मंगलवार, 24 जनवरी 2023

सुभाषित ( विदुर नीति से)

नींद किसे नहीं आती - 

१. अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम् ।

     ह्रतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागर: ॥

भावार्थ - जिस साधन रहित, दुर्बल मनुष्य का किसी बलवान के साथ विरोध हो गया हो, जिसने अपना सब कुछ खो दिया हो, कामी पुरुष तथा चोर को रात में जागने का रोग लग जाता है।

कौन धर्म को नहीं जानता - 

२. दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् ।

    मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥

    त्वरमाणश्च भीरुश्च लुब्धः कामी च ते दश ।

   तस्मादेतेषु भावेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥

भावार्थ - दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते - नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान् पुरुष आसक्ति न बढ़ावे ॥

पण्डित कौन है? -

यहां पर पंडित से मतलब किसी जाति से नहीं है बल्कि एक पद या पदवी से है।

३. आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्म नित्यता।

     यमार्थन्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ।। 

भावार्थ - ज्ञानी वही है जो अपनी उपयोगिता जानता है, संघर्षशील है, जिसके अन्दर समस्याओं से लड़ने का सामर्थ्य है और जो किसी भी परिस्थिति में अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है, वही पण्डित कहलाता है।

४. निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।

    अनास्तिकः श्रद्दधानः एतत्पण्डितलक्षणम्॥

भावार्थ - अर्थात् जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों का करने और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न करने वाला, जो ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी न हो और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी हो, वह मनुष्य 'पण्डित' के लक्षण से युक्त होता है।

५.  क्रोधी हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता ।

      यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ - जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की ओर आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं, वे ही पण्डित कहलाते हैं।

६.  यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे ।

     कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।

७. यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।

     समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ- जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

८. यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते ।

    कामादर्थः वृणीते यः स वै पण्डित उच्चते ॥

भावार्थ - जिसकी सांसारिक कार्यों का सम्पादन कराने वाली बुद्धि धर्म और अर्थ से युक्त हो एवं जो काम की अपेक्षा धन कों श्रेष्ठ समझता है, वही पण्डित कहलाता है।

९. यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते।

    न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः ॥

भावार्थ :-  पण्डित लोग प्रत्येक कार्य को करने की इच्छा अपनी शक्ति के अनुसार ही करते हैं और उस इच्छा के अनुसार ही प्रत्येक कार्य को करते हैं एवं कभी किसी का निरादर नहीं करते।

१०. क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्।        नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥

 भावार्थ :- ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं । किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।

११. नाप्राप्यमभिवांछन्ति नष्ट नेच्छति शोचितुम् ।

      भापत्चम मुखन्ति नराः पण्डितपुख्यः ।।

अर्थ - पण्डित लोग अप्राप्य वस्तु पाने की इच्छा नहीं करते, नष्ट हुई वस्तु या सिद्धि के लिये शोक नहीं करते, एवं जीवन में चाहे जितनी आपत्तियों से सामना करना पड़े, उनसे कभी नहीं घबराते।

१२. निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वासति कर्मणः।

       अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ - जो व्यक्ति किसी काम को करने से पहले, उसको समाप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लेता है एवं तदनुसार उसे लाख रुकावटें होनेक्षपर भी समाप्त करके ही छोड़ता है, जो किसी भी समय आने वाले कर्तव्य से विमुख नहीं होता, जो अपनी इन्द्रियों को सदा वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है।

१३. एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।

      विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥

भावार्थ - केवल धर्म ही परम कल्याणकारक हैं, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है ॥

१४. श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।

     असम्भिन्नार्यमर यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ।।

भावार्थ - जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का अनुसरण करती है जो आर्य जीवन की मर्यादाओं को नहीं तोडता, वही पण्डित होता है ।

१५. प्रवृत्तवाक्चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।

      आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥ 

भावार्थ - जो सत्य बात को कहने में न रुके, प्रत्येक बात का उत्तर तत्काल दे, तर्क-वितर्क करने में चतुर हो, जिसकी बुद्धि बे-रोक टोक विषय या प्रसङ्ग के भाव पक्ष को समझ सकती हो, कथा-वार्ता कहने में पटु हो, वही पण्डित का पद प्राप्त करता है ।

मूर्ख कौन है ? -

१६. अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः।

अर्थाश्चाऽकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥

भावार्थ - जो अनपढ़, अभिमानी और दरिद्र होकर भी उच्च अभिलाषायें रखता हो, जो नीचता से धन पैदा करे, वही व्यक्ति मूर्ख कहा जाता है।

१७. स्वमर्थ यः परित्यज्य पगर्थमनुतिष्ठति ।

      मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥

भावार्थ  - जो अपने स्वार्थ को छोड़कर अपनी आवश्यकताओं की परवाह न कर, दूसरे के स्वार्थ या आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये दौड़ता है, जो समर्थ होकर भी मित्रों और हितैषियों की शत्रुता सहायता नहीं करता एवं असमर्थ हो जाने पर सहायता के लिये दौड़ता है, वही मूर्ख कहलाता है।

१८. अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्।

       बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

भावार्थ - जो न चाहने योग्य व्यक्तियों की चाहना करता है, चाहने योग्य को छोड़ देता है और बलवान् से द्वेष करता है, उसे मूर्ख कहते हैं।

१९. अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।

       कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

भावार्थ :- जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है। सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

२०. संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।

      चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ

भावार्थ :जो व्यक्ति अनावश्यक कर्म करता है, सभी को संदेह की दृष्टि से देखता है, आवश्यक और शीघ्र करने वाले कार्यो को विलंब से करता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

२१. श्राद्ध पितृभ्यो न ददाति देवतानि न चार्गति ।

      सुहृन्मित्रम् न लभते तमाहुमूढचेतसम् ॥

भावार्थ - जो माता-पिता पर श्रद्धा न करे, देवताओं का अविश्वास कर

पूजा न करे और मित्र से प्रेम न करे, वही मूर्ख कहाता है ।

२२. नाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते !

      अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः !!

भावार्थ -: किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है.

२३. परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा ।

     यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः ॥

भावार्थ - जो अपनी गलती को दूसरे की गलती बताकर स्वयं को बुद्धिमान दर्शाता है तथा बिना जरूरत गुस्सा करे, वह महामूर्ख कहलाता है।

२४. आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्।

      अलभ्यमिच्छन् नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरिहोच्यते।।

 भावार्थ - जो व्यक्ति अपने बल (योग्यता) को बिना बिचारे काम कर बैठता है और धर्म अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, फिर जो अनाधिकारी को उपदेश देता है, जो कृपण का आश्रय लेता है वह पुरुष इस संसारमें मूढबुद्धि (मुर्ख) कहलाता है।

२५. अशिष्यं शास्ति यो राजन् यश्च शून्यमुपासते

      कदर्य भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ 44

भावार्थ - जो व्यक्ति अयोग्य शिष्य को ज्ञानोपदेश देता है, शून्य की स्तुति करता है। तथा कायरतापूर्ण कार्य करता है, वह मूर्ख है।

निर्दयी कौन है ? -

२६. एकः सम्पन्नमश्नाति वस्तै वासश्च शोभनम्

     योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ।।

भावार्थ - विदुर जी कहते हैं कि जिसके आश्रित अनेक मनुष्य हैं, जिस पर भी वह अकेले अकेले स्वादिष्ट भोजनों को करता है, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनता और राज महलों के सुखों को भोगता है, उसके बराबर संसार में दूसरा निर्दयी नहीं है।

पाप का भागी कौन है? -

२७. एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः ।

     भोक्तारो विप्र मुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।-

भावार्थ -  धनादि सञ्चय करने में एक मनुष्य ही पाप कम करता है, किन्तु उस धन या सुखों को भोगने वाले अनेक होते हैं, जिस पर तमाशा यह, कि जब पाप का फल भोगने का समय आता है, तो वे सुख के साथी अनेक व्यक्ति तत्काल अलग हो जाते हैं, अतएव सिद्ध हुआ, कि पापी एक मात्र वही है, जो अज्ञानवश पाप करता हैं।

बुद्धि-बल का प्रताप -

२८. एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।    बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रं सराजकम् ॥

भावार्थ :- कोई धनुर्धर जब बाण छोड़ता है तो सकता है कि वह बाण किसी को मार दे या न भी मारे, लेकिन जब एक बुद्धिमान कोई गलत निर्णय लेता है तो उससे राजा सहित संपूर्ण राष्ट्र का विनाश हो सकता है ।

२९. एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।

       विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥ ५७ ॥

भावार्थ - केवल धर्म ही परम कल्याणकारक हैं, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है।

३०. एकं विषरसं हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते ।

      सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः ॥

भावार्थ -जहर एक का नाश करता है; हथियार से एक ही मनुष्य मरता है, परन्तु अपात्रों में गयी हुई सलाह सारे राष्ट्र का राजा समेत नाश कर देती है।

साधारण उपदेश -

३१. एकः स्वादु न भुंजीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत् ।

      एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात् ।।

भावार्थ - प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह आश्रितों की उपेक्षा कर अकेला ही भोजन न करे, किसी विषय को अन्य लोगों की बिना सम्मति लिये अकेला ही निश्चय न करे, अकेले यात्रा न करे, और अकेला ही जागरण न करे ।

३२. एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे ।

      सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव

भावार्थ - ईश्वर एक है, उसका स्वरूप बिना सत्य की सहायता के नहीं पहचाना जाता, सत्य स्वर्ग प्राप्ति का सोपान है, ईश्वर सत्यप्रिय मनुष्य को समस्त दुःखों से इस प्रकार अनायास छुटकारा दिला देता है, जिस प्रकार समुद्र को पार करने के लिये नाव ।

क्षमा के गुण -

३३. एक: क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते ।

यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जन: ।।

भावार्थ - क्षमाशील व्यक्तियों में एक ही दोष होता है, दूसरा उनमें ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता और वह यह कि लोग उन्हें असमर्थ व्यक्ति समझ लेते हैं।

३४. सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्।

      क्षमा गुणी ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥ 

भावार्थ - विदुरजी कहते हैं कि किंतु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये, क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थी का भूषण है ।

३५. क्षमावशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।

      शान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः॥

भावार्थ - क्षमा या शान्ति द्वारा सारा संसार वश में किया जा सकता है। ऐसा कोई भी काम नहीं है, जो क्षमा द्वारा सिद्ध न किया जा सकता हो। जिसके हाथ में शान्ति-रूपी खड्ग है, उसका दुष्ट मनुष्य क्या कर सकता है ?

३६. क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति ।

      अतॄणे पतितो वन्हिः स्वयमेवोपशाम्यति ॥

भावार्थ - क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो, उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि, जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो, अपने आप बुझ जाता है।

३७. एको धर्मः परं श्रेयः क्षौका शान्तिरुत्तमा ।

       विद्य का परमा तृप्तिरहिन्सका सुखावहा ॥

भावार्थ - एकमात्र धर्म ही कल्याण कारक है, एकमात्र क्षमा ही परम शान्ति है। एक मात्र विद्या ही परम सन्तोष है, और एक मात्र अहिंसा ही परम सुख है।

साधारण उपदेश - 

३८. द्वाविमौ असते भूमिः सो विलशयानिव ।

      राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥

भावार्थ - युद्ध करने में असमर्थ राजा और परदेश न जाने वाले ब्राह्मण, इन दोनों को पृथ्वी इस प्रकार अनायास निगल जाती है जिस प्रकार बिल में आये हुए पदार्थ को सर्प निगल जाता है ।

३९. द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते ।

      अब्रुवन्पुरुषं किं चिदसतो नार्थयंस्तथा ॥ ५० 

भावार्थ- मनुष्य मीठी वाणी बोलना और सज्जनों से प्रेम करना- इन्हीं दो कर्मों के करने से इस लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

४०. द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्यय कारिणौ ।

       स्त्रियः कामित कामिन्यो लोकः पूजित पूजकः ॥

भावार्थ-  दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने वाले होते हैं, इनका अपना कोई इरादा या इच्छा शक्ति नहीं होती है : १. दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गए पुरुष की कामना करने वाली स्त्रियाँ और दूसरों द्वारा पूजे गए मनुष्य की पूजा करने वाले मनुष्य ।

४१. द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषणौ ।

       यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥

भावार्थ - ये दो तीक्ष्ण कांटे के सामान शरीर को बेध देते हैं -१. निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तुओं की कामना रखना २. और असमर्थ होकर भी क्रोध करना ।

४२.  द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा ।

       गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥

भावार्थ -  ये दो लोग ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते -१. आलसी या अकर्मण्य गृहस्थ २. प्रपंच में संलग्न संन्यासी।

४३.द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: ।

     प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान्।।

भावार्थ :-  विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं : राजन ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं – शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देनेवाला ।

४४. न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोधव्यो द्वावतिक्रमौ ।

       अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥

भावार्थ - न्याय और धर्म से पैदा किये धन का नाश कभी नहीं होता और यदि होता है, तो केवल दो दोषों से एक अयोग्य पात्र में दान करने और योग्य पात्र को न देने से ।

४५.  द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।

       धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।

भावार्थ - दो प्रकार के लोगो के गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए। पहले वे व्यक्ति जो अमीर होते है पर दान नहीं करते और दूसरे वे जो गरीब होते है लेकिन कठिन परिश्रम नहीं करते।

४६.  द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनः ।

       परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥

भावार्थ - दो प्रकारके पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में शत्रुओं के सम्मुख युद्ध में मारा गया योद्धा । अतः अगर कभी युद्ध का अवसर आएं, तो यह समझना चाहिए कि स्वयं महादेवजी के आदेश पर आपके लिए उत्तम लोकों के द्वार खुल चुके हैं । युद्ध मे वीरगति प्राप्त करने से श्रेयस्कर अन्य कुछ भी नही है ।

४७. त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।

       कनीयान्मध्यमः श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः ।

भावार्थ - शास्त्र विशारद पण्डितों ने तीन प्रकार के न्याय बताये हैं- एक उत्तम (शान्ति) दूसरा मध्यम (दान) तीसरा हीन (दण्ड)।

४८. त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।

      नियोजयेद्यथावत्ताँस्त्रिविधेष्वेव कर्मसु ।।

भावार्थ- हे राजन् संसार में तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं-उत्तम, मध्यम और अधम। उन्हें यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मों में नियुक्त करना चाहिए। इसलिये राजा को चाहिये, कि वह उक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों को क्रमानुसार तीन श्रेणी के ही कामों में नियुक्त करे।

४९. त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।

      कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।

भावार्थ - काम, क्रोध और लोभ- ये तीनों आत्मा को अधोगति में ले- जाने वाले और नरक दुःख के द्वार हैं, अतः बुद्धिमान् को चाहिए कि इन तीनों को त्याग दे।

५०. हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।

      सुहृदश्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः ॥

भावार्थ - दूसरे का धन छीन लेना, पर-स्त्रियों पर अत्याचार करना और अपने मित्रों का परित्याग कर देना इन्हीं तीन दोषों से मनुष्य नष्ट होता है।

५१. वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च पाण्डवाः।

      शत्रोश्च मोक्षणं क्लेशास्त्रीणि चैकं च तत्समम् ।।

भावार्थ - वर पाना या कार्य सिद्धि, राज्य पाना या किसी पर विजय पाना, पुत्र-प्राप्ति और किसी को दुःख से बचाना ये चारों समान आनन्द देनेवाले हैं।

५२. भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम् ।

      श्रीनेताश्छरणं प्राप्तान् विषमेऽपि न संत्यजेत् ।।

भावार्थ - विदुरजी कहते हैं भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्योंको संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये ।

३.चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे।

      वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ।।

 भावार्थ - हे तात! धन धान्य से भरपूर एक समृद्ध गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह इन चार प्रकार के व्यक्तियों को अवश्य शरण दे - (१) एक वृद्ध बान्धव (रिश्तेदार) (२) एक कुलीन दुःखी व्यक्ति (३) एक दरिद्र मित्र तथा (४) सन्तानहीन बहिन।

५४. चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्यथाकृतानि ।

      मानाग्निहोत्रमुतमानमौनम् मानेनाधीतमुतमानयज्ञः।।७३

भावार्थः - चार कर्म भय को दूर करने वाले है, किन्तु वे ही ठीक तरह से सम्पादित न हो, तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं- आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान। किन्तु इन्हें भली प्रकार न करने से कष्ट भी मिलता है।

५५. पंचैव पूजयन् लोके यशः प्राप्नोति केवलं ।

        देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान्॥

भावार्थ  - देवता, पित्र, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए। इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है।

५६. पंचेंद्रियस्य मत्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् ।

      ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा द्रुतेः पात्रादिवोदकम् ॥

भावार्थ - मनुष्य कों पांचों इन्द्रियों में यदि एक में भी छेद हो जाये अर्थात् वे कुपथ पर ले जाने लगे, तो मनुष्य की सारी बुद्धि इस प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार एक छेद हो जाने पर मशक का पानी।

५७. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।

      निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।

भावार्थ - किसी व्यक्ति के बर्बाद होने के 6 लक्षण होते है - नींद, गुस्सा, भय, तन्द्रा, आलस्य और काम को टालने की आदत, इन छ: दोषों को छोड़ दे।

५८. षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन ।

       सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥

भावार्थ - व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता', क्षमाशीलता और धैर्य - इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।

५९. अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।

      वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीव लोके सुखानि राजन्॥

भावार्थ - नित्य अर्थागम हो, आरोग्य हो, प्रिय पत्नी हो, प्रिय बोलने वाली भी हो, पुत्र कहना मानता हो, और अर्थकरी विद्या हो , हे राजन् ऐसे छ: लोग इस संसार मे सुखी कहे गये हैं ।

६०. षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते ।

      चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः॥

      प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः ।

      राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः॥

भावार्थ - यह 6 परजीवी हैं जो दूसरों से लाभ उठाते हैं- 1. चोर असावधान लोगों पर, 2. चिकित्सक रोगी पर 3. स्वैरिणी कामी पुरुषों पर 4. यज्ञकर्ता यजमान पर 5. राजा झगड़ालुओं (विवादकर्ता) पर तथा 6. विद्वान् मूर्खों पर (या ऐसे लोगों के कारण) जीवित रहते हैं।

६१. षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्तमनवेक्षणात्।

        गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसङ्गतिः।।

भावार्थ - मुहूर्त भर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्त्री, विद्या, शुद्र से मेल - ये छ: चीजें नष्ट हो जाती हैं।

६२. षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् ।

     आचार्यं शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्च मातरम् ॥

      नारी विगतकामास्तु कृतार्थश्च प्रयोजकम्।

      नावं विस्तीर्णकान्तारा आतुराश्च चिकित्सकम् ॥

भावार्थ - ये छः सदा अपने पूर्व उपकारी का सम्मान नहीं करते हैं- शिक्षा समाप्ति हो जाने पर शिष्य आचार्य का, विवाहित बेटे माता का, कामवासना की शान्ति हो जाने पर पुरुष स्त्री का, कृतकार्य मनुष्य सहायक का, नदी की दुर्गमधारा पार कर लेने वाले पुरुष नाव का तथा रोगी पुरुष रोग छूटनेके बाद वैद्य का।

संसार में सदा दुःखी रहते हैं -

६३. ईर्ष्या घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः ।

      परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥

भावार्थ - ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाले संसार में सदा दुःखी रहते हैं।

६४. सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः ।

      प्रायशा यैर्विनश्यन्ति कृतमूला अपीश्वराः।।

      स्त्रियोक्षा मृगयापानं वाक्पारुष्यं च पच्चमम्।

      महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च।।

भावार्थ  - स्त्री विषययक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्यन्त कठोर दण्ड देना और धन का दुरुपयोग करना - ये सात दुःखदायी दोष राजा को सदा त्याग देने चाहिए। इनसे दृढमूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाते हैं।

६५. अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च ।

       पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥

भावार्थ - बुद्धि, उत्तम कुल में जन्म, इन्द्रियों को जीतना, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता - ये आठ गुण पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं।

६६. अष्टाविमानि हर्षस्य नवनीतानि भारत।

     वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव स्वसुखान्यपि ॥

     समागमश्च सखिभिर्महांश्चैव धनागमः ।

     पुत्रेण च परिष्वङ्गः संनिपातश्च मैथुने ॥

    समये च प्रियालापः स्वयूथ्येषु समुन्नतिः।

    अभिप्रेतस्य लाभश्च पूजा च जनसंसदि ।।

भावार्थ - मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, मैथुन में संलग्न होना, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्नति, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति और जन समाज में सम्मान - ये आठ हर्ष के सार दिखाई देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं।

६७. नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम्।

      क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान यो वेद स परः कविः।।

भावार्थ - जो विद्वान् ्पुरुष (आँख, कान आदि) नौ दरवाजे वाले, तीन (वात, पित्त, तथा कफ) रुपी खंभों वाले, पांच (ज्ञानेद्रिय रूप) साक्षी वाले, आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृह को जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है।

आदर्श राजा के लक्षण -

६८. यः काममन्यू प्रजहाति राजा पात्रे प्रतिष्ठापयते धनं च ।
     विशेषविच्छ्रुतवान्क्षिप्रकारी तं सर्वलोकः कुरुते प्रमाणम् ॥

भावार्थ - जो राजा काम-क्रोध का त्याग कर योग्य पुरुषों का आदर करता है, सब विषयोंके विशेष मतलबको समझता है। जो अपने कर्तव्यों का यथोचित पालन करता है, उसको सारा संसार आदर्श राजा कहता है।

६९. जानाति विश्वासयितुं मनुष्यान्।

      विज्ञातदोषेषु दधाति दण्डम्।

      जानाति मात्रां च क्षमां च

      तां तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा ।।

 भावार्थ- जो राजा मनुष्यों को विश्वास दिलाना जानता है, जो अपराध प्रमाणित हो जाने पर अपराधियों को दण्ड दे सकता है, जो अपराध के अनुसार दण्ड की मात्रा तथा क्षमा करना भी जानता है, उसे सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त होती है तथा लक्ष्मी उसकी चरण चेरी बनकर सेवा करती है।

७०. अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम्।

       दम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव।।

भावार्थ - जो व्यक्त्ति बिना बात परदेस में नहीं रहता , पापीयों के साथ मेल मिलाप नहीं रखता, दूसरी स्त्रियों के साथ नहीं रहता, पाखंड, चोरी, दूसरों की चुगली करने की आदत नहीं रखता और जो नशे का सेवन नहीं करता वह हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करता है।

साधारण उपदेश -

७१. यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्त्यान्।

  न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनो हि ॥

भावार्थ :- जो व्यक्ति शैतानों जैसा वेश नहीं बनाता, वीर होने पर भी अपनी वीरता की बड़ाई नही करता, क्रोध से विचलित होने पर भी कड़वा नहीं बोलता उससे सभी प्रेम करते हैं ।

७२. न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति । 

      न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ॥

 भावार्थ :- जो ठंडी पड़ी दुश्मनी को फिर से नहीं भड़काता, अहंकार रहित रहता है, तुच्छ आचरण नहीं करता, स्वयं को मुसीबत में जानकर अनुचित कार्य नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को संसार में श्रेष्ठ कहकर विभूषित किया जाता है।

७३. न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं, नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्ट:।

      दत्वा न पश्चात्कुरुते न नापं स कथ्यते सत्पुरुषार्थ शीलः।

भावार्थ - जो अपने सुख के समय खुलकर प्रसन्न नहीं होता, जो दूसरे के दुःख को देख अपने को दुःखी समझता है और जो किसी को कुछ देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह पुरुष सर्वत्र श्रेष्ठ समझा जाता है।

७४. चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किञ्चित्।

   मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्चिदर्थः ॥

भावार्थ - जो व्यक्ति अपने अनुकूल तथा दूसरों के विरुद्ध कार्यों को इस प्रकार करता है कि लोगों को उनकी भनक तक नहीं लगती। अपनी नीतियों को सार्वजनिक नहीं करता, इससे उसके सभी कार्य सफल होते हैं।

७५. यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्मानकृच्छुद्धभावः ।

     अतीव स ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ॥

भावार्थ - जो सब प्राणियों का सदा सर्वादा कल्याण चाहता है, सत्य को प्यार करता और सबसे कोमल व्यवहार करता है एवं जिसके सारे भाव शुद्ध है, वह अपनी जाति वालों में बैठकर ऐसा शोभा पाता है, जैसा रत्नों में महामणि ।

सोमवार, 16 जनवरी 2023

नाट्यशास्त्रम्

अथ प्रथमोऽध्यायः ।

मंगलाचरण -
प्रणम्य शिरसा देवी पितामहमहेश्वरी ।
नाट्यशास्त्रं प्रवक्ष्यामि ब्रह्मणा यदुदाहृतम् ॥ १ ॥

ऋषियों का भरतमुनि से प्रश्न -
समाप्तजप्यं व्रतिनं स्वसुतैः परिवारितम् ।
अनध्याये कदाचित्तु भरतं नाट्यकोविदम् ॥ २ ॥

मुनयः पर्युपास्यैनमात्रेयप्रमुखाः पुरा ।
पप्रच्छ्रुस्ते महात्मानो नियतेन्द्रियबुद्धयः ॥ ३॥

योऽयं भगवता सम्यग्ग्रथितो वेदसम्मितः ।
नाट्यवेदं कथं ब्रह्मक्षुत्पन्नः कस्य वा कृते ॥ ४॥

कत्यङ्गः किंप्रमाणश्च प्रयोगश्चास्य कीदृशः ।
सर्वमेतद्यथातत्त्वं भगवन्वक्तुमर्हसि ॥ ५ ॥

नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति -

तेषां तु वचनं श्रुत्वा मुनीनां भरतो मुनिः ।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं नाट्यवेदकथां प्रति ॥ ६ ॥

भवद्भिः शुचिभिर्भूत्वा तथाऽवहितमानसैः ।
श्रयतां नाट्यवेदस्य सम्भवो ब्रह्मनिर्मितः ॥ ७॥

पूर्वं कृतयुगे विप्रा वृत्ते स्वायंभुवेऽन्तरे ।
त्रेतायुगेऽथ सम्प्राप्ते मनोर्वैवस्वतस्य तु ॥ ८॥

ग्राम्यधर्मप्रवृत्ते तु कामलोभवशं गते ।
ईर्ष्याक्रोधादिसं लोके सुखितदुःखिते ॥ ९ ॥

देवदानवगन्धर्वयक्षरक्षोमहोरगैः ।
जम्बुद्वीपे समाक्रान्ते लोकपालप्रतिष्ठिते ॥ १०॥

महेन्द्रप्रमुखैर्देवैरुक्तः किल पितामहः ।
कीडनीयकमिच्छामो दृष्यं श्रव्यं च यद्भवेत् ॥ ११ ॥

न वेदव्यवहारोऽयं संधाव्यः शूद्रजातिषु ।
तस्मात्सृजापरं वेदं पञ्चमं सार्ववर्णिकम् ॥ १२ ॥

एवमस्त्विति तानुक्त्वा देवराजं विसृज्य च ।
सस्मार चतुरो वेदान्योगमास्थाय तत्त्ववित् ॥ १३ ॥

(नेमे वेदा यतः श्राव्याः स्त्रीशूद्राद्यासु जातिषु ।
वेदमन्यत्ततः स्रक्ष्ये सर्वधाव्यं तु पञ्चमम् ॥ )
धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च सोपदेश्यं सङ्ग्रहम्
विष्यतश्च लोकस्य सर्वकर्मानुदर्शकम् १४ ॥

सर्वशात्रार्थसम्पन्नं सर्वशिल्पप्रवर्तकम् ।
नाट्याख्यं पञ्चमं वेदं सेतिहासं करोम्यहम् ॥ १५ ॥

एवं सङ्कल्प्य भगवान् सर्ववेदाननुस्मरन् ।
नाट्यवेद ततश्च चतुर्वेदासम्भवम् ॥ १६

जग्राह पाठ्यमृग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च ।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ॥ १७ ॥

वेदोपवेदैः सम्बद्धो नाट्यवेदो महात्मना ।
एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्ववेदिना ॥ १८ ॥

उत्पाद्य नाटयवेदं तु ब्रह्मोवाच सुरेश्वरम् ।
इतिहासो मया सृष्टः स सुरेषु नियुज्यताम् ॥ १९ ॥

कुशला ये विदग्धाश्च प्रगल्भाश्च जितश्रमाः ।
तेष्वयं नाट्यसंज्ञो हि वेदः संक्राम्यतां त्वया ॥ २० ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं शक्रो ब्रह्मणा यदुदाहृतम्
प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा प्रत्युवाच पितामहम् ॥ २१ ॥

ग्रहणे धारणे ज्ञाने प्रयोगे चास्य सत्तम
अशक्ता भगवन् देवा अयोग्या नाट्यकर्मणि ॥ २२ ॥

य इमे वेदगुह्यज्ञा ऋषयः संशितव्रताः ।
एतेऽस्य ग्रहणे शक्ताः प्रयोगे धारणे तथा ॥ २३ ॥

नाट्यवेद की भरत को उपलब्धि - 
श्रुत्वा तु शक्रवचनं मामाहाम्बुजसम्भवः ।
त्वं पुत्रशतसंयुक्तः प्रयोक्ताऽस्य भवानघ ॥ २४॥

आज्ञापितो विदित्वाऽहं नाट्यवेदं पितामहात् ।
पुत्रानध्यापयामास प्रयोगं चापि तत्त्वतः ॥ २५ ॥

शाण्डिल्यं चैव वात्स्यं च कोहलं दत्तिलं तथा ।
जटिलम्बरको चैव तण्डुमग्निशिखं तथा ॥ २६ ॥

सैन्धवं सपुलोमानं शाङ्खलिं विपुलं तथा ।
कपिञ्जलिं वादिरं च यमधूम्रायणी तथा ॥ २७॥

जम्बुध्वजं काकजङ्घ स्वर्णकं तापसं तथा ।
कैदारि शालिकर्ण च दीर्घगात्रं च शालिकम् ॥ २८ ॥

कौत्सं ताण्डायनिं चैव पिङ्गलं चित्रकं तथा ।
बन्धु मल्लकं चैव मुष्ठिकं सैन्धवायनम् ॥ २९ ॥

तैतिल भार्गवं चैव शुचिं बहुलमेव च ।
अबुधं बुधसेनं च पाण्डुकर्णं सुकेरलम् ॥ ३० ॥

ऋजुकं मण्डकं चैव शम्बरं वञ्जुलं तथा ।
मागधं सरलं चैव कर्तारं चोग्रमेव च ॥ ३१ ॥

तुषारं पार्षदं चैव गौतमं बादरायणम् ।
विशालं शबलं चैव सुनामं मेषमेव च ॥ ३२ ॥

कालियं भ्रमरं चैव तथा पीठमुखं मुनिम्
नखकुट्टाश्मकुट्टौ च पढ्दं सोत्तमं तथा ॥ ३३ ॥

पादुकोपानहौ चैव श्रुतिं चाषस्वरं तथा ।
अग्निकुण्डाज्यकुण्डी च वितण्ड्य ताण्डवमेव च ॥ २४ ॥

कर्तराक्षं हिरण्याक्षं कुशलं दुस्सहं तथा ।
लाजं भयानकं चैव बीभत्सं सविचक्षणम् ॥ ३५ ॥

पुण्ड्राक्षं पुण्ड्रनासं चाप्यसितं सितमेव च ।
विधुजिहं महाजिहं शालङ्कायनमेव च ॥ ३६ ॥

श्यामायनं माठरं च लोहिताङ्गं तथैव च ।
संवर्तकं पञ्चशिखं त्रिशिखं शिखमेव च ॥ ३७॥

शङ्खवर्णमुख शण्टं शङ्कुकर्णमथापि च
शकनेमिं गभस्तिं चाप्यंशुमालिं शठं तथा ॥ ३८ ॥

विद्युतं शातच रौद्रं वीरमथापि च।
पितामहाज्ञयाऽस्माभिर्लोकस्य च गुणेप्सया ॥ ३९ ॥

प्रयोजितं पुत्रशतं यथाभूमिविभागशः ।
यो यस्मिन्कर्मणि यथा योग्यस्तस्मिन् स योजितः ॥ ४० ॥

कैशिकी वृत्ति की आवश्यकता एवं योजना -
भारती सात्वती चैव वृत्तिमारभटी तथा
समाश्रितः प्रयोगस्तु प्रयुक्तो वै मया द्विजाः ॥ ४१ ॥

परिगृह्य प्रणम्याथ ब्रह्मा विज्ञापितो मया ।
अथाह मां सुरगुरुः कैशिकिमपि योजय ॥ ४२ ॥

यच्च तस्याः क्षमं द्रव्यं तद् ब्रूहि द्विजसत्तम ।
एवं तेनास्म्यभिहितः प्रत्युक्तश्च मया प्रभुः ॥ ४३ ॥

दीयतां भगवन्द्रव्यं कैशिक्याः सम्प्रयोजकम् ।
नृत्ताङ्गहारसम्पन्ना रसभावक्रियात्मिका ॥ ४४ ॥

दृष्टा मया भगवतो नीलकण्ठस्य नृत्यतः ।
कैशिकी ष्लक्ष्णनैपथ्या शृङ्गाररससम्भवा ॥ ४५ ॥

अशक्या पुरुषः सा तु प्रयोक्तं स्त्रीजनाहते।
ततोऽसृजन्महातेजा मनसाऽप्सरसो विभुः ॥ ४६ ॥
नाट्यालङ्कारचतुराः प्रादान्मह्यं प्रयोगतः ।

अप्सराओं की संज्ञा -
मञ्जुकेशीं सुकेशीं च मिश्रकेशीं सुलोचनाम् ॥ ४७ ॥

सौदामिनी देवदत्तां देवसेनां मनोरमाम् ।
सुदतीं सुन्दरीं चैव विदग्धां विपुलां तथा ॥ ४८ ॥

सुमालां सन्ततिं चैव सुनन्दां सुमुखीं तथा ।
मागधीमर्जनी चैव सरला केरला धृतिम् ॥ ४९ ॥

नन्दां सपुष्कल चैव कलमां चैव मे ददौ ।

स्वाति तथा नारद की भरत की सहायता हेतु नियुक्ति -
स्वातिर्भाण्डनियुक्तस्तु सह शिष्यैः स्वयम्भुवा ॥ ५० ॥

नारदाद्याश्च गन्धर्वा गानयोगे नियोजिताः ।
एवं नाट्यमिदं सम्यम्बुद्धा सर्वेः सुतैः सह ॥ ५१ ॥

स्वातिनारदसंयुक्तो वेदवेदाङ्गकारणम् ।
उपस्थितोऽहं ब्रह्माणं प्रयोगार्थं कृताञ्जलिः ॥ ५२ ॥

नाट्यस्य ग्रहणं प्राप्तं ब्रूहि किं करवाण्यहम् ।

इन्द्रध्वज महोत्सव के अवसर पर नाट्य प्रयोग -
एतत्तु वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच पितामहः ॥ ५३ ॥

महानयं प्रयोगस्य समयः प्रत्युपस्थितः
अयं ध्वजमहः श्रीमान् महेन्द्रस्य प्रवर्तते ॥ ५४ ॥

अत्रेदानीमयं वेदो नाट्यसंज्ञः प्रयुज्यताम्
ततस्तस्मिन्ध्वजमहे निहतासुरदानवे ॥ ५५ ॥

प्रहृष्टामरसंकीर्णे महेन्द्रविजयोत्सवे ।
पूर्व कृता मया नान्दी ह्याशीर्वचसंयुता ॥ ५६ ॥

अष्टाङ्गपदसंयुक्ता विचित्रा वेदनिर्मिता ।
तदन्तेऽनुकृतिर्बद्धा यथा दैत्याः सुरैर्जिताः ॥ ५७ ॥

सम्फेटविद्रवकृता च्छेद्यभेद्याहवाल्मिका ।
ततो ब्रह्मादयो देवाः प्रयोगपरितोषिताः ॥ ५८ ॥

प्रददुर्मत्सुतेभ्यस्तु सर्वोपकरणानि वै ।

भरत मुनि को देवताओं द्वारा दिये गये उपकरण -
प्रीतस्तु प्रथमं शको दत्तवान्स्वं ध्वजं शुभम् ५९॥

ब्रह्मा कुटिलकं चैव भृङ्गारं वरुणः शुभम् ।
सूर्यश्छत्रं शिवस्सिद्धिं वायुर्व्यजनमेव च ॥ ६० ॥

विष्णुः सिंहासनं चैव कुबेरो मुकुटं तथा।
श्रव्यत्वं प्रेक्षणीयस्य ददौ देवी सरस्वती ॥ ६१ ॥

शेषा ये देवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः
तस्मिन्सदस्यभिप्रेतान्नानाजातिगुणाश्रयान् ॥ ६२ ॥

अंशांशैर्भाषितं भावान् रसान् रूपं बलं तथा
दत्तवन्तः प्रहष्टास्ते मत्सुतेभ्यो दिवौकसः ॥ ६३ ॥

एवं प्रयोगे प्रारब्धे दैत्यदानवनाशने ।
अभवन्तुभिताः सर्वे दैत्या ये तत्र सङ्गताः ॥ ६४॥

विरूपाक्ष पुरोगांश्च विज्ञान्प्रोत्साद्य तेऽब्रुवन् ।
न क्षमिष्यामहे नाटयमेतदागम्यतामिति ॥ ६५ ॥

ततस्तैरसुरैः सार्धं विघ्ना मायामुपाश्रिताः ।
वाच श्रेष्ठ स्मृति चैव स्तम्भयन्ति स्म नृत्यताम् ॥ ६६ ॥

तथा विध्वंसनं दृष्ट्वा सूत्रधारस्य देवराट् ।
कस्मात्प्रयोगवैषम्यमित्युक्त्वा ध्यानमाविशत् ॥ ६७ ॥

अथापश्यत्सदी विघ्नः समन्तादुपरिवारितम् ।
सहेतरै: सूत्रधारं नष्टसंज्ञं जडीकृतम् ॥६८॥

विघ्न नाशक जर्जर की उपलब्धि -
उत्थाय त्वरितं शक्रं गृहीत्वा ध्वजमुत्तमम् ॥
सर्वरत्नोज्ज्वलतनुः किञ्चिदुद्धृत लोचनः ॥ ६९ ॥

रङ्गपीठगतान्विघ्नानसुरांश्चैव देवराट् । जर्जरीकृतदेहांस्तानकरोज्जर्जरेण सः ॥७०॥

निहतेषु च सर्वेषु विनेषु सह दानवैः ।
संप्रहृष्य ततो वाक्यमादुः सर्वे दिवौकसः ॥ ७१ ॥

अहो प्रहरणं दिव्यमिदमासादितं त्वया ।
जर्जरीकृतसर्वाङ्गा येनैते दानवाः कृताः ॥७२॥

यस्मादनेन ते विघ्नाः सासुरा जर्जरीकृताः ।
तस्माज्जर्जर एवेति नामतोऽयं भविष्यति ॥ ७३ ॥

शेषा ये चैव हिंसार्थमुपयास्यन्ति हिंसकाः ।
दृट्रैव जर्जर तेऽपि गमिष्यन्त्येवमेव तु ॥ ७४

एवमेवास्त्विति ततः शक्रः प्रोवाच तान्सुरान् ।
रक्षाभूतश्च सर्वेषां भविष्यत्येष जर्जरः ॥ ७५ ॥

प्रयोगे प्रस्तुते व स्फीते शक्रमहे पुनः ।
त्रासं सञ्जनयन्ति स्म विघ्नाः शेषास्तु नृत्यताम् ॥ ७६ ॥

दृष्ट्वा तेषां व्यवसितं दैत्यानां विप्रकारजम् ।
उपस्थितोऽहं ब्रह्माणं सुतैः सर्वैः समन्वितः ॥७७॥

निश्चिता भगवन्विघ्ना नाट्यस्यास्य विनाशने ।
अस्य रक्षाविधिं सम्यगाज्ञापय सुरेश्वर ॥ ७८ ॥

नाट्यगृह का निर्माण -
ततश्च विश्वकर्माणं ब्रह्मोवाच प्रयत्नतः ।
कुरु लक्षणसम्पन्नं नाट्यवेश्म महामते ॥ ७९ ॥

ततोऽचिरेण कालेन विश्वकर्मा महच्छुभम् ।
सर्वलक्षणसम्पन्नं कृत्वा नाट्यगृहं तु सः ॥ ८० ॥

प्रोक्तवान्द्रुहिणं गत्वा सभायान्तु कृताञ्जलीः।
नाट्यगृह देव तदेवेक्षितुमर्हसि ॥ ८१ ॥

ततः सह महेन्द्रेण सुरैः सर्वेश्व सेतरैः ।
आगतस्त्वरितो दृष्टुं द्रुहिणो नाट्यमण्डपम् ॥ ८२ ॥

रवा नाट्यगृह झाप्राह सर्वान्सुरांस्ततः ।
अंशभागैर्भवद्भिस्तु रक्ष्योऽयं नाट्यमण्डपः ॥ ८३ ॥

नाट्यगृह के रक्षक देवताओं की नियुक्ति -
रक्षणे मण्डपस्याथ विनियुक्तस्तु चन्द्रमा ।
लोकपालास्तथा दिक्षु विदिश्वपि च मारुताः ॥ ८४ ॥

नेपथ्यभूमौ मित्रस्तु निक्षिप्तो वरुणोऽम्बरे ।
वेदिकारक्षणे वह्निर्भाण्डे सर्वदिवौकसः ॥ ८५ ॥

वर्णाश्चत्वार एवाथ स्तम्भेषु विनियोजिताः ।
आदित्याश्चैव रुद्राश्च स्थिताः स्तम्भान्तरेश्वथ ॥ ८६ ॥

धारणीश्वथ भूतानि शालास्वप्सरस्तथा ।
सर्ववेश्मसु यक्षिण्यो महीपृष्ठे महोदधिः ॥ ८७ ॥

द्वारशालानियुक्तौ तु तान्तः काल एव च
स्थापितौ द्वारपत्रेषु नागमुख्यौ महाबलौ ॥ ८८ ॥

देहल्यां यमदण्डस्तु शूलं तस्योपरि स्थितम् ।
द्वारपाली स्थिती चौभी नियतिर्मृत्युरेव च ॥ ८९ ॥

पार्श्वे च रङ्गपीठस्य महेन्द्रः स्थितवान्स्वयम् ।
स्थापिता मत्तवारण्यां विद्युद्दैत्यनिषूदनी ॥ ९० ॥

स्तम्भेषु मत्तवारण्याः स्थापिता परिपालने ।
भूतयक्षपिशाश्च गुह्यकाश्च महाबलाः ॥ ९१ ॥

जर्जरे तु विनिक्षितं व दैत्यनिवर्हणम् ।
तत्पर्वसु विनिक्षिप्ताः सुरेन्द्रा ह्यमितौजसः ॥ ९२ ॥

शिरः पर्वस्थितो ब्रह्मा द्वितीये शङ्करस्तथा ।
तृतीये च स्थितो विष्णुश्चतुर्थे स्कन्द एव च ॥ ९३ ॥

पचमे च महानागाः शेषवासुकितक्षकाः ।
एवं विघ्नविनाशाय स्थापिता जर्जरे सुराः ९४

रङ्गपीठस्य मध्ये तु स्वयं ब्रह्मा प्रतिष्ठितः ।
इष्टार्थं रङ्गमध्ये तु क्रियते पुष्पमोक्षणम् ॥ ९५ ॥

पातालवासिनो ये च यक्षगुह्यकपन्नगाः।
अधस्ताद्रङ्गपीठस्य रक्षणे ते नियोजिताः ॥ ९६ ॥

नायकं रक्षतीन्द्रस्तु नायिकां च सरस्वती ।
विदूषकमधौङ्कारः शेशास्तु प्रकृतिर्डरः ॥ ९७ ॥

यान्येतानि नियुक्तानि दैवतानीह रक्षणे ।
एतान्येवाधिदैवानि भविष्यन्तीत्युवाच सः ॥ ९८ ॥

एतस्मिन्नन्तरे देवैः सर्वैरुक्तः पितामहः ।
साम्ना तावदिमे विघ्नाः स्थाप्यन्तां वचसा त्वया ॥ ९९ ॥

पूर्व सामं प्रयोक्तव्यं द्वितीयं दानमेव च।
तयोरुपरि भेदस्तु ततो दण्डः प्रयुज्यते ॥ १००॥

ब्रह्मा द्वारा विघ्नकर्ताओं का उद्बोधन -
देवानां वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा विघ्नानुवाच ह ।
कस्माद्भवन्तो नाट्यस्य विनाशाय समुत्थिताः ॥ १०१ ॥

ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा विरूपाक्षोऽब्रवीद्वचः ।
दैत्यैर्विगणैः सार्धं सामपूर्वमिदं ततः ॥ १०२ ॥

योऽयं भगवता सृष्टो नाट्यवेदः सुरेच्छया ।
प्रत्यादेशोऽयमस्माकं सुरार्थं भवता कृतः ॥ १०३ ॥

तन्नैतदेवं कर्तव्यं त्वचा लोकपितामह ।
यथा देवस्तथा दैत्यास्त्वत्तः सर्वे विनिर्गताः ॥ १०४ ॥

विघ्नानां वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।
अलं वो मन्युना दैत्या विषादं त्यजतानघाः ॥ १०५ ॥

भवतां देवतानां च शुभाशुभविकल्पकः ।
कर्मभावान्वयापेक्षी नाट्यवेदो मया कृतः ॥ १०६ ॥

नाट्य स्वरूप -
नैकान्ततोऽत्र भवतां देवानां चानुभावनम् ।
त्रैलोक्यस्यास्य सर्वस्य नाट्यं भावानुकीर्तनम् ॥ १०७॥

कचिद्धर्मः कचित्कीटा कचिदर्थः कचिच्छमः ।
कचिद्धास्यं कचिद्युद्धं कचित्कामः कचिद्वधः ॥ १०८ ॥

धर्मो धर्मप्रवृत्तानां कामः कामोपसेविनाम् ।
निग्रहो दुर्विनीतानां विनीतानां दमक्रिया ॥ १०९ ॥

क्रीवानां धाजननमुत्साहः शूरमानिनाम् ।
अनुधानां विबोधश्च वैदुष्यं विदुषामपि ॥ ११० ॥

ईश्वराणां विलासच स्थेयं दुःखार्दितस्य च ।
अर्थोपजीविनामर्थौ धृतिरुद्वेगचेतसाम् ॥ १११

नानाभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरात्मकम् ।
लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम् ॥ ११२ ॥

उत्तमाधममध्यानां नराणां कर्मसंश्रयम् ।
हितोपदेशजननं धृतिक्रीडासुखादिकृत् ॥ ११३ ॥

(एतद्रसेषु भावेषु सर्वकर्मक्रियास्वथ ।
सर्वोपदेशजननं नाट्यं लोके भविष्यति ॥ )
दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् ।
विश्रान्तिजनन काले नाटयमेतद्भविष्यति ॥ ११४ ॥

धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् ।
लोकोपदेशजननं नाटयमेतद्भविष्यति ॥ ११५ ॥

न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला ।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृश्यते ॥ ११६ ॥

रंग तथा रंग देवताओं का पूजा विधान -
तन्नात्र मन्युः कर्तव्यो भवद्भिरमरान्प्रति ।
सप्तद्वीपानुकरणं नाट्यमेतद्भविष्यति ॥ ११७ ॥

(येनानुकरणं नाटयमेतत्तयन्मया कृतम् ॥ )
देवानामसुराणां च राज्ञामथ कुटुम्बिनाम् । 
ब्रह्मर्षीणां च विज्ञेयं नाट्यं वृत्तान्तदर्शकम् ॥ ११८ ॥

योऽयं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमन्वितः । 
सोऽङ्गाद्यभिनयोपेतो नाट्यमित्यभिधीयते ॥ ११९ ॥

(वेदविद्येतिहासानामाख्यानपरिकल्पनम् ।
विनोदकरणं लोके नाट्यमेतद्भविष्यति ॥ श्रुतिस्मृतिसदाचारपरिशेषार्थकल्पनम् ।
विनोदजननं लोके नाट्यमेतद्भविष्यति ॥ )
एतस्मिन्नन्तरे देवान् सर्वानाह पितामहः ।
पितामद्य विधिवद्यजनं नाटयमण्डपे १२० ॥

बलिप्रदानैर्होमैश्च मन्त्रौषधिसमन्वितैः ।
भोज्यैर्भक्षैश्च पानैश्च बलिः समुपकल्पताम् ॥ १२१ ॥

मर्त्यलोकगताः सर्वे शुभ पूजामवाप्स्यथ
अपूजयित्वा रनं तु नैव प्रेक्षां प्रवर्तयेत् ॥ १२२ ॥

अपूजयित्वा तु यः प्रेक्षां कल्पयिष्यति।
निष्फलं तस्य तत् ज्ञानं तिर्यग्योनिं च यास्यति ॥ १२३ ॥

यज्ञेन संमितं दद्रङ्गदैवतपूजनम्
तस्मात्सर्वप्रयलेन कर्तव्यं नाट्ययोक्तृभिः ॥ १२४ ॥

नर्तकोऽर्थपतिर्वापि यः पूजां न करिष्यति
न कारयिष्यन्त्यन्यैर्वा प्राप्नोत्यपचयं तु सः ॥ १२५ ॥

यथाविधिं यथादृष्टं यस्तु पूजां करिष्यति ।
स लप्स्यते शुभानर्थान् स्वर्गलोकं च चास्यति ॥ १२६ ॥

एवमुक्त्वा तु भगवान्द्रुहिणः सहदेवतैः । 
रङ्गपूजां कुरुश्वेति मामेवं समचोदयत् ॥ १२७॥

॥ इति भारतीये नाट्यशास्त्रे नाट्योत्पत्तिर्नाम प्रथमोऽध्यायः ॥

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

भाव मीमांसा

       

         आज हम समझने की कोशिश करेंगे ऐसी कुछ भावनाओं को जिन्हें हम अपने जीवन में किसी न किसी रूप में नियमित रूप से महसूस करते रहते हैं। दरअसल अवलोकन न कर पाने के कारण हम कुछ भावनाओं में निहित सूक्ष्म अंतर को नही पहचान पाते या कहें तो हमे इसकी कभी आवश्यकता ही नही लगती की इस विषय का अवलोकन भी किया जाए या ये अवलोकनार्थ है । महसूस की जाने वाली किसी भी चीज का अवलोकन करना वैसे भी कठिन होता है क्योंकि रस रूप जैसे अवयवों से भरे हुए भाव अंतर मन का विषय हैं न की बुद्धि का ।

फिर भी ये एक प्रयास रहेगा कुछ भावनाओं और उनके बीच के अंतर को गहराई से समझने का जो शायद जीवन जीने का एक नया नजरिया हमें प्रदान करें । हम प्यार, ममता और समर्पण जैसी भावनाओं के विषय में समझने का प्रयास करेंगे।

       सबसे पहले बात उसकी जिसे ऊपर वर्णित नही किया गया यानी आकर्षण की । माफी चाहेंगे लेकिन कभी कभी लेखकों को पाठको की रुचि बनाए रखने के लिए ऐसा करना पढ़ता है।

खैर अब बढ़ते हैं अपने मूल विषय की तरफ। आकर्षण क्या है? देखिए आकर्षण में मूलत: जो इन्द्रिय सबसे ज्यादा काम करती है वह हैं आंखें। आकर्षण का आधार ही दृष्टि है। वैसे आप किसी की आवाज या महक से भी आकर्षित हो सकते हैं लेकिन फिर भी आप इस बात को मानेंगे कि देखने का संबंध इस भाव से ज्यादा है। ये किसी के प्रति भी हो सकता है और ये एक परस्पर भावना नहीं है क्योंकि जरूरी नहीं कि जिसके प्रति आप आकर्षित हों वह भी आपकी तरफ आकर्षित हो या फिर आपका आकर्षण किसी निर्जीव वस्तु की तरफ भी हो सकता है। उदाहरण के लिए आप एक बगीचे में जाते हैं, जहां गुलाब के एक ही रंग के बहुत सारे फूल लगे हुए हैं, अब यहां चूंकि सभी एक से हैं तो आप किसी एक के प्रति विशेष आकर्षित नही होते वरन उस वस्तु के प्रति यानी गुलाब के प्रति आकर्षित होते हैं, आपको किसी एक से कोई फर्क नहीं पड़ता, आप किसी भी गुलाब के पास रुक के उसे निहारने लगते हो । जैसा मैंने ऊपर कहा कि यहां परस्परता का भाव नहीं है क्योंकि आप गुलाब की तरफ आकर्षित है गुलाब आप की तरफ नहीं । अब मानिए कि आपको उस में से कोई एक गुलाब चाहिए और आपने देखा कि एक गुलाब की दो तीन पंखुड़ियां कम है और दूसरा पूर्णता के साथ खिला हुआ है । अब आप क्या करेंगे ? बड़ी सीधी सी बात है कि आप दूसरे गुलाब को तोड़ेंगे ये जानते हुए भी कि आपका काम पहले वाले गुलाब से भी चल जायेगा और दोनो की गंध में भी कोई अंतर नहीं है। परन्तु आपने दूसरा चुना क्यों ? क्योंकि चुनाव के वक्त अब आकर्षण के भाव में रस रूप गंध आदि भाव भी समाहित थे। अब ये बात आपको सही लगेगी कि आकर्षण की धुरी और आधार दृष्टि ही है। आकर्षण में आप सबसे अच्छा चुनने की चेष्टा करते हैं क्योंकि वह आपको देखने में ज्यादा अच्छा लगता है। अब ये तो बात हो गई निर्जीव वस्तु की, अब मानिए कि आप कही जाते हैं और आपको प्यारे प्यारे से कुत्ते के बिल्कुल एक जैसे दिखने वाले चार पांच बच्चे दिखाई देते है, आप आकर्षित होते हैं और नीचे झुक के उनके साथ खेलने लगते हैं। इस भावना को आप कहेंगे कि कुत्ते के बच्चों पे प्यार आ गया लेकिन नहीं, रुकिए! अब आप को इनमे से किसी एक को घर ले जाना हो पालने के लिए, तो आप कोई सा भी लेके चल दीजिए क्योंकि आपको तो सभी से प्यार है। पर ऐसा होगा नहीं, आप देखेंगे की इनमे से सबसे तंदरुस्त कौन सा है, कौन ज्यादा उछल कूद कर रहा है वगैरह वगैरह। 

    असल बात ये है कि आकर्षण की भावना का संबंध ज्यादातर आकस्मिकता से होता है और ये भावना अल्पकालिक और स्वार्थ से परिपूर्ण होती है तथा समय के साथ इसमें गिरावट आती रहती है। आपका स्वार्थ पूरा होते ही या रूप या अवस्था परिवर्तन होने से आपका आकर्षण उस चीज या व्यक्ति के प्रति कम होने लगता है। जैसे आप वो गुलाब का फूल तोड़ के ले के आए और उसके मुरझाते ही आपने उसे त्याग दिया क्योंकि आपका आकर्षण उसके रूप से था। ऐसा नहीं है कि इस भावना के साथ सिर्फ स्वार्थ ही है, आपको उस चीज के उस स्वरूप में न रहने पर पीड़ा का आभास भी हो सकता है। जैसे आप किसी दुकान से एक कॉफी कप खरीद कर लाए जिसके जैसा वहां और कोई पीस नही था और आते ही वो टूट गया, निश्चित ही आपको पीड़ा होगी पर वो पीड़ा आकर्षणवश और क्षणिक होगी।

     आज़ के परिवेश में हमे ये याद रखना होगा कि ज्यादातर लोग जो आपसे जुड़ते है वो आपके रूतबे, पद, प्रतिष्ठा, पहुंच आदि को देख के जुड़ते है और आप समझते है कि ये हमसे प्रभावित है। नही, वो हमसे नही हमसे जुड़ी हुई चीजों से आकर्षित होकर हमसे जुड़ते हैं और वो खत्म होते ही वो लोग फिर आपको दूर दूर तक दिखाई नही देते । ये जो बाजारवाद आप अपने चारों ओर देखते है वो सब आकर्षण के भाव पे ही तैयार किया गया है। बाजार समझता है कि पैकिंग सुंदर दिखती होगी, मॉल में चीज़ें करीने से लगी होंगी, बेचने के लिए अच्छा दिखने वाला सेल्स मैन होगा तो निश्चित ही आपके ध्यान को आकर्षित करने में वो कारगर होंगे । 

इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है अपने इस भाव को नियंत्रण में रखना।

       अब बात करते हैं सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वाले भाव यानी 'प्यार' की। सबसे पहले तो ये कि ज्यादातर मामलों में आकषर्ण ही प्यार का पहला चरण होता है। । अगर इस बात को लेके आपके मन में कोई संशय हो तो आप इस तथ्य को और गहराई से समझ सकते है। अगर प्यार के पीछे अधिकतर आकर्षण नही होता तो क्यों आपको सुंदर दिखने वाली महिला या पुरुष से ही प्यार होता है। समाज में बिरले ही ऐसे वीर मिलेंगे जिन्होंने रूप को महत्व न देके किसी को प्यार किया होगा । अगर आप विश्वास न करना चाहें तो अपने चारों तरफ या खुद को भी देख सकते हैं। Love at first sight को क्या आप आकर्षण की संज्ञा नही देंगे? आप आकर्षित होते हैं और फिर समय के साथ वो प्यार में रूपांतरित हो जाता है। ये समय के साथ बढ़ने वाला भाव है इसलिए इसके मापन की इकाई अगर कोई है तो वो है प्रगाढ़ता ।

   ‌‌    पर ये भाव एक परस्पर भाव है और ये दीर्घकालिक हो सकता है पर इसका दीर्घकालिक होना परस्परता पर निर्भर करता है । प्यार कभी एक तरफा नही हो सकता, ये जान लीजिए । हमने यहां इसे बोल्ड और अंडरलाईन कर दिया है और आप इस बात को अपने जहन में बोल्ड और अंडरलाईन कर लीजिए और ये भी कि एक तरफा होने की स्थिति में ये बहुत लंबे समय तक नही रह सकता । सामने वाला तवज्जो न दे तो एक समय के बाद इसमें कमी आना स्वाभाविक है। आप जिसे बहुत प्यार करते हों और वह इस संसार में न रहे तो एक समय के बाद आप इस व्यक्ति के लिए अपने प्यार में निरंतरता की कमी महसूस करेंगे या कहें कि वह भावना सुप्त अवस्था में रहेगी इसलिए परस्परता इसका एक प्रमुख अव्यव है। इस बात को एक गजल की दो पंक्तियों में बहुत सटीक ढंग से कहा गया है :-

आंख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा,

वक्त का क्या है, गुजरता है, गुजर जाएगा ।

       आइए अब इसको आकर्षण के भाव से अलग करते है और परस्परता की भूमिका को समझते हैं। आपको याद है कि ऊपर आप एक कुत्ते का बच्चा अपने घर ले आए थे जिसके प्रति आप आकर्षित हुए थे। बस अब उसी से समझते हैं। देखिए प्रेम का भाव कैसे उत्पन्न होता है। जैसे हमने समझा कि इसमें परस्परता का भाव होता है यानि कि इसमें सामने वाले व्यक्ति या जीव का आपके प्रति स्नेह, आचरण, व्यवहार आदि भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । आपने कभी सोचा कि आपका प्रेम उस पशु के लिए कैसे जाग्रत हो जाता है । उसका आपके प्रति स्नेह और व्यवहार देखकर, आपके घर वापस आने पर वह आपके पास आकर बैठ जाता है, आपके पैरों पर लोटने लगता है, आपको अपनेपन का एहसास करवाता है, यही सब आपका उसके प्रति प्रेम का कारण बनता है। इसके विपरीत अगर वह थोड़ा आक्रामक प्रवृत्ति का हो, आप के डांटने पर गुर्रा देता हो, तो निश्चित ही आप उससे प्रेम तो नही ही कर पाएंगे।

      प्रेम में अनुराग और निरंतरता के बहुत मायने होते हैं। ये आपका वक्त का निवेश मांगता है। इसका बहुत ही अच्छा उदाहरण हम प्रेम विवाह से जोड़ कर देख सकते हैं। अमूमन हम समाज में देखते हैं की प्रेम विवाह ज्यादा सफल नहीं हो पाते । इसका बड़ा सीधा सा कारण है - आकर्षण और पाने की लालसा। आप आकर्षित हुए और प्रेम में पढ़े, आपने अपना समय निवेश किया । अब विवाह उपरांत जिम्मेदारी बढ़ी, बच्चे हो गए, घर गृहस्थी का काम आ गया, आप सुबह ऑफिस के लिए निकलते हैं और सीधे रात में फुरसत पाते है आदि। देखिए यहां प्रेम बना हुआ है और परस्परता में भी कोई कमी नहीं आई है परंतु अब आप समय नहीं दे पाते, उतनी बातचीत नही हो पाती और ये बात सामने वाला भी समझता है, लेकिन चूंकि प्रेम विवाह की नींव ही प्रेम है और उम्मीदें वैसे ही बनीं रहती है जैसी विवाह से पहले थी तो प्रेम के किसी भी अवयव में कमी ऐसा महसूस कराती है कि कही कुछ कमी है या कहीं कुछ छूट रहा है। दूसरा चूंकि आकर्षण उसका एक प्राथमिक अवयव था तो कहीं न कहीं वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति के बाद प्रेम भाव में कमी भी आना स्वाभाविक सा लगता है। 

     ये सिर्फ कुछ उदाहरण है और भी बहुत से कारण होते हैं या हो सकते हैं प्रेम विवाह के सफल न होने के । इसके उलटा अरेंज मैरिज में ये सब ज्यादा नहीं देखने मिलता क्योंकि उसमें दोनों पहले से किसी रिश्ते में नहीं थे तो उम्मीदें भी उतनी नहीं थी । ऐसे विवाह में विवाह को एक संस्था के रूप में मान्यता प्राप्त होती है । ऐसा नहीं है कि इसमें पति पत्नी में प्रेम नही होता या हो नही सकता पर इसमें दायित्वों और सामाजिक उत्तरदायित्वों का बोध ज्यादा होता है इसलिए प्रेम की अनुभूति कम होने पर भी, प्रेम आधार न होने के कारण, रिश्ता टिका रहता है। 

    सबसे बड़ी गलती ये है कि समाज प्रेम को बंधन मानता है, जबकि प्रेम के साथ जो सीधा जुड़ा हुआ भाव है वह है स्वतंत्रता का। प्रेम बहुत ही विमुक्त भाव है, इसमें बराबरी होती है, प्रेम करने वाले दोनों एक ही स्तर पे होते हैं, कोई और कुछ भी कम ज्यादा नही होता, इसलिए इस भावना में अंश मात्र का परिवर्तन भी रिश्ते की डोर को कमज़ोर कर सकता है। जैसा चल रहा था जब तक वैसा चलेगा, प्रगााढ़ता उतनी बनी रहेगी, जैसे ही किसी प्रकार की कोई भी कमी हुई या कोई अवयव निष्क्रिय हुआ, प्रेम का भाव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। आप इसको प्रेम का सूत्र मान सकते है जो सिर्फ प्रेम विवाह नही किसी भी प्रेम भरे रिश्ते पर लागू होता है।

     इतने सारे अवयवों के होने के कारण ये एक बहुत ही जटिल भाव है और इसलिए हर किसी के साथ इसको नही जोड़ा जा सकता है। किसी भी रिश्ते को प्रेम की संज्ञा देने से पहले इस बात के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए कि ये समय चाहता है और अगर आप या सामने वाला व्यक्ति उस स्थिति में न हो तो प्रगाढ़ता नही हो सकती और समय के साथ या तो ये खत्म हो जाएगा या सुप्त अवस्था में रहेगा । 

       अब बात इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण और विस्तृत भाव की जिसकी महत्ता सर्वाधिक होते हुए भी चर्चा अधिक नही होती और वह भाव है ममता का भाव । यह सारे अवयवों से मुक्त होता है यानी अवयव रहित होता है, इसमें परस्परता की कोई आवश्यकता नहीं होती और यह अपरिवर्तनशील होता है। यह भाव सिर्फ और सिर्फ मां में होता है और उसी के साथ इसे जोड़ा जा सकता है । आपने पिता के प्यार के विषय में सुना या महसूस तो किया होगा पर पिता की ममता के बारे में नहीं सुना होगा क्योंकि ममता सिर्फ मां की ही होती है। इस भाव में प्यार का भाव भी समाहित है पर आंकलन के आधार पर वह ममता के आगे बहुत ही तुच्छ भाव जान पड़ता है। 

      अब जानिए कि ऐसा क्यों हैं कि ये भाव मां के साथ ही जुड़ा हुआ है। आपने जो ऊपर आकर्षण और प्यार के विषय में जाना, उसमे कही न कही रूप, रंग, गंध आदि जैसे अवयव विद्यमान थे। ये अवयव उन भावों का अभिन्न अंग है क्योंकि वो ही उन भावों की उत्पत्ति का आधार हैं। परन्तु ममता एक ऐसा भाव है जिसमें कुछ नही देखा जाता, कोई परस्परता नहीं होती, कोई शर्त नहीं होती, किसी भी परिस्थिति में ये भाव अपनी मूल भावना में अविचल रहता है। ये है ममता । ममता इसलिए ऐसी है क्योंकि इसकी शुरुआत एक एहसास / अनुभूति से होती है। एक स्त्री को नही पता होता कि उसकी होनी वाली संतान कैसी होगी, पुत्र होगा या पुत्री होगी, वह तो उस एहसास से प्यार करती है जो उसे अपने अंदर एक जिंदगी के होने से होता है । बाकी सारे भावों में आपके सामने दूसरा वस्तु या व्यक्ति उपस्थित होता है, आप सोच समझ के निर्णय लेते है पर यहां तो ममता बच्चे के गर्भ में स्थापित होते ही विकसित हो जाती है। इसलिए इस भावना को समझना इतना कठिन है और सिर्फ इसलिए ही मां के साथ जोड़ा जा सकता है । दुनिया के किसी और रिश्ते में ये संभव ही नहीं । यहां तक कि जिसके प्रति मां की ये ममता होती है (यानी बच्चा) वो भी मां से प्यार तो कर सकता है पर ममता नही। ये इतना सर्वोच्च और निस्वार्थ भाव है। क्योंकि सिर्फ एक स्त्री ही ममता को महसूस कर सकती है, इसी कारणवश आपने कई बार महिलाओं को कहते हुए सुना होगा कि मां बनोगी तब जानोगी । और ये तो सार्वभौमिक सत्य है की मां ही मां के दर्द को समझती है क्योंकि वैसा कोई दूसरा महसूस कर ही नहीं सकता। ये कहीीं ना कहीीं पूर्णता का भाव भी है क्योंकि सृष्टि में रचने का अधिकार ईश्वर के बाद अगर किसी को हुई तो वो है मां। सन्यास और वैराग्य में निहित त्याग मां के त्याग के आगे कुछ भी नहीं क्योंकि एक बार में सब कुछ त्याग के चले जाना आसान है पर अपना रूप, यौवन त्याग के रोज एक ही मनोभाव से सेवा करना अत्यंत दुष्कर है और एक स्त्री के ऐसा कर पाने के पीछे जो शक्ति होती है उसे ही ममता कहते हैं। अब आप समझ सकते हैं की ये कितना समर्थ और शक्तिशाली भाव है जो इस संसार में पुरुषों को प्राप्त नहीं है शायद इसलिए समाज पितृसत्तात्मक होते हुए भी पिता के लिए वो स्थान प्राप्त नहीं कर पाया जो मां को प्राप्त है।

      अब आप प्रश्न करेंगे ऊपर तो आपने प्यार को आकर्षण से होने वाला भाव बताया था तो क्या बच्चे का मां के प्रति प्रेम भी आकर्षण ही है। वैसे तो हमने ऊपर भी ये लिखा था कि प्रेम के ज्यादातर मामलों में आकषर्ण ही प्रथम चरण होता है। फिर भी इस जिज्ञासा पर मीमांसा करते हैं। देखिए ये बात तो सही है कि रक्त संबंधों में प्यार का आकर्षण से सीधा संबंध नहीं होता, आप अपनी मां के अंश है, उसके अंदर आपका जीवन विकसित हुआ है, आप में उसका ही रक्त और उसकी ही शक्ति का प्रवाह होता है, इसलिए मां के प्रति बच्चे का प्रेम नैसर्गिक होता है। भाई बहन के साथ प्यार नैसर्गिक नहीं होता, वो सब आपकी समझ की देन है, आप उनके साथ रहते है, पलते बढ़ते है तो स्वाभाविक रूप से एक प्रेम जाग्रत होता है और उसक रूप रंग से कोई लेना देना ही नहीं, क्योंकि आपके मन मस्तिष्क में यह बात घर कर चुकी होती है कि वह व्यक्ति मेरा भाई या बहन है । ये मैं और मेरा की भावना उन रिश्तों की नींव होती है। पर मां के साथ ये रिश्ता जन्म से भी पहले का होता है। आप देखते हैं कि बहुत छोटा बच्चा होगा, किसी की गोद में चुप नहीं होगा पर मां के पास जाते ही शांत हो जाता है, ये है कुदरत और ये ही है नैसर्गिक प्यार। इसमें कोई बनावट नही है, ये आत्मिक रूप से आपका जुड़ाव है जो इस तरह के भाव पैदा करता है। आपको दो लाइन के माध्यम से समझाते हैं: -

मां बच्चों का है वो रिश्ता, जो आसमान में बनता है,

ऐसे ही ना कोई, किसी की कोख में पलता है....

ये तो आपने देखा ही होगा कि हर मां को सारे संसार में सबसे अच्छा अपना ही बच्चा लगता है। बिल्कुल स्पष्ट कारण है, एक चित्रकार अपनी कुछ घंटो की महनत से एक चित्र बनता है और उसमे उसके प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है कि ये तो मैंने बनाया है, मेरी मौलिक कृति है तो उस मां का सोचिए जिसने बच्चे को नौ महीने अपने खून से सींचा है। सच तो ये है कि मां के अलावा कोई भी ऐसा रिश्ता नही जहां आप किसी के साथ नौ महीने लगातार साथ रह सकें। ये सिर्फ और सिर्फ इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि मां की ममता एक स्वत: स्फूर्त भाव है जिस पर उसका कोई जोर नही चलता और इसलिए इसमें परस्परता की कोई आवश्यकता ही नही है।

       आप शायद न मानें पर मां के लिए अपना हर बच्चा बराबर होता है, जो आपको शंका उत्पन्न हों रही है उसका समाधान ये है कि चूंकि कहीं ना कहीं ममता के विस्तृत भाव होने के कारण प्रेम उसमे समाहित रहता ही है, ये संभव है कि आपको मां किसी बच्चे से ज्यादा या कम प्रेम करती हुई महसूस हो, परंतु ममता उसके दिल में सब बच्चों के लिए बराबर ही होती है। जितना दर्द उसे एक बच्चे के चोट लगने पे होगा उतना ही दूसरे बच्चे के लगने पर भी होगा क्योंकि इस पर उसका कोई जोर ही नही, ये नैसर्गिक भाव है जो स्वयं ही जाग्रत हो जाता है। बच्चा कितना भी नालायक क्यों न हो, मां से सालों बाद भी मिलने क्यों न आया हो, गुस्से में कुछ कह तो देगी, पर ममता उतनी ही होगी ये उसकी विवशता है कुदरत के आगे। मां को पता हो कि बच्चा बाहर से खाना खा के आएगा फिर भी वो घर आने पे पूछेगी कि खाना खाया कि नही । उससे बिना पूछे रहा ही नहीं जायेगा, बच्चा चाहें झुंझलाहट से कह दे कि बताया तो था खा के आऊंगा। बस ये ही अंतर है ममता और प्रेम मेंं । मां को नही फर्क पड़ता कि आप क्या है, आप कितने बड़े अधिकारी हो जाए, आपकी कितनी भी उम्र हो जाए उसके लिए आप बच्चे ही रहेंगे। मां अगर ना रहे, तो बच्चा निश्चित पीड़ा में रहेगा, दुखी होगा लेकिन समय के साथ उसकी पीड़ा कम होती जाएगी क्योंकि उसके प्रेम में परस्परता का भाव है, पर अगर किसी मां का बच्चा ना रहे तो वो जीवन भर उस वेदना को उतनी ही तीव्रता से महसूस करेगी, ये अंतर है प्रेम में होने वाली पीड़ा और ममता में होनी वाली टीस में।

     मां की हर क्रिया में ममता का भाव नजर आएगा । मां अगर मारेगी भी तो ऐसे की बच्चे को चोट न लगे। उसे एक तरफ झिड़केगी तो दूसरी तरफ गली भी लगा लेगी । जन्म लेने से पहले भगवान कृष्ण ने माता देवकी को अपना चतुर्भुज रूप दिखाया और ये कहा कि ये आपके पिछले जन्मों के पुण्य है जो आपको देव दुर्लभ मेरे इस रूप के दर्शन प्रत्यक्ष हुए है । ये मेरा आपको पूर्व में दिए हुए वरदान के कारण आपसे मेरा ये तीसरा जन्म होगा । आप संतुष्ट हो तो मोक्ष मांग सकती है । पर ममता तो देखिए, माता देवकी ने कहा प्रभु मोक्ष मांगना होता तो मैं तभी मांग लेती, मुझे तो आप अपने बालक के रूप में चाहिए। इसलिए हमने कहा कि ये स्वत: जाग्रत होने वाला नैसर्गिक भाव है। और मां की शक्ति देखिए कि देवकी माता के नाम आया श्रेय जन्म देने का उसको जो सबको जन्म देता है। 

     अंत में अब बात करते हैं चर्चा के आखिरी भाव यानी समर्पण की । ये एक आध्यात्मिक भाव है और इसमें भी परस्परता नही होती । ये विवेक के आधार पर स्वयं का लिया हुआ निर्णय होता है । ये चिंतन का विषय है और पूर्ण रूप से श्रद्धा का विषय है । ये भक्त और ईश्वर के बीच में देखने को मिलता है । इसमें कोई बंधन नहीं होता वरन् भावना होती है। 

      समर्पण का जो मुख्य अवयव है वह है विश्वास, सारी मानने वाली बात है बस। इसमें शंका की फिर कोई गुंजाइश ही नही रहती। इसमें प्रेम एक अवयव तो हो सकता है परंतु प्रेम के अवयव इसमें नही होते जैसे आप विभिन्न मंदिरों में जाते है, हर जगह भगवान की मूर्ति एक सी नही होती, कहीं कृष्ण का स्वरूप एक तरह का होगा तो दूसरी जगह दूसरा । पर मूर्तियों में विभिन्नता होते हुए भी आपके भाव में कोई अंतर नही आता। आप ये नही सोचते कि ये कृष्ण ज्यादा सुंदर है या कम क्योंकि यहां प्यार नही समर्पण है, आपने माना हुआ है कि ये मेरे इष्ट हैं, स्वरूप से कोई अंतर ही नही पड़ता । ये एकरस भाव है इसलिए भक्त अपने इष्ट से संनिकटता और उससे एकरूपता का अनुभव कर पाता है। 

    इसे दासता नहीं समझना चाहिए क्योंकि समर्पण एक स्वैच्छिक क्रिया है, भक्त स्वतंत्रता का अनुभव करता है और दासता कभी ऐच्छिक नही होती।

        प्रश्न ये उठता है कि क्या समर्पण जरूरी है ? देखिए व्यक्ति इस संसार में रहते हुए भी बंधन मुक्त रह सकता है अगर वह सम रहे यानी कि किसी भी परिस्थिति में विचलित न हो और अपने को नियंत्रण में रख सके। बस समर्पण में ये ही होता है। अपना सब कुछ अर्पण करके मनुष्य सम हो जाता है । जब आपने किसी भी कर्म फल से खुद को न जोड़ के उसे भगवान को समर्पित कर दिया और सिर्फ अपने कर्मो को कर्तव्य मान के निष्पादित किया, तो फिर आप समता के भाव को प्राप्त हो जाते हैं, ये ही समर्पण कराता है । अब जब आप किसी कर्म और उसके फल को खुद से नही जोड़ते तो भगवान के निकट जाने लगते है और संभवत: जन्म मृत्यु के बंधन से दूर भी क्योंकि कर्म फल ही पुनर्जन्म का आधार बनते है । गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते है कि तू ये मत देख कि युद्ध में तेरे सामने तेरे अपने खड़े हैं, तू अपना क्षत्रिय धर्म निभा, कर्म कर और फल की चिंता मत कर । देखिए जो घटना अवश्यंभावी है वह होकर रहेगी, समर्पण का अर्थ यह कही नहीं है कि ईश्वर सृष्टि के चक्र में कुछ हस्तक्षेप करेंगे, अगर ऐसा होता तो भगवान महाभारत का युद्ध होने ही नही देते, राम चंद्र जी वनवास नही जाते पर ऐसा नही हुआ। जो होना है वह होगा, पर जैसे सृष्टि के कण कण में विद्यमान होकर भी ईश्वर सत, रज और तमो गुण से अलग है, ऐसे ही मनुष्य भी कर्म करते हुए खुद को कर्म फल से अलग कर सकता है। इसी का एक रास्ता समर्पण है। 

      समर्पण या भगवान के अधीन हो जाना सबसे आसान तरीका है ईश्वर की प्राप्ति का क्योंकि इसमें कोई कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं, बस एक मान्यता है और चूंकि सब कुछ ईश्वर के अधीन है तो किसी से राग द्वेष का कोई कारण ही नहीं। यह बहुत ही दुष्कर कार्य है जो किसी साधना से कम नही । यह बहुत ही आत्मीय भाव है क्योंकि सामने वाला आपसे कुछ नही चाहता और आप समर्पित हैं ये मान के कि सत्ता तो उसी की है। जैसे छोटा बच्चा मां बाप के अधीन रहता है, उसके कोई कर्म फल उसे नही लगते और सारे कार्यों की पूर्ति होती रहती है। ऐसा कहा भी जाता है की बारह वर्ष की आयु तक बच्चे मां बाप की ही किस्मत से चलता है। 

     समर्पण हमे एक शक्ति देता है क्योंकि इसमें विश्वास है। विश्वास यानी मानी हुई बात प्रत्यक्ष होती है उसमे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । मानी हुई बात हमे संबल देती है कि ऐसा हैं या नहीं है। इसलिए समर्पण हमारी शक्ति है कमजोरी नही और इसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। यह एक ऐसा भाव है जो बंधन मुक्त कर देता है और आपको संपूर्ण स्वतंत्रता और आनंद से जीवन जीने की प्रेरणा देता है।

      जैसे लोग एक तरफ तो इश्वर की तरफ झुकाव भी रखते होंगे तो दूसरी तरफ अपने ही ग्रंथों में लिखी हुई बातों पर शंका भी करते हैं । कोई कार्य पूरा नही हुआ तो सोचेंगे कि ईश्वर है भी नहीं। देखिए पग पग पे शंका करने से आप किसी भी भाव को जी नही पाएंगे। जहां समर्पण होता है वहां मंथन, मीमांसा तो हो सकती है परंतु शंका नहीं । आपको विश्वास रखना होगा, कहा जाता है कि विश्वास फलं दायकम्। विद्यार्थी को अगर परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तो उसे यह मान कर चलना होगा कि पुस्तक में जो भी लिखा है वह सत्य है क्योंकि परीक्षा तो पुस्तक के आधार पर होनी है । अगर विद्यार्थी पुस्तक में लिखी बातों पर शंका ही करता रहेगा तो सफल कैसे होगा परंतु अगर मीमांसा करेगा तो निश्चित ही उच्च सफलता प्राप्त करेगा।

       एक भाव रखने का अपना महत्व है। आप एक भाव रख के ईश्वर को भी पा सकते हैं। आप जो भी करे, चाहे मित्रता, प्रेम, शत्रुता या कुछ भी बस एक भाव रखें और पूरे मनोयोग से निभाएं। रावण ने श्री राम के प्रति सिर्फ एक भाव रखा शत्रुता का। वो जानता था कि सामने साक्षात् भगवान हैं पर उसके मन में अपने कर्मो के प्रति कोई संदेह नहीं था, क्योंकि वो ही उसका भगवत् प्राप्ति का एक मात्र साधन था। वह जानता था की सशरीर स्वर्ग तो पहुंचा जा सकता है, स्वर्ग के भोग भोगे जा सकते हैं परंतु परमात्मा तक तो आत्मा ही पहुंच सकतीं है, जिसके लिए उसने मृत्यु चुनी वो भी स्वयं नारायण के हाथों।

       तो ये थी विवेचना हमारे द्वारा निभाए जाने वाले विभिन्न भावों की । अब आप ये मंथन कर सकते हैं कि कौन सा रिश्ता आप किस भाव से निभा रहे हैं या किस भाव से निभाना चाहते हैं ।

धन्यवाद

हृदेश प्रियदर्शी

अलीगंज, लखनऊ।

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...