अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्र: करुण एव च ।
आज छत्तीस गुणों में तीसरे गुण करुण: की बात करेंगे।
किसी से द्वेष न करना और सबसे मित्रता एवं स्नेह रखना चाहिए, यह पूर्व गुणों में चर्चा कर चुके हैं। लेकिन किस भाव भूमि में रहकर ? इसलिए वह कह रहा है - मेरा एक सार्वजनिक रूप है-'करुणा'। वह कहता है कि मैं करुणामय हूँ, तो क्या तेरे पास करूणा है ?
अब प्रश्न आता है कि यह 'करुणा' है क्या? करुणा एक रसायनिक मिश्रण है। करुणा में दया, आत्मीयता और कृतिशीलता ये तीन तत्त्व होते हैं। केवल दया में नीरसता है। दया पराये पर होती है। इसलिए दया में आत्मीयता का मिश्रण करके उसमें आर्द्रता लानी चाहिए। 'भगवान सबका करो कल्याण' सिर्फ ऐसी सदिच्छा रखकर काम नहीं चलेगा। इसलिए दया + आत्मीयता ही पर्याप्त नहीं है, उसमें कृतिशीलता भी अपेक्षित है। दया + आत्मीयता + कृतिशीलता = करुणा । जब दया आत्मीयता से कृतिशील होती है, तो करुणा का प्रारम्भ होता है।
चलो उदाहरण के माध्यम से समझते हैं - एक व्यक्ति गाड़ी से दुर्घटना होने के कारण घायल होकर सड़क के किनारे कराह रहा है। एक व्यक्ति उसको देखता है, कुछ देर दुःखी होकर उसे सांत्वना देता है। और 'राम राम हरे हरे' करके चला जाता है। दूसरा आदमी दुःख व्यक्त करता है और उसे कुछ रुपए देकर इलाज कराने को कह कर चला जाता है। तीसरा व्यक्ति आता है और उसे उठाकर हॉस्पिटल पहुँचाता है । इनमें पहला व्यक्ति दयालु है, दूसरे की दया में आत्मीयता है, परन्तु तीसरे में दया, आत्मीयता और क्रियाशीलता तीनों है। यही करुणा है ।
अर्थात् दया जब आत्मीयता के साथ क्रियाशील होती है तो वह करुणा बन जाती है। इसलिए करुणा दया, कृपा, आत्मीयता और क्रियाशीलता का रसायन है ।
वह करुणामय है, इसलिए उसके साथ शादी करने के लिए जीवन में करुणा लानी चाहिए।
लेकिन प्रश्न उठता है कि किस पर करुणा करनी ? तो सर्वप्रथम तो अपने ऊपर करुणा करनी चाहिए। तुझे विचार करना चाहिए कि मुझे कितना सुन्दर शरीर मिला है, मानव जीवन मिला है, तो क्या मैंने उसका सदुपयोग किया है? यहां भर्तृहरि का पद्य याद आने लगा -
न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुधर्मोऽपि नोपार्जितः ।नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ॥
हम केंचुवे के समान पैदा हुए और हमने केंचुवे जैसा जीवन बिता दिया है। इतनी उम्र हो गई, पर अब तक मैंने क्या किया है? इसका सिंहावलोकन करना चाहिए।
ईश्वर ने तुझे विद्या, बुद्धि, वित्त, शक्ति आदि प्रदान किये, पर तुने उनका कोई सदुपयोग नहीं किया? इस प्रकार करुणा का प्रारम्भ अपने आपसे करना चाहिए।
परन्तु खेद की बात यह है कि हमें अपने लिए भी आत्मीयता और दया नहीं हैं। अपने लिए भी हममें क्रियाशीलता नहीं है।
कितने ही लोग कहते हैं- कुछ होना चाहिए, कुछ करना चाहिए, पर जब मेरा प्रारब्ध खुलेगा, तभी होगा। ऐसा कहते-कहते उसका सम्पूर्ण जीवन ही समाप्त हो जाता है और वे कुछ भी नहीं करते। यदि उनके प्रारब्ध को खोलने वाला कोई दूसरा हो तो उनके कर्तृत्व को स्थान ही कहाँ रहा ?
साधक अवस्था में अपने ऊपर ही करुणा आनी चाहिए। विचार करना चाहिए कि इतनी सुन्दर बुद्धि का प्रयोग मैंने सिर्फ धन कमाने के अतिरिक्त और किसी भी चीज में नहीं किया ? यह काम करके मुझे क्या मिलेगा ? बस इतना ही विचार किया है। सुबह उठना, दिनचर्या करना, आफिस (काम पर) चले जाना और फिर शाम को आकर टीवी देखते या मोबाइल चलाते बस भोजन करके सो जाना ? रोज यही करना है और मर जाना है। निरपेक्ष और निराकांक्ष होकर बुद्धि का उपयोग किया ही नहीं है।
अरे यार! तूझे खुद पर तरस नहीं आता ? मुझे ऐसा बोरिंग जीवन नहीं चाहिए। ऐसा जीवन यदि तेरा रहेगा तो मुझसे शादी करने का तो तू भूल जा ।
सुन! अपने ऊपर करुणा करने के अभ्यास से तुझे करुणा की आदत पड़ जाएगी और फिर तू दूसरों पर भी करुणा करने लगेगी।जगत में दीन, हीन, क्षुद्र, लाचार और असंस्कारी लोग दिखाई देते हैं, उनके लिए क्या कभी तेरा दिल टूटा है ? उन पर तूने करुणा की वर्षा की है ?
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था ।
दुनिया तो बस कहती हैं - इस सारी खटपट के बजाय हम तो जप करेंगे भाई !
उसने फिर कहा - अवश्य जप करो, पर उसका महत्त्व तभी है, जब ईश्वर का कुछ काम करोगे। आप किसी का काम करें और उसके पश्चात् उसे टेलिफोन करेंगे तो वह आपको पहचानेगा और आपके साथ बात करेगा। किसी का कुछ काम किये बिना यदि उससे टेलिफोन जोड़ोगे तो वह आपसे बात तो करेगा लेकिन बेमन और अपरिचित जैसे। वह नहीं पहचानेगा, फिर क्या होगी ?
शंकराचार्य ने अपने साथ साथ लोगों पर करुणा की, उन्हें समझा कर, डांट कर सही रास्ते पर लाए । अपनी वैदिक संस्कृति को फिर से पुनर्जीवित किया। यह लोगों के प्रति की करुणा है। साधकावस्था में अपने ऊपर और सिद्धावस्था में दूसरे लोगों पर करुणा होनी चाहिए।
करुणा किसी की राह नहीं देखती, वह चलने लगती है। व्यवहारू लोग कहते हैं- दूसरे दस बीस लोग काम करने लगेंगे तो मैं भी आऊँगा। करुणामय मानव ऐसा न कहकर स्वयं काम करने लगता है।
फिर इस समाज का आइना दिखाया कि तू वर्तमान की ही परिस्थितियों को देख ! लोग असंस्कारी क्यों हैं? भटके हुए क्यों है? रोज अखबार बलात्कारियों से भरे क्यों हैं? संस्कृत की ऐसी दशा क्यों है? आने वाली पीढ़ी की दशा इससे भी भयंकर होने वाली है!
इन सबका उत्तर यही है कि लोग अपनी संस्कृति को भूल बैठे हैं। हम सांस्कृतिक हैं, इसका दिखावा बस कैमरे के आगे होता है, हम अपने सनातन धर्म को भूल बैठे हैं। आजकल अपने स्वार्थ के लिए ही किसी के प्रति करुणा होती है।
यह सच है कि लोग दीन, हीन, लाचार और असंस्कारी हैं, पर क्या वे भगवान की संतान नहीं है? करुणापूर्ण मानव ऐसे लोगों को देखकर काम पर लग जाता है, किसी की प्रतीक्षा करते नहीं बैठा रहता। वह कहता है- ' किसी को मेरे साथ आना हो, तो आवे, न आना हो, तो न आवे, मैं तो चला । कारुण्य कभी खड़ा रहकर किसी की बाट नहीं जोह सकता । खाली हाँ-हाँ करने वाले तो जगत में बहुत हैं ।
वह मुझसे पूछता हैं- माँ (जगदम्बा) से बिछड़े हुए बालकों को देखकर क्या तुझमें कारुण्य निर्माण हुआ है ? जिसके पास पैसा है, वह भी रोता है और जिसके पास नहीं है, वह भी रोता है। जिसकी पत्नी होती है, वह भी रोता है और जिसकी नहीं होती, वह भी रोता है। सभी रोते रहते हैं। वस्तुतः ये लोग वित्त या पत्नी के कारण नहीं रोते बल्कि वे माँ की गोद से बिछुड़ गए हैं, उन्हें माँ (जगदम्बा) की गोद चाहिए, इसलिए रोते हैं। माँ के लिए रोने वाले बालक के सामने आप स्वर्णमुहरों का ढेर लगा दें तो भी वह रोता ही रहेगा। लोग भी इसी प्रकार रोते रहते हैं। तुझे यदि मेरे साथ शादी करनी हो तो माँ जगदम्बा से बिछुड़कर रोते हुए बच्चों को देखकर तेरे अंतःकरण में कारुण्य निर्माण होना चाहिए। संस्कृति की ऐसी दशा देख कर तुझमें तड़पन होनी चाहिए।
करुणायुक्त व्यक्ति अकेले ही चल पड़ता है। तुकाराम अकेले ही झोपड़ी-झोपड़ी में जाकर कहते थे-“भगवान लो. भगवान लो" अर्थात् भगवान को अपनाओ । तो लोग उनसे कहते थे भगवान बहुत महंगे हैं! तो तुकाराम कहते- अर्थात् मैं तुमको मुफ्त में देने आया हूँ, तुम्हें पैसा नहीं देना है।
माँ से बिछुड़ा हुआ बालक तो रोता ही है, साथ ही माँ भी रोती है। इसी प्रकार जगत में बिछुड़े हुए इन असंख्य बच्चों को देखकर जगदम्बा (सृष्टि का सृजनहार प्रभु) भी दुःखी है। क्या किसी को जगदम्बा की इस कारुणिक स्थिति पर करुणा आती है ? याज्ञवल्क्य, पतंजलि, वशिष्ठ इत्यादि महापुरुषों में भगवान के लिए करुणा पैदा हुई, इसीलिए वे रात-दिन दौड़े हैं।
वह उद्विग्न मन से कहने लगा -
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अधायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृति मोहिनी श्रिताः ॥
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षतिः ॥
अर्थात् मनुष्य सृष्टिचक्र अर्थात् शास्त्रानुसार कर्म व्यवहार नहीं करते, वे इन्द्रिय सुख भोगनेवाले पापायु व्यर्थ ही जीते हैं। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले वे अज्ञानी लोग राक्षसों और असुरों के समान तामसी स्वभाव को धारण किए हुए हैं। इस शरीर में यह जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही त्रिगुणात्मक माया में स्थित होकर मन सहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को आकर्षित करता है।
उसे लगता है कि मेरा अंश (पुत्र) होकर भी यह मनुष्य इस प्रकार का गर्हित जीवन जीता है ?
मुझे फिर भर्तृहरि याद आए -
बिरमत बुधा योषित्संगात्सुखात्क्षणभंगुरात
कुरुत करुणामैत्री प्रज्ञावधूजनसंङ्गमम् ।
न खलु नरके हाराक्रांतं धनस्तनमण्डलं
शरणमथवा श्रोणिविम्बं रणन्मणिमेखलम् ॥
भर्तृहरि कहना चाहते हैं कि प्रत्येक मानव को करुणा, मैत्री. प्रज्ञा-रूपी स्त्री के साथ विवाह करना चाहिए। ऐसे जीव की कुंडली भगवान के साथ जुड़ सकती है और वह भगवान के साथ शादी कर सकता है।
मैं विचार करने लगी - ईश्वर को कितनी व्यथा होती होगी! भगवान जगत के लिए करुणा से भरे हैं और भक्तों के अंतःकरण में भगवान की इस व्यथा से कारुण्य निर्माण होता है।
अब मैं समझी कि उसकी अपेक्षा मुझमें अल्प करुणा हो सकती है, पर अपनी शक्ति के अनुसार उसका प्रयोग करना चाहिए। तभी हमारी कुण्डली मिलेगी ।
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