गद्य शब्द की उत्पत्ति गद् धातु से यत् प्रत्यय करने पर हुई है । गद्य साहित्य में कवि स्वतंत्रता पूर्वक अपनी प्रतिभा, कौशल, विदग्धता प्रदर्शित कर सकता है । छन्द से रहित रचना गद्य कहलाती है ।
गद्य का प्रारम्भ वैदिक काल से ही माना गया है । यजुर्वेद की त्तैतिरीय शाखा, काठक संहिता तथा मैत्रायणी संहिता में हमें प्राचीनतम गद्य का रूप देखने को मिलता है । कहा भी गया है कि - अनियताक्षरावसानं यजुः, गद्यात्मकं यजुः । अथर्ववेद का छठा भाग गद्यात्मक ही है । सभी ब्राह्मण ग्रन्थ भी गद्य में ही हैं । इसके पश्चात् आरण्यकों में भी गद्य का प्रयोग बहुत अधिक से देखने को मिलता है । उपनिषद् साहित्य में भी गद्य का काफी प्रयोग हुआ है ।
लेकिन लौकिक साहित्य में पद्य की अपेक्षा गद्य का प्रयोग कम मिलता हुआ है । गद्य काव्य का सर्वप्रथम दर्शन हमें सुबन्धु, बाण और दण्डी की रचनाओं में मिलता है और वह भी पूर्ण विकसित रूप में । यह तीनों कवि गद्य-काव्य के विकास की पूर्णोन्नति के प्रतिनिधि हैं ।
कात्यायन ले अपने वार्तिकों में आख्यायिका का उल्लेख किया है । पतञ्जलि अपने महाभाष्य में तीन आख्यायिकाओं से परिचित हैं - वासवदत्ता, सुमनोत्तरा और भैमरथी (अधिकृत्य कृते ग्रन्थे, बहुलं लुग्वक्तव्यः । वासवदत्ता, सुमनोत्तरा न च भवति भैमरथ्यी । महाकवि बाण ने हर्षचरित में भट्टार हिरश्चन्द्र का उल्लेख किये हैं, जो एक उच्चकोटि के गद्य लेखक थे, किन्तु अभी तक उनका कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका । शिलालेखों से भी गद्य के प्रचार-प्रसार की झलक देखने को मिलती है । रुद्रदामन के शिलालेख तथा गुप्तकालीन एक शिलालेख में भी बाण की शैली का उत्कृष्ट गद्य-स्वरूप देखने को मिलता है । इससे यह बात प्रमाणित होती है कि सुबन्धु आदि से सैकड़ों वर्ष पूर्व संस्कृत-साहित्य में उत्कृष्ट कोटि की गद्य शैली विकसित हो चुकी थी, जिसका परिपाक इन कवियों के गद्य ग्रन्थों में देखने को मिलता है ।
आलंकारिक आचार्यों में सर्वप्रथम भामह ने अपने ग्रन्थ काव्यालङ्कार में कथा तथा आख्यायिका के बीच सीमा-रेखा खींचने का प्रयास किया था । भामह कहते हैं कि आख्यायिका की कथा-वस्तु वास्तविक धरातल पर प्रतिष्ठित होती है । इसे कवि स्वयं ही वक्ता के रूप में प्रकट करता है, उच्छवासों में विभक्त होती है, वक्त्र अथवा अपरवक्त्र छन्द के द्वारा भावी घटनाओं की सूचना दी जाती है । कथा की स्थिति इससे भिन्न हुआ करती है । कथा की कथावस्तु कवि की कल्पना से प्रसूत होती है । इसका वक्ता नायक से कोई भी व्यक्ति होता है, उच्छवास आदि का विभाग नहीं होता, वक्त्र आदि झुमकी सत्ता नहीं होती। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भावना के समय में आख्यायिका एवं कथा के ग्रंथ अवश्य रहे होंगे।
आख्यायिका एवं कथा के प्रस्तुतीकरण का सर्वप्रथम श्रेय गद्य सम्राट बाण को दिया जा सकता है । बाण का आख्यायिका ग्रन्थ "हर्षचरित" है । "कादम्बरी" को वे स्वयं अतिद्वयी कथा कहते हैं।
गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति - कवि की प्रतिभा की परीक्षा गद्य क्षेत्र में होती है अथवा पद्य क्षेत्र में ? इस बात का उत्तर विद्वानों ने यह कह कर दिया है कि - गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति। अर्थात् कवि की प्रतिमा तथा उसके रचना कौशल की कसौटी गद्य है। पद्य में तो मात्रा छंद आधी हकीकत और जकड़न रहती है, इसमें कवि की प्रतिभा उन्मुक्त होकर बाहर नहीं आ पाती । पद्य-बन्ध की सीमाएं होती हैं। इसके विपरीत गद्य उन्मुक्त क्षेत्र होता है। गद्य में ना छंद का बंधन है ना मात्रा की मिति। अतः किसी भी प्रकार की कमी के लिए गद्यकार, पद्यकार की भांति नियमों की प्रतिबद्धता की बात दिखला कर उससे मुक्त नहीं हो सकता। इसीलिए पद्य की अपेक्षा गद्य की रचना अधिक कठिन है।
गद्यकार और उनकी रचनाओं का परिचय -
१. सुबन्धु
गद्यकारों में सुबन्धु का नाम सर्वप्रथम आता है। सुबन्धु ने अलंकृत शैली में "वासवदत्ता" ग्रन्थ की रचना की है। सुबन्धु का समय षष्ठ शतक का अन्तिम भाग माना जाता है।
"वासवदत्ता" सुबन्धु की एकमात्र उपलब्ध रचना है । सुबन्धुकृत वासवदत्ता का संबंध उदयन और वासवदत्ता की प्राचीन प्रणय कथा से नहीं है। इसकी पूरी की पूरी कथा कवि कल्पित ही है। वासवदत्ता की कथा का सार इस प्रकार है -
"राजा चिन्तामणि का बेटा राजकुमार कन्दर्पकेतु निद्रादेवी की गोद में विराजमान था । उसने स्वप्न में किसी अनिन्द्य सुन्दरी कन्या को देखा। उसको पाने के लिये वह विकल हो उठा। फलतः वह उसकी खोज में अपने मित्र मकरन्द के साथ निकल पड़ता है। रात्रि हो जाने पर वह विन्ध्य की उपत्यका में एक वृक्ष के नीचे शरण लेता है। पेड़ पर बैठी हुई सारिका से उसे ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र की राजकुमारी ने स्वप्न में कन्दर्पकेतु को देखा है जिसका अन्वेषण करने के लिये उसकी सारिका तमालिका निकली है। आगे चलकर शुक-दम्पति की सहायता से नायक और नायिका का सुखद मिलन होता है। दोनों के हृदय-सागर में परस्पर अनुराग की उत्ताल तरंगें हिलोरें ले रही थीं। वासवदत्ता का पिता शृंगारशेखर उसका विवाह किसी विद्याधर से करने का पक्षधर है। फलतः दोनों प्रेम के पुजारी राजकुमार और राजकुमारी जादू के एक अश्व पर सवार होकर विन्ध्याटवी में भागकर चले जाते हैं। एक दिन कन्दर्पकेतु सो रहा था। वासवदत्ता बाहर जंगल में भ्रमण करने निकलती है। वहाँ उसको प्राप्त करने के लिये किरातों के दो दलों में संघर्ष होता है। वासवदत्ता अवसर पाकर धीरे से एक ऋषि के आश्रम में चली जाती है। ऋषि के शाप से वह वहाँ शिला बन जाती है। जागने पर कन्दर्पकेतु वासवदत्ता के लिये विकल बन जाता है। उसे न पाने पर वह आत्महत्या के लिये उद्यत हो जाता है। आकाशवाणी उसे ऐसा करने से रोकती है। अन्त में वह जंगल में वासवदत्ता का पता लगा लेता है। राजकुमार के छूते ही शिला राजकुमारी वासवदत्ता बन जाती है। बाद में मकरन्द भी आकर इनसे मिलता है। अन्त में सभी वापस राजधानी में आते हैं और अपना जीवन सुख के साथ जीते हैं।"
सुबन्धु श्लेष कवि हैं। सभंग तथा अभंग, उभयविध श्लेष की रचना में इनकी लेखनी को वैदग्ध्य प्राप्त है। इनका मानना है कि सत्काव्य वही हो सकता है जिसमें अलंकारों का चमत्कार हो, श्लेष की प्रचुरता हो और वक्रोक्ति का सुंदर विन्यास हो - सुश्लेषवक्रघटनापटु सत्काव्यविरचनमिव ।
२. बाणभट्ट
संस्कृत साहित्य में गद्य का पूर्ण उत्कर्ष महाकवि बाण की रचनाओं में देखा जा सकता है। बाणभट्ट ने अपनी प्रथम गद्यकृति 'हर्षचरित' में अपना वृत्त वर्णित किया है। उसके सहारे बाण का एक असामान्य व्यक्तित्व विद्वत्जन के सामने समुपस्थित होता है। बाणभट्ट के पूर्वज सोननद के तट पर बसे 'प्रीतिकूट' नामक नगर में निवास करते थे। यह स्थान संभवतः बिहार प्रदेश के पश्चिमी भाग में रहा होगा। कवि का कुल प्राचीन काल से ही विद्या और धर्म के लिये सुविख्यात था। यह वात्स्यायन गोत्र के पवित्र ब्राह्मण थे। बाण के एक प्राचीन पूर्वज थे- 'कुबेर' । 'कुबेर', 'वत्स' के बेटे थे। कुबेर के घर पर वेद के अध्ययन के लिये विद्यार्थियों का विशाल समवाय उपस्थित रहा करता था। बाणभट्ट ने कादम्बरी के प्रारम्भ में यह भी लिखा है कि उनके घर पर बटु-गण सशंकित होकर यजुर्वेद का अध्ययन एवं साम का गान किया करते थे, क्योंकि समस्त वेदों का अभ्यास किये हुए, मैनाओं के साथ-साथ पिजड़ों में विराजमान तोते उन्हें पद-पद पर टोक दिया करते थे -
जगुर्गृहेऽभ्यस्तसमस्तवाङ्मयैः ससारिकैः पञ्जरवर्तिभिः शुकैः ।
निगृह्यमाणा बटवः पदे पदे यजूंषि सामानि च यस्य शङ्किताः ॥
कुबेर के चार बेटे थे । उनमें पशुपति सबसे छोटे थे। इनके पुत्र थे अर्थपति। अर्थपति के 11 पुत्रों में चित्रभानु आठवें पुत्र थे। यह भी सकलशास्त्रों के मर्मज्ञ पण्डित थे। इन्हीं चित्रभानु के घर बाणभट्ट का जन्म हुआ । बाण की बाल्यावस्था में ही इनके माता-पिता इन्हें अनाथ छोड़कर इस संसार से चल बसे। उस समय बाण की आयु १४ वर्ष की थी। बाण के घर में अपार पैतृक सम्पति थी। सुयोग्य अभिभावक के नियन्त्रण एवं निर्देश के अभाव में बाण कुसङ्गति में पड़ गये। अनेक दुर्व्यसनों ने उन्हें आ घेरा। देश भ्रमण का उन्हें बहुत शौक था। कुछ अन्तरङ्ग मित्रों के साथ वे देशाटन के लिये निकले। कुछ समय के अनन्तर बुद्धि विकास, सामाजिक एवं सांसारिक अनुभव तथा उदार विचारों की विशाल गठरी के साथ बाण गृह-नगर वापस आये। लोग उनका उपहास करते थे। उन्हें कुल तारने वाला नहीं, वंश बोरने वाला कहते थे। इसी समय एक दिन बाण को हर्ष के चचेरे भाई 'कृष्ण' का एक पत्र मिला। उन्होंने लिखा था- 'लोगों ने महाराज हर्ष से तुम्हारी शिकायत कर दी है। अतः वे तुम्हारे ऊपर अप्रसन्न हैं। शीघ्र उनसे मिलो।' उनकी प्रेरणा से बाण महाराज हर्ष से मिले । प्रथमतः राजा ने हर्ष की अवहेलना की। किन्तु बाद में उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्होंने बाण को राज्याश्रय प्रदान किया। बहुत दिनों तक बाण ने अपनी उपस्थिति से राज्य सभा को अलंकृत एवं चमत्कृत किया। बाद में वे अपने नगर को लोट जाये और लोगों के द्वारा राजा के विषय में पूछने पर उन्होंने 'हर्षचरित' की रचना प्रारम्भ की। बाद में हर्ष की मृत्यु हो जाने के कारण वाण अपने ग्रन्थ 'हर्षचरित' की समाप्ति के प्रति उदासीन हो गये ।
इस वृत्तान्त से यह विदित होता है कि बाण का आरम्भिक जीवन अस्त-व्यस्त था। किन्तु अपनी वैदुष्य-चातुरी के कारण बाद में बाण श्रीहर्ष के प्रियपात्र बन गये। बाण का जीवन अन्य संस्कृत कवियों की भांति अकिञ्चन न था, जीविका के लिये लालायित न था। एक तो विपुल वंश-वैभव दूसरे राज्याश्रय, दोनों ने बाण के जीवन को सुखी एवं सम्पन्न बनाये रखा । निर्धनता ने कभी भी बाण का दामन पकड़ने का साहस नहीं किया। सांसारिक सम्पत्ति एवं बुद्धि वैभव की ही भाँति पारिवारिक सम्पन्नता भी बाण की कम सुखदायिनी न थी। वे दूध और पूत दोनों से भरपूर थे। उनके पुत्र के अस्तित्व के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता है। बाण अपने जीवन में कादम्बरी को पूरी न कर सके थे। कादम्बरी के पूर्वार्द्ध की समाप्ति के साथ ही उनका जीवन भी समाप्त हो गया। मरते दम तक कादम्बरी को पूर्ण करने की चिन्ता उनके चित्त को चञ्चल बनाये रही। उस समय सुयोग्य पिता के सुयोग्य पुत्र ने आश्वासन दिया- 'पिताजी, आप चिन्ता न करें। आपके द्वारा रचित कादम्बरी की पूर्ति आप का यह बेटा करेगा।' और कहना न होगा कि बाण के सुपुत्र ने न केवल अपनी प्रतिज्ञा पूरी की अपितु अपनी लेखनी के द्वारा अपने आपको योग्य महाकवि पिता का समुचित उत्तराधिकारी भी सिद्ध किया। बाण के इस बेटे का नाम था-पुलिन्द अथवा पुलिन। कादम्बरी की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में यही नाम मिलता भी है।
बाण का समय सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है। सूर्यशतक के रचयिता मयूर कवि का आविर्भाव इसी काल में हुआ था। कवि मातंग दिवाकर भी बाण के समकालीन थे। भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि स्वामी इसी काल के है।
हर्षचरित - हर्षचरित बाण की प्रथम गद्य रचना है। यह आख्यायिका ग्रन्थ है जो आठ उच्छवासों में विभक्त है। प्रथम तीन उच्छवासों में बाण की आत्म-कथा तथा शेष पांच उच्छवासों में सम्राट हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र वर्णित है।
कादम्बरी - यह बाणभट्ट की अनुपम कृति है। कादम्बरी कथा चन्द्रापीड एवं पुण्डरीक के तीन-तीन जन्मों से सम्बंधित है। इसका उपजीव्य ग्रन्थ गुणाढ्य की बृहत्कथा है। बाण ने अपनी प्रतिभा एवं मौलिक कल्पना से कादम्बरी को सर्वथा नवीन कलेवर प्रदान किया है। इसमें दो खण्ड हैं - पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्ध । कहते हैं कि उत्तरार्द्ध बाणभट्ट के पुत्र पुलिन्द भट्ट द्वारा पूरा किया गया है।
कादम्बरी का संक्षिप्त कथानक - एक दिन विदिशा नगरी के राजा शूद्रक नवप्रभात की स्वर्णिम बेला में राजसभा के धर्मासन पर विराजमान थे। उसी समय एक चाण्डाल-कन्या ने सभा-मण्डप में प्रवेश किया। वह अपने साथ पिञ्जरे में वैशम्पायन नामक एक अद्भुत मेधावी शुक को लेकर आई थी। उस शुक ने राजा की प्रशंसा में अपने दक्षिण चरण को उठाकर एक श्लोक पढ़ा और उनका समुचित अभिवादन किया।
तोते के इस आश्चर्यजनक शास्त्र ज्ञान और व्यवहार को देखकर राजा ने उसके वृत्तान्त को जानने का कौतूहल प्रकट किया। उत्तर में तोते ने राजा को विन्ध्याटवी में अपने जन्म से लेकर जाबालि के आश्रम तक पहुँचने का इतिहास सुनाया और साथ ही जाबालि के द्वारा वर्णित अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त भी इस प्रकार निवेदित किया— उज्जयिनी में तारापीड नाम के एक राजा थे। उनकी महारानी का नाम विलासवती था। राजा के बृहस्पति के समान बुद्धिमान् मन्त्री का नाम शुकनास और मन्त्री की पत्नी का नाम मनोरमा था। राजा को कोई सन्तान न थी, इसीलिए महारानी विलासवती सदा चिन्तित रहती थी। राजा ने रानी को देव पूजा की सलाह दी। बहुत दिनों की पूजा-अर्चना के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई एवं उसी दिन महामन्त्री शुकनास को भी पुत्र हुआ।
राजा ने अपने पुत्र का नाम चन्द्रापीड और महामन्त्री ने अपने पुत्र का नाम वैशम्पायन रखा। दोनों पुत्रों का एक साथ पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा हुई। अध्ययन समाप्ति के बाद राजा ने युवराज चन्द्रापीड का राज्याभिषेक किया। इस अवसर पर महामन्त्री शुकनास ने युवराज को सारगर्भित उपदेश देकर उनके समुचित कर्त्तव्य मार्ग का निर्देश किया। चन्द्रापीड और उसका मित्र वैशम्पायन दिग्विजय के लिए निकल पड़े। इस विजय यात्रा में युवराज ने राजाओं को पराजित कर उन्हें कर देने को बाध्य किया और स्वयं हिमालय पर्वत के पास ससैन्य विश्राम के लिए कुछ दिन रुके रहे। किन्नर मिथुन के पीछे वह बड़ी दौड़-धूप करता है। उस मिथुन के अन्तर्हित हो जाने पर राजा अच्छोदसरोवर पर पहुँच जाता है। वहां अपने घोड़े को बाँधकर शिवालय में वीणावादिनी महाश्वेता का संगीत सुनने लगता है।
महाश्वेता ने आत्मकथा का वर्णन करते हुए बताया कि पुण्डरीक नामक एक ऋषि कुमार से उसको प्रेम हो गया था लेकिन मिलने से पूर्व पुण्डरीक की मृत्यु हो गई। तब से वह इस अच्छोद सरोवर पर तप कर रही है। बाद में महाश्वेता अपनी सखी कादम्बरी, जिसने कि स्वयं भी महाश्वेता के कारण कौमार्यव्रत की प्रतिज्ञा की थी, से मिलाती है। चन्द्रापीड और कादम्बरी के हृदय में एक-दूसरे के प्रति नैसर्गिक मधुर आकर्षण पैदा होता है। इसी समय पिता के बुलाने पर चन्द्रापीड उज्जयिनी लौटता है और सेना सहित वैशम्पायन को बाद में आने के लिए छोड़ देता है। ताम्बूलवाहिनी पत्रलेखा कादम्बरी के प्रेम का सन्देश लाती है। यहीं पूर्वार्द्ध भाग का अवसान होता है।
उत्तरार्द्ध भाग में जब वैशम्पायन बहुत दिनों के बाद भी नहीं लौटा तो चन्द्रापीड उसे ढूँढ़ने पुन: अच्छोद सरोवर पहुंचा, जहाँ पर उसे फिर महाश्वेता मिली और उसने बताया कि वैशम्पायन ने उस पर आसक्त होकर प्रणय याचना की और बहुत समझाने पर भी जब वह नहीं माना तब महाश्वेता ने क्रुद्ध होकर उसे शुक हो जाने का शाप दे दिया। यह सुनकर चन्द्रापीड के प्राण उड़ गए। तभी कादम्बरी आती है और यह देखकर वह भी प्राणत्याग करना चाहती है। तभी आकाशवाणी होती है और कादम्बरी को प्राण त्यागने से मना करती है एवं चन्द्रापीड के शरीर की रक्षा का आदेश देती है और यह भी बताती है कि शीघ्र ही तुम दोनों सखियों का अपने प्रेमी से पुनर्मिलन होगा। इसी बीच राजा तारापीड भी पुत्र का दुःखद समाचार सुनकर चन्द्रापीड के शरीर को देखने के लिए अच्छोद सरोवर पर आए ।
इतनी कथा कहने के बाद जाबालि मुनि ने मेरी ओर इशारा करके अपने शिष्यों से कहा कि महाश्वेता ने जिसे शुक-योनि में पतित होने का शाप दिया था। वह यही शुक था। जाबालि मुनि के द्वारा अपने पूर्वजन्म की कथा सुनकर मेरी समस्त विद्या उद्बुद्ध हो गई। मेरे हृदय में पुनः महाश्वेता के प्रति अपने पूर्व प्रेम की स्मृति हो आई। मैं उससे मिलने के लिए आतुर होकर उड़ चला। किन्तु इस चाण्डाल कन्या ने मुझे पकड़कर रख लिया और आपके पास उपहार के रूप में ले आई। इसके अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं जानता हूँ'- ऐसा कहकर तोता शान्त हो गया।
इतनी कथा सुनने के बाद चाण्डाल-कन्या ने राजा को बताया कि वह पुण्डरीक की माता लक्ष्मी है, जिसे कि उसने अब तक दुष्कर्मों से बचाया है। तथा पुण्डरीक ही उस जन्म का वैशम्पायन तथा इस जन्म का तोता है। राजा शूद्रक स्वयं पूर्वजन्म का राजा चन्द्रापीड है जो कभी चन्द्रमा था, परन्तु शापवश भूतल पर आया था। शुक एवं राजा शूद्रक के शाप की अवधि अब समाप्त हो गई है। ऐसा कहकर लक्ष्मी अन्तर्हित हो जाती है तथा शूद्रक और शुक का भी शरीरपात हो जाता है, जिससे चन्द्रापीड का पड़ा हुआ मृतक शरीर पुनर्जीवित हो जाता है एवं तोता भी पुण्डरीक हो जाता है।
इस प्रकार चन्द्रापीड और पुण्डरीक इन दोनों का अपनी प्रियतमा कादम्बरी और महाश्वेता से पुनर्मिलन हुआ और सभी सुख से रहने लगे।
कादम्बरी कथा का मूल स्रोत -
कादम्बरी के कथानक का प्रमुख आधार गुणाढ्यकृत बृहत्कथा का मकरन्दिकोपाख्यान है । बृहत्कथा सम्प्रति अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है । वह अपने दो रूपान्तरों - सोमदेव का कथासरित्सागर और क्षेमेन्द्र के बृहत्कथामंजरी के रूप में मिलती है । कथासरित्सागर के मकरन्दिकोपाख्यान में दी गई राजा सुमनस् की कथा और कादम्बरी की कथा में अत्यधिक समानता है । इस आधार पर कादम्बरी की कथा का मूल स्रोत बृहत्कथा को माना जा सकता है ।
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