रतापानलम्, आयतलोचनमपि सूक्ष्मदर्शनम्, महादोषमपि सकलगुणाधिष्ठानम्, कपतिमपि कलत्रवल्लभम्, अविरत-प्रवृत्त-दानमप्यमदम्, अत्यन्तशुद्ध-स्वभावमपि कृष्णचरितम्, अकरमपि हस्तस्थित-सकल-भुवनतलं राजानमद्राक्षीत् ।

अर्थ - उस चाण्डाल-कन्या ने भीतर प्रवेश करके राजा को देखा। उस समय राजा ऐसा लग रहा था जैसे इन्द्र के वज्र के प्रहार से एकत्र हुए कुलशैलों के बीच सुमेरु पर्वत बैठा हुआ हो । वह सुमेरु पर्वत की तरह दृढ़ था । उसके शरीरावयव अनेक रत्नालंकारों के किरण जाल से व्याप्त थे, लगता था जैसे वह कोई ऐसा वर्षाकालिक दिवस है जिसने हजारों इन्द्रधनुषों से आठों द्विग्विभागों को ढाँप रखा है। वह जिस चन्दोवे के नीचे बैठा था उस पर मोतियों की मोटी-मोटी झालरें लटक रही थीं, उसकी चारों मणिजटित इण्डियाँ सोने की जंजीरों से बँधी हुई थीं, वह आकाशगंगा की फेन-राशि के समान धवल था और आकार में न छोटा और न बहुत बड़ा था । राजा चन्दोवे के नीचे चन्द्रकान्तमणि की चौकी पर बैठा था । उस पर सोने की मूठवाले चँवर डुलाए जा रहे थे । उसने स्फटिक-निर्मित गोल पादपीठ (पैर रखने की छोटी चौकी) पर अपना बायाँ पैर टिकाया हुआ था, लगता था उसके प्रकाशमान मुख के कान्तिपटल से पराजित अतएव प्रणत हुआ चाँद ही उसके पैरों के नीचे आ गया था । उसके चरण-नख का स्वभाविक अरुणाभ किरणजाल, इन्द्रनीलमणि (नीलम) के फर्श की कान्ति के सम्पर्क से श्यामायमान हो शोभित रहा था। लगता था वह झुके हुए शत्रु-राजाओं के निःश्वासों से मलिन हो गया था । उसका ऊरु-युगल आसन में लगी पद्यराग मणि की फूटती किरणों से अरुणायमान हो रहा था, उस समय वह शीघ्र मारे गए, मधु और कैटभ नामक दानवों के खून से लाल ऊरु-युगल से शोभित भगवान् विष्णु के समान लग रहा था । उसने अमृत के फेन के समान धवल दो रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे (एक अधोवस्त्र और दूसरा ऊर्ध्ववस्त्र) जिनकी किनारियों पर गोरोचना से हंसों के जोड़े चीत रखे थे। उसके रेशमी वस्त्रों के छोर चाँवरों की हवा से लहरा रहे थे। राजा शूद्रक का वक्षःस्थल अत्यन्त सुगन्धित सफेद चन्दन के लेप से धवल हो गया था। अपर से कुंकुम के थापे लगाए गए थे, लगता था जैसे वह कैलास पर्वत हो, जिस पर बीच-बीच में प्रातःकालीन धूप के टुकड़े छितरा रहे हों। उसके मुख को दूसरा चाँद समझकर मानो नक्षत्रमाला ही हार-लता बनकर घेरे हुए थी। उसने अपनी भुजाओं पर जो बाजूबन्द बाँध रखे थे वे इन्द्रनीलमणि के थे जो अत्यन्त चपल राजलक्ष्मी को बाँधकर रखनेवाली बेड़ी की शंका उत्पन्न कर रहे थे या चन्दन रस के गन्ध के लालची दो साँप जैसे लग रहे थे। राजा शूद्रक के कानों में कमलों के अलंकार कुछ-कुछ झूम रहे थे, उसकी नासिका ऊँची उठी हुई थी, आँखें खिले हुए कमल के समान थीं उसका ललाट निर्मल सुवर्ण के फलक के समान चौड़ा और विशाल था, जिसका आकार अष्टमी के चन्द्र-खण्ड के समान था, वह सम्पूर्ण भुवनों के राज्याभिषेक-जल से पवित्र था। उसके माथे पर ऊर्णा, अर्थात् दोनों भौंहों के बीच रोओं से बनी भँवरी, बनी हुई थी। वह सुगन्धित मालती-फूलों का बना मुकुट धारण किए हुआ था जिससे वह उस अस्ताचल के समान शोभने लगा था जिसके शिखर पर सबेरे के समय तारक-पुंज आ इकट्ठा हुआ हो। अलंकारों की कान्ति से पीत वर्ण का दिखाई देने के कारण वह उस कामदेव जैसा प्रतीत होता था जिसमें भगवान् शंकर ने आग लगा दी थी। उसे समीपस्थ वेश्याओं ने घेर रखा था, लगता था सेवा के लिए आई दिग्वधुओं ने आ घेरा था। उसके शरीर का पूरा प्रतिबिम्ब निर्मल मणिनिर्मित फर्श में दिखाई दे रहा था, लगता था मानो पृथ्वी ने उसे पतिप्रेम से हृदय में धारण कर रखा था। यद्यपि उसने दान आदि के द्वारा धन-दौलत सभी के लिए भोग्या बना रखी थी तथापि लक्ष्मी असाधारण राजलक्ष्मी बनकर उसका आलिंगन किए हुए । असंख्य सेवकों के रहते भी वह अद्वितीय (अकेला अर्थात् अनुपम) था, अनन्त हाथी-घोड़ों की सेना से थी। युक्त होने पर भी वह केवल तलवार को ही अपना प्रधान साधन मानता था। यद्यपि वह शरीर से एक स्थान पर बैठा था तथापि कीर्ति से वह सम्पूर्ण भुवन-मण्डल को व्यापे हुए था। वह आसन पर बैठा हुआ भी धनुष पर निर्भर था । उसने समस्त शत्रुरूपी ईंधन जला डाला था फिर भी उसकी तापाग्नि धधक रही थी ।

चाण्डाल-कन्या का उपस्थिति-प्रतिबोधन -

आलोक्य च सा दूरस्थितैव प्रचलितरत्नवलयेन रक्तकुवलयदलकोमलेन पाणिना जर्जरितमुखभागां वेणुलतामादाय नरपति-प्रतिबोधनार्थं सकृत् सभाकुट्टिममाजघान, येन सकलमेव तद् राजकम् एकपदे वनकरियूथमिव तालशब्देन तेन वेणु-लता ध्वनिना कमलों के युगपदावलितवद- नमवनिपालमुखादाकृष्य चक्षुस्तदभिमुखमासीत् ।

अर्थ - उस (चाण्डाल-कन्या) ने (राजा शुद्रक को देखकर दूरी पर रुककर लाल कमल की पंखुडियों जैसे अपने कोमल हाथ, जिसमें रत्नजटित कड़ा हिल उठा था; में बाँस जिसका अगला सिरा फटा हुआ था; की छड़ी लेकर राजा को अपनी उपस्थिति जतलाने के लिए उससे जमीन पर एक बार चोट की । इससे समस्त राजसमूह उस बाँस की छड़ी के शब्द से वैसे ही एक साथ राजा (शूद्रक) के मुख से अपनी दृष्टि हटाकर उसके अभिमुख हो गया, जैसे जंगली हाथियों का झुण्ड 'ताल' शब्द सुनकर एक साथ मुड़कर उधर देखने लगे।


राजा नल

तस्यामासीन्निजभुजयुगलबलविदलितसकलवैरिवृन्दसुन्दरीनेत्रनीलोत्पलगलद्बहलबाष्पपूरप्लवमानप्रतापराजहंसः, सकलजलनिधिवेलावननिखातकीर्तिस्तम्भभूषितभुवनवलयः, विश्वम्भराभोग इव बहुधारणक्षमः, प्रासाद इव नवसुधाहारी, रविरिवानेकधामाश्रयः। दनुजलोक इव सदानवः स्त्रीजनस्य, वसिष्ठ इव विश्वामित्रत्रासजननः, जनमेजय इव परीक्षिततनयः, परशुराम इव परशुभासितः, राघव इवालघुकोदण्ड भङ्गरञ्जितजनकः ।

अर्थ - उस निषध नगरी में नल नामक राजा रहता था। जिसने अपने बाहुयुगल के बल से समस्त शत्रुसमूह को विनष्ट कर दिया था। अतएव शत्रु पत्नियों के नेत्रकमलों से गिरते हुए पर्याप्त आँसुओं की धारा में उसका प्रतापरूपी राजहंस तैर रहा था। उसने सम्पूर्ण समुद्रों के तटवनों द्वारा कीर्तिस्तम्भ कर दिया था, जिससे सम्पूर्ण भूमण्डल सुशोभित हो रहा था। जैसे पृथ्वी का विस्तार बहुत सी वस्तुओं को धारण करने में समर्थ है, वैसे ही राजा नल भी विविध युद्धों में समर्थ थे। नवीन चूने के लेप से जैसे भवन मनोहर होता है, वैसे ही राजा नल भी नवीन सुख-शान्तिरूप अमृत को लाने वाले थे। अथवा राजा नल ब्राह्मणों या देवों के निमित्त दी हुई भूमि का हरण करने वाले नहीं थे। जैसे सूर्य सतरंगी किरणों वाले होने के कारण प्रचुर तेजवाला होता है, वैसे ही राजा नल भी सप्ताङ्गत्त्वात् अनेकों लोकों का आश्रय लेने वाले थे अथवा सूर्य जैसे अनेक लोकों में आश्रय लेने वाले हैं वैसे ही राजा नल भी कई प्रकार की लक्ष्मी के वासस्थान थे। जिस प्रकार दनुजलोक (राक्षसलोक) सदानव (राक्षसों से युक्त) स्त्रियों के लिए होता है, वैसे ही राजा नल भी स्त्रियों के लिए सदा नित्य नवीन दिखलाई पड़ते थे। जिस प्रकार गुरु वसिष्ठ विश्वामित्र मुनि के लिए भयोत्पादक थे, उसी प्रकार राजा नल भी संसार के अमित्रों अर्थात् शत्रुओं के लिए भयोत्पादक थे । जैसे जनमेजय परीक्षित पुत्र थे,  वैसे ही राजा नल सर्वविध अपनी नीति की परीक्षा कर लिया करते थे अर्थात् नीतिविशारद थे। परशुराम जैसे परशु (फरसे) से सुशोभित हैं अर्थात् परशु (फरसा) नामक अस्त्र को धारण कर सुशोभित होते हैं, वैसे ही राजा नल भी दूसरों के शुभ कार्यों में आस्थावान् थे। जैसे श्रीरामचन्द्र विशाल धनुष को तोड़कर राजा जनक को प्रसन्न करने वाले थे, वैसे ही राजा नल भी गौरवान्वित हो मृत्यु आदि कठिन दण्डों को समाप्त कर युक्तिपूर्वक प्रजाजनों को प्रसन्न रखने वाले थे।

सुमेरुरिव जातरूपसम्पत्तिः, तुहिनाचल इव पुण्यभागीरथीसहितः, चिन्तामणिः प्रणयिनाम्, अग्रणीः सांग्रामिकाणाम्, उपाध्यायोऽध्यायविदाम्, आदर्शो दर्शनानाम्, आचार्यः शौर्यशालिनाम्, उपदेशकः शस्त्रशास्त्रस्य, परिवृढो दृढप्रहारिणाम्, अग्रगण्यः पुण्यकारिणाम्, अपश्चिमो विपश्चिताम्, अपाश्चात्यस्त्यागवताम्, अचरमश्चातुर्याचार्याणाम्, अपर्यन्तभूभाराधारस्तम्भभूतभुजकाण्डकीलितशालभञ्जिकायमानविजयश्रीः, श्रीवीरसेनसूनुः, समस्तजगत्प्रासादशिरःशेखरीभूतकान्तकीर्तिध्वजो, राजा, राज्यलक्ष्मीकरेणुकाचापलसंयमन शृङ्खलः, खलवृन्दकन्दलदावानलो नलो नाम ।

अर्थ — सुवर्णसम्पत्ति से युक्त सुमेरुपर्वत के जैसे सौन्दर्य सम्पत्तियुक्त, पवित्र गंगा से युक्त हिमालय के जैसे पुण्यभाक्, रथी तथा सर्वहितसाधक, याचकों के लिए चिन्ताप्रद मणि के सदृश, योद्धाओं के अग्रणी, अध्ययनविज्ञानविशेषज्ञों के अध्यापक, वेदान्तादि दर्शनशास्त्रों के आदर्श (निर्मल दर्पण), पराक्रमशालियों के आचार्य, शस्त्रविद्या तथा शास्त्रविद्या के उपदेशक, दृढ़तापूर्वक प्रहार करने वालों के सोत्साह तथा सोल्लासवर्धनशील, पुण्यात्माओं के अग्रणी, विद्वानों में सर्वोच्च, त्यागियों में अग्रगामी, चतुरता की शिक्षा देने वाले आचार्यों में सर्वश्रेष्ठ, सम्पूर्ण भूमण्डल के भार के आधारस्तम्भभूत भुजदण्ड में स्थिरीकृत कठपुतली के सदृश विजयलक्ष्मी वाले, सम्पूर्ण संसार के प्रासादों के मस्तकों पर शिखरभूत भास्वर कीर्तिध्वजा वाले, राज्यलक्ष्मीरूप हथिनी की चञ्चलता को नियन्त्रित करने के लिए शृङ्खलाभूत, दुष्टसमूहरूप कन्वल के लिए दावानल सदृश श्रीवीरसेन के पुत्र नल नामक राजा हुए।

यस्येन्दुकुन्दकुमुदकान्तयः सकललोककर्णप्रियातिथयो गुणाः सततमेकब्रह्माण्डसंपुटसङ्कीर्णनिवासव्यसनविषादिनः पुनरनेकब्रह्माण्डकोटिघटनामभ्यर्थयमाना इव भगवतो विश्वसृजः कमलसंभवस्य कर्णलग्नाः स्वर्गलोकमधिवसन्ति स्म।

अर्थ - जिस राजा नल के गुण चन्द्रमा, कुन्दपुष्प तथा कुमुद के समान कान्तिमान्, सभी लोगों के कानों के प्रिय अतिथि, हमेशा एक ही ब्रह्माण्ड में बन्द होकर संकीर्णतापूर्वक निवास करने के कारण उसके दुःख से दुःखी होकर पुनः अनेक करोड़ ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए प्रार्थना करते हुए कमल से जन्म लेने वाले विश्व की रचना करने वाले भगवान् ब्रह्माजी के कानों में लगकर स्वर्गलोक में निवास करते थे ।

यस्मिंश्च राजनि जनितजनानन्दे नन्दयति मेदिनीम्, गीतेषु जातिसंकराः, तालेषु नानालयभङ्गा:, नृत्येषु विषमकरणप्रयोगा:, वाद्येषु दण्डकरप्रहाराः, पुण्यकर्मारम्भेषु प्रबन्धाः, सारिद्यूतेषु पाशप्रयोगाः, पुष्पितकेतकीषु हस्तच्छेदाः, न्यग्रोधेषु पावकल्पनाः, कञ्चुकमण्डनेषु नेत्रविकर्तनानि आसन् न प्रजासु ।

अर्थ - जिस राजा नल के शासनकाल में प्रथाओं के आनन्दित होने पर, धरती के आह्लादित होने पर गीतों में नन्दयन्ती आदि जातियों का सांकर्य था, किन्तु ब्राह्मणादि जातियों में कोई वर्णसंकर नहीं होता था। संगीत के अवसरों पर ताल देते समय विभिन्न स्वरों का उतार-चढ़ाव होता था, किन्तु प्रजाजनों में विभिन्न घरों का नाश नहीं होता था । नृत्यों में विषमकरण तेल-पुष्प-पटाटि के प्रयोग होते थे, किन्तु प्रजाओं में भयंकर युद्ध का व्यवहार नहीं होता था अर्थात् भयंकर युद्ध नहीं होते थे। बाजा बजाते समय हाथ तथा डण्डे के प्रहार होते थे, किन्तु प्रजाओं में दण्ड तथा कर का विधान नहीं होता था। पुण्यकर्मों के प्रारम्भ में ही बहुत से प्रबन्ध किये जाते थे, किन्तु प्रजाओं में प्रकृष्ट बन्धन की व्यवस्था नहीं थी । सारीद्यूत में ही पाशों का प्रयोग होता था, किन्तु प्रजाओं में किसी प्राणी को फँसाने के लिए जालों का प्रयोग नहीं होता था। खिली हुई केतकी के पुष्पों में मध्यभाग का त्रोटन होता था, किन्तु प्रजाओं में किसी का भुजकर्तन नहीं होता था। वटवृक्षों में ही नवीन जड़ों की रचना की कल्पना होती थी, किन्तु प्रजाओं में किसी भी व्यक्ति का पादकर्तन नहीं होता था। कञ्चुकमण्डन के समय विशेष प्रकार के कपड़ों का व्यक्ति के प्रमाण के अनुसार कर्तन होता था, किन्तु प्रजाओं में किसी की आँख का छेदन नहीं किया जाता था।

यश्च कोऽप्यन्योदृश एव लोकपालः । तथाहि-अपूर्वो विबुधपतिः, अदण्डकरो धर्मराजः, अजघन्यः प्रचेताः, अनुत्तरो धनदः ।

अर्थ - तथा जो एक अन्य प्रकार का अलौकिक लोकपाल था। क्योंकि देवों के स्वामी इन्द्र पूर्व दिशा के स्वामी हैं किन्तु यह नल विद्वानों का पति अपूर्व (अद्भुत था। यमराज हाथ में दण्ड धारण करते हैं, राजा नल तो वधादि दण्ड तथा कर का विधायक महा था। वरुण पश्चिम दिशा के स्वामी हैं, नल तो अकुत्सित तथा उत्कृष्ट चित्त वाला था। धन के स्वामी कुबेर उत्तर दिशा में रहते हैं, यह नल तो धनदाता तथा सर्वोत्कृष्ट था।

येन प्रचण्डदोर्दण्डमण्डलीविश्रान्तविजयश्रिया श्रवणोत्पलदलायमानमानिनीमानलुण्ठाकलोचनेन पृथ्वी प्रिया च कामरूपधारिणी सा तेन भुक्ता ।

अर्थ - जिस राजा नल ने अपने प्रचण्ड बाहुबल द्वारा चारों तरफ से विजयलक्ष्मी को विश्रान्त कर (विजय का अवसर प्रदान कर) कानों के ऊपर कमल के सदृश मानिनी नायिकाओं के मान को भङ्ग करने वाले सुन्दर नेत्रों से अभिलषित रूपधारिणी धरती तथा नायिका का भोग किया ।

यस्या सकलजनमनोहारिविशेषकम्, पृथुललाटमण्डलम्, अभिलषणीयकान्तयः कुन्तलाः, श्लाघनीयो नासिक्यभागः, बहुलवलीकः सरोमालिकालङ्कारश्च मध्यदेशः, प्रकटितकामकोटिविलासः काञ्चीप्रदेशः ।

अर्थ - भूमिपक्ष में - जिस भूमि का सम्पूर्ण लोगों के चित्त को चुराने वाला विशेषकप्रदेश, विशाल लाटप्रदेशमण्डल, अभीप्सितकान्ति से समन्वित कुन्तलप्रदेश, प्रशंसनीय नासिक्यप्रदेश, अत्यधिक ऊँची-नीची भूमि वाला अथवा लवलीलता से युक्त तथा सरोवरपंक्तियों से विभूषित मध्यदेश, कामकोटि नाम की देवी से अलङ्कृत काञ्चीप्रदेश था।

प्रियापक्ष में – जिस प्रिया का समस्त लोगों के चित्त को मोहित कर लेने वाला तिलक, विशाल भालप्रदेश, स्पृहणीय कान्ति से युक्त केश, प्रशंसनीय नासिकाभाग, बहुत-सी त्रिवलियों से युक्त तथा रोमपंक्तिरूप अलंकार से विभूषित कटिप्रदेश, करोड़ों कामदेवों के विलास करने वाला काञ्चीप्रदेश (करधनी पहनने का स्थान ) था ।

किं बहुना - यस्या: कृष्णागरुचन्दनामोदबहुलकुचाभोगभूषणा नृत्यतीवारङ्गरङ्गे रमणीयतया निरुपमा नवा यौवनश्री: ।

अर्थ - अधिक क्या - भूमि पक्ष में - जिस भूमि के कृष्णागरु तथा चन्दन के वृक्षों की सुगन्ध तथा अत्यधिक लकुच वृक्षों के विस्तार से अलङ्कृत अङ्ग प्रदेशरूप रङ्गमंच पर वनलक्ष्मी रमणीयता से उपमारहित वायु में नाच-सी रही थी ।

प्रियापक्ष में - जिस प्रिया के कृष्णागरु तथा चन्दन के वृक्षों की सुगन्धि और विशाल कुचों के विस्तार से सुशोभित मनोहारी होने से अनुपम अभिनव यौवनसुषुमा उसके देह के अङ्ग रूप रङ्गमंच पर नाच सी रही थी।

किं चान्यत् - अन्य एव नवावतार: स: कोऽपि पुरुषोत्तमो तो न मीनरूपदूषित:, नाङ्गीकृतविश्वविश्वंभराभारोऽपि कूर्मीकृतात्मा, न वराहवपुषा क्लेशेन पृथ्वीं बहार, न च नरसिंह: समुत्सन्नहिरण्यकशिपु:, न बलिराजबन्धनविधौ वामनो दैन्यमकरोत्, नापि रामो लङ्केश्वरश्रियमपाहरत्, नापि बुद्ध: कल्किकुलावतारी ।

अर्थ - और क्या कहा जाय; वे राजा नल अभिनव अवतारी पुरुष थे। जो पुरुषोत्तम (विष्णु) होते हुए मीन अवतार (मत्स्यावतार) से अपने को दूषित नहीं किये अर्थात् वे मीनावतार के दूषण से रहित तथा रोगहीन थे। सम्पूर्ण पृथ्वी के भार को स्वीकार करके भी उन्होंने कूर्मरूप को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने शूकर के शरीर को धारण करके क्लेशपूर्वक पृथ्वी के भार को धारण नहीं किया। नरसिंह (वीरपुरुष) होते हुए भी उन्होंने हिरण्यकशिपु (हिरण्य=धन तथा कशिपु=भोजन वस्त्रादि) का विनाश नहीं किया। राक्षसराज बलि के बन्धनविधि में विष्णु ने वामनावतार धारण कर दीनता प्रकट की थी, किन्तु राजा नल ने बलशाली राजाओं के बन्धन के विधान में दीनता प्रदर्शित नहीं की। वे राम (मनोहर) थे, किन्तु उन्होंने लङ्केश्वरश्री (देवों के धन) का अपहरण नहीं किया। बुद्ध (विद्वान्) होकर भी वे कल्किकुलावतारी (पापीकुलोत्पन्न अथवा कलियुगावतारी) नहीं थे।

किं बहुना -

धन्यास्ते दिवसाः स येषु समभूद् भूपालचूडामणि-

र्लोकालोकगिरीन्द्रमुद्रितमहीविश्रान्तकीर्तिर्नलः ।

लोकास्तेऽपि चिरन्तनाः सुकृतिनस्तद्वक्त्रपङ्केरुहे

यैर्विस्फारितनेत्रपत्रपुटकैर्लावण्यमास्वादितम् ।। ३४ ।।

अर्थ - वे दिन धन्य हैं, जिन दिनों में लोक तथा आलोक नामक पर्वत से घिरी भूमि पर अपनी कीर्ति को फैलाने वाले राजा नल उत्पन्न हुए थे। वे पुण्यशाली प्राचीन लोग भी धन्य हैं जिन्होंने अपनी आँखों के पत्ररूप पुटकों से राजा नल के मुखकमल में सौन्दर्य का आस्वादन किया था ।। ३४ ।।

अपि च

ये कुन्दद्युतयः समस्तभुवनैः कर्णावतंसीकृता

यैः सर्वत्र शलाकयेव लिखितैर्दिग्भित्तयश्चित्रिताः ।

यैर्वक्तुं हृदि कल्पितैरपि वयं हर्षेण रोमाञ्चिता-

स्तेषां पार्थिवपुङ्गवः स महतामेको गुणानां निधिः ।। ३५ ।।

अर्थ- कुन्दपुष्पतुल्य कान्ति वाले जिन गुणों को सम्पूर्ण लोगों ने अपने कानों का आभूषण बनाया था अर्थात् उन गुणों को सावहित मन से सुनते रहते थे। लिखित जिन गुणों से दिशारूपी दीवारें सभी स्थानों पर तूलिका से चित्राङ्कित-सी थीं। वर्णन करने के लिए जिन गुणों की मन में कल्पना करने मात्र से हम लोग खुशी के मारे रोमाञ्चित हो जाते हैं। ऐसे श्रेष्ठ गुणों के आकर (निधि) एकाकी नृपश्रेष्ठ वे राजा नल थे ॥३५॥

यस्य च युधिष्ठिरस्येव न कश्चिदपार्थो वचनक्रमः, मरुमण्डलमिवापापं मानसम्, महानसमिव सूपकारसारं कर्म, कार्मुकमिव सत्कोटिगुणं दानम्, दानवकुलमिव दृष्टवृषपर्वोत्सवं राज्यम्, राजीवमिव भ्रमरहितं सर्वदा हृदयम् ।

अर्थ - तथा जैसे युधिष्ठिर अर्जुन के बिना कोई भी महत्त्वपूर्ण बातचीत नहीं करते थे, वैसे ही राजा नल का कोई भी वचनक्रम अर्थरहित नहीं होता था अर्थात् राजा नल सदा सार्थक वाणी ही उच्चरित किया करते थे । मरुभूमि जैसे जलरहित होती है, वैसे ही राजा नल का मन पापरहित था। जिस प्रकार रसोईघर में रसोईया का मुख्य कर्म भोजन का निर्माण करना होता है, उसी प्रकार राजा नल का मुख्य कर्म सुन्दर उपकार करना ही था । जैसे धनुष सुन्दर यष्टि तथा प्रत्यञ्चा से युक्त होता है, वैसे ही राजा नल अन्य राजाओं की अपेक्षा करोड़ों गुना सत्पात्रों को दान देने वाले किं वा उत्तम कोटि के सत्पात्रों को दान देने वाले थे। राक्षसकुल के द्वारा जैसे वृषपर्वा नामक राक्षस के उत्सव को देखा गया था, वैसे ही राजा नल के राज्य में सतत धर्म, पौर्णमासी, पुत्रजन्म तथा विवाहादि के उत्सव को देखा जाता था अर्थात् उनका राज्य धार्मिक वातावरण से आप्लावित था। जैसे कमल सदा भ्रमरों से घिरा होता है, वैसे ही राजा नल का हृदय सदैव भ्रमरहित रहता था अर्थात् राजा नल सतत संशयरहित रहते थे।

यश्च परमहेलाभिरतोऽप्यपारदारिकः। शान्तनुतनयोऽपि न कुरूपयुक्तः ।

अर्थ - तथा जो राजा नल महती श्रृङ्गारिक चेष्टाओं में लीन होता हुआ भी अपार दारिकाओं (अनेक कन्याओं) वाला अथवा शत्रुकन्याओं में अनुरक्त नहीं था, विरोध है । परिहार है— जो राजा नल उत्कृष्ट उत्सवों वाली पृथ्वी में अनुरक्त होकर भी अपार दारिकाओं (बहुसंख्यक कन्याओं) वाला था। शान्तनुतनय (भीष्म) होकर भी कुरुओं के लिए उपयोगी नहीं था, विरोध है। परिहार है— जितेन्द्रिय तथा प्रशंसनीय नीतिवाला होकर भी कुत्सित रूपवाला नहीं था ।

किं बहुना

सदाहंसाकुलं बिभ्रन्मानसं प्रचलज्जलम् ।

भूभृन्नाथोऽपि नो याति यस्य साम्यं हिमाचलः ॥३६॥

अर्थ- सदा हंसों से परिपूर्ण चञ्चल जल वाले मानसरोवर को धारण करता हुआ पर्वत हिमालय भी जिस राजा नल की समानता नहीं कर पा रहा है, क्योंकि हिमालय पर्वतों का स्वामी तो है किन्तु वह दाहयुक्त, खेदपूर्वक तथा व्यग्रता के साथ काँपते हुए (लहराते हुए) जल वाले अथवा जड़ मानसरोवर को धारण करता है, जबकि राजा नल भूपतियों का स्वामी तो है ही साथ ही वह खेदरहित, कम्पनरहित तथा चैतन्य हृदय को धारण करता है ।। ३६ ।।

राजा नल क्षत्रियवंशोत्पन्न सभी सुख ऐश्वर्यादि पदार्थों से सम्पन्न हैं, जिससे कि काञ्चनाद्रि भी नल की समानता नहीं कर पा रहा है

अपि च

नक्षत्रभूः क्षत्रकुलप्रसूतेर्युक्तो नभोगैः खलु भोगभाजः ।

सुजातरूपोऽपि न याति यस्य समानतां काञ्चन काञ्चनाद्रिः ॥३७॥

अर्थ - और भी नक्षत्रों का उत्पत्तिस्थान देवताओं से युक्त स्वर्णमय भी सुमेरु पर्वत सुख-ऐश्वर्यादि पदार्थों से सम्पन्न क्षत्रिय कुल में उत्पन्न जिस राजा नल की समानता नहीं कर पा रहा है, क्योंकि सुमेरु पर्वत क्षत्रियकुल में उत्पन्न नहीं है, जबकि राजा नल क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए हैं, सुमेरु पर्वत सुख-ऐश्वर्यादि भोगों को नहीं भोगता है, जब कि राजा नल सुख-ऐश्वर्यादि पदार्थों के भोक्ता हैं ।। ३७ ।।

तस्य च महामहीपतेरस्ति स्म प्रशस्तिस्तम्भः सकलश्रुतिशास्त्र शासनाक्षरमालिकानाम्, न्यग्रोधपादपः पुण्यकर्मप्ररोहाणाम्, आकरः साधुव्यवहाररत्नानाम्।

अर्थ - तथा महान् गुणों से विभूषित उस राजा नल का श्रुतशील नामक ब्राह्मण मन्त्री था। जो सम्पूर्ण वेदों, शास्त्रों एवं नीति विद्याओं का प्रशस्तिस्तम्भ ( आधारस्तम्भ), पुण्यकर्मों के प्ररोह (अंकुर) का वटवृक्ष, साधु व्यवहाररूप रत्नों का आकर (खजाना ) था ।

इन्दुः पार्थिवनीतिज्योत्स्नायाः, कन्दः सकलकलाङ्कुरकलापस्य, सागरः समस्त पुरुषगुणमणीनाम्, आलानस्तम्भश्चपलराज्यलक्ष्मीकरेणुकायाः, सकलभुवनव्यापारपारावारनौकर्णधारः, सुधाम्भोनिधिडिण्डीरपिण्डपाण्डुरयशः कुशेशयखण्डमण्डितसकलसंसारसराः, सरागीकृतसमस्तपार्थिवानुजीवी, जीवितसमः, प्राणसमः, हृदय समः, शरीरमात्रभिन्नो द्वितीय इवात्मा, कुलक्रमागतः, संक्रान्तिदर्पणः सुखदुःखयोः, स्वभावानुरक्तः, शुचिः, सत्यपूतवाक्, कृतज्ञः, ब्राह्मणः सालङ्कायनस्य सूनुः श्रुतशीलो नाम महामन्त्री ।

अर्थ - राजनीति की किरणों (दिव्य सिद्धान्तों) का चन्द्रमा, सम्पूर्ण कलारूप अङ्कुरसमूह का मूल, मनुष्यों में रहने वाले समस्त मानवीय गुणरत्नों का सागर, चञ्चल राज्यलक्ष्मीरूपा हथिनी का बन्धनस्तम्भ, सम्पूर्ण संसार के व्यापारसागर में चलने वाली नाव का कर्णधार, अमृतसागर के तरङ्गों से उत्पन्न होने वाले फेनसमूह के सदृश अत्यन्त उज्ज्वल कीर्तिरूप कमलसमूह से विभूषित सम्पूर्ण संसार के सरोवरों के सदृश, सम्पूर्ण राजाओं तथा सेवकों को अनुरञ्जित करने वाला, जीवन के समान, प्राण के समान, हृदय के समान, केवल शरीरमात्र से अलग दूसरी आत्मा के समान, वंशपरम्परा से प्राप्त (पीढ़ी दर पीढ़ी से मन्त्रीपद को प्राप्त करने वाला), सुख-दुःख में शीशे की तरह प्राञ्जल अर्थात् सुख-दुःख दोनों ही स्थितियों में समान व्यवहार करने वाला किं वा सम्पत्ति अथवा विपत्ति दोनों में ही सदा साथ देने वाला, स्वभावानुरक्त अर्थात् राजा से स्वाभाविक प्रेम रखने वाला, पवित्र, सत्य से पवित्र की हुई वाणी बोलने वाला अर्थात् सत्यवादी कृतज्ञ, सालङ्कायन का पुत्रः श्रुतशील नामक ब्राह्मण महामन्त्री था।

वह ब्राह्मण श्रुतशील नामक महामन्त्री राजा नल का सर्वविध हितैषी था-

मित्रं च मन्त्री च सुहृत्प्रियश्च विद्यावय:शीलगुणै: समान: ।

बभूव भूपस्य से तस्य विप्रो विश्वम्भराभारसह: सहाय: ॥३८॥

अर्थ - तथा उस राजा नल का मित्र, सचिव, सहृदय तथा प्रिय एवं विद्या, अवस्था एवं सदाचरण गुणों से समान, पृथिवी के भार को सहने में समर्थ (पृथिवी पर सर्वविध शासन के सञ्चालन में निपुण) श्रुतशील नामक वह ब्राह्मण सहायक हुआ।

सर्वविध गुणसम्पन्न उस ब्राह्मण के सदृश न तो कोई देखा जाता था, न तो सुनने में ही आता था—

अपि च -

ब्रह्मण्योऽपि ब्रह्मवित्तापहारी स्त्रीवियुक्तोऽपि प्रायशो विप्रयुक्तः।

सद्वेषोऽपि द्वेषनिर्मुक्तचेताः को वा तादृग्दृश्यते श्रूयते वा॥३६॥

अर्थ - ब्राह्मणों का हितचिन्तक होकर भी ब्राह्मणों की सम्पत्तियों का हरण करने वाला था, विरोध है। परिहार — ब्रह्मवित् (ब्रह्म का ज्ञाता) अथवा ब्राह्मण होकर भी उनके कष्टों दूर करने वाला था । स्त्रीयुक्त रहता हुआ भी वह प्रायः विप्रयुक्त (वियोगी) बना रहता था, विरोध है। परिहार—स्त्रीयुक्त होते हुए भी वह ब्राह्मणों से युक्त था । द्वेषयुक्त होकर भी वह द्वेषरहित हृदय वाला था, विरोध है । परिहार — उत्तम वेषभूषा से सुशोभित होकर भी ईर्ष्या से रहित हृदय वाला था। वैसा कौन पुरुष सुनने अथवा देखने में आता है ? अर्थात् उसके समान कोई भी न तो देखा जाता है, न तो सुनाई ही पड़ता है॥३६॥

अथ स पार्थिवस्तस्मिन्नमात्ये परिजनपरिवृद्धे प्रौढप्रेमणि निगूढमन्त्रे मन्त्रिणि तूणीकृतस्त्रैणविषयरसे सौराज्यरागजनने जननीयमाने जनस्य, सर्वोपधाशुद्धबुद्धौ निधाय राज्यप्राज्यचिन्ताभारमभिनवयौवनारम्भरमणीये रम्यरमणीजननयनहृदयप्रिये प्रियङ्गुभासि जितमदनमहस्यपहसितसुरासुरसौभाग्ययशसि विस्मापितसमस्तजनमनसि लसल्लावण्यपुञ्जपराजितसकलसमुद्राम्भसि कान्तिकटाक्षितचन्द्रमसि वयसि वर्तमानो मानितमानिनीजनयौवनसर्वस्वः स्वयमनवरतं सकलसंसारसुखसन्दोहमन्वभूत् ।

अर्थ - अनन्तर उस राजा नल ने परिजनों से समृद्ध, प्रगाढ़ अनुराग वाले, मन्त्रणा को गोपनीय रखने वाले, रमणीविषयक भोगानन्द को तुच्छ समझने वाले, सुन्दर (उत्तम) राज्य में अनुराग उत्पन्न करने वाले, प्रजाजनों के मातृतुल्य व्यवहार करने वाले (मातृवत् प्रजाजनों की देखरेख करने वाले), कपट, दुष्टता आदि से रहित शुद्ध बुद्धि वाले, राज्यविषयक चिन्तन का भार श्रुतशील नामक उस अमात्य के ऊपर सौंपकर अभिनव यौवनावस्था के कारण मनोहर, मनोज्ञ कामिनियों के नयनों तथा हृदयों को आह्लादित करने वाली, प्रियङ्गुपुष्प के सदृश कान्ति वाली, कामदेव की कान्ति को जीतने वाली, देवों तथा दानवों के सौभाग्य एवं यश को तिरस्कृत करने वाली, सभी लोगों के चित्त को आश्चर्य से परिपूर्ण कर देने वाली, शोभित सौन्दर्यसमूह से सम्पूर्ण समुद्र के जल को पराजित कर देने वाली, चन्द्रमा की कान्ति को भी कटाक्ष करने वाली (चन्द्रकान्ति को भी तिरस्कृत करने वाली) अवस्था में पहुँचकर मानिनी नायिकाओं के यौवन का सर्वस्व बने हुए स्वयं निरन्तर समस्त सांसारिक सुखसमूह का अनुभव किया ।

तथा हि — कदाचिदनुत्पन्नविषमरणो गरुड इवाहितापकारी हरिवाहनविलासमकरोत्

अर्थ - जैसे कि - किसी समय विष के कारण मरण की स्थिति उत्पन्न न होने देने वाले, सर्पों के लिए दुःखदायक विष्णु के वाहन की लीला को प्राप्त किये हुए गरुड़ के जैसे भीषण युद्ध की स्थिति की उत्पत्ति न होने देने वाले, अहितजनों (शत्रुओं अथवा दुष्टों) के लिए अपकार को करने वाले राजा नल ने घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ की सवारी का आनन्द प्राप्त किया।

कदाचिच्चन्द्रमौलिरिव मदनबाणासनातिमुक्तशरसञ्छादितायां पर्वतभुवि विचचार ।

अर्थ - चन्द्रशेखर भगवान् शिव के जैसे कामदेव के बाणासन अर्थात् धनुष से छूटे हुए बाणों से आच्छादित पर्वतभूमि पर विचरण किया था, वैसे ही कभी राजा नल ने मदन, बाण, आसन, अतिमुक्तक, शर (मुञ्ज) आदि वृक्षों से आच्छादित पर्वतभूमि पर विचरण किया। 

कदाचिदच्युत इव शिशिरकमलाकरावगाहनोत्पन्नपुलककोरकिततनुरनन्तभोगभाक्सुखमन्वतिष्ठत् ।

अर्थ - कदाचित् जैसे भगवान् विष्णु शिशिर ऋतु में लक्ष्मी के हाथों का आलिङ्गन करने से उत्पन्न रोमाञ्च से रोमाञ्चित शरीर वाले होकर असंख्य भोगों (फणों) को धारण करने वाले शेषनाग के शरीर पर सुखानुभूति किया करते हैं, वैसे ही राजा नल भी शिशिर ऋतु में कमलसरोवर में स्नान करने से पुलकित शरीर वाले होकर अनगिनत भोग-विलासजनित सुख की अनुभूति किया करते थे।

कदाचन नलिनयोनिरिव राजसभावस्थितः प्रजाव्यापारमचिन्तयत् ।

अर्थ - जलजासन ब्रह्माजी जिस प्रकार रजोगुण युक्त होकर संसार की सृष्टि के बारे में चिन्तन करते रहते हैं, उसी प्रकार राजा नल भी राज्यसभा में विद्यमान रहकर प्रजा के सर्वविध हित का चिन्तन करते रहते थे।

कदाचिन्मयूर इव कान्तोन्नमत्पयोधरमण्डलिविलासेन हर्षमभजत् ।

अर्थ - जिस प्रकार उमड़ते हुए बादलों को देखकर गोलाकार होकर नृत्य करता हुआ मयूर आनन्दित होता है, उसी प्रकार राजा नल भी कभी उन्नत स्तनों वाली रमणियों के उन्नत स्तनों का आलिङ्गन कर आनन्द को प्राप्त करते थे।

कदाचिन्नक्षत्रराशिरिवाश्विन्या सेनया समन्वितो मृगानुसारी बहुशष्पवनमार्गं बभ्राम ।

अर्थ - जिस प्रकार नक्षत्रों का समूह सूर्य के साथ अश्विनीनक्षत्र से मृगशिरा नक्षत्र तक बहुधा आकाश में भ्रमण करता है, उसी प्रकार नक्षत्रों के समान कान्ति वाले राजा नल ने घुड़सवार सेना के साथ मृगों का पीछा करते हुए अधिक घासों वाले वन में भ्रमण किया ।

कदाचिदाञ्जनेय इवाक्षविनोदमन्वतिष्ठत् ।

अर्थ - जिस प्रकार अञ्जनिपुत्र हनुमान् ने रावणसुत अक्षयकुमार का वध किया था, उसी प्रकार राजा नल ने भी द्यूतक्रीडाओं से अपना मनोरञ्जन किया।

कदाचिद् वानरेश्वर इव सुग्रीवो वैदेहीति ब्रुवाणस्यालघुकाकुत्स्थस्यार्थिन: प्रार्थना क्रियतां सफलेति वानरपुङ्गवानादिदेश ।

अर्थ - कभी जिस प्रकार वानरराज सुग्रीव ने 'वैदेही' इस प्रकार प्रलाप करते हुए महान् राम की सप्रयोजन याचना को सफल करो ऐसा वानरश्रेष्ठों को आदेश दे दिया था उसी प्रकार सुन्दर गर्दन वाले राजा नल ने 'निश्चितरूप से मुझे दो' इस प्रकार प्रार्थना करने वाले भिन्न कण्ठध्वनि वाले याचक की याचना सफल की जाय—ऐसा नरश्रेष्ठों को आदेश दे रखा था।

कदाचिन्मकरकेतन इव सुमनसो मार्गणान् विधाय स्वगुणं कर्णपूरीचकार ।कदाचिदम्भोनिधिरिवोच्चैः स्तननाभिरम्याः कृतानिमेषनयनविभ्रमाः, सकन्दर्पाः, सिषेवे वेलाविलासिनी: ।

अर्थ - जिस प्रकार कामदेव फूलों को बाण बनाकर अपने धनुष की प्रत्यञ्चा को कानों तक खींच कर छोड़ता है, उसी प्रकार कामदेव के समान सुन्दर राजा नल ने याचकों को सन्तुष्ट चित्त वाला बनाकर अपने गुणों को संसार के लोगों के कानों में भर दिया। जिस प्रकार समुद्र तटों पर आनन्ददायिनी जल की बाढ़ें गर्जना करती हुई ध्वनि से मनोहर, मछलियों तथा विशिष्ट आवर्त्तों से युक्त जलतरङ्गों के मोक्ष के साथ सेवित होता है, उसी प्रकार राजा नल उन्नत स्तनों तथा नाभि से मनोहर, निर्निमेष नयनों के विलास को प्रकट करनेवाली सकामा वाराङ्गनाओं का सेवन (उपभोग) करता था।

कदाचिद्दशरथ इवायोध्यायां पुरि स्थितः सुमित्त्रोपेतो रममाणरामभरतप्रेक्षणेन क्षणमाह्लादमन्वभूत्। एवमस्य सकलजीवलोकसुखसन्तानमनुभवतो यान्ति दिनानि।

अर्थ - कदाचित् जैसे दशरथ ने सुमित्रा नामक पत्नी के साथ अयोध्या पुरी में स्थित होकर खेलते हुए राम और भरत को देखकर क्षणभर आनन्द का अनुभव करते थे, वैसे ही राजा नल भी अविजेय नगरी में स्थित सुहृदों से युक्त होकर विलासान्वित रमणियों के शास्त्रीय सङ्गीत के श्रवण से क्षणभर आह्लादित हो जाया करते थे । इस प्रकार समस्त प्राणि लोक की सुखपरम्परा का अनुभव करते हुए इस राजा नल के दिन व्यतीत हो रहे थे।

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शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

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