मंगलवार, 28 जनवरी 2025

ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यसारः

अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॥ १।१।१॥

अथ-अब (साधनचतुष्टयसम्पत्ति के अनन्तर), अतः- यहाँसे; ब्रह्मजिज्ञासा = ब्रह्म विषयक विचार (आरम्भ किया जाता है)।
व्याख्या-इस सूत्र में ब्रह्मविषयक विचार आरम्भ करने की बात कहकर यह सूचित किया गया है कि ब्रह्म कौन है? उसका स्वरूप क्या है ? वेदान्तमें उसका वर्णन किस प्रकार हुआ है ? इत्यादि सभी ब्रह्मविषयक बातोंका इस ग्रन्थ में विवेचन किया जाता है।
सम्बन्ध-पूर्व सूत्र में जिस ब्रह्म के विषयमें विचार करने की प्रतिज्ञा की गयी है, उसका लक्षण बतलाते हैं-

जन्माद्यस्य यतः ॥ १।१।२॥

अस्य-इस जगत् के; जन्मादि:- जन्म आदि (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय); यतः- जिससे (होते हैं, वह ब्रहा है)।

व्याख्या-यह जो जड़-चेतनात्मक जगत् सर्वसाधारण के देखने, सुनने और अनुभव में आ रहा है, जिसकी अद्भुत रचना के किसी एक अंशपर भी विचार करनेसे बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित होना पड़ता है, इस विचित्र विश्वके जन्म आदि जिससे होते है अर्थात् जो सर्वशक्तिमान् परात्पर परमेश्वर अपनी अलौकिक शक्तिसे इस सम्पूर्ण जगत् की रचना करता है, इसका धारण, पोषण तथा नियमित रूप से संचालन करता है। फिर प्रलय काल आने पर जो इस समस्त विश्व को अपने में विलीन कर लेता है, वह परमात्मा ही ब्रह्म है।
       भाव यह है कि देवता, दैत्य, दानव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अनेक जीवों से परिपूर्ण, सूर्य, चन्द्रमा, तारा तथा नाना लोक-लोकान्तरों से सम्पन्न इस अनन्त ब्रह्माण्ड का कर्ता-हर्ता कोई अवश्य है, यह हरेक मनुष्य की समझ में आ सकता है; वही ब्रह्म है। उसी को परमेश्वर, परमात्मा और भगवान् आदि विविध नामों से कहते हैं। क्योंकि वह सबका आदि, सबसे बड़ा सर्वाधार सर्वज्ञ, सर्वेश्वर सर्वव्यापी और सर्वरूप है। यह दृश्यमान जगत् उसकी अपार शक्ति के किसी एक अंशका दिग्दर्शन मात्र है।

श‌ङ्का - उपनिषदों में तो ब्रह्म का वर्णन करते हुए उसे अकर्ता, अभोक्ता, असङ्ग, अव्यक्त, अगोचर, अचिन्त्य, निर्गुण, निरञ्जन तथा निर्विशेष बताया गया है और इस सूत्र में उसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का कर्ता बताया गया है। यह विपरीत बात कैसे ?

समाधान-उपनिषदों में वर्णित परब्रह्म परमेश्वर इस सम्पूर्ण जगत् का कर्ता होते हुए भी अकर्ता है (गीता ४/ १३) । अतः उसका कर्तापन साधारण जीवों की भाँति नहीं है। सर्वथा अलौकिक है। वह सर्वशक्तिमान, एवं सर्वरूप होने में समर्थ होकर भी सबसे सर्वथा अतीत और असङ्ग है। सर्वगुणसम्पन्न होते हुए भी निर्गुण है। तथा समस्त विशेष से युक्त होकर भी निर्विशेष है। इस प्रकार उस सर्वशक्तिमान् परब्रह्म परमेश्वर में विपरीत भावों का समावेश स्वाभाविक होने के कारण यहाँ शङ्का के लिये स्थान नहीं है।

सम्बन्ध- कर्तापन और भोक्तापनसे रहित, नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रह्मको इस जगत् का कारण कैसे माना जा सकता है? इसपर कहते हैं-

शास्त्रयोनित्वात् ॥ १।१।३॥

शास्त्रयोनित्वात् - शास्त्र (वेद) में उस ब्रह्मको जगत् का कारण बताया गया है, इसलिये (उसको जगत् का कारण मानना उचित है)।

व्याख्या - वेद में जिस प्रकार ब्रह्म के सत्य, ज्ञान और अनन्त (तैत्तिरीयोपनिषद् -२ । १) आदि लक्षण बताये गये हैं, उसी प्रकार उसको जगत् का कारण भी बताया गया है। इसलिये पूर्व सूत्र के कथनानुसार परब्रह्म परमेश्वर को जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण मानना सर्वथा उचित ही है।
सम्बन्ध-मृत्तिका आदि उपादानों से घट आदि वस्तुओं की रचना करने वाले कुम्भकार आदि की भाँति ब्रह्म को जगत् का निमित्त कारण बतलाना तो युक्तिसंगत है। परन्तु उसे उपादान कारण कैसे माना जा सकता है ? इसपर कहते हैं।

तत्तु समन्वयात् ॥ १।१।४॥

तु- तथा; तत् - वह ब्रह्म; समन्वयात्- समस्त जगत् में पूर्णरूपसे अनुगत (व्याप्त) होनेके कारण (उपादान भी है)।

व्याख्या-जिस प्रकार अनुमान और शास्त्र-प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि इस विचित्र जगत् का निमित्त कारण परब्रह्म परमेश्वर है, उसी प्रकार यह भी सिद्ध है कि वही इसका उपादान कारण भी है; क्योंकि वह इस जगत् में पूर्णतया अनुगत (व्याप्त) है, इसका अणुमात्र भी परमेश्वरसे शन्य नहीं है। श्रीमदभगवद्गीता में भी भगवान् ने कहा है कि 'चर या अचर, जड या चेतन, ऐसा कोई भी प्राणी या भूतसमुदाय नहीं है, जो मुझसे रहित हो ।' (१०/३९) 'यह सम्पूर्ण जगत् मुझसे व्याप्त है।' (गीता ९/ ४) उपनिषदों में भी स्थान-स्थान पर यह बात दोहरायी गयी है कि 'उस परब्रह्म परमेश्वरसे यह समस्त जगत् व्याप्त है।
सम्बन्ध - सांख्य मत के अनुसार त्रिगुणात्मिका प्रकृति भी समस्त जगत में व्याप्त है, फिर व्याप्ति रूप हेतु से जगत् का उपादान कारण ब्रह्म को ही क्यों मानना चाहिए प्रकृति को क्यों नहीं? इस पर कहते हैं।

ईक्षतेर्नाशब्दम् ॥ १।१।५॥

ईक्षतेः = श्रुतिमें 'ईक्ष' धातुका प्रयोग होनेके कारण; अशब्दम्- शब्दप्रमाण-शून्य प्रधान (त्रिगुणात्मिका जड प्रकृति); न- जगतका कारण नहीं है।

व्याख्या - उपनिषदों में जहाँ सृष्टि का प्रसङ्ग आया है, वहाँ 'ईक्ष' धातु की क्रिया का प्रयोग हुआ है, जैसे 'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्' (छा० उ०६।२।१) इस प्रकार प्रकरण आरम्भ करके 'तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय' (छा० १०६।२।३) अर्थात् 'उस सत् ने ईक्षण- संकल्प किया कि मैं बहुत हो जाऊँ, अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ।' ऐसा कहा गया है। इसी प्रकार दूसरी जगह भी 'आत्मा वा इदमेकमेवान आसीत्' इस प्रकार आरम्भ करके 'स ईक्षत लोकान्नु सृजै' (ऐ० उ०१।१।१) अर्थात् 'उसने ईक्षण-विचार किया कि निश्चय ही मैं लोकों की रचना करूँ।' ऐसा कहा है। परंतु त्रिगुणात्मिका प्रकृति जड़ है, उसमें ईक्षण या संकल्प नहीं बन सकता; क्योंकि वह (ईक्षण) चेतनका धर्म है; अतः शब्दप्रमाणरहित प्रधान (जड प्रकृति) को जगत् का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।

सम्बन्ध - ईक्षण या संकल्प चेतनका धर्म होने पर भी गौणी वृत्ति से अचेतन के लिये प्रयोग में लाया जा सकता है, जैसे लोक में कहते हैं 'अमुक मकान अब गिरना ही चाहता है। इसी प्रकार यहाँ भी ईक्षण-क्रिया का सम्बन्ध गौण रूप से त्रिगुणात्मिका जड़ प्रकृति के साथ मान लिया जाय तो क्या हानि है ? इसपर कहते हैं-

गौणश्चेन्नात्मशब्दात् ॥ १।१।६॥

चेत् - यदि कहो; गौणः- ईक्षणका प्रयोग गौण वृत्ति से (प्रकृतिके लिये) हुआ है, न तो यह ठीक नहीं है; आत्मशब्दात्- क्योंकि वहाँ 'आत्म' शब्द का प्रयोग है।

व्याख्या - ऊपर उद्धृत की हुई ऐतरेय की श्रुति में ईक्षण का कर्ता आत्मा को बताया गया है। अतः गौण-वृत्ति से भी उसका सम्बन्ध प्रकृति के साथ नहीं हो सकता। इसलिये प्रकृति को जगत् का कारण मानना वेद के अनुकूल नहीं है।

सम्बन्ध - 'आत्म' शब्द का प्रयोग तो मन, इन्द्रिय और शरीर के लिये भी आता है। अतः उक्त श्रुति में 'आत्मा' को गौण रूप से प्रकृति का वाचक मानकर उसे जगत् का कारण मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है? इस पर कहते हैं

तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् ॥ १।१। ७ ।।

तन्निष्ठस्य - उस जगत् कारण (परमात्मा) में स्थित होने वाले की; मोक्षोपदेशात् - मुक्ति बतलायी गयी है; इसलिये (वहाँ प्रकृति को जगत् कारण नहीं माना जा सकता)।

व्याख्या - तैत्तिरीयोपनिषद्‌ की दूसरी वल्ली के सातवें अनुवाक में जो सृष्टि‌ का प्रकरण आया है, वहाँ स्पष्ट कहा गया है कि 'तदात्मानं स्वयमकुरुत'-'उस ब्रह्म ने स्वयं ही अपने आपको इस जड़-चेतनात्मक जगत् के रूप में प्रकट किया।' साथ ही यह भी बताया गया है कि 'यदा होवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठा विन्दते । अथ सोऽभयं गतो भवति' 'यह जीवात्मा जब उस देखने में न आने वाले, अहंकार रहित, न बतलाये जाने वाले, स्थान रहित आनन्दमय परमात्मा में निर्भय निष्ठा करता है-अविचल भाव से स्थित होता है, तब यह अभय पद को पा लेता है। इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद में भी श्वेतकेतु के प्रति उसके पिता ने उस परम कारण में स्थित होने का फल मोक्ष बताया है। किंतु प्रकृति में स्थित होने से मोक्ष होना कदापि सम्भव नहीं है, अतः उपयुक्त श्रुतियों में 'आत्मा' शब्द प्रकृति का वाचक नहीं है, इसीलिये प्रकृति को जगत् का कारण नहीं माना जा सकता।

सम्बन्ध - उक्त अति में आया हुआ 'आत्मा' शब्द प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता, इसमें दूसरा कारण बतलाते हैं।

हेयत्वावचनाच्च ॥ १।१।८ ॥

हेयत्वावचनात् - त्यागने योग्य नहीं बताये जाने के कारण;  - भी (उस प्रसङ्गमें 'आत्मा' शब्द प्रकृति का वाचक नहीं है)।

व्याख्या - यदि 'आत्मा' शब्द वहाँ गौणवृत्तिसे प्रकृतिका वाचक होता तो। आगे चलकर उसे त्यागने के लिये कहा जाता और मुख्य आत्मा में निष्ठा करनेका उपदेश दिया जाता; किंतु ऐसा कोई वचन उपलब्ध नहीं होता है। जिसको जगत् का कारण बताया गया है, उसी में निष्ठा करनेका उपदेश किया गया है। अतः परब्रह्म परमात्मा ही 'आत्म' शब्दका वाच्य है और वही इस जगत् का निमित्त एवं उपादान कारण है।

सम्बन्ध - 'आत्मा' की ही भाँति इस प्रसङ्ग में 'सत्' शब्द भी प्रकृतिका वाचक नहीं है' यह सिद्ध करनेके लिये दूसरा हेतु प्रस्तुत करते हैं

स्वाप्ययात् ॥ १।१।९॥

स्वाप्ययात् - अपने में विलीन होना बताया गया है, इसलिये (सत् शब्द भी जड़ प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता )।

व्याख्या- छान्दोग्योपनिषद् (६।८।१) में कहा है कि यत्रैतत् पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेन स्वपितीत्याचक्षते । अर्थात् 'हे सोम्य ! जिस अवस्थामें यह पुरुष (जीवात्मा) सोता है, उस समय यह सत् (अपने कारण) से सम्पन्न (संयुक्त) होता है; स्व- अपने में अपीत-विलीन होता है, इसलिये इसे 'स्वपिति' कहते हैं।'
इस प्रसङ्ग में जिस सत् को समस्त जगत् का कारण बताया है, उसी में जीवात्मा का विलीन होना कहा गया है और उस सत् को उसका स्वरूप बताया गया है। अतः यहाँ 'सत्' नाम से कहा हुआ जगत् का कारण जड़ तत्व नहीं हो सकता।
सम्बन्ध- यही बात प्रकारान्तर से पुनः सिद्ध करते हैं -

गतिसामान्यात् ॥ १।१।१०॥

गतिसामान्यात् - सभी उपनिषद्-वाक्यों का प्रवाह समान रूप से चेतन को ही जगत का कारण बताने में है, इसलिये (जड प्रकृतिको जगत् का कारण नहीं माना जा सकता)।

व्याख्या - 'तस्माद् वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः' (तै० उ०२। १) निश्चय ही सर्वत्र प्रसिद्ध इस परमात्मा से आकाश उत्पन्न हुआ। 'आत्मत एवेदँ सर्वम्' (छा० उ०७/२६।१) - 'परमात्मा से ही यह सब कुछ उत्पन्न हुआ है।' 'आत्मन एष प्राणो जायते' (प्र० उ०३ । ३) 'उस परमात्मा से यह प्राण उत्पन्न होता है।' 'एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च। खं वायुज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।' (मु० उ०२।१।३) 'इस परमेश्वर से प्राण उत्पन्न होता है तथा मन (अन्तःकरण), समस्त इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल और सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करनेवाली पृथिवी-ये सब उत्पन्न होते हैं।' इस प्रकार सभी उपनिषद्-वाक्यों में समानरूपसे चेतन परमात्मा को ही जगत् का कारण बताया गया है। इसलिये जड प्रकृति को जगत् का कारण नहीं माना जा सकता।
सम्बन्ध-पुनः श्रुति-प्रमाणसे इसी बातको दृढ़ करते हुए इस प्रकरणको समाप्त करते हैं।

श्रुतत्वाच्च ॥१।१।११॥

श्रुतत्वात् - श्रुतियों द्वारा जगह-जगह यही बात कही गयी है, इसलिये; च भी (परब्रह्म परमेश्वर ही जगत् का कारण सिद्ध होता है)।

व्याख्या - 'स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिजनिता न चाधिपः ।' (श्वेता०६।९)- 'वह परमात्मा संघका परम कारण तथा समस्त करणों के अधिष्ठाताओं का भी अधिपति है। कोई भी न तो इसका जनक है और न स्वामी ही है।' 'स विश्वकृत्' (श्वेता०६। १६) 'वह परमात्मा समस्त विश्व का स्रष्टा है। 'अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वे' (म० उ०२।१।९) 'इस परमेश्वर से समस्त समुद्र और पर्वत उत्पन्न हुए हैं। 'इत्यादि रूप से उपनिषदों में स्थान-स्थान पर यही बात कही गयी है कि सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, परब्रह्म परमेश्वर ही जगत् का कारण है; अतः श्रुति-प्रमाण से यही सिद्ध होता है कि सर्वाधार परमात्मा ही सम्पूर्ण जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है; जड़ प्रकृति नहीं।

सम्बन्ध - 'स्वाप्ययात्' १।१।९ सूत्रमें जीवात्मा के स्व (परमात्मा) में विलीन होने की बात कहकर यह सिद्ध किया गया कि जड़ प्रकृति जगत् का कारण नहीं है। किंतु 'स्व' शब्द प्रत्यक्चेतन (जीवात्मा) के अर्थ में भी प्रसिद्ध है। अतः यह सिद्ध करने के लिये कि प्रत्यक्चेतन भी जगत् का कारण नहीं है, आगे का प्रकरण आरम्भ किया जाता है।

    तैत्तिरीयोपनिषद्‌ की ब्रह्मानन्दवल्ली में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए सर्वात्मस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर से ही आकाश आदि के क्रम से सृष्टि बतायी गयी है। (अनु०१, ६, ७)। उसी प्रसङ्ग में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय इन पाँचों पुरुषों का वर्णन आया है। वहाँ क्रमशः अन्नमय का प्राणमय को, प्राणमय का मनोमय को, मनोमय का विज्ञानमय को और विज्ञानमय का आनन्दमय को अन्तरात्मा बताया गया है ? आनन्दमय का अन्तरात्मा दूसरे किसी को नहीं बताया गया है। अपितु उसी से जगत की उत्पत्ति बताकर आनन्द की महिमा का वर्णन करते हुए सर्वात्मा आनन्दमय को जानने का फल उसी की प्राप्ति बताया गया और वहीं ब्रह्मानन्दवल्ली को समाप्त कर दिया गया है।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि इस प्रकरण में आनन्दमय नाम से किसका वर्णन हुआ है, परमेश्वर का ? या जीवात्मा का? अथवा अन्य किसी का? इस पर कहते हैं -

आनन्दमयोऽभ्यासात् ॥ १।१। १२ ॥

अभ्यासात् = श्रुति में बारंबार 'आनन्द' शब्द का ब्रह्म के लिये प्रयोग होने के कारण; आनन्दमयः 'आनन्दमय' शब्द (यहाँ परब्रह्म परमेश्वर का ही वाचक है)।

व्याख्या - किसी बात को दृढ़ करने के लिये बारंबार दुहराने को 'अभ्यास' कहते हैं। तैत्तिरीय तथा बृहदारण्यक आदि 'अनेक उपनिषदों में 'आनन्द' शब्द का ब्रह्म के अर्थ में बारंबार प्रयोग हुआ है। जैसे - तैत्तिरीयोपनिषद् की  ब्रह्मानन्दवल्ली के छठे अनुवाक में 'आनन्दमय' का वर्णन आरम्भ करके सातवें अनुवाक में उसके लिये 'रसो वै सः। रसं होवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति । को ह्येवान्यात् कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । एष ह्येवानन्दयाति' (२।७) अर्थात् 'वह आनन्दमय ही रसस्वरूप है, यह जीवात्मा इस रसस्वरूप परमात्मा को पाकर आनन्दयुक्त हो जाता है। यदि वह आकाश की भाँति परिपूर्ण आनन्दस्वरूप परमात्मा नहीं होता तो कौन जीवित रह सकता, कौन प्राणों की क्रिया कर सकता ? सचमुच यह परमात्मा ही सबको आनन्द प्रदान करता है। ऐसा कहा गया है। तथा 'सैषाऽऽनन्दस्य मीमांसा भवति', 'एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति ।' (तै० उ० २।८) 'आनन्दं ब्राह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन' (तै० उ०२।९) 'आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्' (तै० उ०३।६) 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' (बृह० उ०३।९। २८) इत्यादि प्रकार से श्रुतियों में जगह-जगह परब्रह्म के अर्थ में 'आनन्द' एवं 'आनन्दमय' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसलिये 'आनन्दमय' नाम से यहाँ उस सर्वशक्तिमान्, समस्त जगत् के परम कारण, सर्वनियन्ता, सर्वव्यापी, सबके आत्मस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर का ही वर्णन है, अन्य किसी का नहीं।।

सम्बन्ध - यहाँ यह श‌ङ्का होती है कि 'आनन्दमय' शब्द में जो 'मयट् प्रत्यय है, वह विकार अर्थ का बोधक है और परब्रह्म परमात्मा निर्विकार है। अतः जिस प्रकार अन्नमय आदि शब्द ब्रह्म के वाचक नहीं है, वैसे ही, उन्हीं के साथ
आया हुआ यह 'आनन्दमय' शब्द भी परब्रह्म का वाचक नहीं होना चाहिये। इसपर कहते हैं -
 
विकारशब्दान्नेति चेन्न प्राचुर्यात् ॥ १।१।१३॥

चेत् = यदि कहो; विकारशब्दात् - मयट् प्रत्यय विकार का बोधक होने से; न - आनन्दमय शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता; इति - तो यह कथन; न - ठीक नहीं है। प्राचुर्यात् - क्योंकि 'मयट्' प्रत्यय यहाँ प्रचुरता का द्योतक है (विकार का नहीं)।

व्याख्या - 'तत्प्रकृतवचने मयट्' (पा० सू० ५।४।२१) इस पाणिनि सूत्र के अनुसार प्रचुरता के अर्थ में भी 'मयट्' प्रत्यय होता है। अतः यहाँ 'आनन्दमय' शब्द में जो 'मयट्' प्रत्यय है, वह विकार का नहीं, प्रचुरता अर्थ का ही बोधक है अर्थात् वह ब्रह्म आनन्दघन है, इसी का द्योतक है। इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि 'आनन्दमय' शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता। परब्रह्म परमेश्वर आनन्दघनस्वरूप है, इसलिये उसे 'आनन्दमय' कहना सर्वथा उचित है।

सम्बन्ध - यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि जब 'मयट्' प्रत्यय विकार का बोधक भी होता है, तब यहाँ उसे प्रचुरता का ही बोधक क्यों माना जाय ? विकारबोधक क्यों न मान लिया जाय? इस पर कहते हैं -

तद्धेतुव्यपदेशाच्च ॥ १।१।१४॥

तद्धेतुव्यपदेशात् - (उपनिषदों में ब्रह्म को) उस आनन्द का हेतु बताया गया है, इसलिये; च - भी (यहाँ मयट् प्रत्यय विकार अर्थ का बोधक नहीं है)।

व्याख्या - पूर्वोक्त प्रकरण में आनन्दमय को आनन्द प्रदान करनेवाला बताया गया है (तै० उ०२।७) जो सबको आनन्द प्रदान करता है, वह स्वयं आनन्दघन है, इसमें तो कहना ही क्या है। क्योंकि जो अखण्ड आनन्द का भण्डार होगा, वही सदा सबको आनन्द प्रदान कर सकेगा । इसलिए यहाँ मयट् प्रत्यय को विकार बोधक न मानकर प्रचुरता का बोधक मानना ही ठीक है ।

सम्बन्ध - केवल मयट् प्रत्यय प्रचुरता का बोधक होने से ही यहाँ 'आनन्दमय' शब्द ब्रह्म का वाचक है, इतना ही नहीं, किंतु -

मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते ॥ १ । १ । १५॥

च - तथा; मान्त्रवर्णिकम् - मन्त्राक्षरों में जिसका वर्णन किया गया है, उस ब्रह्म का; एव - ही; गीयते - (यहाँ) प्रतिपादन किया जाता है। (इसलिये भी आनन्दमय ब्रह्म ही है)।

व्याख्या - तैत्तिरीयोपनिषद्‌ की ब्रह्मानन्दवल्ली के आरम्भ में जो यह मन्त्र आया है कि-'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान सह ब्रह्मणा विपश्चिता । 'अर्थात् 'ब्रह्म सत्य, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है। वह ब्रह्म विशुद्ध आकाशस्वरूप परम धाम में रहते हुए ही सबके हृदयरूप गुफा में छिपा हुआ है; जो उसको जानता है, वह सबको भलीभाँति जानने वाले ब्रह्म के साथ समस्त भोगों का अनुभव करता है। इस मन्त्र द्वारा वर्णित ब्रह्म को यहाँ 'मान्त्रवर्णिक' कहा गया है। जिस प्रकार उक्त मन्त्र में उस परब्रह्म को सबका अन्तरात्मा बताया गया है, उसी प्रकार ब्राह्मण-ग्रन्थ में 'आनन्दमय' को सबका अन्तरात्मा कहा है। इस प्रकार दोनों स्थलों की एकता के लिये यही मानना उचित है कि 'आनन्दमय' शब्द यहाँ ब्रह्म का ही वाचक है, अन्य किसी का नहीं।

सम्बन्ध - यदि 'आनन्दमय' शब्द को जीवात्मा का वाचक मान लिया जाय तो । क्या हानि है ? इसपर कहते हैं-


नेतरोऽनुपपत्तेः ॥ १।१।१६॥

इतरः- ब्रह्म से भिन्न जो जीवात्मा है, वह; न - आनन्दमय नहीं हो सकता; अनुपपत्तेः - क्योंकि पूर्वापर के वर्णन से यह बात सिद्ध नहीं होती।

व्याख्या - तैत्तिरीयोपनिषद्‌ की ब्रह्मानन्दवल्ली में आनन्दमय का वर्णन करने के अनन्तर यह बात कही गयी है कि 'सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत स तपस्तत्वा इदं सर्वमसृजत ।' 'उस आनन्दमय परमात्मा ने यह इच्छा की कि मैं बहुत होऊँ, जन्म ग्रहण करूँ, फिर उसने तप (संकल्प) किया । तप करके समस्त जगत् की रचना की।' (तै० उ०२।६) यह कथन जीवात्मा के लिये उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जीवात्मा अल्पज्ञ और परिमित शक्तिवाला है, जगत् की रचना आदि कार्य करने की उसमें सामर्थ्य नहीं है। अतः 'आनन्दमय' शब्द जीवात्मा का वाचक नहीं हो सकता।

सम्बन्ध - यही बात सिद्ध करनेके लिये दूसरा कारण बतलाते हैं -

भेदव्यपदेशाच्च ॥ १।१ । १७ ॥

भेदव्यपदेशात् - जीवात्मा और परमात्मा को एक दूसरे से भिन्न बतलाया गया है, इसलिये; च - भी ('आनन्दमय' शब्द जीवात्मा का वाचक नहीं हो सकता) ।
व्याख्या - उक्त वल्ली में आगे चलकर (सातवें अनुवाकमें) कहा है कि 'यह जो ऊपर के वर्णन में 'सुकृत' नाम से कहा गया है वही रसस्वरूप है। यह जीवात्मा इस रसस्वरूप परमात्मा को पाकर आनन्दयुक्त हो जाता है। इस प्रकार यहाँ परमात्मा को आनन्ददाता और जीवात्मा को इसे पाकर आनन्दयुक्त होने वाला बताया गया है। इससे दोनों का भेद सिद्ध होता है। इसलिये भी 'आनन्दमय' शब्द जीवात्मा का वाचक नहीं है।

सम्बन्ध - आनन्द का हेतु जो सत्त्वगुण है, वह त्रिगुणात्मिका जड़ प्रकृति में भी विद्यमान है ही; अतः 'आनन्दमय' शब्द को प्रकृति का ही वाचक क्यों न मान लिया जाय ? इस पर कहते हैं-

कामाच्च नानुमानापेक्षा ॥ १।१ । १८ ॥

च - तथा; कामात् - ('आन्दमय' में) कामना का कथन होने से; अनुमानापेक्षा - (यहाँ) अनुमान-कल्पित जड़ प्रकृति को 'आनन्दमय' शब्द से ग्रहण करने की आवश्यकता; न - नहीं है।

व्याख्या - उपनिषद् जहाँ 'आनन्दमय' का प्रसङ्ग आया है, वहाँ 'सोऽकामयत' इस वाक्य के द्वारा आनन्दमय में सृष्टिविषयक कामना का होना बताया गया है, जो कि जड़ प्रकृति के लिये असम्भव है। अतः उस प्रकरणमें वर्णित 'आनन्दमय' शब्द से जड़ प्रकृति को नहीं ग्रहण किया जा सकता।

सम्बन्ध - परब्रह्म परमात्माके सिवा, प्रकृति या जीवात्मा कोई भी 'आनन्दमय' शब्दसे गृहीत नहीं हो सकता इस बात को दृढ़ करते हुए प्रकरण का उपसंहार करते हैं -

अस्मिन्नस्य च तद्योगं शास्ति ॥ १।१। १९ ॥

च - इसके सिवा; अस्मिन् - इस प्रकरणमें (श्रुति); अस्य-  इस जीवात्माका; तद्योगम् - उस आनन्दमय से संयुक्त होना (मिल जाना); शास्ति - बतलाती है (इसलिये जड़ तत्त्व या आनन्दमय नहीं है।

व्याख्या - तै० उ० (२८) में श्रुति कहती है कि 'स य एवं विद् एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति' अर्थात् 'इस आनन्दमय परमात्मा के तत्व को इस प्रकार जानने वाला विद्वान् अन्नमयादि समस्त शरीरों के आत्मस्वरूप आनन्दमय ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।' बृहदारण्यक में भी श्रुति का कथन है कि 'ब्रहौव सन् ब्रह्माप्येति'- ' (कामना रहित आप्तकाम पुरुष) ब्रह्मरूप होकर ही ब्रह्ममें लीन होता है' (बृ० उ०४।४।६)। श्रुति के इन वचनों से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि जड़ प्रकृति या जीवात्मा को 'आनन्दमय' नहीं माना जा सकता; क्योंकि चेतन जीवात्मा का जड़ प्रकृति में अथवा अपने ही जैसे परतन्त्र दसरे किसी जीव में लय होना नहीं बन सकता। इसलिये एकमात्र परब्रह्म परमेश्वर ही 'आनन्दमय' शब्द का वाच्यार्थ है और वही सम्पूर्ण जगत् का कारण है; दूसरा कोई नहीं।

सम्बन्ध - तैत्तिरीय-श्रुति में जहाँ आनन्दमय का प्रकरण आया है, वहाँ "विज्ञानमय' शब्द से जीवात्मा को ग्रहण किया गया है, किंतु बृहदारण्यक (४।४। २२) में 'विज्ञानमय' को हृदयाकाश में शयन करने वाला अन्तरात्मा बताया गया है। अतः जिज्ञासा होती है कि वहाँ 'विज्ञानमय' शब्द जीवात्मा का वाचक है अथवा ब्रह्म का ? इसी प्रकार छान्दोग्य. (21815) में जो सूर्यमण्डलान्तर्वती हिरण्मय पुरुष का वर्णन आया है, वहाँ भी यह शङ्का हो सकती है कि इस मन्त्र में सूर्य के अधिष्ठाता देवता का वर्णन हुआ है या ब्रह्म का? अतः इसका निर्णय करने के लिये आगे का प्रकरण आरम्भ किया जाता है।

अन्तस्तद्धर्मोपदेशात् ॥ १।१।२०।

अन्तः - हृदय के भीतर शयन करने वाला विज्ञानमय तथा सूर्यमण्डल के भीतर स्थित हिरण्मय पुरुष ब्रह्म है; तद्धर्मोपदेशात् - क्योंकि (उसमें) उस ब्रह्म के धर्मो का उपदेश किया गया है।

व्याख्या - उपर्युक्त बृहदारण्यक श्रुति में वर्णित विज्ञानमय पुरुष के लिये इस प्रकार विशेषण आय है-'सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः एष सर्वेश्वर एष भूतपालः' इत्यादि । तथा छान्दोग्यवर्णित सूर्यमण्डलान्तर्वर्ती पुरुष के लिये 'सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदितः' (सब पापों से ऊपर उठा हुआ) यह विशेषण दिया गया है। ये विशेषण परब्रह्म परमेश्वर में ही सम्भव हो सकते है। किसी भी स्थिति को प्राप्त देव, मनुष्य आदि योनियों में रहने वाले जीवात्मा के ये धर्म नहीं हो सकते। इसलिये वहाँ परब्रह्म परमेश्वर को ही विज्ञानमय तथा सूर्यमण्डलान्तवर्ति हिरण्मय पुरुष समझना चाहिये; अन्य किसी को नहीं।

सम्बन्ध - इसी बातको सिद्ध करने के लिये दूसरा हेतु प्रस्तुत करते हैं -

भेदव्यपदेशाच्चान्यः ॥ १।१।२१ ॥

च - तथा; भेदव्यपदेशात् - भेद का कथन होने से; अन्यः - सूर्यमण्डलान्तवर्ती हिरण्मय पुरुष सूर्य के अधिष्ठाता देवता से भिन्न है।

व्याख्या - बृहदारण्यकोपनिषद्‌ के अन्तर्यामि ब्राह्मण में कहा है कि - 'य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ।' 'अर्थात् जो सूर्य में रहने वाला सूर्य का अन्तर्वर्ती है, जिसे सूर्य नहीं जानता, सूर्य जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर सूर्य का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।' इस प्रकार वहाँ सूर्यान्तवर्ती पुरुष का सूर्य के अधिष्ठाता देवता से भेद बताया गया है। इसलिये वह हिरण्मय पुरुष सूर्य के अधिष्ठाता से भिन्न परब्रह्म परमात्मा ही है।

सम्बन्ध - यहाँ तक के विवेचन से यह सिद्ध किया गया कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त और उपादान कारण परब्रह्म परमेश्वर ही है। जीवात्मा या जड़ प्रकृति नहीं। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि श्रुति (छा० उ० १।९।१) में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण आकाश को भी बताया गया है, फिर ब्रह्म का लक्षण निश्चित करते हुए यह कैसे कहा गया कि जिससे जगत् के जन्म आदि होते हैं, वह ब्रह्म है। इस पर कहते हैं।

आकाशस्तल्लिङ्गात् ॥१।१।२२॥

आकाशः - (वहाँ) 'आकाश' शब्द परब्रह्म परमात्मा का ही वाचक है, तल्लिङ्गात - क्योंकि (उस मन्त्रमें) जो लक्षण बताये गये हैं, वे उस ब्रह्म के ही हैं।

व्याख्या- छान्दोग्य (१।९।१) में इस प्रकार वर्णन आया है 'सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त आकाशम्प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानाकाशः परायणम् ।' अर्थात् 'ये समस्त भूत (पञ्चतत्त्व और समस्त प्राणी) निःसन्देह आकाश से ही उत्पन्न होते हैं और आकाश में ही विलीन होते हैं। आकाश ही इन सबसे श्रेष्ठ और बड़ा है। वही इन सबका परम आधार है।' इसमें आकाश के लिये जो विशेषण आये है वे भूताकाश में सम्भव नहीं हैं; क्योंकि भूताकाश तो स्वयं भूतों के समुदाय में आ जाता है। अतः उससे भूतसमुदाय की या प्राणियों की उत्पत्ति बतलाना सुसङ्गत नहीं है। उक्त लक्षण एकमात्र परब्रह्म परमात्मा में ही सङ्गत हो सकते हैं। वही सर्वश्रेष्ठ, सबसे बड़ा और सर्वाधार है; अन्य कोई नहीं। इसलिये यही सिद्ध होता है कि उस श्रुति में 'आकाश' नाम से परमेश्वर  को हो जगत् का कारण बताया गया है।

सम्बन्ध - अब प्रश्न उठता है कि श्रुति (छा० उ०111115) में आकाश की ही भाँति प्राणको भी जगत् का कारण बतलाया गया है। वहाँ 'प्राण' शब्द किसका वाचक है? इसपर कहते हैं -

अत एव प्राणः ॥ १।१।२३ ॥

अत एव - इसीलिये अर्थात् श्रुति में कहे हुए लक्षण ब्रह्म में ही सम्भव है, इस कारण वहाँ, प्राणः- प्राण (भी ब्रह्म ही है)।

व्याख्या - छान्दोग्य (१। ११ । ५) में कहा है कि अर्थात् 'निश्चय ही ये सब भूत प्राणमें ही विलीन होते हैं और प्राणसे ही उत्पन्न होते हैं। ये लक्षण प्राणवायु में नहीं घट सकते; क्योंकि समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका कारण प्राणवायु नहीं हो सकता। अतः यहाँ 'प्राण' नामसे ब्रह्मका ही वर्णन हुआ है, ऐसा मानना चाहिये।

सम्बन्ध - पूर्व प्रकरण में तो ब्रह्मसूचक लक्षण होने से आकाश तथा प्राण को ब्रह्म का वाचक मानना उचित है; किन्तु छान्दोग्योपनिषद् (३।१३।७) में जिस ज्योति (तेज) को समस्त विश्व से ऊपर सर्वश्रेष्ठ परमधाम में प्रकाशित बताया है तथा जिसकी शरीरान्तर्वती पुरुषमें स्थित ज्योति के साथ एकता बतायी गयी है, उसके लिये वहाँ कोई ऐसा लक्षण नहीं बताया गया है. जिससे उस को ब्रह्म का वाचक माना जाए । इसलिए यह जिज्ञासा होती है कि उक्त ज्योतिः शब्द किसका वाचक है ? इस पर कहते हैं -

ज्योतिश्चरणाभिधानात् ॥ १।१ । २४ ॥

चरणाभिधानात् - (उस प्रसङ्ग में) उक्त ज्योति के चार पादों का कथन होने से; ज्योतिः - 'ज्योतिः' शब्द वहाँ ब्रह्म का वाचक है।

व्याख्या - छान्दोग्योपनिषद्‌ के तीसरे अध्याय में 'ज्योतिः' का वर्णन इस प्रकार हुआ है - 'अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषे ज्योतिः ।। (३।१३। ७) अर्थात् 'जो इस स्वर्गलोक से ऊपर परम ज्योति प्रकाशित हो रही है, वह समस्त विश्व के पृष्ठ पर (सबके ऊपर), जिससे उत्तम दूसरा कोई लोक नहीं है, उस सर्वोत्तम परमधाम में प्रकाशित हो रही है, वह निस्सन्देह यही है। जो कि इस पुरुष में आन्तरिक ज्योति है।' इस प्रसङ्ग में आया हुआ 'ज्योतिः' शब्द जड़ प्रकाश का वाचक नहीं है, यह बात तो इसमें वर्णित लक्षणों से ही स्पष्ट हो जाती है तथापि यह 'ज्योतिः' शब्द किसका वाचक है ? ज्ञान का या जीवात्मा का अथवा ब्रह्म का ? इसका निर्णय नहीं होता; अतः सूत्रकार कहते है कि यहाँ जो 'ज्योतिः' शब्द आया है, वह ब्रह्म का ही वाचक है; क्योंकि इसके पूर्व बारहवें खण्ड में इस ज्योतिर्मय ब्रह्म के चार पादों का कथन है और समस्त भूतसमुदाय को उसका एक पाद बताकर शेष तीन पादों को अमृतस्वरूप तथा परमधाम में स्थित बताया है। इसलिये इस प्रसङ्ग में आया हुआ 'ज्योतिः। शब्द ब्रह्म के सिवा अन्य किसी का वाचक नहीं हो सकता।
    माण्डूक्योपनिषद् मन्त्र ४ और १० में आत्मा के चार पादों का वर्णन करते हुए उसके दूसरे पाद को 'तैजस' कहा है। यह 'तैजस' भी 'ज्योति' का पर्याय ही है। अतः 'ज्योतिः' की भाँति 'तेजस' शब्द भी ब्रह्म का ही वाचक है, जीवात्मा या अन्य किसी प्रकाश का नहीं। इस बात का निर्णय भी इसी प्रसङ्ग के अनुसार समझ लेना चाहिये ।

सम्बन्ध - यहाँ यह शङ्का होती है कि छान्दोग्योपनिषद्‌ के तीसरे अध्याय के बारहवें खण्ड में 'गायत्री के नाम से प्रकरण का आरम्भ हआ है। गायत्री एक छन्द का नाम है। अतः उस प्रसङ्ग में ब्रह्म का वर्णन है. यह कैसे माना जाय ? इस पर कहते हैं -

छन्दोऽभिधानान्नेति चेन्न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम् ॥ १। १ । २५ ॥

चेत् - यदि कहो (उस प्रकरणमें); छन्दोऽभिधानात् - गायत्री छन्दका का कथन होने के कारण (उसी के चार पादों का वर्णन है); न - ब्रह्म के चार पादों का वर्णन नहीं है, इति - न तो यह ठीक नहीं क्योंकि); तथा उस प्रकार के वर्णन द्वारा; चेतोऽर्पणनिगदात् - ब्रहा में चित्त का समर्पण बताया गया है, तथा हि दर्शनम् - वैसा ही वर्णन दूसरी जगह भी देखा जाता है।

व्याख्या - पूर्व प्रकरण में 'गायत्री ही यह सब कुछ है' (छा० उ० ३ । १२ । १) इस प्रकार गायत्री छन्द का वर्णन होने से उसी के चार पादों का वहाँ वर्णन है, ब्रह्म का नहीं; ऐसी धारणा बना लेना ठीक नहीं है । क्योंकि गायत्री नामक छन्द के लिये यह कहना नहीं बन सकता कि यह जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् गायत्री ही है। इसलिये यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि सबका परम कारण सर्वात्मक परब्रह्म परमेश्वर में चित्त का स माधान करने के लिये उस ब्रह्म का ही वहाँ इस प्रकार गायत्री-नाम से वर्णन किया गया है। इसी तरह अन्यत्र भी उद्गीथ, प्रणव आदि नामों के द्वारा ब्रह्म का वर्णन देखा जाता है। सूक्ष्म तत्त्व में बुद्धि का प्रवेश कराने के लिये, किसी प्रकार की समानता को लेकर स्थूल वस्तु के नाम से उसका वर्णन करना उचित ही है।

सम्बन्ध - इस प्रकरण में 'गायत्री' शब्द ब्रह्म का ही वाचक है, इस बात की पुष्टि के लिये दूसरी युक्ति प्रस्तुत करते हैं

भूतादिपादव्यपदेशोपपत्तेश्चैवम् ॥ १।१।२६ ॥

भूतादिपादव्यपदेशोपपत्तेः - (यहाँ ब्रह्म को ही गायत्री के नाम से कहा गया है, यह मानने से ही) भूत आदि को पाद बतलाना युक्तिसंगत हो सकता है, इसलिये; च - भी; एवम् - ऐसा ही है।

व्याख्या - छान्दोग्य (३।१२) के प्रकरण में गायत्री को भूत, पृथिवी, शरीर और हृदयरूप चार पादों से युक्त बताया गया है। फिर उसकी महिमा का वर्णन करते हुए 'पुरुष' नाम से प्रतिपादित परब्रह्म परमात्मा के साथ उसकी एकता करके समस्त भूतोंको (अर्थात् प्राणि-समुदाय को) उसका एक पाद बतलाया गया है और अमृतस्वरूप तीन पादों को परमधाम में स्थित कहा गया है (छा० उ०३। १२ । ६) । इस वर्णन की सङ्गति तभी लग सकती है, जब कि 'गायत्री' शब्द को गायत्री छन्द का वाचक न मानकर परब्रह्म परमात्मा का वाचक माना जाय। इसलिये यही मानना ठीक है।

सम्बन्ध - उक्त सिद्धान्त की पुष्टि के लिये सूत्रकार स्वयं ही शङ्का उपस्थित करके उसका समाधान करते हैं

उपदेशभेदान्नेति चेन्नोभयस्मिन्नप्यविरोधात् ॥११॥२७॥

चेत् - यदि कहो; उपदेशभेदात् - उपदेश में भिन्नता होने से; न - गायत्री शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं है; इति न - तो यह कथन ठीक नहीं है, उभयस्मिन् अपि अविरोधात् - क्योंकि दो प्रकार का वर्णन होने पर भी (वास्तव में) कोई विरोध नहीं है।
व्याख्या - यदि कहा जाय कि पूर्वमन्त्र (३ । १२ । ६) में तो 'तीन पाद दिव्यलोक में है' यह कहकर दिव्य लोक को ब्रह्म के तीन पादों का आधार बताया गया है और बाद में आये हुए मन्त्र (३ । १३ । ७) में 'ज्योतिः' नाम से वर्णित ब्रह्म को उस दिव्यलोक से परे बताया है। इस प्रकार पूर्वापर के वर्णन में भेद होने के कारण गायत्री को ब्रह्मा का वाचक बताना सङ्गत नहीं है, तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि दोनों जगह के वर्णन की शैली में किचित् भेद होने पर भी वास्तव में कोई विरोध नहीं है। दोनों स्थलों में श्रुति का उद्देश्य गायत्री शब्द वाच्य तथा ज्योतिः शब्द वाच्य ब्रह्म को सर्वोपरि परम धाम में स्थित बतलाना ही है।

सम्बन्ध - 'अत एव प्राणः' (१1१। २३) इस सूत्र में यह सिद्ध किया गया है कि उस श्रुति में 'प्राण' नाम से ब्रह्म का ही वर्णन है। किंतु कौषीतकि-उपनिषद् (३२) में प्रतर्दन के प्रति इन्द्र ने कहा है कि 'मैं ज्ञानस्वरूप प्राण हैं, तू आयु तथा अमृतरूप से मेरी उपासना कर।' इसलिये यह जिज्ञासा होती है कि इस प्रकरण में आया हुआ 'प्राण' शब्द किसका वाचक है ? इन्द्र का प्राणवायु का ? जीवात्मा का ? अथवा ब्रह्म का ? इस पर कहते हैं

प्राणस्तथानुगमात् ।। १।१ । २८ ॥

प्राणः - प्राण शब्द (यहाँ भी ब्रहा का ही वाचक है), तथानुगमात् - क्योंकि पूर्वापर के प्रसङ्गपर विचार करने से ऐसा ही ज्ञात होता है।

व्याख्या - इस प्रकरण में पूर्वापर प्रसङ्ग पर भलीभाँति विचार करने से 'प्राण' शब्द ब्रह्म का ही वाचक सिद्ध होता है, अन्य किसी का नहीं; क्योंकि आरम्भ में प्रतर्दन ने परम पुरुषार्थ रूप वर माँगा है। उसके लिये परम हित पूर्ण इन्द्र के उपदेश में कहा हुआ 'प्राण' 'ब्रह्म' ही होना चाहिये। ब्रह्मज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई हितपूर्ण उपदेश  नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त उक्त प्राण को वहाँ प्रज्ञान स्वरूप बतलाया गया है जो कि ब्रह्मके ही अनुरूप है तथा अन्त में उसी को आनन्दस्वरूप अजर एवं अमर कहा गया है। फिर उसी को समस्त लोकों का पालक, अधिपति एवं सर्वेश्वर बताया गया है। ये सब बातें ब्रह्म के ही उपयुक्त है। प्रसिद्ध प्राणवायु, इन्द्र अथवा जीवात्मा के लिये ऐसा कहना उपयुक्त नहीं हो सकता। इसलिये यही समझना चाहिये कि यहाँ 'प्राण' शब्द ब्रह्मका ही वाचक है।

सम्बन्ध- उक्त प्रकरण में इन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में स्वयं अपने को ही प्राण कहा है। इन्द्र एक प्रभावशाली देवता तथा अजर, अमर है ही; फिर वहाँ 'प्राण' शब्द को इन्द्र का ही वाचक क्यों न मान लिया जाय ? इस पर कहते हैं - 

न वक्तुरात्मोपदेशादिति चेदध्यात्मसम्बन्धभूमा ह्यस्मिन् ॥१।१।२९ ॥

चेत् = यदि कहो; वक्तुतः= वक्ता (इन्द्र) का (उदेश्य); आत्मोपदेशात् = अपने को ही 'प्राण' नाम से बतलाना है, इसलिये; = प्राण शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता इति- (तो) यह कथन; (न)-ठीक नहीं है। हि- क्योंकि; अस्मिन् - इस प्रकरण में, अध्यात्मसम्बन्धभूमा = अध्यात्म सम्बन्धी उपदेश की बहुलता है।

व्याख्या - यदि कहो कि इस प्रकरण में इन्द्र ने स्पष्ट रूप से अपने आपको ही प्राण बतलाया है, ऐसी परिस्थिति में 'प्राण' शब्द को इन्द्र का वाचक न मानकर ब्रह्म का वाचक मानना ठीक नहीं है; तो ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि इस प्रकरण में अध्यात्म सम्बन्धी वर्णन की बहुलता है। यहाँ आधिदैविक वर्णन नहीं है; अतः उपास्य रूप से बतलाया हुआ तत्त्व इन्द्र नहीं हो सकता। इसलिये यहाँ 'प्राण' शब्द को ब्रह्म का ही वाचक समझना चाहिये ।

सम्बन्ध - यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि 'प्राण' शब्द इन्द्र का वाचक नहीं है। तो इन्द्र ने जो यह कहा कि 'मैं ही प्रज्ञान स्वरूप प्राण हूं तू मेरी उपासना कर ।' इस कथन की क्या गति होगी? इस पर कहते हैं -

शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् ॥ १।१।३०॥

उपदेशः - (यहाँ) इन्द्र का अपने को प्राण बतलाना; तु - तो, वामदेववत् = वामदेव की भांति; शास्त्रदृष्टया (केवल) शास्त्र-दृष्टि से है।

व्याख्या - बृहदारण्यकोपनिषद् (१।४।१०) में यह वर्णन आया है कि 'तद् यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्तथर्षीणां तथा मनुष्याणां तद्वैतत्पश्यनृषिर्वामदेवः प्रतिपेदेऽहं मनुरभवं सूर्यश्चेति ।' अर्थात् 'उस ब्रह्म को देवताओं में जिसने जाना, वही ब्रह्मरूप हो गया। इसी प्रकार ऋषियों और मनुष्यों में भी जिसने उसे जाना, वह तद्रूप हो गया। उसे आत्म रूप से देखते हए ऋषि वामदेव ने जाना कि 'मैं मनु हुआ और मैं ही सूर्य हुआ।' इससे यह बात सिद्ध होती है कि जो महापुरुष उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, वह उसके साथ एकता का अनुभव करता हुआ ब्रह्मभावापन्न होकर ऐसा कह सकता है। अत एव उस वामदेव ऋषि की भाँति ही इन्द्र का ब्रह्मभावापन्न अवस्था में शास्त्रदृष्टि से यह कहना है कि 'मैं ही ज्ञानस्वरूप प्राण हूँ अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हूँ। तू मुझ परमात्मा की उपासना कर ।' अतः 'प्राण' शब्द को ब्रह्मका वाचक मानने में कोई आपत्ति नहीं रह जाती।

सम्बन्ध - प्रकारान्तर से श‌ङ्का उपस्थित करके उसके समाधान द्वारा प्राण को, ब्रह्म का वाचक सिद्ध करते हुए इस प्रकरण का उपसंहार करते हैं-

जीवमुख्यप्राणलि‌ङ्गान्नेति चेन्नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वादिह तद्योगात् ॥ १ । १ । ३१ ॥

चेत् = यदि कहो; जीवमुख्यप्राणलिङ्ङ्गात् (इस प्रसङ्गके वर्णनमें ) जीवात्मा तथा प्रसिद्ध प्राण के लक्षण पाये जाते हैं, इसलिये; न - प्राण शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं है; इति न - तो यह कहना ठीक नहीं है, उपासात्रैविध्यात् - क्योंकि ऐसा मानने पर त्रिविध उपासना का प्रसङ्ग उपस्थित होगा; आश्रितत्वात् = (इसके सिवा) सब लक्षण ब्रह्म के आश्रित हैं ( तथा); इह तद्योगात् = इस प्रसङ्ग में ब्रह्म के लक्षणों का भी कथन है इसलिये (यहाँ 'प्राण' शब्द ब्रह्म का ही वाचक है)।

व्याख्या - कौषीतकि-उपनिषद (३।८) के उक्त प्रसङ्ग में जीव के लक्षणों का इस प्रकार वर्णन हुआ है-'न वाचं विजिज्ञासीत । वक्तारं विद्यात् ।' अर्थात् 'वाणी को जानने की इच्छा न करें। वक्ता को जानना चाहिये।' यहाँ वाणी आदि कार्य और करण के अध्यक्ष जीवात्मा को जानने के लिये कहा है। इसी प्रकार प्रसिद्ध प्राण के लक्षण का भी वर्णन मिलता है - 'अथ खलु प्राण एव प्रज्ञात्मेदं शरीरं परिगृह्योत्थापयति । (३।३) अर्थात् 'निस्संदेह प्रज्ञानात्मा प्राण ही इस शरीर को ग्रहण करके उठाता है। शरीर को धारण करना मुख्य प्राण का ही धर्म है। इस कथन को लेकर यदि यह कहो कि 'प्राण' शब्द ब्रह्म वाचक नहीं होना चाहिये, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त जीव और प्राण को भी उपास्य मानने से विविध उपासना का प्रसङ्ग उपस्थित होगा, जो उचित नहीं है। इसके सिवा, जीव और प्राण आदि के धर्मों का आश्रय भी ब्रह्म ही है, इसलिये ब्रह्म के वर्णन में उनके धर्मों का आना अनुचित नहीं है। यहाँ ब्रह्म के लोकाधिपति, लोकपाल आदि लक्षणों का भी स्पष्ट वर्णन मिलता है। इन सब कारणों से यहाँ 'प्राण' शब्द ब्रह्म का ही वाचक है। इन्द्र, जीवात्मा अथवा प्रसिद्ध प्राण का नहीं-यही मानना ठीक है।

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