प्रायः सभी भाषाविदों ने हिन्दी भाषा का वास्तविक आरम्भ 1000 ई. से ही माना है, क्योंकि उस समय तक हिन्दी भाषा लगभग अपने पूर्ण अस्तित्व में आ चुकी थी। इसके उपरान्त उसने साहित्यिक रूप ग्रहण किया और तब से आज तक यह अबाध गति से विकसित होती आ रही है। इस प्रकार हिन्दी भाषा के विकास का इतिहास लगभग 1000 वर्षों का है। काल-विभाजन-ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से हिन्दी भाषा की तीन स्पष्ट अवस्थाओं का बोध होता है। इन विभिन्न अवस्थाओं को प्रायः काल की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। अतः भाषा के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से भाषा के 1000 वर्षों के इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा है
1- आदिकाल (1000 ई० से 1500 ई० तक )
2- मध्यकाल (1500 ई० से 1800 ई० तक)
3- आधुनिककाल (1800 ई० से अब तक)
1- आदिकाल (1000 ई० से 1500 ई० तक) - यह काल राजनीतिक दृष्टि से अशान्ति तथा उथल-पुथल का काल था। प्रवृत्ति के आधार पर इसे संधिकाल कहते हैं। इसमें भाषा प्राचीन रूप को छोड़कर नवीन रूप ग्रहण कर रही थी। अतः जहाँ एक ओर अपभ्रंश के प्राचीन अवहट्ठ भाषा रूप की केंचुल उतर रही थी, वहीं दूसरी ओर आदिकालीन हिन्दी का नया रूप हो रहा था। हिन्दी भाषा का यह शैशव काल था। यह काल अध्ययन सामग्री की दृष्टि से अत्यन्त संदिग्ध है। क्योंकि इस काल में शुद्ध साहित्यिक सामग्री का अभाव है। यों तो इस काल के सिद्धों, नाथों एवं जैनियों के साहित्य, चरण के बीच गाथात्मक काव्य तथा नीति एवं मनोरंजन सम्बन्धी कुछ साहित्यिक संपत्ति अवश्य उपलब्ध है, किन्तु भाषा की दृष्टि से एक दो अपवादों को छोड़कर इनमें से किसी भी ग्रंथ का कोई शुद्ध या प्रामाणिक पाठ अभी तक नहीं प्राप्त है। ऐसी स्थिति में इस काल के भाषा रूप का वैज्ञानिक तथा पूर्ण आधिकारिक अध्ययन करना सम्भव नहीं है, फिर भी, इस काल विशेष की भाषा का सामान्य परिचय सरलतापूर्वक दिया जा सकता है। इस काल के पूर्वार्द्ध में भाषा के तीन प्रमुख रूप दिखायी पड़ते हैं -
1-अपभ्रंशाभास - हिन्दी का आदिकालीन भाषा रूप अपभ्रंश से प्रभावित था। भाषा का यह रूप सिद्धों, नाथों एवं जैनियों के धार्मिक साहित्य में उपलब्ध होता है।
2- पिंगल रूप- प्रादेशिक बोलियों के साथ-साथ मध्यदेश या व्रज भूमि की भाषा के मिश्रित रूप का नाम पिंगल है। पिंगल उस समय साहित्य में व्यवहृत होने वाला प्रमुख साहित्यिक भाषा-रूप था।
3 - डिंगल रूप- अपभ्रंश एवं शुद्ध राजस्थानी भाषा के योग से जो मिश्रित साहित्यिक भाषा रूप बना, उसे डिंगल कहा जाता है। चारण कवियों के वीर गाथात्मक काव्यों की भाषा वास्तव में, नागर अपभ्रंश से प्रभावित डिंगल ही है। बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो आदि ग्रंथ इसी भाषा से प्रणीत हैं। इनके अतिरिक्त इस काल के उत्तरार्द्ध में दो अन्य भाषा-रूप और मिलते हैं -
पहला रूप वह है, जिसे पुरानी हिन्दी या हिन्दवी कहा जाता है। अरबी-फारसी शब्दों या शब्द-रूपों से बोझिल यह भाषा पुरानी हिन्दी का एक साहित्यिक रूप है। इस भाषा-रूप में रचना करने वाले प्रारम्भिक कवि मुसलमान सूफी फकी थे, जिन्होंने अपनी धार्मिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया था। प्रतिभासम्पन क्रान्तिदर्शी अमीर खुसरो ने भी अपनी गजलें, मुकरियाँ, पहेलियाँ तथा अन्य फुटक पद इसी पुरानी खड़ीबोली हिन्दी में लिखे हैं। उनकी भाषा का निम्नांकित स्वरूप विचारणीय है -
पहेली का एक उदाहरण
“रोटी जली क्यों ? घोड़ा अड़ा क्यों ? पान सड़ा क्यों ? फेरा न था।"
इसी प्रकार उनकी गजल का एक उदाहरण द्रष्टव्य है -
'जे हाल मिस्की मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिजरौँ न दारम ए जाँ न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।।......
दूसरा रूप वह है, जो पूर्व में विकसित पुरानी मैथिली भाषा का रूप कहलाता है। इसमें मैथिल कोकिल महाकवि विद्यापति की पदावलियां मिलती हैं ।
वस्तुतः यह हिंदी भाषा का अंकुर काल है। अतः इस काल में हिंदी की विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों के रूप बहुत स्पष्ट एवं सुविकसित लक्षित नहीं होते हैं। इसीलिए इस काल के साहित्य में प्रयुक्त विभिन्न बोली-रूपों में अन्यान्य बोलियों का मिश्रण दिखाई पड़ता है । ध्वनि की दृष्टि से अपभ्रंश की प्रायः सभी ध्वनियां इस काल की हिंदी में आ गई थी । कुछ नई ध्वनियों का भी विकास इस काल की हिंदी में हुआ। उदाहरणार्थ अपभ्रंश में संयुक्त स्वर नहीं थे, जबकि इस काल की हिन्दी में 'ऐ' तथा 'औ' जैसी दो संयुक्त स्वर ध्वनियां प्रयुक्त होने लगीं ।
इस काल की प्रधान साहित्यिक कृतियों की भाषा में मुख्यता डिंगल, पिंगल, मैथिली, ब्रज, अवधी, दक्खिनी, खड़ीबोली, पंजाबी आदि बोलियां तथा मिश्रित रूपों का प्रयोग मिलता है । इस काल की हिंदी के साहित्यकारों में गोरखनाथ, चन्दवरदायी, विद्यापति, नरपति नाल्ह, शाह मीराजी आदि के नाम प्रमुख हैं ।
विशेषताएं - आदिकालीन हिंदी की सामान्य भाषागत विशेषताएं इस प्रकार हैं -
- इसमें संस्कृत व्यंजन ष का उच्चारण श या ख व्यंजन रूप में होने लगा साथ ही विभिन्न बोली रूपों में श के स्थान पर स का उच्चारण होने लगा ।
- इस काल में आकर ऋ स्वर का उच्चारण रि रूप में होने लगा ।
- जिस प्रकार अपभ्रंश भाषा में संयुक्त स्वरों का अभाव था उसी प्रकार इस काल की हिंदी में भी प्रायः संयुक्त स्वरों का अभाव दिखाई देता है अपवाद स्वरूप ऐ तथा औ दो संयुक्त स्वरों का प्रयोग इस काल में होने लगा था किंतु इनके उच्चारण क्रमशः अए तथा अओ थे ।
- प्राकृतिक एवं अपभ्रंश भाषा के जिन शब्दों में द्वित्व व्यंजन थे, इस काल में आकर उनमें एक ही व्यंजन रह गया और उनका पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर दीर्घ में परिणत हो गया ।
- इसमें अरबी-फारसी की-क, ख, ग, ज, और फ व्यंजन ध्वनियां प्रयुक्त होने लगी जबकि इसके पूर्व इनका प्रयोग नहीं होता था।
- अपभ्रंश शब्दों या शब्द रूपों के स्थान पर इस काल की हिन्दी में तद्भव, देशज तथा अरबी, फारसी, तुर्की आदि विदेशी मुसलमानी भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग बहुलता से होने लगा था।
- पहले अपभ्रंश में च, छ, ज और झ ध्वनियाँ स्पर्श थी, किन्तु इस काल की हिन्दी में आकर ये ध्वनियाँ स्पर्श-संघर्षी हो गयीं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि इस काल के उत्तरार्द्ध की समाप्ति तक निश्चय ही हिन्दी की विभिन्न बोलियां व्यापक रूप से जनप्रिय हो गई थीं और आदिकालीन हिन्दी भाषा का स्वरूप बहुत परिमार्जित होकर अपनी विविध जनपद की बोलियों के साहित्यिक रूपों में स्थापित होने लगा था ।
2. मध्यकाल (1500 ई० से 1800 ई० तक) - हिन्दी का आदिकाल राजनीतिक उथल-पुथल और संघर्ष का काल था। परिणाम स्वरूप इसमें हिन्दी का बहुमुखी विकास नहीं हो सका। परन्तु मध्यकाल में मुगलों की शक्तिशाली शासन व्यवस्था थी। इस कारण देश में राजनीतिक स्थिरता एवं शान्ति का वातावरण था, जिसके कारण हिन्दी के स्वरूप में पर्याप्त निखार आने लगा। इसमें जहाँ एक ओर हिन्दी की विभिन्न बोलियाँ खूब विकसित होने लगी और उनमें स्वतन्त्र साहित्य सृजन होने लगा, वहीं दूसरी ओर हिन्दी पर से अपभ्रंश का प्रभाव भी धीरे-धीरे समाप्त होने लगा। इस प्रकार हिन्दी अपने निर्मित पथ पर उत्तरोत्तर बढ़ने लगी थी। वास्तव में इस काल को हिन्दी भाषा का स्वर्ण काल कहा जा सकता है क्योंकि 16वीं शती से हिन्दी की बोलियों का संवर्धन का स्वर्ण युग प्रारम्भ होता है।
इस काल की तीन बोलियाँ भाषा के तत्त्व में समाहित हो चुकी थीं। इस आधार पर अपने परिवर्तित रूप-भेद तथा साहित्यिक संरचना की अभिवृद्धि के कारण अवधी, ब्रज तथा खड़ीबोली ने अपनी-अपनी भाषिक स्थिरता ग्रहण कर ली। अवधी हिन्दी के पूर्वी क्षेत्र में तथा व्रज पश्चिमी क्षेत्र में विकसित हुई। पूर्व मध्यकाल की अधिकांश महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृतियाँ इन्हीं दोनों बोलियों में लिखी गयीं। वस्तुतः सूर, तुलसी, जायसी आदि भक्त एवं सूफी कवियों को अपना संदेश जनता तक पहुँचाना था। इसीलिए इन कवियों ने लोकतत्त्व युक्त जनवाणी को अपने प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया।
1- अवधी- इसका उद्भव अर्थ मागधी प्राकृत के अपभ्रंश रूप से हुआ है। इसमें सूफी प्रेमाख्यानक काव्य-धारा के प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' (1500 ई०) और सगुणोपासक रामभक्ति-धारा के प्रवर्तक गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' (1574 ई०) जैसे महाकाव्य लिखे। जायसी की भाषा ठेठ अवधी होने के कारण लोकभाषा के अधिक नैकट्य में है, जबकि तुलसी की भाषा परिनिष्ठित होने के कारण लोकभाषा से दूर इन कवियों के अतिरिक्त कुतुबन, मंझन आदि ने भी अवधी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। भाषा की दृष्टि से अवधी को परिष्कृत, परिमार्जित एवं परिनिष्ठित साहित्यिक रूप देने का श्रेय तुलसी को ही है। किन्तु पूर्णतया आदर्शीकृत और व्याकरणिक नियमों से बद्ध होने के कार अवधी संस्कृत की भाँति पूर्व मध्यकाल के अन्त तक साहित्यिक क्षेत्र से समाप्त हो गई। उसका स्थान ब्रजभाषा ने ग्रहण कर लिया।
2. ब्रज भाषा - इस काल की दूसरी प्रमुख भाषा ब्रज है। इसकी उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के अपभ्रंश रूप से हुई है। वल्लभाचार्य के प्रोत्साहन से पूर्व मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में व्रज भाषा में साहित्यिक रचना क्रम आरम्भ हुआ। सूरदास, नन्ददास आदि अष्टछापी कवियों ने ब्रज भाषा में उच्चकोटि की रचनाएँ कीं। यदि अवधी राम-काव्य की प्रधान भाषा थी तो ब्रज कृष्ण-काव्य की। अधिकाधिक प्रयोग के कारण इस भाषा का रूप उत्तरोत्तर परिष्कृत, परिमार्जित तथा स्थिर होता चला गया। आगे चलकर उत्तर मध्यकाल की समाप्ति तक रीतिकालीन कवियों ने ब्रज भाषा के चरमोत्कर्ष में विशेष योगदान किया। इस प्रकार ब्रजभाषा का प्रयोग न केवल पश्चिमी प्रदेश में हुआ, अपितु वह समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र के साहित्य सृजन का विस्तृत माध्यम बन गयी थी। देव, मतिराम, बिहारी, घनानन्द आदि कवियों ने व्रज भाषा का अभिनव शृंगार किया। बुन्देलखण्ड तथा राजस्थान के देशी राज्यों से संपर्क में आने के कारण उत्तर मध्यकाल में केशव की ब्रज भाषा में बुन्देली का पुष्ट और भूषण, सूदन की ब्रज भाषा पर अवहट्ठ का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस काल की काव्य-टीकाओं और जीवनी साहित्य में ब्रज भाषा के गद्यात्मक नमूने मिलते हैं। मध्यकाल में ब्रजभाषा को ही साहित्यिक भाषा के रूप में जन-मान्यता और गौरव मिला था। अस्तु, ब्रजभाषा का प्रयोग न केवल मध्यकाल के उत्तरार्द्ध के अन्त तक होता रहा, बल्कि आज भी हो रहा है।
3- खड़ीबोली- इस काल में खड़ीबोली में भी कतिपय साहित्यिक रचनाएँ हो रहीं थीं। भक्त कवियों में कबीर, नानक, रैदास, सदना, धन्ना, पीपा, धर्मदास, दादू, रज्जब आदि की कृतियों में खड़ीबोली का पर्याप्त पुट है। गंग और रहीम की रचनाओं में भी खड़ीबोली का प्रयोग परिलक्षित होता है। रहीम की निम्न पंक्तियों में खड़ीबोली के नमूने द्रष्टव्य हैं -
“कलित ललित माला में जवाहिर जड़ा था।
चपल चरन वाला चाँदनी में खड़ा था।"
आगे चलकर (1742 ई०) रामप्रसाद निरंजनी ने परिमार्जित खड़ीबोली में अपना 'भाषा योगवाशिष्ठ' नामक गद्य-ग्रन्थ लिखा। इसके पश्चात पं० दौलतराम ने 'जैन पद्मपुराण' का खड़ीबोली में अनुवाद किया।
उपर्युक्त तीन भाषा रूपों के अतिरिक्त इस काल में 'दक्खिनी हिन्दी, उर्दू, डिंगल, मैथिली आदि भाषाओं के रूप भी प्रचलित थे। 'दक्खिनी हिन्दी', -जो खड़ीबोली ही थी में भी साहित्य सृजन हुआ। चौदहवीं शताब्दी में खड़ीबोली दक्षिण-विजय के बाद मुसलमान शासकों के साथ दक्षिण भारत में चली गई।
शब्दों की दृष्टि से भी इस काल में कई उल्लेखनीय बातें घटित हुई। इसी समय विशेषतः हिन्दी में अधिकाधिक धार्मिक साहित्य लिखा गया। इसलिए अब हिन्दी में तद्भव एवं देशज शब्दों की अपेक्षा तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक होने लगा। अपभ्रंश के स्थान पर हिन्दी संस्कृत भाषा से अधिक प्रभावित होने लगी। उदाहरणार्थ तुलसी की काव्यगत अवधी भाषा में संस्कृत शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग हुआ है। मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में यूरोपवासियों से हमारा सम्पर्क बढ़ा, जिसके कारण अँग्रेजी, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, डच आदि विदेशी भाषाओं के कुछ प्रतिशत प्रचलित शब्द हिन्दी में प्रविष्ट हो गये। विद्वानों का विचार है कि मध्यकालीन हिन्दी में फारसी से लगभग 3500, अरबी से 2500, तुर्की से 100 तथा 100 से कुछ कम पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और शताधिक अंग्रेजी भाषा के शब्द ग्रहण किये गए। मध्यकाल की भाषा के अध्ययन के लिए वास्तव में सन्त काव्यधारा, सुफी काव्यधारा, रामभक्ति काव्यधारा, कृष्णभक्ति काव्यधारा, दक्खिनी काव्यधारा, उर्दू काव्यधारा तथा रीतिकालीन काव्यधारा का अन्वेषण एवं अनुशीलन किया जा सकता है। इस काल के साहित्यकारों में से कबीर, जायसी, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारी, भूषण, देव, घनानन्द, बुरहानुद्दीन, नुसरती, कुली कुतुबशाह, वजही तथा वली के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
सामान्य विशेषताएँ- मध्यकालीन हिन्दी के भाषा रूप की सामान्य विशेषताओं को इस प्रकार निर्दिष्ट किया जा सकता है -
- अपभ्रंश के रूप इस काल में समाप्तप्राय हो गये और हिन्दी में अवधी, ब्रज तथा तुतलाती खड़ीबोली के रूप प्रयुक्त होने लगे।
- खड़ीबोली पर आधारित 'दक्खिनी हिन्दी' और 'उर्दू' भाषा शैली का भी इस काल में प्रयोग प्रारम्भ हो गया था।
- अरबी, फारसी तथा तुर्की के शब्द इस काल में हिन्दी की प्रकृति के अनुसार पूर्णतया ढल गये।
- अपभ्रंश के स्थान पर इस काल की हिन्दी संस्कृत भाषा से अधिक प्रभावित हो गई।
- इस काल की हिन्दी में तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग आदिकालीन हिंदी की तुलना में बहुत कम हुआ ।
ऐतिहासिक दृष्टि से पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ शौरसेनी, प्राकृत के अपभ्रंश रूप से प्रसृत होने के कारण शौरसेनी प्राकृत से प्रभावापन्न हैं । पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ - राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी और मराठी आदि भाषाओं से घिरी होने के कारण उनसे प्रभावित हैं । भाषा-गठन की दृष्टि से भी राजस्थानी और पंजाबी उपभाषाओं का वर्ग पश्चिमी हिन्दी के अत्यन्त निकट है । कथ्य भाषा के रूप में पश्चिमी हिन्दी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, पंजाब का पूर्वी भाग, हरियाणा प्रदेश, पश्चिमोत्तर मध्य प्रदेश, ग्वालियर और बुन्देलखण्ड में बोली जाती है ।
पश्चिमी हिन्दी की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के अपभ्रंश रूप से हुई। है। सभी प्राकृतों में शौरसेनी प्राकृत का अपभ्रंश रूप संस्कृत भाषा के अत्यधिक निकट है। अतः पश्चिमी हिन्दी उस केन्द्र की भाषा है, जिससे आर्य भाषा, संस्कृति और सभ्यता का प्रचार और प्रसार हुआ है।
पश्चिमी हिन्दी के भाषाभाषियों की संख्या सन् 1921 की जनगणना के अनुसार 4 करोड़ 13 लाख के ऊपर थी। किन्तु वर्तमान समय में इससे बहुत अधिक है ।
पश्चिमी हिन्दी और उसकी बोलियाँ - पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत प्रमुख 5 बोलियाँ हैं -
1. खड़ीबोली - खड़ीबोली पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख बोली है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से 'खड़ीबोली' शब्द का प्रयोग दिल्ली-मेरठ के समीपवर्ती ग्राम समुदाय की ग्रामीण बोली के लिए होता है । हिन्दी की कतिपय बोलियों के नामों की भाँति 'खड़ीबोली' नाम भी बहुत प्राचीन नहीं है। लिखित साहित्य में इसका प्रयोग 1803 ई० के आस-पास का है।
2. बॉगरू - 'बाँगरु' शब्द 'बाँगर' से बना है, जिसका अर्थ है-ऊँची- नीची पथरीली भूमि' अर्थात् बाँगर उस उच्च एवं शुष्क भूमि को कहते हैं, जहाँ नदी की बाढ़ नहीं पहुँच पाती। यह प्रदेश सतलज-सिन्धु और गंगा-यमुना का मध्य का क्षेत्र है। प्राचीन काल में इसे कुरुजांगल, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त और सारस्वत प्रदेश कहते थे। इस बोली का नामकरण बाँगर प्रदेश विशेष के आधार पर हुआ है। अतः 'बाँगर' या 'बागड़' देश की जनता द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली बोली को 'बाँगरू' कहा जाता है। स्थान और बोलने वालों की जाति के अनुरूप यह बोली कई स्थानीय नामों से व्यवहृत होती है। हरियाणा से सम्बद्ध क्षेत्रों में यह हरियाणी, देसवाड़ी, देसी या देसड़ी कहलाती है। रोहतक के आस-पास जाटों का क्षेत्र है। इसलिए जाटों के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसे जादू और दिल्ली के समीपस्थ क्षेत्रों में रहने वाले चमारों के द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसे चमरवा भी कहते हैं। किन्तु अत्यधिक प्रचलित नाम 'बाँगरू' ही है। पश्चिमी हिन्दी की अन्य बोलियों की भाँति इसकी भी उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत अपभ्रंश के पश्चिमोत्तर रूप से हुई है।
3. ब्रज - पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों में से यह अत्यन्त प्रमुख और प्रतिनिधि बोली है। यह सम्पूर्ण ब्रज प्रदेश अर्थात् 84 कोस के ब्रजमण्डल की बोली है। मूल रूप में यह उस भूप्रदेश की लोकभाषा रही है, जो इसके उद्भव से लगभग 3 हजार वर्ष पहले से भारतीय संस्कृति, धर्म एवं साहित्य की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान करता रहा है और जहाँ पर संस्कृत, शौरसेनी प्राकृत तथा अपभ्रंश का साहित्य रचा गया। यही वह प्रदेश है जिसे कभी 'शूरसेन-जनपद' कहा जाता था । समृद्ध शब्दकोश, परिष्कृत एवं सुगम पद-योजना, वाक्य-विन्यास तथा शैली माधुर्य, संगीतात्मकता तथा लचीलापन आदि अपनी विशेषताओं के कारण ब्रज लगभग 500-600 वर्षो तक साहित्यिक भाषा के पद पर समासीन रह चुकी है। ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रज बोली की उत्पत्ति शौरसेनी-प्राकृत अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुई है। इस बोली का जन्म 10वीं शताब्दी के आसपास माना जा सकता है।
4. कन्नौजी - पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों में से एक है। 'कन्नौज' अर्थात् 'कान्यकुब्ज' इस बोली का केन्द्र रहा है। इस जनपद की अपनी एक विशेष संस्कृति थी। अतः यहाँ की बोली ने अपना एक क्षेत्र बना लिया था। प्राचीन काल में कन्नौज अत्यन्त प्रसिद्ध एवं समृद्ध नगर था। रामायण में इसका उल्लेख मिलता है। साथ ही अरब इतिहासकारों ने भी अपने ग्रंथों में इसकी चर्चा की है। पाँचवीं शती ईस्वी के मध्य भाग में इस नगर और प्रदेश को राठौर राजपूतों ने हस्तगत किया। इसका अन्तिम राजा जयचन्द्र था, जिसे 1193-94 ई० में मुहम्मद गोरी ने युद्ध में परास्त कर कन्नौज नगर एवं प्रदेश को अपने अधीनस्थ कर लिया । इस बोली का जन्म और विकास पांचाल प्राकृत की अपभ्रंश शाखा से हुआ है। 'कन्नौजी' ब्रज और अवधी के मध्यवर्ती क्षेत्र की बोली है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा, फर्रुखाबाद, गंगा के उत्तर शाहजहाँपुर, कानपुर, हरदोई के पश्चिमी भाग तथा पीलीभीत जिले तक बोली जाती है। वास्तव में यह शौरसेनी का ही प्रदेश है। कन्नौजी की उपबोलियाँ निम्नांकित हैं-1-तिरहारी 2- तिघारी 3- पचरुआ या पछरुआ 4-भुक्सा 5-संडीली 6-इटाली 7- बँगराही 8-शाहजहाँपुरी 9- कानपुरी 10- पीलीभीती।
5. बुन्देली - यह पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों में से एक है, जो ब्रज तथा बुन्देली कन्नौजी के साथ पश्चिमी हिन्दी बोलियों का दक्षिणी वर्ग बनाती है। यह सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड तथा ग्वालियर की प्रमुख बोली है। 14वीं शताब्दी के आरम्भ से यहाँ पर बुन्देला राजपूतों का आधिपत्य रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के मध्यकाल में बुन्देलखण्ड साहित्य का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है । बुन्देली अथवा बुन्देलखण्डी वस्तुतः बुन्देलखण्ड की बोली है। अतः इसके नाम का आधार स्थान विशेष है। बुन्देला राजपूतों की जन्मभूमि और प्रधानता के कारण ही यह प्रदेश बुन्देलखण्ड कहलाया और इस प्रदेश विशेष के आधार पर वहाँ की जनता द्वारा व्यवहृत की जाने वाली बोली को 'बुन्देली' कहा गया। बुन्देली की उत्पत्ति मध्य शौरसेनी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से हुई है और मध्यकाल में इसका विकास द्रुतगति से हुआ। बुन्देली का क्षेत्र पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, राजस्थान तथा मराठी के मध्य में है । अतः इसके पूर्व में पूर्वी हिन्दी की बघेली, उत्तर-पश्चिम में में पश्चिमी हिन्दी की ब्रज और कन्नौजी, दक्षिण में मराठी तथा दक्षिण-पश्चिम में राजस्थानी का क्षेत्र पड़ता ।
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