सोमवार, 30 अगस्त 2021

कृष्ण जन्म कहाँ मनाएंगे ?

        पिछले कई दिनों से मन बहुत निराश और हताश है । ऐसे समय में आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी आ गई । तमाम तरह के विचार मन को आंदोलित करते रहते हैं । कुछ दिन पूर्व मुझसे किसी ने कहा कि तुम ईश्वर से प्रार्थना करना कि अगले जन्म में संस्कृत न पढ़ें। लेकिन मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि इस जन्म में मुझे संस्कृत पढ़ने का अवसर मिला और उसके द्वारा ही मुझे दादा जी जैसे महापुरुष का साथ भी मिला। हे ईश्वर! प्रत्येक जन्म में मुझे संस्कृत और हमारी संस्कृति से जोड़ कर ही रखना। संस्कृत और उससे जुड़ाव ही मेरे जीवन का मूल है। जन्माष्टमी को यदि सही मायने में समझना है तो संस्कृत अति आवश्यक है।

        आज सुबह से ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण को पढ़ने की बहुत इच्छा हो रही थी इसलिए सुबह से ही अपनी फेवरेट पुस्तक श्रीकृष्ण जीवन दर्शन खोजने लगी । यह पुस्तक जितने बार पढ़ती हूं उतने बार ही एक नया उत्साह प्राप्त होता है । निराशा से भरे मानव को आशा की किरण दिखाई देने लगती है । सुबह से ही मन में विचार चल रहा था कि इस बार कुछ व्यक्तिगत कारणों से जन्माष्टमी नहीं मना पाऊंगी । लेकिन पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मन में विचार आने लगा कि कृष्ण जन्म हम कहाँ मनाएंगे ?

        बहुत ही आतुरता से लोग श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की राह देखते हैं । लाखों लोग इस उत्सव को मनाने के लिए कई दिन पहले से तैयारियाँ करने लगते हैं । कई स्थानों पर बहुत ही भव्य आयोजन भी किये जाते हैं । इन आयोजनों का फल यह है कि जन्माष्टमी पर पूरे जोश और हर्षोल्लास के साथ ʻहाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल कीʼ जैसे गीत गाते हुए जन्माष्टमी मनाते हैं ।

ऐसे माहौल में सचमुच हमें सोचना चाहिए कि कृष्ण का जन्म सही अर्थ में कहाँ होना चाहिए ? क्या बस इन भव्य आयोजनों से कृष्ण जन्म की सार्थकता हो गई ? क्या अपने घरों और मन्दिरों में कृष्ण जन्म मना कर और प्रसाद खा कर कृष्ण जन्म पूरा हो गया ? अरे ! यह तो हमारी भाव भक्ति है इसे तो हमें करना ही चाहिए क्योंकि इसे न करने से मानव मशीन बन कर ही रह जाएगा । लेकिन क्या हमनें इन सब बातों को करते हुए कभी यह विचार किया कि ऐसा क्या किया जाए जिससे कृष्ण का जन्म हमारे जीवन में हो, कृष्ण का जन्म हमारे मन में हो ?

कृष्म जन्म का अर्थ है उदात्त ध्येय का जन्म । कृष्ण का जन्म गोकुल में हुआ । गोकुल यानि हमारा शरीर । शरीर और गोकुल भिन्न नहीं हैं । ʻगोʼ मतलब इन्द्रियाँ और ʻकुलʼ यानि समुदाय । इन्द्रियों का समुदाय जहाँ है वह गोकुल, उस गोकुल में कृष्ण जन्म करना चाहिए । हरी-हरी घास देखकर गायें जैसे उसे खाने के लिए स्वतः दौड़ने लगती हैं, ठीक उसी तरह सुखोपभोग देखकर हमारी इन्द्रियाँ भी उसे पाने के लिए दौड़ने लगती हैं । इसी कारण हमारे जीवन में अशान्ति  पैदा  होती है, सब गलत  होने लगता है । इस शरीर रूपी गोकुल में नृत्य नहीं, संगीत नहीं, मुरली नहीं बजती, जीवन बेसुरा बन जाता है । जीवन एक सुर में चलना चाहिए ।

जिस आदमी को दो पत्नियां होती है उसकी स्थिति  कितनी दया जनक होती है । एक पत्नी इधर खींचती है तो दूसरी उधर । तो जरा सोचो हजारों पत्नियों वाले (अर्थात् मनः प्रवृत्ति वाले) इस पति की (अंदर बैठे जीव की) कितनी दयाजनक स्थिति होती होगी । बेचारा कोई निर्णय ही नहीं ले सकता । अगर लेता भी है तो टिकता नही । कोई निश्यचात्मक निर्णय हो ही नहीं सकता, क्योंकि अनेक प्रवृत्तियाँ उसे इधर से उधर खींचती रहती हैं । अनंत प्रवृत्तियों की खींचातानी में हमारा जीवन घबड़ा जाता है, निर्णय नहीं ले पाता । ऐसी स्थिति में नहीं लगता कि कृष्ण जन्म हमारे मन में होना चाहिए ?

आज एक तरफ तो हम कृष्ण के उपासक बन कर कृष्ण जन्म मनाते हैं और दूसरी तरफ अपने गोकुल (शरीर) में राक्षसी विचारों को स्थान देते हैं । यदि सच्चे अर्थों में हम कृष्ण के उपासक हैं तो हमें कृष्ण के विचारों को अपने गोकुल (शरीर) में स्थान देना चाहिए । कृष्ण विचार अर्थात् गीता । गीता समझाते समय भगवान की आँख के सामने अर्जुन नहीं मानव खड़ा है । जिस प्रकार वृद्ध पिता अपने पुत्र को अंतःकरण से, हृदय खोलकर कुछ कहता है उसी प्रकार कृष्ण ने गीता समझायी है । गीता में इसीलिए भगवान ने कहा है - भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।

कृष्ण जन्म सर्वप्रथम इस गोकुल (शरीर) में हो इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है – ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः...., सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो... । फिर भी हम कभी सोचते ही नहीं कि इस गोकुल (शरीर) में कृष्ण जन्म हुआ या नहीं ?

आश्वासन देने की हिम्मत एक मात्र कृष्ण में ही है । इसलिए कृष्ण जन्म हमारे जीवन में होना चाहिए । इस (शरीररूपी) गोकुल में कृष्ण जन्म होगा तो वह हमारी इन्द्रियों का स्वामी बनकर उन्हें नाचने देगा, गड्ढा आते ही उन्हें खींच लेगा, असत् आचरण से हमें बचा लेगा । कृष्ण यानी उत्साह, स्फूर्ति, चैतन्य का जन्म, वह इसी गोकुल में (इन्द्रियों के समूह) होना चाहिए ।

असत् प्रवृत्ति ही सत् का आवरण ओढ़कर आएगी तब कौन समझाएगा कि यह सत् है या असत्? सही निर्णय कौन करेगा ? हमारी बुद्धि  लेकिन वासना, सुखोपभोग, भौतिकता की चकाचौंध से हमारी बुद्धि तो कमजोर बन चुकी है । कौन समझाएगा कि पाप ही पुण्य का रूप लेकर आया है, उसे जीवन में स्थान नहीं देना है । जीवन में अगर गोकुल है तो वहाँ कृष्ण की मुरली बजनी चाहिए । कृष्ण की मुरली अर्थात् गीता । यह मुरली यदि हमारे जीवन में बजती है तो जीवन में उत्साह, संगीत और आनन्द आएगा । तब हमारी बुद्धि हमें सही निर्णय लेने में हमारी मदद करेगी ।

मन का विकास करेंगे तभी मन विशुद्ध होगा । भक्ति यानी प्रभुसेवा । सही अर्थों में प्रभु सेवा वही है कि प्रभु को जो चाहिए वह भक्त दे । भगवान तुझसे छप्पनभोग का प्रसाद नहीं मांगते बल्कि भगवान स्वयं माँगते हैं कि मुझे तेरा मन दे - मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । भगवान को वही भक्त प्रिय भी है - मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः । जिसका व्यवहार प्रभु को प्रिय है उसी के जीवन में कृष्ण जन्म संभव है । कैसा व्यवहार ? इसका उत्तर भगवान स्वयं देते हैं - अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। ऐसा उपासक, ऐसा भक्त बनने की राह में जब चल पड़ेंगे तब कृष्ण जन्म सार्थक होगा ।

आज के कलिकाल में जहाँ वासना, भोग, पैसा, सत्ता इनका ताण्डव चल रहा है, सांस्कृतिक मूल्य छिन्न-भिन्न हो गए हैं, ऐसे समय में कोई तेजस्वी पुत्र अयाचक वृत्ति से इस प्रतिकूल परिस्थिति से टक्कर लेता हुआ, काल को बदलने की हिम्मत रखकर मजबूती और प्रमाणाकिता से प्रयत्न करता हो, तो वहीं कृष्ण जन्म लेने के लिए आतुर हो जाएंगे ।

अतः हमारे हर एक आचरण में कृष्ण जन्म होना चाहिए । जीवन को दिव्य बनाने के लिए, जीवन का विकास साधने के लिए कृष्ण जन्म मानव जीवन में, वाणी और व्यवहार में होगा तब ही सही मायने में कृष्ण जन्म सार्थक होगा । उसके लिए हाथ से माला भले ही फेरते रहें परन्तु अपने आप को हर रोज पूछना चाहिए कि कृष्ण का एक भी गुण जीवन में सार्थक हुआ क्या ? जिसके जीवन में कृष्ण जन्म होता है, कृष्ण का तत्वज्ञान नाचता है, उसका जीवन मस्ती से भरा होता है, उसकी कभी रोती सूरत नहीं होती । वह जीवन से कभी ऊबता नहीं । कृष्ण का साधक स्फूर्ति से भरा हुआ, उत्साहपूर्ण, चैतन्ययुक्त होता है । ऐसे कृष्ण जन्म में ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की सार्थकता है और तभी भगवान उसके साथ खड़े होते हैं और कहते हैं – न मे भक्तः प्रणश्यति ।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

GIC/GGIC प्रवक्ता संस्कृत पाठ्यक्रम

वैदिक साहित्य -
  • ऋग्वेद-अग्नि सूक्त (1.1)
  • विश्वेदेवा सूक्त (1.89)
  • विष्णु सूक्त (1.154)
  • प्रजापति सूक्त (10.121)
यजुर्वेद -
  • शिवसंकल्पसूक्त (34.1–6)
कठोपनिषद् - प्रथम अध्याय (1-3 वल्ली)
ईशावास्योपनिषद् - (सम्पूर्ण)
वैदिक वाङ्मय का संक्षिप्त इतिहास - (काल निर्धारण, प्रतिपाद्य विषय)
वेदांग का संक्षिप्त परिचय - शिक्षा, निरुक्त और छन्द ।

दार्शनिक चिन्तन -
सांख्यदर्शन-
              सृष्टिप्रक्रिया, प्रमाण, सत्कार्यवाद, त्रिगुण का स्वरूप, प्रकृति का स्वरूप, पुरुष का स्वरूप (ग्रन्थ-सांख्यकारिका)

वेदान्तदर्शन -
           अनुबन्ध चतुष्टय, साधन चतुष्टय माया का स्वरूप, ब्रह्म का स्वरूप ( ग्रन्थ- वेदान्तसार)

न्याय/वैशेषिक दर्शन -
        प्रमाण (प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द) (ग्रन्थ-तर्कभाषा, तर्कसंग्रह के अनुसार)

गीतादर्शन - निष्काम कर्मयोग, स्थितप्रज्ञ का स्वरूप (गीता : द्वितीय अध्याय)

जैनदर्शन एवं बौद्धदर्शन का सामान्य परिचय - (ग्रन्थ - भारतीय दर्शन - बलदेव उपाध्याय)

व्याकरण -
१. लघुसिद्धान्तकौमुदी - संज्ञाप्रकरण, सन्धिप्रकरण, कृदन्त प्रकरण, तद्धितप्रकरण, स्त्रीप्रत्यय, समास।

2. सिद्धान्तकौमुदी - कारक प्रकरण ।

3. वाच्य परिवर्तन - कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य, भाववाच्य ।

4. शब्दरूप - अजन्त, हलन्त, (पुं० स्त्री० नपुं०) ।

5. धातुरूप - (परस्मैपदी, आत्मनेपदी) - भू, एध्, अद्, हु, दा, दिव, सु, तुद्, रुध, तन्, क्री, चुर्

भाषाविज्ञान -
1. भाषा की उत्पत्ति और परिभाषा
2. भाषाओं का वर्गीकरण
3. ध्वनि परिवर्तन, अर्थ परिवर्तन

साहित्य शास्त्र -
काव्यप्रकाश/साहित्यदर्पण - काव्यप्रयोजन, काव्य लक्षण, काव्यहेतु, काव्यभेद। शब्दशक्ति (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना)। रस का स्वरूप, रस भेद, विभाव अनुभाव-संचारी भाव, स्वायीभाव का स्वरूप गुण का स्वरूप एवं भेद। रीति का स्वरूप एवं भेद ।
अधोलिखित अलंकार का सामान्य परिचय - शब्दालंकार - अनुप्रास, यमक, श्लेष । अर्थालंकार - उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा अतिशयोक्ति, सन्देह, प्रान्तिमान, दीपक, दृष्टान्त, अपहनुति, विभावना, विशेषोक्ति, विरोधाभास, परिसंख्या अर्थान्तरन्यास।

दशरूपक - नाट्य लक्षण, नाट्य भेद, अर्थप्रकृति, कार्यावस्था, पञ्चसन्धि, नायक का स्वरूप एवं भेद । पारिभाषिक शब्द - नान्दी, प्रस्तावना, सूत्रधार, कञ्चुुुकी, प्रवेशक, विष्कम्भक, प्रकाश, आकाशभाषित, जनान्तिक, अपवारित, स्वगत, भरतवाक्य ।

ध्वन्यालोक - (प्रथम उद्योत) ध्वनि का स्वरूप।

लौकिक-साहित्य -
  • रामायण एवं महाभारत - कालनिर्धारण, उपजीव्यता एवं महत्त्व।
  • प्रमुख काव्य - किरातार्जुनीयम् (प्रथम सर्ग), शिशुपालवधम् (प्रथम सर्ग), नैषधीयचरितम् (प्रथम सर्ग), रघुवंशम् (द्वितीय सर्ग), कुमारसम्भवम् (प्रथम सर्ग) ।
  • प्रमुख खण्डकाव्य - मेघदूतम् और नीतिशतकम् ।
  • प्रमुख गद्यकाव्य - कादम्बरी (कथामुख), शिवराजविजय (प्रथम निःश्वास ) ।
  • कथा साहित्य - पञ्चतन्त्र और हितोपदेश ।
  • नाटक - अभिज्ञानशाकुन्तलम् (1-4 अंक), उत्तररामचरितम् (1-3 अंक), मृच्छकटिकम् (प्रथम अंक), रत्नावली, प्रतिमानाटकम् ।
  • चम्पूकाव्य - नलचम्पू (आर्यावर्त वर्णन)।
  • महाकाव्य, खण्डकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पूकाव्य एवं नाट्य काव्य की उत्पत्ति एवं विकास ।

बुधवार, 11 अगस्त 2021

कारकप्रकरणम्

वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी

अथ प्रथमा विभक्तिः

(1) प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा (2.3.46)
नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकार्थः । मात्रशब्दस्य प्रत्येकं योगः । प्रातिपदिकार्थमात्रे लिङ्गमात्राद्याधिक्ये परिमाणमात्रे सङ्ख्यामात्रे च प्रथमा स्यात्) उच्चैः । नीचैः । कृष्णः । श्रीः। ज्ञानम् । अलिङ्गा नियतलिङ्गाश्च प्रातिपदिकार्थमात्र इत्यस्योदाहरणम् । अनियतलिङ्गास्तु लिङ्गमात्राधिक्यस्य । तट:- तटी-तटम् । परिमाणमात्रे, द्रोणो व्रीहिः । द्रोणरूपं यत्परिमाणं तत्परिच्छिन्नो व्रीहिरित्यर्थः । प्रत्ययार्थे परिमाणे प्रकृत्यर्थोऽ भेदेन संसर्गेण विशेषणम् । प्रत्ययार्थस्तु परिच्छेद्यपरिच्छेदकभावेन ब्रीहौ विशेषणमिति विवेकः । वचनं सङ्ख्या । एकः । द्वौ बहवः । इहोक्तार्थत्वाद्विभक्तेरप्राप्तौ वचनम् ।

(2) सम्बोधने च (2.3.47)
इह प्रथमा स्यात् । हे राम ।
इति प्रथमाविभक्ति: ।

अथ द्वितीया विभक्तिः

(3) कारके (1.4.23)
इत्यधिकृत्य ।

(4) कर्तुरीप्सिततमं कर्म (1.4.49)
          कर्तुः क्रियया आप्तुमिष्टतमं कारकं कर्मसञ्ज्ञं स्यात् । 'कर्तुः' किम् ? माघेष्वश्वं बध्नाति । कर्मण ईप्सिता माषाः, न तु कर्तुः । 'तमब्यहणं' किम् ? पयसा ओदनं भुङ्क्ते । 'कर्म' इत्यनुवृत्तौ पुनः कर्मग्रहणमाधारनिवृत्त्यर्थम् । अन्यथा गेहं प्रविशतीत्यत्रैव स्यात् ।

(5) अनभिहिते (2.3.1)
इत्यधिकृत्य ।

(6) कर्मणि द्वितीया (2.3.2)
          अनुक्ते कर्मणि द्वितीया स्यात् । हरिं भजति । अभिहिते तु कर्मणि 'प्रातिपदिकार्थमात्रे' इति प्रथमैव । अभिधानं च प्रायेण तिङ्कृत्तद्धितसमासैः । तिङ्-हरिः सेव्यते । कृत्-लक्ष्म्या सेवितः । तद्धितः शतेन क्रीतः शत्यः समासः प्राप्त आनन्दो यं स प्राप्तानन्दः । क्वचिन्त्रिपातेनाभिधानम् । यथा 'विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम् । साम्प्रतमित्यस्य हि युज्यत इत्यर्थः ।

(7) तथायुक्तं चानीप्सितम् (1.4.50)
         ईप्सिततमवत्क्रियया युक्तमनीप्सितमपि कारकं कर्मसञ्ज्ञं स्यात्। ग्रामं गच्छंस्तृणं स्पृशति । ओदनं भुञ्जानो विषं भुङ्क्ते ।

(8) अकथितं च (1.4.51)
अपादानादिविशेषैरविवक्षितं कारकं कर्मसंज्ञं स्यात् ।
दुह्याच्पच्दण्ड्रुधिप्रच्छिचिब्रूशासुजिमथ्मुषाम् ।
कर्मयुक्स्यादकथितं तथा स्यान्नीहृकृष्वहाम् ।।
     
     'दुहादीनां द्वादशानां तथा नीप्रभृतीनां चतुर्णां कर्मणा यद्युज्यते तदेवाकथितं कर्म' इति परिगणनं कर्तव्यमित्यर्थः । गां दोग्धि पयः बलिं याचते वसुधाम् । अविनीतं विनयं याचते । तण्डुलानोदनं पचति । गर्गाञ्छतं दण्डयति । ब्रजमवरुणद्धि गाम् । माणवकं पन्थानं पृच्छति। वृक्षमवचिनोति फलानि माणवकं धर्मं ब्रूते, शास्ति वा । शतं जयति देवदत्तम् । सुधां क्षीरनिधि । देवदत्तं शतं मुष्णाति । ग्राममजां नयति, हरति, कर्षति, अयं संज्ञा । बलिं भिक्षते वसुधाम् । माणवकं धर्मं भाषते, अभिधत्ते, वक्तीत्यादि । 'कारकं' किम् ? माणवकस्य पितरं पन्थानं पृच्छति ।
(वा०) 'अकर्मकधातुभिर्योगे देशः कालो भावो गन्तव्योऽध्वा च कर्मसंज्ञक इति वाच्यम्' । कुरून् स्वपिति । मासमास्ते । गोदोहमास्ते । क्रोशमास्ते ।

(9)गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थशब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स णौ (1.4.52)
गत्याद्यर्थानां शब्दकर्मणामकर्मकाणां चाणौ यः कर्ता स णौ कर्म स्यात्।

"शत्रूनगमयत्स्वर्गं वेदार्थं स्वानवेदयत् ।
आशयच्चामृतं देवान्वेदमध्यापयद्विधिम् ।।
आसयत्सलिले पृथ्वीं यः स मे श्रीहरिगतिः ।"
        'गति' इत्यादि किम् ? पाचयत्योदनं देवदत्तेन । 'अण्यन्तानां' किम्? । गमयति देवदत्तो यज्ञदत्तं, तमपरः प्रयुङ्क्ते, गमयति देवदत्तेन यज्ञदत्तं विष्णुमित्रः ।
अर्थशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते ।

(वा०) 'नीवह्योर्न' । नाययति, वाहयति वा भारं भृत्येन ।
(वा०) नियन्तृकर्त्तृकस्य वहेरनिषेधः । वाहयति रथं वाहान्सूतः ।
(वा०) 'आदिखाद्योर्न' । आदयति, खादयति वा अन्नं बटुना ।
(वा०) 'भक्षेरहिंसार्थस्य न'। भक्षयत्न्नं बटुना । अहिंसार्थस्य किम् ? भक्षयति बलीवर्दान्सस्यम् ।
(वा०) 'जल्पतिप्रभृतीनामुपसङ्ख्यानम्' । जल्पयति भाषयति वा धर्मं पुत्रं देवदत्तः ।
(वा०) 'दृशेश्च' । दर्शयति हरिं भक्तान् । सूत्रे ज्ञानसामान्यार्थानामेव ग्रहणं, न तु तद्विशेषार्थानामित्यनेन ज्ञाप्यते । तेन स्मरति जिघ्रति इत्यादीनां न । स्मारयति घ्रापयति वा देवदत्तेन ।
(वा०) 'शब्दायतेर्न' (वा० 1105) ! शब्दाययति देवदत्तेन । धात्वर्थसङ्ग्रहीत कर्मत्वेनाकर्मकत्वात्प्राप्तिः । येषां देशकालादिभिन्नं कर्म न सम्भवति तेऽत्राऽकर्मकाः, न त्वविवक्षितकर्माणोऽपि । तेन 'मासमासयति देवदत्तम्' इत्यादौ कर्मत्वं भवति, 'देवदत्तेन पाचयति' इत्यादौ तु न ।

(10) हृक्रोरन्यतरस्याम् (1.4.53)

ह्रकोरणौ यः कर्ता स णौ वा कर्मसज्ञः स्यात् । हारयति कारयति वा भृत्यं भृत्येन वा कटम् ।

(वा०) अभिवादिदृशोरात्मनेपदे वेति वाच्यम्' । अभिवादयते दर्शयते देवं भक्तं भक्तेन वा ।

(11) अधिशीङ्स्थाऽऽसां कर्म (1.4.46)
अधिपूर्वाणामेषामाधारः कर्म स्यात् । अधिशेते, अधितिष्ठति, अध्यास्ते वा वैकुण्ठं हरिः ।

(12) अभिनिविशश्च (1.4.47)
'अभिनि' इत्येतत्संघातपूर्वस्य विशतेराधारः कर्म स्यात् । अभिनिविशते सन्मार्गम् । 'परिक्रयणे सम्प्रदानमन्यतरस्याम्' (1.4.44) । इति सूत्राद् इह मण्डूकप्लुत्या अन्यतरस्यां ग्रहणमनुवर्त्य व्यवस्थितविभाषाश्रयणात् क्वचिन्न । पापेऽभिनिवेश: ।

(13) उपान्वध्याङ्वसः (1.4.48)
उपादिपूर्वस्य वसतेराधारः कर्म स्यात् । उपवसति, अनुवसति, अधिवसति, आवसति वा वैकुण्ठं हरिः ।

(वा०) 'अभुक्त्यर्थस्य न'। वने उपवसति ।

अथोपपदविभक्तयः

(वा०) उभसर्वतसोः कार्या धिगु' पर्यादिषु त्रिषु ।
          द्वितीयामेडितान्तेषु' ततोऽन्यत्रापि दृश्यते ॥
   उभयतः कृष्णं गोपाः । सर्वतः कृष्णम् । धिक् कृष्णाभक्तम् । उपर्युपरि लोकं हरिः । अध्यधि लोकम् । अधोऽधो लोकम् ।
 (वा०) अमित: परितः समयानिकषाहाप्रतियोगेऽपि' । अभितः कृष्णम्। परितः कृष्णम् । ग्रामं समया । निकषा लङ्काम् । हा कृष्णाभक्तम् । तस्य शोच्यते इत्यर्थः । 'बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चित्'।

(14) अन्तराऽन्तरेण युक्ते (2.3.4)
आभ्यां योगे द्वितीया स्यात् । अन्तरा त्वां मां हरिः । अन्तरेण हरिं न सुखम् ।
इति उपपदविभक्तय: ।

(15) कर्मप्रवचनीया: (1.4.83)
इत्यधिकृत्य ।

(16) अनुर्लक्षणे (1.4.84)
लक्षणे द्योत्येऽनुरुक्तसञ्ज्ञः स्यात् । गत्युपसर्गसंज्ञापवादः ।

(17) कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया (2.3.8)
एतेन योगे द्वितीया स्यात् । पर्जन्यो जपमनुप्रावर्षत् । हेतुभूतजपोपलक्षितं वर्षणमित्यर्थः । पराऽपि हेतौ तृतीयाऽनेन बाध्यते। 'लक्षणेत्थंभूत –' इत्यादिना सिद्धे पुनः संज्ञाविधानसामर्थ्यात् ।

(18) तृतीयार्थे (1.4.85)
अस्मिन्द्योत्येऽनुरुक्तसञ्ज्ञः स्यात् । नदीम् अनु अवसिता सेना। नद्या सह सम्बद्धेत्यर्थः । 'षिञ् बन्धने' क्तः ।

(19) हीने (1.4.86)
हीने द्योत्येऽनुः प्राग्वत् । अनु हरिं सुराः । हरेर्हीना इत्यर्थः ।

(20) उपोऽधिके च (1.4.87)
अधिके हीने च द्योत्ये उपेत्यव्ययं प्राक्सञ्ज्ञं स्यात् । अधिके सप्तमी वक्ष्यते। हीने, उप हरिं सुराः ।

(21) लक्षणेत्थम्भूताख्यानभागवीप्सासु प्रतिपर्यनवः (1.4.90)
      एष्वर्थेषु विषयभूतेषु प्रत्यादयः उक्तसञ्ज्ञाः स्युः । लक्षणे- वृक्षं प्रति, परि, अनु वा विद्योतते विद्युत् । इत्थंभूताख्याने – भक्तो विष्णुं प्रति, परि, अनु वा । भागे – लक्ष्मीः हरिं प्रति, परि, अनु वा हरेर्भाग इत्यर्थः । वीप्सायाम् – वृक्षं वृक्षं प्रति, परि, अनु वा सिञ्चति । अत्र उपसर्गत्वाभावात् न षत्वम् । एषु किम् – परिषिञ्चति ।

(22) अभिरभागे (1.491)
भागवर्जे लक्षणादावभिरुक्तसञ्ज्ञः स्यात् । हरिम् अभिवर्तते । भक्तो हरिम् अभि । देवं देवम् अभिसिञ्चति । अभागे किम् ? यदत्र मम अभिष्यात् तद् दीयताम् ।

(23) अधिपरी अनर्थकौ (1.4.93)
     उक्तसञ्ज्ञौ स्तः । कुतोऽध्यागच्छति । कुतः पर्यागच्छति । गतिसंज्ञाबाधात्  'गतिर्गतौ' (8.1.70) इति निघातो न ।

(24) सुः पूजायाम् (1.4.94)
      सुसिक्तम् । सुस्तुतम् । अनुपसर्गत्वान्न षः । पूजायां किम् ? सुषिक्तं किं तवाऽत्र । क्षेपोऽयम् ।

(25) अतिरतिक्रमणे च (1.4.95)
अतिक्रमणे पूजायां च अतिः कर्मप्रवचनीयसंज्ञः स्यात् । अति देवान् कृष्णः ।

(26) अपिः पदार्थसम्भावनाऽन्ववसर्गगर्हासमुच्चयेषु (1.4.96)
    एषु द्योत्येष्वपिरुक्तसञ्ज्ञः स्यात् । सर्पिषोऽपि स्यात् । अनुपसर्गत्वाद् न षः । सम्भावनायां लिङ् । तस्या एव विषयभूते भवने कर्तृदौर्लभ्यप्रयुक्तं दौर्लभ्यं द्योतयन् अपि शब्द: स्यात् इत्यनेन सम्बध्यते। सर्पिषः इति षष्ठी तु अपि शब्दबलेन गम्यमानस्य विन्दोः अवयवाऽवयविभावसम्बन्धे । इयमेव हि 'अपि' शब्दस्य पदार्थद्योतकता नाम । द्वितीया तु नेह प्रवर्तते । सर्पिषो बिन्दुना योगो न तु अपि ना इत्युक्तत्वात् । अपि स्तुयाद् विष्णुम्-संभावनं शक्त्युत्कर्षभाविष्कर्तुम् अत्युक्तिः । अपि स्तुहि- अन्ववसर्गः कामचारानुज्ञा । धिग् देवदत्तम् । अपि स्तुयाद् वृषलम्-गर्हा । अपि सिञ्च, अपि स्तुहि समुच्चये ।
इति कर्मप्रवचनीयसंज्ञाया: अधिकार: ।

(27) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे (2.3.5)
       इह द्वितीया स्यात् । मासं कल्याणी । मासमधीते । मासं गुडधानाः। क्रोशं कुटिला नदी । क्रोशमधीते । क्रोशं गिरिः । अत्यन्तसंयोगे किम् ? मासस्य द्विरधीते । क्रोशस्यैकदेशे पर्वतः 

इति द्वितीया विभक्तिः ।

अथ तृतीया विभक्तिः
स्वतन्त्रः कर्ता (1.4.54)
क्रियायां स्वातन्त्र्येण विवक्षितोऽर्थः कर्त्ता स्यात् ।

साधकतमं करणम् (1.4.42)
क्रियासिद्धौ प्रकृष्टोपकारकं करणसंज्ञं स्यात् । 'तमप्' ग्रहणं किम् ? गङ्गायां घोषः ।

कर्त्तृकरणयोस्तृतीया (2.3.18)
अनभिहिते कर्तरि करणे च तृतीया स्यात् । रामेण बाणेन हतो बाली ।
'प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्' (वा0) । प्रकृत्या चारुः । प्रायेण याज्ञिकः । गोत्रेण गार्ग्यः । समेनैति । विषमेणैति । द्विद्रोणेन धान्यं क्रीणाति । सुखेन दुःखेन वा याति इत्यादि ।

दिवः कर्म च (1.4.43)
दिवः साधकतमं कारकं कर्मसंज्ञं स्यात् , चात् करणसंज्ञम् । अक्षैः अक्षान् वा दीव्यति ।

अपवर्गे तृतीया (2.3.6)
अपवर्गः फलप्राप्तिः, तस्यां द्योत्यायां कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे तृतीया स्यात् । अह्ना क्रोशेन वा अनुवाकोऽधीतः । अपवर्गे  किम् ? मासमधीतो नायातः ।

सहयुक्तेऽप्रधाने (2.3.19)
सहार्थेन युक्तेऽप्रधाने तृतीया स्यात् । पुत्रेण सहागतः पिता । एवं साकंसार्धंसमंयोगेऽपि । विनाऽपि तद्योगं तृतीया । 'वृद्धो यूना' (1.2.65) इत्यादिनिर्देशात् ।

येनाङ्गविकारः (2.3.20)
येनाङ्गेन विकृतेनाङ्गिनो विकारो लक्ष्यते ततः तृतीया स्यात् । अक्ष्णा काणः । अक्षिसम्बन्धिकाणत्वाविशिष्टः इत्यर्थः । 'अङ्गविकारः किम्' ? अक्षि काणमस्य ।

इत्थंभूतलक्षणे (2.3.21)
कञ्चित् प्रकारं प्राप्तस्य लक्षणे तृतीया स्यात् । जटाभिस्तापसः । जटाज्ञाप्यतापसत्वविशिष्ट इत्यर्थः ।

सञ्ज्ञोऽन्यतरस्यां कर्मणि (2.3.22)
सम्पूर्वस्य जानातेः कर्मणि तृतीया वा स्यात् । पित्रा पितरं वा संजानीते ।

हेतौ (2.3.23)
हेत्वर्थे तृतीया स्यात् । द्रव्यादिसाधारणं निर्व्यापारसाधारणं व हेतुत्वम् । करणत्वं तु क्रियामात्रविषयं व्यापारनियतं च । दण्डेन घटः । पुण्येन दृष्टो हरिः । फलमपीह हेतुः । अध्ययनेन वसति । 'गम्यमानाऽपि क्रिया कारक विभक्तौ प्रयोजिका' । अलं श्रमेण । श्रमेण साध्यं नास्तीत्यर्थः । इह साधनक्रियां प्रति श्रमः करणम् । शतेन शतेन वत्सान् पाययति पयः शतेन परिच्छिद्येत्यर्थः ।
'अशिष्टव्यवहारे दाणः प्रयोगे चतुर्थ्यर्थे तृतीया' (वा० 5040)। दास्या संयच्छते कामुकः । धर्म्ये तु भार्यायै संयच्छति ।

इति तृतीया विभक्तिः ।

अथ चतुर्थी विभक्तिः

कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम् (1.4.32)
दानस्य कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानसञ्ज्ञः स्यात् ।

चतुर्थी सम्प्रदाने (2.3.13)
विप्राय गां ददाति । अनभिहित इत्येव । दीयतेऽस्मै दानीयो विप्रः ।






गुरुवार, 5 अगस्त 2021

स्त्री प्रत्यय (संक्षिप्त विवरण)

यहाँ पर पीजीटी, यूजीसी इत्यादि विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में आने वाले स्त्री प्रत्ययों (लघुसिद्धान्तकौमुदी के अनुसार) का संक्षेप में विवरण तालिका में दिया जा रहा है । इन्हें आप शॉर्ट नोट्स के रूप में पढ़ सकते हैं। सूक्ष्म विवरण और प्रक्रिया हेतु मूल भाग देखेें ।

टाप् प्रत्यय

      सूत्र                  अर्थ                          स्त्रीलिंग शब्द
अजाद्यतष्टाप् अजादि तथा आकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग में टाप् (आ) प्रत्यय होता है।अजा, एडका, अश्वा, चटका, मूषिका, बाला, मन्दा, मेधा, शूद्रा, गङ्गा, सर्वा, त्रिफला, विलाता, एता इत्यादि

चाप् प्रत्यय

               सूत्र                                     अर्थस्त्रीलिंग शब्द
(वा0) सूर्याद्देवतायां चाब्वाच्यः सूर्य की देवता स्त्री यदि ऐसा अर्थ हो तो सूर्य शब्द से चाप् प्रत्यय होता है । सूर्या 

ति प्रत्यय

   सूत्र                              अर्थ    स्त्रीलिंग शब्द
 यूनस्तिः  युवन शब्द से स्त्रीत्व विवक्षा में ति प्रत्यय होता है ।          युवतिः       

ङीन् प्रत्यय

       सूत्र                            अर्थ      स्त्रीलिंग शब्द
शार्ङ्गरवाद्यञो ङीन्शार्ङ्गरव आदि अञ् प्रत्ययान्त जो अकारान्त शब्द है उनसे स्त्रीत्व विवक्षा में ङीन् प्रत्यय होता है ।शार्ङ्गरवी, कापटवी, बैदी, ब्राह्मणी
(वा0) नृनरयोर्वृद्धिश्च नृ तथा नर शब्द से भी ङीन् प्रत्यय होता है और दोनों शब्दों में स्थित स्वरों की वृद्धि भी होती है ।      नारी

ङीप् प्रत्यय

                            सू्त्र                 अर्थ      स्त्रीलिंग शब्द
उगितश्चइस सू्त्र को समझने के लिए ठीक इसके पूर्व का सूत्र (ऋन्नेभ्यो ङीप् 4.1.5) को समझना पड़ेगा। यह सूत्र कहता है कि ऋकार तथा नकारान्त शब्दों से ङीप् प्रत्यय होता है । उगितश्च सूत्र का अर्थ है कि उगित से भी ङीप् प्रत्यय होता है। उक् इत् संज्ञक वाला कोई भी प्रत्यय यदि किसी शब्द के अन्त में है तो ऐसे शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय होता है।भवती, भवन्ती, पवन्ती, दीव्यन्ती
टिड्ढाणञ्द्वयसज्दध्नञ्मात्र-च्तयप्ठक्ठञ्कञ्क्वरपःअकारान्त टिदन्त, ढ, अण्, अञ्, द्वयसच्, दध्नञ्, मात्रच्, तयप्, ठक्, ठञ्, कञ् और क्वरप् प्रत्ययान्त शब्दों से स्त्रीत्व की विवक्षा में ङीप् प्रत्यय होता है।कुरुचरी, सौपर्णेयी, कुम्भकारी, चौरी, औत्सी, उरुद्वयसी, उरुदध्नी, उरुमात्री, पञ्चतयी, आक्षिकी, लावणिकी, यादृशी, इत्वरी
वयसि प्रथमेआरम्भिक आयु वाचक अकारान्त शब्द से स्त्रीलिङ्ग विवक्षा में ङीप् प्रत्यय होता है ।कुमारी, किशोरी
द्विगोःअकारान्त द्विगु समास युक्त शब्द से स्त्रीत्व विवक्षा में ङीप् प्रत्यय होता है ।त्रिलोकी, पञ्चपूली, दशपूली
वर्णादनुदात्तात्तोपधातो नःऐसे वर्णवाची शब्द जिनका अन्तिम वर्ण अनुदात्त हो तथा जिनकी उपधा में "त" हो तो ऐसे शब्दों से स्त्रीत्व विवक्षा में ङीप् प्रत्यय होता है तथा उपधा में स्थित "त" के स्थान पर "न" होता है ।एनी, श्येनी,  रोहिणी, हरिणी
यञश्चयञ् प्रत्ययान्त शब्दों से भी स्त्रीत्व विवक्षा में प्रातिपदिक से परे ङीप् प्रत्यय होता है । (गार्ग के अकार का लोप करने पर)
गार्गी, वात्सी

ऊङ् प्रत्यय

सूत्रअर्थ     स्त्रीलिंग शब्द
ऊङुतःउकारान्त शब्द जो मनुष्यजाति वाचक हो तथा जिनकी उपधा में "य" न हो ऐसे शब्दों से स्त्रीत्व विवक्षा में ऊङ् प्रत्यय होता है ।कुरूः, ब्रह्मबन्धूः, वीरबन्धू, अलाबूः, कर्कन्धूः
पङ्गोश्चपङ्गु शब्द से भी स्त्रीत्व विवक्षा में ऊङ् प्रत्यय होता है।पङ्गूः
ऊरूत्तरपदादौपम्ये जिसका उत्तरपद ऊरु हो तथा पूर्वपद उमानवाची हो ऐसे शब्दों से स्त्रीत्व विवक्षा में ऊङ् प्रत्यय होता है ।करभोरूः, तम्भोरूः, नागनासोरूः
संहितशफलक्षणवामादेश्च जिसके आदि में संहित, शफ, लक्षण अथवा वाम हो तथा उत्तरपद ऊरु हो तो ऐसे शब्दों से भी स्त्रीलिंग में ऊङ् प्रत्यय होता है ।संहितोरूः, शफोरूः, लक्षणोरूः, वामोरूः
(वा0) श्वशुरस्योकाराकारलोपश्चश्वशुर शब्द से ऊङ् प्रत्यय होता है और श्वशुर शब्द के उकार का लोप भी होता है ।       श्वश्रूः

ङीष् प्रत्यय

                         सूत्र             अर्थ स्त्रीलिंग शब्द
     प्राचां ष्फ तद्धितःयञ् प्रत्ययान्त शब्दों से प्राचीन आचार्यों के मत में ष्फ तद्धित प्रत्यय भी होता है ।गार्ग्यायणी, वात्स्यायनी
    षिद्गौरादिभ्यश्चषित् प्रत्ययान्त तथा गौरादि शब्दों से स्त्रीत्व विवक्षा में ङीष् प्रत्यय होता है ।गौरी, मत्सी, नर्तकी, रजकी, खनकी इत्यादि
     वोतो गुणवचनात्उकारान्त गुणवाची शब्द से स्त्रीत्व विवक्षा में विकल्प से ङीष् प्रत्यय होता है ।पट्वी, पटुः, मृद्वी, मृदुः
बह्वादिभ्यश्चबहु आदि शब्दों से भी स्त्रीत्व  विवक्षा में विकल्प से ङीष् प्रत्यय होता है ।बह्वी, बहुः
    (वा0) कृदिकारादक्तिनऐसे इकारान्त कृदन्त शब्द जिसमें क्तिन् प्रत्यय नहीं है उनसे विकल्प से ङीष् प्रत्यय होता है ।रात्री, रात्रिः
       पुंयोगादाख्यायाम्जिस पुल्लिंग शब्द का पुरुष के योग से स्त्रीलिंग में परिवर्तन करना है उस शब्द से ङीष् प्रत्यय होता है ।गोपी, गणकी, महामात्री, प्रचरी, प्रष्ठी
   (वा0) सर्वतोSक्तिन्नर्थादित्येकेक्तिन् प्रत्यय के अर्थ से भिन्न अर्थ वाले सभी इकारान्त शब्दों से ङीष् प्रत्यय होता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं ।शकटी, शकटिः
इन्द्रवरुणभवशर्वरुद्रमृडहिमारण्ययवयवन-
मातुलाचार्याणामानुक्
इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, हिम, अरण्य, यव, यवन, मातुल, आचार्य शब्दों से ङीष् प्रत्यय के साथ आनुक् आगम भी होता है ।इन्द्राणी, वरुणानी, भवानी, शर्वाणी, रुद्राणी, मृडानी इत्यादि
क्रीतात् करणपूर्वात्ऐसा अकारान्त शब्द जिसके अन्त में क्रीत हो और करणवाचक शब्द पूर्व में हो उससे स्त्रीत्व विवक्षा में ङीष् प्रत्यय होता है ।वस्त्रक्रीती, वसनक्रीती
  स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्स्वाङ्गवाची शब्द यदि उपसर्जन हो और उसकी उपधा में संयोग न हो तो ऐसे शब्दों से स्त्रीत्व विवक्षा में विकल्प से ङीष् प्रत्यय होता है ।चन्द्रमुखी, चन्द्रमुखा, अतिकेशी, अतिकेशा
   जातेरस्त्रीविषयादयोपधात्जातिवाचक जो शब्द केवल स्त्रीलिंग में ही नियत नहीं है तथा अयोपध (जिसकी उपधा में य नहीं है) हो, ऐसे शब्दों से स्त्रीत्वविवक्षा में ङीष् प्रत्यय होता है ।तटी, वृषली, कठी, वह्वची
(वा0) योपधप्रतिषेधे हयगवयमुकय-मनुष्यमत्स्यानामप्रतिषेधेःयोपध शब्दों से ङीष् का जो निषेध हुआ है उसमें हय, गवय, मुकय, मनुष्य और मत्स्य शब्दों का निषेध नहीं होगा । अर्थात् ङीष् होगा ।हयी, गवयी, मुकयी, मनुषी
(वा0) मत्स्यस्य ङ्याम्
मत्स्य शब्द के बाद यदि ङी हो तो य् का लोप होता है ।मत्सी
 इतो मनुष्यजातेइकारान्त मनुष्यजाति वाचक शब्द से स्त्रीलिंग विवक्षा में ङीष् प्रत्यय होता है ।दाक्षी, अवन्ती, कुन्ती, प्लाक्षी, दीक्षी

मंगलवार, 3 अगस्त 2021

गीता के अध्यायों के नाम


अध्यायअध्याय का नाम
प्रथमोऽध्याय: अर्जुन विषाद योग
द्वितीयोऽध्याय: सांख्य योग
तृतीयोऽध्याय: कर्मयोग
चतुर्थोऽध्याय: ज्ञानकर्म संन्यास योग
पंचमोऽध्याय: कर्म संन्यास योग
षष्ठोऽध्याय: आत्म संयम योग
सप्तमोऽध्याय: ज्ञान विज्ञान योग
अष्टमोऽध्याय: अक्षर ब्रह्म योग
नवमोऽध्याय: राजविद्याराजगुह्ययोग
दशमोऽध्याय: विभूतियोग
एकादशोऽध्याय: विश्वरूपदर्शनयोग
द्वादशोऽध्याय: भक्तियोग
त्रयोदशोऽध्याय: क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग
चतुर्दशोऽध्याय: गुणत्रयविभागयोग
पञ्चदशोऽध्याय: पुरुषोत्तमयोग
षोडशोऽध्याय: दैवासुरसंपद्विभागयोग
सप्तदशोऽध्याय: श्रद्धात्रयविभागयोग
अष्टदशोऽध्याय: मोक्ष संन्यासयोग

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...