बुधवार, 24 मई 2023

निर्ममत्व (चौथा गुण)

निर्ममो....
भगवान पूछते हैं-"तुझे मेरे साथ शादी करनी है ?" मुझे आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करके तुम्हारे साथ शादी करके तुममें मिल जाना है- इह जन्मनि जन्मान्तरे वा; मैंने कहा।
अब वह कहने लगे-" तुझे ज्ञान है कि मैं बंधा हुआ नहीं, मुक्त हूँ। तू यदि बँधी हुई होगी तो मैं तेरे साथ कैसे विवाह कर सकता हूं। तो बता- तू बंधनयुक्त है या बन्धन मुक्त?
अब प्रश्न उठता है कि बंधा हुआ कौन? मुक्त कौन? हमारे शास्त्रकारों ने बंधन और मोक्ष की परिभाषा इस प्रकार दी है - 'मम' बोलने वाला बंधनयुक्त है और 'न मम' बोलने वाला मुक्त। ममेति बन्धमूलं स्यात् निर्ममेति च निवृति: ।
'मम' में बन्धन और 'न मम' में मुक्ति है। भगवान के साथ विवाह करना हो तो यह समझ लेना चाहिए कि कीर्ति, वित्त, श्री, पुत्रादि मेरे नहीं हैं। 'न मम' परन्तु इसमें शुष्कता- नीरसता नहीं होनी चाहिए। सामान्य तौर पर 'न मम' अमुक चीज मेरी नहीं है, बोलने में रूखापन और तिरस्कार-भावना रहती है।
कृष्ण 'न मम' होने के लिए कहते हैं, पर उसमें शुष्कता और तिरस्कार अपेक्षित नहीं है। यह थके, ऊबे और जीवन से उकलाए हुए लोगों का 'न मम' न होकर ऋषियों के द्वारा बोले हुए 'न मम ' के समान सरस होना चाहिए । ऋषि को विश्वम्भर का विश्व, मधुर और आकर्षक लगता है, फिर भी विश्वम्भर उन्हें अधिक मधुर और आकर्षक लगते हैं। इसीलिए सृष्टि के सम्बन्ध में 'न मम' बोलते हैं। उनके बोलने में माधुर्य है, शुष्कता और तिरस्कार नहीं है।
अश्माश्च मे, मृत्तिकाश्च मे, सिक्ताश्च मे, वनस्पतयश्च मे, ' ऐसा कहने में ऋषियों को सृष्टि के प्रति कितना आकर्षण है ? उन्होंने रुद्राष्टाध्यायी के 'चमक प्रकरण' में भगवान से क्या नहीं माँगा है ?और तो और मिट्टी, पत्थर, रेत भी माँगी है-' चमे चमे ', ' न मे ' कहीं दिखाई ही नहीं देता। और वही ऋषि जब 'न मम' बोलते हैं, तो उसमें भी माधुर्य है। यही उनकी विशिष्टता है।
विश्व सुन्दर, आकर्षक, आवश्यक और उपयोगी है, तो फिर 'न मम' कैसे कहा जा सकता है ? मानव यदि अपने अपनत्व को विश्व के साथ मिला दे तो तब आसानी से 'न मम' कहा जा सकता है।
'मेरे ऊपर किसी का अधिकार होना चाहिए' ऐसी इच्छा प्रत्येक व्यक्ति में रहती है। मनुष्य को लगता है कि कोई उसको पूछनेवाला होना चाहिए। मैं किसी की बनकर रहूं और कोई मुझे अधिकार पूर्वक पूछ सके ऐसी प्रत्येक मानव मन की मांग है । 'मैं किसी का हूं' यदि यह मांग मनुष्य की पूरी न हो तो वह अंदर ही अंदर छटपटाता रहता है। किसी का बने बिना मनुष्य का अपनापन नहीं जाता और इसके बिना 'मम' नहीं छूटता तथा जब तक 'मम' नहीं छूटता, तब तक मनुष्य बंधा रहता है और बंधे हुए मानव के साथ भगवान ब्याह नहीं करते। 'मम' छोड़ने के लिए संसार को खराब और निरुपयोगी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि वह सुन्दर और उपयोगी है। इसलिए 'मम' को वस्तु के साथ मिलाना-लय कर देना ही 'न मम' का एक मात्र मार्ग है।
भगवान के साथ विवाह करने का निश्चय करने पर तत्क्षण ही अपना 'मम' भगवान के साथ मिला देने पर फिर अपना कुछ नहीं रहता।
भगवान कहेंगे-' मेरे घर-'निज बोध रूपे; आनंद रूपे' आना है, तो क्या तू अपने साथ अपनी दुर्गन्धि लेकर आएगा ? ' यद् गत्वा न निर्वतन्ते' ऐसे धाम में अपनी दुर्गन्ध फैलाने वाले को स्थान नहीं मिलता। इसलिए तुझे यदि मेरे साथ शादी करनी है, तो अपने मायके के गोबर को लेकर मत आना, अन्यथा तुझे तत्क्षण बाहर निकालना पड़ेगा।
यह सत्य बात है कि सृष्टि हमारा मायका है और यहां कामना वासनाओं की अनन्त दुर्गन्धियों में हम डूबे रहते हैं। भक्त कहता है- "भगवान ! मैं इस सृष्टि के लौकिक व्यवहार का 'मम' रूपी गोबर तो अपने साथ लाने वाला नहीं हूँ, परन्तु मेरे पास जो तेरा अमृत है, वह भी मेरा नहीं है। उसके लिए भी मेरा 'मम' नहीं है। मैं बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इस स्थिति तक पहुँच चुका हूँ कि मैं अपना 'न मम' तो करता ही हूं, परन्तु मेरे पास जो तेरा वैभव, सत्ता, सम्पत्ति, महत्ता और अमृत है, उन सबके लिए भी मेरा 'न मम' है । इस जगत में मेरा कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि मैं भी अपना नहीं हूँ।
अरे जब सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान तेरा होने पर भी तूने गीता में यही कहा है-  ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
      ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ ( गीता. १३/४)
और कहते हैं कि  'एवं परम्परा प्राप्तं'- मैं तो परम्परा से चलते आने वाले योग को ही कह रहा हूँ। इसलिए मैं तेरी परम्परा जानती हूं।
लेकिन अपने सत्कर्मों के लिए मुझमें 'मम' विद्यमान है। देखो तुम मेरे साथ विवाह करो या न करो लेकिन बहाने मत बनाओ। जब लोग मेरी प्रसंशा करते हैं और मेरे सत्कर्मों का वर्णन करते हैं तो मुझे आनन्द और गुदगुदी की अनुभूति होती थी, परन्तु अपने सत्कर्मों के लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे प्रेम के लिए थी कि तुम कितने महान हो! पति अपने खून-पसीने की कमाई से जब कहीं दान देता है, तो रसीद अपने नाम की नहीं, पत्नी के नाम की कटाता है। इसको देखकर पत्नी के हृदय में प्रेम और गुदगुदी निर्माण होती है! बशर्ते उसमें हृदय हो, अन्यथा कहेगी कि आयकर से बचने के लिए ऐसा किया होगा, इसमें कौन सी विशेषता है।
'प्रभु! इसी प्रकार जब लोग मेरे सत्कर्मों की प्रशंसा करते थे, तो मुझे लगता है कि सत्कर्म तो स्वयं तुमने किए और रसीद मेरे नाम से कटवाई है। अपने किए हुए सब कर्म मेरे नाम पर चढ़ा दिए। इसीलिए मुझे तुम्हारे प्रेम के लिए गुदगुदी होती थी। मेरे हाथों द्वारा हुए सत्कर्मों के लिए मुझमें तनिक भी 'मम' नहीं, बल्कि 'न मम' है। मेरा मन शुद्ध है, और मैं तुम्हें देने आई हूँ - मय्येव मन आधत्स्वमयि बुद्धिं निवेशय' प्रभु तुम बहुत दिनों से लोगों से मन मांगते रहे हो, इसलिए मैं अपने मन को लाई हूं तुम्हें समर्पित करने ।
भगवान के साथ सचमुच में शादी करनी हो, तो अपने अंदर एक-एक गुण लाकर जन्मपत्री मिलाने का यत्न करना चाहिए। छत्तीस गुणों को प्राप्त करना कोई सामान्य बात नहीं है, कठिन लगने जैसी बात है, परन्तु तभी 'निर्मम - 'न मम' बना जा सकता है और तभी भगवान के हाथ में अपना हाथ सौंपा जा सकता है ।
पैसा, पत्नी, पुत्र और घर आदि के लिए ' न मम' नहीं कहा जा सकता। कोई यदि अपनी पत्नी के लिए 'न मम' बोलता है तो वह मात्र घृणा, नफरत, ऊब और तिरस्कार से बोलता है । इस प्रकार ऊबकर 'न मम' बोलना भगवान के यहाँ नहीं चलेगा । भौतिक वस्तुओं से लेकर सद्गुणों और सत्कर्मों के लिए भी 'न मम' कहना है और वह भी नफ़रत से नहीं, प्रेम से कहना है। यह बात कठिन अवश्य है, परन्तु असम्भव नहीं है।
सृष्टि के सर्जनहार के साथ जुड़ना आना चाहिए। हमको जो वित्त, यश, कीर्ति आदि मिलती है, उसको यदि भगवान के साथ जोड़ देंगे तो उनमें सुगन्ध आएगी और हमारा जीवन भी सुगन्धित हो जाएगा।
भारत को जो स्वतंत्रता मिली, उसका श्रेय किसको है? यह विचारणीय प्रश्न है। लोग कहते हैं कि स्वतंत्रता हमने प्राप्त की । उपनिषद में एक सुंदर कथा है। देव और असुरों की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के पश्चात् विजयोत्सव मनाने के लिए देवराज इन्द्र की अध्यक्षता में देवताओं की एक सभा हुई। सभा में विजय के लिए सब एक दूसरे की प्रशंसा करने लगे-' अस्माकमेवायं विजयः अस्माकमेवायं विजयः ।" हमने विजय प्राप्त की । चित्शक्ति को लगा कि देवताओं ने क्या मेरे बिना ही विजय प्राप्त की? क्या विजय का श्रेय केवल देवताओं को ही है ? ऐसा विचार करके अतीन्द्रिय शक्ति विचित्र रूप धारणकर वहाँ उपस्थित हुई। उसे देखकर सबका ध्यान उधर आकर्षित हुआ । इन्द्र ने अग्नि को आदेश दिया कि वह जाकर देखो कि वह अद्भुत व्यक्ति कौन है ?
अग्नि जब उस विचित्र व्यक्ति की ओर बढ़ा तो उसने अग्नि की सम्पूर्ण शक्ति खींच ली। चित्शक्ति ने उसमें थोड़ी शक्ति भरकर पूछा- 'तुम कौन हो ?' उत्तर मिला- मैं अग्नि हूँ।"
चित्शक्ति ने पूछा- तुममें क्या शक्ति है और तुम क्या करते हो, अग्नि को लगा, यह कोई नया ही मालूम पड़ता है, इसको मेरी शक्ति का पता ही नहीं है। अग्नि ने कहा-' अग्निर्वा अहमस्मि जातवेदो वा अहमस्मि' ।
चित्शक्ति ने पूछा-' पर तुम्हारी शक्ति क्या है ?' अग्नि ने कहा, तुमको मेरी शक्ति का पता ही नहीं है? मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक मिनट में सारी दुनिया को जला सकता हूँ। अतीन्द्रिय ने कहा- 'सारी दुनिया की बात छोड़ो, लो, इस तिनके को जलाकर दिखाओ।' पूरी शक्ति लगाने पर भी वह घास के एक तिनके को नहीं जला सका, इसलिए लज्जा से सिर झुकाकर वापस लौट आया ।
अग्नि कुछ नहीं बोला, इसलिए इन्द्र ने वायुदेव को भेजा। उसे भी अतीन्द्रिय शक्ति ने पूछा- 'तुम कौन हो और तुम्हारा खिताब क्या है ?
वायु ने कहा- 'वायुर्वा अहमस्मि मातरिश्वा वा अहमस्मि'। चित्शक्ति ने पूछा- तो, तुम्हारी शक्ति क्या है?' वायु ने कहा - मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक क्षण में संपूर्ण पृथ्वी को उड़ा सकता हूँ।
चित्शक्ति ने उसके सामने भी वही तिनका रखा और कहा पृथ्वी की बात रहने दो, इस घास के तिनके को उड़ाकर दिखाओ।
वायु ने बहुत फूँ-फाँ की, पर तिनका हिला भी नहीं। वह भी शर्म से नीचा सिर किए झेंपते हुए अपनी जगह पर वापस जा बैठा। इसी प्रकार अन्य देवता भी जा जा कर वापस लौटे। इन्द्र को लगा कि वह कौन है ?
चित्शक्ति ने विचार किया कि अब स्वयं सरदार ही आता है, इसलिए अपमान करना उचित नहीं है। इसलिए अदृश्य होकर उसने कहा-' तुम लोग विजयगर्व से उन्मत्त होकर अपनी प्रशंसा करते हो ! तुम इस बात को भूल गये हो कि तुम्हारी विजय के पीछे अतीन्द्रिय शक्ति का हाथ था, इस ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है। इसलिए तुम्हारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया है।
इसी प्रकार भारत के सत्ता परिवर्तन के पीछे भी प्रभु शक्ति थी. यह नहीं भूलना चाहिए। आप एक बार विचार कीजिए कि भारत से सत्ता हस्तान्तरण के समय यदि इंग्लैंड में Conservative Party सत्ता पर होता, तो हमें स्वतंत्रता न मिलती। द्वितीय विश्वयुद्ध में पराजय की कगार पर खड़े इंग्लैंड को 'V for victory' का नारा देकर गिरने से बचाने और विजय दिलाने वाले चर्चिल की पार्टी चुनाव में हार गई और मजदूर पार्टी जीत गई, जो फिर लम्बे समय तक सत्ता में ही नहीं आई। ठीक उसी समय कंजरवेटिव पार्टी के हारने और लेबर पार्टी के जीतने में प्रभु संकेत ही हो सकता है। भारत को स्वतंत्रता मिले, ऐसी चित्शक्ति की इच्छा रही होगी, इसीलिए इंग्लैंड में उक्त पार्टियों के हार-जीत की अप्रत्याशित घटना घटी।
भारत को स्वतंत्रता मिले, चित्शक्ति की ऐसी इच्छा क्यों हुई होगी ? भारत के मानव समूह के पीछे दस-दस हजार वर्ष की तपश्चर्या है। चढ़ते-गिरते पड़ते लोगों ने मानव-जाति के उत्थान और विकास के लिए यहाँ अनन्त प्रयोग किये हैं। यहाँ किये गये प्रयोग समग्र विश्व के लिए उपयोगी सिद्ध हों, इसिलिए ही कदाचित् भारत की स्वतन्त्रता के लिए चित्शक्ति की इच्छा हुई हो। मनुस्मृति भी कहती है-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥
प्रभु को पसंद होना, यह पहली सीढ़ी है। प्रभु का बनना, यह दूसरी सीढ़ी है और प्रभु के हाथों में हाथ देकर प्रभु के साथ विवाह करना, यह तीसरी और अंतिम सीढ़ी है। इस सीढ़ी पर पहुँचने के पश्चात् वापस लौटना अर्थात् पुनर्जन्म‌नहीं होता। ' यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । ' हमें भगवान के यहाँ मेहमान के तौर पर नहीं जाना है, मेहमान तो थोड़े दिन रहकर वापस लौट जाता है। हमें तो भगवान के साथ विवाह करके स्थाई तौर पर अधिकार पूर्वक वहीं रहना है, फिर लौटना नहीं है। परन्तु भगवान की रुचि अरुचि को समझ लेना 'चाहिए। उन्हें 'निर्मम ' रुचता है। इसलिए जीवन में निर्ममत्व ' लाना चाहिए।
सौ-डेढ़ सौ रुपये की नौकरी ढूँढने वाले युवक को कदाचित् कोई निःसंतान राजा गोद ले ले तो क्या फिर उसमें नौकरी की आसक्ति रहेगी? नहीं रहेगी। इसी प्रकार यदि भगवान हमें अपनी गोद में ले लें, तो फिर भौतिक वस्तुरूपी गोबर की आसक्ति नहीं रहेगी। प्रभु ! तुम्हारे हाथ में हाथ सौंपने के पश्चात् मुझे इस गोबर की आसक्ति नहीं हो सकती। उसके प्रति मेरा ' न मम ' है !
वित्त, पुरुष, संतान, सद्गुण, यश, सद्विचार आदि सभी वस्तुओं के लिए 'न मम' बोलेंगे, पर शरीर के लिए ? मनुष्य इतना तो स्पष्ट समझता है कि मैं घोड़े के ऊपर बैठता हूँ, पर घोड़ा नहीं हूँ, घर में रहता हूँ, पर घर नहीं हूँ। इसी प्रकार यह समझ भी दृढ़ होनी चाहिए कि मैं शरीर का प्रयोग करता हूँ, परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ। ऐसी समझ होने पर ही 'न मम' पूर्ण होता है और तभी भगवान के साथ शादी हो सकती है।
भगवान यह शरीर न तो मेरा है और न मेरे लिए है। वह तेरा है और तेरे लिए है। जीवन में कभी ऐसी समस्या उठ खड़ी हो जाती है कि भगवान का काम और अपना काम दोनों के साथ समुपस्थित हो जाते हैं। ऐसे अवसर पर कौन सा काम पहले किया जाय ? यह उलझन होती है और यहीं पर भगवान परीक्षा लेते हैं। मनुष्य सोचता है कि भगवान का काम करने वाले तो बहुत हैं और मेरा काम करने वाला अकेला मैं ही हूँ। इसलिए मुझे अपना काम पहले ही करना चाहिए। ऐसा सोचने वाले पर भगवान अप्रसन्न हो जाएँगे, ऐसा तो नहीं हैं, परन्तु परीक्षा में उसे कम अंक तो मिलने ही वाले हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि किसी सत्कर्म के प्रारम्भ करने पर बाधाएँ आती ही हैं। परन्तु भगवान गीता में कहते हैं, 'प्रत्यवायो न विद्यते' - यह बाधा नहीं, परीक्षा है। भगवान कहते हैं-' शरीर भी मेरा नहीं है' तू ऐसा कहने के लिए तैयार है ? तू यदि शुद्ध होकर आएगी, मायके की गंदगी नहीं लायेगी, तो मैं तेरे साथ विवाह करूँगा ।' यह है 'निर्ममः' की भूमिका ।

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

अक्षय तृतीया

   'अक्षय' शब्द का अर्थ है- जिसका क्षय या नाश न हो। इस दिन किया हुआ जप, तप, ज्ञान तथा दान अक्षय फल देने वाला होता है अतः इसे 'अक्षय तृतीया' कहते हैं। 
    भविष्यपुराण, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, स्कन्दपुराण में इस तिथि का विशेष उल्लेख है। इस दिन जो भी शुभ कार्य किए जाते हैं, उनका बड़ा ही श्रेष्ठ फल मिलता है। इस दिन सभी देवताओं व पितरों का पूजन किया जाता है। पितरों का श्राद्ध कर धर्मघट दान किए जाने का उल्लेख शास्त्रों में है। वैशाख मास भगवान विष्णु को अतिप्रिय है अतः विशेषतः विष्णु जी की पूजा करनी चाहिए।
       स्कन्दपुराण के अनुसार, जो मनुष्य अक्षय तृतीया को सूर्योदय काल में प्रातः स्नान करते हैं और भगवान विष्णु की पूजा करके कथा सुनते हैं, वे मोक्ष के भागी होते हैं । जो उस दिन मधुसूदन की प्रसन्नता के लिए दान करते हैं, उनका वह पुण्यकर्म भगवान की आज्ञा से अक्षय फल देता है।
     भविष्यपुराण के मध्यमपर्व में कहा गया है वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया में गंगाजी में स्नान करने वाला सब पापों से मुक्त हो जाता है। वैशाख मास की तृतीया, स्वाती नक्षत्र और माघ की तृतीया रोहिणी युक्त हो तथा आश्विन तृतीया वृषराशि से युक्त हो तो उसमें जो भी दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है । विशेषरूप से इनमें हविष्यान्न एवं मोदक देने से अधिक लाभ होता है तथा गुड़ और कर्पूर से युक्त जलदान करने वाले की विद्वान् पुरुष अधिक प्रंशसा करते हैं, वह मनुष्य ब्रह्मलोक में पूजित होता है। यदि बुधवार और श्रवण से युक्त तृतीया हो तो उसमें स्नान और उपवास करने से अनंत फल प्राप्त होता हैं।

अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं ।
तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया ॥
उद्दिश्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः ।
तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ॥
अर्थात् : भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं, हे राजन इस तिथि पर किए गए दान व हवन का क्षय नहीं होता है; इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने इसे अक्षय तृतीया कहा है। इस तिथि पर भगवान की कृपा दृष्टि पाने एवं पितरों की गति के लिए की गई विधियां अक्षय-अविनाशी होती हैं ।

    अक्षय तृतीया के दिन केसर और हल्दी से देवी लक्ष्मी की पूजा करने से आर्थिक परेशानियों में लाभ मिलता है।

भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय 21 -
वैशाखे मासि राजेन्द्र तृतीया चन्दनस्य च ।
वारिणा तुष्यते वेधा मोदकैर्भीम एव हि । ।
दानात्तु चन्दनस्येह कञ्जजो नात्र संशयः । ।
यात्वेषा कुरुशार्दूल वैशाखे मासि वै तिथिः ।
तृतीया साऽक्षया लोके गीर्वाणैरभिनन्दिता ॥
आगतेयं महाबाहो भूरि चन्द्रं वसुव्रता ।
कलधौतं तथान्नं च घृतं चापि विशेषतः॥
यद्यद्दत्तं त्वक्षयं स्यात्तेनेयमक्षया स्मृता ॥
यत्किञ्चिद्दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।
तत्सर्वमक्षयं स्याद्वै तेनेयमक्षया स्मृता ॥
योऽस्यां ददाति करकन्वारिबीजसमन्वितान् ।
स याति पुरुषो वीर लोकं वै हेममालिनः ॥
इत्येषा कथिता वीर तृतीया तिथिरुत्तमा ।
यामुपोष्य नरो राजन्नृद्धिं वृद्धिं श्रियं भजेत् ॥
अर्थात् - वैशाख मास की तृतीया को चन्दनमिश्रित जल तथा मोदक के दान से ब्रह्मा तथा सभी देवता प्रसन्न होते हैं । देवताओं ने वैशाख मास की तृतीया को अक्षय तृतीया कहा है । इस दिन अन्न-वस्त्र-भोजन-सुवर्ण और जल आदि का दान करने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है । इसी तृतीया के दिन जो कुछ भी दान किया जाता है वह अक्षय हो जाता है और दान देनेवाला सूर्यलोक को प्राप्त करता है ।इस तिथि को जो उपवास करता है वह ऋद्धि-वृद्धि और श्री से सम्पन्न हो जाता है।

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

करुणा

 अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्र: करुण एव च ।

आज छत्तीस गुणों में तीसरे गुण करुण: की बात करेंगे।

         किसी से द्वेष न करना और सबसे मित्रता एवं स्नेह रखना चाहिए, यह पूर्व गुणों में चर्चा कर चुके हैं। लेकिन किस भाव भूमि में रहकर ? इसलिए वह कह रहा है - मेरा एक सार्वजनिक रूप है-'करुणा'। वह कहता है कि मैं करुणामय हूँ, तो क्या तेरे पास करूणा है ? 

अब प्रश्न आता है कि यह 'करुणा' है क्या? करुणा एक रसायनिक मिश्रण है। करुणा में दया, आत्मीयता और कृतिशीलता ये तीन तत्त्व होते हैं। केवल दया में नीरसता है। दया पराये पर होती है। इसलिए दया में आत्मीयता का मिश्रण करके उसमें आर्द्रता लानी चाहिए। 'भगवान सबका करो कल्याण' सिर्फ ऐसी सदिच्छा रखकर काम नहीं चलेगा। इसलिए दया + आत्मीयता ही पर्याप्त नहीं है, उसमें कृतिशीलता भी अपेक्षित है। दया + आत्मीयता + कृतिशीलता = करुणा । जब दया आत्मीयता से कृतिशील होती है, तो करुणा का प्रारम्भ होता है।

    चलो उदाहरण के माध्यम से समझते हैं - एक व्यक्ति गाड़ी से दुर्घटना होने के कारण घायल होकर सड़क के किनारे कराह रहा है। एक व्यक्ति उसको देखता है, कुछ देर दुःखी होकर उसे सांत्वना देता है। और 'राम राम हरे हरे' करके चला जाता है। दूसरा आदमी दुःख व्यक्त करता है और उसे कुछ रुपए देकर इलाज कराने को कह कर चला जाता है। तीसरा व्यक्ति आता है और उसे उठाकर हॉस्पिटल पहुँचाता है । इनमें पहला व्यक्ति दयालु है, दूसरे की दया में आत्मीयता है, परन्तु तीसरे में दया, आत्मीयता और क्रियाशीलता तीनों है। यही करुणा है ।

        अर्थात् दया जब आत्मीयता के साथ क्रियाशील होती है तो वह करुणा बन जाती है। इसलिए करुणा दया, कृपा, आत्मीयता और क्रियाशीलता का रसायन है ।

वह करुणामय है, इसलिए उसके साथ शादी करने के लिए जीवन में करुणा लानी चाहिए।

लेकिन प्रश्न उठता है कि किस पर करुणा करनी ? तो सर्वप्रथम तो अपने ऊपर करुणा करनी चाहिए। तुझे विचार करना चाहिए कि मुझे कितना सुन्दर शरीर मिला है, मानव जीवन मिला है, तो क्या मैंने उसका सदुपयोग किया है? यहां भर्तृहरि का पद्य याद आने लगा -

न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुधर्मोऽपि नोपार्जितः ।नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं 

          मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ॥

    हम केंचुवे के समान पैदा हुए और हमने केंचुवे जैसा जीवन बिता दिया है। इतनी उम्र हो गई, पर अब तक मैंने क्या किया है? इसका सिंहावलोकन करना चाहिए।

ईश्वर ने तुझे विद्या, बुद्धि, वित्त, शक्ति आदि प्रदान किये, पर तुने उनका कोई सदुपयोग नहीं किया? इस प्रकार करुणा का प्रारम्भ अपने आपसे करना चाहिए।

परन्तु खेद की बात यह है कि हमें अपने लिए भी आत्मीयता और दया नहीं हैं। अपने लिए भी हममें क्रियाशीलता नहीं है।

कितने ही लोग कहते हैं- कुछ होना चाहिए, कुछ करना चाहिए, पर जब मेरा प्रारब्ध खुलेगा, तभी होगा। ऐसा कहते-कहते उसका सम्पूर्ण जीवन ही समाप्त हो जाता है और वे कुछ भी नहीं करते। यदि उनके प्रारब्ध को खोलने वाला कोई दूसरा हो तो उनके कर्तृत्व को स्थान ही कहाँ रहा ?

     साधक अवस्था में अपने ऊपर ही करुणा आनी चाहिए। विचार करना चाहिए कि इतनी सुन्दर बुद्धि का प्रयोग मैंने सिर्फ धन कमाने के अतिरिक्त और किसी भी चीज में नहीं किया ? यह काम करके मुझे क्या मिलेगा ? बस इतना ही विचार किया है। सुबह उठना, दिनचर्या करना, आफिस (काम पर) चले जाना और फिर शाम को आकर टीवी देखते या मोबाइल चलाते बस भोजन करके सो जाना ? रोज यही करना है और मर जाना है। निरपेक्ष और निराकांक्ष होकर बुद्धि का उपयोग किया ही नहीं है।

अरे यार! तूझे खुद पर तरस नहीं आता ? मुझे ऐसा बोरिंग जीवन नहीं चाहिए। ऐसा जीवन यदि तेरा रहेगा तो मुझसे शादी करने का तो तू भूल जा ।

     सुन! अपने ऊपर करुणा करने के अभ्यास से तुझे करुणा की आदत पड़ जाएगी और फिर तू दूसरों पर भी करुणा करने लगेगी।जगत में दीन, हीन, क्षुद्र, लाचार और असंस्कारी लोग दिखाई देते हैं, उनके लिए क्या कभी तेरा दिल टूटा है ? उन पर तूने करुणा की वर्षा की है ?

मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था । 

दुनिया तो बस कहती हैं - इस सारी खटपट के बजाय हम तो जप करेंगे भाई !

उसने फिर कहा - अवश्य जप करो, पर उसका महत्त्व तभी है, जब ईश्वर का कुछ काम करोगे। आप किसी का काम करें और उसके पश्चात् उसे टेलिफोन करेंगे तो वह आपको पहचानेगा और आपके साथ बात करेगा। किसी का कुछ काम किये बिना यदि उससे टेलिफोन जोड़ोगे तो वह आपसे बात तो करेगा लेकिन बेमन और अपरिचित जैसे। वह नहीं पहचानेगा, फिर क्या होगी ?

     शंकराचार्य ने अपने साथ साथ लोगों पर करुणा की, उन्हें समझा कर, डांट कर सही रास्ते पर लाए । अपनी वैदिक संस्कृति को फिर से पुनर्जीवित किया। यह लोगों के प्रति की करुणा है। साधकावस्था में अपने ऊपर और सिद्धावस्था में दूसरे लोगों पर करुणा होनी चाहिए।

करुणा किसी की राह नहीं देखती, वह चलने लगती है। व्यवहारू लोग कहते हैं- दूसरे दस बीस लोग काम करने लगेंगे तो मैं भी आऊँगा। करुणामय मानव ऐसा न कहकर स्वयं काम करने लगता है।

फिर इस समाज का आइना दिखाया कि तू वर्तमान की ही परिस्थितियों को देख ! लोग असंस्कारी क्यों हैं? भटके हुए क्यों है? रोज अखबार बलात्कारियों से भरे क्यों हैं? संस्कृत की ऐसी दशा क्यों है? आने वाली पीढ़ी की दशा इससे भी भयंकर होने वाली है! 

इन सबका उत्तर यही है कि लोग अपनी संस्कृति को भूल बैठे हैं। हम सांस्कृतिक हैं, इसका दिखावा बस कैमरे के आगे होता है, हम अपने सनातन धर्म को भूल बैठे हैं। आजकल अपने स्वार्थ के लिए ही किसी के प्रति करुणा होती है।

यह सच है कि लोग दीन, हीन, लाचार और असंस्कारी हैं, पर क्या वे भगवान की संतान नहीं है? करुणापूर्ण मानव ऐसे लोगों को देखकर काम पर लग जाता है, किसी की प्रतीक्षा करते नहीं बैठा रहता। वह कहता है- ' किसी को मेरे साथ आना हो, तो आवे, न आना हो, तो न आवे, मैं तो चला । कारुण्य कभी खड़ा रहकर किसी की बाट नहीं जोह सकता । खाली हाँ-हाँ करने वाले तो जगत में बहुत हैं ।

वह मुझसे पूछता हैं- माँ (जगदम्बा) से बिछड़े हुए बालकों को देखकर क्या तुझमें कारुण्य निर्माण हुआ है ? जिसके पास पैसा है, वह भी रोता है और जिसके पास नहीं है, वह भी रोता है। जिसकी पत्नी होती है, वह भी रोता है और जिसकी नहीं होती, वह भी रोता है। सभी रोते रहते हैं। वस्तुतः ये लोग वित्त या पत्नी के कारण नहीं रोते बल्कि वे माँ की गोद से बिछुड़ गए हैं, उन्हें माँ (जगदम्बा) की गोद चाहिए, इसलिए रोते हैं। माँ के लिए रोने वाले बालक के सामने आप स्वर्णमुहरों का ढेर लगा दें तो भी वह रोता ही रहेगा। लोग भी इसी प्रकार रोते रहते हैं। तुझे यदि मेरे साथ शादी करनी हो तो माँ जगदम्बा से बिछुड़कर रोते हुए बच्चों को देखकर तेरे अंतःकरण में कारुण्य निर्माण होना चाहिए। संस्कृति की ऐसी दशा देख कर तुझमें तड़पन होनी चाहिए।

करुणायुक्त व्यक्ति अकेले ही चल पड़ता है। तुकाराम अकेले ही झोपड़ी-झोपड़ी में जाकर कहते थे-“भगवान लो. भगवान लो" अर्थात् भगवान को अपनाओ । तो लोग उनसे कहते थे भगवान बहुत महंगे हैं! तो तुकाराम कहते- अर्थात् मैं तुमको मुफ्त में देने आया हूँ, तुम्हें पैसा नहीं देना है।

माँ से बिछुड़ा हुआ बालक तो रोता ही है, साथ ही माँ भी रोती है। इसी प्रकार जगत में बिछुड़े हुए इन असंख्य बच्चों को देखकर जगदम्बा (सृष्टि का सृजनहार प्रभु) भी दुःखी है। क्या किसी को जगदम्बा की इस कारुणिक स्थिति पर करुणा आती है ? याज्ञवल्क्य, पतंजलि, वशिष्ठ इत्यादि महापुरुषों में भगवान के लिए करुणा पैदा हुई, इसीलिए वे रात-दिन दौड़े हैं।

वह उद्विग्न मन से कहने लगा -

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।

अधायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृति मोहिनी श्रिताः ॥

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षतिः ॥

अर्थात् मनुष्य सृष्टिचक्र अर्थात् शास्त्रानुसार कर्म व्यवहार नहीं करते, वे इन्द्रिय सुख भोगनेवाले पापायु व्यर्थ ही जीते हैं। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले वे अज्ञानी लोग राक्षसों और असुरों के समान तामसी स्वभाव को धारण किए हुए हैं। इस शरीर में यह जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही त्रिगुणात्मक माया में स्थित होकर मन सहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को आकर्षित करता है।

उसे लगता है कि मेरा अंश (पुत्र) होकर भी यह मनुष्य इस प्रकार का गर्हित जीवन जीता है ?

मुझे फिर भर्तृहरि याद आए -

बिरमत बुधा योषित्संगात्सुखात्क्षणभंगुरात

कुरुत करुणामैत्री प्रज्ञावधूजनसंङ्गमम् ।

न खलु नरके हाराक्रांतं धनस्तनमण्डलं

शरणमथवा श्रोणिविम्बं रणन्मणिमेखलम् ॥

भर्तृहरि कहना चाहते हैं कि प्रत्येक मानव को करुणा, मैत्री. प्रज्ञा-रूपी स्त्री के साथ विवाह करना चाहिए। ऐसे जीव की कुंडली भगवान के साथ जुड़ सकती है और वह भगवान के साथ शादी कर सकता है।

मैं विचार करने लगी - ईश्वर को कितनी व्यथा होती होगी! भगवान जगत के लिए करुणा से भरे हैं और भक्तों के अंतःकरण में भगवान की इस व्यथा से कारुण्य निर्माण होता है।

अब मैं समझी कि उसकी अपेक्षा मुझमें अल्प करुणा हो सकती है, पर अपनी शक्ति के अनुसार उसका प्रयोग करना चाहिए। तभी हमारी कुण्डली मिलेगी ।

रविवार, 16 अप्रैल 2023

मैत्र:

"अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्र:".......... छत्तीस गुणों में आज दूसरे गुण की बात करेंगे, जिसे कहते हैं 'मैत्र:' । 'मैत्र:' अर्थात् मित्रता तथा स्नेह। दूसरे के प्रति प्रेम का व्यवहार करना । दूसरों के लिए जो कुछ भी काम करना हो उसे स्नेह से करना होगा, कर्तव्य समझकर नहीं । केवल कर्तव्य में रूखापन होता है । मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है, ऐसा कहकर छुटकारा नहीं मिल सकता । एकनाथ तथा शंकराचार्य आदि महापुरुषों को लोगों से कुछ लेना-देना नहीं था फिर भी वे लोगों के पास गए और उन्होंने उनसे प्रेम किया । लोगों के पास प्रेम से जाकर उन्हें समझाना पड़ता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि शंकराचार्य एकनाथ जैसे महापुरुष सदा लोगों के साथ लाड़ लड़ाते थे, समय आने पर उन्होंने लोगों को थप्पड़ भी मारी है, परंतु वह मां की थप्पड़ थी ।

      वह आगे मुझसे पूछता है कि मेरे परिवार में बुरे से बुरे और नीच से नीच लोग भी हैं, तू उनके पास जाएगी तो वे तेरा सम्मान करने के बजाय तुझे हैरान भी करेंगे, तू मेरे ऐसे कुटुंबीजनों से प्रेम कर सकेगी क्या ?

मुझसे पूछता है कि - क्या सद्विचारों के साथ तेरी मैत्री है? 

ऐसा हम लोग व्यवहार में भी देखते हैं कि जब हम पुत्र के लिए कन्या ढूंढते हैं तो छानबीन करते हैं, कन्या कितनी पढ़ी है? क्या करती है? उसका स्वभाव कैसा है इत्यादि । इसी प्रकार वह भी मुझसे पूछ रहा है कि तूने जीवन में किन-किन गुणों से मैत्री की है?

क्या सज्जनों के साथ तेरी मैत्री है?

     अब मेरे दिमाग में तो सज्जन का मतलब है सीधे साधे लोग, जो घर से ऑफिस ऑफिस से घर आते हैं इत्यादि । इसलिए वह मुझे यह समझाने लगा कि ऐसे लोग सज्जन नहीं होते हैं बल्कि ऐसे लोग तो और भयंकर होते हैं । फिर सज्जन कौन है? मैंने प्रश्न किया । जो सत् का होता है, जिसकी हर कृति में सत् के कार्य के लिए घिस जाने का पागलपन हो, जो प्रभु के लोगों की संगति करता है ऐसे लोग सज्जन होते हैं और ऐसे लोगों के साथ मैत्री करनी चाहिए ।

मित्र होना रस्सी के ऊपर चलने के समान है । मैं किसी का स्वामी नहीं, वैसे किसी का दास भी नहीं, जो वैभव, विद्या, संपत्ति और अधिकार से चौंधियाता नहीं है तथा दरिद्रता, अज्ञान और कंगालियत आदि का तिरस्कार नहीं करता, वही मित्र बन सकता है। स्वामी और सेवक होना सरल है किंतु मित्र होना अति कठिन है ।

मित्र वह होता है जो स्पष्ट कहता है । संत स्पष्ट वक्ता होते हैं इससे अनेक लोग उनसे द्वेष भी करते हैं। परंतु उनकी मैत्री की भूमिका होती है ।

पति से प्रेम है तो पति के परिजनों से प्रेम करना ही होता है । इसी प्रकार मुझे भी उसके लोगों से स्नेह होना चाहिए । सबकी ओर स्नेह से देखना, यह सबसे कठिन बात है।

यदि कोई थोड़ा सा सात्विक बन भी जाता है तो दूसरों को नालायक समझ कर उसे छोटा समझने लगते हैं। यदि यही हमारी प्रवृत्ति यही रही तो, हम कितना ही महंगा सेंट क्यों ना लगा ले परंतु याज्ञवल्क्य जैसे महापुरुषों की तुलना में हमारा जीवन कितना दुर्गन्धित है? उनकी बौद्धिक और आध्यात्मिक ऊंचाई के सामने हमारे चार पैसों की क्या कीमत है ? उन महापुरूषों को हम पर प्रेम करना कितना कठिन होता होगा न? कभी कभी संदेह होता है कि हम पर किसी का प्रेम करना संभव ही नहीं । हमको देखकर उन्हें अरूचि होती होगी न? परंतु उन्होंने किसी से न तो नफरत की और न ही वे तटस्थ रहे इसके विपरीत उन्होंने जगत् से प्रेम किया ।

मैत्र: शब्द से स्नेह निर्माण करना अपेक्षित है, उसमें उपेक्षा और तटस्थता मान्य नहीं है ।

इसलिए उसने मुझसे पूछा- मेरे लोग बिल्कुल थर्ड क्लास हैं, उनसे प्रेम करेगी? मैत्री रखेगी? मुझे 'अद्वेष्टा' रहने में कुछ कठिनाई प्रतीत नहीं होती, परंतु द्वेष रखते हुए अद्वेष्टा होना है । द्वेष तो जा सकता है पर क्रोध कैसे जाएगा? कितने ही लोगों को क्रोध आता ही नहीं है । ऐसे लोग पत्थर के समान होते हैं। हमें ऐसे पत्थर जैसे लोग नहीं चाहिए। मुझे भी कंस के ऊपर क्रोध आया था न ! मैंने उसे मारा । मानव में थोड़ा क्रोध भी होना ही चाहिए। क्रोध के बिना जीवन किस काम का ? दुर्गुणों से क्रोध कर ! दुर्गुणी से नहीं।

मैंने कहा - प्रभु! मैं घर की स्वामिनी की तरह स्थाई तौर पर तुम्हारे घर में रहना चाहती हूँ। 'तुझे मेरे घर में रहना हो तो तुझे मेरे समान ही बनना होगा', उसने सीधे शब्दों में मुझसे कहा। इसलिए भौतिक दृष्टि से समानता नहीं हो सकती लेकिन अपने जीवन में मेरे जैसे गुण लाकर तू मेरे जैसी बन सकती है ।

वह कहता है- ' मैं प्रेममय हूँ, तो क्या तेरे ऊपर प्रेम का एक छींटा भी है ?' "हाँ, मैंने बहुत से लोगों से प्रेम किया है" मैंने तपाक से उत्तर दिया। जिसे तू प्रेम कहती है, वह प्रेम नहीं, व्यापार है, उससे तुझे कुछ मिलता है, इसलिए बदले में तू प्रेम करती है। उसने मेरी बात काट दी । कहने लगा तूने यदि किसी से निःस्वार्थ, निर्हेतुक, विशुद्ध प्रेम किया हो तो बता !

मुझे कुछ मिले या न मिले, परन्तु मेरा अमुक व्यक्ति से प्रेम है। क्या ऐसा विशुद्ध प्रेम करने का शिक्षण लिया है?" सगे सम्बन्धियों से प्रेम करना भित्र बात है और किसी प्रकार के प्रत्युपकार की अपेक्षा बिना निर्हेतुक प्रेम करना भित्र बात है। ऐसा निर्हेतुक प्रेम ही शुद्ध प्रेम कहलाता है। ऐसे स्नेह से युक्त क्या तेरी मित्रता है?

कहता है कि मेरा प्रेममय रूप सार्वजनिक नहीं है। जिन लोगों ने मुझे चुन लिया है, उन्हें ही मेरे कमरे में आने की अनुमति है । ऐसे देवर्षि, राजर्षि या महापुरुष को ही मेरा प्रेममय रूप देखने को मिलता है। मेरे पास आना और मेरे प्रेममय रूप को देखना दोनों अलग अलग बातें हैं।

इसलिए ऐसी मैत्री की भूमिका में तुझे आना होगा तब हम दोनों की कुण्डली मिलेगी ।

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

मुझे शादी करनी है ।

      पिछले दो वर्षों से मेरी शादी के खूब चर्चे चल रहें हैं । इन दिनों यह चर्चा और तेज हो गई है ।  मेरे घर में मेरी शादी के लिए लड़कों की फोटू की तो लाइन लगी है । लेकिन एक सीक्रेट बात बताऊं.......मुझे कोई और ही पसंद है.......मैं सिर्फ उससे ही शादी करना चाहती हूं । शादी तो करनी है लेकिन सिर्फ उससे ही। मुझे सिर्फ और सिर्फ उसी का बनना है, उसी को पूर्णतया समर्पित हो जाना है, उसी में समा जाना है। 

लेकिन एक समस्या है, वह यह कि इसके लिए कुंडली मिलान करनी होगी। क्योंकि हमारे यहां बिना कुण्डली मिलान के शादी नहीं होती और जिस लड़के से मैं शादी करना चाहती हूं वह भी इसका प्रबल समर्थक है ।

अब ३६ न सही तो कम से कम २८ गुण मिलते हैं तो लोग शादी कर देते हैं। लेकिन वह ऐसा कट्टर है कि कहता है कि छत्तीस के छत्तीस गुण मिलेंगे तभी शादी करुंगा। बड़ी नाइंसाफी है। और सबसे बड़ी टेंशन वाली बात तो यह है कि मेरी और उसकी कुण्डली में तो एक भी गुण नहीं मिल रहेे! लेकिन शादी भी मुझे उससे ही करनी है। तो कुण्डली तो कैसे भी करके मिलवाना होगा। सोचा कि पण्डित को दान दक्षिणा देकर काम हो जाएगा लेकिन वह तो प्रसिद्ध ज्योतिषी है । क्या करूं अब मैं?

      अब आप लोगों के मन में जिज्ञासा हो रही होगी कि किससे शादी करनी है इसको जो कुण्डली मिलवा कर ही मानेगी? तो सबसे पहले आप लोगों की जिज्ञासा का समाधान कर दूं, फिर उसके बाद मूल विषय पर बात करेंगे।

तो सुनो ! देखने में इतने सुन्दर कि सारी सुन्दरता उसके आगे फेल, छवि ऐसी कि किसी का भी मन मोह ले, दुनिया के सारे ज्ञान इन्हीं में आकर समा जाते हैं, साकार रूप इतना मदमस्त कर देने वाला है कि लोग इनके प्रेम में पागल बने फिरते हैं और निराकार रूप की बात ही मत पूछो, वह तो बस अवर्णनीय है। नाम भी बताते चलूं । उसका नाम है - आनन्दमय मेरे कन्हैया जी, जिन्हें लोग श्याम सुंदर, माखनचोर, श्रीकृष्ण, दामोदर, बाल गोपाल और न जाने कितने नाम से लोग इन्हें पुकारते हैं।

तो यह तो हो गया नाम परिचय।

    अब मूल विषय पर आते हैं कि कुण्डली मिलवाना है। अब जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि वह प्रसिद्ध ज्योतिषी है तो टेबल के नीचे वाला काम तो यहां चलेगा नहीं ।

   इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न उसी से उपाय पूछा जाए? यार ! तुम ही कोई उपाय बता दो जिससे कि बस हमारी आपसे कुण्डली मिल जाए। उसके पास तो हर समस्या का समाधान होता है, इसीलिए तो वह मुझे इतना पसंद आ गया और प्रेम कर बैठी ।

       उसने तुरंत अपनी पोथी पत्री उठाई और खोल कर बैठ गया गीता का १२वाँ अध्याय। कहने लगा कि - शुभ्रे ! सारी टेंशन, थकान, चिन्ता, भग्नाशा, फ्रस्ट्रेशन आदि त्याग कर एकाग्रचित्त होकर सुनो ! इसमें मुझसे शादी करने........ मेरी कुण्डली से अपनी कुण्डली मिलाने के उपाय क्रमशः लिखे हैं इसमें । छत्तीस के छत्तीसों गुणों के बारे में लिखा है।

      बस एक एक गुण जीवन में उतारते जाओ फिर हमारी तुम्हारी शादी पक्की। फिर कोई समस्या नहीं होगी । फिर समझो मैं और तुम एक हो जाएंगे। फिर साथ साथ पूरे विश्व के मजे लेंगे हम दोनों।

उसकी बातों से तो ऐसा लग रहा था कि वह मुझसे शादी करने को मुझसे ज्यादा बेताब है। बस फिर क्या था.......लगा उन छत्तीस गुणों के नाम बाचने....... कहने लगा पहले नाम सुन ले तब विस्तार से चर्चा करते हैं हम लोग -

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥१३॥

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१४॥

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१५॥

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१६॥

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७॥

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥१८॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥१९॥

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥२०॥

नाम याद हो गये न..... उसने रुकते हुए अचानक पूछा? । मैं नाम संकीर्तन में ऐसा खो गयी कि उसके पूछते ही ध्यान भंग हुआ। हां हां पूरा अध्याय कंठस्थ है बचपन से ही, मुझे क्या पता था कि यह तुम तक पहुंचने का मार्ग बताता है? खैर नाम तो सब याद हैं, यकीन न हो तो सुना दूं - एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ............ रुक रुक रुक ! मुझे यकीन हो गया है कि तुम्हें याद है........ अब पहले इन सबके बारे में जान तो ले, उसने मुझे बीच में रोकते हुए कहा।

अब उसने पहले गुण की चर्चा आरम्भ की -

१. अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् - स्त्री हो या पुरुष द्वेष तो सब पाल के बैठे हैं। और स्त्रियां तो खूब द्वेष करने में आगे रहती हैं, इसीलिए उन्होंने द्वेष की चर्चा सर्वप्रथम की । 

        अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् अर्थात् संसार के सम्पूर्ण भूत प्राणियों से द्वेष न करना । मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि वह यह चाहता है कि यह सिर्फ मुझसे ही प्रेम न करें बल्कि मैंने जिसको रचा है वह उन सबसे प्रेम करें और जब सब उसके ही बनाए हैं तो मैं उन सबसे द्वेष कैसे कर सकती हूं?

वाह रे कन्हैया! ..... अब वह मुझे ऐसी ज्ञानगंगा में लेकर उतरने वाला था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी । कहने लगा कि -

सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता परो ददतीति कुबुद्धिरेषा।

अहं करोमिति वृथाभिमान: स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो ही लोक: ॥

तू जो दिन भर सबको कोसती रहती है कि उसने मेरा यह बिगाड़ दिया, उसकी वजह से मैं आज इस परिस्थिति में हूं........ यह सब सोच न तेरी कुबुद्धि की उपज है..... और तूने आज तक किया ही क्या है जो बड़े अभिमान में रहती है कि तूने उसके लिए ये कर दिया वो कर दिया......ओए! सुन यह सब न कर्मों के सूत्र से बंधा है ।

इसलिए किसी दूसरे की अज्ञानता के कारण यदि तू किसी से द्वेषपूर्ण व्यवहार करती है तो वह मुझे नहीं जंचता। तुझे अपना अन्त:करण शुद्ध करना पड़ेगा और मन को स्वच्छ वस्त्र पहनाने पड़ेंगे। क्योंकि द्वेष करने वाले का जीवन कभी भी पुष्ट नहीं होता।

        अमुक व्यक्ति को प्राप्त हुआ इसलिए वह सफल और मुझे कुछ नहीं मिला इसलिए मैं असफल रही, इस प्रकार की जीवन की असफलता स्वीकारने वाले व्यक्ति के साथ मैं कैसे शादी कर सकता हूं? और अगर कर भी लिया तो हमारी बनेगी ही नहीं। तू या तो मुझे छोड़ देगी या तो मैं तुझे।

मैं यह छोड़ने छाड़ने वाली बात पर नाराज़ हो गई........जब द्वेष करना ही नहीं है तो इसे बनाया क्यों? मैं नाराज़ होकर बोली ।

अब वह समझ गया कि यह नाराज़ हो गई है...... अरे! जैसे 'काम' बनाया है उसी तरह द्वेष भी बना दिया...... उसने मुझे मनाते हुए कहा। जिस प्रकार 'ब्रह्म' का कोई रंग, रूप, आकार नहीं है, उसी प्रकार विकारों का भी रंग, रूप और आकार नहीं है। और पगली ! मैंने यह कब कहा कि द्वेष न करो ? खूब द्वेष करो लेकिन दोषों, दुर्गुणों और बुरी प्रवृत्ति से द्वेष करो ।

     अच्छा सुनो ! एक उदाहरण से समझाता हूं - जैसे पुत्र के प्रति मां का अत्यधिक प्रेम होता है, इसलिए वह रोगग्रस्त बेटे के रोग से अत्यधिक द्वेष करती है और पुत्र को दवा खिलाकर रोग का नाश करती है । उसी प्रकार दोष का द्वेष करना है, दोषी का नहीं। दुर्गुण का द्वेष करना है दुर्गुणी का नहीं।

      विवाह के समय सप्तपदी में वर कन्या से सात प्रश्न पूछता है और कन्या उनका प्रत्युत्तर देती है। संवैधानिक दृष्टि से देखा जाय तो अधिकांश विवाह पुरोहित महाराज के द्वारा ही करवाए जाते हैं, क्योंकि वर के द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न पुरोहित महाराज ही पूछते हैं। वास्तविक तौर पर विवाह में मुखत्यारी नहीं चलनी चाहिए। प्रश्न वर को ही पूछने चाहिए और वर-कन्या के द्वारा अग्नि के सामने की जाने वाली प्रतिज्ञाएँ उन्हें स्वयं ही लेनी चाहिए।

वर कन्या से पूछता है कि मेरे वृद्ध माता-पिता हैं, भाई-बहनें हैं, उनका तुम क्या करोगी ? कन्या कहती है, “उनसे प्रेम भाव से रहकर उनका पालन-पोषण करुँगी । इसी प्रकार वह भी मुझसे पूछने लगे कि - “ यह जगत मेरा है, उसमें अधिकांश तमोगुणी और रजोगुणी लोग हैं, तो क्या तू उन्हें अपना समझने के लिए तैयार है ? " यदि उन्हें संभालने की तैयारी तेरी होगी तभी मैं तुझसे शादी करूंगा ?

अब मैं मन ही मन सोचने लगी कि इसके लिए मन को कैसे तैयार करूं? लो जी! ........यह मुझसे इतना अधिक प्रेम करते हैं कि मेरे मन में क्या चल रहा है वह बिना बयां किए ही समझ जाते हैं..... अरे पगली ! यही सोच रही है न कि इस अद्वेष्टा को लाने के लिए मन को केसे तैयार करूं? ......मेरे बिना पूछे ही बोल पड़े। मैंने कहा हां, यही समस्या है। इतना उदास मत हो ! मैंने इसके लिए एकनाथ, ज्ञानेश्वर जैसे (सन्तों) लोगों को भेजा है, तुम लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए ।

सप्तपदी में जिस प्रकार पत्नी पति को आश्वासन देती है, वैसे ही यह मुझे आश्वासन दे रहे हैं। 

      रामायण में वर्णन है कि रावण की मृत्यु के पश्चात् विभीषण रावण का अग्निसंस्कार करने के लिए तैयार नहीं हुआ तो राम ने विभीषण से कहा- " यह सच है कि रावण स्वयं तो भगवान से विमुख था, वह दूसरों को भी भगवान से विमुख करता था, किन्तु मैंने कभी रावण से द्वेष किया ही नहीं, द्वेष तो उसके दोषों से था। वह जैसा तेरा भाई था वैसे मेरा भी भाई था ।

मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं य प्रयोजनम् ।

क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥

अर्थात् वैर तभी तक रहता है, जब तक मानव जीवित रहता है, मरणोपरान्त वैर नहीं रहता। यदि तू उसका अग्निसंस्कार नहीं करेगा तो मैं करूँगा।)

फिर आगे कहने लगे कि 'अद्वेष्टा' का अर्थ केवल तटस्थ रह कर द्वेष न करना ही नहीं है, बल्कि जीव मात्र पर प्रेम करना भी है। और हमारी भारतीय संस्कृति में विवाह का प्रयोजन मात्र वर-कन्या का ही सम्बन्ध नहीं, अपितु दो कुटुम्बों का सम्बन्ध है। इसलिए अभी से सोच ले......... मेरे कुटुम्ब के लोग मदिरा, प्रमदा और लक्ष्मी इन तीन प्रकार की दारू पीने वाले हैं। तो क्या तू उनके साथ प्रेम से रह सकेगी? देख ! उनके दुर्गुणों से द्वेष करके नहीं चलेगा । मेरे साथ मिलकर तुझे इन्हें सही रास्ते पर लाना होगा । इसके लिए तुझे उनसे मित्रता भी करनी होगी । तभी वह सही रास्ते पर आएंगे। सन्त एकनाथ, शंकराचार्य आदि ने मुझसे शादी करने के लिए इन लोगों से मित्रता की, प्रेम किया। तुझे भी वही करना होगा ? 

अब शादी तो करनी ही है । छत्तीस गुण मिलाने भी हैं तो करना तो पड़ेगा ही । जिससे इनकी शादी हो जाती है न उसके प्रेम के वशीभूत होकर यह तो उसका सेवक भी बनने को तैयार हो जाता है। यह मौका मैं कैसे चूकती इसलिए......हां मित्रता करूंगी, मैंने उत्तर दिया।

लो फिर दूसरा गुण भी है मित्रता का - 

अरे अरे ! रूको यार....... रात के ३ बजकर १२ मिनट हो गए हैं..... कुछ तो रहम करो ....... यह एक गुण पहले पचाने दो, इसका अभ्यास तो कर लें तब पहुंचेंगे दूसरे पर इसलिए फिर किसी और दिन दूसरे गुण पर बात करेंगे।

शुभ रात्रि।

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मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

बाल प्रतिज्ञा

(भविष्यत् काल/विधिलिङ्)


करिष्यामि नो सङ्गतिं दुर्जनानाम्

करिष्यामि सत्सङ्गतिं सज्जनानाम् ।

धरिष्यामि पादौ सदा सत्यमार्गे

चलिष्यामि नाहं कदाचित् कुमार्गे ॥


हरिष्यामि वित्तानि कस्यापि नाऽहम्

हरिष्यामि चित्तानि सर्वस्य चाऽहम्।

वदिष्यामि सत्यं न मिथ्या कदाचित्

वदिष्यामि मिष्टं न तिक्तं कदाचित् ॥


भविष्यामि धीरो भविष्यामि वीरः

भविष्यामि दानी स्वदेशाभिमानी ।

भविष्याम्यहं सर्वदोत्साहयुक्तः

भविष्यामि चालस्ययुक्तो न वाऽहम् ॥


सदा ब्रह्मचर्य-व्रतं पालयिष्ये

सदा देशसेवा-व्रतं धारयिष्ये ।

न सत्ये शिवे सुन्दरे जातु कार्ये 

स्वकीये पदे पृष्ठतोऽहं करिष्ये ॥


सदाऽहं स्वधर्मानुरागी भवेयम्

सदाऽहं स्वकर्मानुरागी भवेयम् ।

सदाऽहं स्वदेशानुरागी भवेयम् 

सदाऽहं स्ववेषानुरागी भवेयम् ।।


               -वासुदेव द्विवेदी 'शास्त्री'

विभक्तीनां प्रयोगा:

 प्रथमा

         कुलं शीलं च सत्यं च प्रज्ञा तेजो धृतिर्बलम् ।

         गौरवं प्रत्ययः स्नेहो, दारिद्र्येण विनश्यति ।।


प्रथमा-द्वितीया

          गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् ।

          सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम् ।।


प्रथमा-तृतीया

 मृगाः मृगैः साकमनुव्रजन्ति, गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्गैः।

मूर्खाश्च मूर्खेः सुधियः सुधीभिः, समान-शील-व्यसनेषु सख्यम्॥


चतुर्थी - प्रथमा

    दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या, चिन्ता परब्रह्म-विनिश्चयाय ।

    परोपकाराय वचांसि यस्य, वन्द्यस्त्रिलोकीतिलकः स एव ॥


पञ्चमी - प्रथमा

   विषादप्यमृतं ग्राह्यम् अमेध्यादपि काञ्चनम्।

    नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्री-रत्नं दुष्कुलादपि ॥


षष्ठी - प्रथमा

           हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् ।

          श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम् ॥


सप्तमी

           उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे ।

           राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः॥

गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

व्याकरण प्रश्नोत्तरी

प्रश्न 1. सुखी शब्द का तृतीया एकवचन में क्या रूप होता है ?
          क. सुख्यः    ख. सुख्यः    ग. सुखिना    घ. सुख्या
उ० - घ.

प्रश्न 2.  सत्यनिष्ठ शब्द में कौन सा समास है ?
            क. द्वन्द्व    ख. बहुव्रीहि    ग. तत्पुरुष    घ. अव्ययीभाव
उ०. ख. बहुव्रीहि

प्रश्न 3. सुप् प्रत्याहार में कितने प्रत्यय होते हैं ?
            क. 20    ख. 23    ग. 21    घ. 25
उ०. ग. 21 प्रत्यय

प्रश्न 4.  पुँल्लिङ्ग सर्व शब्द का प्रथमा विभक्ति का बहुवचन में क्या रूप होता है ?
क. सर्वे        ख. सर्वः    ग. सर्वे    घ. सर्वौ
उ०. ग. सर्वे

प्रश्न 5. निम्नलिखित शब्दों में कौन शुद्ध है ?
        क. भूपत्ये    ख. भूपत्या    ग. भूपत्यु    घ. भूपतेः
उ०. भूपतेः

प्रश्न 6. पितृतुल्यः शब्द में कौन समास है ?
क. तत्पुरुष    ख. बहुव्रीहि    ग. अव्ययीभाव    घ. द्वन्द्व
उ०. क. तत्पुरुष

प्रश्न 7. गुरु + आदेशः में सन्धि करने पर बनता है ?
क. गुर्वादेशः    ख. गुरुदेशः    ग. गुरोदेश    घ. गुरादेशः
उ०. क.

प्रश्न 8. शीतोष्णम् पद में क्या समास है ?
क. तत्पुरुष    ख. द्वन्द्व    ग. अव्ययीभाव    घ. बहुव्रीहि
उ०. ख.

प्रश्न 9. दा धातु के लृट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन में क्या रूप बनता है ?
क. दत्ते    ख. दास्यन्ते    ग. ददासि    घ. दास्यसि
उ०. घ

प्रश्न 10. मुनि शब्द का षष्ठी एकवचन का रूप क्या बनेगा ?
क. मुनये    ख. मुनेः    ग. मुनिम्    घ. मुनौ
उ०. ख

प्रश्न 11. सर्व शब्द पुँल्लिङ्ग सप्तमी विभक्ति एकवचन में  बनेग ?
क. सर्वे    ख. सर्वस्मिन्    ग. सर्वस्याम्    घ. सर्वेस्मिन्
उ०. ख

प्रश्न 12. केवल समास का उदाहरण है ?
क. पीताम्बरः    ख. भूतपूर्वः    ग. यथाशक्ति    घ. पूर्वकायः
उ०. ख. (अन्य उदाहरण - वागर्थाविव, नैकः, नैकधा, उत्तमर्णः, नसंहताः, अधमर्णः, जीमूतस्येव आदि ।)

प्रश्न 13. रमया कोकिलः दृश्यते इस वाक्य को कर्तृवाच्य में कैसे लिखेंगे ?

क. रमा कोकिलं पश्यति

ख. रमा कोकिलं दृश्यते

ग. रमे कोकिलं द्रक्ष्यामि

घ. रमा कोकिलं द्रक्ष्यसि

उ०.  क

प्रश्न 14. उपपौर्णमासम् पद में कौन सा समास हैै ?

क. बहुव्रीहि    ख. अव्ययीभाव    ग. तत्पुरुष    घ. द्विगु

उ०. ख


प्रश्न 15. कृष्णसर्पः पद का समास विग्रह कौन सा है ?

क. कृष्णः सर्पः

ख. कृष्णस्य सर्पः

ग. कृष्णये सर्पः

घ. इनमें से कोई नहीं

उ०. क


प्रश्न 16. भूभृत् शब्दस्य षष्ठीविभक्तिबहुवचनस्य रूपं किम् ?

क. भूभृत्सु     ख. भूभृणाम्     ग. भूभृताम्   घ. भूभृताणाम्

उ० ग।


प्रश्न 17. भूभृत् शब्दस्य द्वितीयाबहुवचनमस्ति -

क. भूभृता:    ख. भूभृत:   ग. भूभृतान्       घ. भूभृते

उ०. ख

प्रश्न 18. विद्वस् शब्दस्य पुॅल्लिङ्गे षष्ठीविभक्तौ रूपाणि -

क. विदुषस्य    विदुषयो:     विदुषाणाम्

ख. विदुष्        विदुषयो:     विदुषाणाम्

ग.  विदुष:       विदुषो:       विदुषाम्

घ.  विदुष:       विदुषयो:     विदुषाम्

उ० ग

प्रश्न 19. एध् धातो: आशीर्लिङ्गि उत्तमपुरूषैकवचने किं रूपम् -

क. एधिषीय    ख. ऐधिषि    ग. एधिताहे     घ. एधेय

उ० क

प्रश्न 20. एध धातो: लुङ्लकारे प्रथमपुरुषबहुवचने क: प्रयोग: ?

क. ऐधिषत     ख. ऐधत      ग. ऐधन्त      घ. ऐधिष्ट 

उ० क





मंगलवार, 24 जनवरी 2023

सुभाषित ( विदुर नीति से)

नींद किसे नहीं आती - 

१. अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम् ।

     ह्रतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागर: ॥

भावार्थ - जिस साधन रहित, दुर्बल मनुष्य का किसी बलवान के साथ विरोध हो गया हो, जिसने अपना सब कुछ खो दिया हो, कामी पुरुष तथा चोर को रात में जागने का रोग लग जाता है।

कौन धर्म को नहीं जानता - 

२. दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् ।

    मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥

    त्वरमाणश्च भीरुश्च लुब्धः कामी च ते दश ।

   तस्मादेतेषु भावेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥

भावार्थ - दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते - नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान् पुरुष आसक्ति न बढ़ावे ॥

पण्डित कौन है? -

यहां पर पंडित से मतलब किसी जाति से नहीं है बल्कि एक पद या पदवी से है।

३. आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्म नित्यता।

     यमार्थन्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ।। 

भावार्थ - ज्ञानी वही है जो अपनी उपयोगिता जानता है, संघर्षशील है, जिसके अन्दर समस्याओं से लड़ने का सामर्थ्य है और जो किसी भी परिस्थिति में अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता है, वही पण्डित कहलाता है।

४. निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।

    अनास्तिकः श्रद्दधानः एतत्पण्डितलक्षणम्॥

भावार्थ - अर्थात् जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों का करने और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न करने वाला, जो ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी न हो और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी हो, वह मनुष्य 'पण्डित' के लक्षण से युक्त होता है।

५.  क्रोधी हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता ।

      यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ - जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की ओर आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं, वे ही पण्डित कहलाते हैं।

६.  यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे ।

     कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।

७. यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।

     समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ- जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

८. यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते ।

    कामादर्थः वृणीते यः स वै पण्डित उच्चते ॥

भावार्थ - जिसकी सांसारिक कार्यों का सम्पादन कराने वाली बुद्धि धर्म और अर्थ से युक्त हो एवं जो काम की अपेक्षा धन कों श्रेष्ठ समझता है, वही पण्डित कहलाता है।

९. यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते।

    न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः ॥

भावार्थ :-  पण्डित लोग प्रत्येक कार्य को करने की इच्छा अपनी शक्ति के अनुसार ही करते हैं और उस इच्छा के अनुसार ही प्रत्येक कार्य को करते हैं एवं कभी किसी का निरादर नहीं करते।

१०. क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्।        नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥

 भावार्थ :- ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं । किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।

११. नाप्राप्यमभिवांछन्ति नष्ट नेच्छति शोचितुम् ।

      भापत्चम मुखन्ति नराः पण्डितपुख्यः ।।

अर्थ - पण्डित लोग अप्राप्य वस्तु पाने की इच्छा नहीं करते, नष्ट हुई वस्तु या सिद्धि के लिये शोक नहीं करते, एवं जीवन में चाहे जितनी आपत्तियों से सामना करना पड़े, उनसे कभी नहीं घबराते।

१२. निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वासति कर्मणः।

       अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ - जो व्यक्ति किसी काम को करने से पहले, उसको समाप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लेता है एवं तदनुसार उसे लाख रुकावटें होनेक्षपर भी समाप्त करके ही छोड़ता है, जो किसी भी समय आने वाले कर्तव्य से विमुख नहीं होता, जो अपनी इन्द्रियों को सदा वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है।

१३. एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।

      विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥

भावार्थ - केवल धर्म ही परम कल्याणकारक हैं, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है ॥

१४. श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।

     असम्भिन्नार्यमर यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ।।

भावार्थ - जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का अनुसरण करती है जो आर्य जीवन की मर्यादाओं को नहीं तोडता, वही पण्डित होता है ।

१५. प्रवृत्तवाक्चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।

      आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥ 

भावार्थ - जो सत्य बात को कहने में न रुके, प्रत्येक बात का उत्तर तत्काल दे, तर्क-वितर्क करने में चतुर हो, जिसकी बुद्धि बे-रोक टोक विषय या प्रसङ्ग के भाव पक्ष को समझ सकती हो, कथा-वार्ता कहने में पटु हो, वही पण्डित का पद प्राप्त करता है ।

मूर्ख कौन है ? -

१६. अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः।

अर्थाश्चाऽकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥

भावार्थ - जो अनपढ़, अभिमानी और दरिद्र होकर भी उच्च अभिलाषायें रखता हो, जो नीचता से धन पैदा करे, वही व्यक्ति मूर्ख कहा जाता है।

१७. स्वमर्थ यः परित्यज्य पगर्थमनुतिष्ठति ।

      मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥

भावार्थ  - जो अपने स्वार्थ को छोड़कर अपनी आवश्यकताओं की परवाह न कर, दूसरे के स्वार्थ या आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये दौड़ता है, जो समर्थ होकर भी मित्रों और हितैषियों की शत्रुता सहायता नहीं करता एवं असमर्थ हो जाने पर सहायता के लिये दौड़ता है, वही मूर्ख कहलाता है।

१८. अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्।

       बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

भावार्थ - जो न चाहने योग्य व्यक्तियों की चाहना करता है, चाहने योग्य को छोड़ देता है और बलवान् से द्वेष करता है, उसे मूर्ख कहते हैं।

१९. अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।

       कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

भावार्थ :- जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है। सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

२०. संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।

      चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ

भावार्थ :जो व्यक्ति अनावश्यक कर्म करता है, सभी को संदेह की दृष्टि से देखता है, आवश्यक और शीघ्र करने वाले कार्यो को विलंब से करता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

२१. श्राद्ध पितृभ्यो न ददाति देवतानि न चार्गति ।

      सुहृन्मित्रम् न लभते तमाहुमूढचेतसम् ॥

भावार्थ - जो माता-पिता पर श्रद्धा न करे, देवताओं का अविश्वास कर

पूजा न करे और मित्र से प्रेम न करे, वही मूर्ख कहाता है ।

२२. नाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते !

      अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः !!

भावार्थ -: किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है.

२३. परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा ।

     यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः ॥

भावार्थ - जो अपनी गलती को दूसरे की गलती बताकर स्वयं को बुद्धिमान दर्शाता है तथा बिना जरूरत गुस्सा करे, वह महामूर्ख कहलाता है।

२४. आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्।

      अलभ्यमिच्छन् नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरिहोच्यते।।

 भावार्थ - जो व्यक्ति अपने बल (योग्यता) को बिना बिचारे काम कर बैठता है और धर्म अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, फिर जो अनाधिकारी को उपदेश देता है, जो कृपण का आश्रय लेता है वह पुरुष इस संसारमें मूढबुद्धि (मुर्ख) कहलाता है।

२५. अशिष्यं शास्ति यो राजन् यश्च शून्यमुपासते

      कदर्य भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ 44

भावार्थ - जो व्यक्ति अयोग्य शिष्य को ज्ञानोपदेश देता है, शून्य की स्तुति करता है। तथा कायरतापूर्ण कार्य करता है, वह मूर्ख है।

निर्दयी कौन है ? -

२६. एकः सम्पन्नमश्नाति वस्तै वासश्च शोभनम्

     योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ।।

भावार्थ - विदुर जी कहते हैं कि जिसके आश्रित अनेक मनुष्य हैं, जिस पर भी वह अकेले अकेले स्वादिष्ट भोजनों को करता है, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनता और राज महलों के सुखों को भोगता है, उसके बराबर संसार में दूसरा निर्दयी नहीं है।

पाप का भागी कौन है? -

२७. एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः ।

     भोक्तारो विप्र मुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।-

भावार्थ -  धनादि सञ्चय करने में एक मनुष्य ही पाप कम करता है, किन्तु उस धन या सुखों को भोगने वाले अनेक होते हैं, जिस पर तमाशा यह, कि जब पाप का फल भोगने का समय आता है, तो वे सुख के साथी अनेक व्यक्ति तत्काल अलग हो जाते हैं, अतएव सिद्ध हुआ, कि पापी एक मात्र वही है, जो अज्ञानवश पाप करता हैं।

बुद्धि-बल का प्रताप -

२८. एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।    बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रं सराजकम् ॥

भावार्थ :- कोई धनुर्धर जब बाण छोड़ता है तो सकता है कि वह बाण किसी को मार दे या न भी मारे, लेकिन जब एक बुद्धिमान कोई गलत निर्णय लेता है तो उससे राजा सहित संपूर्ण राष्ट्र का विनाश हो सकता है ।

२९. एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।

       विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥ ५७ ॥

भावार्थ - केवल धर्म ही परम कल्याणकारक हैं, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है।

३०. एकं विषरसं हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते ।

      सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः ॥

भावार्थ -जहर एक का नाश करता है; हथियार से एक ही मनुष्य मरता है, परन्तु अपात्रों में गयी हुई सलाह सारे राष्ट्र का राजा समेत नाश कर देती है।

साधारण उपदेश -

३१. एकः स्वादु न भुंजीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत् ।

      एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात् ।।

भावार्थ - प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह आश्रितों की उपेक्षा कर अकेला ही भोजन न करे, किसी विषय को अन्य लोगों की बिना सम्मति लिये अकेला ही निश्चय न करे, अकेले यात्रा न करे, और अकेला ही जागरण न करे ।

३२. एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे ।

      सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव

भावार्थ - ईश्वर एक है, उसका स्वरूप बिना सत्य की सहायता के नहीं पहचाना जाता, सत्य स्वर्ग प्राप्ति का सोपान है, ईश्वर सत्यप्रिय मनुष्य को समस्त दुःखों से इस प्रकार अनायास छुटकारा दिला देता है, जिस प्रकार समुद्र को पार करने के लिये नाव ।

क्षमा के गुण -

३३. एक: क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते ।

यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जन: ।।

भावार्थ - क्षमाशील व्यक्तियों में एक ही दोष होता है, दूसरा उनमें ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता और वह यह कि लोग उन्हें असमर्थ व्यक्ति समझ लेते हैं।

३४. सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्।

      क्षमा गुणी ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥ 

भावार्थ - विदुरजी कहते हैं कि किंतु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये, क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थी का भूषण है ।

३५. क्षमावशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।

      शान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः॥

भावार्थ - क्षमा या शान्ति द्वारा सारा संसार वश में किया जा सकता है। ऐसा कोई भी काम नहीं है, जो क्षमा द्वारा सिद्ध न किया जा सकता हो। जिसके हाथ में शान्ति-रूपी खड्ग है, उसका दुष्ट मनुष्य क्या कर सकता है ?

३६. क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति ।

      अतॄणे पतितो वन्हिः स्वयमेवोपशाम्यति ॥

भावार्थ - क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो, उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि, जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो, अपने आप बुझ जाता है।

३७. एको धर्मः परं श्रेयः क्षौका शान्तिरुत्तमा ।

       विद्य का परमा तृप्तिरहिन्सका सुखावहा ॥

भावार्थ - एकमात्र धर्म ही कल्याण कारक है, एकमात्र क्षमा ही परम शान्ति है। एक मात्र विद्या ही परम सन्तोष है, और एक मात्र अहिंसा ही परम सुख है।

साधारण उपदेश - 

३८. द्वाविमौ असते भूमिः सो विलशयानिव ।

      राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥

भावार्थ - युद्ध करने में असमर्थ राजा और परदेश न जाने वाले ब्राह्मण, इन दोनों को पृथ्वी इस प्रकार अनायास निगल जाती है जिस प्रकार बिल में आये हुए पदार्थ को सर्प निगल जाता है ।

३९. द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते ।

      अब्रुवन्पुरुषं किं चिदसतो नार्थयंस्तथा ॥ ५० 

भावार्थ- मनुष्य मीठी वाणी बोलना और सज्जनों से प्रेम करना- इन्हीं दो कर्मों के करने से इस लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

४०. द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्यय कारिणौ ।

       स्त्रियः कामित कामिन्यो लोकः पूजित पूजकः ॥

भावार्थ-  दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने वाले होते हैं, इनका अपना कोई इरादा या इच्छा शक्ति नहीं होती है : १. दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गए पुरुष की कामना करने वाली स्त्रियाँ और दूसरों द्वारा पूजे गए मनुष्य की पूजा करने वाले मनुष्य ।

४१. द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषणौ ।

       यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥

भावार्थ - ये दो तीक्ष्ण कांटे के सामान शरीर को बेध देते हैं -१. निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तुओं की कामना रखना २. और असमर्थ होकर भी क्रोध करना ।

४२.  द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा ।

       गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥

भावार्थ -  ये दो लोग ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते -१. आलसी या अकर्मण्य गृहस्थ २. प्रपंच में संलग्न संन्यासी।

४३.द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: ।

     प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान्।।

भावार्थ :-  विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं : राजन ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं – शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देनेवाला ।

४४. न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोधव्यो द्वावतिक्रमौ ।

       अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥

भावार्थ - न्याय और धर्म से पैदा किये धन का नाश कभी नहीं होता और यदि होता है, तो केवल दो दोषों से एक अयोग्य पात्र में दान करने और योग्य पात्र को न देने से ।

४५.  द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।

       धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।

भावार्थ - दो प्रकार के लोगो के गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए। पहले वे व्यक्ति जो अमीर होते है पर दान नहीं करते और दूसरे वे जो गरीब होते है लेकिन कठिन परिश्रम नहीं करते।

४६.  द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनः ।

       परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥

भावार्थ - दो प्रकारके पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में शत्रुओं के सम्मुख युद्ध में मारा गया योद्धा । अतः अगर कभी युद्ध का अवसर आएं, तो यह समझना चाहिए कि स्वयं महादेवजी के आदेश पर आपके लिए उत्तम लोकों के द्वार खुल चुके हैं । युद्ध मे वीरगति प्राप्त करने से श्रेयस्कर अन्य कुछ भी नही है ।

४७. त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।

       कनीयान्मध्यमः श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः ।

भावार्थ - शास्त्र विशारद पण्डितों ने तीन प्रकार के न्याय बताये हैं- एक उत्तम (शान्ति) दूसरा मध्यम (दान) तीसरा हीन (दण्ड)।

४८. त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।

      नियोजयेद्यथावत्ताँस्त्रिविधेष्वेव कर्मसु ।।

भावार्थ- हे राजन् संसार में तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं-उत्तम, मध्यम और अधम। उन्हें यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मों में नियुक्त करना चाहिए। इसलिये राजा को चाहिये, कि वह उक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों को क्रमानुसार तीन श्रेणी के ही कामों में नियुक्त करे।

४९. त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।

      कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।

भावार्थ - काम, क्रोध और लोभ- ये तीनों आत्मा को अधोगति में ले- जाने वाले और नरक दुःख के द्वार हैं, अतः बुद्धिमान् को चाहिए कि इन तीनों को त्याग दे।

५०. हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।

      सुहृदश्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः ॥

भावार्थ - दूसरे का धन छीन लेना, पर-स्त्रियों पर अत्याचार करना और अपने मित्रों का परित्याग कर देना इन्हीं तीन दोषों से मनुष्य नष्ट होता है।

५१. वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च पाण्डवाः।

      शत्रोश्च मोक्षणं क्लेशास्त्रीणि चैकं च तत्समम् ।।

भावार्थ - वर पाना या कार्य सिद्धि, राज्य पाना या किसी पर विजय पाना, पुत्र-प्राप्ति और किसी को दुःख से बचाना ये चारों समान आनन्द देनेवाले हैं।

५२. भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम् ।

      श्रीनेताश्छरणं प्राप्तान् विषमेऽपि न संत्यजेत् ।।

भावार्थ - विदुरजी कहते हैं भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्योंको संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये ।

३.चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे।

      वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ।।

 भावार्थ - हे तात! धन धान्य से भरपूर एक समृद्ध गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह इन चार प्रकार के व्यक्तियों को अवश्य शरण दे - (१) एक वृद्ध बान्धव (रिश्तेदार) (२) एक कुलीन दुःखी व्यक्ति (३) एक दरिद्र मित्र तथा (४) सन्तानहीन बहिन।

५४. चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्यथाकृतानि ।

      मानाग्निहोत्रमुतमानमौनम् मानेनाधीतमुतमानयज्ञः।।७३

भावार्थः - चार कर्म भय को दूर करने वाले है, किन्तु वे ही ठीक तरह से सम्पादित न हो, तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं- आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान। किन्तु इन्हें भली प्रकार न करने से कष्ट भी मिलता है।

५५. पंचैव पूजयन् लोके यशः प्राप्नोति केवलं ।

        देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान्॥

भावार्थ  - देवता, पित्र, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए। इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है।

५६. पंचेंद्रियस्य मत्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् ।

      ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा द्रुतेः पात्रादिवोदकम् ॥

भावार्थ - मनुष्य कों पांचों इन्द्रियों में यदि एक में भी छेद हो जाये अर्थात् वे कुपथ पर ले जाने लगे, तो मनुष्य की सारी बुद्धि इस प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार एक छेद हो जाने पर मशक का पानी।

५७. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।

      निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।

भावार्थ - किसी व्यक्ति के बर्बाद होने के 6 लक्षण होते है - नींद, गुस्सा, भय, तन्द्रा, आलस्य और काम को टालने की आदत, इन छ: दोषों को छोड़ दे।

५८. षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन ।

       सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥

भावार्थ - व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता', क्षमाशीलता और धैर्य - इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।

५९. अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।

      वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीव लोके सुखानि राजन्॥

भावार्थ - नित्य अर्थागम हो, आरोग्य हो, प्रिय पत्नी हो, प्रिय बोलने वाली भी हो, पुत्र कहना मानता हो, और अर्थकरी विद्या हो , हे राजन् ऐसे छ: लोग इस संसार मे सुखी कहे गये हैं ।

६०. षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते ।

      चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः॥

      प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः ।

      राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः॥

भावार्थ - यह 6 परजीवी हैं जो दूसरों से लाभ उठाते हैं- 1. चोर असावधान लोगों पर, 2. चिकित्सक रोगी पर 3. स्वैरिणी कामी पुरुषों पर 4. यज्ञकर्ता यजमान पर 5. राजा झगड़ालुओं (विवादकर्ता) पर तथा 6. विद्वान् मूर्खों पर (या ऐसे लोगों के कारण) जीवित रहते हैं।

६१. षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्तमनवेक्षणात्।

        गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसङ्गतिः।।

भावार्थ - मुहूर्त भर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्त्री, विद्या, शुद्र से मेल - ये छ: चीजें नष्ट हो जाती हैं।

६२. षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् ।

     आचार्यं शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्च मातरम् ॥

      नारी विगतकामास्तु कृतार्थश्च प्रयोजकम्।

      नावं विस्तीर्णकान्तारा आतुराश्च चिकित्सकम् ॥

भावार्थ - ये छः सदा अपने पूर्व उपकारी का सम्मान नहीं करते हैं- शिक्षा समाप्ति हो जाने पर शिष्य आचार्य का, विवाहित बेटे माता का, कामवासना की शान्ति हो जाने पर पुरुष स्त्री का, कृतकार्य मनुष्य सहायक का, नदी की दुर्गमधारा पार कर लेने वाले पुरुष नाव का तथा रोगी पुरुष रोग छूटनेके बाद वैद्य का।

संसार में सदा दुःखी रहते हैं -

६३. ईर्ष्या घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः ।

      परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥

भावार्थ - ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाले संसार में सदा दुःखी रहते हैं।

६४. सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः ।

      प्रायशा यैर्विनश्यन्ति कृतमूला अपीश्वराः।।

      स्त्रियोक्षा मृगयापानं वाक्पारुष्यं च पच्चमम्।

      महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च।।

भावार्थ  - स्त्री विषययक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्यन्त कठोर दण्ड देना और धन का दुरुपयोग करना - ये सात दुःखदायी दोष राजा को सदा त्याग देने चाहिए। इनसे दृढमूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाते हैं।

६५. अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च ।

       पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥

भावार्थ - बुद्धि, उत्तम कुल में जन्म, इन्द्रियों को जीतना, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता - ये आठ गुण पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं।

६६. अष्टाविमानि हर्षस्य नवनीतानि भारत।

     वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव स्वसुखान्यपि ॥

     समागमश्च सखिभिर्महांश्चैव धनागमः ।

     पुत्रेण च परिष्वङ्गः संनिपातश्च मैथुने ॥

    समये च प्रियालापः स्वयूथ्येषु समुन्नतिः।

    अभिप्रेतस्य लाभश्च पूजा च जनसंसदि ।।

भावार्थ - मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, मैथुन में संलग्न होना, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्नति, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति और जन समाज में सम्मान - ये आठ हर्ष के सार दिखाई देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं।

६७. नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम्।

      क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान यो वेद स परः कविः।।

भावार्थ - जो विद्वान् ्पुरुष (आँख, कान आदि) नौ दरवाजे वाले, तीन (वात, पित्त, तथा कफ) रुपी खंभों वाले, पांच (ज्ञानेद्रिय रूप) साक्षी वाले, आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृह को जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है।

आदर्श राजा के लक्षण -

६८. यः काममन्यू प्रजहाति राजा पात्रे प्रतिष्ठापयते धनं च ।
     विशेषविच्छ्रुतवान्क्षिप्रकारी तं सर्वलोकः कुरुते प्रमाणम् ॥

भावार्थ - जो राजा काम-क्रोध का त्याग कर योग्य पुरुषों का आदर करता है, सब विषयोंके विशेष मतलबको समझता है। जो अपने कर्तव्यों का यथोचित पालन करता है, उसको सारा संसार आदर्श राजा कहता है।

६९. जानाति विश्वासयितुं मनुष्यान्।

      विज्ञातदोषेषु दधाति दण्डम्।

      जानाति मात्रां च क्षमां च

      तां तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा ।।

 भावार्थ- जो राजा मनुष्यों को विश्वास दिलाना जानता है, जो अपराध प्रमाणित हो जाने पर अपराधियों को दण्ड दे सकता है, जो अपराध के अनुसार दण्ड की मात्रा तथा क्षमा करना भी जानता है, उसे सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त होती है तथा लक्ष्मी उसकी चरण चेरी बनकर सेवा करती है।

७०. अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम्।

       दम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव।।

भावार्थ - जो व्यक्त्ति बिना बात परदेस में नहीं रहता , पापीयों के साथ मेल मिलाप नहीं रखता, दूसरी स्त्रियों के साथ नहीं रहता, पाखंड, चोरी, दूसरों की चुगली करने की आदत नहीं रखता और जो नशे का सेवन नहीं करता वह हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करता है।

साधारण उपदेश -

७१. यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्त्यान्।

  न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनो हि ॥

भावार्थ :- जो व्यक्ति शैतानों जैसा वेश नहीं बनाता, वीर होने पर भी अपनी वीरता की बड़ाई नही करता, क्रोध से विचलित होने पर भी कड़वा नहीं बोलता उससे सभी प्रेम करते हैं ।

७२. न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति । 

      न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ॥

 भावार्थ :- जो ठंडी पड़ी दुश्मनी को फिर से नहीं भड़काता, अहंकार रहित रहता है, तुच्छ आचरण नहीं करता, स्वयं को मुसीबत में जानकर अनुचित कार्य नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को संसार में श्रेष्ठ कहकर विभूषित किया जाता है।

७३. न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं, नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्ट:।

      दत्वा न पश्चात्कुरुते न नापं स कथ्यते सत्पुरुषार्थ शीलः।

भावार्थ - जो अपने सुख के समय खुलकर प्रसन्न नहीं होता, जो दूसरे के दुःख को देख अपने को दुःखी समझता है और जो किसी को कुछ देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह पुरुष सर्वत्र श्रेष्ठ समझा जाता है।

७४. चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किञ्चित्।

   मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्चिदर्थः ॥

भावार्थ - जो व्यक्ति अपने अनुकूल तथा दूसरों के विरुद्ध कार्यों को इस प्रकार करता है कि लोगों को उनकी भनक तक नहीं लगती। अपनी नीतियों को सार्वजनिक नहीं करता, इससे उसके सभी कार्य सफल होते हैं।

७५. यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्मानकृच्छुद्धभावः ।

     अतीव स ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ॥

भावार्थ - जो सब प्राणियों का सदा सर्वादा कल्याण चाहता है, सत्य को प्यार करता और सबसे कोमल व्यवहार करता है एवं जिसके सारे भाव शुद्ध है, वह अपनी जाति वालों में बैठकर ऐसा शोभा पाता है, जैसा रत्नों में महामणि ।

सोमवार, 16 जनवरी 2023

नाट्यशास्त्रम्

अथ प्रथमोऽध्यायः ।

मंगलाचरण -
प्रणम्य शिरसा देवी पितामहमहेश्वरी ।
नाट्यशास्त्रं प्रवक्ष्यामि ब्रह्मणा यदुदाहृतम् ॥ १ ॥

ऋषियों का भरतमुनि से प्रश्न -
समाप्तजप्यं व्रतिनं स्वसुतैः परिवारितम् ।
अनध्याये कदाचित्तु भरतं नाट्यकोविदम् ॥ २ ॥

मुनयः पर्युपास्यैनमात्रेयप्रमुखाः पुरा ।
पप्रच्छ्रुस्ते महात्मानो नियतेन्द्रियबुद्धयः ॥ ३॥

योऽयं भगवता सम्यग्ग्रथितो वेदसम्मितः ।
नाट्यवेदं कथं ब्रह्मक्षुत्पन्नः कस्य वा कृते ॥ ४॥

कत्यङ्गः किंप्रमाणश्च प्रयोगश्चास्य कीदृशः ।
सर्वमेतद्यथातत्त्वं भगवन्वक्तुमर्हसि ॥ ५ ॥

नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति -

तेषां तु वचनं श्रुत्वा मुनीनां भरतो मुनिः ।
प्रत्युवाच ततो वाक्यं नाट्यवेदकथां प्रति ॥ ६ ॥

भवद्भिः शुचिभिर्भूत्वा तथाऽवहितमानसैः ।
श्रयतां नाट्यवेदस्य सम्भवो ब्रह्मनिर्मितः ॥ ७॥

पूर्वं कृतयुगे विप्रा वृत्ते स्वायंभुवेऽन्तरे ।
त्रेतायुगेऽथ सम्प्राप्ते मनोर्वैवस्वतस्य तु ॥ ८॥

ग्राम्यधर्मप्रवृत्ते तु कामलोभवशं गते ।
ईर्ष्याक्रोधादिसं लोके सुखितदुःखिते ॥ ९ ॥

देवदानवगन्धर्वयक्षरक्षोमहोरगैः ।
जम्बुद्वीपे समाक्रान्ते लोकपालप्रतिष्ठिते ॥ १०॥

महेन्द्रप्रमुखैर्देवैरुक्तः किल पितामहः ।
कीडनीयकमिच्छामो दृष्यं श्रव्यं च यद्भवेत् ॥ ११ ॥

न वेदव्यवहारोऽयं संधाव्यः शूद्रजातिषु ।
तस्मात्सृजापरं वेदं पञ्चमं सार्ववर्णिकम् ॥ १२ ॥

एवमस्त्विति तानुक्त्वा देवराजं विसृज्य च ।
सस्मार चतुरो वेदान्योगमास्थाय तत्त्ववित् ॥ १३ ॥

(नेमे वेदा यतः श्राव्याः स्त्रीशूद्राद्यासु जातिषु ।
वेदमन्यत्ततः स्रक्ष्ये सर्वधाव्यं तु पञ्चमम् ॥ )
धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च सोपदेश्यं सङ्ग्रहम्
विष्यतश्च लोकस्य सर्वकर्मानुदर्शकम् १४ ॥

सर्वशात्रार्थसम्पन्नं सर्वशिल्पप्रवर्तकम् ।
नाट्याख्यं पञ्चमं वेदं सेतिहासं करोम्यहम् ॥ १५ ॥

एवं सङ्कल्प्य भगवान् सर्ववेदाननुस्मरन् ।
नाट्यवेद ततश्च चतुर्वेदासम्भवम् ॥ १६

जग्राह पाठ्यमृग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च ।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ॥ १७ ॥

वेदोपवेदैः सम्बद्धो नाट्यवेदो महात्मना ।
एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्ववेदिना ॥ १८ ॥

उत्पाद्य नाटयवेदं तु ब्रह्मोवाच सुरेश्वरम् ।
इतिहासो मया सृष्टः स सुरेषु नियुज्यताम् ॥ १९ ॥

कुशला ये विदग्धाश्च प्रगल्भाश्च जितश्रमाः ।
तेष्वयं नाट्यसंज्ञो हि वेदः संक्राम्यतां त्वया ॥ २० ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं शक्रो ब्रह्मणा यदुदाहृतम्
प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा प्रत्युवाच पितामहम् ॥ २१ ॥

ग्रहणे धारणे ज्ञाने प्रयोगे चास्य सत्तम
अशक्ता भगवन् देवा अयोग्या नाट्यकर्मणि ॥ २२ ॥

य इमे वेदगुह्यज्ञा ऋषयः संशितव्रताः ।
एतेऽस्य ग्रहणे शक्ताः प्रयोगे धारणे तथा ॥ २३ ॥

नाट्यवेद की भरत को उपलब्धि - 
श्रुत्वा तु शक्रवचनं मामाहाम्बुजसम्भवः ।
त्वं पुत्रशतसंयुक्तः प्रयोक्ताऽस्य भवानघ ॥ २४॥

आज्ञापितो विदित्वाऽहं नाट्यवेदं पितामहात् ।
पुत्रानध्यापयामास प्रयोगं चापि तत्त्वतः ॥ २५ ॥

शाण्डिल्यं चैव वात्स्यं च कोहलं दत्तिलं तथा ।
जटिलम्बरको चैव तण्डुमग्निशिखं तथा ॥ २६ ॥

सैन्धवं सपुलोमानं शाङ्खलिं विपुलं तथा ।
कपिञ्जलिं वादिरं च यमधूम्रायणी तथा ॥ २७॥

जम्बुध्वजं काकजङ्घ स्वर्णकं तापसं तथा ।
कैदारि शालिकर्ण च दीर्घगात्रं च शालिकम् ॥ २८ ॥

कौत्सं ताण्डायनिं चैव पिङ्गलं चित्रकं तथा ।
बन्धु मल्लकं चैव मुष्ठिकं सैन्धवायनम् ॥ २९ ॥

तैतिल भार्गवं चैव शुचिं बहुलमेव च ।
अबुधं बुधसेनं च पाण्डुकर्णं सुकेरलम् ॥ ३० ॥

ऋजुकं मण्डकं चैव शम्बरं वञ्जुलं तथा ।
मागधं सरलं चैव कर्तारं चोग्रमेव च ॥ ३१ ॥

तुषारं पार्षदं चैव गौतमं बादरायणम् ।
विशालं शबलं चैव सुनामं मेषमेव च ॥ ३२ ॥

कालियं भ्रमरं चैव तथा पीठमुखं मुनिम्
नखकुट्टाश्मकुट्टौ च पढ्दं सोत्तमं तथा ॥ ३३ ॥

पादुकोपानहौ चैव श्रुतिं चाषस्वरं तथा ।
अग्निकुण्डाज्यकुण्डी च वितण्ड्य ताण्डवमेव च ॥ २४ ॥

कर्तराक्षं हिरण्याक्षं कुशलं दुस्सहं तथा ।
लाजं भयानकं चैव बीभत्सं सविचक्षणम् ॥ ३५ ॥

पुण्ड्राक्षं पुण्ड्रनासं चाप्यसितं सितमेव च ।
विधुजिहं महाजिहं शालङ्कायनमेव च ॥ ३६ ॥

श्यामायनं माठरं च लोहिताङ्गं तथैव च ।
संवर्तकं पञ्चशिखं त्रिशिखं शिखमेव च ॥ ३७॥

शङ्खवर्णमुख शण्टं शङ्कुकर्णमथापि च
शकनेमिं गभस्तिं चाप्यंशुमालिं शठं तथा ॥ ३८ ॥

विद्युतं शातच रौद्रं वीरमथापि च।
पितामहाज्ञयाऽस्माभिर्लोकस्य च गुणेप्सया ॥ ३९ ॥

प्रयोजितं पुत्रशतं यथाभूमिविभागशः ।
यो यस्मिन्कर्मणि यथा योग्यस्तस्मिन् स योजितः ॥ ४० ॥

कैशिकी वृत्ति की आवश्यकता एवं योजना -
भारती सात्वती चैव वृत्तिमारभटी तथा
समाश्रितः प्रयोगस्तु प्रयुक्तो वै मया द्विजाः ॥ ४१ ॥

परिगृह्य प्रणम्याथ ब्रह्मा विज्ञापितो मया ।
अथाह मां सुरगुरुः कैशिकिमपि योजय ॥ ४२ ॥

यच्च तस्याः क्षमं द्रव्यं तद् ब्रूहि द्विजसत्तम ।
एवं तेनास्म्यभिहितः प्रत्युक्तश्च मया प्रभुः ॥ ४३ ॥

दीयतां भगवन्द्रव्यं कैशिक्याः सम्प्रयोजकम् ।
नृत्ताङ्गहारसम्पन्ना रसभावक्रियात्मिका ॥ ४४ ॥

दृष्टा मया भगवतो नीलकण्ठस्य नृत्यतः ।
कैशिकी ष्लक्ष्णनैपथ्या शृङ्गाररससम्भवा ॥ ४५ ॥

अशक्या पुरुषः सा तु प्रयोक्तं स्त्रीजनाहते।
ततोऽसृजन्महातेजा मनसाऽप्सरसो विभुः ॥ ४६ ॥
नाट्यालङ्कारचतुराः प्रादान्मह्यं प्रयोगतः ।

अप्सराओं की संज्ञा -
मञ्जुकेशीं सुकेशीं च मिश्रकेशीं सुलोचनाम् ॥ ४७ ॥

सौदामिनी देवदत्तां देवसेनां मनोरमाम् ।
सुदतीं सुन्दरीं चैव विदग्धां विपुलां तथा ॥ ४८ ॥

सुमालां सन्ततिं चैव सुनन्दां सुमुखीं तथा ।
मागधीमर्जनी चैव सरला केरला धृतिम् ॥ ४९ ॥

नन्दां सपुष्कल चैव कलमां चैव मे ददौ ।

स्वाति तथा नारद की भरत की सहायता हेतु नियुक्ति -
स्वातिर्भाण्डनियुक्तस्तु सह शिष्यैः स्वयम्भुवा ॥ ५० ॥

नारदाद्याश्च गन्धर्वा गानयोगे नियोजिताः ।
एवं नाट्यमिदं सम्यम्बुद्धा सर्वेः सुतैः सह ॥ ५१ ॥

स्वातिनारदसंयुक्तो वेदवेदाङ्गकारणम् ।
उपस्थितोऽहं ब्रह्माणं प्रयोगार्थं कृताञ्जलिः ॥ ५२ ॥

नाट्यस्य ग्रहणं प्राप्तं ब्रूहि किं करवाण्यहम् ।

इन्द्रध्वज महोत्सव के अवसर पर नाट्य प्रयोग -
एतत्तु वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच पितामहः ॥ ५३ ॥

महानयं प्रयोगस्य समयः प्रत्युपस्थितः
अयं ध्वजमहः श्रीमान् महेन्द्रस्य प्रवर्तते ॥ ५४ ॥

अत्रेदानीमयं वेदो नाट्यसंज्ञः प्रयुज्यताम्
ततस्तस्मिन्ध्वजमहे निहतासुरदानवे ॥ ५५ ॥

प्रहृष्टामरसंकीर्णे महेन्द्रविजयोत्सवे ।
पूर्व कृता मया नान्दी ह्याशीर्वचसंयुता ॥ ५६ ॥

अष्टाङ्गपदसंयुक्ता विचित्रा वेदनिर्मिता ।
तदन्तेऽनुकृतिर्बद्धा यथा दैत्याः सुरैर्जिताः ॥ ५७ ॥

सम्फेटविद्रवकृता च्छेद्यभेद्याहवाल्मिका ।
ततो ब्रह्मादयो देवाः प्रयोगपरितोषिताः ॥ ५८ ॥

प्रददुर्मत्सुतेभ्यस्तु सर्वोपकरणानि वै ।

भरत मुनि को देवताओं द्वारा दिये गये उपकरण -
प्रीतस्तु प्रथमं शको दत्तवान्स्वं ध्वजं शुभम् ५९॥

ब्रह्मा कुटिलकं चैव भृङ्गारं वरुणः शुभम् ।
सूर्यश्छत्रं शिवस्सिद्धिं वायुर्व्यजनमेव च ॥ ६० ॥

विष्णुः सिंहासनं चैव कुबेरो मुकुटं तथा।
श्रव्यत्वं प्रेक्षणीयस्य ददौ देवी सरस्वती ॥ ६१ ॥

शेषा ये देवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः
तस्मिन्सदस्यभिप्रेतान्नानाजातिगुणाश्रयान् ॥ ६२ ॥

अंशांशैर्भाषितं भावान् रसान् रूपं बलं तथा
दत्तवन्तः प्रहष्टास्ते मत्सुतेभ्यो दिवौकसः ॥ ६३ ॥

एवं प्रयोगे प्रारब्धे दैत्यदानवनाशने ।
अभवन्तुभिताः सर्वे दैत्या ये तत्र सङ्गताः ॥ ६४॥

विरूपाक्ष पुरोगांश्च विज्ञान्प्रोत्साद्य तेऽब्रुवन् ।
न क्षमिष्यामहे नाटयमेतदागम्यतामिति ॥ ६५ ॥

ततस्तैरसुरैः सार्धं विघ्ना मायामुपाश्रिताः ।
वाच श्रेष्ठ स्मृति चैव स्तम्भयन्ति स्म नृत्यताम् ॥ ६६ ॥

तथा विध्वंसनं दृष्ट्वा सूत्रधारस्य देवराट् ।
कस्मात्प्रयोगवैषम्यमित्युक्त्वा ध्यानमाविशत् ॥ ६७ ॥

अथापश्यत्सदी विघ्नः समन्तादुपरिवारितम् ।
सहेतरै: सूत्रधारं नष्टसंज्ञं जडीकृतम् ॥६८॥

विघ्न नाशक जर्जर की उपलब्धि -
उत्थाय त्वरितं शक्रं गृहीत्वा ध्वजमुत्तमम् ॥
सर्वरत्नोज्ज्वलतनुः किञ्चिदुद्धृत लोचनः ॥ ६९ ॥

रङ्गपीठगतान्विघ्नानसुरांश्चैव देवराट् । जर्जरीकृतदेहांस्तानकरोज्जर्जरेण सः ॥७०॥

निहतेषु च सर्वेषु विनेषु सह दानवैः ।
संप्रहृष्य ततो वाक्यमादुः सर्वे दिवौकसः ॥ ७१ ॥

अहो प्रहरणं दिव्यमिदमासादितं त्वया ।
जर्जरीकृतसर्वाङ्गा येनैते दानवाः कृताः ॥७२॥

यस्मादनेन ते विघ्नाः सासुरा जर्जरीकृताः ।
तस्माज्जर्जर एवेति नामतोऽयं भविष्यति ॥ ७३ ॥

शेषा ये चैव हिंसार्थमुपयास्यन्ति हिंसकाः ।
दृट्रैव जर्जर तेऽपि गमिष्यन्त्येवमेव तु ॥ ७४

एवमेवास्त्विति ततः शक्रः प्रोवाच तान्सुरान् ।
रक्षाभूतश्च सर्वेषां भविष्यत्येष जर्जरः ॥ ७५ ॥

प्रयोगे प्रस्तुते व स्फीते शक्रमहे पुनः ।
त्रासं सञ्जनयन्ति स्म विघ्नाः शेषास्तु नृत्यताम् ॥ ७६ ॥

दृष्ट्वा तेषां व्यवसितं दैत्यानां विप्रकारजम् ।
उपस्थितोऽहं ब्रह्माणं सुतैः सर्वैः समन्वितः ॥७७॥

निश्चिता भगवन्विघ्ना नाट्यस्यास्य विनाशने ।
अस्य रक्षाविधिं सम्यगाज्ञापय सुरेश्वर ॥ ७८ ॥

नाट्यगृह का निर्माण -
ततश्च विश्वकर्माणं ब्रह्मोवाच प्रयत्नतः ।
कुरु लक्षणसम्पन्नं नाट्यवेश्म महामते ॥ ७९ ॥

ततोऽचिरेण कालेन विश्वकर्मा महच्छुभम् ।
सर्वलक्षणसम्पन्नं कृत्वा नाट्यगृहं तु सः ॥ ८० ॥

प्रोक्तवान्द्रुहिणं गत्वा सभायान्तु कृताञ्जलीः।
नाट्यगृह देव तदेवेक्षितुमर्हसि ॥ ८१ ॥

ततः सह महेन्द्रेण सुरैः सर्वेश्व सेतरैः ।
आगतस्त्वरितो दृष्टुं द्रुहिणो नाट्यमण्डपम् ॥ ८२ ॥

रवा नाट्यगृह झाप्राह सर्वान्सुरांस्ततः ।
अंशभागैर्भवद्भिस्तु रक्ष्योऽयं नाट्यमण्डपः ॥ ८३ ॥

नाट्यगृह के रक्षक देवताओं की नियुक्ति -
रक्षणे मण्डपस्याथ विनियुक्तस्तु चन्द्रमा ।
लोकपालास्तथा दिक्षु विदिश्वपि च मारुताः ॥ ८४ ॥

नेपथ्यभूमौ मित्रस्तु निक्षिप्तो वरुणोऽम्बरे ।
वेदिकारक्षणे वह्निर्भाण्डे सर्वदिवौकसः ॥ ८५ ॥

वर्णाश्चत्वार एवाथ स्तम्भेषु विनियोजिताः ।
आदित्याश्चैव रुद्राश्च स्थिताः स्तम्भान्तरेश्वथ ॥ ८६ ॥

धारणीश्वथ भूतानि शालास्वप्सरस्तथा ।
सर्ववेश्मसु यक्षिण्यो महीपृष्ठे महोदधिः ॥ ८७ ॥

द्वारशालानियुक्तौ तु तान्तः काल एव च
स्थापितौ द्वारपत्रेषु नागमुख्यौ महाबलौ ॥ ८८ ॥

देहल्यां यमदण्डस्तु शूलं तस्योपरि स्थितम् ।
द्वारपाली स्थिती चौभी नियतिर्मृत्युरेव च ॥ ८९ ॥

पार्श्वे च रङ्गपीठस्य महेन्द्रः स्थितवान्स्वयम् ।
स्थापिता मत्तवारण्यां विद्युद्दैत्यनिषूदनी ॥ ९० ॥

स्तम्भेषु मत्तवारण्याः स्थापिता परिपालने ।
भूतयक्षपिशाश्च गुह्यकाश्च महाबलाः ॥ ९१ ॥

जर्जरे तु विनिक्षितं व दैत्यनिवर्हणम् ।
तत्पर्वसु विनिक्षिप्ताः सुरेन्द्रा ह्यमितौजसः ॥ ९२ ॥

शिरः पर्वस्थितो ब्रह्मा द्वितीये शङ्करस्तथा ।
तृतीये च स्थितो विष्णुश्चतुर्थे स्कन्द एव च ॥ ९३ ॥

पचमे च महानागाः शेषवासुकितक्षकाः ।
एवं विघ्नविनाशाय स्थापिता जर्जरे सुराः ९४

रङ्गपीठस्य मध्ये तु स्वयं ब्रह्मा प्रतिष्ठितः ।
इष्टार्थं रङ्गमध्ये तु क्रियते पुष्पमोक्षणम् ॥ ९५ ॥

पातालवासिनो ये च यक्षगुह्यकपन्नगाः।
अधस्ताद्रङ्गपीठस्य रक्षणे ते नियोजिताः ॥ ९६ ॥

नायकं रक्षतीन्द्रस्तु नायिकां च सरस्वती ।
विदूषकमधौङ्कारः शेशास्तु प्रकृतिर्डरः ॥ ९७ ॥

यान्येतानि नियुक्तानि दैवतानीह रक्षणे ।
एतान्येवाधिदैवानि भविष्यन्तीत्युवाच सः ॥ ९८ ॥

एतस्मिन्नन्तरे देवैः सर्वैरुक्तः पितामहः ।
साम्ना तावदिमे विघ्नाः स्थाप्यन्तां वचसा त्वया ॥ ९९ ॥

पूर्व सामं प्रयोक्तव्यं द्वितीयं दानमेव च।
तयोरुपरि भेदस्तु ततो दण्डः प्रयुज्यते ॥ १००॥

ब्रह्मा द्वारा विघ्नकर्ताओं का उद्बोधन -
देवानां वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा विघ्नानुवाच ह ।
कस्माद्भवन्तो नाट्यस्य विनाशाय समुत्थिताः ॥ १०१ ॥

ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा विरूपाक्षोऽब्रवीद्वचः ।
दैत्यैर्विगणैः सार्धं सामपूर्वमिदं ततः ॥ १०२ ॥

योऽयं भगवता सृष्टो नाट्यवेदः सुरेच्छया ।
प्रत्यादेशोऽयमस्माकं सुरार्थं भवता कृतः ॥ १०३ ॥

तन्नैतदेवं कर्तव्यं त्वचा लोकपितामह ।
यथा देवस्तथा दैत्यास्त्वत्तः सर्वे विनिर्गताः ॥ १०४ ॥

विघ्नानां वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।
अलं वो मन्युना दैत्या विषादं त्यजतानघाः ॥ १०५ ॥

भवतां देवतानां च शुभाशुभविकल्पकः ।
कर्मभावान्वयापेक्षी नाट्यवेदो मया कृतः ॥ १०६ ॥

नाट्य स्वरूप -
नैकान्ततोऽत्र भवतां देवानां चानुभावनम् ।
त्रैलोक्यस्यास्य सर्वस्य नाट्यं भावानुकीर्तनम् ॥ १०७॥

कचिद्धर्मः कचित्कीटा कचिदर्थः कचिच्छमः ।
कचिद्धास्यं कचिद्युद्धं कचित्कामः कचिद्वधः ॥ १०८ ॥

धर्मो धर्मप्रवृत्तानां कामः कामोपसेविनाम् ।
निग्रहो दुर्विनीतानां विनीतानां दमक्रिया ॥ १०९ ॥

क्रीवानां धाजननमुत्साहः शूरमानिनाम् ।
अनुधानां विबोधश्च वैदुष्यं विदुषामपि ॥ ११० ॥

ईश्वराणां विलासच स्थेयं दुःखार्दितस्य च ।
अर्थोपजीविनामर्थौ धृतिरुद्वेगचेतसाम् ॥ १११

नानाभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरात्मकम् ।
लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम् ॥ ११२ ॥

उत्तमाधममध्यानां नराणां कर्मसंश्रयम् ।
हितोपदेशजननं धृतिक्रीडासुखादिकृत् ॥ ११३ ॥

(एतद्रसेषु भावेषु सर्वकर्मक्रियास्वथ ।
सर्वोपदेशजननं नाट्यं लोके भविष्यति ॥ )
दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् ।
विश्रान्तिजनन काले नाटयमेतद्भविष्यति ॥ ११४ ॥

धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् ।
लोकोपदेशजननं नाटयमेतद्भविष्यति ॥ ११५ ॥

न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला ।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृश्यते ॥ ११६ ॥

रंग तथा रंग देवताओं का पूजा विधान -
तन्नात्र मन्युः कर्तव्यो भवद्भिरमरान्प्रति ।
सप्तद्वीपानुकरणं नाट्यमेतद्भविष्यति ॥ ११७ ॥

(येनानुकरणं नाटयमेतत्तयन्मया कृतम् ॥ )
देवानामसुराणां च राज्ञामथ कुटुम्बिनाम् । 
ब्रह्मर्षीणां च विज्ञेयं नाट्यं वृत्तान्तदर्शकम् ॥ ११८ ॥

योऽयं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमन्वितः । 
सोऽङ्गाद्यभिनयोपेतो नाट्यमित्यभिधीयते ॥ ११९ ॥

(वेदविद्येतिहासानामाख्यानपरिकल्पनम् ।
विनोदकरणं लोके नाट्यमेतद्भविष्यति ॥ श्रुतिस्मृतिसदाचारपरिशेषार्थकल्पनम् ।
विनोदजननं लोके नाट्यमेतद्भविष्यति ॥ )
एतस्मिन्नन्तरे देवान् सर्वानाह पितामहः ।
पितामद्य विधिवद्यजनं नाटयमण्डपे १२० ॥

बलिप्रदानैर्होमैश्च मन्त्रौषधिसमन्वितैः ।
भोज्यैर्भक्षैश्च पानैश्च बलिः समुपकल्पताम् ॥ १२१ ॥

मर्त्यलोकगताः सर्वे शुभ पूजामवाप्स्यथ
अपूजयित्वा रनं तु नैव प्रेक्षां प्रवर्तयेत् ॥ १२२ ॥

अपूजयित्वा तु यः प्रेक्षां कल्पयिष्यति।
निष्फलं तस्य तत् ज्ञानं तिर्यग्योनिं च यास्यति ॥ १२३ ॥

यज्ञेन संमितं दद्रङ्गदैवतपूजनम्
तस्मात्सर्वप्रयलेन कर्तव्यं नाट्ययोक्तृभिः ॥ १२४ ॥

नर्तकोऽर्थपतिर्वापि यः पूजां न करिष्यति
न कारयिष्यन्त्यन्यैर्वा प्राप्नोत्यपचयं तु सः ॥ १२५ ॥

यथाविधिं यथादृष्टं यस्तु पूजां करिष्यति ।
स लप्स्यते शुभानर्थान् स्वर्गलोकं च चास्यति ॥ १२६ ॥

एवमुक्त्वा तु भगवान्द्रुहिणः सहदेवतैः । 
रङ्गपूजां कुरुश्वेति मामेवं समचोदयत् ॥ १२७॥

॥ इति भारतीये नाट्यशास्त्रे नाट्योत्पत्तिर्नाम प्रथमोऽध्यायः ॥

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...