रविवार, 16 अप्रैल 2023

मैत्र:

"अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्र:".......... छत्तीस गुणों में आज दूसरे गुण की बात करेंगे, जिसे कहते हैं 'मैत्र:' । 'मैत्र:' अर्थात् मित्रता तथा स्नेह। दूसरे के प्रति प्रेम का व्यवहार करना । दूसरों के लिए जो कुछ भी काम करना हो उसे स्नेह से करना होगा, कर्तव्य समझकर नहीं । केवल कर्तव्य में रूखापन होता है । मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है, ऐसा कहकर छुटकारा नहीं मिल सकता । एकनाथ तथा शंकराचार्य आदि महापुरुषों को लोगों से कुछ लेना-देना नहीं था फिर भी वे लोगों के पास गए और उन्होंने उनसे प्रेम किया । लोगों के पास प्रेम से जाकर उन्हें समझाना पड़ता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि शंकराचार्य एकनाथ जैसे महापुरुष सदा लोगों के साथ लाड़ लड़ाते थे, समय आने पर उन्होंने लोगों को थप्पड़ भी मारी है, परंतु वह मां की थप्पड़ थी ।

      वह आगे मुझसे पूछता है कि मेरे परिवार में बुरे से बुरे और नीच से नीच लोग भी हैं, तू उनके पास जाएगी तो वे तेरा सम्मान करने के बजाय तुझे हैरान भी करेंगे, तू मेरे ऐसे कुटुंबीजनों से प्रेम कर सकेगी क्या ?

मुझसे पूछता है कि - क्या सद्विचारों के साथ तेरी मैत्री है? 

ऐसा हम लोग व्यवहार में भी देखते हैं कि जब हम पुत्र के लिए कन्या ढूंढते हैं तो छानबीन करते हैं, कन्या कितनी पढ़ी है? क्या करती है? उसका स्वभाव कैसा है इत्यादि । इसी प्रकार वह भी मुझसे पूछ रहा है कि तूने जीवन में किन-किन गुणों से मैत्री की है?

क्या सज्जनों के साथ तेरी मैत्री है?

     अब मेरे दिमाग में तो सज्जन का मतलब है सीधे साधे लोग, जो घर से ऑफिस ऑफिस से घर आते हैं इत्यादि । इसलिए वह मुझे यह समझाने लगा कि ऐसे लोग सज्जन नहीं होते हैं बल्कि ऐसे लोग तो और भयंकर होते हैं । फिर सज्जन कौन है? मैंने प्रश्न किया । जो सत् का होता है, जिसकी हर कृति में सत् के कार्य के लिए घिस जाने का पागलपन हो, जो प्रभु के लोगों की संगति करता है ऐसे लोग सज्जन होते हैं और ऐसे लोगों के साथ मैत्री करनी चाहिए ।

मित्र होना रस्सी के ऊपर चलने के समान है । मैं किसी का स्वामी नहीं, वैसे किसी का दास भी नहीं, जो वैभव, विद्या, संपत्ति और अधिकार से चौंधियाता नहीं है तथा दरिद्रता, अज्ञान और कंगालियत आदि का तिरस्कार नहीं करता, वही मित्र बन सकता है। स्वामी और सेवक होना सरल है किंतु मित्र होना अति कठिन है ।

मित्र वह होता है जो स्पष्ट कहता है । संत स्पष्ट वक्ता होते हैं इससे अनेक लोग उनसे द्वेष भी करते हैं। परंतु उनकी मैत्री की भूमिका होती है ।

पति से प्रेम है तो पति के परिजनों से प्रेम करना ही होता है । इसी प्रकार मुझे भी उसके लोगों से स्नेह होना चाहिए । सबकी ओर स्नेह से देखना, यह सबसे कठिन बात है।

यदि कोई थोड़ा सा सात्विक बन भी जाता है तो दूसरों को नालायक समझ कर उसे छोटा समझने लगते हैं। यदि यही हमारी प्रवृत्ति यही रही तो, हम कितना ही महंगा सेंट क्यों ना लगा ले परंतु याज्ञवल्क्य जैसे महापुरुषों की तुलना में हमारा जीवन कितना दुर्गन्धित है? उनकी बौद्धिक और आध्यात्मिक ऊंचाई के सामने हमारे चार पैसों की क्या कीमत है ? उन महापुरूषों को हम पर प्रेम करना कितना कठिन होता होगा न? कभी कभी संदेह होता है कि हम पर किसी का प्रेम करना संभव ही नहीं । हमको देखकर उन्हें अरूचि होती होगी न? परंतु उन्होंने किसी से न तो नफरत की और न ही वे तटस्थ रहे इसके विपरीत उन्होंने जगत् से प्रेम किया ।

मैत्र: शब्द से स्नेह निर्माण करना अपेक्षित है, उसमें उपेक्षा और तटस्थता मान्य नहीं है ।

इसलिए उसने मुझसे पूछा- मेरे लोग बिल्कुल थर्ड क्लास हैं, उनसे प्रेम करेगी? मैत्री रखेगी? मुझे 'अद्वेष्टा' रहने में कुछ कठिनाई प्रतीत नहीं होती, परंतु द्वेष रखते हुए अद्वेष्टा होना है । द्वेष तो जा सकता है पर क्रोध कैसे जाएगा? कितने ही लोगों को क्रोध आता ही नहीं है । ऐसे लोग पत्थर के समान होते हैं। हमें ऐसे पत्थर जैसे लोग नहीं चाहिए। मुझे भी कंस के ऊपर क्रोध आया था न ! मैंने उसे मारा । मानव में थोड़ा क्रोध भी होना ही चाहिए। क्रोध के बिना जीवन किस काम का ? दुर्गुणों से क्रोध कर ! दुर्गुणी से नहीं।

मैंने कहा - प्रभु! मैं घर की स्वामिनी की तरह स्थाई तौर पर तुम्हारे घर में रहना चाहती हूँ। 'तुझे मेरे घर में रहना हो तो तुझे मेरे समान ही बनना होगा', उसने सीधे शब्दों में मुझसे कहा। इसलिए भौतिक दृष्टि से समानता नहीं हो सकती लेकिन अपने जीवन में मेरे जैसे गुण लाकर तू मेरे जैसी बन सकती है ।

वह कहता है- ' मैं प्रेममय हूँ, तो क्या तेरे ऊपर प्रेम का एक छींटा भी है ?' "हाँ, मैंने बहुत से लोगों से प्रेम किया है" मैंने तपाक से उत्तर दिया। जिसे तू प्रेम कहती है, वह प्रेम नहीं, व्यापार है, उससे तुझे कुछ मिलता है, इसलिए बदले में तू प्रेम करती है। उसने मेरी बात काट दी । कहने लगा तूने यदि किसी से निःस्वार्थ, निर्हेतुक, विशुद्ध प्रेम किया हो तो बता !

मुझे कुछ मिले या न मिले, परन्तु मेरा अमुक व्यक्ति से प्रेम है। क्या ऐसा विशुद्ध प्रेम करने का शिक्षण लिया है?" सगे सम्बन्धियों से प्रेम करना भित्र बात है और किसी प्रकार के प्रत्युपकार की अपेक्षा बिना निर्हेतुक प्रेम करना भित्र बात है। ऐसा निर्हेतुक प्रेम ही शुद्ध प्रेम कहलाता है। ऐसे स्नेह से युक्त क्या तेरी मित्रता है?

कहता है कि मेरा प्रेममय रूप सार्वजनिक नहीं है। जिन लोगों ने मुझे चुन लिया है, उन्हें ही मेरे कमरे में आने की अनुमति है । ऐसे देवर्षि, राजर्षि या महापुरुष को ही मेरा प्रेममय रूप देखने को मिलता है। मेरे पास आना और मेरे प्रेममय रूप को देखना दोनों अलग अलग बातें हैं।

इसलिए ऐसी मैत्री की भूमिका में तुझे आना होगा तब हम दोनों की कुण्डली मिलेगी ।

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शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

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