पिछले कई दिनों से मन बहुत निराश और हताश है । ऐसे समय में आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी आ गई । तमाम तरह के विचार मन को आंदोलित करते रहते हैं । कुछ दिन पूर्व मुझसे किसी ने कहा कि तुम ईश्वर से प्रार्थना करना कि अगले जन्म में संस्कृत न पढ़ें। लेकिन मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि इस जन्म में मुझे संस्कृत पढ़ने का अवसर मिला और उसके द्वारा ही मुझे दादा जी जैसे महापुरुष का साथ भी मिला। हे ईश्वर! प्रत्येक जन्म में मुझे संस्कृत और हमारी संस्कृति से जोड़ कर ही रखना। संस्कृत और उससे जुड़ाव ही मेरे जीवन का मूल है। जन्माष्टमी को यदि सही मायने में समझना है तो संस्कृत अति आवश्यक है।
आज सुबह से ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण को पढ़ने की बहुत इच्छा हो रही थी इसलिए सुबह से ही अपनी फेवरेट पुस्तक श्रीकृष्ण जीवन दर्शन खोजने लगी । यह पुस्तक जितने बार पढ़ती हूं उतने बार ही एक नया उत्साह प्राप्त होता है । निराशा से भरे मानव को आशा की किरण दिखाई देने लगती है । सुबह से ही मन में विचार चल रहा था कि इस बार कुछ व्यक्तिगत कारणों से जन्माष्टमी नहीं मना पाऊंगी । लेकिन पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मन में विचार आने लगा कि कृष्ण जन्म हम कहाँ मनाएंगे ?
बहुत ही आतुरता से लोग श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की राह देखते हैं । लाखों लोग इस उत्सव को मनाने के लिए कई दिन पहले से तैयारियाँ करने लगते हैं । कई स्थानों पर बहुत ही भव्य आयोजन भी किये जाते हैं । इन आयोजनों का फल यह है कि जन्माष्टमी पर पूरे जोश और हर्षोल्लास के साथ ʻहाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल कीʼ जैसे गीत गाते हुए जन्माष्टमी मनाते हैं ।
ऐसे माहौल में सचमुच हमें सोचना चाहिए कि कृष्ण का जन्म सही
अर्थ में कहाँ होना चाहिए ? क्या बस इन भव्य आयोजनों से कृष्ण जन्म की सार्थकता हो
गई ? क्या अपने घरों और मन्दिरों में कृष्ण जन्म मना कर और प्रसाद खा कर कृष्ण
जन्म पूरा हो गया ? अरे ! यह तो हमारी भाव भक्ति है इसे तो
हमें करना ही चाहिए क्योंकि इसे न करने से मानव मशीन बन कर ही रह जाएगा । लेकिन क्या
हमनें इन सब बातों को करते हुए कभी यह विचार किया कि ऐसा क्या किया जाए जिससे
कृष्ण का जन्म हमारे जीवन में हो, कृष्ण का जन्म हमारे मन में हो ?
कृष्म जन्म का अर्थ है उदात्त ध्येय का जन्म । कृष्ण का
जन्म गोकुल में हुआ । गोकुल यानि हमारा शरीर । शरीर और गोकुल भिन्न नहीं हैं ।
ʻगोʼ मतलब इन्द्रियाँ और ʻकुलʼ यानि समुदाय । इन्द्रियों का समुदाय जहाँ है वह
गोकुल, उस गोकुल में कृष्ण जन्म करना चाहिए । हरी-हरी घास देखकर गायें जैसे उसे
खाने के लिए स्वतः दौड़ने लगती हैं, ठीक उसी तरह सुखोपभोग देखकर हमारी इन्द्रियाँ
भी उसे पाने के लिए दौड़ने लगती हैं । इसी
कारण हमारे जीवन में अशान्ति पैदा होती है, सब गलत होने लगता है । इस शरीर रूपी गोकुल में नृत्य
नहीं, संगीत नहीं, मुरली नहीं बजती, जीवन बेसुरा बन जाता है । जीवन एक सुर में
चलना चाहिए ।
जिस आदमी को दो पत्नियां होती है उसकी स्थिति कितनी दया जनक होती है । एक पत्नी इधर खींचती है तो दूसरी उधर
। तो जरा सोचो हजारों पत्नियों वाले (अर्थात् मनः प्रवृत्ति वाले) इस पति की (अंदर
बैठे जीव की) कितनी दयाजनक स्थिति होती होगी । बेचारा कोई निर्णय ही नहीं ले सकता
। अगर लेता भी है तो टिकता नही । कोई निश्यचात्मक निर्णय हो ही नहीं सकता, क्योंकि
अनेक प्रवृत्तियाँ उसे इधर से उधर खींचती रहती हैं । अनंत प्रवृत्तियों की
खींचातानी में हमारा जीवन घबड़ा जाता है, निर्णय नहीं ले पाता । ऐसी स्थिति में
नहीं लगता कि कृष्ण जन्म हमारे मन में होना चाहिए ?
आज एक तरफ तो हम कृष्ण के उपासक बन कर कृष्ण जन्म मनाते हैं
और दूसरी तरफ अपने गोकुल (शरीर) में राक्षसी विचारों को स्थान देते हैं । यदि
सच्चे अर्थों में हम कृष्ण के उपासक हैं तो हमें कृष्ण के विचारों को अपने गोकुल
(शरीर) में स्थान देना चाहिए । कृष्ण विचार अर्थात् गीता । गीता समझाते समय भगवान
की आँख के सामने अर्जुन नहीं मानव खड़ा है । जिस प्रकार वृद्ध पिता अपने पुत्र को
अंतःकरण से, हृदय खोलकर कुछ कहता है उसी प्रकार कृष्ण ने गीता समझायी है । गीता
में इसीलिए भगवान ने कहा है - भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।
कृष्ण जन्म सर्वप्रथम इस गोकुल (शरीर) में हो इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है – ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः...., सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो... । फिर भी हम कभी सोचते ही नहीं कि इस गोकुल (शरीर) में कृष्ण जन्म हुआ या नहीं ?
आश्वासन देने की हिम्मत एक मात्र कृष्ण में ही है । इसलिए
कृष्ण जन्म हमारे जीवन में होना चाहिए । इस (शरीररूपी) गोकुल में कृष्ण जन्म होगा
तो वह हमारी इन्द्रियों का स्वामी बनकर उन्हें नाचने देगा, गड्ढा आते ही उन्हें
खींच लेगा, असत् आचरण से हमें बचा लेगा । कृष्ण यानी उत्साह, स्फूर्ति, चैतन्य का जन्म,
वह इसी गोकुल में (इन्द्रियों के समूह) होना चाहिए ।
असत् प्रवृत्ति ही सत् का आवरण ओढ़कर आएगी तब कौन समझाएगा कि यह सत् है या असत्? सही निर्णय कौन करेगा ? हमारी बुद्धि । लेकिन वासना, सुखोपभोग, भौतिकता की चकाचौंध से हमारी बुद्धि तो कमजोर बन चुकी है । कौन समझाएगा कि पाप ही पुण्य का रूप लेकर आया है, उसे जीवन में स्थान नहीं देना है । जीवन में अगर गोकुल है तो वहाँ कृष्ण की मुरली बजनी चाहिए । कृष्ण की मुरली अर्थात् गीता । यह मुरली यदि हमारे जीवन में बजती है तो जीवन में उत्साह, संगीत और आनन्द आएगा । तब हमारी बुद्धि हमें सही निर्णय लेने में हमारी मदद करेगी ।
मन का विकास करेंगे तभी मन विशुद्ध होगा । भक्ति यानी प्रभुसेवा । सही अर्थों में प्रभु सेवा वही है कि प्रभु को जो चाहिए वह भक्त दे । भगवान तुझसे छप्पनभोग का प्रसाद नहीं मांगते बल्कि भगवान स्वयं माँगते हैं कि मुझे तेरा मन दे - मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । भगवान को वही भक्त प्रिय भी है - मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः । जिसका व्यवहार प्रभु को प्रिय है उसी के जीवन में कृष्ण जन्म संभव है । कैसा व्यवहार ? इसका उत्तर भगवान स्वयं देते हैं - अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। ऐसा उपासक, ऐसा भक्त बनने की राह में जब चल पड़ेंगे तब कृष्ण जन्म सार्थक होगा ।
आज के कलिकाल में जहाँ वासना, भोग, पैसा, सत्ता इनका ताण्डव चल रहा है, सांस्कृतिक मूल्य छिन्न-भिन्न हो गए हैं, ऐसे समय में कोई तेजस्वी पुत्र अयाचक वृत्ति से इस प्रतिकूल परिस्थिति से टक्कर लेता हुआ, काल को बदलने की हिम्मत रखकर मजबूती और प्रमाणाकिता से प्रयत्न करता हो, तो वहीं कृष्ण जन्म लेने के लिए आतुर हो जाएंगे ।
अतः हमारे हर एक आचरण में कृष्ण जन्म होना चाहिए । जीवन को दिव्य बनाने के लिए, जीवन का विकास साधने के लिए कृष्ण जन्म मानव जीवन में, वाणी और व्यवहार में होगा तब ही सही मायने में कृष्ण जन्म सार्थक होगा । उसके लिए हाथ से माला भले ही फेरते रहें परन्तु अपने आप को हर रोज पूछना चाहिए कि कृष्ण का एक भी गुण जीवन में सार्थक हुआ क्या ? जिसके जीवन में कृष्ण जन्म होता है, कृष्ण का तत्वज्ञान नाचता है, उसका जीवन मस्ती से भरा होता है, उसकी कभी रोती सूरत नहीं होती । वह जीवन से कभी ऊबता नहीं । कृष्ण का साधक स्फूर्ति से भरा हुआ, उत्साहपूर्ण, चैतन्ययुक्त होता है । ऐसे कृष्ण जन्म में ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की सार्थकता है और तभी भगवान उसके साथ खड़े होते हैं और कहते हैं – न मे भक्तः प्रणश्यति ।
1 टिप्पणी:
श्री कृष्ण जन्म को लेकर इतना अच्छा लेख आज तक नहीं पढ़ा था। गीता के श्लोकों से गुंफित यह लेख श्रीकृष्ण के अतिशय समीप तक ले जाता है। इसमें श्रीकृष्ण जन्म को लेकर जिस नवीन विचार की उद्भावना की गयी, उसकी लेखिका कोई गोपिका ही हो सकती है। अंत में विद्यापति का वह गीत सहसा गुनगुनाने का मन करता है- बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे। छोड़इत निकट नयन बह नीरे।
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