शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

भाव मीमांसा

       

         आज हम समझने की कोशिश करेंगे ऐसी कुछ भावनाओं को जिन्हें हम अपने जीवन में किसी न किसी रूप में नियमित रूप से महसूस करते रहते हैं। दरअसल अवलोकन न कर पाने के कारण हम कुछ भावनाओं में निहित सूक्ष्म अंतर को नही पहचान पाते या कहें तो हमे इसकी कभी आवश्यकता ही नही लगती की इस विषय का अवलोकन भी किया जाए या ये अवलोकनार्थ है । महसूस की जाने वाली किसी भी चीज का अवलोकन करना वैसे भी कठिन होता है क्योंकि रस रूप जैसे अवयवों से भरे हुए भाव अंतर मन का विषय हैं न की बुद्धि का ।

फिर भी ये एक प्रयास रहेगा कुछ भावनाओं और उनके बीच के अंतर को गहराई से समझने का जो शायद जीवन जीने का एक नया नजरिया हमें प्रदान करें । हम प्यार, ममता और समर्पण जैसी भावनाओं के विषय में समझने का प्रयास करेंगे।

       सबसे पहले बात उसकी जिसे ऊपर वर्णित नही किया गया यानी आकर्षण की । माफी चाहेंगे लेकिन कभी कभी लेखकों को पाठको की रुचि बनाए रखने के लिए ऐसा करना पढ़ता है।

खैर अब बढ़ते हैं अपने मूल विषय की तरफ। आकर्षण क्या है? देखिए आकर्षण में मूलत: जो इन्द्रिय सबसे ज्यादा काम करती है वह हैं आंखें। आकर्षण का आधार ही दृष्टि है। वैसे आप किसी की आवाज या महक से भी आकर्षित हो सकते हैं लेकिन फिर भी आप इस बात को मानेंगे कि देखने का संबंध इस भाव से ज्यादा है। ये किसी के प्रति भी हो सकता है और ये एक परस्पर भावना नहीं है क्योंकि जरूरी नहीं कि जिसके प्रति आप आकर्षित हों वह भी आपकी तरफ आकर्षित हो या फिर आपका आकर्षण किसी निर्जीव वस्तु की तरफ भी हो सकता है। उदाहरण के लिए आप एक बगीचे में जाते हैं, जहां गुलाब के एक ही रंग के बहुत सारे फूल लगे हुए हैं, अब यहां चूंकि सभी एक से हैं तो आप किसी एक के प्रति विशेष आकर्षित नही होते वरन उस वस्तु के प्रति यानी गुलाब के प्रति आकर्षित होते हैं, आपको किसी एक से कोई फर्क नहीं पड़ता, आप किसी भी गुलाब के पास रुक के उसे निहारने लगते हो । जैसा मैंने ऊपर कहा कि यहां परस्परता का भाव नहीं है क्योंकि आप गुलाब की तरफ आकर्षित है गुलाब आप की तरफ नहीं । अब मानिए कि आपको उस में से कोई एक गुलाब चाहिए और आपने देखा कि एक गुलाब की दो तीन पंखुड़ियां कम है और दूसरा पूर्णता के साथ खिला हुआ है । अब आप क्या करेंगे ? बड़ी सीधी सी बात है कि आप दूसरे गुलाब को तोड़ेंगे ये जानते हुए भी कि आपका काम पहले वाले गुलाब से भी चल जायेगा और दोनो की गंध में भी कोई अंतर नहीं है। परन्तु आपने दूसरा चुना क्यों ? क्योंकि चुनाव के वक्त अब आकर्षण के भाव में रस रूप गंध आदि भाव भी समाहित थे। अब ये बात आपको सही लगेगी कि आकर्षण की धुरी और आधार दृष्टि ही है। आकर्षण में आप सबसे अच्छा चुनने की चेष्टा करते हैं क्योंकि वह आपको देखने में ज्यादा अच्छा लगता है। अब ये तो बात हो गई निर्जीव वस्तु की, अब मानिए कि आप कही जाते हैं और आपको प्यारे प्यारे से कुत्ते के बिल्कुल एक जैसे दिखने वाले चार पांच बच्चे दिखाई देते है, आप आकर्षित होते हैं और नीचे झुक के उनके साथ खेलने लगते हैं। इस भावना को आप कहेंगे कि कुत्ते के बच्चों पे प्यार आ गया लेकिन नहीं, रुकिए! अब आप को इनमे से किसी एक को घर ले जाना हो पालने के लिए, तो आप कोई सा भी लेके चल दीजिए क्योंकि आपको तो सभी से प्यार है। पर ऐसा होगा नहीं, आप देखेंगे की इनमे से सबसे तंदरुस्त कौन सा है, कौन ज्यादा उछल कूद कर रहा है वगैरह वगैरह। 

    असल बात ये है कि आकर्षण की भावना का संबंध ज्यादातर आकस्मिकता से होता है और ये भावना अल्पकालिक और स्वार्थ से परिपूर्ण होती है तथा समय के साथ इसमें गिरावट आती रहती है। आपका स्वार्थ पूरा होते ही या रूप या अवस्था परिवर्तन होने से आपका आकर्षण उस चीज या व्यक्ति के प्रति कम होने लगता है। जैसे आप वो गुलाब का फूल तोड़ के ले के आए और उसके मुरझाते ही आपने उसे त्याग दिया क्योंकि आपका आकर्षण उसके रूप से था। ऐसा नहीं है कि इस भावना के साथ सिर्फ स्वार्थ ही है, आपको उस चीज के उस स्वरूप में न रहने पर पीड़ा का आभास भी हो सकता है। जैसे आप किसी दुकान से एक कॉफी कप खरीद कर लाए जिसके जैसा वहां और कोई पीस नही था और आते ही वो टूट गया, निश्चित ही आपको पीड़ा होगी पर वो पीड़ा आकर्षणवश और क्षणिक होगी।

     आज़ के परिवेश में हमे ये याद रखना होगा कि ज्यादातर लोग जो आपसे जुड़ते है वो आपके रूतबे, पद, प्रतिष्ठा, पहुंच आदि को देख के जुड़ते है और आप समझते है कि ये हमसे प्रभावित है। नही, वो हमसे नही हमसे जुड़ी हुई चीजों से आकर्षित होकर हमसे जुड़ते हैं और वो खत्म होते ही वो लोग फिर आपको दूर दूर तक दिखाई नही देते । ये जो बाजारवाद आप अपने चारों ओर देखते है वो सब आकर्षण के भाव पे ही तैयार किया गया है। बाजार समझता है कि पैकिंग सुंदर दिखती होगी, मॉल में चीज़ें करीने से लगी होंगी, बेचने के लिए अच्छा दिखने वाला सेल्स मैन होगा तो निश्चित ही आपके ध्यान को आकर्षित करने में वो कारगर होंगे । 

इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है अपने इस भाव को नियंत्रण में रखना।

       अब बात करते हैं सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वाले भाव यानी 'प्यार' की। सबसे पहले तो ये कि ज्यादातर मामलों में आकषर्ण ही प्यार का पहला चरण होता है। । अगर इस बात को लेके आपके मन में कोई संशय हो तो आप इस तथ्य को और गहराई से समझ सकते है। अगर प्यार के पीछे अधिकतर आकर्षण नही होता तो क्यों आपको सुंदर दिखने वाली महिला या पुरुष से ही प्यार होता है। समाज में बिरले ही ऐसे वीर मिलेंगे जिन्होंने रूप को महत्व न देके किसी को प्यार किया होगा । अगर आप विश्वास न करना चाहें तो अपने चारों तरफ या खुद को भी देख सकते हैं। Love at first sight को क्या आप आकर्षण की संज्ञा नही देंगे? आप आकर्षित होते हैं और फिर समय के साथ वो प्यार में रूपांतरित हो जाता है। ये समय के साथ बढ़ने वाला भाव है इसलिए इसके मापन की इकाई अगर कोई है तो वो है प्रगाढ़ता ।

   ‌‌    पर ये भाव एक परस्पर भाव है और ये दीर्घकालिक हो सकता है पर इसका दीर्घकालिक होना परस्परता पर निर्भर करता है । प्यार कभी एक तरफा नही हो सकता, ये जान लीजिए । हमने यहां इसे बोल्ड और अंडरलाईन कर दिया है और आप इस बात को अपने जहन में बोल्ड और अंडरलाईन कर लीजिए और ये भी कि एक तरफा होने की स्थिति में ये बहुत लंबे समय तक नही रह सकता । सामने वाला तवज्जो न दे तो एक समय के बाद इसमें कमी आना स्वाभाविक है। आप जिसे बहुत प्यार करते हों और वह इस संसार में न रहे तो एक समय के बाद आप इस व्यक्ति के लिए अपने प्यार में निरंतरता की कमी महसूस करेंगे या कहें कि वह भावना सुप्त अवस्था में रहेगी इसलिए परस्परता इसका एक प्रमुख अव्यव है। इस बात को एक गजल की दो पंक्तियों में बहुत सटीक ढंग से कहा गया है :-

आंख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा,

वक्त का क्या है, गुजरता है, गुजर जाएगा ।

       आइए अब इसको आकर्षण के भाव से अलग करते है और परस्परता की भूमिका को समझते हैं। आपको याद है कि ऊपर आप एक कुत्ते का बच्चा अपने घर ले आए थे जिसके प्रति आप आकर्षित हुए थे। बस अब उसी से समझते हैं। देखिए प्रेम का भाव कैसे उत्पन्न होता है। जैसे हमने समझा कि इसमें परस्परता का भाव होता है यानि कि इसमें सामने वाले व्यक्ति या जीव का आपके प्रति स्नेह, आचरण, व्यवहार आदि भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । आपने कभी सोचा कि आपका प्रेम उस पशु के लिए कैसे जाग्रत हो जाता है । उसका आपके प्रति स्नेह और व्यवहार देखकर, आपके घर वापस आने पर वह आपके पास आकर बैठ जाता है, आपके पैरों पर लोटने लगता है, आपको अपनेपन का एहसास करवाता है, यही सब आपका उसके प्रति प्रेम का कारण बनता है। इसके विपरीत अगर वह थोड़ा आक्रामक प्रवृत्ति का हो, आप के डांटने पर गुर्रा देता हो, तो निश्चित ही आप उससे प्रेम तो नही ही कर पाएंगे।

      प्रेम में अनुराग और निरंतरता के बहुत मायने होते हैं। ये आपका वक्त का निवेश मांगता है। इसका बहुत ही अच्छा उदाहरण हम प्रेम विवाह से जोड़ कर देख सकते हैं। अमूमन हम समाज में देखते हैं की प्रेम विवाह ज्यादा सफल नहीं हो पाते । इसका बड़ा सीधा सा कारण है - आकर्षण और पाने की लालसा। आप आकर्षित हुए और प्रेम में पढ़े, आपने अपना समय निवेश किया । अब विवाह उपरांत जिम्मेदारी बढ़ी, बच्चे हो गए, घर गृहस्थी का काम आ गया, आप सुबह ऑफिस के लिए निकलते हैं और सीधे रात में फुरसत पाते है आदि। देखिए यहां प्रेम बना हुआ है और परस्परता में भी कोई कमी नहीं आई है परंतु अब आप समय नहीं दे पाते, उतनी बातचीत नही हो पाती और ये बात सामने वाला भी समझता है, लेकिन चूंकि प्रेम विवाह की नींव ही प्रेम है और उम्मीदें वैसे ही बनीं रहती है जैसी विवाह से पहले थी तो प्रेम के किसी भी अवयव में कमी ऐसा महसूस कराती है कि कही कुछ कमी है या कहीं कुछ छूट रहा है। दूसरा चूंकि आकर्षण उसका एक प्राथमिक अवयव था तो कहीं न कहीं वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति के बाद प्रेम भाव में कमी भी आना स्वाभाविक सा लगता है। 

     ये सिर्फ कुछ उदाहरण है और भी बहुत से कारण होते हैं या हो सकते हैं प्रेम विवाह के सफल न होने के । इसके उलटा अरेंज मैरिज में ये सब ज्यादा नहीं देखने मिलता क्योंकि उसमें दोनों पहले से किसी रिश्ते में नहीं थे तो उम्मीदें भी उतनी नहीं थी । ऐसे विवाह में विवाह को एक संस्था के रूप में मान्यता प्राप्त होती है । ऐसा नहीं है कि इसमें पति पत्नी में प्रेम नही होता या हो नही सकता पर इसमें दायित्वों और सामाजिक उत्तरदायित्वों का बोध ज्यादा होता है इसलिए प्रेम की अनुभूति कम होने पर भी, प्रेम आधार न होने के कारण, रिश्ता टिका रहता है। 

    सबसे बड़ी गलती ये है कि समाज प्रेम को बंधन मानता है, जबकि प्रेम के साथ जो सीधा जुड़ा हुआ भाव है वह है स्वतंत्रता का। प्रेम बहुत ही विमुक्त भाव है, इसमें बराबरी होती है, प्रेम करने वाले दोनों एक ही स्तर पे होते हैं, कोई और कुछ भी कम ज्यादा नही होता, इसलिए इस भावना में अंश मात्र का परिवर्तन भी रिश्ते की डोर को कमज़ोर कर सकता है। जैसा चल रहा था जब तक वैसा चलेगा, प्रगााढ़ता उतनी बनी रहेगी, जैसे ही किसी प्रकार की कोई भी कमी हुई या कोई अवयव निष्क्रिय हुआ, प्रेम का भाव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। आप इसको प्रेम का सूत्र मान सकते है जो सिर्फ प्रेम विवाह नही किसी भी प्रेम भरे रिश्ते पर लागू होता है।

     इतने सारे अवयवों के होने के कारण ये एक बहुत ही जटिल भाव है और इसलिए हर किसी के साथ इसको नही जोड़ा जा सकता है। किसी भी रिश्ते को प्रेम की संज्ञा देने से पहले इस बात के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए कि ये समय चाहता है और अगर आप या सामने वाला व्यक्ति उस स्थिति में न हो तो प्रगाढ़ता नही हो सकती और समय के साथ या तो ये खत्म हो जाएगा या सुप्त अवस्था में रहेगा । 

       अब बात इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण और विस्तृत भाव की जिसकी महत्ता सर्वाधिक होते हुए भी चर्चा अधिक नही होती और वह भाव है ममता का भाव । यह सारे अवयवों से मुक्त होता है यानी अवयव रहित होता है, इसमें परस्परता की कोई आवश्यकता नहीं होती और यह अपरिवर्तनशील होता है। यह भाव सिर्फ और सिर्फ मां में होता है और उसी के साथ इसे जोड़ा जा सकता है । आपने पिता के प्यार के विषय में सुना या महसूस तो किया होगा पर पिता की ममता के बारे में नहीं सुना होगा क्योंकि ममता सिर्फ मां की ही होती है। इस भाव में प्यार का भाव भी समाहित है पर आंकलन के आधार पर वह ममता के आगे बहुत ही तुच्छ भाव जान पड़ता है। 

      अब जानिए कि ऐसा क्यों हैं कि ये भाव मां के साथ ही जुड़ा हुआ है। आपने जो ऊपर आकर्षण और प्यार के विषय में जाना, उसमे कही न कही रूप, रंग, गंध आदि जैसे अवयव विद्यमान थे। ये अवयव उन भावों का अभिन्न अंग है क्योंकि वो ही उन भावों की उत्पत्ति का आधार हैं। परन्तु ममता एक ऐसा भाव है जिसमें कुछ नही देखा जाता, कोई परस्परता नहीं होती, कोई शर्त नहीं होती, किसी भी परिस्थिति में ये भाव अपनी मूल भावना में अविचल रहता है। ये है ममता । ममता इसलिए ऐसी है क्योंकि इसकी शुरुआत एक एहसास / अनुभूति से होती है। एक स्त्री को नही पता होता कि उसकी होनी वाली संतान कैसी होगी, पुत्र होगा या पुत्री होगी, वह तो उस एहसास से प्यार करती है जो उसे अपने अंदर एक जिंदगी के होने से होता है । बाकी सारे भावों में आपके सामने दूसरा वस्तु या व्यक्ति उपस्थित होता है, आप सोच समझ के निर्णय लेते है पर यहां तो ममता बच्चे के गर्भ में स्थापित होते ही विकसित हो जाती है। इसलिए इस भावना को समझना इतना कठिन है और सिर्फ इसलिए ही मां के साथ जोड़ा जा सकता है । दुनिया के किसी और रिश्ते में ये संभव ही नहीं । यहां तक कि जिसके प्रति मां की ये ममता होती है (यानी बच्चा) वो भी मां से प्यार तो कर सकता है पर ममता नही। ये इतना सर्वोच्च और निस्वार्थ भाव है। क्योंकि सिर्फ एक स्त्री ही ममता को महसूस कर सकती है, इसी कारणवश आपने कई बार महिलाओं को कहते हुए सुना होगा कि मां बनोगी तब जानोगी । और ये तो सार्वभौमिक सत्य है की मां ही मां के दर्द को समझती है क्योंकि वैसा कोई दूसरा महसूस कर ही नहीं सकता। ये कहीीं ना कहीीं पूर्णता का भाव भी है क्योंकि सृष्टि में रचने का अधिकार ईश्वर के बाद अगर किसी को हुई तो वो है मां। सन्यास और वैराग्य में निहित त्याग मां के त्याग के आगे कुछ भी नहीं क्योंकि एक बार में सब कुछ त्याग के चले जाना आसान है पर अपना रूप, यौवन त्याग के रोज एक ही मनोभाव से सेवा करना अत्यंत दुष्कर है और एक स्त्री के ऐसा कर पाने के पीछे जो शक्ति होती है उसे ही ममता कहते हैं। अब आप समझ सकते हैं की ये कितना समर्थ और शक्तिशाली भाव है जो इस संसार में पुरुषों को प्राप्त नहीं है शायद इसलिए समाज पितृसत्तात्मक होते हुए भी पिता के लिए वो स्थान प्राप्त नहीं कर पाया जो मां को प्राप्त है।

      अब आप प्रश्न करेंगे ऊपर तो आपने प्यार को आकर्षण से होने वाला भाव बताया था तो क्या बच्चे का मां के प्रति प्रेम भी आकर्षण ही है। वैसे तो हमने ऊपर भी ये लिखा था कि प्रेम के ज्यादातर मामलों में आकषर्ण ही प्रथम चरण होता है। फिर भी इस जिज्ञासा पर मीमांसा करते हैं। देखिए ये बात तो सही है कि रक्त संबंधों में प्यार का आकर्षण से सीधा संबंध नहीं होता, आप अपनी मां के अंश है, उसके अंदर आपका जीवन विकसित हुआ है, आप में उसका ही रक्त और उसकी ही शक्ति का प्रवाह होता है, इसलिए मां के प्रति बच्चे का प्रेम नैसर्गिक होता है। भाई बहन के साथ प्यार नैसर्गिक नहीं होता, वो सब आपकी समझ की देन है, आप उनके साथ रहते है, पलते बढ़ते है तो स्वाभाविक रूप से एक प्रेम जाग्रत होता है और उसक रूप रंग से कोई लेना देना ही नहीं, क्योंकि आपके मन मस्तिष्क में यह बात घर कर चुकी होती है कि वह व्यक्ति मेरा भाई या बहन है । ये मैं और मेरा की भावना उन रिश्तों की नींव होती है। पर मां के साथ ये रिश्ता जन्म से भी पहले का होता है। आप देखते हैं कि बहुत छोटा बच्चा होगा, किसी की गोद में चुप नहीं होगा पर मां के पास जाते ही शांत हो जाता है, ये है कुदरत और ये ही है नैसर्गिक प्यार। इसमें कोई बनावट नही है, ये आत्मिक रूप से आपका जुड़ाव है जो इस तरह के भाव पैदा करता है। आपको दो लाइन के माध्यम से समझाते हैं: -

मां बच्चों का है वो रिश्ता, जो आसमान में बनता है,

ऐसे ही ना कोई, किसी की कोख में पलता है....

ये तो आपने देखा ही होगा कि हर मां को सारे संसार में सबसे अच्छा अपना ही बच्चा लगता है। बिल्कुल स्पष्ट कारण है, एक चित्रकार अपनी कुछ घंटो की महनत से एक चित्र बनता है और उसमे उसके प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है कि ये तो मैंने बनाया है, मेरी मौलिक कृति है तो उस मां का सोचिए जिसने बच्चे को नौ महीने अपने खून से सींचा है। सच तो ये है कि मां के अलावा कोई भी ऐसा रिश्ता नही जहां आप किसी के साथ नौ महीने लगातार साथ रह सकें। ये सिर्फ और सिर्फ इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि मां की ममता एक स्वत: स्फूर्त भाव है जिस पर उसका कोई जोर नही चलता और इसलिए इसमें परस्परता की कोई आवश्यकता ही नही है।

       आप शायद न मानें पर मां के लिए अपना हर बच्चा बराबर होता है, जो आपको शंका उत्पन्न हों रही है उसका समाधान ये है कि चूंकि कहीं ना कहीं ममता के विस्तृत भाव होने के कारण प्रेम उसमे समाहित रहता ही है, ये संभव है कि आपको मां किसी बच्चे से ज्यादा या कम प्रेम करती हुई महसूस हो, परंतु ममता उसके दिल में सब बच्चों के लिए बराबर ही होती है। जितना दर्द उसे एक बच्चे के चोट लगने पे होगा उतना ही दूसरे बच्चे के लगने पर भी होगा क्योंकि इस पर उसका कोई जोर ही नही, ये नैसर्गिक भाव है जो स्वयं ही जाग्रत हो जाता है। बच्चा कितना भी नालायक क्यों न हो, मां से सालों बाद भी मिलने क्यों न आया हो, गुस्से में कुछ कह तो देगी, पर ममता उतनी ही होगी ये उसकी विवशता है कुदरत के आगे। मां को पता हो कि बच्चा बाहर से खाना खा के आएगा फिर भी वो घर आने पे पूछेगी कि खाना खाया कि नही । उससे बिना पूछे रहा ही नहीं जायेगा, बच्चा चाहें झुंझलाहट से कह दे कि बताया तो था खा के आऊंगा। बस ये ही अंतर है ममता और प्रेम मेंं । मां को नही फर्क पड़ता कि आप क्या है, आप कितने बड़े अधिकारी हो जाए, आपकी कितनी भी उम्र हो जाए उसके लिए आप बच्चे ही रहेंगे। मां अगर ना रहे, तो बच्चा निश्चित पीड़ा में रहेगा, दुखी होगा लेकिन समय के साथ उसकी पीड़ा कम होती जाएगी क्योंकि उसके प्रेम में परस्परता का भाव है, पर अगर किसी मां का बच्चा ना रहे तो वो जीवन भर उस वेदना को उतनी ही तीव्रता से महसूस करेगी, ये अंतर है प्रेम में होने वाली पीड़ा और ममता में होनी वाली टीस में।

     मां की हर क्रिया में ममता का भाव नजर आएगा । मां अगर मारेगी भी तो ऐसे की बच्चे को चोट न लगे। उसे एक तरफ झिड़केगी तो दूसरी तरफ गली भी लगा लेगी । जन्म लेने से पहले भगवान कृष्ण ने माता देवकी को अपना चतुर्भुज रूप दिखाया और ये कहा कि ये आपके पिछले जन्मों के पुण्य है जो आपको देव दुर्लभ मेरे इस रूप के दर्शन प्रत्यक्ष हुए है । ये मेरा आपको पूर्व में दिए हुए वरदान के कारण आपसे मेरा ये तीसरा जन्म होगा । आप संतुष्ट हो तो मोक्ष मांग सकती है । पर ममता तो देखिए, माता देवकी ने कहा प्रभु मोक्ष मांगना होता तो मैं तभी मांग लेती, मुझे तो आप अपने बालक के रूप में चाहिए। इसलिए हमने कहा कि ये स्वत: जाग्रत होने वाला नैसर्गिक भाव है। और मां की शक्ति देखिए कि देवकी माता के नाम आया श्रेय जन्म देने का उसको जो सबको जन्म देता है। 

     अंत में अब बात करते हैं चर्चा के आखिरी भाव यानी समर्पण की । ये एक आध्यात्मिक भाव है और इसमें भी परस्परता नही होती । ये विवेक के आधार पर स्वयं का लिया हुआ निर्णय होता है । ये चिंतन का विषय है और पूर्ण रूप से श्रद्धा का विषय है । ये भक्त और ईश्वर के बीच में देखने को मिलता है । इसमें कोई बंधन नहीं होता वरन् भावना होती है। 

      समर्पण का जो मुख्य अवयव है वह है विश्वास, सारी मानने वाली बात है बस। इसमें शंका की फिर कोई गुंजाइश ही नही रहती। इसमें प्रेम एक अवयव तो हो सकता है परंतु प्रेम के अवयव इसमें नही होते जैसे आप विभिन्न मंदिरों में जाते है, हर जगह भगवान की मूर्ति एक सी नही होती, कहीं कृष्ण का स्वरूप एक तरह का होगा तो दूसरी जगह दूसरा । पर मूर्तियों में विभिन्नता होते हुए भी आपके भाव में कोई अंतर नही आता। आप ये नही सोचते कि ये कृष्ण ज्यादा सुंदर है या कम क्योंकि यहां प्यार नही समर्पण है, आपने माना हुआ है कि ये मेरे इष्ट हैं, स्वरूप से कोई अंतर ही नही पड़ता । ये एकरस भाव है इसलिए भक्त अपने इष्ट से संनिकटता और उससे एकरूपता का अनुभव कर पाता है। 

    इसे दासता नहीं समझना चाहिए क्योंकि समर्पण एक स्वैच्छिक क्रिया है, भक्त स्वतंत्रता का अनुभव करता है और दासता कभी ऐच्छिक नही होती।

        प्रश्न ये उठता है कि क्या समर्पण जरूरी है ? देखिए व्यक्ति इस संसार में रहते हुए भी बंधन मुक्त रह सकता है अगर वह सम रहे यानी कि किसी भी परिस्थिति में विचलित न हो और अपने को नियंत्रण में रख सके। बस समर्पण में ये ही होता है। अपना सब कुछ अर्पण करके मनुष्य सम हो जाता है । जब आपने किसी भी कर्म फल से खुद को न जोड़ के उसे भगवान को समर्पित कर दिया और सिर्फ अपने कर्मो को कर्तव्य मान के निष्पादित किया, तो फिर आप समता के भाव को प्राप्त हो जाते हैं, ये ही समर्पण कराता है । अब जब आप किसी कर्म और उसके फल को खुद से नही जोड़ते तो भगवान के निकट जाने लगते है और संभवत: जन्म मृत्यु के बंधन से दूर भी क्योंकि कर्म फल ही पुनर्जन्म का आधार बनते है । गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते है कि तू ये मत देख कि युद्ध में तेरे सामने तेरे अपने खड़े हैं, तू अपना क्षत्रिय धर्म निभा, कर्म कर और फल की चिंता मत कर । देखिए जो घटना अवश्यंभावी है वह होकर रहेगी, समर्पण का अर्थ यह कही नहीं है कि ईश्वर सृष्टि के चक्र में कुछ हस्तक्षेप करेंगे, अगर ऐसा होता तो भगवान महाभारत का युद्ध होने ही नही देते, राम चंद्र जी वनवास नही जाते पर ऐसा नही हुआ। जो होना है वह होगा, पर जैसे सृष्टि के कण कण में विद्यमान होकर भी ईश्वर सत, रज और तमो गुण से अलग है, ऐसे ही मनुष्य भी कर्म करते हुए खुद को कर्म फल से अलग कर सकता है। इसी का एक रास्ता समर्पण है। 

      समर्पण या भगवान के अधीन हो जाना सबसे आसान तरीका है ईश्वर की प्राप्ति का क्योंकि इसमें कोई कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं, बस एक मान्यता है और चूंकि सब कुछ ईश्वर के अधीन है तो किसी से राग द्वेष का कोई कारण ही नहीं। यह बहुत ही दुष्कर कार्य है जो किसी साधना से कम नही । यह बहुत ही आत्मीय भाव है क्योंकि सामने वाला आपसे कुछ नही चाहता और आप समर्पित हैं ये मान के कि सत्ता तो उसी की है। जैसे छोटा बच्चा मां बाप के अधीन रहता है, उसके कोई कर्म फल उसे नही लगते और सारे कार्यों की पूर्ति होती रहती है। ऐसा कहा भी जाता है की बारह वर्ष की आयु तक बच्चे मां बाप की ही किस्मत से चलता है। 

     समर्पण हमे एक शक्ति देता है क्योंकि इसमें विश्वास है। विश्वास यानी मानी हुई बात प्रत्यक्ष होती है उसमे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । मानी हुई बात हमे संबल देती है कि ऐसा हैं या नहीं है। इसलिए समर्पण हमारी शक्ति है कमजोरी नही और इसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। यह एक ऐसा भाव है जो बंधन मुक्त कर देता है और आपको संपूर्ण स्वतंत्रता और आनंद से जीवन जीने की प्रेरणा देता है।

      जैसे लोग एक तरफ तो इश्वर की तरफ झुकाव भी रखते होंगे तो दूसरी तरफ अपने ही ग्रंथों में लिखी हुई बातों पर शंका भी करते हैं । कोई कार्य पूरा नही हुआ तो सोचेंगे कि ईश्वर है भी नहीं। देखिए पग पग पे शंका करने से आप किसी भी भाव को जी नही पाएंगे। जहां समर्पण होता है वहां मंथन, मीमांसा तो हो सकती है परंतु शंका नहीं । आपको विश्वास रखना होगा, कहा जाता है कि विश्वास फलं दायकम्। विद्यार्थी को अगर परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तो उसे यह मान कर चलना होगा कि पुस्तक में जो भी लिखा है वह सत्य है क्योंकि परीक्षा तो पुस्तक के आधार पर होनी है । अगर विद्यार्थी पुस्तक में लिखी बातों पर शंका ही करता रहेगा तो सफल कैसे होगा परंतु अगर मीमांसा करेगा तो निश्चित ही उच्च सफलता प्राप्त करेगा।

       एक भाव रखने का अपना महत्व है। आप एक भाव रख के ईश्वर को भी पा सकते हैं। आप जो भी करे, चाहे मित्रता, प्रेम, शत्रुता या कुछ भी बस एक भाव रखें और पूरे मनोयोग से निभाएं। रावण ने श्री राम के प्रति सिर्फ एक भाव रखा शत्रुता का। वो जानता था कि सामने साक्षात् भगवान हैं पर उसके मन में अपने कर्मो के प्रति कोई संदेह नहीं था, क्योंकि वो ही उसका भगवत् प्राप्ति का एक मात्र साधन था। वह जानता था की सशरीर स्वर्ग तो पहुंचा जा सकता है, स्वर्ग के भोग भोगे जा सकते हैं परंतु परमात्मा तक तो आत्मा ही पहुंच सकतीं है, जिसके लिए उसने मृत्यु चुनी वो भी स्वयं नारायण के हाथों।

       तो ये थी विवेचना हमारे द्वारा निभाए जाने वाले विभिन्न भावों की । अब आप ये मंथन कर सकते हैं कि कौन सा रिश्ता आप किस भाव से निभा रहे हैं या किस भाव से निभाना चाहते हैं ।

धन्यवाद

हृदेश प्रियदर्शी

अलीगंज, लखनऊ।

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