गुरुवार, 4 जून 2020

श्री नृसिंह स्तोत्रम्

        
ब्रह्मोवाच

                                                    नतोऽस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तये
                                                    विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे ।
                                                    विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान्‌ गुणैः
                                                    स्वलीलया सन्दधतेऽव्ययात्मने ॥

शब्दार्थ - श्री ब्रह्मा उवाच - ब्रह्माजी ने कहा; नतः - नतमस्तक;  अस्मि - हूँ; अनन्ताय - अनन्त भगवान् को; दुरन्त – जिनका अंत ढूँढ़ पाना कठिन है; शक्तये - विभिन्न शक्तियों से युक्त; विचित्र-वीर्याय - नाना प्रकार के पराक्रम से युक्त; पवित्र-कर्मणेजिनके कर्म का फल नहीं होता (चाहे बुरा ही कर्म क्यों न करें, वे भौतिक गुण से दूषित नहीं होते); विश्वस्य – विश्व की; सर्ग सृष्टिस्थिति - पालन; संयमान् - तथा संहार; गुणैः - भौतिक गुणों से; स्व-लीलया - सरलता से; सन्दधते - सम्पन्न करता है; अव्यय-आत्मने जिनके व्यक्तित्व का ह्रास नहीं होता ।

अर्थ - ब्रह्माजी ने प्रार्थना की, हे प्रभु ! आप अनन्त हैं और आपकी शक्तियों का कोई अंत नहीं है । कोई भी आपके पराक्रम तथा अद्भुत प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकता; क्योंकि आपके कर्म कभी माया द्वारा दूषित नहीं होते । आप भौतिक गुणों से सहज ही ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं, लेकिन तो भी आप अव्यय बने रहते हैं । अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ ।

श्रीरुद्र उवाच
                                                कोपकालो युगान्तस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः ।
                                                तत्सुतं पाह्युपसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल ॥

शब्दार्थ - श्री-रुद्रः उवाच - शिवजी ने स्तुति की; कोप-काल: - (ब्रह्माण्ड का संहार करने हेतु) आपके क्रोध का उचित समय; युग-अन्तः – कल्प का अंत; ते - आपके द्वारा; हतः - मारा गया; अयम् - यह; असुरः -महान् दैत्य; अल्पक: - नगण्य; तत्-सुतम् - उसके पुत्र (भक्त प्रह्लाद महाराज) की; पाहि - रक्षा करोउपसृतम् - शरणागत होकर निकट ही खड़ा; भक्तम् - भक्त; ते - आपका; भक्त-वत्सल - हे भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल प्रभु !

अर्थ - शिवजी ने कहा - कल्प का अंत ही आपके क्रोध का समय होता है । अब जबकि यह नगण्य असुर हिरण्यकशिपु मारा जा चुका है, हे भक्तवत्सल प्रभु ! कृपा करके उसके पुत्र भक्त प्रह्लाद महाराज की रक्षा करें, जो आपके निकट पूर्ण शरणागत भक्त के रूप में खड़ा हुआ है ।

श्रीइन्द्र उवाच

                                            प्रत्यानीता: परम भवता त्रायता नः स्वभागा
                                            दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं तद्गृहं प्रत्यबोधि ।
                                            कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते
                                            मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ॥

शब्दार्थ - श्री-इन्द्रः उवाच - स्वर्ग के राजा इन्द्र ने कहा; प्रत्यानीता: - लौटना है; परम - हे परम; भवता - आपके द्वारा; त्रायता - रक्षा किये जाकर; नः - हम; स्व-भागा: - यज्ञ का अंश; दैत्य-आक्रान्तम् - दैत्य से पीड़ित; हृदय-कमलम् - अपने कमल रूपी हृदय; तत्-गृहम् - जो आपका वास्तविक निवास है । प्रत्यबोधि - प्रकाशित किया जा चुका; काल-ग्रस्तम् - समय द्वारा कवलित; कियत् - नगण्य; इदम् - यह (संसार); अहो - ओह; नाथ - हे स्वामी; शुश्रूषताम् - सेवा में लगे रहने वालों के लिए; ते - आपका; मुक्ति: - भवबन्धन से मोक्ष; तेषाम् - उनका (शुद्ध भक्तों का); न - नहीं: हि - नि:संदेह; बहुमता - बहुत आवश्यक समझा; नार-सिंह - हे नृसिंहदेव; अपरैः किम् - अन्य किसी सम्पत्ति से क्या लाभ ?

अर्थ - राजा इन्द्र ने कहा - हे परमेश्वर ! आप हमारे उद्धारक तथा रक्षक हैं । आपने दैत्य से हमारे वास्तविक यज्ञभाग को लौटाया है, जो वास्तव में आपके हैं । चूँकि असुरराज हिरण्यकशिपु अत्यन्त भयानक था, अतः आपके स्थायी निवास हमारे हृदय उसके द्वारा परास्त किये जा चुके थे । अब आपकी उपस्थिति से हमारे हृदयों से निराशा तथा अन्धकार दूर हो गए हैं । हे प्रभु ! जो जन आपकी सेवा में सदैव संलग्न रहते हैं, उनके लिए समस्त भौतिक ऐश्वर्य तुच्छ है; क्योंकि आपकी सेवा मोक्ष से भी श्रेयस्कर है । वे जब मोक्ष की भी चिन्ता नहीं करते तो काम, अर्थ तथा धर्म के विषय में क्या कहा जाए ?

श्रीऋषय ऊचुः
                                                त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो
                                                येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्क्थ ।
                                                तद् विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल 
                                                रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ॥४॥

शब्दार्थ - श्री-ऋषयः ऊचुः - ऋषियों ने कहा; त्वम् - आप; नः - हमारी; तपः - तपस्या; परमम् - सर्वोच्च; आत्थ-उपदेश दिया; यत् - जो; आत्म-तेजः - आपकी आध्यात्मिक शक्ति; येन – जिससे; इदम् - यह (भौतिक जगत्); आदि-पुरुष - हे आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्; आत्म-गतम् - आपके अन्दर लीन; ससर्क्थ - (आपने) उत्पन्न किया; तत् - तप की वह विधि; विप्रलुप्तम् - चुरायी गई; अमुना - उस दैत्य (हिरण्यकशिपु) द्वाराअद्य - अब; शरण्य-पाल - शरणागत के परम पालक; रक्षागृहीत-वपुषा - आपके शरीर द्वारा, जिसे आप रक्षा प्रदान करने हेतु धारण करते हैं; पुनः - फिर; अन्वमंस्था: - आपने अनुमोदित किया है ।

अर्थ - सभी उपस्थित ऋषियों ने उनकी इस प्रकार स्तुति की; हे प्रभु ! हे शरणागतों के पालक ! हे आदिपुरुष ! आपने हमें पूर्व में जिस तपस्या की विधि का उपदेश दिया है, वह आपकी ही आध्यात्मिक शक्ति है । आप तपस्या से ही भौतिक जगत् का सृजन करते हैं । यह तपस्या आप में सुप्त रहती है । इस दैत्य ने अपने क्रियाकलापों से इसी तपस्या को रोक सा रखा था; किन्तु अब हम लोगों की रक्षा करने हेतु आप जिस श्रीनृसिंहदेव के रूप में प्रकट हुए हैं, उससे तथा इस असुर को मारने से तपस्या की विधि का फिर से अनुमोदन हुआ है ।

श्रीपितर ऊचुः
                                                श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजै-
                                                र्दत्तानि तीर्थसमयेऽप्यपिबत् तिलाम्बु ।
                                                तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद् य आर्च्छत् । 
                                                तस्मै नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ॥

शब्दार्थ -  श्री-पितरः ऊचुः - पितृलोक के निवासियों ने कहा; श्राद्धानि – श्राद्धकर्म (मृत पुरखों को एक विशेष विधि से प्रदत्त भोज्य सामग्री); न: - हमारा; अधिबुभुजे-भोग कियाप्रसभम् - बल द्वारा; तनूजैः - अपने पुत्रों-पौत्रों द्वारा; दत्तानि - प्रदत्त; तीर्थ-समये - तीर्थस्थानों में स्नान करते समय; अपि - भी; अपिबत् - पिया; तिल-अम्बु – तिल के साथ जलांजलि; तस्य - उस असुर के; उदरात – पेट सेनख - विदीर्ण - नाखून से फाड़ा गया; वपात् - जिसकी आँतों की चमड़ी; यः - जिन (पूर्ण पुरुषोत्तम) ने; आर्च्छत् - प्राप्त किया; तस्मै - उनको (श्रीभगवान् को); नमः - सादर नमस्कार; नृहरये - नृहरि को जो आधे सिंह तथा आधे पुरुष के रूप में प्रकट हुए; अखिल - वैश्विक; धर्म - धार्मिक नियम; गोप्त्रे - पालन करने वाले ।

अर्थ - पितृलोक के निवासियों ने प्रार्थना की : हम ब्रह्माण्ड के धार्मिक नियमों के पालनकर्ता भगवान् नृसिंहदेव को सादर नमस्कार करते हैं । आपने उस असुर हिरण्यकशिपु को मार डाला है, जो हमारे श्राद्ध के अवसर पर हमारे पुत्रों-पौत्रों द्वारा अर्पित बलि को छीनकर खा जाता था और तीर्थस्थलों पर अर्पित की जाने वाली तिलांजलि को पी जाता था । हे प्रभु ! आपने इस असुर को मारकर अपने नाखूनों से इसके पेट को चीर करके उसमें से समस्त चुराई हुई सामग्री निकाल ली है । अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं ।

श्रीसिद्धा ऊचुः

                                                यो नो गतिं योगसिद्धामसाधु-

                                                रहार्षीद् योगतपोबलेन ।

                                                नानादर्पं तं नखैर्विददार

                                                तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ॥

शब्दार्थ - श्री-सिद्धाः ऊचः - सिद्धलोक के निवासियों ने कहा; यः-जिस व्यक्ति ने; न: - हमारी; गतिम् - सिद्धि को; योग-सिद्धाम् - योग द्वारा प्राप्त; असाधुः - अत्यन्त असभ्य तथा असत्यनिष्ठ; अहार्षीत् - चुरा लिया; योग - योगतपः - तथा तप का; बलेन - बलपूर्वक; नाना दर्पम् - सम्पत्ति, ऐश्वर्य तथा शक्ति के कारण घमण्डी; तम् - उसको; नखैः - नाखूनों से; विददार - चीर डाला; तस्मै - उस; तुभ्यम् - आपकोः । प्रणताः - नतमस्तक; स्मः - हम हैं; नृसिंह - हे नृसिंहदेव !

अर्थ - सिद्धलोक के निवासियों ने प्रार्थना की: हे भगवान् नृसिंहदेव ! हम लोग सिद्धलोक के निवासी होने के कारण आठ प्रकार की योग सिद्धियों में स्वत:सिद्ध होते हैं । तो भी हिरण्यकशिपु इतना धूर्त था कि उसने अपने बल तथा तपस्या से हमारी समस्त शक्तियाँ छीन ली थीं। इस प्रकार वह अपने योगबल के प्रति घमण्डी हो गया था । अब आपके नखों से इस दुष्ट का वध हो जाने के कारण हम आपको सादर नमस्कार करते हैं ।

श्रीविद्याधरा ऊचुः

                                                विद्यां पृथग्धारणयानराद्धां

                                                न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः।

                                                स येन सङ्ख्येपशुवद्धतस्तं

                                                मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ॥

शब्दार्थ - श्री-विद्याधराः ऊचुः- विद्याधरलोक के निवासियों ने प्रार्थना की; विद्याम् - जो विद्याएँ (जिनसे प्रकट तथा अप्रकट हुआ जा सकता है); पृथक् - भिन्न-भिन्न; धारणया - मन के अन्दर विविध ध्यानों से; अनुराधाम् - प्राप्त किया गया; न्यषेधत् - रोक दिया; अज्ञः - इस अल्पज्ञ ने; बल-वीर्य-दृप्तः - शारीरिक शक्ति तथा प्रत्येक को जीत लेने की सामर्थ्य से फूलकर; सः - वह (हिरण्यकशिपु); येन - जिसके द्वारा; सङ्खये - युद्ध में; पशु-वत् - पशु की तरह; हतः - मारा गया; तम् - उनको; माया-नृसिंहम् - अपनी शक्ति के प्रभाव द्वारा नृसिंह रूप में प्रकट होने वाले श्रीनृसिंहदेव को; प्रणताः - विनत; स्म - निश्चय ही; नित्यम् - शाश्वत ।

अर्थ - विद्याधर के निवासियों ने प्रार्थना की: उस मूढ़ हिरण्यकशिपु ने विविध प्रकार के ध्यान के अनुसार प्रकट तथा अप्रकट होने की हमारी शक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया था; क्योंकि उसे अपनी श्रेष्ठ शारीरिक शक्ति तथा अन्य प्राणियों को जीत लेने की सामर्थ्य का घमण्ड था । अब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने उसका उसी प्रकार वध कर दिया है, जैसे वह असुर कोई पशु हो । हम भगवान् नृसिंहदेव के उस लीला रूप को सादर प्रणाम करते हैं ।


श्रीनागा ऊचुः
                                        येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः । 
                                        तद्वक्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोऽस्तु ते ॥

शब्दार्थ - श्री-नागा: ऊचुः - नागलोक के वासी, जो नाग सदृश दिखते हैं; येन - जिस व्यक्ति से; पापेन - अत्यन्त पापी (हिरण्यकशिपु); रत्नानि - हमारे सिरों की मणियाँ; स्त्रीरत्नानि - सुन्दर स्त्रियाँ; हृतानि - हर ली गईं; नः - हमारी; तत् - उसका; वक्षः-पाटनेन - वक्षस्थल को चीरकर; आसाम् - समस्त स्त्रियों का (जिनका अपहरण हुआ था); दत्त - आनन्द के स्रोत; नमः - हमारा सादर नमस्कार; अस्तु - हो; ते - आपके प्रति ।

अर्थ -  नागलोक के निवासियों ने कहा - अत्यन्त पापी हिरण्यकशिपु ने हम सबके फनों की मणियाँ तथा हम सबकी सुन्दर पत्नियाँ छीन ली थीं । अब चूँकि उसके वक्षस्थल को आपने अपने नाखूनों से विदीर्ण कर दिया है, अतएव आप हमारी पत्नियाों की परम प्रसन्नता के कारण हैं । इस प्रकार हम सभी मिलकर आपको सादर नमस्कार करते हैं ।

श्रीमनव ऊचुः
                                                मनवो वयं तव निदेशकारिणो
                                                दितिजेन देव परिभूतसेतवः ।
                                                भवता खलः स उपसंहृतः प्रभो 
                                                करवाम ते किमनुशाधि किङ्करान् ॥

शब्दार्थ - श्री-मनवः ऊचुः - सभी मनुओं ने यह कहकर नमस्कार किया; मनवः - संसारी कार्यों के नायक (विशेष रूप से श्रीभगवान् की सुरक्षा में विधिपूर्वक रहने हेतु मानवता को ज्ञान प्रदान करने में); वयम् - हम; तव - आपके; निदेश-कारिण: - आज्ञापालक; दितिजेन – दिति के पुत्र हिरण्यकशिपु द्वारा; देव - हे प्रभु; परिभूत - अवहेलना करके; सेतवः - मानव-समाज में वर्णाश्रम पद्धति सम्बन्धी नैतिक नियम; भवता - आपके द्वारा; खलः - दुष्ट; सः - वह; उपसंहृतः - मारा गया; प्रभो - हे प्रभु; करवाम - हम करें; ते - आपका; किम् - क्या; अनुशाधि - कृपया आदेश दें; किङ्करान् - अपने शाश्वत सेवकों को ।

अर्थ - समस्त मनुओं ने इस प्रकार प्रार्थना की: हे प्रभो ! हम सभी मनु आपके आज्ञापालक के रूप में मानव-समाज हेतु विधि प्रदान करते हैं; किन्तु इस महान् असुर हिरण्यकशिपु के कुछ काल के प्रभुत्व के कारण वर्णाश्रम धर्मपालन विषयक हमारे नियम नष्ट हो गए थे । हे स्वामी ! अब आपके द्वारा इस महान् असुर का वध हो जाने से हम अपनी सहज स्थिति में हैं । कृपया अपने इन शाश्वत सेवकों को आज्ञा दें कि अब हम क्या करें ।

श्रीप्रजापतय ऊचुः

                                            प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा

                                            न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः ।

                                            स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते 

                                            जगन्मङ्गलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ॥

शब्दार्थ - श्री-प्रजापतयः ऊचुः - विभिन्न प्राणियों को उत्पन्न करने वाले महापुरुषों ने यह कहकर प्रार्थनाएँ की; प्रजा-ईशा: - जीवों की अनेक पीढ़ियों को जन्म देने वाले ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न सभी प्रजापति; वयम् - हम सभी; ते - आपके; पर-ईश - हे परमेश्वर; अभिसृष्टाः - उत्पन्न; न - नहीं; येन - जिस (हिरण्यकशिप) से; प्रजा: - सभी जीव; वै - नि:संदेह; सृजामः - हम उत्पन्न करते हैं; निषिद्धाः - मना किया गया; सः - वह (हिरण्यकशिप); एषः - यह; त्वया - आपके द्वारा; भिन्न-वक्षा: - जिसका वक्षस्थल विदीर्ण किया जा चुका है; नु – नि:संदेह; शेते - शयन करता है; जगत्-मङ्गलम् - सम्पूर्ण जगत् के कल्याण हेतु; सत्त्व-मूर्ते - शुद्ध सत्त्वगुण के दिव्य रूप में; अवतार: - यह अवतार ।

अर्थ - प्रजापतियों ने इस प्रकार स्तुति की: हे परमेश्वर ! हे ब्रह्माजी तथा शिवजी के भी पूज्य प्रभु ! हम सभी प्रजापति आपके द्वारा दी गई आज्ञा के पालन हेतु उत्पन्न किये गए थे; किन्तु हिरण्यकशिपु ने हमें और उत्तम संतान उत्पन्न करने से रोक दिया । अब यह असुर हमारे समक्ष मृत पड़ा है, जिसके वक्षस्थल को आपने विदीर्ण कर दिया है । अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं । क्योंकि इस शुद्ध सात्विक रूप में आपका यह अवतार समग्र ब्रह्माण्ड के कल्याण के निमित्त है ।

श्रीगन्धर्वा ऊचुः

                                                वयं विभो ते नटनाट्यगायका

                                                येनात्मसाद् वीर्यबलौजसा कृताः ।

                                                स एष नीतो भवता दशामिमां 

                                                किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ॥

शब्दार्थ - श्री-गन्धर्वाः ऊचुः - गंधर्वलोक के निवासी (जो सामान्यतः स्वर्ग के गायक होते हैं) बोले; वयम् - हम; विभो - हे प्रभु; ते - आपके; नट-नाट्य-गायका: - नाटक के नर्तक तथा गायक; येन - जिससे; आत्मसात - पराधीन; वीर्य - उसके पराक्रम; बल – तथा शारीरिक शक्ति के; ओजसा - प्रभाव से; कृता: - बने (लाये हुए); सः - वह (हिरण्यकशिपु); एषः – यह; नीतः - लाया गया; भवता - आपके द्वारा; दशाम् इमाम् - इस दशा को; किम् - क्या; उत्पथस्थ: - कुमार्गगामी; कुशलाय - कल्याण हेतु; कल्पते - समर्थ है ।

अर्थ - गंधर्वलोक के निवासियों ने प्रार्थना की : हे भगवान् ! हम नाच तथा अभिनय में गायन द्वारा आपकी सेवा में संलग्न रहते थे; किन्तु इस हिरण्यकशिपु ने अपनी शारीरिक शक्ति तथा पराक्रम से हमें अपने अधीन बना लिया था। अब आपके द्वारा यह इस अधम दशा को प्राप्त हुआ है । भला हिरण्यकशिपु जैसे कुमार्गगामी के क्रियाकलापों से क्या लाभ हो सकता है ?

श्रीचारणा ऊचुः

                                        हरे तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः ।

                                        यदेष साधुहृच्छयस्त्वयासुर: समापितः ॥१

शब्दार्थ - श्री-चारणाः ऊचुः - चारणलोक के निवासियों ने कहा; हरे - हे भगवान; तव - आपके; अति-पङ्कजम् - चरणकमल; भव-अपवर्गम् - संसार के कल्मष से मुक्त होने हेतु एकमात्र शरण; आश्रिताः - शरणागत; यत् - क्योंकि; एषः - यह; साधु-हृत्शयः - समस्त सच्चरित्र मनुष्यों के हृदयों में संकट; त्वया - आपके द्वारा; असुरः - असुर (हिरण्यकशिपु); समापितः - मार डाला गया ।

अर्थ - चारणलोक के निवासियों ने कहा - हे प्रभु ! आपने उस असुर हिरण्यकशिपु को विनष्ट कर दिया, जो समस्त निष्कपट पुरुषों के हृदयों में आतंक बना हुआ था । अब हमें शांति मिली है । हम सभी सदैव आपके उन चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो बद्धजीव को भौतिक कल्मष से मुक्ति दिलाने वाले हैं ।

श्रीयक्षा ऊचुः

                                        वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञै-

                                        स्त इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम् ।

                                        स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते

                                        नरहर उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ॥

शब्दार्थ - श्री-यक्षाः ऊचुः – यक्षलोक के निवासियों ने प्रार्थना की; वयम् - हम; अनुचरमुख्या: - आपके सेवकों में प्रमुख; कर्मभिः - सेवाओं से; ते - आपके; मनोज्ञैः - अत्यन्त अच्छे लगने वाले; ते - वे; इह - इस समय; दिति-सुतेन – दितिपुत्र हिरण्यकशिपु द्वारा; प्रापिता: - बलात् लगाये गए; वाहकत्वम् - कहार के कार्य में; सः - वह; तु – लेकिन; जन-परितापम् - मनुष्य की दयनीय स्थिति; तत्-कृतम् - उसके द्वारा की गई; जानता - जानते हुए; ते - आपके द्वारा; नर-हर - हे नृसिंह रूप; उपनीतः - प्राप्त, लाया गया है; पञ्चताम् - मृत्यु को; पञ्च-विंश - हे पच्चीसवें सिद्धान्त ! (अन्य चौबीस तत्त्वों के नियंत्रक) ।

अर्थ - यक्षलोक के निवासियों ने प्रार्थना की : हे चौबीस तत्त्वों के नियामक ! हम आपको भाने वाली सेवाएँ करने के कारण आपके सर्वश्रेष्ठ सेवक माने जाते हैं, फिर भी दितिपुत्र हिरण्यकशिपु के आदेश पर हमसे पालकी ढोने का कार्य लिया जाता था । हे नृसिंहदेव ! आप यह जानते हैं । कि इस असुर ने किस प्रकार सबको कष्ट पहुँचाया है; किन्तु अब आपने इसका वध कर दिया है और इसका शरीर पंचतत्त्वों में मिल रहा है ।

श्रीकिम्पुरुषा ऊचुः

                                            वयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः ।

                                            अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ॥

शब्दार्थ - श्री-किम्पुरुषाः ऊचुः - किम्पुरुषलोक के निवासियों ने कहा; वयम् - हम; किम्पुरुषा: - किम्पुरुषलोक के निवासी अथवा क्षुद्र प्राणी; त्वम् - आप; तु - फिर भी; महा-पुरुषः - पूर्ण पुरुषोत्तम; ईश्वरः - परम नियन्ता; अयम् - यह; कु-पुरुषः - अत्यन्त पापी पुरुष, हिरण्यकशिपु; नष्टः - वध किया गया; धिक्-कृतः - तिरस्कृत होकर; साधुभिः - साधुपुरुषों द्वारा; यदा - जब ।

अर्थ - किम्पुरुषलोक के निवासियों ने कहा-हम क्षुद्र जीव हैं और आप परम नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । अतएव हम आपकी समुचित स्तुति कैसे कर सकते हैं ? जब भक्तों ने तंग आकर इस असुर का धिक्कार किया, तो आपने इसका वध कर दिया ।

श्रीवैतालिका ऊचुः

                                                सभासु सत्रेषु तवामलं यशो

                                                गीत्वा सपर्यां महतीं लभामहे ।

                                                यस्तामनैषीद् वशमेष दुर्जनो 

                                                द्विष्ट्या हतस्ते भगवन्यथामयः ॥५॥

शब्दार्थ - श्री-वैतालिकाः ऊचुः - वैतालिकलोक के निवासियों ने कहा; सभासु - सभाओं में; सत्रेषु - यज्ञस्थल में; तव - आपका; अमलम् - किसी प्रकार के भी कल्मष से रहित, निर्मल; यश: - यश, कीर्ति; गीत्वा - गाते हुए; सपर्याम् - सम्माननीय पद; महतीम् - महान्; लभामहे - हमने प्राप्त किया; यः - जो; ताम् - उस (आदरणीय पद) को; अनैषीत् - ले आया; वशम् - अपने वश में; एषः - यह; दुर्जनः - कुटिल व्यक्ति; द्विष्ट्या - सौभाग्य से; हतः - मारा गया; ते - आपके द्वारा; भगवन् - हे भगवान्; यथा - जिस प्रकार; आमय: - रोग ।

अर्थ - वैतालिकलोक के निवासियों ने कहा-हे प्रभु ! सभाओं तथा यज्ञस्थलों में आपके विमल यश का गायन करने के कारण प्रत्येक व्यक्ति हमें आदर प्रदान करता था । किन्तु इस असुर ने हमारे उस पद को छीन लिया था । अब हमारा अहोभाग्य है कि आपने इस महान् असुर का उसी प्रकार वध कर दिया जिस प्रकार कोई पुराने रोग को ठीक कर देता है ।

श्रीकिन्नरा ऊचुः

                                                वयमीश किन्नरगणास्तवानुगा

                                                दितिजेन विष्टिममुनानुकारिताः ।

                                                भवता हरे स वृजिनोऽवसादितो

                                                नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ॥

शब्दार्थ - श्री-किन्नरा: ऊचुः - किन्नरलोक के निवासियों ने कहा; वयम् - हम सभी; ईश - हे. ईश्वर; किन्नर-गणा: - किन्नरलोक के निवासी; तव - आपके; अनुगा: - आज्ञाकारी दास; दिति-जेन – दिति के पुत्र द्वारा; विष्टिम् - बिना किसी प्रकार के पारिश्रमिक सेवा, बेगार; अमुना - उससे; अनुकारिता: - कराया गया; भवता - आपके द्वारा; हरे - हे भगवान्; सः - वह; वृजिन: - अत्यन्त पापी; अवसादित: - विनष्ट; नरसिंह - हे नृसिंहदेव; नाथ - हे स्वामी; विभवाय - सुख तथा ऐश्वर्य हेतु; नः - हमारे; भव - हों ।

अर्थ - किन्नरों ने कहा - हे परम नियन्ता ! हम आपके सतत सेवक हैं, लेकिन आपकी सेवा में युक्त न होकर हम निरन्तर सभी इस असुर की बेगारी (बिना पारिश्रमिक की सेवा) में लगाये गए थे । अब आपने इस पापी का वध कर दिया है, अतएव हे नृसिंहदेव ! हे स्वामी ! हम आपको सादर नमस्कार करते हैं । कृपा करके हमारे संरक्षक बने रहें ।

श्रीविष्णुपार्षदा ऊचुः

                                                अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं ते

                                                दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म ।

                                                सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्त-

                                                स्तस्येदं निधनमनुग्रहाय विद्मः ॥

शब्दार्थ - श्री-विष्णु-पार्षदाः ऊचुः - वैकुण्ठलोक के भगवान् श्रीविष्णु के पार्षदों ने कहा; अद्य - आज; एतत् - यह; हरि-नर - आधे सिंह तथा आधे पुरुष; रूपम् - रूप को; अद्भुतम् - अत्यन्त अद्भुत; ते - आपका; दृष्टम् - देखा; नः - हमारा; शरण-द - शाश्वत शरण प्रदान करने वाले; सर्व-लोक-शर्म विभिन्न लोकों में सौभाग्य लाने वाले; स: - वह; अयम् - यह; ते - आपका; विधिकरः - आज्ञापालक (दास); ईश - हे ईश्वर; विप्र-शप्तः – ब्राह्मण द्वारा शापित; तस्य - उसका; इदम् - यह; निधनम् - वध; अनुग्रहाय - विशेष कृपा हेतु; विद्मः - हम समझते हैं ।

अर्थ - श्री विष्णु के वैकुण्ठलोक के पार्षदों ने यह प्रार्थना की : हे स्वामी ! हे परम शरणदाता ! आज हमने श्रीनृसिंहदेव के रूप में आपके अद्भुत रूप का दर्शन किया है, जो समस्त जगत् में सौभाग्य लाने वाला है । हे भगवन् ! हम यह समझते हैं कि हिरण्यकशिपु आपकी सेवा में रत रहने वाला जय ही था; किन्तु उसे ब्राह्मणों ने शाप दे दिया था, जिससे उसे असुर का शरीर प्राप्त हुआ था । हम समझते हैं कि उसका मारा जाना उस पर आपकी विशेष कृपा है ।

(श्रीमद्भागवतम् के सप्तम स्कन्ध के अंतर्गत "भगवान् नृसिंह द्वारा असुरराज का वध" नामक अध्याय में श्री नृसिंह स्तुति है ।)

कोई टिप्पणी नहीं:

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...