शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

मुझे शादी करनी है ।

      पिछले दो वर्षों से मेरी शादी के खूब चर्चे चल रहें हैं । इन दिनों यह चर्चा और तेज हो गई है ।  मेरे घर में मेरी शादी के लिए लड़कों की फोटू की तो लाइन लगी है । लेकिन एक सीक्रेट बात बताऊं.......मुझे कोई और ही पसंद है.......मैं सिर्फ उससे ही शादी करना चाहती हूं । शादी तो करनी है लेकिन सिर्फ उससे ही। मुझे सिर्फ और सिर्फ उसी का बनना है, उसी को पूर्णतया समर्पित हो जाना है, उसी में समा जाना है। 

लेकिन एक समस्या है, वह यह कि इसके लिए कुंडली मिलान करनी होगी। क्योंकि हमारे यहां बिना कुण्डली मिलान के शादी नहीं होती और जिस लड़के से मैं शादी करना चाहती हूं वह भी इसका प्रबल समर्थक है ।

अब ३६ न सही तो कम से कम २८ गुण मिलते हैं तो लोग शादी कर देते हैं। लेकिन वह ऐसा कट्टर है कि कहता है कि छत्तीस के छत्तीस गुण मिलेंगे तभी शादी करुंगा। बड़ी नाइंसाफी है। और सबसे बड़ी टेंशन वाली बात तो यह है कि मेरी और उसकी कुण्डली में तो एक भी गुण नहीं मिल रहेे! लेकिन शादी भी मुझे उससे ही करनी है। तो कुण्डली तो कैसे भी करके मिलवाना होगा। सोचा कि पण्डित को दान दक्षिणा देकर काम हो जाएगा लेकिन वह तो प्रसिद्ध ज्योतिषी है । क्या करूं अब मैं?

      अब आप लोगों के मन में जिज्ञासा हो रही होगी कि किससे शादी करनी है इसको जो कुण्डली मिलवा कर ही मानेगी? तो सबसे पहले आप लोगों की जिज्ञासा का समाधान कर दूं, फिर उसके बाद मूल विषय पर बात करेंगे।

तो सुनो ! देखने में इतने सुन्दर कि सारी सुन्दरता उसके आगे फेल, छवि ऐसी कि किसी का भी मन मोह ले, दुनिया के सारे ज्ञान इन्हीं में आकर समा जाते हैं, साकार रूप इतना मदमस्त कर देने वाला है कि लोग इनके प्रेम में पागल बने फिरते हैं और निराकार रूप की बात ही मत पूछो, वह तो बस अवर्णनीय है। नाम भी बताते चलूं । उसका नाम है - आनन्दमय मेरे कन्हैया जी, जिन्हें लोग श्याम सुंदर, माखनचोर, श्रीकृष्ण, दामोदर, बाल गोपाल और न जाने कितने नाम से लोग इन्हें पुकारते हैं।

तो यह तो हो गया नाम परिचय।

    अब मूल विषय पर आते हैं कि कुण्डली मिलवाना है। अब जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि वह प्रसिद्ध ज्योतिषी है तो टेबल के नीचे वाला काम तो यहां चलेगा नहीं ।

   इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न उसी से उपाय पूछा जाए? यार ! तुम ही कोई उपाय बता दो जिससे कि बस हमारी आपसे कुण्डली मिल जाए। उसके पास तो हर समस्या का समाधान होता है, इसीलिए तो वह मुझे इतना पसंद आ गया और प्रेम कर बैठी ।

       उसने तुरंत अपनी पोथी पत्री उठाई और खोल कर बैठ गया गीता का १२वाँ अध्याय। कहने लगा कि - शुभ्रे ! सारी टेंशन, थकान, चिन्ता, भग्नाशा, फ्रस्ट्रेशन आदि त्याग कर एकाग्रचित्त होकर सुनो ! इसमें मुझसे शादी करने........ मेरी कुण्डली से अपनी कुण्डली मिलाने के उपाय क्रमशः लिखे हैं इसमें । छत्तीस के छत्तीसों गुणों के बारे में लिखा है।

      बस एक एक गुण जीवन में उतारते जाओ फिर हमारी तुम्हारी शादी पक्की। फिर कोई समस्या नहीं होगी । फिर समझो मैं और तुम एक हो जाएंगे। फिर साथ साथ पूरे विश्व के मजे लेंगे हम दोनों।

उसकी बातों से तो ऐसा लग रहा था कि वह मुझसे शादी करने को मुझसे ज्यादा बेताब है। बस फिर क्या था.......लगा उन छत्तीस गुणों के नाम बाचने....... कहने लगा पहले नाम सुन ले तब विस्तार से चर्चा करते हैं हम लोग -

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥१३॥

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१४॥

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१५॥

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१६॥

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७॥

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥१८॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥१९॥

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥२०॥

नाम याद हो गये न..... उसने रुकते हुए अचानक पूछा? । मैं नाम संकीर्तन में ऐसा खो गयी कि उसके पूछते ही ध्यान भंग हुआ। हां हां पूरा अध्याय कंठस्थ है बचपन से ही, मुझे क्या पता था कि यह तुम तक पहुंचने का मार्ग बताता है? खैर नाम तो सब याद हैं, यकीन न हो तो सुना दूं - एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ............ रुक रुक रुक ! मुझे यकीन हो गया है कि तुम्हें याद है........ अब पहले इन सबके बारे में जान तो ले, उसने मुझे बीच में रोकते हुए कहा।

अब उसने पहले गुण की चर्चा आरम्भ की -

१. अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् - स्त्री हो या पुरुष द्वेष तो सब पाल के बैठे हैं। और स्त्रियां तो खूब द्वेष करने में आगे रहती हैं, इसीलिए उन्होंने द्वेष की चर्चा सर्वप्रथम की । 

        अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् अर्थात् संसार के सम्पूर्ण भूत प्राणियों से द्वेष न करना । मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि वह यह चाहता है कि यह सिर्फ मुझसे ही प्रेम न करें बल्कि मैंने जिसको रचा है वह उन सबसे प्रेम करें और जब सब उसके ही बनाए हैं तो मैं उन सबसे द्वेष कैसे कर सकती हूं?

वाह रे कन्हैया! ..... अब वह मुझे ऐसी ज्ञानगंगा में लेकर उतरने वाला था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी । कहने लगा कि -

सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता परो ददतीति कुबुद्धिरेषा।

अहं करोमिति वृथाभिमान: स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो ही लोक: ॥

तू जो दिन भर सबको कोसती रहती है कि उसने मेरा यह बिगाड़ दिया, उसकी वजह से मैं आज इस परिस्थिति में हूं........ यह सब सोच न तेरी कुबुद्धि की उपज है..... और तूने आज तक किया ही क्या है जो बड़े अभिमान में रहती है कि तूने उसके लिए ये कर दिया वो कर दिया......ओए! सुन यह सब न कर्मों के सूत्र से बंधा है ।

इसलिए किसी दूसरे की अज्ञानता के कारण यदि तू किसी से द्वेषपूर्ण व्यवहार करती है तो वह मुझे नहीं जंचता। तुझे अपना अन्त:करण शुद्ध करना पड़ेगा और मन को स्वच्छ वस्त्र पहनाने पड़ेंगे। क्योंकि द्वेष करने वाले का जीवन कभी भी पुष्ट नहीं होता।

        अमुक व्यक्ति को प्राप्त हुआ इसलिए वह सफल और मुझे कुछ नहीं मिला इसलिए मैं असफल रही, इस प्रकार की जीवन की असफलता स्वीकारने वाले व्यक्ति के साथ मैं कैसे शादी कर सकता हूं? और अगर कर भी लिया तो हमारी बनेगी ही नहीं। तू या तो मुझे छोड़ देगी या तो मैं तुझे।

मैं यह छोड़ने छाड़ने वाली बात पर नाराज़ हो गई........जब द्वेष करना ही नहीं है तो इसे बनाया क्यों? मैं नाराज़ होकर बोली ।

अब वह समझ गया कि यह नाराज़ हो गई है...... अरे! जैसे 'काम' बनाया है उसी तरह द्वेष भी बना दिया...... उसने मुझे मनाते हुए कहा। जिस प्रकार 'ब्रह्म' का कोई रंग, रूप, आकार नहीं है, उसी प्रकार विकारों का भी रंग, रूप और आकार नहीं है। और पगली ! मैंने यह कब कहा कि द्वेष न करो ? खूब द्वेष करो लेकिन दोषों, दुर्गुणों और बुरी प्रवृत्ति से द्वेष करो ।

     अच्छा सुनो ! एक उदाहरण से समझाता हूं - जैसे पुत्र के प्रति मां का अत्यधिक प्रेम होता है, इसलिए वह रोगग्रस्त बेटे के रोग से अत्यधिक द्वेष करती है और पुत्र को दवा खिलाकर रोग का नाश करती है । उसी प्रकार दोष का द्वेष करना है, दोषी का नहीं। दुर्गुण का द्वेष करना है दुर्गुणी का नहीं।

      विवाह के समय सप्तपदी में वर कन्या से सात प्रश्न पूछता है और कन्या उनका प्रत्युत्तर देती है। संवैधानिक दृष्टि से देखा जाय तो अधिकांश विवाह पुरोहित महाराज के द्वारा ही करवाए जाते हैं, क्योंकि वर के द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न पुरोहित महाराज ही पूछते हैं। वास्तविक तौर पर विवाह में मुखत्यारी नहीं चलनी चाहिए। प्रश्न वर को ही पूछने चाहिए और वर-कन्या के द्वारा अग्नि के सामने की जाने वाली प्रतिज्ञाएँ उन्हें स्वयं ही लेनी चाहिए।

वर कन्या से पूछता है कि मेरे वृद्ध माता-पिता हैं, भाई-बहनें हैं, उनका तुम क्या करोगी ? कन्या कहती है, “उनसे प्रेम भाव से रहकर उनका पालन-पोषण करुँगी । इसी प्रकार वह भी मुझसे पूछने लगे कि - “ यह जगत मेरा है, उसमें अधिकांश तमोगुणी और रजोगुणी लोग हैं, तो क्या तू उन्हें अपना समझने के लिए तैयार है ? " यदि उन्हें संभालने की तैयारी तेरी होगी तभी मैं तुझसे शादी करूंगा ?

अब मैं मन ही मन सोचने लगी कि इसके लिए मन को कैसे तैयार करूं? लो जी! ........यह मुझसे इतना अधिक प्रेम करते हैं कि मेरे मन में क्या चल रहा है वह बिना बयां किए ही समझ जाते हैं..... अरे पगली ! यही सोच रही है न कि इस अद्वेष्टा को लाने के लिए मन को केसे तैयार करूं? ......मेरे बिना पूछे ही बोल पड़े। मैंने कहा हां, यही समस्या है। इतना उदास मत हो ! मैंने इसके लिए एकनाथ, ज्ञानेश्वर जैसे (सन्तों) लोगों को भेजा है, तुम लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए ।

सप्तपदी में जिस प्रकार पत्नी पति को आश्वासन देती है, वैसे ही यह मुझे आश्वासन दे रहे हैं। 

      रामायण में वर्णन है कि रावण की मृत्यु के पश्चात् विभीषण रावण का अग्निसंस्कार करने के लिए तैयार नहीं हुआ तो राम ने विभीषण से कहा- " यह सच है कि रावण स्वयं तो भगवान से विमुख था, वह दूसरों को भी भगवान से विमुख करता था, किन्तु मैंने कभी रावण से द्वेष किया ही नहीं, द्वेष तो उसके दोषों से था। वह जैसा तेरा भाई था वैसे मेरा भी भाई था ।

मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं य प्रयोजनम् ।

क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ॥

अर्थात् वैर तभी तक रहता है, जब तक मानव जीवित रहता है, मरणोपरान्त वैर नहीं रहता। यदि तू उसका अग्निसंस्कार नहीं करेगा तो मैं करूँगा।)

फिर आगे कहने लगे कि 'अद्वेष्टा' का अर्थ केवल तटस्थ रह कर द्वेष न करना ही नहीं है, बल्कि जीव मात्र पर प्रेम करना भी है। और हमारी भारतीय संस्कृति में विवाह का प्रयोजन मात्र वर-कन्या का ही सम्बन्ध नहीं, अपितु दो कुटुम्बों का सम्बन्ध है। इसलिए अभी से सोच ले......... मेरे कुटुम्ब के लोग मदिरा, प्रमदा और लक्ष्मी इन तीन प्रकार की दारू पीने वाले हैं। तो क्या तू उनके साथ प्रेम से रह सकेगी? देख ! उनके दुर्गुणों से द्वेष करके नहीं चलेगा । मेरे साथ मिलकर तुझे इन्हें सही रास्ते पर लाना होगा । इसके लिए तुझे उनसे मित्रता भी करनी होगी । तभी वह सही रास्ते पर आएंगे। सन्त एकनाथ, शंकराचार्य आदि ने मुझसे शादी करने के लिए इन लोगों से मित्रता की, प्रेम किया। तुझे भी वही करना होगा ? 

अब शादी तो करनी ही है । छत्तीस गुण मिलाने भी हैं तो करना तो पड़ेगा ही । जिससे इनकी शादी हो जाती है न उसके प्रेम के वशीभूत होकर यह तो उसका सेवक भी बनने को तैयार हो जाता है। यह मौका मैं कैसे चूकती इसलिए......हां मित्रता करूंगी, मैंने उत्तर दिया।

लो फिर दूसरा गुण भी है मित्रता का - 

अरे अरे ! रूको यार....... रात के ३ बजकर १२ मिनट हो गए हैं..... कुछ तो रहम करो ....... यह एक गुण पहले पचाने दो, इसका अभ्यास तो कर लें तब पहुंचेंगे दूसरे पर इसलिए फिर किसी और दिन दूसरे गुण पर बात करेंगे।

शुभ रात्रि।

दूसरे गुण के लिए यहां क्लिक करें 

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

ओह यह लेख बेजोड़ है। शृंगार से आरम्भ होकर शांत रस की यात्रा करता है। मनोवैज्ञानिक भी चकित हो जायें। पर इस अवस्था में सांसारिक लोग अवस्थित नहीं रहने देते। यह संभव नहीं है। मैं विषादग्रस्त हूं। कोई रास्ता है?

संस्कृत पाठशाला Sanskrit Pathashala ने कहा…

इस संसार में सब कुछ संभव है। यूं ही नहीं हमारे शास्त्र नर से नारायण बनने की बात करते हैं।

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

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