बुधवार, 29 दिसंबर 2021

मनुस्मृति


॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥

धर्मस्य सामान्यलक्षणम् -

विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः ।

हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत ॥१॥

इच्छाया: भावाभावौ -

कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता ।

काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥२॥

व्रतानां संकल्पमूलकता -

संकल्पमूल: कामो वै यज्ञाः संकल्पसंभवाः।

व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः ॥३॥

अकामस्य क्रिया काचिद्दृश्यते नेह कर्हिचत्।

यद्यद्धि कुरुते किंचित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम् ॥४॥

तेषु सम्यग् वर्तमानो गच्छत्यमरलोकताम् ।

 यथा संकल्पितांश्चैव सर्वान् कामान् समश्नुते ॥५॥

धर्मप्रमाणम् -

वेदोऽखिलो धर्ममूलम् स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।

आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥६॥

यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः ।

स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ॥७॥

धर्मनिश्चयार्थे विदुषां कर्तव्यम् -

सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा ।

श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै॥८॥

श्रुत्युक्तधर्मफलम् -

श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः।

इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ॥९॥

श्रुतिस्मृतिपरिचयः -

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः ।

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥१०॥

नास्तिकनिन्दा -

योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः ।

स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ॥११॥

चतुर्विधधर्मलक्षणम् -

वेदः स्मृतिः सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मनः ।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥१२॥

श्रुतेः प्रामाणिकता -

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते ।

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ॥१३॥

श्रुतिद्वयविरोधे  द्वयोः प्रामाणिकता -

श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ ।

उभावपि हि तौ धर्मों सम्यगुक्तौ मनीषिभिः ॥१४॥

श्रुतिद्वय-विरोधस्य दृष्टान्तः -

उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा ।

सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः ॥१५॥

धर्मशास्त्रस्य अधिकारी -

निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः ।

तस्य शास्त्रेधिकारोस्मिंज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित् ॥१६॥

ब्रह्मावर्तसीमा -

सरस्वतीदृषद्वत्यो: देवनद्योर्यदन्तरम् ।

तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ॥१७॥

सदाचारलक्षणम् -

 स्मिन् देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः ।

वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ॥१८॥

कुरुक्षेत्रादयः ब्रह्मर्षिदेश: -

कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चाला: सूरसेनकाः।

एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः ॥१९॥

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥२०।।

मध्यदेशस्य सीमा -

हिमवद्-विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि ।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ॥२१॥

आर्यावर्तस्य सीमा -

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।

तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ॥२२॥

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

हिन्दी भाषा का विकास

       
       प्रायः सभी भाषाविदों ने हिन्दी भाषा का वास्तविक आरम्भ 1000 ई. से ही माना है, क्योंकि उस समय तक हिन्दी भाषा लगभग अपने पूर्ण अस्तित्व में आ चुकी थी। इसके उपरान्त उसने साहित्यिक रूप ग्रहण किया और तब से आज तक यह अबाध गति से विकसित होती आ रही है। इस प्रकार हिन्दी भाषा के विकास का इतिहास लगभग 1000 वर्षों का है। काल-विभाजन-ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से हिन्दी भाषा की तीन स्पष्ट अवस्थाओं का बोध होता है। इन विभिन्न अवस्थाओं को प्रायः काल की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। अतः भाषा के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से भाषा के 1000 वर्षों के इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा है

1- आदिकाल (1000 ई० से 1500 ई० तक )

2- मध्यकाल (1500 ई० से 1800 ई० तक)

3- आधुनिककाल (1800 ई० से अब तक)

1- आदिकाल (1000 ई० से 1500 ई० तक) - यह काल राजनीतिक दृष्टि से अशान्ति तथा उथल-पुथल का काल था। प्रवृत्ति के आधार पर इसे संधिकाल कहते हैं। इसमें भाषा प्राचीन रूप को छोड़कर नवीन रूप ग्रहण कर रही थी। अतः जहाँ एक ओर अपभ्रंश के प्राचीन अवहट्ठ भाषा रूप की केंचुल उतर रही थी, वहीं दूसरी ओर आदिकालीन हिन्दी का नया रूप हो रहा था। हिन्दी भाषा का यह शैशव काल था। यह काल अध्ययन सामग्री की दृष्टि से अत्यन्त संदिग्ध है। क्योंकि इस काल में शुद्ध साहित्यिक सामग्री का अभाव है। यों तो इस काल के सिद्धों, नाथों एवं जैनियों के साहित्य, चरण के बीच गाथात्मक काव्य तथा नीति एवं मनोरंजन सम्बन्धी कुछ साहित्यिक संपत्ति अवश्य उपलब्ध है, किन्तु भाषा की दृष्टि से एक दो अपवादों को छोड़कर इनमें से किसी भी ग्रंथ का कोई शुद्ध या प्रामाणिक पाठ अभी तक नहीं प्राप्त है। ऐसी स्थिति में इस काल के भाषा रूप का वैज्ञानिक तथा पूर्ण आधिकारिक अध्ययन करना सम्भव नहीं है, फिर भी, इस काल विशेष की भाषा का सामान्य परिचय सरलतापूर्वक दिया जा सकता है। इस काल के पूर्वार्द्ध में भाषा के तीन प्रमुख रूप दिखायी पड़ते हैं -
1-अपभ्रंशाभास - हिन्दी का आदिकालीन भाषा रूप अपभ्रंश से प्रभावित था। भाषा का यह रूप सिद्धों, नाथों एवं जैनियों के धार्मिक साहित्य में उपलब्ध होता है।
2- पिंगल रूप- प्रादेशिक बोलियों के साथ-साथ मध्यदेश या व्रज भूमि की भाषा के मिश्रित रूप का नाम पिंगल है। पिंगल उस समय साहित्य में व्यवहृत होने वाला प्रमुख साहित्यिक भाषा-रूप था।
3 - डिंगल रूप- अपभ्रंश एवं शुद्ध राजस्थानी भाषा के योग से जो मिश्रित साहित्यिक भाषा रूप बना, उसे डिंगल कहा जाता है। चारण कवियों के वीर गाथात्मक काव्यों की भाषा वास्तव में, नागर अपभ्रंश से प्रभावित डिंगल ही है। बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो आदि ग्रंथ इसी भाषा से प्रणीत हैं। इनके अतिरिक्त इस काल के उत्तरार्द्ध में दो अन्य भाषा-रूप और मिलते हैं -
   पहला रूप वह है, जिसे पुरानी हिन्दी या हिन्दवी कहा जाता है। अरबी-फारसी शब्दों या शब्द-रूपों से बोझिल यह भाषा पुरानी हिन्दी का एक साहित्यिक रूप है। इस भाषा-रूप में रचना करने वाले प्रारम्भिक कवि मुसलमान सूफी फकी थे, जिन्होंने अपनी धार्मिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया था। प्रतिभासम्पन क्रान्तिदर्शी अमीर खुसरो ने भी अपनी गजलें, मुकरियाँ, पहेलियाँ तथा अन्य फुटक पद इसी पुरानी खड़ीबोली हिन्दी में लिखे हैं। उनकी भाषा का निम्नांकित स्वरूप विचारणीय है -

पहेली का एक उदाहरण
“रोटी जली क्यों ? घोड़ा अड़ा क्यों ? पान सड़ा क्यों ? फेरा न था।"
इसी प्रकार उनकी गजल का एक उदाहरण द्रष्टव्य है -

'जे हाल मिस्की मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिजरौँ न दारम ए जाँ न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।।......

दूसरा रूप वह है, जो पूर्व में विकसित पुरानी मैथिली भाषा का रूप कहलाता है। इसमें मैथिल कोकिल महाकवि विद्यापति की पदावलियां मिलती हैं ।
    वस्तुतः यह हिंदी भाषा का अंकुर काल है। अतः इस काल में हिंदी की विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों के रूप बहुत स्पष्ट एवं सुविकसित लक्षित नहीं होते हैं। इसीलिए इस काल के साहित्य में प्रयुक्त विभिन्न बोली-रूपों में अन्यान्य बोलियों का मिश्रण दिखाई पड़ता है । ध्वनि की दृष्टि से अपभ्रंश की प्रायः सभी ध्वनियां इस काल की हिंदी में आ गई थी । कुछ नई ध्वनियों का भी विकास इस काल की हिंदी में हुआ। उदाहरणार्थ अपभ्रंश में संयुक्त स्वर नहीं थे, जबकि इस काल की हिन्दी में 'ऐ' तथा 'औ' जैसी दो संयुक्त स्वर ध्वनियां प्रयुक्त होने लगीं ।
   इस काल की प्रधान साहित्यिक कृतियों की भाषा में मुख्यता डिंगल, पिंगल, मैथिली, ब्रज, अवधी, दक्खिनी, खड़ीबोली, पंजाबी आदि बोलियां तथा मिश्रित रूपों का प्रयोग मिलता है । इस काल की हिंदी के साहित्यकारों में  गोरखनाथ,  चन्दवरदायी, विद्यापति,  नरपति नाल्ह, शाह मीराजी आदि के नाम प्रमुख हैं ।
विशेषताएं - आदिकालीन हिंदी की सामान्य भाषागत विशेषताएं इस प्रकार हैं -
  • इसमें संस्कृत व्यंजन ष का उच्चारण श या ख व्यंजन रूप में होने लगा साथ ही विभिन्न बोली रूपों में श के स्थान पर स का उच्चारण होने लगा ।
  • इस काल में आकर ऋ स्वर का उच्चारण रि रूप में होने लगा ।
  • जिस प्रकार अपभ्रंश भाषा में संयुक्त स्वरों का अभाव था उसी प्रकार इस काल की हिंदी में भी प्रायः संयुक्त स्वरों का अभाव दिखाई देता है अपवाद स्वरूप ऐ तथा औ दो संयुक्त स्वरों का प्रयोग इस काल में होने लगा था किंतु इनके उच्चारण क्रमशः अए तथा अओ थे ।
  • प्राकृतिक एवं अपभ्रंश भाषा के जिन शब्दों में द्वित्व व्यंजन थे, इस काल में आकर उनमें एक ही व्यंजन रह गया और उनका पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर दीर्घ में परिणत हो गया ।
  • इसमें अरबी-फारसी की-क, ख, ग, ज, और फ व्यंजन ध्वनियां प्रयुक्त होने लगी जबकि इसके पूर्व इनका प्रयोग नहीं होता था।
  • अपभ्रंश शब्दों या शब्द रूपों के स्थान पर इस काल की हिन्दी में तद्भव, देशज तथा अरबी, फारसी, तुर्की आदि विदेशी मुसलमानी भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग बहुलता से होने लगा था।
  • पहले अपभ्रंश में च, छ, ज और झ ध्वनियाँ स्पर्श थी, किन्तु इस काल की हिन्दी में आकर ये ध्वनियाँ स्पर्श-संघर्षी हो गयीं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि इस काल के उत्तरार्द्ध की समाप्ति तक निश्चय ही हिन्दी की विभिन्न बोलियां व्यापक रूप से जनप्रिय हो गई थीं और आदिकालीन हिन्दी भाषा का स्वरूप बहुत परिमार्जित होकर अपनी विविध जनपद की बोलियों के साहित्यिक रूपों में स्थापित होने लगा था ।

2. मध्यकाल (1500 ई० से 1800 ई० तक) - हिन्दी का आदिकाल राजनीतिक उथल-पुथल और संघर्ष का काल था। परिणाम स्वरूप इसमें हिन्दी का बहुमुखी विकास नहीं हो सका। परन्तु मध्यकाल में मुगलों की शक्तिशाली शासन व्यवस्था थी। इस कारण देश में राजनीतिक स्थिरता एवं शान्ति का वातावरण था, जिसके कारण हिन्दी के स्वरूप में पर्याप्त निखार आने लगा। इसमें जहाँ एक ओर हिन्दी की विभिन्न बोलियाँ खूब विकसित होने लगी और उनमें स्वतन्त्र साहित्य सृजन होने लगा, वहीं दूसरी ओर हिन्दी पर से अपभ्रंश का प्रभाव भी धीरे-धीरे समाप्त होने लगा। इस प्रकार हिन्दी अपने निर्मित पथ पर उत्तरोत्तर बढ़ने लगी थी। वास्तव में इस काल को हिन्दी भाषा का स्वर्ण काल कहा जा सकता है क्योंकि 16वीं शती से हिन्दी की बोलियों का संवर्धन का स्वर्ण युग प्रारम्भ होता है।
      इस काल की तीन बोलियाँ भाषा के तत्त्व में समाहित हो चुकी थीं। इस आधार पर अपने परिवर्तित रूप-भेद तथा साहित्यिक संरचना की अभिवृद्धि के कारण अवधी, ब्रज तथा खड़ीबोली ने अपनी-अपनी भाषिक स्थिरता ग्रहण कर ली। अवधी हिन्दी के पूर्वी क्षेत्र में तथा व्रज पश्चिमी क्षेत्र में विकसित हुई। पूर्व मध्यकाल की अधिकांश महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृतियाँ इन्हीं दोनों बोलियों में लिखी गयीं। वस्तुतः सूर, तुलसी, जायसी आदि भक्त एवं सूफी कवियों को अपना संदेश जनता तक पहुँचाना था। इसीलिए इन कवियों ने लोकतत्त्व युक्त जनवाणी को अपने प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया।

1- अवधी- इसका उद्भव अर्थ मागधी प्राकृत के अपभ्रंश रूप से हुआ है। इसमें सूफी प्रेमाख्यानक काव्य-धारा के प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' (1500 ई०) और सगुणोपासक रामभक्ति-धारा के प्रवर्तक गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' (1574 ई०) जैसे महाकाव्य लिखे। जायसी की भाषा ठेठ अवधी होने के कारण लोकभाषा के अधिक नैकट्य में है, जबकि तुलसी की भाषा परिनिष्ठित होने के कारण लोकभाषा से दूर इन कवियों के अतिरिक्त कुतुबन, मंझन आदि ने भी अवधी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। भाषा की दृष्टि से अवधी को परिष्कृत, परिमार्जित एवं परिनिष्ठित साहित्यिक रूप देने का श्रेय तुलसी को ही है। किन्तु पूर्णतया आदर्शीकृत और व्याकरणिक नियमों से बद्ध होने के कार अवधी संस्कृत की भाँति पूर्व मध्यकाल के अन्त तक साहित्यिक क्षेत्र से समाप्त हो गई। उसका स्थान ब्रजभाषा ने ग्रहण कर लिया।

2. ब्रज भाषा - इस काल की दूसरी प्रमुख भाषा ब्रज है। इसकी उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के अपभ्रंश रूप से हुई है। वल्लभाचार्य के प्रोत्साहन से पूर्व मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में व्रज भाषा में साहित्यिक रचना क्रम आरम्भ हुआ। सूरदास, नन्ददास आदि अष्टछापी कवियों ने ब्रज भाषा में उच्चकोटि की रचनाएँ कीं। यदि अवधी राम-काव्य की प्रधान भाषा थी तो ब्रज कृष्ण-काव्य की। अधिकाधिक प्रयोग के कारण इस भाषा का रूप उत्तरोत्तर परिष्कृत, परिमार्जित तथा स्थिर होता चला गया। आगे चलकर उत्तर मध्यकाल की समाप्ति तक रीतिकालीन कवियों ने ब्रज भाषा के चरमोत्कर्ष में विशेष योगदान किया। इस प्रकार ब्रजभाषा का प्रयोग न केवल पश्चिमी प्रदेश में हुआ, अपितु वह समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र के साहित्य सृजन का विस्तृत माध्यम बन गयी थी। देव, मतिराम, बिहारी, घनानन्द आदि कवियों ने व्रज भाषा का अभिनव शृंगार किया। बुन्देलखण्ड तथा राजस्थान के देशी राज्यों से संपर्क में आने के कारण उत्तर मध्यकाल में केशव की ब्रज भाषा में बुन्देली का पुष्ट और भूषण, सूदन की ब्रज भाषा पर अवहट्ठ का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस काल की काव्य-टीकाओं और जीवनी साहित्य में ब्रज भाषा के गद्यात्मक नमूने मिलते हैं। मध्यकाल में ब्रजभाषा को ही साहित्यिक भाषा के रूप में जन-मान्यता और गौरव मिला था। अस्तु, ब्रजभाषा का प्रयोग न केवल मध्यकाल के उत्तरार्द्ध के अन्त तक होता रहा, बल्कि आज भी हो रहा है।

3- खड़ीबोली- इस काल में खड़ीबोली में भी कतिपय साहित्यिक रचनाएँ हो रहीं थीं। भक्त कवियों में कबीर, नानक, रैदास, सदना, धन्ना, पीपा, धर्मदास, दादू, रज्जब आदि की कृतियों में खड़ीबोली का पर्याप्त पुट है। गंग और रहीम की रचनाओं में भी खड़ीबोली का प्रयोग परिलक्षित होता है। रहीम की निम्न पंक्तियों में खड़ीबोली के नमूने द्रष्टव्य हैं -
    “कलित ललित माला में जवाहिर जड़ा था।
      चपल चरन वाला चाँदनी में खड़ा था।"

आगे चलकर (1742 ई०) रामप्रसाद निरंजनी ने परिमार्जित खड़ीबोली में अपना 'भाषा योगवाशिष्ठ' नामक गद्य-ग्रन्थ लिखा। इसके पश्चात पं० दौलतराम ने 'जैन पद्मपुराण' का खड़ीबोली में अनुवाद किया।
    उपर्युक्त तीन भाषा रूपों के अतिरिक्त इस काल में 'दक्खिनी हिन्दी, उर्दू, डिंगल, मैथिली आदि भाषाओं के रूप भी प्रचलित थे। 'दक्खिनी हिन्दी', -जो खड़ीबोली ही थी में भी साहित्य सृजन हुआ। चौदहवीं शताब्दी में खड़ीबोली दक्षिण-विजय के बाद मुसलमान शासकों के साथ दक्षिण भारत में चली गई।
   शब्दों की दृष्टि से भी इस काल में कई उल्लेखनीय बातें घटित हुई। इसी समय विशेषतः हिन्दी में अधिकाधिक धार्मिक साहित्य लिखा गया। इसलिए अब हिन्दी में तद्भव एवं देशज शब्दों की अपेक्षा तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक होने लगा। अपभ्रंश के स्थान पर हिन्दी संस्कृत भाषा से अधिक प्रभावित होने लगी। उदाहरणार्थ तुलसी की काव्यगत अवधी भाषा में संस्कृत शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग हुआ है। मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में यूरोपवासियों से हमारा सम्पर्क बढ़ा, जिसके कारण अँग्रेजी, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, डच आदि विदेशी भाषाओं के कुछ प्रतिशत प्रचलित शब्द हिन्दी में प्रविष्ट हो गये। विद्वानों का विचार है कि मध्यकालीन हिन्दी में फारसी से लगभग 3500, अरबी से 2500, तुर्की से 100 तथा 100 से कुछ कम पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और शताधिक अंग्रेजी भाषा के शब्द ग्रहण किये गए। मध्यकाल की भाषा के अध्ययन के लिए वास्तव में सन्त काव्यधारा, सुफी काव्यधारा, रामभक्ति काव्यधारा, कृष्णभक्ति काव्यधारा, दक्खिनी काव्यधारा, उर्दू काव्यधारा तथा रीतिकालीन काव्यधारा का अन्वेषण एवं अनुशीलन किया जा सकता है। इस काल के साहित्यकारों में से कबीर, जायसी, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारी, भूषण, देव, घनानन्द, बुरहानुद्दीन, नुसरती, कुली कुतुबशाह, वजही तथा वली के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
सामान्य विशेषताएँ- मध्यकालीन हिन्दी के भाषा रूप की सामान्य विशेषताओं को इस प्रकार निर्दिष्ट किया जा सकता है -
  • अपभ्रंश के रूप इस काल में समाप्तप्राय हो गये और हिन्दी में अवधी, ब्रज तथा तुतलाती खड़ीबोली के रूप प्रयुक्त होने लगे।
  • खड़ीबोली पर आधारित 'दक्खिनी हिन्दी' और 'उर्दू' भाषा शैली का भी इस काल में प्रयोग प्रारम्भ हो गया था।
  • अरबी, फारसी तथा तुर्की के शब्द इस काल में हिन्दी की प्रकृति के अनुसार पूर्णतया ढल गये।
  • अपभ्रंश के स्थान पर इस काल की हिन्दी संस्कृत भाषा से अधिक प्रभावित हो गई।
  • इस काल की हिन्दी में तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग आदिकालीन हिंदी की तुलना में बहुत कम हुआ ।
पश्चिमी हिन्दी - पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ मुख्यतः 'मध्यदेश' में बोली जाती है। इसके अन्तर्गत - (1) खड़ीबोली (2) ब्रज (3) बाँगरू (4) बुन्देली तथा (5) कन्नौजी का समावेश है।
       ऐतिहासिक दृष्टि से पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ शौरसेनी, प्राकृत के अपभ्रंश रूप से प्रसृत होने के कारण शौरसेनी प्राकृत से प्रभावापन्न हैं । पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ - राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी और मराठी आदि भाषाओं से घिरी होने के कारण उनसे प्रभावित हैं । भाषा-गठन की दृष्टि से भी राजस्थानी और पंजाबी उपभाषाओं का वर्ग पश्चिमी हिन्दी के अत्यन्त निकट है । कथ्य भाषा के रूप में पश्चिमी हिन्दी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, पंजाब का पूर्वी भाग, हरियाणा प्रदेश, पश्चिमोत्तर मध्य प्रदेश, ग्वालियर और बुन्देलखण्ड में बोली जाती है ।
        पश्चिमी हिन्दी की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के अपभ्रंश रूप से हुई। है। सभी प्राकृतों में शौरसेनी प्राकृत का अपभ्रंश रूप संस्कृत भाषा के अत्यधिक निकट है। अतः पश्चिमी हिन्दी उस केन्द्र की भाषा है, जिससे आर्य भाषा, संस्कृति और सभ्यता का प्रचार और प्रसार हुआ है।
    पश्चिमी हिन्दी के भाषाभाषियों की संख्या सन् 1921 की जनगणना के अनुसार 4 करोड़ 13 लाख के ऊपर थी। किन्तु वर्तमान समय में इससे बहुत अधिक है ।
पश्चिमी हिन्दी और उसकी बोलियाँ - पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत प्रमुख 5 बोलियाँ हैं -
1. खड़ीबोली - खड़ीबोली पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख बोली है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से 'खड़ीबोली' शब्द का प्रयोग दिल्ली-मेरठ के समीपवर्ती ग्राम समुदाय की ग्रामीण बोली के लिए होता है । हिन्दी की कतिपय बोलियों के नामों की भाँति 'खड़ीबोली' नाम भी बहुत प्राचीन नहीं है। लिखित साहित्य में इसका प्रयोग 1803 ई० के आस-पास का है।
2. बॉगरू - 'बाँगरु' शब्द 'बाँगर' से बना है, जिसका अर्थ है-ऊँची- नीची पथरीली भूमि' अर्थात् बाँगर उस उच्च एवं शुष्क भूमि को कहते हैं, जहाँ नदी की बाढ़ नहीं पहुँच पाती। यह प्रदेश सतलज-सिन्धु और गंगा-यमुना का मध्य का क्षेत्र है। प्राचीन काल में इसे कुरुजांगल, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त और सारस्वत प्रदेश कहते थे। इस बोली का नामकरण बाँगर प्रदेश विशेष के आधार पर हुआ है। अतः 'बाँगर' या 'बागड़' देश की जनता द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली बोली को 'बाँगरू' कहा जाता है। स्थान और बोलने वालों की जाति के अनुरूप यह बोली कई स्थानीय नामों से व्यवहृत होती है। हरियाणा से सम्बद्ध क्षेत्रों में यह हरियाणी, देसवाड़ी, देसी या देसड़ी कहलाती है। रोहतक के आस-पास जाटों का क्षेत्र है। इसलिए जाटों के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसे जादू और दिल्ली के समीपस्थ क्षेत्रों में रहने वाले चमारों के द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसे चमरवा भी कहते हैं। किन्तु अत्यधिक प्रचलित नाम 'बाँगरू' ही है। पश्चिमी हिन्दी की अन्य बोलियों की भाँति इसकी भी उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत अपभ्रंश के पश्चिमोत्तर रूप से हुई है।
3. ब्रज - पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों में से यह अत्यन्त प्रमुख और प्रतिनिधि बोली है। यह सम्पूर्ण ब्रज प्रदेश अर्थात् 84 कोस के ब्रजमण्डल की बोली है। मूल रूप में यह उस भूप्रदेश की लोकभाषा रही है, जो इसके उद्भव से लगभग 3 हजार वर्ष पहले से भारतीय संस्कृति, धर्म एवं साहित्य की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान करता रहा है और जहाँ पर संस्कृत, शौरसेनी प्राकृत तथा अपभ्रंश का साहित्य रचा गया। यही वह प्रदेश है जिसे कभी 'शूरसेन-जनपद' कहा जाता था । समृद्ध शब्दकोश, परिष्कृत एवं सुगम पद-योजना, वाक्य-विन्यास तथा शैली माधुर्य, संगीतात्मकता तथा लचीलापन आदि अपनी विशेषताओं के कारण ब्रज लगभग 500-600 वर्षो तक साहित्यिक भाषा के पद पर समासीन रह चुकी है। ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रज बोली की उत्पत्ति शौरसेनी-प्राकृत अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुई है। इस बोली का जन्म 10वीं शताब्दी के आसपास माना जा सकता है।
 4. कन्नौजी - पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों में से एक है। 'कन्नौज' अर्थात्  'कान्यकुब्ज' इस बोली का केन्द्र रहा है। इस जनपद की अपनी एक विशेष संस्कृति थी। अतः यहाँ की बोली ने अपना एक क्षेत्र बना लिया था। प्राचीन काल में कन्नौज अत्यन्त प्रसिद्ध एवं समृद्ध नगर था। रामायण में इसका उल्लेख मिलता है। साथ ही अरब इतिहासकारों ने भी अपने ग्रंथों में इसकी चर्चा की है। पाँचवीं शती ईस्वी के मध्य भाग में इस नगर और प्रदेश को राठौर राजपूतों ने हस्तगत किया। इसका अन्तिम राजा जयचन्द्र था, जिसे 1193-94 ई० में मुहम्मद गोरी ने युद्ध में परास्त कर कन्नौज नगर एवं प्रदेश को अपने अधीनस्थ कर लिया । इस बोली का जन्म और विकास पांचाल प्राकृत की अपभ्रंश शाखा से हुआ है। 'कन्नौजी' ब्रज और अवधी के मध्यवर्ती क्षेत्र की बोली है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा, फर्रुखाबाद, गंगा के उत्तर शाहजहाँपुर, कानपुर, हरदोई के पश्चिमी भाग तथा पीलीभीत जिले तक बोली जाती है। वास्तव में यह शौरसेनी का ही प्रदेश है। कन्नौजी की उपबोलियाँ निम्नांकित हैं-1-तिरहारी 2- तिघारी 3- पचरुआ या पछरुआ 4-भुक्सा 5-संडीली 6-इटाली 7- बँगराही 8-शाहजहाँपुरी 9- कानपुरी 10- पीलीभीती।
5. बुन्देली - यह पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों में से एक है, जो ब्रज तथा बुन्देली कन्नौजी के साथ पश्चिमी हिन्दी बोलियों का दक्षिणी वर्ग बनाती है। यह सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड तथा ग्वालियर की प्रमुख बोली है। 14वीं शताब्दी के आरम्भ से यहाँ पर बुन्देला राजपूतों का आधिपत्य रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के मध्यकाल में बुन्देलखण्ड साहित्य का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है । बुन्देली अथवा बुन्देलखण्डी वस्तुतः बुन्देलखण्ड की बोली है। अतः इसके नाम का आधार स्थान विशेष है। बुन्देला राजपूतों की जन्मभूमि और प्रधानता के कारण ही यह प्रदेश बुन्देलखण्ड कहलाया और इस प्रदेश विशेष के आधार पर वहाँ की जनता द्वारा व्यवहृत की जाने वाली बोली को 'बुन्देली' कहा गया। बुन्देली की उत्पत्ति मध्य शौरसेनी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से हुई है और मध्यकाल में इसका विकास द्रुतगति से हुआ। बुन्देली का क्षेत्र पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, राजस्थान तथा मराठी के मध्य में है । अतः इसके पूर्व में पूर्वी हिन्दी की बघेली, उत्तर-पश्चिम में में पश्चिमी हिन्दी की ब्रज और कन्नौजी, दक्षिण में मराठी तथा दक्षिण-पश्चिम में राजस्थानी का क्षेत्र पड़ता ।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

कहानी

आकाशदीप (जयशंकर प्रसाद)
जयशंकर प्रसाद की आकाशदीप कहानी विशिष्ट कहानियों में से गिनी जाती हैं। इस कहानी में एक असफल प्रेम कहानी को अत्यंत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। लेखक यह बताना चाहते हैं कि मानव के आचरण और व्यवहार को प्रेम और त्याग से काफी बदला जा सकता है । मूल संवेदना प्रेम और कर्म के द्वंद्व पर आधारित है और अंत में कर्त्तव्य भावना का समर्थन करती है । नायिका चम्पा कर्त्तव्य के आगे प्रेम का बलिदान कर देती है । इस कहानी में नारी के त्याग त्याग और लोक कल्याण की भावना भी मुखरित हुई है।
     यह नायिका प्रधान प्रेम कहानी है। इसमें समुद्री जीवन को ऐतिहासिक परिवेश में चित्रित किया गया है। कहानी में मानवीय प्रेम को स्पष्ट करते हुए एक आदर्श प्रेम को स्थापित किया गया है। कहानी की नायिका एक त्याग की मूर्ति के रूप में हमारे सामने आती हैं। 
 कहानी के पात्र -
  • बुद्धगुप्त - तामलिप्ति का एक क्षत्रिय है । मुख्यतः यह जलदस्यु है जिसका काम समुद्र में आने वाली जहाजों को लूटना होता है ।
  • चम्पा - एक क्षत्रिय बालिका, कहानी की नायिका । वणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने चंपा को बंदी बना लिया । इसके पिता मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे जिसकी मृत्यु जलदस्यु के कारण हुई थी ।
  • नायक - जिससे बुद्धगुप्त का युद्ध होता है ।
  • जया - सेविका (चम्पा की सेविका)
  • पोताध्यक्ष - मणिभद्र
यह कहानी दो भागों में है । पहला भाग समुद्र में पोत पर और दूसरा भाग पांच वर्ष बाद चम्पाद्वीप पर घटित घटना ।

आकाशदीप कहानी का सारांश -
समुद्र में अपने गन्तव्य पर जा रहे पोत पर दो बन्दी, दस नाविक और कुछ प्रहरी हैं। आँधी-तूफान आने की सम्भावना है। एक बन्दी, दूसरे से पूछता है कि मुक्त होना चाहते हो। दूसरा पूछता है कि शस्त्र मिल जाएगा। एक बन्दी अपने को स्वतन्त्र कर दूसरे के बन्धन खोलता है और हर्ष से दूसरे को गले लगा लेता है। पता चलता है कि वह स्त्री है। वह आश्चर्य करता है। पूछने पर वह अपना नाम चम्पा बताती है और एक नाविक के शरीर से टकराकर वह उसका कृपाण निकाल लेती है। उसी समय भयंकर आँधी आती है। एक बन्दी पोत से जुड़ी नाव को अलग करता है। दोनों बन्दी, पोत के कुछ नाविक और उनका नायक नाव पर आ जाते हैं और पोत अपने अध्यक्ष मणिभद्र के साथ ही समुद्र में डूब जाता है।
     प्रात: होने पर नायक देखता है कि बन्दी मुक्त हो चुके हैं। बन्दी का नाम बुद्धगुप्त है, जो कि एक जलदस्यु है। नायक बुद्धगुप्त को बन्दी बनाना चाहता है। दोनों में वर्चस्व के लिए युद्ध होता है, जिसमें बुद्धगुप्त विजयी होता है। नायक स्वयं को बुद्धगुप्त का अनुचर स्वीकार करता है। चम्पा बुद्धगुप्त को स्नेहिल दृष्टि से देखती है। चलती हुई नौका बाली द्वीप से दूर एक नवीन द्वीप पर पहुँचती है। बुद्धगुप्त उस द्वीप का नाम चम्पाद्वीप रखता है। द्वीप के मार्ग में ही दोनों; चम्पा और बुद्धगुप्त; एक-दूसरे को अपना परिचय देते हैं। बुद्धगुप्त के मन में चम्पा के प्रति कोमलता उत्पन्न होती है। वह स्वयं में भी परिवर्तन अनुभव करता है।    धीरे-धीरे दोनों के पाँच वर्ष उसी द्वीप पर व्यतीत हो जाते हैं। बुद्धगुप्त का समीप के बाली, सुमात्रा, जावा द्वीपों पर वाणिज्य का अधिकार हो जाता है। चम्पा उसे महानाविक कहती है। एक शाम चम्पा द्वीप के किसी उच्च स्थान पर बैठकर आकाशदीप जला रही होती है कि बुद्धगुप्त आता है और आकाशदीप के लिए उसकी किंचित् हँसी उड़ा देता है। इस पर चम्पा नाराज होती है और उसे अपनी माता द्वारा पिता के लिए जलाये जाने वाले आकाशदीप का इतिहास बताती है तथा दस्युवृत्ति छोड़ देने के बाद भी ईश्वर की हँसी उड़ाने के लिए व्यंग्य-बाणों से प्रताड़ित करती है।
एक दिन चम्पा और जया एक छोटी नौका में समुद्र में चल देती हैं। सूर्यास्त हो जाता है। पास ही एक बड़ी नौका पर स्थित बुद्धगुप्त चम्पा को उस पर चढ़ा लेता है और उसके पास बैठ अश्रुपूर्ण नेत्रों से प्रेमपूर्ण निवेदन करता है। चम्पा रो पड़ती है और स्वीकार करती है कि वह भी उससे प्यार करती है। बुद्धगुप्त इस प्रेमपूर्ण क्षण की स्मृतिस्वरूप समुद्र में एक प्रकाश-गृह का निर्माण कराने के लिए कहता है।
   चम्पा द्वीप के दूसरे भाग में एक पर्वत श्रृंखला थी। सम्पूर्ण द्वीप को किसी देवी की भाँति सजाया गया था। पर्वत के ऊँचे शिखर पर एक दीप-स्तम्भ बनवाया गया था। उसी के समारोह में चम्पा वहीं समारोह स्थल पर पालकी से जा रही थी। बुद्धगुप्त से अत्यधिक प्रेम करते हुए भी वह मानती थी कि वह ही उसके पिता का हत्यारा है। बुद्धगुप्त उसके सम्मुख स्वीकार करता है कि वह उसके पिता का हत्यारा नहीं, और उससे विवाह के लिए निवेदन करता है। वह कहता है कि इस द्वीप पर इन्द्र और शची की तरह पूजित वे दोनों आज भी अविवाहित हैं। वह उसे उस द्वीप को छोड़कर स्वदेश भारत चलने के लिए कहता है। चम्पा उसे मना कर देती है और कहती है कि वह वहीं रहेगी। बुद्धगुप्त कहता है कि वह यहाँ रहकर अपने हृदय पर अधिकार नहीं रख सकता। उसकी साँसों में विकलता थी। चम्पा उससे इसी द्वीप में रहकर आकाशदीप की तरह स्वयं जलने के लिए कहती है।
     एक दिन प्रात: बुद्धगुप्त अपनी नौकाओं को लेकर द्वीप छोड़कर चला जाता है। चम्पा की आँखों से आँसू बहने लगते हैं। चम्पा उसी द्वीप-स्तम्भ में जीवनपर्यन्त दीपक जलाती रही। द्वीप के निवासी उसकी देवी सदृश पूजा करते थे।

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बूढ़ी काकी (प्रेमचंद्र) -
बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की और आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घरवाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और उन्हें न मिलती, तो वे रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारणा रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।
उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालान्तर हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के सिवा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी थी। भतीजे ने सम्पत्ति लिखते समय तो खूब लम्बे-चौड़े वादे किये, परन्तु वे सब वादे केवल कुलीडिपो के दलालों के दिखाये हुए सब्ज़बाग थे । यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपये से कम न थी, तथापि बूढ़ी काकी को पेट-भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पण्डित बुद्धिराम का.अपराध था अथवा उनकी अर्द्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराभ स्वभाव के सज्जन थे, किन्तु उसी समय तक, जब तक कि उनके कोष पर कोई आँच न आये। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थो, जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत ।
बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था। विचारते कि इसी सम्पत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ। यदि मौखिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता तो उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सचेष्टा को दबाये रखता था। यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगतीं तो वह आग हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डाँटते । लड़कों को बुड्ढ़ों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता । काकी चीख मारकर रोतीं, परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके सन्ताप और आर्त्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काफी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं, तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती, इस भय से काकी अपनी जिह्वा-कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।
    सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी । लाडली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई-चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी । यही उसका रक्षागार था, और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत महंगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से कहीं सुलभ थी। इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था ।

        रात का समय था । बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुण्ड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था। चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे। समीप ही खड़ा हुआ भाट बिरदावली सुना रहा था और कुछ भावज मेहमानों की 'वाह-वाह' पर ऐसा खुश हो रहा था, मानो इस वाह-वाह का यथार्थ में वही अधिकारी है। दो-एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे। वे इस गंवार मण्डली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे ।
    आज बुद्धिराम के बड़े लड़के सुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन के प्रबन्ध में व्यस्त थी । भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ- कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हण्डे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। धी और मसाले की क्षुधावर्द्धक सुगन्ध चारों ओर फैली हुई थी ।
     बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भांति बैठी हुई थी। यह स्वाद् मिश्रित सुगन्धि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, सम्भवत: मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगी। इतनी देर हो गयी, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वह न रो सकीं ।
    “आहा ! कैसी सुगन्धि है। अब मुझे कौन पूछता है? जब रोटियों के ही लाले पड़ें, तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भर-पेट पूड़ियाँ मिलें ?” यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी। परन्तु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया।
     बूढ़ी काकी देर तक इन्हीं दुःखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगन्धि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किये देती थी। मुँह में पानी भर-भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूँ, आज लाड़ली बेटी भी नहीं आयी। दोनों छोकरे सदा दिक किया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है।
       बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल-लाल, फूली फूली, नरम-नरम होंगी। रूपा ने भली-भांति मोयन दिया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती, तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चलकर कड़ाह के सामने ही बैठूं। पूड़ियाँ छन-छनकर तैरती होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूंघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और ही बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकडू बैठकर हाथों के बल सरकती हुई कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास आ बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ, जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है ।
       रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास आती, कभी भण्डार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा-“महाराज ठण्डाई माँग रहे हैं ।” ठण्डाई देने लगी। इतने में फिर किसी ने कहा-“भाट आया है, उसे कुछ दे दो।” भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा- “अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है। जरा ढोल-मजीरा उतार दो ।” बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ी। प्यास से स्वयं उसका कण्ठ सूख रहा था, गरमी के मारे फुंकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश भी नहीं था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि जरा आंख हटी और चीज़ों की लूट मची।
      इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा, तो जल गयी । क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई मन में क्या कहेंगी, पुरुषों में लोग सुनेंगे, तो क्या कहेंगे । जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटककर बोली- “ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता है? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान् को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गयी। जल जाये ऐसी जीभ । दिन-भर खाती न होती, तो न जाने किसकी हाँडी में मुँह डालती ? गाँव देखेगा, तो कहेगा कि बुढ़िया भर-पेट खाने को नहीं पाती, तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। डायन न मरे न माँचा छोड़े । नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवाकर दम लेगी। इतना ढूँसती है, न जाने कहाँ भस्म हो जाता है। लो! भला चाहती हो, तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुन्हें भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाये, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाये।”
      बूढ़ी काकी ने सिर न उठाया; न रोईं, न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गयीं । आघात ऐसा कठोर था कि हृदय और मस्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गये थे। नदी में जब कगार का कोई वृहत् खण्ड कटकर गिरता है, तो आस-पास का जल-समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।
    भोजन तैयार हो गया। आंगन में पत्तल पड़ गयीं, मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार-गीत गाना आरम्भ कर दिया।। मेहमान के नाई और सेवकगण भी उसी मण्डली के साथ, किन्तु कुछ हटकर भोजन करने बैठे थे, परन्तु सभ्यतानुसार जब तक सब के सब खा न चुकें, कोई उठ नहीं सकता था। दो-एक मेहमान, जो कुछ पढ़े-लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुंझला रहे थे। वे इस बन्धन को व्यर्थ और बे-सिर-पैर की बात समझते थे ।
    बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चात्ताप कर रही थीं कि मैं कहाँ-से-कहाँ गयी । उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाजी पर दुःख था। सच ही तो है, जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे, घरवाले कैसे खायेंगे। मुझसे इतनी देर भी नहीं रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने न आएगा, न जाऊंगी ।
     मन-ही-मन इसी प्रकार का विचार कर वह बुलावे की प्रतीक्षा करने लगीं। परन्तु घी की रुचिकर सबास बड़ी ही धैर्य-परीक्षक प्रतीत हो रही थी। उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था। अब पत्तल बिछ गयी होंगी। अब मेहमान आ गये होंगे। लोग हाथ-पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है। मालूम होता है, लोग खाने बैठ गये। जेवनार गाया जा रहा है, धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गयी। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे। किसी की आवाज़ नहीं सुनायी देती, अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गये। मुझे कोई बुलाने नहीं आया। रूपा चिढ़ गयी है, क्या जाने न बुलाये। सोचती हो कि आप ही आयेंगी, वह कोई मेहमान तो नहीं, जो उन्हें बुलाऊँ । बूढ़ी काकी चलने के लिए तैयार हुई। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियाँ सामने आयेंगी, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बाँधे- तरकारी से पूड़ियाँ खाऊँगी, फिर दही और शक्कर से, कचौड़ियाँ रायते के साथ मजेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो माँग-माँगकर खाऊँगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं ? कहा करें, इतने दिन बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं, तो मुँह जूठा करके थोड़े ही उठ आऊँगी।।
       वह उकड़ू बैठकर हाथों के बल सरकती हुई आँगन में आयीं। परन्तु हाय दुर्भाग्य ! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी! मेहमान मण्डली अभी बैठी हुई थी। कोई खाकर उगलियाँ चाटता, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। कोई इस चिन्ता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छुटी जाती हैं, किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता। कोई दही खाकर जीभ चटकारता था, परन्तु दूसरा दोना माँगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में जा पहुँची। कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे- अरे यह बुढ़िया कौन है? यह कहाँ से आ गयी? देखो, किसी को छू न दे ।
       पण्डित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गये। पूड़ियों का थाल लिये खड़े थे, थाल को जमीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दय महाजन अपने किसी बेईमान और भगोड़े कर्जदार को देखते ही झपटकर उसका टेटुआ पकड़ लेता है, उसी तरह लपककर उन्होंने बूढ़ी काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया । बूढ़ी काकी की आशा रूपी वाटिका लू के एक ही झोंके से नष्ट-विनष्ट हो गयी। मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया, बाजेवाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परन्तु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दण्ड देने का निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हतज्ञान पर किसी को करुणा न आती थी। अकेली लाडली उनके लिए कुढ़ रही थी ।
     लाडली को काकी से अत्यन्त प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी । बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गन्ध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा, तो लाड़ली का हृदय ऐंठ कर रह गया। वह झुंझला रही थी कि यह लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं दे देते ? क्या मेहमान सब की सब खा जायेंगे ? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया, तो क्या बिगड़ जायेगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परन्तु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खायी थीं। अपनी गुड़ियों की पिटारी में बन्द कर रखी थीं। वह उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका हृदय अधीर हो रहा था । बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगी, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगी! मुझे खूब प्यार करेंगी।
       रात के ग्यारह बज गये थे। रूपा आँगन में पड़ी सो रही थी। लाड़ली की आँखों में नींद न आती थी। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। उसने गुड़ियों की पिटारी सामने ही रखी थी। जब विश्वास हो गया कि अम्मा अब सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ। चारों ओर अंधेरा था। केवल चूल्हे में आग चमक रही थी, चूल्हे के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था । लाड़ली की दृष्टि द्वार के सामने वाले नीम की ओर गयी । उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमानजी बैठे हुए हैं। उनकी पूँछ, उनकी गदा, सब स्पष्ट दिखाई दे रही है। मारे भय के उसने आँखें बन्द कर लीं। इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाड़ली को साहस हुआ। कई सोये हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ। उसने पिटारी उठायी और बूढ़ी काकी की ओर चली।
    बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाये लिये जाता है। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराये । तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूर्छित हो गयीं।
      जब वे सचेत हुई, तो किसी की जरा आहट भी न मिलती थी । समझीं कि सब लोग खा-पीकर सो गये और उनके साथ मेरी तक़दीर भी सो गयी। रात कैसे कटेगी? राम ! क्या खाऊं? पेट में अग्नि धधक रही है ! हा! किसी मेरी सुध न ली ! क्या मेरा ही पेट काटने से धन जुड़ जायेगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि जाने बुढ़िया कब मर जाये ? उसका जी क्यों दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ ? इस पर यह हाल। मैं अन्धी अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूँ न बूझें। यदि आँगन में चली गयी तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खा रहे हैं, फिर आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्हीं पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया मेरी बात तक न पछी । जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे ? यह विचार कर काकी निराशमय सन्तोष के साथ लेट गयीं। ग्लानि से गला भर- भर आता था, परन्तु मेहमानों के भय से रोती न थीं ।
     सहसा उनके कानों में आवाज़ आयी-“काकी उठो, मैं पूड़ियाँ लायी हूँ।” काकी ने लाड़ली की बोली पहचानी। चटपट उठ बैठीं। दोनों हाथों से लाड़ली को टटोला और उसे गोद में बैठा लिया। लाड़ली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं। काकी ने पूछा-“क्या तुम्हारी अम्मा ने दी हैं?”
लाडली ने कहा-“नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं।"
काकी पूड़ियों पर टूट पड़ीं। पांच मिनट में पिटारी खाली हो गयी। लाड़ली ने पूछा काकी पेट भर गया ?" जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठण्डक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है, उसी भाँति इन थोड़ी-सी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा को और इच्छा को उत्तेजित कर दिया था। बोलीं “नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और माँग लाओ।”
लाड़ली ने कहा-“अम्मा सोती हैं, जगाऊँगी, तो मारेंगी।”
काकी ने पिटारी को फिर टटोला । उसमें कुछ खुर्चन गिरे थे। उन्हें निकालकर वे खा गयीं। बार-बार होंठ चाटती थीं। चटखारे भरती थीं।
       हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ । सन्तोष-सेतु जब टूट जाता है, तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदान्ध बनाता है। काकी का अधीर मन इच्छा के प्रबल प्रवाह में बह गया । उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। सहसा लाडली से बोलीं- "मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चल, जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है।”
     लाडली उनका अभिप्राय न समझ सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर जूठी पत्तलों के पास बैठा दिया। दीन, क्षुधातुर, हत-ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुन कर खाने लगी। ओह, दही कितना स्वादिष्ट था, कचौरियाँ कितनी स्वादिष्ट, खस्ता, कितनी सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूँ, जो मुझे कदापि न करना चाहिए। मैं दूसरों की जूठी पत्तल चाट रही हूँ। परन्तु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अन्तिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएँ एक ही केन्द्र पर आ लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह केन्द्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी।
    ठीक उसी समय रूपा की आँखें खुलीं। उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहाँ न पाकर वह उठ बैठी, तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठी पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही हैं।
    रूपा का हृदय सन्न हो गया। किसी गाय की गर्दन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की जूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असम्भव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा पतित और निकृष्ट कर्म कर रही है। यह वह दृश्य था, जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता, मानो जमीन रुक गयी, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई नयी विपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आयीं। इस अधर्म के पाप का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन-मण्डल की ओर हाथ उठाकर कहा-“परमात्मा! मेरे बच्चों पर दया करो। बस, अधर्म का दण्ड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जायेगा।”
    रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में भी न देख पड़े थे । वह सोचने लगी-हाय! कितनी निर्दयी हूँ। जिसकी सम्पत्ति से मुझे दो सौ रुपया वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति! और मेरे कारण! हे दयामय भगवान्! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो। आज मेरे बेटे का तिलक था। सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया। मैं उनके इशारे की दासी बनी रही। अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपये व्यय कर दिये । परन्तु जिसकी बदौलत हज़ारों रुपये खाये, उसे इस उत्सव में भी भर-पेट भोजन न दे सकी। केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है।
       रूपा ने दिया जलाया, अपने भण्डार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियाँ सजाकर लिये हुए बूढ़ी काकी की ओर चली ।
      आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परन्तु उनमें किसी को वह परमानन्द प्राप्त न हो सकता था, जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ। रूपा ने कण्ठावरुद्ध स्वर में कहा- “काकी! उठो, भोजन कर लो । मुझसे बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दें।"
भोले- भाले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थीं। उनके एक-एक रोयें से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी स्वर्गीय दृश्य का आनन्द लेने में निमग्न थी।

अज्ञेय कृत 'रोज' (गैंग्रीन) -
दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मंडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था....
मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली मुझे देखकर पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, "आ जाओ" और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।
भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, "वे यहाँ नहीं है?""
"अभी आये नहीं, दफ्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़ दो बजे आया करते हैं।"
"कब के गये हुए हैं?"
"सवेरे उठते ही चले जाते हैं।"
"मैं 'हूँ' कर पूछने को हुआ, "और तुम इतनी देर क्या करती हो?" पर फिर सोचा, आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपति करते हुए कहा, "नहीं, मुझे नहीं चाहिए। पर वह नहीं मानी, बोली, “वाहा चाहिए कैसे नहीं" इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो..."
मैंने कहा, "अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।"
यह शायद ना करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और
घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई हुई करके उठी और भीतर चली गयी।
मैं उसके जाते हुए दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा, यह क्या है... यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है ....
    मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा...
     मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है... और विशेषतया मालती पर...
मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, “इसका नाम क्या है?
मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।"
मैंने उसे बुलाया, "टिटी", टीटी, आ जा, पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, “उहु-उहु-उहु-ऊं..."
मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी...
काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की... यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ.. चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती... पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए...
कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, “जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई -
उसने एकाएक चौंककर कहा, "हूँ?”
यह 'हूँ' प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। यह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो... वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि यह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता... मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, यह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये...
तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।
    वे, यानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर...
मालती के पति का नाम है 'महेश्वर'। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने... उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं.....
मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, “तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?"
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, "वह पीछे खाया करती है..... पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, “आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?"
मैंने उत्तर दिया, “वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।"
मालती टोककर बोली, “ऊँहू, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है... रोज़ ही ऐसा होता है..."
मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था। मैंने कहा, “यह रोता क्यों है?”
मालती बोली, “हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।”
फिर बच्चे को डॉटकर कहा, “चुपकर।” जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया और बोली, "अच्छा ले, रो ले।” और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी !
जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा.... दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है... थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, “अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।"
वह बोली, “खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,” किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।
दूर... शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है “तीन बज गये..." मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो...
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, “तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो...
“बहुत था।”
“हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।" मैंने हँसकर कहा।
मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, “यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं, मुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है...
मैंने पूछा, “नौकर कोई नहीं है?"
“कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए।”
“बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?”
“और कौन?” कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।
मैंने पूछा, “कहाँ गयी थीं?”
“आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?"
“क्यों, पानी को क्या हुआ?"
“रोज़ ही होता है.... कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मजेंगे।"
“चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई." कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई"
यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।
थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा ही नहीं, और बोली, " यहां कैसे आये?"
मैंने कहा ही तो, “अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?”
“तो दो-एक दिन रहोगे न?”
“नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।”
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।
थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ यह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाये? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती...
मैंने पूछा, “तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?" मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़े।
“यहाँ!” कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी. 'यहाँ पढ़ने को है क्या?"
मैंने कहा, "अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूंगा..." और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया....
 थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, “आये कैसे हो, लारी में?"
"पैदल।"
“इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।"
“आखिर तुमसे मिलने आया हूँ।"
“ऐसे ही आये हो?"
“नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर मैंने सोचा बिस्तरा ले ही चलूँ।”
“अच्छा किया, यहाँ तो बस..." कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, "तब तुम थके होगे, लेट जाओ।" “नहीं, बिलकुल नहीं थका।" “रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?”
“और तुम क्या करोगी?"
“मैं बरतन माँज कर रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।"
मैंने कहा, "वाह!" क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं।
थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा... मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा....
एकाएक वह एक-स्वर टूट गया- मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा....
चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी... वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यन्त्रवत् वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, “चार बज गये", मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया... न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।
तब छह कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, “आपने बड़ी देर की?"
उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, "हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।"
मैंने पूछा "गैंग्रीन कैसे हो गया।"
“एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के..."
मैंने पूछा, "यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?"
बोले, "हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी..."
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, "बोली, “हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!"
महेश्वर हँसे, बोले, “न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?”
“हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि कॉटों के चुभने से मर जाते हैं..."
महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, “ऐसे ही होते हैं, डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो खयाल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी। "
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा- टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्...
मालती ने कहा, “पानी!" और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोए जाने लगे हैं....
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, “उधर मत जा!" और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।
महेश्वर बोले, “अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।”
मैंने पूछा, “आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?"
"होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाये? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।" फिर कुछ रुककर बोले, “आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।"
टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, "मैं मदद करता हूँ". और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।
अब हम तीनों... महेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्तव्य याद करके रो उठता था, और फिर एकदम चुप हो जाता था... और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे।
    मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, "थोड़े से आम लाया हूँ, यह भी धो लेना।"
“कहाँ हैं?”
“अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए।"
मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार थे का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी... वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।
मुझे एकाएक याद आया...बहुत दिनों की बात थी... जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बगीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया... कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न मन लौट आया करता था।
मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे. एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, "किताब समाप्त कर ली?" तो उत्तर दिया... "हॉ, कर ली, "पिता ने कहा, “लाओ, मैं प्रश्न पूछूंगा, तो चुप खड़ी रही। पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, "किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूंगी।"
उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय में यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है... यह क्या, यह...
तभी महेश्वर ने पूछा, "रोटी कब बनेगी!"
“बस, अभी बनाती हूँ।"
पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी...
और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।
हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।
मैंने महेश्वर से पूछा, “आप तो थके होंगे, सो जाइये।"
वह बोले, "थके तो आप अधिक होंगे... अट्ठारह मील पैदल चल कर आये हैं। " किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया... थका तो मैं भी हूं।"
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।
तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।
पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।
मैंने देखा उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो...
मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष... गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष... धीरे-धीरे गा रहे हों... कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं...
मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं...
मैंने देखा दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से आप से उठकर यातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे यह करने के लिए पर्वत शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं..
पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने... महेश्वर ऊँधे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी. अभी छुट्टी हुई जाती है। और मेरे कहने पर ही कि " ग्यारह वाले हैं,” धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज ही इतने बज जाते हैं... मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था.....
चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा- “क्या हुआ?" मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस खट्' शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, “चोट बहुत लग गयी बेचारे के।”
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।
मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, “इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है।"
एक छोटे क्षण भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा मेरे मन न भीतर ही बाहर एक शब्द भी नहीं निकला "माँ युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!"
और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि ये उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया....
इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?
तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जाने वाली आवाज़ में उसने कहा, “ग्यारह बज गये..."

RMLAU स्नातक - द्वितीय वर्ष पाठ्यक्रम (संस्कृत)

प्रथम प्रश्नपत्र (पूर्णांक - 100)

वेद व्याकरण तथा निबन्ध

1. वेद :-                               (50)

(अ) वैदिक सूक्त - विष्णु सूक्त (1.154), इन्द्रसूक्त (2.12). पुरुष सूक्त (10.90), वाक् सूक्त (10. 125). हिरण्यगर्भ सूक्तं (10.121 ) ।

मन्त्र व्याख्या    (20)

पद-टिप्पणी      (10)

संहिता, ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद् एवं वेदांगों के सामान्य परिचय (20)

(ब) कठोपनिषद् प्रथम अध्याय

हिन्दी व्याख्या            (10)

आलोचनात्मक प्रश्न    (10)

2. व्याकरण :-   लघु सिद्धान्त कौमुदी (विभक्त्यर्थप्रकरण)     (15)

3. संस्कृत-निबन्ध                (15)


द्वितीय प्रश्नपत्र (पूर्णांक -100)

संस्कृत काव्य, इतिहास तथा समास

1. काव्य :-

(अ) भारवि:- किरातार्जुनीयम्, प्रथमः सर्गः

हिन्दी-व्याख्या                (10)

संस्कृत - व्याख्या            (10)

सूक्ति-व्याख्या                  (10)

आलोचनात्मक प्रश्न          (10)

(ब) अम्बिकादत्तव्यासः - शिवराजविजयम् (प्रथमो निःश्वासः)  (30)

अनुवाद                          (15)

आलोचनात्मक प्रश्न        (15)

2. इतिहास :-  कालिदास, अश्वघोष, भवभूति, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, विष्णुशर्मा तथा नारायण पण्डित की कृतियों का सामान्य परिचय        (20)

3. समास : समास नाम एवं विग्रह मात्र    (10)

बुधवार, 17 नवंबर 2021

मध्यकालीन हिन्दी काव्य


       14वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के मध्य के समय को हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। यह कालखण्ड काव्यानुभूति की गहनता और कलात्मक उत्कर्ष दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। विद्वानों ने काव्यगत प्रवृत्तियों की दृष्टि से इसे पूर्व मध्यकाल अथवा भक्तिकाल (संवत् 1375-1700) और उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल (संवत् 1700-1900) के नाम से दो भागों में विभाजित किया है।
     भक्तिकाल जर्जर जीवन-मूल्यों एवं सामाजिक परम्पराओं के पतन तथा नये जीवन आदर्शों के विकास की रोमांचकारी कहानी है। इस काल के कवियों की रचना अध्यात्म की पृष्ठभूमि पर जीवन के जिन मूलभूत प्रश्नों को उभारती है, वे हमें तत्कालीन यथार्थ से जोड़ने के साथ एक आदर्शमूलक संस्कार से सम्पन्न बनाते हैं । वस्तुतः इस युग के कवियों की काव्य-संवेदना तत्कालीन जीवन की विसंगतियों का आदर्शमूलक समाधान प्रस्तुत करती हैं। तत्कालीन समाज की आध्यात्मिक स्थिति भी अत्यन्त दयनीय थी। भगवान् बुद्ध का दर्शन स्थूल अर्थ में ग्रहण करके अनेकविध कृत्यों को प्रोत्साहित करने के साथ ही वीभत्स वामाचार का मार्ग प्रशस्त कर रहा था। वज्रयानी साधक गुप्त रहस्य और सिद्धि का प्रचार करते हुए यौन उत्तेजनाओं की वकालत कर रहे थे। उन्होंने तत्सम्बद्ध क्रियाओं को महासुख प्राप्ति का सबसे विश्वसनीय मार्ग बताया। बौद्ध धर्म में हृदय की सात्त्विक वृत्तियों का इस सीमा तक अभाव होना और पंचमकारों - मद्य, मांस, मत्स्य, (मैथुन) से सिद्धि प्राप्ति की अभिलाषा करना, सचमुच बहुत बड़ी विडम्बना में भी बौद्ध वामाचारों का प्रवेश हो चुका था। पाशुपत, कापालिक और कलामुख नाम से प्रसिद्ध धर्म-सम्प्रदाय पतित अवस्था को पहुँच गये थे। पाशुपात कहलाने वाले साधक नरबलि तक देने लगे थे। वे मृत मनुष्यों के मांस का नैवेद्य लगाते थे। लोकायत दर्शन के कारण वस्तुमूलकतावादी दृष्टिकोण को बल मिल रहा था।
इन सबका विरोध सर्वप्रथम आचार्य शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट ने किया ।  भावात्मक धरातल पर दक्षिण के आलवार भक्तों और शैव संप्रदाय साधकों ने आत्मा का परिष्कार करके लोकमानस में भक्ति, प्रेम, सौंदर्य और आनंद की सृष्टि की।
इन्हीं परिस्थितियों में भारतीय समाज को मुस्लिम संस्कृति से परिचय हुआ । यवन आक्रामक देश की सामाजिक राजनीतिक और धार्मिक विश्रृंखलता का लाभ लेते हुए एक धार्मिक उन्माद के साथ पूरे देश में छा गए। मंदिर ध्वस्त किए जाने लगे, मूर्तियां तोड़ी जाने लगी, मुसलमान शासकों ने भय और लोभ के दम पर धर्म परिवर्तन करवाने लगे । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार - 'चोटी और बेटी का ऐसा संकट भारतीय इतिहास में इससे पूर्व कभी नहीं आया था । धार्मिक व्यवस्था से असंतुष्ट निम्न जाति उत्पन्न जन समुदाय तथा वेद-बाह्य समझे जाने वाले धर्मावलंबी सामूहिक रूप से इस्लाम धर्म में सम्मिलित होने लगे । पंजाब में नाथों, निरंजनियों और पाशुपातों की अनेक शाखाएं मुसलमान हो गयीं । 
इस प्रकार भक्ति कालीन काव्य चेतना की पृष्ठभूमि में यवन संस्कृति के पदार्पण और उसके कारण उत्पन्न सांस्कृतिक संकट का बहुत बड़ा योगदान रहा है। वस्तुतः संपूर्ण भक्तिकाल जर्जर जीवन मूल्यों के पतन और स्वस्थ जीवन मूल्यों के विकास की अद्भुत गाथा है ।
इन परिस्थितियों में कबीर दास जैसे जननायक का आविर्भाव हुआ। उन्होंने सत्य का आख्यान किया । घट के भीतर ब्रह्मांड की स्थिति बताते हुए मन के मथुरा, दिल के द्वारिका और काया के काशी में परम सत्य का अनुसंधान करने की बात कही । यही नहीं उन्होंने संसार को पानी का बुलबुला कागज की पुड़िया तथा मृग मरीचिका बताते हुए उसकी ओर से सर्वथा निश्चिंत रहने का संदेश दिया। किन्तु कबीर की वाणी समग्र जीवन को आत्मसात करने में असमर्थ थी । सूफियों का प्रेम मार्ग भी सर्वथा एकांतिक होने के कारण प्रस्तुत समस्याओं का समाधान नहीं कर सका । इसलिए सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों ने तथ्यात्मक सत्य को आत्यंतिक सुख और सत्य का आधार मानते हुए गोकुल, गोपिका, गोधन और गोरस के माध्यम से समाज की वृत्ति को पुनरुज्जीवित किया । गोस्वामी तुलसीदास ने निर्गुण-सगुण, अंतर्जगत्-बहिर्जगत् ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन को एक सूत्र में पिरोया। विद्वानों ने भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा है। भक्ति काल को दो धाराओं में विभाजित किया जा सकता है - निर्गुण और सगुण । निर्गुण धारा को संत काव्य अथवा ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेमाख्यान काव्य अथवा प्रेमाश्रय शाखा तथा सगुण धारा को कृष्ण भक्ति और राम भक्ति शाखा के अंतर्गत विभक्त किया है।
सन्त काव्यधारा - इस काव्य धारा के प्रवर्तक संत कबीर थे । संतमत को एक सांस्कृतिक आंदोलन का रूप कबीर ने दिया । रैदास धन्ना सेना आदि कबीर के समकालीन संतो में हैं । इसके बाद गुरु नानक देव धर्मदास सुंदर दास जगजीवन साहब हरिराम दास चरणदास की यारी साहब सहजोबाई गुलाल साहब आदि अनेक संत हुए और उन्होंने अलग-अलग संप्रदाय भी चलाए। संतों की साधना समस्त भारतीय अध्यात्म चिंतन का निचोड़ है । संतो ने अपनी साधना के रूप में काव्य रचना की, जिसे सामान्यतः वाणी या अनुभव वाणी की संज्ञा दी जाती है । इन रचनाओं को प्रबंध और मुक्तक दोनों कोटियों में रखा जा सकता है ।

प्रेमाख्यान काव्यधारा - प्रेम वर्णन के कारण ही इस काव्य धारा को प्रेमाश्रयी, प्रेममार्गी या प्रेमाख्यान कहा जाता है । आचार्य शुक्ल ने इस धारा को प्रेमाश्रयी नाम दिया । 12 वीं शताब्दी को भारत में सूफी विचारधारा का उद्भव समय माना जाता है। कुछ विद्वान् भारत में सूफी मत का प्रवेश मुईनुद्दीन चिश्ती से मानते हैं और कुछ लोग अल्हुज्वरी से । सूफी धर्म कई शाखाओं में बट गया। सूफियों के 16 संप्रदायों का उल्लेख मिलता है किंतु प्रमुख चार हैं - १. चिश्तिया संप्रदाय २. कादरिया संप्रदाय ३. सुहर्वर्दिया संप्रदाय ४. नक्सबन्दिया सम्प्रदाय। इन चार सूफी संप्रदाय में सबसे प्रमुख चिश्तिया संप्रदाय है। भारत में इस संप्रदाय का उदय ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती से हुआ । सूफी संप्रदाय ने अधिकतर एकेश्वरवाद को मान्यता दी गई । इस कॉपी में सब के प्रति सहिष्णुता समन्वय और प्रेम की भावना का चित्रण मिलता है । सूफियों ने जगत को सत्य मानते हुए उसने परमात्मा का दर्शन किया । सूफीवाद के अनुसार सृष्टि परमात्मा के स्वरूप का ही विस्तार है । सूफियों ने मनुष्य को विधाता की सबसे सुंदर सृष्टि माना है।
हिंदी में सूफी काव्य परंपरा का सूत्रपात चन्दायन नामक प्रेमाख्यान से हुआ, जिसके रचनाकार मुल्लादाऊद थे । इसके बाद मुग्धावती, खण्डरावती, प्रेमावती आदि प्रेमाख्यानों की रचना हुई किंतु यह उपलब्ध नहीं है । मलिक मोहम्मद जायसी के कृतित्व के माध्यम से यह परंपरा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। उन्होंने पद्मावत के माध्यम से इतिहास और कल्पना की समन्वित पीठिका या हिंदू परिवार की प्रेम कहानी में सूफी सिद्धांतों को पिरोया और भारतीय जनमानस को आकृष्ट करने का प्रयत्न किया। मधुमालती (मंजन),  चित्रावली (उस्मान), इंद्रावती (नूर मुहम्मद), यूसुफ जुलेखा (शेख निसार), हंस जवाहिर (कासिमशाह) इस परम्परा की महत्वपूर्ण रचनाएं हैं।जायसी ने आखिरीकलाम, मसलानामा जैसी अन्य रचनाएं भी की हैं ।
रामभक्ति काव्यधारा - स्वामी रामानन्द का नाम भक्ति आन्दोलन के इतिहास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। स्वामी रामानन्द जी ने उत्तरी भारत में भक्ति के प्रचार प्रसार का महनीय कार्य किया । दाशरथि राम को भक्ति का आलंबन घोषित करने के कारण रामानन्द इस शाखा के संस्थापक माने जाते हैं और उनकी परम्परा को रामावत सम्प्रदाय की संज्ञा दी जाती है। उनके शिष्यों में सखानन्द, भावानंद, कबीर, रैदास, सेना आदि उल्लेखनीय हैं। हिन्दी में राम-भक्ति काव्य के आदिकवि भूपति माने जाते हैं। भूपति ने 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दोहा चौपाई छन्द में में रामकथा का गान किया । 16वीं शताब्दी में रामभक्ति काव्य के अप्रतिम गायक गोस्वामी तुलसीदास का समय आया । इन्होंने रामचरितमानस तथा अन्य रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य और हिंदू समाज की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए कार्य किया।

कृष्ण भक्ति काव्यधारा - दक्षिण भारत के तीन प्रसिद्ध आचार्य - निम्बार्काचार्य, माध्वाचार्य और विष्णु स्वामी ने विष्णु के स्थान पर कृष्ण और राधा की भक्ति को प्रतिष्ठित किया । वल्लभाचार्य और इनके अनुयायियों ने कृष्ण भक्ति को बहुत अच्छी तरह से स्थापित किया। वल्लभाचार्य ने विष्णु स्वामी के शुद्धाद्वैतवाद की विस्तृत व्याख्या करके भक्ति का एक नया मार्ग प्रशस्त किया, जिसे पुष्टिमार्ग के नाम से जाना जाता है। इन आचार्यों ने कृष्ण-राधा की भक्ति की पीठिका बनाई । कृष्ण भक्ति को लोक व्यापी बनाने में जयदेव रचित गीत गोविंद ने बहुत अच्छी भूमिका निभाई और विद्यापति के पदों के माध्यम से जन जन के हृदय में व्याप्त होने लगी। वल्लभाचार्य के बाद उनके पुत्र विट्ठलनाथ ने अपने चार शिष्यों को मिलाकर अष्टक्षाप नाम से श्रीनाथ जी के मंदिर में अष्टयाम पूजा के लिए नियुक्त किया । अष्टक्षाप के कवियों के नाम है - परमानंददास, कृष्णदास, सूरदास, कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, चतुर्भुजदास और नन्ददास ।
राधावल्लभ संप्रदाय, गौड़ी संप्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय ने भी अपने कृतित्व के माध्यम से हिन्दी साहित्य की वृद्धि की । राधावल्लभ संप्रदाय के कवियों में श्री हित हरिवंश का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने व्रज भाषा में राधा-सुधा-निधि और हित-चौरासी नामक ग्रन्थों की रचना की । गौड़ीय सम्प्रदाय के मुख्य हिन्दी कवि - गदाधर भट्ट है । निम्बार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध कवि श्री भट्ट और हरिव्यास हैं।
     कृष्ण भक्ति कवियों में रसखान और मीरा का नाम उल्लेखनीय है। रसखान ने कृष्ण के प्रति उत्कट् रूप से आकृष्ट होने के कारण इस्लाम धर्म का परित्याग कर हिन्दुत्व का वरण किया था। मीरा ने गोपियों के रूप में स्वयं को मानकर श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम की व्यंजना की है।

रीतिकाल - संवत 1700 से 1900 तक के काल को हिंदी साहित्य में उत्तर मध्य काल माना जाता है । इस काल की कविताओं में सामान्य रूप से श्रृंगार रस से ओत-प्रोत ग्रंथों की रचना हुई । कई विद्वान् इसे अलंकृत काल भी कहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे रीतिकाल नाम दिया । आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे श्रृंगार काल की संज्ञा दी ।
रीति निरूपण की प्रवृत्ति भक्तिकाल में ही प्रारम्भ हो गई थी। सूरदास की साहित्य लहरी, नन्ददास की रस मंजरी और कृपाराम की हित तरंगिणी में यह प्रवृत्ति उपलब्ध होती है।
रीतिकाल का वर्गीकरण - रीतिकालीन हिन्दी साहित्य को 3 वर्गों में विभक्त किया गया है -
1. रीतिबद्ध - इस वर्ग में वे कवि आते हैं, जो रीति के बन्धन में बंधे हुए हैं अर्थात् जिन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना की। लक्षण ग्रन्थ लिखने वाले इन कवियों में प्रमुख हैं- चिन्तामणि, कुलपति मिश्र, श्रीपति, सुरति मिश्र, सोमनाथ, भिखारीदास, दूलह, रघुनाथ, रसिकगोविन्द, प्रतापसिंह, ग्वाल आदि। इन्होंने काव्य के विशिष्टांग के भीतर रस, अलंकार और छन्द को महत्त्व दिया। रसनिरूपण करने वाले आचार्य कवियों ने नायक नायिका भेद पर भी विचार किया । काव्य के विशिष्टांग पर लक्षणग्रन्थ लिखनेवाले इन कवियों में रसलीन, मतिराम, भूषण, सुखदेव आदि के नाम आते हैं।

2. रीतिसिद्ध - तीसरे वर्ग में वे कवि आते हैं जिन्होंने रीति ग्रन्थ नहीं लिखे, किन्तु 'रीति' की उन्हें भली-भाँति जानकारी थी। वे रीति में पारंगत थे। इन्होंने इस जानकारी का पूरा-पूरा उपयोग अपने-अपने काव्य ग्रन्थों में किया। इस वर्ग के प्रतिनिधि कवि हैं- बिहारी। 'बिहारी-सतसई' इस काव्य धारा का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। अनेक प्रकार की नायिकाओं का इसमें समावेश है तथा विशिष्ट अलंकारों की कसौटी पर भी उनके अनेक दोहे खरे उतरते हैं। जब तक किसी पाठक को रीति की जानकारी नहीं होगी तब तक वह 'बिहारी सतसई' के अनेक दोहों का अर्थ नहीं समझ सकता। इस काल के कवियों ने श्रंगार तथा रति के विभिन्न आयामों का वर्णन किया है । इस काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं - बिहारी, बेनी, नेवाज, पद्माकर आदि।

3. रीतिमुक्त - इस वर्ग में वे कवि आते हैं, जो 'रीति' के बन्धन से पूर्णतः मुक्त हैं । इन्होंने रीति की परिपाटी का अनुसरण न करके अपनी भाव व्यंजना स्वच्छंद रूप से प्रकट की है । इन कवियों में प्रमुख हैं- घनानन्द, बोधा, आलम और ठाकुर आदि।

कबीरदास
    कबीरदास जी 15वीं सदी के युग प्रवर्तक माने जाते है। कबीरदास जी भगवान् राम के बहुत बड़े भक्त थे। कबीरदास जी का जन्म वि० संवत् 1456 जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार को काशी में हुआ था । कबीरदास जी के जन्म के बारे में बहुत मतभेद है। इसके अलावा उनके जन्म के बारे में कहा जाता है कि एक विधवा महिला के गर्भ से पैदा होने के कारण वह महिला उन्हें लोक-लाज के डर से लहरताला नामक तालाब के किनारे छोड़ आयी, जहां वह नीरू-नीमा नामक जुलाहे दंपत्ति को प्राप्त हुआ ।  इसी जुलाहा परिवारों ने कबीर का पालन पोषण किया कबीर दास जी की पत्नी का नाम लो ही था । कबीर दास जी को कमाल और कमाली नामक दो संतानें हुईं । कबीर रामानंद के शिष्य थे रामानंद से ही इनको राम नाम की दीक्षा मिली थी । जीवनभर कबीर काशी में रहे किन्तु अंतिम समय में मगहर चले गए, जहां सं० 1575 वि० में इनकी मृत्यु हो गई ।
     कबीर ने कभी किसी भी दोहे को लिखा नहीं क्योंकि - 'मसि कागद छूयो नहीं कलम गही नहिं हाथ' अर्थात् ये पढ़ना और लिखना नहीं जानते थे। आचार्य शुक्ल ने कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी' अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिश्रित खड़ी बोली कहा है। रमैनी और सबद में ब्रजभाषा तथा कहीं-कहीं पूरबी बोली का प्रयोग किया गया है। कुछ लोग उनकी भाषा को ‘पंचमेल-खिचड़ी' कहते हैं ।
       कबीर की वाणी के असाधारण प्रभाव का एकमात्र कारण इनकी अद्भुत व्यंग्यशक्ति है, किन्तु, इससे भी ऊपर वे एक सच्चे भक्त थे जिसने निर्गुण ब्रह्म को अपना आराध्य बनाया और उसके सम्मुख गर्व एवं अहंकार का सर्वथा परित्याग कर एक सच्चे भक्त बने । कबीर एक समाज सुधारक भी थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सच ही कहा है- "हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर-जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई दूसरा पैदा ही नहीं हुआ ।"
कबीरदास जी के रचनाएं - कबीरदास जी के शिष्यों ने उनकी वाणी का जो संग्रह तैयार किया वह  बीजक नाम से उपलब्ध है। इसके साखी, सबद और रमैनी तीन खण्ड हैं।
साखी - साखी में कबीरदास जी की शिक्षाओं तथा उनके सिद्धांतो के बारे में बताया गया है। साखी में व्यवहारिक ज्ञान, पाखंडवाद, गुरुवचन तथा कर्मकांड का भी उल्लेख मिलता है। इनमें कहीं-कहीं पर सोरठा छंद का भी प्रयोग किया गया है।
सबद - इसमें गुरु की शिक्षा, निर्भयवाणी, परमात्मा तथा शब्दब्रह्म का भी उल्लेख मिलता है।
रमैनी - रमैनी के द्वारा कबीर ने हिन्दू तथा मुस्लिम एकता के लिए समान रूप से शिक्षा दी है । रमैनी में कुल 84 पद हैं, जिनमें 14 लाख योनियों का वर्णन मिलता है। रमैनी में चौपाई छंद का भी प्रयोग मिलता है।
कबीर का काव्यरूप - कबीर ने कुल चौदह काव्यरूपों का प्रयोग किया है । साखी कबीर का सबसे प्रिय काव्यरूप है।
भाषा और शैली - ऊपर बताया जा चुका है कि कबीर पढ़ें लिखे नहीं थे इसलिए इनकी वाणी को श्रुति परम्परा से संकलित किया गया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि- "भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है।"
आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने कबीर की साखियों में 'खड़ी बोली', सबदियों में 'ब्रजी' और रमैनियों में अवधी बताया है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सधुक्कड़ी भाषा कहा है।
     कबीर जैसे व्यंग्यकार के लिए मुक्तक शैली उपयुक्त थी । कबीर की रचनाओं में जहाँ पद-शैली का प्रयोग किया गया है और जहाँ उन्होंने जीवनानुभूति को सहज रूप में प्रस्तुत किया है, वहाँ साखी या दोहावाली मुक्तक शैली अपनायी में गयी है।

साखी
गुरुदेव कौ अंग

1. बलिहारी गुरु आपणैं, द्यौं हाड़ी के बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।

शब्दार्थ : बलिहारी - न्यौछावर होना, तन-मन से समर्पित होना। देवता - मृत्यु से अमर बनाना। बार = देर, विलम्ब ।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक "मध्यकालीन काव्य कौस्तुभ" के ‘साखी’ शीर्षक से उद्धृत है, जो साखी ग्रंथ से लिया गया है। जिसके रचयिता 'कबीरदास जी' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत साखी में अज्ञानी जीव को ज्ञान द्वारा मुक्ति प्रदान करने वाले गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि-
व्याख्या - गुरु की महिमा है कि वह सामान्य जन को मनुष्य से देवता बना देता है और ऐसा करने में उसे तनिक भी देर नहीं लगती है। ऐसे गुरु को मैं दिन में कितनी बार बलिहारी जाऊं या नमन करूँ, भाव यह है कि ऐसे गुरु के चरणों में जितनी भी बार नमन करें कम ही है। देवता से क्या अर्थ है ? देवता से भाव यह है कि जो सामान्य जन जिसके सभी विकार दूर हो जाएँ, वही देवता है। गुरु भी अपने शिष्य के विकारों को दूर कर देता है और उसे शुद्ध करके देव रूप में ले जाता है, ऐसे गुरु को नमन है। यहाँ एक बात वर्तमान सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि कबीर ने गुरु की महिमा का जितना वर्णन किया है उससे भी अधिक वर्णन गुरु की पहचान अर्थात् गुरु कैसा होना चाहिए, इस पर बहुत जोर दिया है। वर्तमान में आप जो देखते हैं उन लोगों ने कपड़े तो रंगवा लिए हैं लेकिन मन को नहीं रंगवाया है। इसलिए जो व्यक्ति माया के जाल में फंसा है, चाहे वो इसके कितने भी तार्किक कारण बताएं, गुरु नहीं है बल्कि कोई बहरूपिया है, जिसे जानने और समझने की आवश्यकता है। 
टिप्पणी - 1. 'बार' में यमक अलंकार है ।

2. सतगुरु के सदकै करूँ, दिल अपणीं का साछ ।
कलियुग हम स्यूँ लड़ि पड्या, मुहकम मेरा बाछ।।

शब्दार्थ- सदकै = न्यौछावर, बलिहारी जाऊँ। साछ = साक्ष्य, साक्षी, प्रमाण । मुहकम = प्रबल, दृढ़। बाछ = वांच्छा, इच्छा।
प्रसंग- गुरु की कृपा से शिष्य कैसे भवसागर के पार हो जाता है, इसी बात को बताते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि - 
व्याख्या -  सद्गुरु के प्रति सच्चा समर्पण करने के बाद कलियुग के विकार मुझे विचलित न कर सके और मैंने कलियुग पर विजय प्राप्त कर ली। मैं अपने हृदय को साक्षी करके अर्थात् सच्चे मन से अपने आपको सद्गुरु पर न्यौछावर करता हूँ। कलियुग रूपी समस्त विकार मेरे मार्ग के बाधक बने हुए थे, परन्तु मेरी इच्छा प्रबल थी और मैं सद्गुरु द्वारा निर्देशित मार्ग पर अटल बना रहा।
टिप्पणी -  अलंकार- छेकानुप्रास

(3) सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सईं न दाति ।
हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।
शब्दार्थ : सर्वा = समान। सोधी = चित्त शुद्धि सई = से दाति = दान। हरिजन - रामभक्त
प्रसंग : प्रस्तुत साखी में अज्ञानी जीव को ज्ञान द्वारा मुक्ति प्रदान करनेवाले गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि -
व्याख्या:- इस संसार में सच्चे गुरु के समान कोई अपना सगा-सम्बन्धी नहीं है। सगा-सम्बन्धी सांसारिक भलाई करता है, किन्तु गुरु आत्म-साक्षात्कार कराके परमात्मा से मिलाता है। इसी प्रकार परमतत्त्व के खोजी के समान कोई दाता नहीं है। दाता सांसारिक नश्वर वस्तुएँ देता है, तत्त्व का खोजी तत्त्व से साक्षात्कार कराकर अमरता प्रदान करता है। परमात्मा के समान अपना कोई हितकारी नहीं है। अन्य व्यक्ति सांसारिक विषय-सम्बन्धी भलाई करते हैं, परमात्मा अपने में मिला लेता है। ईश्वर-भक्त के समान कोई जाति नहीं होती, क्योंकि अन्य जातियाँ कुछ सांसारिक स्वार्थों के आधार पर गठित होती हैं, किन्तु हरिभक्त भक्ति-रस के आस्वादन के लिए संगठित होते हैं, जिसमें स्वार्थ की गंध नहीं है।

टिप्पणी : (1) सहज, लोकात्मक भाषा का सुन्दर प्रयोग हुआ है। (2) अनुप्रास और वक्रोक्ति अलंकार ।

(4) सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।
     लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार ।।
(5) राम नाम के पटंतरे, देबे कौ कुछ नाहिं ।
     क्या ले गुरु संतोषिए, हौंस रही मन मांहि ।।
बिरह कौ अंग
(6) रात्यूँ रूंनी बिरहनीं, ज्यूं बंचौ कूं कुंज ।
कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज ।।
(7) अंबर कुंजाँ कुरलियाँ, गरजि भरे सब ताल ।
      जिनि थैं गोविंद बीछुटे, तिनके कौन हवाल ।।
(8) चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति ।
      जो जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति ।।
(9) बासुरि सुख नाँ रैंणि सुख, नाँ सुख सुपिनै माहिं ।
     कबीर बिछुट्या राम सूं, नाँ सुख धूप न छाँह ।।
(10) बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाई ।
      एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ ।।

मलिक मुहम्मद जायसी

        मलिक मुहम्मद जायसी सूफी काव्य-परम्परा के कवि हैं। कुछ विद्वान् इनका जन्म 900 हिजरी (सन् 1493) में मानते हैं । कुछ इनका जन्मकाल 'तीस बरिस ऊपर कवि बदी' के आधार पर 900 में से तीस वर्ष निकालकर 870 हि० (सन् 1463) में मानते हैं। जायसी ने 'पद्मावत' में अपने पीर के रूप में सैयद असरफ का उल्लेख किया है- "सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उजियारा" किन्तु, कतिपय अन्य पंक्तियों से यह भी प्रमाणित होता है कि वे मुहीउद्दीन नामक किसी अन्य सूफी संत के मुरीद थे- "गुरु मोहदी खेवक मैं सेवा । चलैं उताइल जेहिं कर खेवा।।” वस्तुतः ये फैजाबाद जिले के किछौछा निवासी सैयद अशरफ जहाँगीर की वंशपरम्परा के बाराबंकी जिलांतर्गत हुनहुना निवासी सूफी संत सैयद शाह मुहीउद्दीन के शिष्य थे। इनका निधन सन् 1542 ई० में माना जाता है।
            स्थानीय मान्यतानुसार जायसी के पुत्र दुर्घटना में मकान के नीचे दब कर मारे गए जिसके फलस्वरूप जायसी संसार से विरक्त हो गए और कुछ दिनों में घर छोड़ कर यहां वहां फकीर की भांति घूमने लगे। अमेठी के राजा रामसिंह उन्हें बहुत मानते थे। अपने अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। लोग बताते हैं कि अंतिम समय निकट आने पर उन्होंने अमेठी के राजा से कह दिया कि मैं किसी शिकारी के तीर से ही मरूँगा, जिस पर राजा ने आसपास के जंगलों में शिकार की मनाही कर दी। जिस जंगल में जायसी रहते थे, उसमें एक शिकारी को एक बड़ा बाघ दिखाई पड़ा। उसने डर कर उस पर गोली चला दी। पास जा कर देखा तो बाघ के स्थान पर जायसी मरे पड़े थे। जायसी कभी कभी योगबल से इस प्रकार के रूप धारण कर लिया करते थे। काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, मलिक मुहम्मद का मृत्युकाल रज्जब 949 हिजरी (सन् 1542 ई.) बताया है। इसके अनुसार उनका देहावसान 49 वर्ष से भी कम अवस्था में सिद्ध होता है किन्तु जायसी ने 'पद्मावत' के उपसंहार में वृद्धावस्था का जो वर्णन किया है वह स्वत: अनुभूत - प्रतीत होता है। जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान महल से लगभग तीन-चैथाई मील के लगभग है। यह वर्तमान किला जायसी के मरने के बहुत बाद बना है। अमेठी के राजाओं का पुराना किला जायसी की कब्र से डेढ़ कोस की दूरी पर था। अत: यह धारणा प्रचलित है कि अमेठी के राजा को जायसी की दुआ से पुत्र हुआ और उन्होंने अपने किले के समीप ही उनकी कब्र बनवाई, निराधार है। इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि अमेठी नरेश इनके संरक्षक थे। एक अन्य मान्यता अनुसार उनका देहांत 1558 में हुआ।

         'पद्मावत' सूफी काव्य-परम्परा की सर्वश्रेष्ठ कृति है; जिसका कथारम्भ कवि ने 947 हि० (सन् 1540 ई०) में किया था - सन् नौ सै सैतालिस अहा। कथा अरंभ बैन कवि कहा।” यह तिथि शाहेवक्त में वर्णित तत्कालीन दिल्ली सुलतान शेरशाह के शासनकाल से मेल खाती है। किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ० वासुदेश शरण अग्रवाल आदि विद्वानों ने 'सन् नौ सै सैतालिस' के स्थान पर 'सन् नव सै सत्ताइस पाठ शुद्ध माते हैं, जो शाहेक्त से मेल नहीं खाता। 'पद्मावत' में चित्तौर के राजा रत्नसेन और सिंघलद्वीप के राजा गंधर्वसेन की पुत्री पद्मावती की प्रेमकथा का वर्णन है। इस कहानी में इतिहास और कल्पना का अद्भुत सामंजस्य है। जायसी ने प्रत्यक्ष रूप में नायक और नायिका के विरह का वर्णन किया है।
    
रचनाएँ - जायसी ने चार पुस्तकों की रचना की - 'पद्मावत', 'अखरावट', 'आखिरी कलाम' और 'मसलानामा'। इनकी प्रसिद्धि का आधार पद्मावत है ।
  • 'पद्मावत' में पद्मावती और रत्नसेन की प्रेमकथा वर्णित है।
  • 'अखरावट' में वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सूफी-सिद्धांत का निरूपण किया गया है।
  • 'आखिरी कलाम' में कयामत का वर्णन किया गया है।
  • 'मसलानामा' में ईश्वर-प्रेम, मायामोह का त्याग तथा नीति सम्बन्धी बातों के समर्थन के लिए लोकोत्तियों की रचना की गयी है जिसे 'मसल' भी कहा जाता है।
  • अब जायसी कृत 'कहरानामा' भी प्राप्त हो गया है।
  • इनकी 'कन्हावत' नामक एक और रचना प्राप्त हुई है, जिसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

भाषा-शैली - जायसी की भाषा ठेठ अवधी है । जायसी की काव्यभाषा का सौन्दर्य उनके द्वारा प्रयुक्त लोकोक्तियों और मुहावरों में देखा जा सकता है । काव्यरूप की दृष्टि से जायसी ने प्रबन्धशैली का प्रयोग किया है । इन्होंने अपने समय में प्रचलित फारसी की मसनवी शैली और हिन्दी के चरितकाव्यों में प्रचलित एक विशेष शैली को मिलाकर एक नवीन शैली को जन्म दिया । पद्मावत में इसी रूप के दर्शन होते हैं । जायसी ने चौपाई, दोहा, छन्द में इस शैली का सुन्दर निर्वाह किया है ।

नागमती वियोग खण्ड
1. नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ।।
   नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ।।
   सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ ।।
   भएउ नरायन बावन करा। राज करत राजा बलि छरा।।
  करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ।।
  मानत भोग गोपिचंद भोगी। लेइ अपसवा जलंधर जोगी ।।
 लेइगा कृस्नहिगरूड़ अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिंकिमि गोपी ? ।।
     सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह ? ।
     झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह ।।
2.  पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा निति बोले 'पिऊ पीऊ' ।।
  अधिक काम दाधै सो रामा। हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा।।
 बिरह जान तस लाग न डोली। रकत पसीज, भींजि गइ चोली ।।
 सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी ।।
 खन एक आव पेट महँ ! साँसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा ।।
पवन डोलावहिं, सीचहिं चोला । पहर एक समुझहिं मुख बोला।।
प्रान पयान होत को राखा ? । को सुनाव पीतम कै भाखा ? ।।
  आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि ।।
  हंस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि ।।

3. पाट महादेइ ! हिये न हारू । समुझि जीउ, चित चेतु संभारू ।।
भौंर कंवल संग होइ मेरावा। संवरि नेह मालति पहं आवा ।।
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियासु, बाँध मन थीती ।।
धरतिहि जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव, बरषा तु मेहा ।।
पुनि वसन्त ऋतु आव नवेली । सो रस, सो मधुकर, सो बेली ।।
जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिवर पुनि उठिहिं संवारी ।।
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोइ सरवर, सोई हंसा ।।
मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेटि अहंत ।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ।।

4. चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा ।।
धूम, साम, धौरे घन धाए । सेत धजा बग पांति देखाए ।।
खड़ग बीजु चमकै चहुं फेरी । बुंद बान बरसहिं घन घोरा ।।
ओनई घटा आइ चहुं फेरी । कंत ! उबारु मदन हौं घेरी ।।
दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ ।।
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मंदिर को छावा ? ।।
अद्रा लाग लागि भुईं लेईं । मोहि बिनु पिउ को आदर देई ?।।
    जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
    कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब ।।

5. सावन बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी ।।
लाग पुरनबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि, कहं कंत सरेखा ।।
रकत कै आँसु परहिं भुईं टूटी । रेगिं चलौं जस बीरबहुटी ।।
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हिरयरि भूमि, कुसुंभी चोला ।।
हियं हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ।।
बाट असूझ अथाह गंभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भंभीरी ।।
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ।।
   परबत समुद अगम बिच, बीहड़ घन बनढाँख ।
   किमि कै भेंटों कंत तुम्ह ? ना मोहि पाँव न पाँख ।।

6. भा भादो दूभर अति भारी । कैसे भरौं रैनि अंधियारी ।।
मंदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा ।।
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ।
चमक बीजु घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा ।।
बरसै मघा झकोरि झकोरी । मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी ।।
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ । अबहुं न आएन्हि सोचेन्हि नाहाँ ।।
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आक जवास भई तस झूरी ।।
    थल जल भरे अपूर सब, धरति गगन मिलि एक ।
     धनि जोबन अवगाह महं, दे बूड़त, पिउ ! टेक ।।
7. लाग कुवार, नीर जग घटा। अबहूँ आउ, कंत ! तन लटा ।।
 तोहिं देखैं पिउ ! पलुहै कया। उतरा चीतु बहुरि करु मया ।।
 चिता मित्र तीन कर आवा। पपिहा पीउ पुकारत पावा ।।
उआ अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा ।। स्वाति बूंद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ।।
सरवर संवरि हंस चलि आए। सारस कुरलहि, खँजन देखाए।।
भा परगास, बाँस बन फूले। कंत न फिरे बिदेसहि भूले।
       बिरह हस्ति तन सालै, धाय करै चित चूर
      वेगि आइ, पिउ ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर ।।

8. कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल, हौं बिरहै जारी ।।
 चौदह करा चाँद परगासा। जनहुं जरैं सब धरति अकासा ।।  तन मन सेज जरै अगिदाहू। सब कहं चंद, भएउ मोहि राहू।।
 चहूं खंड लागै अंधियारा। जौं घर नाहीं कंत पियारा ।।
 अबहूं निठुर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ।।
सखि, झूमक गावैं अंग मोरी। हौं झुरावं, बिछुरी मोरि जोरी ।।
 जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कहुं बिरह, सवति दुःख दूजा ।।
      सखि मानैं तिडहार सब, गाइ देवारी खेलि ।
      हौं का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ।।
9. अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी। दूभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी ? ।।
अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती।।
 काँपैं हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ संग पीऊ ।।
घर-घर चीर रचे सब काहू। मोर रूप रंग लेगा नाहू ।।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई । अबहूं फिरे, फिरै रंग सोई।।
 बज्र अगिनि बिरहनि हिय जारा। सुलुगि सुलुगि दगधै होइ छारा ।।
 यह दुःख दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ।।
          पिउ सौ कहेहु संदेसड़ा, है भौंरा ! हे काग ! |
          सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ।।
10. पूस जाड़ थर थर तन काँपा। सुरुज जाइ लंका दिसि चाँपा।।
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ। कंपि-कंपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ।।
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे। पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ।। सौंर सपेती आवै जूड़ी। जानहु सेज हिवंचल बूड़ी ।।
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं दिन राति बिरह कोकिला।।रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पखी ।।
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा। जियत खाइ और मुए न छाँड़ा।
     रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख।
    धनि सारस होइ ररि मुई, पीउ समेटहि पंख ।।

11. लागेउ माघ, परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला ।।
पहल पहल तन रूई काँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै ॥
 आइ सूर होइ तपु, रे नाहा। तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा ।।
 एहि माह उपजै रसमूलू। तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ।।
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिन अंग लाग सर चीरू ।।
टप टप बूंद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारै झोला ।।
केहि क सिंगार, को पहिरु पटोरा। गीठ न हार, रही होइ डोरा ।।
तुम बिनु काँपै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ाया झोल ।।

12. फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ।।
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ।।
तरिवर झरहिं, झरहिं बन ढाखा। भइ ओनंत फूलि फरि साखा ।।
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहं भा जग दून उदासू ।।
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी।।
जौ पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा।।
 राति दिवस सब यह जिउ मोरे । लागौं निहोर कंत अब तोरे ।।
  यह तन जारौं छार कै, कहौं कि 'पवन ! उड़ाव'।
 मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहं पाव ।।

13. चैत बसन्ता होइ धमारी। मोहिं लेख संसार उजारी ।।
 पंचम बिरह पंच सर मारै । रकत रोड़ सगरौं बन ढारै ।।
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मजीठ, टेंसु राता ।।
बौरे आम फरै अब लागे । अबहु आउ घर कंत सभागे ।।
सहस भावफूलीं बनसपती। मधुकर घूमहिं संवरि मालती ।।
मोकहं फूल भए सब काँटे। दिस्टि परत जस लागहि चाँटे ।।
फिर जोबन भए नारंग साखा। सुआ बिरह अब जाइ न राखा ।।
      घिरिनि परेवा होइ पिउ ! आउ बेगि परु टूटि ।
     नारि पराए हाथ है, तोहि बिनु पाव न छूटि ।।
14. भा बैसाख तपनि अति लागी। चोआ चीर चंदन भा आगी।।
सूरुज जरत हिवंचल ताका । बिरह बजागि सौंह रथ हाँका।।
जरत बजागिनि करु, पिउ छाहाँ । आइ बुझाउ, अंगारन्ह माहाँ।।
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ ओगि तें करु फुलवारी ।।
लागिउं जरैं, जरै जस भारू। फिर फिर भूंजेसि, तजेउँ न बारू।।
सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइ कै बिहराई ।। बिहरत हिया करहु पिउ ! टेका। दीठि दवंगरा मेरवहु एका ।।
    कंवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ।
     कबहुं बेलि फिरि पलुहै, जौ पिउ सींचै आइ ।।
15. जेठ जरै जग, चलै लुवारा । उठहिं बवंडर परहिं अंगारा ।।
 बिरह गाजि हनुवंत होइ जागा। लंकादाह करै तनु लागा ।।
 चारिहु पवन झकोरै आगी। लंका दसहि पलंका लागी ।।
दहि भइ साम नदी कालिंदी। बिरह क आगि कठिन अति मंदी ।।
उठै आगि और आवै आँधी। नैन न सूझ, मरौ दुःख बाँधी ।।
 अधजर भइउं, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा ।।
 माँसु खाइ सब हाड़न्ह लागे। अबहु आउ, आवत सुनि भागे ।।
  गिरि, समुद, ससि, मेघ, रवि, सहि न सकहिं वह आगि ।
  मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि ।।

16. तपै लागि अब जेठ असाढ़ी। मोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी ।।
तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुःख आगरि जरी ।।
बंध नाहिं और कंध न कोई बात न आव कहौं का रोई ? ।। साँठि नाठि, जग बात को पूछा ? । बिनु जिउ फिरै मूंज तनु छूछा ।।
भई दुहेली टेक बिहूनी। थाँम नाहिं उठि सकै न थूनी ।।
बरसै मेघ चुवहि नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा ।।
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा ? तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा ।।
  अबहू मया दिस्टि करि, नाह निठुर ! घर आउ ।
   मंदिर उजार होत है, नव कै आइ बसाउ ।।

17. रोइ गंवाए बारह मासा । सहस सहस दुःख एक एक साँसा ।।
तिल तिल बरख बरख परि जाई। पहर पहर जुग जुग न सेराई ।।
सो नहिं आवै रूप मुरारी। जासौं पाव सोहाग सुनारी ।।
साँझ भए झुरि झुरि पथ हेरा। कौन सो घरी करै पिड फेरा ?।।
 दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ।।
 रकत न रहा, बिरह तन गरा। रती रती होइ नैनन्ह ढरा ।।
 पाय लागि जोरै धनि हाथा। जारा नेह, जुड़ावहु नाथा ।।
   बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।।
   मानुस घर घर बूझ कै, बूझे निसरी पंखि।।

18. भई पुछारि, लीन्ह बनबासू। बैरिनि सवति दीन्ह चिलवाँसू ।।
 होइ खग बान बिरह तनु लागा। जौ पिउ आवै उड़ति तो कागा।।
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहं पठवौं कौर परेवा।।
धौरी पंडुक कहु पिउ नाऊं। जौं चितरोख दूसर ठाऊं।।
जाहि बया होइ पिउ कंठ लवा। करै मेराब सोइ गौरवा।।
 कोइल भई पुकारति रही। महरि पुकारै 'लेइ लेइ दही' ।।
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा ।।
   जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह कै बात।
   सोइ पंखी जाइ जरि तरिवर होइ निपात ।।

19.  कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुंघुची बन बोई।।
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव ? बिरहा दुःख ताती ।। जहं जंह ठाढ़ि होइ बनबासी। तहं तहं होइ घुंघची कै रासी।। 
बूंद-बूंद महं जानहु जीऊ। गूंजा गूंजि करै 'पिउ पिऊ'।।
तेहि दुःख भए परास निपाते। लोहू बूड़ि उठे होड़ राते ।।
राते बिंब भोजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूं ।।
देखौँ जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता ?।।
   नहिं पावस ओहि देसरा, नहिं हेवंत वसन्त ।
   ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत

सूरदास
    हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के महान साहित्यकारों में सूरदास का नाम प्रथम स्थान पर लिया जाता है ।  हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि सूरदास हिन्दी साहित्य के अग्रगण्य माने जाते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। सूरदास का जन्म सं0 1540 वि. में माना जाता है । कुछ विद्वान् इनका जन्म काल संवत् 1535 में मानते हैं । सूरदास का रुनकता गांव में हुआ था । यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूरदास के पिता, रामदास बैरागी प्रसिद्ध गायक थे। सूरदास ने हजारों पदों की रचना की, अकबर से भेंट की और अन्त में पारसौली में 105 वर्ष के होकर परमगति प्राप्ति की ।
    सूरदास जी वल्लभाचार्य के शिष्य थे । सूरदास की मोक्ष विषयक अवधारणा वल्लभ सम्प्रदाय के अनुकूल है । मुक्ति का स्वरूप बताते हुए सूरदास जी लिखते हैं कि -
                    मम स्वरूप को सब घट जान ।
                    मगन रहै तज उद्यम आन
                    अरु सुख दुख कछु मन नहि आवै ।
                    माता सो नर मुक्त कहावै ।
        सूरदास ने जीव को गोपाल का अंश बताया है । इन्होने अविद्या के प्रभाव से पंच अध्यासों में भ्रमित जीव का विशेष रूप से वर्ण किया है ।
रचनाएं - सूरदास जी के प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण हैं -
1. सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं। सूरसागर, ब्रजभाषा में सूरदास द्वारा रचे गए कीर्तनों-पदों का एक सुंदर संकलन है, जो शब्दार्थ की दृष्टि से उपयुक्त और आदरणीय है। इसमें प्रथम नौ अध्याय संक्षिप्त है, दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग "कृष्ण की बाल-लीला' और "भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
2. सूरसारावली - इसकी कथावस्तु भी सूरसागर जैसी है । यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक "वृहद् होली" गीत के रूप में रचित है।
3. साहित्य लहरी - साहित्यलहरी 118 पदों की एक लघु रचना है। इसमें श्रृंगार-रस और नायिका भेद का निरूपण शास्त्रीय आधार पर किया गया है । इसके अन्तिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम 'सूरजदास' है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। अब इसे प्रक्षिप्त अंश माना गया है ओर शेष रचना पूर्ण प्रामाणिक मानी गई है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह संवत् 1607 विक्रमी में रचित सिद्ध होती है।
काव्यकला पक्ष - सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने बहुत ही अद्भुत कुशलता एवं सूक्ष्मता का परिचय दिया है़-
मैया कबहिं बढैगी चौटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
    कालिदास के काव्य में प्रीति के सभी रूपों- दास्य, सख्य, वात्सल्य और दाम्पत्य का विशद वर्णन हुआ है । सूर के काव्य में सबसे विशद वर्ण दाम्पत्य प्रेम का है । काव्यगत सौन्दर्य की दृष्टि से भ्रमरगीत विप्रलम्भ काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है ।
        सूरदास ने सबसे पहले ब्रजभाषा को साहित्यिकता प्रदान की । बोलचाल की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग कर सूर ने ब्रजभाषा को व्यापक काव्यभाषा का रूप दिया  । उसे व्यापक बनाने के लिए कवि ने फारसी, अवधी तथा पंजाबी के शब्दों को ग्रहण करने के साथ ही गुजराती, बुन्देलखण्डी और प्राकृत के शब्दों को भी अपनाया। हृदय की कोमलतम भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए गीत शैली से उपयुक्त कोई दूसरी काव्य-शैली नहीं है ।
        सूरदास ने विविध प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया । घनाक्षरी, दण्डक, हिरगीतिका, लावनी, कुण्डल, सार, चौपाई, सवैया आदि छन्द सूरदास के काव्य में कहीं अपने मूलरूप में और कहीं थोड़े परिवर्तित रूप में मिलते हैं ।
            सूरदास ने राधा-कृष्ण और गोपियों के रूप और प्रभवा-वर्णन में उपमा, रूपक आदि सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग किया है ।

विनय
अविगत-गति कछु कहत न आवै ।
ज्यौं गूँगें मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै ।
परम स्वाद सबही सु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु, निरालम्ब कित धावै ।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातैं, सूर सगुन-पद गावै ।।

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी, फिरि जहाज पर आवै । 
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्यावै ।। 
परम गंग कौं छाड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ।।
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भावै ।
सूरदास - प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ।।

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनियम कनक नंद कँ आँगन, बिंब पकरिबै, धावत ।
कबहुँ निरखि हरी आपु छाँह कौँ, कर सौँ पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ।
कनक -भूमि पर कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।
बाल-दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलावत ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ।।

जसोदा हरि पालनैं झुलावै ।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै ।
मेरे लाल कौं आज निंदरिया, काहैं न आनि सुलावै ।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ।
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै ।
इहिं अन्तर अकुलाइ उठे हरि, असुमति मधुरै गावै ।
तो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नन्द-भामिनि पावै ।।

चरन गहे अँगुठा मुख मेलत ।
नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत ।।
जे चरनारबिंद श्री - भूषन, उर तैं नैंकु न टारति ।
देखौं धौं का रस चरननि मैं, मुख मेलत करि आरति ।।
जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि करत बिषाद।
सो रस है मोहूँ कौं दुरलभ, तातैं लेत सवाद ।।
उछरत सिंधु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ ।
सेष सहसफन डोलन लागे हरि पीवत जब पाड़ ।।
बढ्यौ बृक्ष बट, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात ।
महाप्रलय के मेघ उठे करि जहाँ-तहाँ आघात ।।
करुना करी, छाँड़ि पग दीन्हौं, जानि सुरनि मन संस।
सूरदास प्रभु असुर निकंदन, दुष्टनि कैं उर गंस ।।

सोभित कर नवनीत लिये ।
घुटरुनि चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिये।
लट-लटकनि मनु मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिये ।
कठुला-कंठ, बज्र केहरि नख राजत रुचिर हिये ।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिये ।।

कान्ह चलत पग द्वै द्वै धरनी।
जो मन मैं अभिलाष करति हो, सो देखति नँद-घरनी।
रुनुक, झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहिं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं, सो छवि जाइ न बरनी।
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुन्दरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा को नन्दन, सूरदास कौं तरनी ।।

कहन लागे मोहन मैया-मैया ।
नंद महर साँ बाबा बाबा, अरु हलधर सौं भैया।
ऊँचे चढ़ि चढ़ि कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया ।
दूरि खेलन जनि जाहु लला रे, मारैगी काहु की गैया।
गोपी ग्वाल करत कौतूहल, घर-घर बजति बधैया।
 सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौँ, चरननि की बलि जैया ।

मैया री मैं चंद लहौंगौ ।
कहा करौं जलपुट भीतर कौ, बाहर ब्यौंकि गहौंगौ।।
यह तौ झलमलात झकझोरत, कैसैं कै जु लहौंगौ ?
 वह तौ निपट निकटहीं देखत, बरज्यौ हौं न रहौंगौ।।
तुम्हरौ प्रेम प्रगट मैं जान्यौ, बौराएँ न बहौंगौ।
सूरस्याम कहै कर गहि ल्याऊँ ससि-तन-दाप दहौंगौ।।

माखन बाल गोपालहिं भावै ।
भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै ।।
आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै।
जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै ।।
हौं यह जानति बानि स्याम की, अँखियाँ मीचे बदन चलावै ।
नंद-सुवन की लगौं बलैया, यह जूठनि कछु सूरज पावै

खेलत स्याम ग्वालनि संग ।
सुबल हलधर अरु श्रीदामा, करत नाना रंग ।।
हाथ तारी देत भाजत, सबै करि करि होड़।
बरजै हलधर ! तुम जनि, चोट लागै गोड़।।
तब कह्यौ मैं दौरि जानत, बहुत बल मो गात।
मेरी जोरी है श्रीदामा, हाथ मारे जात ।।
उठे बोलि तबै श्रीदामा, जाहु तारी मारि ।
आरौं हरि पार्छौं श्रीदामा, धर्यो स्याम हँकारि ।।
जानि कै मैं रह्यो ठाढ़ौ छुवत कहा जु मोहि ।
सूर हरि खीझत सखा सौं, मनहिं कीन्हौ कोह।।

खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते सुदामा, बरबस ही कत करत रिसैयाँ ।
जाति पाँति हमते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत यातै, जातैं अधिक तुम्हारे गैयाँ ।
रूठहि करै तासौँ को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ।।

मैया हौं न चरैहौं गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ।
जौ न पत्याहि पूछि बलदाउहिँ, अपनी सौंह दिवाइ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ।
मैं पठवति अपने लरिका कौ, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाई ।

प्रेमलीला
खेलत हरि निकसे ब्रज-खोरी ।
कटि कछनी पीताम्बर बाँधै, हाथ, लए भौंरा, चक डोरी ।।
मोर मुकुट, कुंडल सवननि वर, दसन-दमक दामिनि छवि छोरी।
 गए स्याम रवि-तनया कै तट, अंग लसति चंदन की खोरी ।।
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी ।
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी ।। 
सँग लरिकिनी चली इत आवति दिन-थोरी, अति छबि-तन गोरी।
सूर स्याम देखत हीं रीझे, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी ।।

वियोग
खंजन नैन सुरंग रस माते ।
अतिसय चारु बिमल, चंचल ये, पल पिंजरा न समाते।
बसे कहूँ सोइ बात सखी, कहि रहे इहाँ किहि नातैं ?
सोई संज्ञा देखति औरासी, बिकल उदास कला तैं ।।
चलि-चलि जात निकट स्रवननि के सकि ताटंक फंदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके, नतरु कबै उड़ि जाते ।।

ब्रज बसि काके बोल सहौं ।
तुम बिनु स्याम और नहिँ जानौं, सकुचि न तुमहिं कहौं ।
कुल की कानि कहा लै करिहौं, तुमकौं कहाँ लहौं ।
 धिक माता, धिक पिता बिमुख तुव, भावै तहाँ बहौं ।
कोउ कछु करै, कहै कछु कोऊ, हरष न सोक गहौं ।
सूरस्याम तुमकौं बिनु देखें, तनु मन जीव दहौं ।

भ्रमर गीत
गोकुल सबै गोपाल उपासी ।
जोग अंग साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी ।।
यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासी।।
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यद्यपि है ससि राहु-गरासी ।।
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी।
सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगति मुक्ति तजे गुनरासी ।।

जीवन मुँहचाही को नीको ।
दरस परस दिनरात करति हैं कान्ह पियारे पी को।।
नयननि मूँदि-मूँदि किन देखौ बँध्यो ज्ञान पोथी को।
आछे सुन्दर स्याम मनोहर और जगत सब फीको।।
सुनौ जोग को का लै कीजै जहाँ ज्यान है जी को।
खाटी मही नहीं रुचि मानै सूर खवैया घी को।।

आयो घोष बड़ो व्यापारी ।
खेप लादि गुन ज्ञान जोग की, ब्रज में आय उतारी ।
फाटक दै कर हाटक माँगत, भोरौं निपट सु धारी।
धुरही तें खोटो खायो है लिए फिरत सिर भारी ।
इनकै कहे कौन डहकावै, ऐसी कौंन अनारी ।
अपनौं दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप कौं बारी ।
ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तैं, बेगि गहरु जनि लावहु ।
मुख मार्गोंौं पैहौ सूरज प्रभु, साहुहिं आनि दिखावहु ।।

जोग ठगौरी बज न बिकैहै।
मूरी के पातनि के बदलैं को मुक्काहल दैहै।
यह व्यौपार तुम्हारी ऊधौ, ऐसे ही धर्यो रैहै।
जिन पै तैं ले आए ऊधौ, तिनहिं के पेट सबैहै।
दाख छाँड़ि के कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै।
 गुन करि मोही 'सूर' साँवरै, को निरगुन निरबैहै है।।

आए जोग सिखावन पाँड़े।
परमारथी पुराननि लादे, ज्यों बनजारे ठाँड़े ।।
हमरे गति-पति कमल-नयन की, जोग सिखें ते राँड़े।
कहौ मधुप कैसे समाहिंगे एक म्यान दो खाँड़े ।।
कहु षट्पद कैसे खैयतु है, हाथिन के सँग गाँड़े।
काकी भूख गई बयारि भषि, बिना दूध घृत भाँड़े ।।
काहे कौं झाला लै मिलवत कौन चोर तुम डाँड़े।
'सूरदास' तीनौं नहिं उपजत, धनिया धान कुम्हाँड़े ।।

ए अलि ! कहा जोग में नीको ?
तजि रसरीति नन्दनन्दन की सिखवत निर्गुण फीको ।।
देखत सुनत नाहिं कछु सवननि, ज्योति ज्योति करि ध्यावत । 
सुन्दर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलें।
अपनी भुजा ग्रीव पर मेलै गोपिन के सुख फूलैं ।।
लोककानि कुल को भ्रम प्रभु मिलि मिलि कै घरु बन खेली। 
अब तुम सूर खवावन आए जोग जहर की बेली।।

हमरे कौन जोग ब्रत साधै ?
मृगत्वच, भस्म, अधारि, जटा को को इतनों अवराधै।
जाकी कहूँ थाह नहिं पैए अगम, अपार, अगाधै।
गिरधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधे ?
आसन पवन भूति मृगछाला ध्याननि को अवराधे ?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधे ?।।


हम तो दुहूँ भाँति फल पाये।
जो ब्रजनाथ मिलैं तौ नीको नातरु जग जस गायो।।
कहँ वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघु जाती।
कहँ वै कमला के स्वामी संग मिलि बैठीं इक पाँती ।।
निगम ध्यान मुनि ज्ञान अगोचर तो भए घोष निवासी ।
ता ऊपर अब साँच कहो धौं मुक्ति कौन की दासी ।।
जोग कथा पा लागौं ऊधो ना कहु बारम्बार ।
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार ।।

हमतें हरि कबहूँ न उदास ।
राति खवाय पिवाय अधररस सों क्यों बिसरत ब्रज को बास।।
तुमसों प्रेमकथा को कहिबो मनहुँ काटिबो घास।
बहिरो तान- स्वाद कह जानै, गूँगो बात मिठास ।।
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख विविध विलास ।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास।।

निरखति अंक स्याम सुंदर के बार बार लावतिं लै छाती ।
लोचन जल कागद मसि मिलि कै है गइ स्याम, स्याम जू की पाती।
 गोकुल बसत नन्दनन्दन के, कबहुँ बयारि न लागी ताती ।
अरु हम उती कहा कहैं, ऊधौ, जब सुनि बेनु नाद सँग जाती ।
 उनकै लाड़ बदति नहिं काहूँ, निसि दिन रसिक-रास-रस राती।
 प्राननाथ तुम कबहिं मिलौगे, सूरदास प्रभु बाल सँघाती ।।

देखियति कालिंदी अति कारी ।
अहौ पथिक कहियौ उन हरि सौं, भई बिरह जुर जारी ।।
गिरिप्रजंक तैं गिरति धरनि धँसि, तरँग तरफ तन भारी ।
तट बारू उपचार चूर, जलपूर प्रस्वेद पनारी ।।
बिगलित कच कुस काँस कूल पर, पंक जु काजल सारी।
भौंर भ्रमत अति फिरति, भ्रमित गति दिसि दिसि दीन दुखारी ।।
निसि दिन चकई पिय जु रटति है, भई मनौ अनुहारी ।
'सूरदास' प्रभु जो जमुना गति, सो गति भई हमारी ।।

ऊधौ इतनी कहियौ बात ।
मदन गुपाल बिना या ब्रज मैं, होन लगे उतपात। 
तृनावत, बक, बकी, अघासुर, धैनुक फिरि-फिर जात ।
ब्योम, प्रलंब, कंस केसी इत, करत जिअनि को घात।
काली काल-रूप दिखियत है, जमुना जलहिँ अन्हात ।
 बरुन फाँस फाँस्यौ चाहत है, सुनियत अति मुरझात ।
इंद्र आपने परिहँस कारन, बार-बार अनखात ।
गोपी, गाइ, गोप, गोसुत सब, थर-थर काँपत गात ।
अंचल फारति जननि जसोदा, पाग लिये कर तात।
लागौ बेगि गुहारि सूर प्रभु, गोकुल बैरिनि घात।

ऊधौ ! भली करी तुम आए ।
ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हँसाए।।
कौन काज वृन्दावन को सुख, दही भात की छाक ?
अब वै कान्ह कूबरी राचे, बने एक ही ताक।।
मोर मुकुट मुरली पीतांबर, पठवौ सौज हमारी।
अपनी जटा-जूट अरु मुद्रा, लीजै भस्म अधारी ।।
वै तौ बड़े सखा तुम उनके, तुमको सुगम अनीति ।
सूर सबै अति भली स्याम कीं, जमुना जल सो प्रीति ।।

पुनर्मिलन
राधा माधव भेंट भई ।
राधा माधव माधव राधा कीट, भृंग गति है जु गई ।।
माधव राधा के रंग राँचे, राधा माधव रंग रई ।
माधव राधा प्रीति निरन्तर, रसना करि सो कहि न गई ।।
बिहँसि कह्यौ-हम तुम नहिं अन्तर, यह कहिकै उन ब्रज पठई ।
सूरदास प्रभु राधा माधव, ब्रज-बिहार नित नई-नई ।।

तुलसीदास
तुलसीदास का प्रामाणिक जीवनवृत्त प्रस्तुत कर पाना अभी तक सम्भव नहीं हुआ है । कुछ विद्वानों के अनुसार इनका श्रावण मास, शुक्ल पक्ष सप्तमी, सम्वत् 1554 वि. को, बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था । कुछ विद्वान् कहते हैं कि तुलसी की जन्मभूमि फैजाबाद और गोण्डा क्षेत्र में ही कहीं है । तुलसीदास जी की माता का नाम हुलसी और पिता का नाम आत्माराम दुबे था । तुलसीदास का पूर्व नाम रामबोला था । तुलसीदास का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था । जन्म के समय ही इनके दाँत निकले हुए थे । पैदा होने पर इनके मुख से रुदन नहीं वरन राम शब्द उच्चरित हुआ । बाल्यावस्था में ही इनके माता-पिता का देहान्त हो गया और वे दाने-दाने के लिए द्वार-द्वार भटकने लगे । अंततः अल्पवय में ही इन्होंने गोंडा जिला स्थित सूकर खेत निवासी भक्त नरहरिदास से दीक्षा ग्रहण कर ली । तुलसीदास इनका यह नाम श्रीहरिदास ने ही रखा था। ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूँकि गौना नहीं हुआ था अतः कुछ समय के लिये ये काशी चले गये और वहाँ शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। वहाँ रहते हुए अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी और वे व्याकुल होने लगे। जब नहीं रहा गया तो गुरुजी से आज्ञा लेकर ये अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। पत्नी रत्नावली चूँकि मायके में ही थी क्योंकि तब तक उनका गौना नहीं हुआ था अतः तुलसीराम ने कर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन कक्ष में जा पहुॅचे रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लाज के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से इन्हें बहुत फटकारा -
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
जो होती श्रीराम मेंह होती न तौ भवभीति ।।
कहते हैं कि इन्होंने पत्नी की इस फटकार पर वैराग्य धारण कर लिया । इसको सुनने के बाद ही तुलसीदास, तुलसीदास बन गए ।
     इन्होंने बनारस निवासी शेष सनातन जी से वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि का गम्भीर ज्ञान प्राप्त किया था। अब्दुर्रहीम खानखाना, महाराजा मानसिंह, नाभादास जी, मधुसूदन सरस्वती, टोडरमल आदि से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध था । इनका निधन सम्वत् 1680 में काशी में हुआ। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा अत्यन्त प्रसिद्ध है - 
सम्वत् सोलह सौ असी असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो सरीर ।
रचनाएं - 
      गोस्वामी तुलसीदास के नाम से प्रचलित ग्रंथों की संख्या तो 37 तक पहुँच गयी है किन्तु सामान्य रूप से विद्वानों ने इनकी प्रामाणिक रचनाओं की संख्या 12 बताई है - 1. रामलला नहछू 2. जानकी मंगल 3. रामाज्ञा प्रश्न 4. वैराग्यसंदीपिनी 5. रामचरितमानस 6. पार्वती मंगल 7. कृष्ण गीतावली 8. बरवै रामायण 9. विनय पत्रिका 10. गीतावली 11. दोहावली 12. कवितावली। 'हनुमान बाहुक' और 'कलिधर्म-निरूपण' नामक इनकी अन्य दो रचनाएँ भी प्रामाणिक कही जाती है।

रामचरितमानस
सोरठा
जो सुमिरत सिधि होइ, गन-नायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ।।1।।
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउसकल कलि मल दहन।।2।।
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन । 
करउ सो मम उर धाम सदा छीर-सागर सयन ।।3।।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ।। 4 ।। 
बन्दउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।5।।

चौपाई
गुरु वन्दना
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जेती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिंराम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रकट जहँजो जेहिखानिक ॥

दोहा
जथा सुअंजन अंजि दूंग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ।।1।।

चौपाई
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँराम चरित भव मोचन ।।
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना।।
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।।
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥ अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥

दोहा

सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ।।2।।

चौपाई
ब्राह्मण-सन्त-वन्दना

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।।
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई ।।
बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ।।
जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहि पाई ॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहूँ बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई ।।
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।।
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी ।।
सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥

दोहा
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ।।
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ।। 3 ।।

चौपाई
खल-वन्दना

"बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।।
पर हित हानि-लाभ जिन्ह करें। उजरें हरष बिषाद बसेरें ॥
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।।
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ।।
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा ।।
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।।
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा ।।
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना।।
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ।।
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा ॥

दोहा

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति ।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ।।4।।

बिहारी
       बिहारी हिन्दी के रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि है। बिहारी का जन्म सं० 1652 वि० में ग्वालियर के गोविन्दपुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवराय था जो कि निम्बार्क सम्प्रदाय के महन्त नरहरिदास के शिष्य थे। बिहारी ने नरहरिदास से ही संस्कृत-प्राकृत के काव्य ग्रन्थों का अध्ययन किया था। बाद में वे मथुरा चले आते और वहीं पर किसी ब्राह्मण-परिवार में उनका विवाह हो गया। तब से वे वहीं रहने लगे। उसी बीच उन्होंने फारसी काव्यरचना का अभ्यास किया और बादशाह शाहजहाँ से भेंट की। शाहजहाँ के कृपापात्र बन जाने से अन्य राजपरिवारों से भी इनका अच्छा संपर्क हो गया। अनेक राज्यों से उन्हें वृत्ति मिलने लगी। सं० 1702 के आसपास वे जयपुर गये तो पता लगा कि वहाँ के महाराज जयसिंह अपनी नवविवाहिता रानी के प्रेम में मुग्ध होकर महलों में पड़े रहते हैं। सामंतों की सलाह से उन्होंने महाराज के पास यह दोहा लिख भेजा -
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सो बिंध्यो आगे कौन हवाल।।

     इस दोहे को पढ़कर महाराज जयसिंह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होनें बिहारी को काली पहाड़ी नामक गाँव दिया और प्रत्येक छन्द पर पुरस्कार रूप में एक अशर्फी प्रदान करने का संकल्प किया। तब से बिहारी जयपुर में ही रहने लगे और आमेर दरबार के राजकवि के रूप में प्रसिद्ध हो गये। सं० 1720 में उनकी मृत्यु हो गई।

        बिहारी की ख्याति का मुख्य आधार उनका अप्रतिम ग्रंथ 'सतसई' है। यह गाथासप्तशती, आर्यासप्तशती, अमरूकशतक आदि ग्रंथों की शैली पर निर्मित एक श्रेष्ठ मुक्तक रचना है, जिसमें अधिकांशतः दोहों का और कहीं-कहीं सोरठों का प्रयोग किया गया है। ये दोनों छन्द मुक्तक की कसौटी हैं। मुक्तककार को दोहा-जैसे छन्दों के भीतर अपने संपूर्ण अर्थगौरव को अत्यल्प शब्दों में अत्यन्त कौशल के साथ अभिव्यक्त करना पड़ता है और यह कला बिहारी में पूर्णरूपेण थी। इसी से वे दोहा जैसे छोटे छन्द में इतना रस भर सके हैं। आचार्य शुक्ल ने ठीक ही कहा है- "मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
रीतिकाल रीतिग्रंथों के प्रणयन के काल था। रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि होने के कारण बिहारी का काव्य रीतिकालीन कविता का प्रच्छन्न घोषणा-पत्र है। बिहारी ने यद्यपि लक्षणग्रन्थ के रूप में अपनी सतसई नहीं लिखी है, पर सतसई में श्रृंगारिकता, नायक-नायिका-भेद, नाशिक निरूपण, षड्ऋतु वर्णन आदि के साथ ही चमत्कारपूर्ण भाषा-शैली कवि की रीतिनिष्ठता का परिचायक है।

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...