मंगलवार, 7 सितंबर 2021

ऋग्वेद सूक्त

अग्नि सूक्त (1.1)

ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्नि सूक्त 9 मन्त्र में वर्णित है । अग्नि सूक्त के ऋषि - विश्वामित्र है । छन्द - गायत्री है तथा देवता - अग्नि है । प्रथम सूक्त में भगवान वेदपुरुष द्वारा अग्नि देव की स्तुति की गई है।

                     १.   अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् 
                   होतारं रत्नधातमम् ॥१॥

                     २.   अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत 
                      देवाँ एह वक्षति ॥२॥

                     ३.   अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवे दिवे 
                     यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥

                     ४.   अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि 
                      इद् देवेषु गच्छति ॥४॥

                      ५.   अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः 
                       देवो देवेभिरा गमत् ॥५॥

                      ६.   यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि 
                     तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः ॥६॥

                      ७.   उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् 
                      नमो भरन्त एमसि ॥७॥

                       ८.   राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् 
                       वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥

                   नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव 
                       सचस्वा नः स्वस्तये ॥९॥


विश्वेदेवा सूक्त 1.89

देवता - विश्वेदेवाः
ऋषि - गोतम
छन्द - जगती (4, 8,9,10 में त्रिष्टुप् 6 बृहती)
मन्त्र सं. - 10

आ नो॑ भ॒द्राः क्रत॑वो यन्तु वि॒श्वतोऽद॑ब्धासो॒ अप॑रीतास उ॒द्भिदः॑।
दे॒वा नो॒ यथा॒ सद॒मिद् वृ॒धे अस॒न्नप्रा॑युवो रक्षि॒तारो॑ दि॒वेऽदि॑वे ॥1॥
अर्थ - विद्वान् जन प्रतिदिन अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए हमारे मार्गदर्शक व रक्षक हो । कल्याणकारी यज्ञादि जैसे उत्तम कर्म करने का अवसर हमें प्राप्त हो । हमारे सारे कर्म अहिंसित, असंकुचित हो । अर्थात् हमारे सारे कर्म बिना किसी बाधा वाले और काम क्रोध दुःख आदि शत्रुओं का नाश करने वाले हों, जिससे सब प्राकृतिक शक्तियाँ सदा ही हमारी उन्नति में सहायक हों ।

दे॒वानां॑ भ॒द्रा सु॑म॒तिर्ऋ॑जूय॒तां दे॒वानां॑ रा॒तिर॒भि नो॒ नि व॑र्तताम्।
दे॒वानां॑ स॒ख्यमुप॑ सेदिमा व॒यं दे॒वा न॒ आयुः॒ प्र ति॑रन्तु जी॒वसे॑ ॥2
अर्थ - जीवन की प्रत्येक अवस्था में विद्वान् हमारे जीवन की सार्थकता और आयु को अच्छी शिक्षा के द्वारा बढ़ायें । ब्रह्मचर्य में हम विद्वानों के निष्पाप सरल हृदय, कल्याणकारी व सद् विचारों से सीखें । गृहस्थाश्रम में विद्वानों की अहंकार रहित दान की भावना हम में भी आवे । विद्वानों का मैत्री भाव हमें भी प्राप्त हो ।

तान् पूर्व॑या नि॒विदा॑ हूमहे व॒यं भगं॑ मि॒त्रमदि॑तिं॒ दक्ष॑म॒स्रिध॑म्।
अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑णं॒ सोम॑म॒श्विना॒ सर॑स्वती नः सु॒भगा॒ मय॑स्करत् ॥3
अर्थ - सनातन वेदवाणी के उपदेशों का पालन करते हुए हम उन सूर्य चन्द्र आदि देवों और प्रशंसनीय विद्वानों को पुकारते हैं जो ऐश्वर्यवान्, अहिंसक, न्यायकारी, दुष्टों के नाशक, स्नेहिल व निपुण हैं और रोगनाशक पुष्टिवर्धक पदार्थों का ज्ञान देने वाले  हैं । ऐसे विद्वानों के सत्संग से मिली विद्या और ज्ञान हमें सुखी करे ।

तन्नो॒ वातो॑ मयो॒भु वा॑तु भेष॒जं तन्मा॒ता पृ॑थि॒वी तत्पि॒ता द्यौः।
तद् ग्रावा॑णः सोम॒सुतो॑ मयो॒भुव॒स्तद॑श्विना शृणुतं धिष्ण्या यु॒वम् ॥4
अर्थ - वायु हमारे लिए कल्याणकारी औषधियाँ प्रदान करें । पृथ्वी माता उसे धारण करें और पिता स्वरूप सूर्यादि नक्षत्र अपने प्रकाश से उन्हें पोषित करें। मेघ उन सोमलता जैसी कल्याणकारी जड़ी बूटियों में वर्षा के द्वारा रस भरें । स्त्री पुरुषों! माता पिताओं ! गुरु शिष्यों ! आप दोनों बुद्धिपूर्वक रोगों और दुःखों को दूर करने वाले उन उपायों को सुनों और उनका पालन करेें ।

तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियं जि॒न्वमव॑से हूमहे व॒यम्।
पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द्वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑ ॥5
अर्थ - इस मन्त्र में विद्वानों से सबका मार्गदर्शन करने को कहा गया है । ऋषि कहता है कि - हम गतिशील जगत के और स्थावरों के भी स्वामी उस ऐश्वर्यवान सुखों के दाता सभी पदार्थों का चिन्तन करने वाला ईश्वर को अपनी रक्षा के लिए आह्वान करते हैं । जैसे वह अहिंसक, सब प्रकार की पुष्टि का दाता, रक्षक और पालनकर्त्ता ईश्वर विद्यादि द्वारा हमें उन्नति और सुख की ओर ले जाता है वैसे ही सभी विद्वान् भी हमारे मार्गदर्शक हों ।

स्व॒स्ति न॒ इन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः।
स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ अरि॑ष्टनेमिः स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु ॥6
अर्थ - इस मन्त्र में ईश्वर से आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने और कल्याण करने की प्रार्थना करते हुए ऋषि कहता है - संसार में जिसकी कीर्त्ति और अन्न आदि सामग्री अति उन्नति को प्राप्त है वह परम ऐश्वर्यवान आसुरी वृत्तियों का नाश करने वाला प्रभु हमारा कल्याण करे । सर्वज्ञ, पुष्टि करने वाला परमेश्वर हमारा कल्याण करे । दुःखों का नाशक वह  जानने योग्य परमेश्वर हमारा कल्याण करेें । गुरु बृहस्पति हमारा कल्याण करें अर्थात् गुरु बृहस्पति हमें विद्या द्वारा आत्मिक सुख धारण कराये ।

पृष॑दश्वा म॒रुतः॒ पृश्नि॑मातरः शुभं॒यावा॑नो वि॒दथे॑षु॒ जग्म॑यः।
अ॒ग्नि॒जि॒ह्वा मन॑वः॒ सूर॑चक्षसो॒ विश्वे॑ नो दे॒वा अव॒सा ग॑मन्नि॒ह ॥7॥
अर्थ - इस मन्त्र में विद्वानों से सबका मार्गदर्शन करने की प्रार्थना करते हुए ऋषि कहता है - श्रेष्ठ व्यवहार की ओर ले जाने वाले, ज्ञान का प्रकाश फैलाने व अज्ञान को भस्म करने वाली वाणी वाले, चिन्तनशील, सूर्य के समान तेजस्वी, इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने वाले, यज्ञों में जाने वाले और बुराईयों के विरुद्ध संग्राम में जाने वाले, ज्ञान की किरणों के स्रोत, वायु के समान शीतलता देने वाले सभी विद्वान् हमारी रक्षा के लिए हमारे पास आयें ।

भ॒द्रं कर्णे॑भिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑र्यजत्राः।
स्थि॒रैरङ्गै॑स्तुष्टु॒वांस॑स्त॒नूभि॒र्व्य॑शेम दे॒वहि॑तं॒ यदायुः॑ ॥8॥
अर्थ - इस मन्त्र में बताया गया है कि विद्वानों के संग के विना कोई सत्विद्या, सद्-दर्शन और सद्-आचरण को नहीं पा सकता और न इसके विना किसी का शरीर और आत्मा दृढ़ हो सकता है । इसलिए ऋषि प्रार्थना करता है -हे देवताओं ! हम अपने कानों द्वारा कल्याणकारी वाणी सुनें, हम अपनी आँखों द्वारा अच्छे तथा सुन्दर कर्मों को देखें । बलशाली अंगों से संपन्न शरीर वाले हम आपकी स्तुति करते करते ईश्वर (प्रजापति) के द्वारा निर्मित दीर्घ आयु प्राप्त करने के लिए समर्थ बनें । इसलिए सभी मनुष्यों को यह उक्त आचरण करना चाहिए ।

श॒तमिन्नु श॒रदो॒ अन्ति॑ देवा॒ यत्रा॑ नश्च॒क्रा ज॒रसं॑ त॒नूना॑म्।
पु॒त्रासो॒ यत्र॑ पि॒तरो॒ भव॑न्ति॒ मा नो॑ म॒ध्या री॑रिष॒तायु॒र्गन्तोः॑ ॥9॥
अर्थ - इस मन्त्र में बताया गया है कि जिस विद्या से बालक भी वृद्ध होते हैं और जिस शुभ आचरण से वृद्धावस्था होती है, वह सब व्यवहार विद्वानों के संग ही से हो सकता है इसलिए ऋषि प्रार्थना करते है - हे उत्तम साधनों के ज्ञान देकर सामर्थ्य बढ़ाने वाले विद्वानों व जीवन का पोषण करने वाली दैवी व प्राकृतिक शक्तियों ! जैसा कि आपने हमारे लिए उत्तम ज्ञान व सुख से भरे सौ वर्ष के जीवन का विधान बताया है, जिसमें शरीरों की वृद्धावस्था भी है, वैसे ही हमारे बीच हमारे पुत्रादि भी सौ वर्ष तक पुत्र पौत्रौं वाले बनें । उत्तम व परिपक्व व्यवहार का पालन कर वह छोटी आयु में ही वृद्धत्व के समान आचरण वाले हो । इस अवस्था से पहले हममे से किसी को मृत्यु न आए ।

अदि॑ति॒र्द्यौरदि॑तिर॒न्तरि॑क्ष॒मदि॑तिर्मा॒ता स पि॒ता स पु॒त्रः।
विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः॒ प़ञ्च॒ जना॒ अदि॑तिर्जा॒तमदि॑ति॒र्जनि॑त्वम् ॥10॥
अर्थ - इस मन्त्र में वेदोक्त त्रैतवाद का सिद्धान्त बताया गया है कि परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति की सत्ता अनादि अनन्त है । अर्थात् प्रकृति के मूल तत्त्व का विनाश नहीं होता बल्कि केवल उसका स्वरूप बदलता रहता है । इसलिए इस मन्त्र में ऋषि कहता है - हे मनुष्यों ! सृष्टिकाल में सूर्यादि नक्षत्रों से सुशोभित द्युलोक अविनाशी है, प्रकृति अविनाशी है, वह परमात्मा अविनाशी है, इनकी वह जीवरूपी संतानें भी अविनाशी हैं । सभी प्राकृतिक दिव्य शक्तियाँ सदैव रहेंगी, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ भी सदैव रहेंगी (अविनाशी रहेंगी) । जो उत्पन्न हो गया और जो भविष्य में उत्पन्न होगा उन सभी का मूल तत्त्व सदैव रहेगा अर्थात् वह सब अविनाशी (नित्य) है ।

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