नींद किसे नहीं आती -
१. अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम् ।
ह्रतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागर: ॥
भावार्थ - जिस साधन रहित, दुर्बल मनुष्य का किसी बलवान के साथ विरोध हो गया हो, जिसने अपना सब कुछ खो दिया हो, कामी पुरुष तथा चोर को रात में जागने का रोग लग जाता है।
कौन धर्म को नहीं जानता -
२. दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् ।
मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥
त्वरमाणश्च भीरुश्च लुब्धः कामी च ते दश ।
तस्मादेतेषु भावेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥
भावार्थ - दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते - नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान् पुरुष आसक्ति न बढ़ावे ॥
पण्डित कौन है? -
यहां पर पंडित से मतलब किसी जाति से नहीं है बल्कि एक पद या पदवी से है।
३. आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्म नित्यता।
यमार्थन्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ।।
भावार्थ - ज्ञानी वही है जो अपनी उपयोगिता जानता है, संघर्षशील है, जिसके अन्दर समस्याओं से लड़ने का सामर्थ्य है और जो किसी भी परिस्थिति में अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है, वही पण्डित कहलाता है।
४. निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।
अनास्तिकः श्रद्दधानः एतत्पण्डितलक्षणम्॥
भावार्थ - अर्थात् जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों का करने और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न करने वाला, जो ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी न हो और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी हो, वह मनुष्य 'पण्डित' के लक्षण से युक्त होता है।
५. क्रोधी हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता ।
यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥
भावार्थ - जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की ओर आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं, वे ही पण्डित कहलाते हैं।
६. यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे ।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥
भावार्थ : दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।
७. यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥
भावार्थ- जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है।
८. यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते ।
कामादर्थः वृणीते यः स वै पण्डित उच्चते ॥
भावार्थ - जिसकी सांसारिक कार्यों का सम्पादन कराने वाली बुद्धि धर्म और अर्थ से युक्त हो एवं जो काम की अपेक्षा धन कों श्रेष्ठ समझता है, वही पण्डित कहलाता है।
९. यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते।
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः ॥
भावार्थ :- पण्डित लोग प्रत्येक कार्य को करने की इच्छा अपनी शक्ति के अनुसार ही करते हैं और उस इच्छा के अनुसार ही प्रत्येक कार्य को करते हैं एवं कभी किसी का निरादर नहीं करते।
१०. क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्। नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥
भावार्थ :- ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं । किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।
११. नाप्राप्यमभिवांछन्ति नष्ट नेच्छति शोचितुम् ।
भापत्चम मुखन्ति नराः पण्डितपुख्यः ।।
अर्थ - पण्डित लोग अप्राप्य वस्तु पाने की इच्छा नहीं करते, नष्ट हुई वस्तु या सिद्धि के लिये शोक नहीं करते, एवं जीवन में चाहे जितनी आपत्तियों से सामना करना पड़े, उनसे कभी नहीं घबराते।
१२. निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वासति कर्मणः।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥
भावार्थ - जो व्यक्ति किसी काम को करने से पहले, उसको समाप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लेता है एवं तदनुसार उसे लाख रुकावटें होनेक्षपर भी समाप्त करके ही छोड़ता है, जो किसी भी समय आने वाले कर्तव्य से विमुख नहीं होता, जो अपनी इन्द्रियों को सदा वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है।
१३. एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।
विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥
भावार्थ - केवल धर्म ही परम कल्याणकारक हैं, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है ॥
१४. श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।
असम्भिन्नार्यमर यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ।।
भावार्थ - जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का अनुसरण करती है जो आर्य जीवन की मर्यादाओं को नहीं तोडता, वही पण्डित होता है ।
१५. प्रवृत्तवाक्चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥
भावार्थ - जो सत्य बात को कहने में न रुके, प्रत्येक बात का उत्तर तत्काल दे, तर्क-वितर्क करने में चतुर हो, जिसकी बुद्धि बे-रोक टोक विषय या प्रसङ्ग के भाव पक्ष को समझ सकती हो, कथा-वार्ता कहने में पटु हो, वही पण्डित का पद प्राप्त करता है ।
मूर्ख कौन है ? -
१६. अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः।
अर्थाश्चाऽकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥
भावार्थ - जो अनपढ़, अभिमानी और दरिद्र होकर भी उच्च अभिलाषायें रखता हो, जो नीचता से धन पैदा करे, वही व्यक्ति मूर्ख कहा जाता है।
१७. स्वमर्थ यः परित्यज्य पगर्थमनुतिष्ठति ।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥
भावार्थ - जो अपने स्वार्थ को छोड़कर अपनी आवश्यकताओं की परवाह न कर, दूसरे के स्वार्थ या आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये दौड़ता है, जो समर्थ होकर भी मित्रों और हितैषियों की शत्रुता सहायता नहीं करता एवं असमर्थ हो जाने पर सहायता के लिये दौड़ता है, वही मूर्ख कहलाता है।
१८. अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
भावार्थ - जो न चाहने योग्य व्यक्तियों की चाहना करता है, चाहने योग्य को छोड़ देता है और बलवान् से द्वेष करता है, उसे मूर्ख कहते हैं।
१९. अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
भावार्थ :- जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है। सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।
२०. संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ
भावार्थ :- जो व्यक्ति अनावश्यक कर्म करता है, सभी को संदेह की दृष्टि से देखता है, आवश्यक और शीघ्र करने वाले कार्यो को विलंब से करता है, वह मूर्ख कहलाता है ।
२१. श्राद्ध पितृभ्यो न ददाति देवतानि न चार्गति ।
सुहृन्मित्रम् न लभते तमाहुमूढचेतसम् ॥
भावार्थ - जो माता-पिता पर श्रद्धा न करे, देवताओं का अविश्वास कर
पूजा न करे और मित्र से प्रेम न करे, वही मूर्ख कहाता है ।
२२. अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते !
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः !!
भावार्थ -: किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है.
२३. परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा ।
यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः ॥
भावार्थ - जो अपनी गलती को दूसरे की गलती बताकर स्वयं को बुद्धिमान दर्शाता है तथा बिना जरूरत गुस्सा करे, वह महामूर्ख कहलाता है।
२४. आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्।
अलभ्यमिच्छन् नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरिहोच्यते।।
भावार्थ - जो व्यक्ति अपने बल (योग्यता) को बिना बिचारे काम कर बैठता है और धर्म अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, फिर जो अनाधिकारी को उपदेश देता है, जो कृपण का आश्रय लेता है वह पुरुष इस संसारमें मूढबुद्धि (मुर्ख) कहलाता है।
२५. अशिष्यं शास्ति यो राजन् यश्च शून्यमुपासते
कदर्य भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ 44
भावार्थ - जो व्यक्ति अयोग्य शिष्य को ज्ञानोपदेश देता है, शून्य की स्तुति करता है। तथा कायरतापूर्ण कार्य करता है, वह मूर्ख है।
निर्दयी कौन है ? -
२६. एकः सम्पन्नमश्नाति वस्तै वासश्च शोभनम्
योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ।।
भावार्थ - विदुर जी कहते हैं कि जिसके आश्रित अनेक मनुष्य हैं, जिस पर भी वह अकेले अकेले स्वादिष्ट भोजनों को करता है, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनता और राज महलों के सुखों को भोगता है, उसके बराबर संसार में दूसरा निर्दयी नहीं है।
पाप का भागी कौन है? -
२७. एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः ।
भोक्तारो विप्र मुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।-
भावार्थ - धनादि सञ्चय करने में एक मनुष्य ही पाप कम करता है, किन्तु उस धन या सुखों को भोगने वाले अनेक होते हैं, जिस पर तमाशा यह, कि जब पाप का फल भोगने का समय आता है, तो वे सुख के साथी अनेक व्यक्ति तत्काल अलग हो जाते हैं, अतएव सिद्ध हुआ, कि पापी एक मात्र वही है, जो अज्ञानवश पाप करता हैं।
बुद्धि-बल का प्रताप -
२८. एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता। बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रं सराजकम् ॥
भावार्थ :- कोई धनुर्धर जब बाण छोड़ता है तो सकता है कि वह बाण किसी को मार दे या न भी मारे, लेकिन जब एक बुद्धिमान कोई गलत निर्णय लेता है तो उससे राजा सहित संपूर्ण राष्ट्र का विनाश हो सकता है ।
२९. एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।
विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥ ५७ ॥
भावार्थ - केवल धर्म ही परम कल्याणकारक हैं, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है।
३०. एकं विषरसं हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते ।
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः ॥
भावार्थ -जहर एक का नाश करता है; हथियार से एक ही मनुष्य मरता है, परन्तु अपात्रों में गयी हुई सलाह सारे राष्ट्र का राजा समेत नाश कर देती है।
साधारण उपदेश -
३१. एकः स्वादु न भुंजीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत् ।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात् ।।
भावार्थ - प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह आश्रितों की उपेक्षा कर अकेला ही भोजन न करे, किसी विषय को अन्य लोगों की बिना सम्मति लिये अकेला ही निश्चय न करे, अकेले यात्रा न करे, और अकेला ही जागरण न करे ।
३२. एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे ।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव
भावार्थ - ईश्वर एक है, उसका स्वरूप बिना सत्य की सहायता के नहीं पहचाना जाता, सत्य स्वर्ग प्राप्ति का सोपान है, ईश्वर सत्यप्रिय मनुष्य को समस्त दुःखों से इस प्रकार अनायास छुटकारा दिला देता है, जिस प्रकार समुद्र को पार करने के लिये नाव ।
क्षमा के गुण -
३३. एक: क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते ।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जन: ।।
भावार्थ - क्षमाशील व्यक्तियों में एक ही दोष होता है, दूसरा उनमें ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता और वह यह कि लोग उन्हें असमर्थ व्यक्ति समझ लेते हैं।
३४. सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्।
क्षमा गुणी ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥
भावार्थ - विदुरजी कहते हैं कि किंतु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये, क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थी का भूषण है ।
३५. क्षमावशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।
शान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः॥
भावार्थ - क्षमा या शान्ति द्वारा सारा संसार वश में किया जा सकता है। ऐसा कोई भी काम नहीं है, जो क्षमा द्वारा सिद्ध न किया जा सकता हो। जिसके हाथ में शान्ति-रूपी खड्ग है, उसका दुष्ट मनुष्य क्या कर सकता है ?
३६. क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति ।
अतॄणे पतितो वन्हिः स्वयमेवोपशाम्यति ॥
भावार्थ - क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो, उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि, जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो, अपने आप बुझ जाता है।
३७. एको धर्मः परं श्रेयः क्षौका शान्तिरुत्तमा ।
विद्य का परमा तृप्तिरहिन्सका सुखावहा ॥
भावार्थ - एकमात्र धर्म ही कल्याण कारक है, एकमात्र क्षमा ही परम शान्ति है। एक मात्र विद्या ही परम सन्तोष है, और एक मात्र अहिंसा ही परम सुख है।
साधारण उपदेश -
३८. द्वाविमौ असते भूमिः सो विलशयानिव ।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥
भावार्थ - युद्ध करने में असमर्थ राजा और परदेश न जाने वाले ब्राह्मण, इन दोनों को पृथ्वी इस प्रकार अनायास निगल जाती है जिस प्रकार बिल में आये हुए पदार्थ को सर्प निगल जाता है ।
३९. द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते ।
अब्रुवन्पुरुषं किं चिदसतो नार्थयंस्तथा ॥ ५०
भावार्थ- मनुष्य मीठी वाणी बोलना और सज्जनों से प्रेम करना- इन्हीं दो कर्मों के करने से इस लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।
४०. द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्यय कारिणौ ।
स्त्रियः कामित कामिन्यो लोकः पूजित पूजकः ॥
भावार्थ- दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने वाले होते हैं, इनका अपना कोई इरादा या इच्छा शक्ति नहीं होती है : १. दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गए पुरुष की कामना करने वाली स्त्रियाँ और दूसरों द्वारा पूजे गए मनुष्य की पूजा करने वाले मनुष्य ।
४१. द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषणौ ।
यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥
भावार्थ - ये दो तीक्ष्ण कांटे के सामान शरीर को बेध देते हैं -१. निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तुओं की कामना रखना २. और असमर्थ होकर भी क्रोध करना ।
४२. द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा ।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥
भावार्थ - ये दो लोग ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते -१. आलसी या अकर्मण्य गृहस्थ २. प्रपंच में संलग्न संन्यासी।
४३.द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: ।
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान्।।
भावार्थ :- विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं : राजन ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं – शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देनेवाला ।
४४. न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोधव्यो द्वावतिक्रमौ ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥
भावार्थ - न्याय और धर्म से पैदा किये धन का नाश कभी नहीं होता और यदि होता है, तो केवल दो दोषों से एक अयोग्य पात्र में दान करने और योग्य पात्र को न देने से ।
४५. द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।
भावार्थ - दो प्रकार के लोगो के गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए। पहले वे व्यक्ति जो अमीर होते है पर दान नहीं करते और दूसरे वे जो गरीब होते है लेकिन कठिन परिश्रम नहीं करते।
४६. द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनः ।
परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥
भावार्थ - दो प्रकारके पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में शत्रुओं के सम्मुख युद्ध में मारा गया योद्धा । अतः अगर कभी युद्ध का अवसर आएं, तो यह समझना चाहिए कि स्वयं महादेवजी के आदेश पर आपके लिए उत्तम लोकों के द्वार खुल चुके हैं । युद्ध मे वीरगति प्राप्त करने से श्रेयस्कर अन्य कुछ भी नही है ।
४७. त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।
कनीयान्मध्यमः श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः ।
भावार्थ - शास्त्र विशारद पण्डितों ने तीन प्रकार के न्याय बताये हैं- एक उत्तम (शान्ति) दूसरा मध्यम (दान) तीसरा हीन (दण्ड)।
४८. त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद्यथावत्ताँस्त्रिविधेष्वेव कर्मसु ।।
भावार्थ- हे राजन् संसार में तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं-उत्तम, मध्यम और अधम। उन्हें यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मों में नियुक्त करना चाहिए। इसलिये राजा को चाहिये, कि वह उक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों को क्रमानुसार तीन श्रेणी के ही कामों में नियुक्त करे।
४९. त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।
भावार्थ - काम, क्रोध और लोभ- ये तीनों आत्मा को अधोगति में ले- जाने वाले और नरक दुःख के द्वार हैं, अतः बुद्धिमान् को चाहिए कि इन तीनों को त्याग दे।
५०. हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।
सुहृदश्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः ॥
भावार्थ - दूसरे का धन छीन लेना, पर-स्त्रियों पर अत्याचार करना और अपने मित्रों का परित्याग कर देना इन्हीं तीन दोषों से मनुष्य नष्ट होता है।
५१. वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च पाण्डवाः।
शत्रोश्च मोक्षणं क्लेशास्त्रीणि चैकं च तत्समम् ।।
भावार्थ - वर पाना या कार्य सिद्धि, राज्य पाना या किसी पर विजय पाना, पुत्र-प्राप्ति और किसी को दुःख से बचाना ये चारों समान आनन्द देनेवाले हैं।
५२. भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम् ।
श्रीनेताश्छरणं प्राप्तान् विषमेऽपि न संत्यजेत् ।।
भावार्थ - विदुरजी कहते हैं भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्योंको संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये ।
५३.चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ।।
भावार्थ - हे तात! धन धान्य से भरपूर एक समृद्ध गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह इन चार प्रकार के व्यक्तियों को अवश्य शरण दे - (१) एक वृद्ध बान्धव (रिश्तेदार) (२) एक कुलीन दुःखी व्यक्ति (३) एक दरिद्र मित्र तथा (४) सन्तानहीन बहिन।
५४. चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्यथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रमुतमानमौनम् मानेनाधीतमुतमानयज्ञः।।७३
भावार्थः - चार कर्म भय को दूर करने वाले है, किन्तु वे ही ठीक तरह से सम्पादित न हो, तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं- आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान। किन्तु इन्हें भली प्रकार न करने से कष्ट भी मिलता है।
५५. पंचैव पूजयन् लोके यशः प्राप्नोति केवलं ।
देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान्॥
भावार्थ - देवता, पित्र, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए। इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है।
५६. पंचेंद्रियस्य मत्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् ।
ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा द्रुतेः पात्रादिवोदकम् ॥
भावार्थ - मनुष्य कों पांचों इन्द्रियों में यदि एक में भी छेद हो जाये अर्थात् वे कुपथ पर ले जाने लगे, तो मनुष्य की सारी बुद्धि इस प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार एक छेद हो जाने पर मशक का पानी।
५७. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
भावार्थ - किसी व्यक्ति के बर्बाद होने के 6 लक्षण होते है - नींद, गुस्सा, भय, तन्द्रा, आलस्य और काम को टालने की आदत, इन छ: दोषों को छोड़ दे।
५८. षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन ।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥
भावार्थ - व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता', क्षमाशीलता और धैर्य - इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।
५९. अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीव लोके सुखानि राजन्॥
भावार्थ - नित्य अर्थागम हो, आरोग्य हो, प्रिय पत्नी हो, प्रिय बोलने वाली भी हो, पुत्र कहना मानता हो, और अर्थकरी विद्या हो , हे राजन् ऐसे छ: लोग इस संसार मे सुखी कहे गये हैं ।
६०. षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते ।
चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः॥
प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः ।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः॥
भावार्थ - यह 6 परजीवी हैं जो दूसरों से लाभ उठाते हैं- 1. चोर असावधान लोगों पर, 2. चिकित्सक रोगी पर 3. स्वैरिणी कामी पुरुषों पर 4. यज्ञकर्ता यजमान पर 5. राजा झगड़ालुओं (विवादकर्ता) पर तथा 6. विद्वान् मूर्खों पर (या ऐसे लोगों के कारण) जीवित रहते हैं।
६१. षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्तमनवेक्षणात्।
गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसङ्गतिः।।
भावार्थ - मुहूर्त भर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्त्री, विद्या, शुद्र से मेल - ये छ: चीजें नष्ट हो जाती हैं।
६२. षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् ।
आचार्यं शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्च मातरम् ॥
नारी विगतकामास्तु कृतार्थश्च प्रयोजकम्।
नावं विस्तीर्णकान्तारा आतुराश्च चिकित्सकम् ॥
भावार्थ - ये छः सदा अपने पूर्व उपकारी का सम्मान नहीं करते हैं- शिक्षा समाप्ति हो जाने पर शिष्य आचार्य का, विवाहित बेटे माता का, कामवासना की शान्ति हो जाने पर पुरुष स्त्री का, कृतकार्य मनुष्य सहायक का, नदी की दुर्गमधारा पार कर लेने वाले पुरुष नाव का तथा रोगी पुरुष रोग छूटनेके बाद वैद्य का।
संसार में सदा दुःखी रहते हैं -
६३. ईर्ष्या घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः ।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥
भावार्थ - ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाले संसार में सदा दुःखी रहते हैं।
६४. सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः ।
प्रायशा यैर्विनश्यन्ति कृतमूला अपीश्वराः।।
स्त्रियोक्षा मृगयापानं वाक्पारुष्यं च पच्चमम्।
महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च।।
भावार्थ - स्त्री विषययक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्यन्त कठोर दण्ड देना और धन का दुरुपयोग करना - ये सात दुःखदायी दोष राजा को सदा त्याग देने चाहिए। इनसे दृढमूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाते हैं।
६५. अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च ।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥
भावार्थ - बुद्धि, उत्तम कुल में जन्म, इन्द्रियों को जीतना, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता - ये आठ गुण पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं।
६६. अष्टाविमानि हर्षस्य नवनीतानि भारत।
वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव स्वसुखान्यपि ॥
समागमश्च सखिभिर्महांश्चैव धनागमः ।
पुत्रेण च परिष्वङ्गः संनिपातश्च मैथुने ॥
समये च प्रियालापः स्वयूथ्येषु समुन्नतिः।
अभिप्रेतस्य लाभश्च पूजा च जनसंसदि ।।
भावार्थ - मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, मैथुन में संलग्न होना, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्नति, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति और जन समाज में सम्मान - ये आठ हर्ष के सार दिखाई देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं।
६७. नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम्।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान यो वेद स परः कविः।।
भावार्थ - जो विद्वान् ्पुरुष (आँख, कान आदि) नौ दरवाजे वाले, तीन (वात, पित्त, तथा कफ) रुपी खंभों वाले, पांच (ज्ञानेद्रिय रूप) साक्षी वाले, आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृह को जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है।
आदर्श राजा के लक्षण -
६८. यः काममन्यू प्रजहाति राजा पात्रे प्रतिष्ठापयते धनं च ।
विशेषविच्छ्रुतवान्क्षिप्रकारी तं सर्वलोकः कुरुते प्रमाणम् ॥
भावार्थ - जो राजा काम-क्रोध का त्याग कर योग्य पुरुषों का आदर करता है, सब विषयोंके विशेष मतलबको समझता है। जो अपने कर्तव्यों का यथोचित पालन करता है, उसको सारा संसार आदर्श राजा कहता है।
६९. जानाति विश्वासयितुं मनुष्यान्।
विज्ञातदोषेषु दधाति दण्डम्।
जानाति मात्रां च क्षमां च
तां तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा ।।
भावार्थ- जो राजा मनुष्यों को विश्वास दिलाना जानता है, जो अपराध प्रमाणित हो जाने पर अपराधियों को दण्ड दे सकता है, जो अपराध के अनुसार दण्ड की मात्रा तथा क्षमा करना भी जानता है, उसे सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त होती है तथा लक्ष्मी उसकी चरण चेरी बनकर सेवा करती है।
७०. अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम्।
दम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव।।
भावार्थ - जो व्यक्त्ति बिना बात परदेस में नहीं रहता , पापीयों के साथ मेल मिलाप नहीं रखता, दूसरी स्त्रियों के साथ नहीं रहता, पाखंड, चोरी, दूसरों की चुगली करने की आदत नहीं रखता और जो नशे का सेवन नहीं करता वह हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करता है।
साधारण उपदेश -
७१. यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्त्यान्।
न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनो हि ॥
भावार्थ :- जो व्यक्ति शैतानों जैसा वेश नहीं बनाता, वीर होने पर भी अपनी वीरता की बड़ाई नही करता, क्रोध से विचलित होने पर भी कड़वा नहीं बोलता उससे सभी प्रेम करते हैं ।
७२. न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति ।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ॥
भावार्थ :- जो ठंडी पड़ी दुश्मनी को फिर से नहीं भड़काता, अहंकार रहित रहता है, तुच्छ आचरण नहीं करता, स्वयं को मुसीबत में जानकर अनुचित कार्य नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को संसार में श्रेष्ठ कहकर विभूषित किया जाता है।
७३. न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं, नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्ट:।
दत्वा न पश्चात्कुरुते न नापं स कथ्यते सत्पुरुषार्थ शीलः।
भावार्थ - जो अपने सुख के समय खुलकर प्रसन्न नहीं होता, जो दूसरे के दुःख को देख अपने को दुःखी समझता है और जो किसी को कुछ देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह पुरुष सर्वत्र श्रेष्ठ समझा जाता है।
७४. चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किञ्चित्।
मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्चिदर्थः ॥
भावार्थ - जो व्यक्ति अपने अनुकूल तथा दूसरों के विरुद्ध कार्यों को इस प्रकार करता है कि लोगों को उनकी भनक तक नहीं लगती। अपनी नीतियों को सार्वजनिक नहीं करता, इससे उसके सभी कार्य सफल होते हैं।
७५. यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्मानकृच्छुद्धभावः ।
अतीव स ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ॥
भावार्थ - जो सब प्राणियों का सदा सर्वादा कल्याण चाहता है, सत्य को प्यार करता और सबसे कोमल व्यवहार करता है एवं जिसके सारे भाव शुद्ध है, वह अपनी जाति वालों में बैठकर ऐसा शोभा पाता है, जैसा रत्नों में महामणि ।