जीवनवृत्त
भवभूति का व्यक्तिगत परिचय अज्ञात नहीं है । उनकी तीनों ही कृतियों में विशेषकर 'महावीरचरितम्' की प्रस्तावना में विस्तार पूर्वक उनके निवास स्थान, वंश, नाम एवं परिवार के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है । इसके अनुसार भवभूति का परिचय देखते हैं -
पिता - नीलकण्ठ
पितामह - भट्ट गोपाल
माता - जतुकर्णी
जन्म स्थान - दक्षिण भारत में पद्मपुर नामक नगर के रहने वाले थे।
गुरु - ज्ञाननिधि और कुमारिलभट्ट
गोत्र - काश्यप
जाति - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के उदुम्बुर नामक ब्रह्मवादी ब्राह्मण ।
आश्रयदाता - कन्नौज के राजा यशोवर्माा
समय - 650 ई. से 750 ई. के बीच (लगभग सातवीं शताब्दी केेे अंत में तथा आठवीं शताब्दी केेे आरंभ मेंं)
रीति - गौडी (उत्तररामचरितम् में गौडी और वैदर्भी का समन्वय है)
भवभूति का प्रिय रस - करुण
प्रिय रस - अनुष्टुप् और शिखरिणी
उपासक - शिव के उपासक हैं।
'भवभूति' का नाम - भवभूति के नाम एवं उपाधि से सम्बन्धित रचनाओं का यह वाक्य है- "श्री कण्ठपदलाञ्छन: पदवाक्य प्रमाणज्ञो भवभूतिर्नाम" अर्थात् 'श्रीकण्ठ' यह जिनके लाञ्छन या चिह्न है तथा 'भवभूति' जिनकी प्रसिद्ध उपाधि है। यहाँ 'लाञ्छन' का अर्थ चिह्न या नाम पद है। 'भवभूति' के साथ 'नाम' यह प्रसिद्धिवाची अव्यय है। आशय यह है कि श्रीकण्ठ नाम वाले कवि 'भवभूति' इस उपाधि से विभूषित थे एवं इस उपाधि से ही अधिक विख्यात थे। किन्तु अनेक विद्वान् इस अर्थ से सहमत नहीं हैं। वे 'भवभूति' यह वास्तविक नाम मानते हैं तथा 'श्रीकण्ठ' यह उनका उपनाम या उपाधि मानते हैं। इन विद्वानों का तर्क है कि 'मालतीमाधव' की प्रस्तावना में 'भवभूति नाम' के स्थान पर 'भवभूतिनामा' यह पाठ दिया हुआ है जो इस बात का द्योतक है कि भवभूति ही कवि का वास्तविक नाम था। इन विद्वानों का यह भी तर्क है कि सभी सुभाषितकारों ने, इतिहासकारों ने 'भवभूति' नाम को ही प्रधानता दी है 'श्रीकण्ठ' को नहीं । टीकाकार जगद्धर ने कवि का प्रसिद्ध नाम 'भवभूति' माना है और 'श्रीकण्ठ' का अर्थ किया है सरस्वती जिसके कण्ठ में निवास करती है। आशय यह है कि श्रीकण्ठ तो उनका विशेषण मात्र था । सम्भव है कि बचपन में माता-पिता एवं परिवारजनों ने प्रेम से नाम 'श्रीकण्ठ' या 'भट्ट 'श्रीकण्ठ' रख लिया हो और वे इस नाम से व्यवहार भी करते हों। परन्तु वास्तविक नाम भवभूति ही था। 'भवभूति' ही नाम प्रसिद्ध है, 'श्रीकण्ठ' मात्र उपनाम है।
वस्तुत: पिता के नीलकण्ठ नाम से भी श्रीकण्ठ अनुकरण साम्य है। भवभूति शिव पार्वती के भक्त थे उन्होंने पार्वती की स्तुति में यह श्लोक लिखा था -
तपस्वी कां गतोऽवस्थामितिस्मेराननाविव ।
गिरिजाया: स्तनौ वन्दे भवभूति सिताननौ ॥
इस श्लोक की उपमा से प्रसन्न होकर विद्वानों ने श्रीकण्ठ को भवभूति की उपाधि से सुशोभित किया, वैसे ही जैसे कि विशिष्ट उपमाओं के कारण कालिदास को दीपशिख, माघ को 'घण्टामाघ' तथा भारवि को 'आतपत्र भारवि' की उपाधि से सुशोभित किया था ।
कभी-कभी मूल नाम गौण हो जाता है और व्यवहार में उपाधि या उपनाम ही प्रसिद्ध हो जाता है। भवभूति का श्रीकण्ठ नाम गौण हो गया और भवभूति यह उपाधि नाम साहित्य जगत में प्रसिद्ध हो गया।
भवभूति का दार्शनिक नाम - उम्बेकाचार्य/उम्बेक/उदुम्बर
उपाधि -
- पदवाक्यप्रमाणज्ञ (पद - व्याकरण, वाक्य - मीमांसा, प्रमाण - न्याय)
- वश्यवाक् (महावीरचरीतम् में भवभूति अपने आप को वश्यवाक् कहते हैं)
- परिणतप्रज्ञ (उत्तररामचरितम् में कहते हैं)
- शिखरिणीकवि
- क्षेमेन्द्र ने सुवृत्ततिलक में भवभूति के शिखरिणी की प्रशंसा में उसे निरर्गलतरङ्गिणी कहा है -
रुचिरा घनसन्दर्भे या मयूरीव नृत्यति ॥ (सु. 3.33)
रचनाएं -
- महावीरचरितम् (नाटक)
- मालतीमाधवम् (प्रकरण)
- उत्तररामचरितम् (नाटक)
भवभूति की कृतियों में ओजगुुुण अधिक है।
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