सोमवार, 8 जून 2020

स्तोत्र

               विष्णुषट्पदीस्तोत्रम्

 अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णाम् ।
  भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ॥ १॥

अर्थ - हे विष्णु भगवान ! मेरा अविनय दूर करो, मेरे मन का दमन करो, विषयों की मृगतृष्णा को शांत करो । प्राणी मात्र पर मेरा दया भाव बढ़ाओ और मुझे इस संसार से पार कराओ ।

        दिव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे ।
        श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे वन्दे ॥ २॥
अर्थ - जिनका रसामृत गंगा जी है, जिनकी सुगंध का उपभोग सच्चिदानंद लेते हैं तथा जो संसार के भय और खेद को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति भगवान के चरण कमलों की मैं वंदना करता हूं ।

         सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वं ।
         सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ॥ ३॥ 
अर्थ - हे नाथ! मेरे तुम्हारे का भेद समाप्त हो गया है, फिर भी मैं आपका हूं पर आप मेरे नहीं है । जैसे तरंगे समुद्र की होती हैं, परंतु समुद्र तरंगों का नहीं होता है ।

     उद्धृतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे ।
     दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कारः ॥ ४॥
अर्थ - हे गोवर्धनधारी ! हे इंद्र के लघु भ्राता (वामन) ! हे राक्षस कुल के शत्रु ! हे सूर्य चंद्र रूपी नेत्रों वाले ! आप जैसे प्रभावशाली प्रभु के दर्शन होते ही क्या संसार की उपेक्षा नहीं होती है ? अर्थात् अवश्य होती है ।

          मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवतावता सदा वसुधां ।
          परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोहं ॥ ५॥
अर्थ - हे परमेश्वर ! संसार के त्रिविध तापों से भयभीत हुआ मैं, मत्स्य आदि अवतार धारण कर पृथ्वी की रक्षा करने वाले आपके द्वारा रक्षा करने योग्य हूं ।

         दामोदर गुणमन्दिर सुन्दरवदनारविन्द गोविन्द ।
         भवजलधिमथनमन्दर परमं दरमपनय त्वं मे ॥ ६॥
अर्थ - हे गुणमंदिर दामोदर ! हे मनोहर मुखारविंद वाले गोविंद! हे भवसागर का मंथन करने वाले मंदराचल स्वरूप ! मेरे बड़े भय को दूर कीजिए ।

           नारायण करुणामय शरणं करवाणि तावको चरणौ ।
           इति षट्पदी मदीये वदनसरोजे सदा वसतु ॥ ७॥
अर्थ - हे करुणामय नारायण ! मुझे अपने दोनों चरणों की शरण लेने दो तथा यह षट्पदी  (छः चरणों वाली स्तुति रूपी भ्रमरी) सदा मेरे मुख कमल में निवास करे ।

 ॥ इति श्रीमद् शङ्कराचार्यविरचितं विष्णुषट्पदीस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥

अर्थ - दिन और रात, सायंकाल और प्रातःकाल, शिशिर और वसन्त पुनः पुनः आते हैं। इसी तरह काल की लीला चलती रहती है और आयु बीत जाती है, किन्तु आशारूपी वायु छूटती ही नहीं है। अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द के ही समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानु रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥२॥

अर्थ - दिन में आगे अग्नि और पीछे सूर्य की गरमी शरीर तपाते हैं, रात्रि के समय घुटनों में खींचाव से दबाव पड़ता है; हाथ में भिक्षा मांगकर लाते हैं, वृक्ष के तले ही पड़े रहते हैं, फिर भी आशा का पिंड छूटता ही नहीं है। अतः हे मूढ!नित्य गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥३॥

अर्थ -  अरे ! जब तक तू धन कमाने में लगा हुआ है तभी तक तेरा परिवार तुझसे प्रेम करता है। जब बुढ़ापे में देह जर्जर हो जाएगी, तब घर में तुझे कोई भी नहीं पूछेगा। अतः हे मूढ ! नित्य गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥४॥

अर्थ - कोई  जटा धारण करता है, कोई सिर मुंडाता है, किसी के बाल झड़ जाते हैं, तो कोई गेरुए वस्त्र पहनकर नाना प्रकार के वेष धारण करता है। यह आदमी देखते हुए भी नहीं देखता है और पेट के लिए नाना प्रकार के वेष धारण करता है। अतः हे मूढ़ ! नित्य गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है। 

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिका पीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम्।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥५॥

अर्थ - जिसने भगवद्रीता थोड़ी भी पढ़ी है, जिसने गगांजल की एक बूंद भी पी है, जिसने एक बार भी भगवान कृष्णचन्द्र का पूजन किया है, उसका यमराज क्या बिगाड़ सकता है? अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥६॥

अर्थ - अङ्ग गलित हो गये, सिर के बाल झड़ गये, मुख में दांत नहीं रहे, बूढ़ा हो गया, लाठी लेकर चलने लगा, फिर भी आशापिण्ड को नहीं छोड़ता है। अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है ।

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥७॥
अर्थ - बालक खेल-कूद में आसक्त रहता है, तरुण स्त्री में आसक्त रहता है, वृद्ध भी नाना प्रकार की चिन्ताओं में मन रहता है, मगर परब्रह्म में कोई तल्लीन नहीं होता है। अतः हे मूढ ! तू सदा गोविन्द के ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥८॥
अर्थ - इस संसार में बार बार जन्म, बार बार मरण और बार बार माता के गर्भ में रहना पड़ता है। अतः हे मुरारे! मैं आपकी शरण में आया हूँ, इस अपार संसार से कृपया पार लगाइए। अतः हे मूढ़ ! तू सदा गोविन्द के ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥९॥
अर्थ - रात, दिन, पखवाड़ा, माह, अयन और वर्ष बार बार आते हैं और जाते हैं, फिर भी लोग ईर्ष्या और आशा नहीं छोड़ते हैं। अतः हे मूढ! निरन्तर गोविन्द का ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१०॥

अर्थ - अवस्था ढलने पर काम विकार का क्या उपयोग ? जल सूखने पर जलाशय का क्या उपयोग ? धन नष्ट होने पर परिवार कहाँ रहा? इसी प्रकार तत्त्व का ज्ञान होने पर संसार कहाँ रह जाता है? अतः हे मूढ़ ! सदा गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम्।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥११॥

अर्थ - नारी के स्तन और नाभिस्थान मिथ्या माया और मोह के ही निवासस्थान हैं। ये मांस और चरबी के ही विकार हैं ऐसा बार-बार मन में विचार करके हे मूढ ! सदा गोविन्द के भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१२॥

अर्थ - स्वप्नवत् मिथ्या संसार की आस्था छोड़कर 'तू कौन है, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माता कौन है और पिता कौन है?' इस प्रकार विचार करके सबको असार समझ तथा हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम्।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१३॥
अर्थ - गीता और विष्णुसहस्रनाम का नित्य पाठ करना चाहिए, भगवान विष्णु के स्वरूप का निरन्तर ध्यान करना चाहिए, चित्त को संतजनों के संग में लगाना चाहिए और दीनजनों को धन दान करना चाहिए । अतः हे मूढ़ ! नित्य गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१४॥

अर्थ - जब तक शरीर में प्राण है तभी तक लोग घर कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण निकलने पर शरीर के पास जाने में पत्नी भी डरती है। अतः हे मूढ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१५॥

अर्थ - पहले तो सुख से स्त्री-सम्भोग किया जाता है, किन्तु बाद में शरीर में रोग घर कर लेते हैं। यद्यपि संसार में मृत्यु निश्चित है, फिर भी लोग पापाचरण नहीं छोड़ते हैं। अतः हे मूढ़ ! सदा गोविन्द के भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१६॥

अर्थ - गली में पड़े चिथड़ों से बिस्तर बना लिया, पुण्यापुण्य से अलग रास्ता पकड़ लिया, 'न मैं हूँ, न तू है और न यह संसार है' (ऐसा भी जान लिया), फिर भी किसलिए शोक किया जाता है? अतः हे मूढ ! सदा गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१७॥

अर्थ - कोई गंगासागर जाता है, अनेक व्रत-उपवास करता है अथवा दान करता है तो भी बिना ज्ञान के इन सबसे सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं मिलती है। अतः हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर 'डुकृञ् करणे' की रट तेरी रक्षा नहीं करती है।

॥इति श्रीमद् शङ्कराचार्यविरचितं चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

शुक्रवार, 5 जून 2020

पर्यायवाची शब्द


1. अग्नि -     पावक, ज्वाला, अनल, दहन
2. अनुपम -  अपूर्व, अद्वितीय, अद्भुत, अतुल
3. अमृत -    सोम, सुधा, अमिय, पीयूष
4. अरण्य -   जंगल, वन, कानन, विपिन
5. अश्व -     घोटक, घोड़ा, वाजि, तुरंग
6. असुर -    दनुज, दानव, दैत्य, राक्षस
7. आँख -     नयन, लोचन, नेत्र, चक्षु
8. आनन्द -  सुख, हर्ष, प्रसन्नता, प्रमोद
9. आम -      आम्र, रसाल, सहकार, अमृतफल
10. इच्छा - आकांक्षा, अभिलाषा, मनोरथ, चाह
11. इन्द्र -   सुरपति, देवराज, महेन्द्र, मघवा
12. ईश्वर -   परमेश्वर, परमात्मा, नियंता, सृजनहार
13. उमा -    भवानी, अन्नपूर्णा, शिवा, सती
14. उल्लास - प्रसन्नता, आनन्द, हर्ष, प्रमोद
15. उल्लू - लक्ष्मीवाहन, तमचर, श्रीयान
16. कमल - सरोज, पंकज, अंबुज, नीरज
17. कपड़ा - वस्त्र, वसन, चीर, पट
18. कल्पवृक्ष - कल्पतरु, मन्दार, पारिजात
19. कुबेर - यक्षपति, यक्षेश, धनेश
20. कामदेव - कामेश, मदन, मनोज, अनंग
21.किरण - रश्मि, मयूख, मरीचि, अंशु
22. कोकिल - कोयल, पिक, कोकिला
23. कुत्ता - श्वान, कुक्कुर, शुनक
24. कृष्ण - मोहन, मुरारी, गोपाल, केशव
25. काक - कौवा, वायस, काग
26. कृपा - दया, अनुग्रह, अनुकम्पा
27. क्रोध - कोप, रोष, गुस्सा, आक्रोश
28.खग - विहग, विहंग, पक्षी, पखेरू
29.खल- दुर्जन, दुष्ट, कुटिल, धूर्त
30.खून - रक्त, लह, शोणित, रूधिर
31. गंगा - सुरसरि, देवनदी, भागीरथी
32. गणेश - गणपति, गजानन, लम्बोदर, विनायक
33. गदहा - गर्दभ, धूसर
34. गेह - गृह, घर, भवन, सदन
35. गज - हाथी, हस्ती, कुन्जर, नाग, करी
36. गाय - गौ, धेनु, सुरभि
37.घास - तृण, दुर्वा, दूब, कुश
38. चतुर - विज्ञ, निपुण, नागर, योग्य
39. चन्द्रमा - सोम, शशि, राकेश, इन्दु
40. चन्द्रिका - चाँदनी, कौमुदी, ज्योत्सना
41.चोटी - मूर्धा, शीश, शृंग ।
42. चाँदी - रजत, सौधा, रूपा, रौप्य
43. चोर - साहसिक, तस्कर, दस्यु
44. जंगल -  विपिन, दाव, अरण्य
45. जल -  नीर, पानी, वन
46. जगत् - संसार, जग, विश्व, भुवन, लोक
47. झण्डा - निशान, पताका, ध्वजा
48. तरकश - तुणीर, तण, उपसंग, भाया
49.तलाब - सर, सरोवर, पुष्कर
50. तलवार - असि, करवाल, खड्ग, कृपाण
51.तिमिर - तम, अन्धेरा, अन्धकार
52.तीर - सर, बाण, सायक, नाराच
53. तोता - शुक, कीर, सुग्गा, सुआ
54.दाँत - दन्त, दशन, रद, रदन
55.दास - नौकर, सेवक, अनुचर, चाकर
56. दिन - दिवा, दिवस, वासर
57.दीन - दरिद्र, रंक, कंगाल, निर्धन
58. देवता - देव, सुर, अमर, अमर्त्य, वृन्दारक
59. दाँत - रद, मुखनुर, दन्त, दसन, दंश
60.दुःख - शोक, वेदना, कष्ट, पीड़ा
61.दुर्गा - चण्डिका, सिंहवाहिनी, कातिका, कल्याणी
62. दूध - दुग्ध, क्षीर, पय, अमृत
63. देव - अमर, देवता, सूर, आदित्य
64.द्रव्य - धन, सम्पत्ति, दौलत, विभूति
65.धन - द्रव्य, वित्त, दौलत, सम्पदा, सम्पत्ति
66.धनुष - धनु, पिनाक, चाप, कमान
67.धरती - भू, धरा, पृथ्वी, अवनि
68. नदी - सरिता, तटिनी, तंरगिणी, आपगा
69. पवन - हवा, वायु, समीर, अनिल
70. पहाड़ - पर्वत, गिरि, नग, अचल, भूधर
71. पार्वती - शैलसुता, अम्बिका, गिरिजा, गिरितनया
72. पुत्र - बेटा, पूत, तनय, तनूज, आत्मज
73. पुत्री - बेटी, तनया, सूता, आत्मजा
74. पति - भर्ता, कन्त, स्वामी, बल्लभ, नाथ
75. पत्थर - शिला, प्रस्तर, पाहन, कुलिश, उपल
76.पत्ता - पत्र, पर्ण, पल्लव, पात, दल
77.पद्म - पतंग, सारंग, नभचर, खेचर
78. पृथ्वी - वसुन्धरा, वसुधा, भू, धरा
79.पैर - चरण, पद, पग, पाव
80. पुष्प - प्रसून, गुल, सुमन, फूल
81.पंडित - बुध, कोविद, सुधी, मनीषी
82.प्रकाश - प्रभा, चमक, आलोक, ज्योति
83. पेड़ - तरु, वृक्ष, पादप
84.पक्षी - विहग, विहंग, खग, पखेरू
85. फूल - पुष्प, कुसुम, सुमन, गुल
86. बगीचा - बाग, वाटिका, उपवन, फुलवारी
87. बन्दर - कपि, मर्कट, कीश, बानर
88. बाल - कच, केश, चिकुर, चूल
89.बिजली - चपला, चंचला, दामिनी, तड़ित
90. भौंरा - मधुप, मधुकर, अलि, भंग
91. भाई - तात, अनुज, अग्रज, भ्राता
92. मछली - मत्स्य, मीन, झख, सफरी
93. मदिरा - शराब, मधु, आसव, सुरा
94. लक्ष्मी - रमा, कमला, इन्दिरा, श्री, पद्मा
95. लौह - लोहा, आयस, सार
96. बसन्त - मधुमास, माधव, कुसुमाकर, ऋतुराज
97. वज्र - कुलिस, पवि, अशनि
98. स्वर्ण - कंचन, हेन, हारक, हिरण्य, सोना
99. सरस्वती - गिरा, शारदा, भारती, वीणापाणि
100. सिंह - शेर, केहरि, मृगेन्द्र, केशरी
101. सुन्दर - कलित, ललाम, मंजुल, रूचिर
102. स्त्री - सुन्दरी, कान्ता, कलत्र, रमणी
103. स्वर्ग -  देवलोक, दिव्य
104. साधु - सज्जन, भद्र, सभ्य, शिष्ट
105. शहद - पुष्पकर, मधु, आसव, मकरन्द
106. हवा - वायु, पवन, अनिल, मारुत
107. पानी - जल, नीर, वारि, सलिल
108. समुद्र - जलधि, सिंधु, उदधि, सागर
109. कमल - जलज, नीरज, अम्बुज, सरोज
110. सूर्य - दिनेश, दिनकर, आदित्य, प्रभाकर 
111. चन्द्रमा - चाँद, चन्द्र, हिमांशु, राकेश
112. रावण - दशानन, दशमुख, दशकंधर
113. मनुष्य- आदमी, मानव, मनुज, इन्सान
114. दूध- दुग्ध, क्षीर, पय, गोरस

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...