शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

प्रश्नपत्र UPPCS संस्कृत (2017)




भाग - I (सामान्य अध्ययन)

1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये तथा नीचे दिये गये कूट से सही उत्तर का चयन कीजिये :

A. रंग-वर्णान्धता पुरुषों में स्त्रियों की अपेक्षा अधिक होती है।

B. रतौंधी वृद्धजनों को होती है युवाओं को नहीं।

कूट :

(a) केवल A

(b) केवल B

(c) A एवं B दोनों

(d) न तो A, न ही B

2. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए तथा नीचे दिये गये कूट से सही उत्तर का चयन कीजिए : कथन (A) : ध्वनि तरंगों में ध्रुवण नहीं होता । कारण (R): ध्वनि तरंगें अनुप्रस्थ तरंगें होती हैं। कूट :

(a) (A) और (R) दोनों सत्य हैं और (R) (A) की सही व्याख्या है।

(b) (A) और (R) दोनों सत्य हैं, परन्तु (R) (A) की सही व्याख्या नहीं है।

(c) (A) सत्य है, परन्तु (R) असत्य है।

(d) (A) असत्य है, परन्तु (R) सत्य है।

3. पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई थी लगभग

(a) 3.0 बिलियन वर्ष पहले

(b) 3.5 बिलियन वर्ष पहले

(c) 4.0 बिलियन वर्ष पहले

(d) 4.5 बिलियन वर्ष पहले

4. निम्नलिखित में से क्षेत्रफल की दृष्टि से हिन्द महासागर में कौन सा सबसे बड़ा द्वीप है ?

(a) जन्जीबार

(b) सेशेल्स

(c) मेडागास्कर

(d) मॉरिशस

5. निम्नलिखित नदियों में से कौन सी नदी अपने बहाव में भूमध्यरेखा को दो बार पार करती है ?

(a) नील

(b) काँगो

(c) नाइज़र

(d) अमेज़न

6. निम्नलिखित में से भारतीय सुदूर सम्वेदन संस्थान (IIRS), निम्नलिखित में से किस शहर में स्थित है ?

(a) देहरादून

(b) अहमदाबाद

(c) हैदराबाद

(d) नागपुर

7. पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन ( ओपेक) की स्थापना किस वर्ष में हुयी ?

(a) 1955

(b) 1960

(c) 1965

(d) 1970

8. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के अन्तर्गत संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों को उनके पद से हटाया जा सकता है ?

(a) अनुच्छेद 320

(b) अनुच्छेद 315

(c) अनुच्छेद 322

(d) अनुच्छेद 317

9. भारत के राष्ट्रपति निम्नलिखित में से किसको अपना त्याग-पत्र देते हैं ?

(a) भारत के मुख्य न्यायाधीश को

(b) लोक सभा के अध्यक्ष को

(c) भारत के प्रधानमंत्री को

(d) भारत के उपराष्ट्रपति को तथा लोकसभा के अध्यक्ष को इसकी सूचना देंगे।

10. 'इण्डिया इनोवेशन इन्डेक्स' की प्रमुखतः पहल निम्नलिखित में से किस संस्था द्वारा की गई ?

(a) नीति आयोग

(b) सेबी

(c) आर.बी.आई.

(d) सी.एस.ओ.

11. स्वतंत्रता के बाद भारतवर्ष में अब तक कितनी बार 'वित्तीय आपात' की घोषणा की गई ?

(a) एक बार

(b) दो बार

(c) चार बार

(d) कभी नहीं

12. वह सारिणी जो अंकों को तथा उनकी होने की बारंबारता को दर्शाती है, वह कहलाती है

(a) आँकड़ा सारिणी

(b) अंकों की सारिणी

(c) आवृत्ति वितरण सारिणी

(d) सांख्यिकीय सारिणी

13. निम्नलिखित अंकों पर विचार कीजिये एवं नीचे दिये गये कूट से विलुप्त संख्या का सही उत्तर दीजिये :

5

10

60

75


3

6

36

?

 कूट :

(a) 40

(b) 45

(c) 48

(d) 60

14.  5 लोगों का औसत भार 2 किलो बढ़ जाता है, जब एक व्यक्ति जिसका भार 60 किग्रा था, उसके स्थान पर एक नया व्यक्ति आ जाता है। इस नये व्यक्ति का भार कितना है ?

(a) 50 किग्रा

(b) 65 किग्रा

(c) 68 किग्रा

(d) 70 किग्रा

15. प्राचीन समय में निम्नलिखित ब्राह्मण परिवारों में से किस परिवार ने समसामयिक शासकों को पराजित किया तथा अपना प्रभुत्व स्थापित किया ?

(a) अंगिरस

(b) अत्रि

(c) भृगु

(d) पुलस्त्य

16. 'दि प्रॉबलम्स ऑफ दि ईस्ट' नामक पुस्तक का लेखक कौन था ?

(a) जेनीफर लॉरेन्स

(b) लॉर्ड लिटन

(c)  जॉर्ज कर्ज़न

(d) विंस्टन चर्चिल

17. निम्नलिखित राज्यों में से 'बाघ-गुफाये' किसमें स्थित हैं ?

(a) मध्य प्रदेश

(b) बिहार

(c) उत्तर प्रदेश

(d) राजस्थान

18. भारत के 'प्रथम बैंकिंग रोबोट' का क्या नाम है ?

(a) लक्ष्मी

(b) पूजा

(c) वरुण

(d) परम

19. निम्नलिखित में से कौन एक भारत का प्रथम व्यावसायिक जलीय रोबोटिक ड्रोन है ?

(a) फोकल

(b) डॉर्नियर - 228

(c) आई रोव ट्यूना

(d) रूस्तम

20. निम्नलिखित में से किस देश में भारतीय सेना द्वारा अक्टूबर, 2018 में 'ऑपरेशन समुद्र मैत्री' नाम से प्राकृतिक आपदा के कारण राहत एवं बचाव का कार्य चलाया गया ?

(a) इण्डोनेशिया

(b) बांग्लादेश

(c) ऑस्ट्रेलिया

(d) इनमें से कोई नहीं

21. प्रयागराज कुम्भ, 2019 से सम्बन्धित निम्नलिखित युग्मों में से कौन सा सुमेलित नहीं है ?

(a) मकर संक्रान्ति 14/15 जनवरी

(b) मौनी अमावस्या 4 फरवरी

(c) बसन्त पंचमी 10 फरवरी

(d) माघी पूर्णिमा 15 फरवरी

22. जनवरी 2019 में अवामी लीग की शेख हसीना वाज़ेद बांग्लादेश की प्रधानमंत्री कितनी बार के लिए बनी हैं ?

(a) पहली बार

(b) तीसरी बार

(c) चौथी बार

(d) पाँचवीं बार

23. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिसम्बर 2018 में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी की है।

स्मृति में एक सिक्का जारी किया । वह.........है ।

(a) 200 रुपये का सिक्का

(b) 100 रुपये का सिक्का

(c) 50 रुपये का सिक्का

(d) 500 रुपये का सिक्का

24. जम्मू-कश्मीर के शहीद नज़ीर अहमद ने नवम्बर 2018 में आतंकवादियों के साथ लड़ते हुये अपने प्राणों का बलिदान दिया । उन्हें मरणोपरान्त सम्मानित किया गया -

(a) अशोक चक्र से

(b) महावीर चक्र से

(c) शौर्य चक्र से

(d) कीर्ति चक्र से

25. शाही परिवार की राजकुमारी उबोल रत्ना अपने देश के निर्वाचन आयोग द्वारा देश की प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिये अयोग्य घोषित कर दी गई । वह निम्नलिखित में से किस देश की हैं ?

(a) भूटान से

(b) नेपाल से

(c) थाइलैण्ड से

(d) इनमें से कोई नहीं

26. जनवरी 2019 में भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित 'इस्माइल उमर गुलेह' निम्नलिखित में से किस देश के नागरिक हैं ?

(a) घाना

(b) सेनेगल

(c) ज़िबूती

(d) टोगो

27. भारत के 'हस्तकरघा एवं वस्त्र क्षेत्र' को सुदृढ़ बनाने के लिये 28 जनवरी, 2019 को 'आर्टिजन स्पीक' कार्यक्रम का आयोजन निम्नलिखित में से किस एक स्थान पर किया गया ?

(a) एलीफैंटा गुफायें

(b) अहमदनगर

(c) जयपुर

(d) भीमबेटका

28. सूची-I को सूची-II से सुमेलित कीजिये तथा सूची के नीचे दिये गये कूट से सही उत्तर का चयन कीजिए:

सूची -I (अम्ल) सूची -II (स्रोत)

A. एसीटिक अम्ल             1. मक्खन

B. लैक्टिक अम्ल             2. नींबू

C. ब्यूटीरिक अम्ल         3. सिरका

D. साइट्रिक अम्ल         4. दूध

कूट :

        A     B     C     D

(a)     3     4     2     1

(b)     3     4     1     2

(c)     4     3     1     2

(d)    1     2     3     4

29. निम्नलिखित में से कौन एक वास्तविक मछली नहीं है ?

(a) रैट फिश

(b) कैट फिश

(c) डॉग फिश

(d) जेली फिश

30. कठोर व्यायाम की अवधि में निम्नलिखित में से किसका उत्पादन पेशियों में चयापचय उप-उत्पाद

के रूप में होता है ?

(a) ग्लायकोजन

(b) प्रोटीन

(c) वसा

(d) लैक्टिक अम्ल

भाग - II  (संस्कृत)

31. 'जलजाक्षी' इति पदे समासोऽस्ति -

(a) द्वन्द्वः

(c) बहुव्रीहिः

(b) कर्मधारयः

(d) तत्पुरुषः

32. अथ शब्दानुशासनम्' इत्यत्र पतञ्जलिमतेन 'अथ' शब्दः कमर्थं प्रतिपादयति -

(a) मङ्गलार्थम्    (b) आनन्तर्यार्थम्

(c) आरम्भार्थम्    (d) अधिकारार्थम्

33. महाभाष्ये 'कूपखानकवत्' इत्युदाहरणं कस्मिन् प्रसङ्गे उक्तम् ?

(a) शब्दस्य ज्ञाने धर्मः

(b) अपशब्दस्य ज्ञाने धर्मः

(c) उभयस्य ज्ञाने धर्मः

(d) उभयस्य अज्ञाने धर्मः

34. भू + अ ( शप्) + अन्ति' इति स्थिते द्वयोः अकारयोः केन सूत्रेण किं भवति ?

(a) अतो गुणे' इत्यनेन पूर्वरूपत्वम्

(b) अतो गुणे' इत्यनेन पररूपत्वम्

(c) अतो गुणे' इत्यनेन गुणादेशः

(d) आद् गुणः इत्यनेन गुणादेशः

35. 'तुन्नवत्' इत्यनेन किं निर्दिश्यते ?

(a) सक्तुः

(b) तितउ

(c) टङ्कारध्वनिः

(d) तन्तुशाटिका

36. शिष्यः' इति पदे कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?

(a) ण्यत्

(b) यत्

(c) क्यप्

(d) ष्यञ्

37. गम् धातोः लिट्लकारे प्रथमपुरुषे बहुवचने रूपंभवति -

(a) जग्मतु:

(b) गच्छेयुः

(c) जग्मु:

(d) अगमन्

38. महाभाष्ये शब्दानां संज्ञाः प्राप्यन्ते

(a) संस्पृहाः 

(b) सदर्थाः

(c) समर्थाः

d) पश्पशाः

39. 'स्थूला चासौ पृषती च' इति स्थूलपृषती' इति विग्रहे कीदृशी स्वरव्यवस्था प्रवर्तते ?

(a) पूर्वपद - प्रकृति स्वरत्वम्

(b) उत्तरपद - प्रकृति - स्वरत्वम्

(c) समासान्तानुदात्तत्वम्

(d) समासान्तोदात्तत्वम्

40. अथ गौरित्यत्र कः शब्दः' इत्यनेन किं प्रतिपाद्यते ?

(a) ध्वनिस्वरूपम् (b) स्फोटस्वरूपम्

(c) मात्रास्वरूपम् (d) शब्दस्वरूपम्

41. महाभाष्यानुसारेण सिद्धान्ततः किं व्याकरणम् ?

(a) सूत्रम्                 (b) शब्दः

(c) लक्ष्यलक्षणे     (d) लक्ष्यम्

42. प्रसिद्ध-ध्वनिनियमेषु अर्वाचीनतमोऽस्ति -

(a) ग्रासमाननियमः (b) वर्नरनियमः

(c) ग्रिमनियमः (d) मैक्डानेलनियमः

43. ग्रिमनियमः प्रथमवारं केन संशोधित: ?

(a) याकोबी महोदयेन

(b) फ्रैंकलिन एटजर्टन महोदयेन

(c) ग्रासमैन महोदयेन

(d) वर्नर महोदयेन

44. ध्वनिपरिवर्तनस्य प्रमुखं कारणमस्ति ?

(a) प्रयत्नलाघवः (b) बलाघातः

(c) लोपः (d) उपर्युक्तं सकलमेव

45. आर्य भाषापरिवारे गणिता भाषा नास्ति

(a) पालिः (b) तमिलम् (c) प्राकृतम् (d) अपभ्रंशः

46. का भाषा केन्तुम्' वर्गेण असम्बद्धा ?

(a) ग्रीक भाषा (b) संस्कृत भाषा (c) लैटिन भाषा (d) इताली भाषा

47. तद्भूर्लाक्षणिकः' इत्युक्तो भवति -

(a) काव्यम् (b) कविः (c) शब्दः (d) व्यक्तिः

48. पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्युदाहरणे रात्रि-भोजन-सूचकं प्रमाणम् अस्ति

(a) लक्षणा (b) व्यञ्जना (c) अर्थापत्तिः (d) अभिधा

49. 'जातिरेव प्रवृत्तिनिमित्तमित्यन्ये' इतीत्थं शब्दार्थबोधे अन्ये' इति पदेनोक्तं भवति  -

(a) बौद्धमतम्

(b) जैनमतम्

(c) महाभाष्यकारमतम्

(d) मीमांसकमतम्

50. श्रुतिमात्रेण शब्दात्तु येनार्थप्रत्ययो भवेत् । 

साधारणः समग्राणां......' इत्यादिना प्रोक्तोऽस्ति

(a) काव्यम् (b) धर्मतत्वम्

(c) काव्यतत्त्वम् (d) प्रसादगुणः

51. 'मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात्' अत्र 'तद्' इति सर्वनाम्नः कोऽभिप्रायः ?

a) मुख्यार्थः (b) बाधः (c) लक्षणा  (d) ध्वनिः

52. शिक्षा तक्षा' इत्यत्र केन सम्बन्धेन लक्षणा भवति ?

(a) सादृश्यात् (b) तादर्थ्यात्

(c) तात्कम्म्यात् (d) कार्यकारणात्

53. 'वाच्य एव वाक्यार्थ' इति केषाम् आचार्याणां मतम् ?

(a) वैयाकरणानाम् (b) अन्विताभिधानवादिनाम्

(c) अभिहितान्वयवादिनाम् (d) नैयायिकानाम्

54. तद्वानपोह' इति केषां सिद्धान्तः वर्तते ?

(a) मीमांसकानाम् (b) नैयायिकानाम्

(c) वैयाकरणानाम् (d) बौद्धानाम्

55. यत्र विषयी विषयश्च शब्दोपात्तौ, तत्र भवति -

(a) सारोपा लक्षणा (b) साध्यवसाना लक्षणा

(c) उपादानलक्षणा (d) निरूढा लक्षणा

56. अभिधामूलायां शाब्दीव्यञ्जनायां 'स्थाणुं भज भवच्छिदे' इत्यस्य अर्थः केन त्त्वेन एकपक्षे नियम्यते ?

(a) अर्थद्वारा    (b) संयोगद्वारा

(c) साहचर्यद्वारा (d) सामर्थ्यद्वारा

57. हेतोर्वाक्यपदार्थतायामलङ्कारो भवति -

(a) काव्यलिङ्गम् (b) विशेषोक्तिः

(c) वक्रोक्तिः      (d) समासोक्तिः

58. अहो केनेदृशी बुद्धिर्दारुणा तव निर्मिता ।

      त्रिगुणा श्रूयते बुद्धिर्न तु दारुमयी क्वचित् ।। अत्र कोऽलङ्कारः ?

(a) वक्रोक्तिः    (c) श्लेषः        (b) अनुप्रासः    (d) उपमा

59. शब्दार्थयोरभेदेऽपि अन्वयमात्रस्य तात्पर्यमात्रस्य वा भेदेऽनुप्रासो भवति

(a) छेकानुप्रासः (b) वृत्त्यनुप्रासः

(c) लाटानुप्रासः (d) अन्त्यानुप्रासः

60. 'सरस्वती स्वादु तदर्थवस्तु निष्यन्दमाना महतां कवीनाम्' इत्यत्र 'निष्यन्दमाना' कस्य विशेषणं वर्तते ?

(a) महताम् (b) सरस्वत्याः

(c) तदर्थवस्तुनः (d) कवीनाम्

61. 'काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्यः समाम्नातपूर्वः' अत्र 'बुधैः' इति पदस्य कोऽर्थः ?

(a) काव्यतत्त्विद्भिः

(b) न्यायतत्त्विदृभिः

(c) व्याकरणतत्त्वविद्भिः

(d) वेदविद्भिः

62. ........प्रभेदो वाच्यसामर्थ्याक्षिप्तः प्रकाशते न साक्षाच्छब्दव्यापारविषय इति अत्र तु रिक्तस्थानस्य पूर्तये समुचितः विकल्पोऽस्ति -

(a) सङ्गेतगम्यः (b) वाच्यलक्षणः (c) अलङ्गारलक्षणः (d) रसादिलक्षणः

63. रूपभेदाद् ध्वनिः भक्त्या नैकत्वं बिभर्ति' - अत्र 'रूपभेदाद्' इति पदेनाभि-प्रेतार्थोऽस्ति

(a) लक्षणायां मुख्यार्थबाधादीनि कारणानि, न ध्वनौ ।

(b) वाच्यव्यतिरिक्तस्यार्थस्य वाच्यवाचकाभ्यां तात्पर्येण प्रकाशनं ध्वनौ, न भक्तौ ।

(c) व्यङ्ग्यप्राधान्ये हि ध्वनिः, उपचारमात्रन्तु भक्तिः ।

(d) उपर्युक्ताः सर्वे विकल्पाः साधवः ।

64. स्वेच्छाकेसरिणः स्वच्छस्वच्छायायासितेन्दवः ।

       त्रायन्तां वो मधुरिपोः प्रपन्नार्तिच्छिदो नखाः ।। इत्यस्मिन् पद्ये त्रायन्ताम्' इति क्रियापदस्य कर्ता कः?

(a) केसरी      (b) मधुरिपुः     (c) इन्दुः     (d) नखाः

65. उपायापायेशङ्काभ्यां युक्ता फलप्राप्तेः सम्भावना दृश्यते -

(a) मुखसन्धौ (b) प्रतिमुखसन्धौ

(c) गर्भसन्धौ (d) विमर्शसन्धौ

66. कथोद्घातः कः ?

(a) आमुखस्य प्रभेदः

(b) प्रोचनायाः प्रभेदः

(c) पताकास्थानकस्य प्रभेदः

(d) विष्कम्भकस्य प्रभेदः

67. श्रीहर्षों निपुणः कविः परिषदप्येषा गुणग्राहिणी लोके हारि च वत्सराजचरितं नाट्ये च दक्षा वयम् । इत्यस्मिन् पद्ये दशरूपकानुसार स्थितिर्भवति ? कस्याः

(a) प्रस्तावनायाः     (b) वीथ्याः    (c) छलनायाः  (d) प्ररोचनायाः

68. प्रस्तुतागन्तुभावस्य वस्तुनोऽन्योक्तिसूचकम् इदं लक्षणम् अस्ति -

(a) पताकावृत्तस्य (b) प्रकरीवृत्तस्य (c) अर्थप्रकृतेः (d) पताकास्थानकस्य

69. फलागमस्य परिगणनं भवति -

(a) अर्थप्रकृतिषु (b) नाट्यसन्धिषु (c) कार्यावस्थासु (d) अर्थोपक्षेपकेषु

70. दशरूपके नाट्यस्य कति सन्ध्यङ्गानि स्वीकृतानि ?

(a) 60     (b) 26     (c) 13     (d) 64

71. नाट्य शास्त्रानुसारं नाट्यमण्डपस्य रक्षणाय ब्रह्मणा को विनियुक्तः ?

(a) वरुणः (b) रुद्रः     (c) चन्द्रमाः    (d) मित्र: 

72. नाट्यशास्त्रानुसारं नाट्यमण्डपस्य देहल्यां कः स्थापितः?

(a) यमदण्डः (b) कृतान्तः    (c) महेन्द्रः (d) शूलम्

73. धर्मो धर्मप्रवृत्तानां कामः कामोपसेविनाम्' इत्येषा पङ्क्तिः कुत्र वर्तते ?

(a) मनुस्मृतौ         (b) नाट्यशास्त्रे        (c) रघुवंशे         (d) दशरूपके

74. विनिर्गतं मानदमात्ममन्दिरात्' इत्यादि पद्यम्उ दाहरणमस्ति -

(a) व्यङ्ग्यकाव्यस्य

(b) शब्दचित्रस्य

(c) अर्थचित्रस्य

(d) गुणीभूतव्यङ्ग्यस्य

75. 'बहिर्विकारं प्रकृतेः पृथम्विदुः पुरातनं त्वां पुरुषं पुराविदः' इत्यत्र 'त्वां' पदेन कस्य बोधो भवति ?

(a) श्रीकृष्णस्य (b) नारदस्य

(c) रावणस्य (d) शिशुपालस्य

76. शिशुपालवधे महामहानीलशिलारुचः पुरो निषेदिवान् कंसकृषः स विष्टरे' इत्यस्मिन् पद्यांशे विष्टरे' इत्यस्य पदस्य कोऽर्थः ?

(a) आसने (b) राजसिंहासने

(c) मृगचर्मणि (d) काष्ठपीठे

77. शिशुपालवध स्य वर्णनानुसार 'तप्त कार्तस्वर भास्वराम्बरः' कः ?

(a) नारदः (b) ताराधिपः

(c) श्रीकृष्णः (d) हिरण्यकशिपुः

78. 'बाह्योद्यान स्थित हरशिरश्चन्द्रिका धौतहम्म्या' कस्याः नगर्याः विशेषणं वर्तते ?

(a) विदिशायाः (b) उज्जयिन्याः

(c) अलकायाः    (d) धारानगर्याः

79. मेघदूते 'वीचिक्षोभ स्तनितविहगश्रेणि काञ्ची गुणा' का ?

(a) रेवा (b) वेत्रवती

(c) शिप्रा (d) निर्विन्ध्या

80. मेघदूते वर्णिता विन्ध्याचलस्य उपत्यकायां विशीर्णा नदी अस्ति -

(a) निर्विन्ध्या (b) सिन्धुः

(c) रेवा    (d) शिप्रा

81. को नलस्य आस्यदास्येऽपि अधिकारितांन गतः ?

(a) शारदपार्विकशर्वरीश्वरः

(b) रतीशः

(c) वसन्तः

(d) कमलम्

82. राज्ञः नलस्य विषये साधु कथनं नास्ति

(a) तस्य चतुर्दश विद्या अधीतिबोधा-चरण रटनैः चतुर्दशत्वं प्राप्ताः ।

(b) स महोज्वलः महसां राशिरासीत् ।

(c) तस्य कीर्तिमण्डलं सितातपत्रितम् आसीत् ।

(d) तस्य विद्या अष्टादशतामगाहत ।

83. नैषधीयचरितमहाकाव्यस्य प्रथमसर्गे विद्यमाने अहो ! अहोभिर्महिमा हिमागमे' इति पद्यांशे अलङ्कारोऽस्ति -

(a) श्लेषः            (b) यमकम्

(c) वक्रोक्तिः     (d) पुनरुक्तवदाभासः

84. मेघदूतस्य 'कालक्षेपं ककुभसुरभौ पर्वते पर्वते ते' इत्यस्मिन् पद्यांशे ककुभशब्दस्य कोऽर्थः ?

(a) कदम्बपुष्पम् (b) शिलीन्ध्रपुष्म्

(c) कुटजपुष्पम् (d) जपाकुसुमम्

85, 'प्रेयान् पुण्डरीक पटलस्य..... शिवराजविजयस्य इयं पड्क्ति निर्दिशति -

(a) शिववीरम् (b) भारतवर्षम्

(c) सूर्यम् (d) चन्द्रमसम्

86. बाणभट्टविषये 'वाणी बाणो बभूव ह' इत्युक्ते। लेखकोऽस्ति

(a) जयदेवः (b) चन्द्रदेवः

(c) गोवर्धनाचार्य: (d) धर्मदासः

87. कादम्बर्याः कथामुखे रविरिव प्रतिदिवसोपजायमानोदयः' इति विशेषणपदं कस्य कृते प्रयुक्तमस्ति ?

(a) चन्द्रापीडस्य    (b) शुकनासस्य    (c) शूद्रकस्य    (d) तारापीडस्य

88. नाहं मूर्तिं विक्रीणामि किन्तु भिनद्भि शिवराजविजये कस्योक्तिरियम् ?

(a) शहाबुद्दीनस्य

(b) कुतुबुद्दीनस्य

(C) अवरङ्गजीवस्य

(d) महमूदगजनव्याः

89. शिवराजविजयोक्त: 'खेचरचक्रस्य चक्रवर्ती कोऽस्ति -

(a) सूर्यः (b)  आकाशः (c) चन्द्रमा: (d) नक्षत्रमण्डलम्

90. शिवराजविजये सकलकलाकलापकलनः सकलकालनः करालः कः प्रोक्तः ?

(a) काल:    (b) शिववीरः    (c) अवरङ्गजीवः    (d) गौरसिंहः

91. कादम्बरी कथामुखे वर्णनं नास्ति -

(a) चन्द्रापीडस्य (b) जाबाले

(c) अगस्त्यस्यक्ष(d) शुद्रकस्य

92. 'स्तनयुगमश्रुस्नातं समीपतरवर्ति-हृदय शोकाम्नेः । चरति विमुक्ताहारं व्रतमिव भवतो रिपुस्तीणाम् ।।

आर्यों केन प्रोक्ता कादम्बर्याम् ?

(a) तारापीडेन

(b) शुकनासेन

(c) चन्द्रापीडेन

(d) वैशम्पायनेन शुकेन

93. महाभारताघृता रचना नास्ति -

(a)  वेणीसंहारम्

(b) अभिज्ञान शाकुन्तलम्

(c) मुद्राराक्षसम्

(d) पञ्चरात्रम्

94. रामायणाधृता रचना नास्ति -

(a) प्रबोधचन्द्रोदयम्

(b) प्रतिमानाटकम्

(c) भट्टिकाव्यम्

(d) महावीरचरितम्

95. छान्दोग्योपनिषदस्ति

(a) सामवेदस्य (b) अथर्ववेदस्य

(c) ऋग्वेदस्य (d) यजुर्वेदस्य

96. शुल्बसूत्राणि कस्य वेदाङ्गस्य भागाः सन्ति ?

(a) ज्योतिषः    (b) कल्पस्य    (c) शिक्षायाः    (d) निरुक्तस्य

97. तैत्तिरीयम् आरण्यकमस्ति -

(a) शुक्लयजुर्वेदस्य (b) ऋग्वेदस्य

(c) कृष्णयजुर्वेदस्य (d) सामवेदस्य

98. उषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति' इत्युक्त्या देवः स्मर्यते

(a) नर-नारायण: (b) इन्द्रः

(c) विष्णुः (d) सूर्यः

99. अग्र आसीत् क्रियाशीला या देवता, सा कथ्यते - 

(a) हिरण्यगर्भः

(b) महाविष्णुः

(c) वरुणः

(d) बृहस्पति

100. 'महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्......पर:' इति रिक्त स्थाने पदं भवति -

(a) पुरुषः (b) महापुरुषः

(c) शङ्करः (d) ईश्वरः

101. अथर्ववेदस्य आरण्यकम् अस्ति -

(a) कौषीतकि-आरण्यकम्

(b) ऐतरेयम् आरण्यकम्

(c) बृहदारण्यकम्

(d) उपर्युक्तेषु न किमपि

102. दुर्गाचार्येण कति निरुक्ताः संकेतिताः .

(a) पश्च (b) सप्त (c) एकादश (d) चतुर्दश

103. तलवकार - आरण्यकं सम्बद्धमस्ति

(a) यजुर्वेदेन

(c) सामवेदेन

(b) ऋग्वेदेन

(d) अथर्ववेदेन

104. "शान्तसङ्कल्पः सुमना यथा स्याद्वीतमन्युौतमो माभिमृत्यो" इत्यस्मिन् मन्त्रांशे 'वीतमन्युः' पदस्य

कोऽर्थः ?

(a) द्वेषरहितः (b) क्लेशरहितः

(d) रागरहितः (c) क्रोधरहितः

105. 'अग्निना... .अश्नवत् पोषमेव' मन्त्रांशस्य रिक्ते स्थले पदं योज्यते

(a) रयिम् (b) धनम्

(c) बलम् (d) देवम्

106. आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम्' इति कं देवं द्योतयति ?

(a) अग्निम् (b) सूर्यम्

(c) इन्द्रम् (d) वायुम्

107. ‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण मस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्' ईशावास्योपनिषदः मन्त्रांशे अव्रणम्' इत्यस्य पदस्य कोऽर्थः ?

(a) तेजोरूपम् (b) अज्ञानरहितम्

(c) क्षतरहितम् (d) भावसहितम्

108. 'मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः' इत्यत्र जिहीळानस्य अर्थो भवति

(a) आदरं कृतवतः (b) अनादर कृतवतः

(c) दानं प्रदत्तवत्तः (d) आदानं कृतवतः

109. परार्थानुमाने तस्मात्तथा कीदृशं वाक्यमस्ति ?

(a) प्रतिज्ञावाक्यम् (b) उपनयवाक्यम्

(c) उदाहरणवाक्यम् (d) निगमन वाक्य

110. संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं......उचित पदेन पूरयत -

(a) संशयः (b) विपर्ययः

(c) तर्क: (d) स्मृतिः

111. ज्ञानशक्तिमान् कर्तृरूपः कोशः कः ?

(a) मनोमयकोशः (b) विज्ञानमयकोशः

(c) आनन्दमयकोशः (d) प्राणमयकोशः

112. योगसूत्रस्य व्याख्या भाष्य मस्ती -

(a) व्यासभाष्यम् (b) महाभाष्यम्

(c) शाङ्करभाष्यम् (d) महीधरभाष्यम्

113. गगनारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात्' इत्यत्र क: हेत्वाभासः ?

(a) स्वरूपासिद्धः (b) व्याप्यतासिद्धः    (c) आश्रयासिद्धः (d) विरुद्धः

114. शक्तिद्वयवदज्ञानोपहितं चैतन्यं स्वप्रधानतया जगतः कीदृशं कारणं भवति ?

(a) उपादानकारणम्

(b) समवायिकारणम्

(c) निमित्तकारणम्

(d) असमवायिकारणम्

115. उद्भिदा यजेत पशुकाम' इत्यस्मिन् वाक्ये विधिर्वर्ते -

(a) उत्पत्तिविधिः (b) उत्पत्तिविधिः अधिकारविधिश्च

(c) अधिकारविधिः (d) विनियोगविधिः

116. कस्य दृष्टानुश्रविक विषय वितृष्णस्य वशीकार - संज्ञा भवति ?

(a) वैराग्यस्य

(c) स्मृतेः

(b) विपर्ययस्य

(d) प्रणिधानस्य

117. सांख्यकारिकायाः कारिकांशः न प्रकृतिः न विकृतिः....... कं सूचयति ?

(a) पुरुषम्

(c) मोक्षम्

(b) महाभूतसंघम्

(d) संसारोत्तरं तत्त्वम्

118. अतीन्द्रियाणां पदार्थानां प्रतीतिः सांख्यदृष्ट्या कस्मात् भवति ?

(a) उपमानात्

(b) सामान्यतो दृष्टाद्नुमानात् आप्तागमात् च

(c) दृष्टात्

(d) शेषवट्नुमानात्

119. सर्वदर्शनसंग्रहे जैनदर्शनस्य नाम वर्तते -

(a) पूर्णप्रज्ञदर्शनम्

(b) नास्तिकानां दर्शनम्

(c) आर्हतदर्शनम्

(d) चार्वाकदर्शनम्

120. योगदर्शनानुसारेण चित्तवृत्तयः सन्ति

(a) क्षिप्तमूढविक्षिप्तमैकाग्रनिरुद्धाः

(b) शौच - सन्तोष - तपः - स्वाध्यायेश्वर- प्रणिधानानि

(c) प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः

(d) अविद्याऽस्मिता - रागद्वेषाभिनिवेशाः

121. बौद्धदर्शनानुसारेण रत्नत्रयमस्ति 1.

(a) सम्यग्दृष्टिः, सम्यक् संकल्पः सम्यग् वचन च ।

(b) करुणामुदितोपक्षाक्ष च

(c) बुद्ध - धर्म - संघ

(d) अनित्य - अनात्म- दुःखञ्च

122. अभिज्ञानशाकुन्तलस्य द्वितीयाङ्कस्य आरम्भो भवति -

(a) मध्याहे (b) अपराले

(c) आसन्नमध्याह्न (d) प्रत्यूषे

123. देव्या अपि हि वैदेह्याः सापवादो यतो जनः ।

       रक्षोगृहस्थितिर्मूलम्मिशुद्धौ त्वनिश्चयः ।। - उत्तररामचरिते कस्येय मुक्तिः ?

(a) सूत्रधारस्य (b) नटस्य    (c) रामस्य     (d) लक्ष्मणस्य

124. दुर्जनोऽसुखमुत्पादयति' इति कस्योक्तिः ?

(a) रामस्य (b) अष्टावक्रस्य    (c) जनकस्य (d) लक्ष्मणस्य

125. रत्नावल्यां प्रथमाङ्कः प्रारभते

(a) ग्रीष्मे (B) प्रावृषि    (c) वसन्ते (d) हेमन्ते

126. 'साहसे श्रीः प्रतिवसति' मृच्छकटिके एतत्कथनम् अस्ति

(a) मदनिकायाः (b) संस्थानकस्य (c) संवाहकस्य (d) शर्विलकस्य

127. 'अभिज्ञानशाकुन्तले अहो चेष्टाप्रतिरूपिका कामिजनमनोवृत्तिः' कस्येयमुक्तिः ?

(a) अनसूयायाः (b) दुष्यन्तस्य     (c) शकुन्तलायाः (d) विदूषकस्य

128. मृच्छकटिके गुणशस्तैर्वयं येन शस्त्रवन्तोऽपि निर्जिताः कस्येदं कथनम् ?

(a) शर्विलकस्य

(c) विटस्य

(b) माथुरस्य

(d) रदनिकायाः

129. 'प्रकृष्टस्य प्रेम्णः स्खलितभविषहां हि भवति' इत्युक्तिः कस्मिन् ग्रन्थे वर्तते ?

(a) नैषध महाकाव्ये (b) शिशुपालवधे

(c) रत्नावल्याम् (d) उत्तररामचरिते

130. तेषां वधूस्त्वमसि नन्दिनि पार्थिवानाम् ।

        येषां कुलेषु सविता च गुरुर्वयं च ।। इत्यस्मिन् पद्यांशे 'वयम्' इति पदेन कस्य बोधो भवति ?

(a) वाल्मीकेः

(b) वसिष्ठस्य

(c) सवितुः

(d) अष्टावक्रस्य

131. उत्तररामचरिते प्रथमद्वितीययोः अङ्कयोर्मध्ये समयस्य व्यवधानमस्ति -

(a) पञ्चवर्षीयम् (b) दशवर्षीयम्     (c) द्वादशवर्षीयम्    (d) षोडशवर्षीयम्

132. 'अग्निगर्भा शमीमिव' इति कण्वाय निवेद्यते -

(a) आकाशवाण्या (b) प्रियंवदया    (c) शारद्तेन (d) अनसूयया

133. अनुकारिणि पूर्वेषां युक्तरूपमिदं त्वयि ।

        आपन्नाभयसत्रेषु दीक्षिताः खलु पौरवाः ।। शाकुन्तले कस्येदं कथनम् ?

(a) कण्वस्य (b) दौवारिकस्य    (c) ऋषिकुमारयोः (d) दुष्यन्तस्य

134. मृच्छकटिकस्य नान्दीपाठे कस्य देवस्य समाधेः रक्षा प्रार्थिता ?

(a) शङ्करस्य (c) परब्रह्मणः    (b) ब्रह्मणः (d) सरस्वत्याः

135. अर्थतः पुरुषो नारी या नारी सार्थतः पुमान्' कस्येय मुक्तिः ?

(a) चारुदत्तस्य (b) मैत्रेयस्य     (c) वसन्तसेनायाः (d) शकारस्य

136. ‘एको रसः करुण एव निमित्तभेदाद् भिन्नः पृथक्पृथगिवाश्रयते विवर्तान्' उत्तररामचरिते इमां पंक्तिं पठति -

(a) रामः

(c) मुरला

(b) तमसा

(d) सीता

137. अन्तर्धौं येनादर्शनमिच्छति' इति सूत्रेण सिद्धं भवति

(a) मातुर्निलीयते कृष्णः

(b) मातरि निलीयते कृष्णः

(c) मात्रा निलीयते कृष्णः

(d) मात्रे निलीयते कृष्णः ।

138. हिमवतो गङ्गा प्रभवति' इत्यत्र अपादानसंज्ञाविधायकं सूत्रमस्ति -

(a) पराजेरसोढः

(b) जनिकर्तुः प्रकृतिः

(c) भुवः प्रभवश्च

(d) धारेरुत्तमर्णः

139. कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' इति सूत्रेण सिद्धम् -

(a) क्रोशं कुटिला नदी

(b) हिमवतो गङ्गा प्रभवति

(c) तिलात् तैलम्

(d) पादेन खञ्जः 

140. प्रातिपदिकार्थ - व्यतिरिक्तः स्व स्वामि भावादि - सम्बन्धः शेषः; तत्र विभक्तिर्भवति -

(a) पञ्चमी (b) सप्तमी    (c) प्रथमा (d) षष्ठी

141. 'अल्पाच्तरम्' इति सूत्रस्य उदाहरणमस्ति -

(a) शिवकेशवौ    (b) ईशंकृष्णौ    (c) राधाकृष्णौ    (d) हरिहरौ

142. 'पञ्चगङ्गम्' इत्यस्मिन् पदे समासोऽस्ति -

(a) द्विगुः (b) कर्मधारयः    (c) बहुव्रीहि- (d) अव्ययीभावः

143. 'कण्ठेकालः' इत्यत्र समासे सप्तमीप्रत्ययस्यालुक् - निर्देशकरं सूत्रमस्ति ।

(a) हलदन्तात्सप्तम्याः संज्ञायाम्

(b) यतश्च निर्धारणम्

(c) शेषे ष्ठी

(d) आधारोऽधिकरणम्

144. 'सुमद्रम्' इत्यत्र सु-अव्ययस्यार्थः अस्ति

(a) समीपम् (b) शोभनम्    (c) समृद्धिः (d) युगपत्

145. गोपस्य स्त्री गोपी' इत्यत्र केन सूत्रेण क: प्रत्ययो  भवति ?

(a) पुंयोगादाख्यायाम्' इत्यनेन ङीष्

(b) ऋन्नेभ्यो डीप्' इत्यनेन ङीप्

(c) उगितश्च' इत्यनेन डीष्

(d) पत्युन्नो यज्ञसंयोगे' इत्यनेन डीप्

146, कस्य लकारस्य प्रथम पुरुषे 'डा रौ रसः ' इत्यादेशो भवति ?

(a) लट् लकारे (b) लुट् लकारे

(c) लृट् लकारे (d) लङ्लकारे

147. पूर्वरूपसन्धेः उदाहरणमस्ति

(a) मध्वरिः    (b) वृक्षेऽपि    (c) उपोषति    (d) गङ्गौधः

148. शिवोऽच्च्यः इत्यत्र सन्धिकारकं सूत्रमस्ति -

(a) अतोरोरप्लुतादप्लुते

(6) हशि च

(c) एङि पररूपम्

(d) रोऽसुपि

149. पररूपसन्धेः उदाहरणमस्ति -

(a) प्राच्छति

(c) उपैधते

(b) उपैति

(d) प्रेजते

150. 'स्नात्यनेनेति स्नानीयं चूर्णम्' इत्यत्र विधीयमानः अनीयर्' प्रत्ययोऽस्ति

(a) कर्तरि

(c) भावे

(b) कर्मणि

(d) करणे

सोमवार, 18 जनवरी 2021

यूजीसी नेट (संस्कृत कोड-25) इकाई-IV

(ख) दर्शन-साहित्य का विशिष्ट अध्ययन -

  • ईश्वरकृष्ण, सांख्यकारिका -  (मूल पाठ पढ़ने हेतु क्लिक करें)

श्रीकेशवमिश्रप्रणीता

तर्कभाषा

बालोऽपि यो न्यायनये प्रवेशम्,-अल्पेन वाञ्छत्यलसः श्रुतेन ।

संक्षिमयुक्त्यन्विततर्कभाषा, प्रकाश्यते तस्य कृते मयैषा ॥

प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्त-अवयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डा-हेत्वाभास-च्छल-जाति-निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः ।

इति न्यायस्यादिमं सूत्रम् । अस्यार्थः । प्रमाणादिषोडशपदार्थानां तत्त्वज्ञानान्मोक्षप्राप्तिर्भवतीति । न च प्रमाणादीनां तत्त्वज्ञानं सम्यग्ज्ञानं तावद्भवति यावदेषामुद्देशलक्षण परीक्षा न क्रियन्ते । यदाह भाष्यकारः –

'त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरुद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति'

उद्देशस्तु नाममात्रेण बस्तुसङ्कीर्तनम् । तच्चास्मिन्नेव सूत्रे कृतम् । लक्षणन्त्वसाधारणधर्मवचनम् । यथा गोः सास्नादिमत्त्वम् । लक्षितस्य लक्षणमुपपद्यते न वेति विचारः परीक्षा । तेनैते लक्षणपरीक्षे प्रमाणादीनां तत्त्वज्ञानार्थ कर्तव्ये ।

१-प्रमाणानि

प्रमाणम्

तत्रापि प्रथममुद्दिष्टस्य प्रमाणस्य तावल्लक्षणमुच्यते । प्रमाकरणं प्रमाणम् । अत्र च प्रमाणं लक्ष्यं, प्रमाकरणं लक्षणम् ।

ननु प्रमायाः करणं चेत् प्रमाणं तर्हि तस्य फलं वक्तव्यम् , करणस्य फलवत्त्वनियमात् । सत्यम् । प्रमैव फलं, साध्यमित्यर्थः । यथा छिदाकरणस्य परशोश्छिदैव फलम् ।

प्रमा

का पुनः प्रमा, यस्याः करणं प्रमाणम् । उच्यते । यथार्थानुभवः प्रमा । यथार्थ इत्ययथार्थानां संशय-विपर्यय- तर्कज्ञानानां निरासः । अनुभव इति स्मृतेनिरासः । ज्ञातविषयं ज्ञानं स्मृतिः । अनुभवो नाम स्मृतिव्यतिरिक्तं ज्ञानम् ।

करणम्

किं पुनः करणम् ? साधकतमं करणम् । अतिशयितं साधकं साधकतमं प्रकृष्टं कारणमित्यर्थः ।

कारणम्

ननु साधकं कारणमिति पर्यायस्तदेव न ज्ञायते किन्तत्कारणमिति । उच्यते । यस्य कार्यात् पूर्वभावो नियतोऽनन्यथासिद्धश्च तत्कारणम् । यथा तन्तुवेमादिकं पटस्य कारणम् । यद्यपि पटोत्पत्तौ दैवादागतस्य रासभादेः पूर्वभावो विद्यते, तथापि नासौ नियतः । तन्तुरूपस्य तु नियतः पूर्वभावोऽस्त्येव किन्त्वन्यथासिद्धः पटरूपजननोपक्षीणत्वात्, पटं प्रत्यपि कारणत्वे कल्पनागौरवप्रसङ्गात् ।

तेनानन्यथासिद्धनियतपूर्वभावित्वं कारणत्वम् । अनन्यथासिद्धनियतपश्चाद्भावित्वं कार्यत्वम् । यत्तु कश्चिदाह कार्यानुकृतान्वयव्यतिरेकि कारणमिति, तदयुक्तम् । नित्यविभूनां व्योमादीनां कालतो देशतश्च व्यतिरेकासम्भवेनाकारणत्व प्रसङ्गात् । तञ्च कारणं त्रिविधम् । समवायि-असमवायि-निमित्त-भेदात् । तत्र यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत्समवायिकारणम् । यथा तन्तवः पटस्य समवायिकारणम् । यतस्तन्तुष्वेव पटः समवेतो जायते, न तुर्यादिषु ।

ननु तन्तुसम्बन्ध इव तुर्यादिसम्बन्धोऽपि पटस्य विद्यते, तत्कथं तन्तुष्वेव पटः समवेतो जायते न, तुर्यादिषु ?

सत्यम् । द्विविधः सम्बन्धः संयोगः समवायश्चेति । तत्रायुतसिद्धयोः सम्बन्धः समवायः । अन्ययोस्तु संयोग एव । कौ पुनरयुतसिद्धौ ? ययोर्मध्ये एकमविनश्यदपराश्रितमेवावतिष्ठते तावयुतसिद्धौ ।

तदुक्तम् –

तावेवायुतसिद्धौ द्वौ विज्ञातव्यौ ययोर्द्वयोः ॥

अनश्यदेकमपराश्रितमेवावतिष्ठते ॥

यथा अवयवावयविनौ, गुणगुणिनौ, क्रियाक्रियावन्तौ, जातिव्यक्ती, विशेषनित्यद्रव्ये चेति । अवयव्यादयो हि यथाक्रममवयवाद्याश्रिता एवावतिष्ठन्तेऽविनश्यन्तः । विनश्यदवस्थास्त्वनाश्रिता एवावतिष्ठन्तेऽवयव्यादयः । यथा तन्तुनाशे सति पटः । यथा वा आश्रयनाशे सति गुणः । विनश्यत्ता तु विनाशकारण सामग्रीसान्निध्यम् ।

तन्तुपटावप्यवयवावयविनौ, तेन तयोः सम्बन्ध: समवायोऽयुतसिद्धत्वात् । तुरीपटयोस्तु न समवायोऽयुतसिद्धत्वाभावात् । नहि तुरी पटाश्रितैवावतिष्ठते नापि पटस्तुर्याश्रितः । अतस्तयोः सम्बन्धः संयोग एव । तदेवं तन्तुसमवेतः पटः ।

यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत्समवायिकारणम् । अतस्तन्तुरेव समवायिकारणं पटस्य न तु तुर्यादि ।

पटश्च स्वगतरूपादेः समवायिकारणम् । एवं मृत्पिण्डोपि घटस्य समवायिकारणं, घटश्च स्वगतरूपादेः समवायिकारणम् ।

ननु यदैव घटादयो जायन्ते तदैव तद्गतरूपादयोऽपि, अतः समानकालीनत्वाद् गुणगुणिनोः सव्येतरविषाणवत्कार्यकारणभाव एव नास्ति पौर्वापर्याभावात् । अतो न समावायिकारणं घटादयः स्वगतरूपादीनाम् । कारणविशेषत्वात् समवायिकारणस्य ।

अत्रोच्यते । न गुणगुणिनोः समानकालीनं जन्म, किन्तु द्रव्यं निर्गुणमेव प्रथममुत्पद्यते पश्चात् तत्समवेता गुणा उत्पद्यन्ते । समानकालोत्पत्तौ तु गुणगुणिनोः समानसामग्रीकत्वाद्भेदो न स्यात् । कारण भेदनियतत्वात्कार्यभेदस्य । तस्मात्प्रथमे क्षणे निर्गुण एव घट उत्पद्यते गुणेभ्यः पूर्वभावीति भवति गुणानां समवायिकारणम् ।

तदा कारणभेदोऽप्यस्ति । घटो हि घटं प्रति न कारणमेकस्यैव पौर्वापर्याभावात् । न हि स एव तमेव प्रति पूर्वभावी पश्चाद्भावी चेति । स्वगुणान् प्रति तु पूर्वभावित्याद् भवति गुणानां समवायिकारणम् ।

नन्वेवं सति प्रथमे क्षणे घटोऽचाक्षुषः स्याद्, अरूपिद्रव्यत्वाद् वायुवत् । तदेव हि द्रव्यं चाक्षुषं, यन्महत्वे सत्युद्भूतरूपवत् । अद्रव्यं च स्याद् गुणाश्रयत्वाभावात् । गुणाश्रयो द्रव्यमिति हि द्रव्यलक्षणम् ।

सत्यम् । प्रथमे क्षणे घटो यदि चक्षुषा न गृह्यते का नो हानिः । न हि सगुणोत्पत्तिपक्षेऽपि निमेषावसरे घटो गृह्यते । तेन व्यवस्थितमेतन्निर्गुण एवं प्रथमं घट उत्पद्यते । द्वितीयादिक्षणेषु चक्षुषा गृह्यते ।

न च प्रथमे क्षणे गुणाश्रयत्वाभावाद्द्रव्यत्वापत्तिः । समवायिकारणं द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणयोगात् । योग्यतया गुणाश्रयत्वाच्च । योग्यता च गुणानामत्यन्ताभावाभावः ।

असमवायिकारणं तदुच्यते यत्समवायिकारणप्रत्यासन्नमवधृतसामर्थ्यं तदसमवायिकारणम् । यथा तन्तुसंयोगः पटस्यासमवायिकारणम् । तन्तुसंयोगस्य गुणस्य, पटसमवायिकारणेषु तन्तुषु गुणिषु, समवेतत्वेन समवायिकारणे प्रत्यासन्नत्वात् , अनन्यथासिद्धनियतपूर्वभावित्वेन पटं प्रति कारणत्वाच्च । एवं तन्तुरूपं पटरूपस्य असमवायिकारणम् ।

ननु पटरूपस्य पटः समवायिकारणं, तेन तद्गतस्यैव कस्यचिद्धर्मस्यपटरूपं प्रत्यसमवायिकारणत्वमुचितम् । तस्यैव समवायिकारणप्रत्यासन्नत्वात् । न तु तन्तुरूपस्य । तस्य समवायिकारणप्रत्यासत्त्यभावात् ।

मैवम् । समवायिकारणसमवायिकारणप्रत्यासन्नस्यापि परम्परया समवायिकारणप्रत्यासन्नत्वात् ।

निमित्तकारणं तदुच्यते । यन्न समवायिकारणं, नाप्यसमवायिकारणम् ।

अथ च कारणं तन्निमित्तकारणम् । यथा वेमादिकं पटस्य निमित्तकारणम् , तदेतद् भावानामेव त्रिविधं कारणम् । अभावस्य तु निमित्तमात्रं, तस्य क्वचिदप्यसमयायात् । समवायस्य भावद्वयधर्मत्यात् ।

तदेतस्य त्रिविधस्य कारणस्य मध्ये यदेव कथमपि सातिशयं तदेव करणम् । तेन व्यवस्थितमेतल्लक्षणं प्रमाकरणं प्रमाणमिति ।

यत्तु, अनधिगतार्थगन्तृ प्रमाणमिति लक्षणम् , तन्न, एकस्मिन्नेव घटे घटोऽयं घटोऽयमिति धारावाहिकज्ञानानां गृहीतग्राहिणामप्रामाण्यप्रसङ्गात् ।

न चान्यान्यक्षणविशिष्टविषयीकरणादनधिगतार्थगन्तृता । प्रत्यक्षेण सूक्ष्मकालभेदानाकलनात् । कालभेदग्रहे हि क्रियादिसंयोगान्तानां चतुर्णां यौगपद्याभिमानो न स्यात् । क्रिया, क्रियातो विभागो, विभागात् पूर्वसंयोगनाशः, ततश्चोत्तरदेशसंयोगोत्पत्तिरिति । ननु प्रमायाः कारणानि बहूनि सन्ति प्रमातृप्रमेयादीनि । तान्यपि किं करणानि उत नेति ?

उच्यते । सत्यपि प्रमातरि प्रमेये च, प्रमानुत्पत्तेरिन्द्रियसंयोगादौ सति, अविलम्बेन प्रमोत्पत्तेरत इन्द्रियसंयोगादिरेव करणम् । प्रमायाः साधिकत्वाविशेषेऽप्यनेनैषोत्कर्षेणास्य प्रमात्रादिभ्योऽतिशयितत्वाद- तिशयितं साधकं साधकतमं तदेव करणमित्युक्त । अत इन्द्रियसंयोगादिरेव प्रमाकरणत्वात् प्रमाणं न प्रमात्रादि । तानि च प्रमाणानि चत्वारि । तथा च न्यायसूत्रम् –

'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि । इति ।

प्रत्यक्षम्

किं पुनः प्रत्यक्षम् ?

साक्षात्कारिप्रमाकरणं प्रत्यक्षम् । साक्षात्कारिणी च प्रमा सैवोच्यते या इन्द्रियजा । सा च द्विधा सविकल्पकनिर्विकल्पकभेदात् । तस्याः करणं त्रिविधम् । कदाचिद् इन्द्रियं, कदाचित् इन्द्रियार्थसन्निकर्षः, कदाचिज् ज्ञानम् ।

कदा पुनरिन्द्रियं करणम् ? यदा निर्विकल्पकरूपा प्रमा फलम् । तथा हि, आत्मा मनसा संयुज्यते, मन इन्द्रियेण, इन्द्रियमर्थेन । इन्द्रियाणां वस्तुप्राप्यप्रकाशकारित्वनियमात् । ततोऽर्थसन्निकृष्टेनेन्द्रियेण निर्विकल्पकं नामजात्यादियोजनाहीनं वस्तुमात्रावगाहि किञ्चिदिदमिति ज्ञानं जन्यते । तस्य ज्ञानस्येन्द्रियं करणं, छिदाया इव परशुः । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोऽवान्तरव्यापारः छिदाकरणस्य परशोरिव दारुसंयोगः । निर्विकल्पकं ज्ञानं फलं, परशोरिव छिदा ।

कदा पुनरिन्द्रियार्थसन्निकर्षः करणम् ?

यदा निर्विकल्पकानन्तरं सविकल्पकं नामजात्यादियोजनात्मकं डित्थोऽयं, ब्राह्मणोऽयं, श्यामोऽयमिति विशेषणविशेष्यावगाहि ज्ञानमुत्पद्यते, तदेन्द्रियार्थसन्निकर्षः करणम् । निर्विकल्पकं ज्ञानमवान्तरव्यापारः, सविकल्पकं ज्ञानम् फलम् ।

कदा पुनर्ज्ञानं करणम् ?

यदा, उक्तसविकल्पकानन्तरं हानोपादानोपेक्षाबुद्धयो जायन्ते तदा निर्विकल्पकं ज्ञानं करणम् । सविकल्पकं ज्ञानमवान्तरव्यापारः, हानादिबुद्धयः फलम् ।

तज्जन्यस्तज्जन्यजनकोऽवान्तरव्यापारः । यथा कुठारजन्यः कुठारदारुसंयोगः कुठारजन्यच्छिदाजनकः । अत्र कश्चिदाह-सविकल्पकादीनामपीन्द्रियमेव करणम् । यावन्ति त्वान्तरालिकानि सन्निकर्षादीनि तानि सर्वाण्यवान्तरव्यापार इति ।

इन्द्रियार्थयोस्तु यः सन्निकर्षः साक्षात्कारिप्रमाहेतुः स षड्विध एव । तद्यथा, संयोगः, संयुक्तसमवायः, संयुक्तसमवेतसमवायः, समवाय:, समवेतसमवायः विशेष्यविशेषणभावश्चेति ।

तत्र यदा चक्षुषा घटविषयं ज्ञानं जयन्ते तदा चक्षुरिन्द्रियं, घटोऽर्थः । अनयोः सन्निकर्षः संयोग एव, अयुतसिद्ध्यभावात् । एवं मनसाऽन्तरिन्द्रियेण यदात्मविषयकं ज्ञानं जन्यतेऽहमिति, तदा मन इन्द्रियम्, आत्माऽर्थः, अनयोः सन्निकर्षः संयोग एव ।

कदा पुनः संयुक्तसमवायः सन्निकर्षः ?

यदा चक्षुरादिना घटगतरूपादिकं गृह्यते घटे श्यामं रूपमस्तीति , तदा चक्षुरिन्द्रियं, घटरूपमर्थः, अनयोः सन्निकर्षः संयुक्तसमवाय एव । चक्षुःसंयुक्ते घटे रूपस्य समवायात । एवं मनसाऽऽत्मसमवेते सुखादौ गृह्यमाणे, अयमेव सन्निकर्षः ।

घटगतपरिमाणादिग्रहे चतुष्टयसन्निकर्षोऽप्यधिकं कारणमिष्यते । सत्यपि संयुक्तसमवाये तदभावे दूरे परिमाणाद्यप्रहणात् । चतुष्टयसन्निकर्षो यथा । इन्द्रियावयवैर्थावयविनाम् ।, २ इन्द्रियावयविनामर्थावयवानाम् । ३ इन्द्रियावयवैर्थावयवानाम् । ४ अर्थावयविनामिन्द्रियावयविनां सन्निकर्ष इति ।

यदा पुनश्चक्षुषा घटरूपसमवेतं रूपत्वादिसामान्यं गृह्यते, तदा चक्षुरिन्द्रियं, रूपत्वादिसामान्यमर्थः, अनयोः सन्निकर्पः संयुक्तसमवेतसमवाय एव । चक्षुःसंयुक्ते घटे रूपं समवेतं, तत्र रूपत्वस्य समवायात् ।

कदा पुनः समवायः सन्निकर्षः ?

यदा श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दो गृह्यते तदा श्रोत्रमिन्द्रियं, शब्दोऽर्थः, अनयोः सन्निकर्षः समवाय एव । कर्णेशष्कुल्यवच्छिन्नं नभः श्रोत्रम् । श्रोत्रस्याकाशात्मकत्वाच्छब्दस्य चाकाशगुणत्वाद् गुणगुणिनोश्च समवायात् ।

कदा पुनः समवेतसमवायः सन्निकर्षः ?

यदा पुनः शब्दसमवेतं शब्दत्वादिकं सामान्यं श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यते, तदा श्रोत्रमिन्द्रियं, शब्दत्वादि सामान्यमर्थः । अनयोः सन्निकर्षः समवेतसमवाय एवं । श्रोत्रसमवेते शब्दे शब्दत्वस्य समवायात् ।

कदा पुनर्विशेष्यविशेषणभाव इन्द्रियार्थसन्निकर्षो भवति ?

यदा चक्षुषा संयुक्ते भूतले घटाभावो गृह्यते 'इह भूतले घटो नास्ति' इति, तदा विशेष्यविशेषणभावः सम्बन्धः । तदा चक्षुःसंयुक्तस्य भूतलस्य घटाद्यभावो विशेषणं, भूतलं विशेष्यम् । यदा च मनःसंयुक्त आत्मनि सुखाद्यभावो गृह्यते 'अहं सुखरहित' इति, तदा मनःसंयुक्तस्यात्मनः सुखाद्यभावो विशेषणम् । यदा श्रोत्रसमवेते गकारे घत्वाभावो गृह्यते तदा श्रोत्रसमवेतस्य गकारस्य घत्वाभावो विशेषणम् ।

तदेवं संक्षेपतः पञ्चविधसम्बन्धान्यतमसम्बन्धसम्बद्धविशेषणविशेष्यभावलक्षणेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षेण अभाव इन्द्रयेण गृह्यते ।

एवं समवायोऽपि । चक्षुःसम्बद्धस्य तन्तोर्विशेषणभूतः पटसमवायो गृह्यते 'इह तन्तुषु पटसमवाय' इति ।

तदेवं षोढा सन्निकर्षो वर्णितः । संग्रहश्च –

अक्षजा प्रमितिर्द्वेधा सविकल्पाविकल्पिका ।

करणं त्रिविधं तस्याः सन्निकर्षश्च षड्विधः ॥

घट-तन्नील-नीलत्व-शब्द-शब्दत्वजातयः ।

अभावसमवायौ च ग्राह्याः सम्बन्धषट्कतः ॥

ननु निर्विकल्पकं परमार्थतः स्वलक्षणविषयं भवतु प्रत्यक्षम् । सविकल्पकं तु शब्दलिङ्गवदनुगताकारावगाहित्वात् सामान्यविषयं कथं प्रत्यक्षमक्षजस्यैव प्रत्यक्षत्वात् । अर्थत्य च परमार्थतः सत एव तञ्जनकत्वात् । स्वलक्षणन्तु परमार्थतः सत, न तु सामान्यम् । तस्य प्रमाणनिरस्तविधिभावस्य अन्यव्यावृत्यात्मनस्तुच्छत्वात् ।

मैवम् । सामान्वस्यापि वस्तुभूत्वात् । तदेवं व्याख्यातं प्रत्यक्षम् ।

अनुमानम्

लिङ्गपरामर्शोऽनुमानम् । येन हि अनुमीयते तदनुमानम् । लिङ्गपरामर्शेन चानुमीयतेऽतो लिङ्गपरामर्शोऽनुमानम् । तञ्च धूमादिज्ञानमनुमितिं प्रति करणत्वात् । अग्न्यादिज्ञानमनुमितिः । तत्करणं धूमादिज्ञानम् ।

किं पुनर्लिङ्गं कश्च तस्य परामर्शः ?

उच्यते । व्याप्तिबलेनार्थगमकं लिङ्गम् । यथा धूमोऽग्नेर्लिङ्गम् । तथाहि यत्र धूमस्तत्राग्निरिति साहचर्यनियमो व्याप्तिः । तस्यां गृहीतायामेव व्याप्तौ धूमोऽग्नि गमयति । अतो व्याप्तिबलेनाग्न्यनुमापकत्वाद् धूमोऽग्नेर्लिङ्गम् । तस्य तृतीयं ज्ञानं परामर्शः । तथाहि प्रथमं तावन्महानसादौ भयो भूयो धूमं पश्यन् वह्निं पश्यति । तेन भूयो दर्शनेन धूमाग्न्योः स्वाभाविकं सम्बन्धमवधारयति, यत्र धूमस्त्राग्निरिति ।

तद्यपि यत्र यत्र मैत्रीतनयत्वं तत्र तत्र श्यामत्वमपीति भूयो दर्शनं समानमवगम्यते, तथापि मैत्रीतनयत्वश्यामत्वयोर्न स्वाभाविकः सम्बन्धः किन्त्वौपाधिक एव । शाकाद्यन्नपरिणामस्योपाधेर्विद्यमानत्वात् । तथा हि श्यामत्वे मैत्रीतनयत्वं न प्रयोजकं किन्तु शाकाद्यन्नपरिणतिभेद एव प्रयोजकः । प्रयोजकश्चोपाधिरित्युच्यते ।

न च धूमाग्न्योः सम्बन्धे कश्चिदुपाधिरस्ति । अस्ति चेत्, योग्योऽयोग्यो वा । अयोग्यस्य शङ्कितुमशक्यत्वात्, योग्यस्य चानुपलभ्यमानत्वात् । यत्रोपाधिरस्ति तत्रोपलभ्यते । यथाग्नेर्धूमसम्बन्धे आर्द्रेन्धनसंयोगः । हिंसात्वस्य चाधर्मसाधनत्वेन सह सम्बन्धे निषिद्धत्वमुपाधिः । मैत्रीतनयत्वस्य च श्यामत्वेन सह सम्बन्धे शाकाद्यन्नपरिणतिभेदः ।

न चेह धूमस्याग्निसाहचर्ये कश्चिदुपाधिरस्ति । यद्यभविष्यत्ततोऽद्रक्ष्यत्, ततो दर्शनाभावान्नास्ति । इति तर्कसहकारिणानुपलम्भसनाथेन । प्रत्यक्षेणैवोपाध्यभावोऽवधार्यते । तथा च उपाध्यभावग्रहणजनित-संस्कारसहकृतेन साहचर्यग्राहिणा प्रत्यक्षेणैव धूमाग्न्योर्व्याप्तिरवधार्यते । तेन धूमाग्न्योः स्वाभाविक एव सम्बन्धो न त्वौपाधिकः । स्वभाविकश्च सम्वन्धो व्यातिः ।

तदनेन न्यायेन धूमाग्न्योर्व्याप्तौ गृह्यमाणायां, महानसे यद्धूमज्ञानं तत्प्रथमम् । पर्वतादौ पक्षे यद्धूमज्ञानं तद्द्वितीयम् । ततः पूर्वगृहीतां धूमाग्न्योर्व्याप्ति स्मृत्वा यत्र धूमस्तत्रग्निरिति तत्रैव पर्वते पुनर्धूमं परामृशति । अस्त्यत्र पर्वते वह्निना व्याप्तो धूम इति । तदिदं धूमज्ञानं तृतीयम् ।

एतच्चावश्यमभ्युपेतव्यम् । अन्यथा यत्र धूमस्तत्राग्निरित्येव स्यात् । इह तु कथमग्निना भवितव्यम् । तस्मादिहापि धूमोऽस्ति इति ज्ञानमन्वेषितव्यम् । अयमेव लिङ्गपरामर्शः । अनुमितिं प्रतिकरणत्वाच्चानुमानम् । तस्मात्, अस्त्यत्र पर्वतेऽग्निरित्यनुमितिज्ञानमुत्पद्यते ।

ननु कथं प्रथमं महानसे यद्धूमज्ञानं तन्नाग्निमनुमापयति ?

सत्यम् । व्याप्तेरगृहीतत्वात् । गृहीतायामेव व्याप्तावनुमित्युद्यात् । अथ व्याम्तिनिश्चयोत्तरकालं महानस एवाग्निरनुमीयताम् ।

मैवम् । अग्नेदृष्टत्वेन सन्देहस्यानुदयात् । सन्दिग्धश्चार्थाऽनुमीयते । यथोक्तं भाष्यकृता । 'नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थे न्यायः प्रवर्तते किन्तु सन्दिग्धे'

अथ पर्वतगतमात्रस्य पुंसो यद्धूमज्ञानं, तत् कथं नाग्निमनुमापयति? अस्ति चात्राग्निसन्देहः । साधकबाधकप्रमाणाभावेन संशयस्य न्यायप्राप्तत्वात् ।

सत्यम् । अगृहीतव्याप्तेरिव गृहीतविस्मृतव्याप्तेरपि पुंसोऽनुमानानुदयेन व्याप्तिस्मृतेरप्यनुमितिहेतुत्वात् । धूमदर्शनाच्चोद्बुद्धसंस्कारो व्याप्तिं स्मरति । यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान् यथा महानस इति । तेन धुमदर्शने जाते व्याप्तिस्मृतौ भूतायां यद्धूमज्ञानं तत् तृतीयं 'धूमवांश्रायम्' इति । तदेवाग्निमनुमापयति नान्यत् । तदेवानुमानम् । स एव लिङ्गपरामर्शः । तेन व्यवस्थितमेत – लिङ्गपरामर्शोऽनुमानमिति ।

तच्चानुमानं द्विविधम् । स्वार्थं परार्थं चेति । स्वार्थं स्वप्रतिपत्तिहेतुः । तथा हि स्वयमेव महानसादौ विशिष्टेन प्रत्यक्षेण धूमाग्न्योर्व्याप्तिं गृहीत्वापर्वतसमीपं गतस्तद्गते चाग्नौ सन्दिहानः पर्वतवर्तिनीमविच्छिन्नमूला- मभ्रंलिहां धूमलेखां पश्यन् धूमदर्शनाच्चोद्बुद्धसंस्कारो व्याप्तिं स्मरति । यत्र धूमस्तत्राग्निरिति । ततोऽत्रापि धूमोऽस्तीति प्रतिपद्यते । तस्मादत्र पर्वतेऽअग्निरप्यस्तीति स्वयमेव प्रतिपद्यते । तत्स्वाथानुमानम् ।

यत्तु कश्चित् स्वयं धूमादग्निमनुमाय परं बोधयितुं पञ्चावयवमनुमान वाक्यं प्रयुङ्क्ते तत् परार्थानुमानम् । तद्यथा पर्वतोऽग्निमान् , धूमवत्वात्, यो यो धूमवान् ससोऽग्निमान् , यथा महानसः, तथा चायं, तस्मात्तथा, इति । अनेन वाक्येन प्रतिज्ञादिमता प्रतिपादितात् पञ्चरूपोपपन्नाल्लिङ्गात् परोऽप्यग्निं प्रतिपद्यते । तेनैतत् परार्थानुमानम् ।

अत्र पर्वतस्याग्निमत्वं साध्यं, धूमवत्वं हेतुः । स चान्वयव्यतिरेकी, अन्वयेन व्यतिरेकेण च व्याप्तिमत्वात् । तथा हि यत्र यत्र धूमत्वं तत्राग्निमत्वं यथा महानसे इत्यन्वयव्याप्तिः । महानसे धूमाग्न्योरन्वयसद्भावात् । एवं यत्राग्निर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति यथा महाह्रदे इतीयं व्यतिरेकव्याप्तिः । महाह्रदे धूमाग्न्योर्व्यतिरेकस्य सद्भावदर्शनात् ।

व्यतिरेकव्याप्तेस्त्वयं क्रमः । अन्वयव्याप्तौ यद्व्याप्यं तदभावोऽत्र व्यापकः । यच्च व्यापक तद्भावोऽत्र व्याप्य इति । तदुक्तम् –

व्याप्यव्यापकभावो हि भावयोर्यादृगिष्यसे ।

तयोरभावयोस्तस्माद् विपरीतः प्रतीयते ॥

अन्वये साधनं व्याप्यं साध्यं व्यापकमिष्यते ।

तदभावोऽन्यथा व्याप्यो व्यापकः साधनात्ययः ॥

व्याप्यस्य वचनं पूर्व व्यापकस्य ततः परम् ।

एवं परीक्षिता व्याप्तिः स्फुटीभवति तत्त्वतः ॥‌

तदेवं धूमवत्त्वे हेतावन्वयेन व्यतिरेकेण च व्याप्तिरस्ति । यत्तु वाक्ये केवलमन्वयव्याप्तेरेव प्रदर्शनं तदेकेनापि चरितार्थत्वात् । तत्राप्यन्वयस्यावक्रत्वात् प्रदर्शनम् । ऋजुमार्गेण सिद्ध्यतोऽर्थस्य वक्रेण साधनायोगात् । न तु व्यतिरेकव्याप्तेरभावात् ।

तदेवं धूमवत्त्वं हेतुरन्वयव्यतिरेकी । एवमन्येऽप्यनित्यत्वादौ साध्ये कृतकत्वादयो हेतवोऽन्वयव्यतिरेकिणो द्रष्टव्याः । यथा शब्दोऽनित्यः कृतकत्वाद्घटवत् । यत्र कृतकत्वं तत्रानित्यत्वम् । यत्रानित्यत्वाभावस्तत्र कृतकत्वाभावो यथा गगने ।

कश्चिद्धेतुः केवलव्यतिरेकी । तद्यथा, सात्मकत्वे साध्ये प्राणादिमत्त्वं हेतुः । यथा जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्त्वात् । यत् सात्मकं न भवति तत् प्राणादिमन्न भवति । यथा घटः । न चेदं जीवच्छरीरं तथा तस्मान्न तथेति । अत्र हि जीवच्छरीरस्य सात्मकत्वं साध्यं, प्राणादिमत्त्वं हेतुः । च केवलव्यतिरेकी, अन्वयव्याप्तेरभावात् । तथाहि यत् प्राणादिमत् तत् सात्मकं यथा अमुक इति दृष्टान्तो नास्ति । जीवच्छरीरं सर्वं पक्ष एव ।

लक्षणमपि केवलव्यतिरेकी हेतुः । यथा प्रथिवीलक्षणं गन्धवत्त्वम् । विवादपदं पृथिवीति व्यवहर्तव्यं, गन्धवत्त्वात् । यन्न पृथिवीति व्यवह्रियते तन्न गन्धवत् यथापः ।

प्रमाणलक्षणं वा । यथा प्रमाकरणत्वम् । तथाहि, प्रत्यक्षादिकं प्रमाणमिति व्यवहर्तव्यं प्रमाकरणत्वात् । यत्प्रमाणमिति न व्यवह्रियते तन्न प्रमाकरणं यथा प्रत्यक्षाभासादि । न पुनस्तथेदं, तस्मान्न तथेति । न पुनरत्र यत्प्रमाकरणं तत्प्रमाणमिति व्यवहर्तव्यं यथाऽमुक इत्यन्वयदृष्टान्तोऽस्ति, प्रमाणमात्रस्य पक्षीकृतत्वात् । अत्र च व्यवहारः साध्यो न तु प्रमाणत्वं, तस्य प्रमाकरणस्वाद्धेतोरभेदेन साध्याभेददोषप्रसङ्गात् । तदेवं केवलव्यतिरेकिणो दर्शिताः ।

कश्चिदन्यो हेतुः केवलान्वयी । यथा शब्दोऽभिधेयः प्रमेयत्वात् । यत्प्रमेयं तदभिधेयं यथा घटः । तथा चायं तस्मात्तथेति । अत्र शब्दस्या भिधेयत्वं साध्यं प्रमेयत्वं हेतुः । स च केवलान्वय्येव । यदभिधेयं न भवति तत्प्रमेयमपि न भवति यथामुक इति व्यतिरेकदृष्टान्ताभावात् । सर्वत्र हि प्रामाणिक एवार्थो दृष्टान्तः । स च प्रमेयश्चाभिधेयश्चेति । एतेषां च अन्वयव्यतिरेकि-केवलान्वयि-केवलव्यतिरेकि हेतूनां त्रयाणां मध्ये यो हेतुरन्वयव्यतिरेकी स पञ्चरूपोपपन्न एव स्वसाध्यं साधयितुं क्षमते, नत्वेकेनापि रूपेण हीनः । तानि पञ्चरूपाणि पक्षसत्वं, सपक्षसत्त्वं, विपक्षव्यावृत्तिः, अबाधितविषयत्वं, असत्प्रतिपक्षत्वं चेति ।

एतानि तु पञ्चरूपाणि धूमवत्त्वादौ अन्वयव्यतिरेकिणि हेतौ विद्यन्ते । तथाहि, धूमवत्त्वं पक्षस्य पर्वतस्य धर्मः । पर्वते तस्य विद्यमानत्वात् । एवं सपक्षे सत्त्वम्, सपक्षे महानसे तद् विद्यत इत्यर्थः । एवं विपक्षान्महाह्रदाद् व्यावृत्तिस्तत्र नास्तीत्यर्थः ।

एवमबाधितविषयं च धूमवत्त्वम् तथाहि धूमवत्त्वस्य हेतोर्विषयः साध्यधर्मस्तच्चाग्निमत्त्वम्, तत्केनापि प्रमाणेन न बाधितं न खण्डितमित्यर्थः । एवमसत्प्रतिपक्षत्वम्-असन् प्रतिपक्षो यस्येत्यसत्प्रतिपक्षं धूमवत्त्वं हेतुः । तथाहि, साध्यविपरीतसाधकं हेत्वन्तरं प्रतिपक्ष इत्युच्यते । स च धूमवत्त्वे हेतौ नास्त्येवानुपलम्भात् ।

तदेवं पञ्चरूपाणि धूमवत्त्वे हेतौ विद्यन्ते । तेनैतद् धूमवत्त्वमग्निमत्त्वस्य गमकम् , अग्निमत्त्वस्य साधकम् ।

अग्नेः पक्षधर्मत्वं हेतोः पक्षधर्मताबलात् सिद्धयति । तथाहि, अनुमानस्य द्वे अङ्गे, व्याप्तिः पक्षधर्मता च । तत्र व्याप्त्या साध्यसामान्यस्य सिद्धिः । पक्षधर्मताबलात्तु साध्यस्य पक्षसम्बन्धित्वं विशेषः सिद्धयति । पर्वतधर्मेण, धूमवत्त्वेन वह्निरपि पर्वतसम्बद्ध एवानुमीयते । अन्यथा साध्यसामान्यस्य व्याप्तिग्रहादेव सिद्धेः कृतमनुमानेन ।

यस्त्वन्योऽप्यन्वयव्यतिरेकी हेतुः स सर्वः पञ्चरूपोपपन्न एव सद्धेतुः । अन्यथा हेत्वाभासो अहेतुरिति यावत् ।

केवलान्वयी चतूरूपोपपन्न एव स्वसाध्यं साधयति । तस्य हि विपक्षाद् व्यावृत्तिर्नास्ति, विपक्षाभावात् ।

केवलव्यतिरेकी च चतूरूपोपपन्न एव । तस्य हि सपक्षे सत्त्वं नास्ति, सपक्षाभावात् ।

के पुनः पक्ष-सपक्ष-विपक्षाः ? उच्यन्ते । सन्दिग्धसाध्यधर्मा धर्मी पक्षः । यथा धूमानुमाने पर्वतः पक्षः । सपक्षस्तु निश्चितसाध्यधर्मा धर्मी । यथा महानसो धूमानुमाने । विपक्षस्तु निश्चितसाध्याभाववान् धर्मी । यथा तत्रैव महाह्रद इति ।

तदेवमन्वयव्यतिरेकि-केवलान्वयि-केवलव्यतिरेकिणो दर्शिताः ।

अतोऽन्ये हेत्वाभासाः । ते च असिद्ध-विरुद्ध-अनैकान्तिक-प्रकरणसम-कालात्ययापदिष्टभेदात् पञ्चैव ।

१ तत्र लिङ्गत्वेनासिद्धो हेतुरसिद्धः । तत्रासिद्धस्त्रिविधः । आश्रयासिद्धः स्वरूपासिद्धः, व्याप्यत्वासिद्धश्चेति ।

आश्रयासिद्धो यथा गगनारविन्दं सुरभि, अरविन्दत्वात् सरोजारविन्दवत् । अत्र गगनारविन्दमाश्रयः, स च नास्त्येव ।

स्वरूपासिद्धो यथा, अनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वात् घटवत् । अत्र चाक्षुषत्वं हेतुः, स च शब्दे नास्त्येव, तस्य श्रावणत्वात् ।

व्याप्यत्वासिद्धस्तु द्विविधः । एको व्याप्तिग्राहकप्रमाणाभावात् । अपरस्तूपाधिसद्भावात् । तत्र प्रथमो यथा, शब्दः क्षणिकः सत्त्वात् । यत्सत् तत्क्षणिकं यथा जलधरपटलं तथा च शब्दादिरिति । न च सत्वक्षणिकत्वयोर्व्याप्तिग्राहकं प्रमाणमस्ति । सोपाधिकतया व्याप्यत्वासिद्धौ उच्यमानायां क्षणिकत्वमन्यप्रयुक्तमित्यभ्युपगतं स्यात् ।

द्वितीयो यथा क्रत्वन्तर्वर्तिनी हिंसा अधर्मसाधनं, हिंसात्वात् , क्रतुबाह्यहिंसावत् । अत्र ह्मधर्मसाधनत्वे हिंसात्वं न प्रयोजकं किंतु निषिद्धत्वमेव प्रयोजकम् , उपाधिरिति यावत् । तथा हि 'साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापक' उपाधिरित्युपाधिलक्षणम् । तच्चास्ति निषिद्धत्वे । निषिद्धत्वं हि साध्यस्याधर्मसाधनत्वस्य व्यापकम् । यतो यत्र यत्राधर्मसाधनत्वं तत्र तत्रावश्यं निषिद्धत्वमपीति । एवं साधनं हिंसात्यं, न व्याप्नोति निषिद्धत्वम् । न हि यत्र यत्र हिंसात्वं तत्र तत्रावश्यं निषिद्धत्वं, यज्ञीयपशु हिंसाया निषिद्धत्वाभावात् । तदेवं निषिद्धत्वस्योपाधेः सद्भावादन्यप्रयुक्तव्याप्त्युपजीवि हिंसात्वं व्याप्यत्वासिद्धमेव ।

२ साध्यविपर्ययव्याप्तो हेतुविरुद्धः । स यथा शब्दो नित्यः कृतकत्वादात्मवत् । अत्र कृतकत्वं हि साध्यनित्यत्वविपरीतानित्यत्वेन व्याप्तम् । यत्कृतकं तदनित्यमेव, न नित्यमित्यतो, विरुद्धं कृत कत्वमिति ।

३ सव्यभिचारोऽनैकान्तिकः । स द्विविधः, साधारणानैकान्तिकोऽसाधारणानैकान्तिकश्चेति । तत्र पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिः साधारणः । यथा शब्दो नित्यः प्रमेयत्वात् व्योमवत् । अत्र हि प्रमेयत्वं हेतुस्तञ्च नित्यानित्यवृत्ति । सपक्षाद् विपक्षाद् व्यावृत्तो यः पक्ष एव वर्तते सोऽसाधारणानैकान्तिकः । स यथा भूर्नित्या गन्धवत्त्वात् । गन्धवत्त्वं हि सपक्षान्नित्याद् विपक्षाच्चानित्याद् व्यावृत्तं भूमात्रवृत्ति ।

४ प्रकरणसमस्तु स एव यस्य हेतोः साध्यविपरीतसाधकं हेत्वन्तरं विद्यते । स यथा शब्दोऽनित्यो नित्यधर्मरहितत्वात् । शब्दो नित्योऽनित्यधर्मरहितत्वादिति । अयमेव हि सत्प्रतिपक्ष इति चोच्यते ।

५ पक्षे प्रमाणान्तरावधृतसाध्याभावो हेतुर्बाधितविषयः । कालात्ययापदिष्ट इति चोच्यते । यथा अग्निरनुष्णः कृतकत्वाज्जलवत् । अत्र हि कृतकत्वस्य हेतोः साध्यमनुष्णत्वं तदभावः प्रत्यक्षेणैवावधारितः स्पार्शनप्रत्यक्षेणैवोष्णत्वोपलम्भात् ।

इति व्याख्यातमनुमानम् ।

उपमानम्

अतिदेशवाक्यार्थस्मरणसहकृतं गोसादृश्यविशिष्टपिण्डज्ञानमुपमानम् । यथा गवयमजानन्नपि नागरिको 'यथा गौस्तथा गवय' इति वाक्यं कुतश्चिदारण्यकात्पुरुषाच्छ्रुत्वा वनं गतो वाक्यार्थं स्मरन् यदा गोसादृश्यविशिष्टं पिण्डं पश्यति तदा तद्वाक्यार्थस्मरणसहकृतं गोसादृश्यविशिष्टपिण्डज्ञानमुपमानमुपमितिकरणत्वात् । गोसादृश्यविशिष्टपिण्डज्ञानानन्तरमयमसौ गवयशब्दवाच्यः पिण्ड इति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतीतिरुपमितिः । सैव फलम् । इदन्तु प्रत्यक्षानुमानासाध्यप्रमासाधकत्वात् प्रमाणान्तरमुपमानमस्ति ।

इति व्याख्यातमुपमानम् ।

शब्दः

आप्तवाक्यं शब्दः । आप्तस्तु यथाभूतस्यार्थस्योपदेष्टा पुरुषः । वाक्यं त्वाकाङ्क्षायोग्यतासन्निधिमतां पदानां समूहः । अतएव 'गौरश्वः पुरुषो हस्ती' इति पदानि न वाक्यम् । परस्पराकाङ्क्षाविरहात् । 'वह्निना सिञ्चेदिति न वाक्यं योग्यताविरहात् । नह्यग्निसेकयोः परस्परान्वययोग्यतास्ति । तथाहि अग्निनेति तृतीयया सेकरूपं कार्यं प्रति करणत्वमग्नेः प्रतिपादितम् । न चाग्निः सेके करणीभावतुं योग्यः । तेन कार्यकारणभावलक्षणसम्बन्धेऽग्निसेकयोरयोग्यत्वादग्निना सिञ्चेदिति न वाक्यम् ।

एवमेकैकशः प्रहरे प्रहरे असहोच्चारितानि 'गामानय' इत्यादि पदानि न वाक्यम् । सत्यामपि परस्पराकाङ्क्षायां सत्यामपि परस्परान्वययोग्यतायां परस्परसान्निध्याभावात् । यानि तु साकाङ्क्षाणि योग्यतावन्ति सन्निहितानि पदानि तान्येव वाक्यम् । यथा-ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत् – इत्यादि । यथा च-नदीतीरे पञ्चफलानि सन्ति – इति । यथा च तान्येव गामानय – इत्यादिपदान्यविलम्बितोच्चरितानि ।

नन्वत्रापि न पदानि साकाङ्क्षाणि किन्त्वर्थाः फलादीनामाधेयानां तीराद्याधाराकाङ्क्षितत्वात् । न च विचार्यमाणेऽर्था अपि साकाङ्क्षाः । आकाङ्क्षाया इच्छात्मकत्वेन चेतनधर्मत्वात् ।

सत्यम् । अर्थास्तावत् स्वपदश्रोतर्यन्योन्यविषयाकाशाजनकत्वेन साकाङ्क्षा इत्युच्यन्ते । तद्द्वारेण तत्प्रतिपादिकानि पदान्यपि साकाङ्क्षाणीत्युपचर्यन्ते । यद्वा पदान्येवार्थान् प्रतिपाद्यार्थान्तरविषयाकाङ्क्षाजनकानीत्युपचारात् साकाङ्क्षाणि । एवमर्थाः साकाङ्क्षाः परस्परान्वययोग्याः । तद्द्वारेण पदान्यपि परस्परान्वययोग्यानीत्युच्यन्ते ।

सन्निहितत्वं तु पदानामेकेनैव पुंसा अविलम्वेनोच्चरितत्वम् तब साक्षादेव पदेषु सम्भवति नार्थद्वारा ।

तेनाऽयमर्थः सम्पन्नः । अर्थप्रतिपादनद्वारा श्रोतुः पदान्तरविषयामर्थान्तरविषयां वाकाङ्क्षां जनयतां प्रतीयमानपरस्परान्वययोग्यार्थप्रतिपादकानां सन्निहितानां पदानां समूहो वाक्यम् ।

पदं च वर्णसमूहः । समूहश्चात्र एकज्ञानविषयीभावः । एवं च वर्णानां क्रमवतामाशुतरविनाशित्वेन एकदाऽनेकवर्णानुभवासम्भवात् पूर्वपूर्ववर्णाननुभूय, अन्त्यवर्णश्रवणकाले पूर्वपूर्ववर्णानुभवजनितसंस्कारसहकृतेन अन्त्यवर्णसम्बन्धेन पदव्युत्पादनसमयग्रहानुगृहीतेन श्रोत्रेणैकदैव सदसदनेकवर्णावगाहिनी पदप्रतीतिर्जन्यते, सहकारिदार्ढ्यात् प्रत्यभिज्ञानवत् । प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षे ह्यतीतापि पूर्वावस्था स्फुरत्येव । ततः पूर्वपूर्वपदानुभव- जनितसंस्कारसहकृतेनान्त्यपदविषयेण श्रोत्रेन्द्रियेण पदार्थप्रत्ययानुगृहीतेनानेकपदावगाहिनी वाक्यप्रतीतिः क्रियते ।

तदिदं वाक्यमाप्तपुरुषेण प्रयुक्तं सच्छब्दनामकं प्रमाणम् । फलन्त्वस्य वाक्यार्थज्ञानम् । तच्चैतच्छब्दलक्षणं प्रमाणं लोके वेदे च समानम् । लोके त्वयं विशेषो यः कश्चिदेवाप्तो भवति, न सर्वः । अतः किञ्चिदेव लौकिकं वाक्यं प्रमाणं, यदाप्तवक्तृकम् । वेदे तु परमाप्तश्रीमहेश्वरेण कृतं सर्वमेव वाक्यं प्रमाणं, सर्वस्यैवाप्तवाक्यत्वात् । वर्णितानि चत्वारि प्रमाणानि । एतेभ्योऽन्यन्न प्रमाणम्, प्रमाणस्य सतोऽत्रैवान्तर्भात् ।

अर्थापत्तिः

नन्वर्थापत्तिरपिं पृथक् प्रमाणमस्ति । अनुपपद्यमानार्थदर्शनात् तदुपपादकीभूतार्थान्तरकल्पनम् 'अर्थापत्तिः । तथाहि, पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते इति दृष्टे श्रुते वा रात्रिभोजनं कल्प्यते । दिवाऽभुञ्जानस्य पीनत्वं रात्रिभोजनमन्तरेण नोपपद्यतेऽतः पीनत्वान्यथानुपपत्तिप्रसूतार्थापत्तिरेव रात्रिभोजने प्रमाणम् । तच्च प्रत्यक्षदिभ्यो भिन्नं, रात्रिभोजनस्य प्रत्यक्षाद्यविषयत्वात् ।

नैतत् । रात्रिभोजनस्यानुमानविषयत्वात् । तथाहि, अयं देवदेत्तो रात्रौ भुङ्क्ते दिवाऽभुञ्जानत्वे सति पीनत्वात् । यस्तु न रात्रौ भुङ्क्ते नासौ दिवाऽभुञ्जानत्वे सति पीनो, यथा दिवा रात्रौ चाऽभुञ्जानोऽपीनो, न चायं तथा, तस्मान्न तथेति केवलव्यतिरेक्यनुमानेनैव रात्रिभोजनस्य प्रतीयमानत्वात् । किमर्थमर्थापत्तिः पृथक्त्वेन कल्पनीया ।

अभावः

नन्वभावाख्यमपि पृथक् प्रमाणमस्ति । तच्चाभावग्रहणायाङ्गीकरणीयम् । तथाहि घटाद्यनुपलब्ध्या घटाद्यभावो निश्चीयते । अनुपलब्धिश्चोपलब्धेरभावः । इत्यभावप्रमाणेन घटाद्यभावो गृह्यते ।

नैतत् । यद्यत्र घटोऽभविष्यत्तर्हि भूतलमिवाद्रक्ष्यदित्यादितर्कसहकारिणाऽनुपलम्भसनाथेन प्रत्यक्षेणैवाभावप्रहणात् ।

नन्विन्द्रियाणि सम्बद्धार्थग्राहकाणि । तथाहीन्द्रियाणि वस्तुप्राप्यप्रकाशकारीणि ज्ञानकारणत्वादा-लोकवत् ।

यद्वा चक्षुःश्रोत्रे वस्तुप्राप्यप्रकाशकारिणी बहिरिन्द्रियस्वात् त्यगादिवत् । त्वगादीनान्तु प्राप्यप्रकाशकारित्वमुभयवादिसिद्धमेव ।

न चेन्द्रियाभावयोः सम्बन्धोऽस्ति संयोगसमवायौ हि सम्बन्धौ, न च तौ तयोः स्तः । द्रव्ययोरेव संयोग इति नियमात् । अभावस्य च द्रव्यत्वाभावात् । अयुतसिद्ध्यभावान्न समवायोऽपि ।

विशेषणविशेष्यभावश्च सम्बन्ध एव न सम्भवति भिन्नोभयाश्रितैकत्वाभावात् । सम्बन्धो हि सम्बन्धिभ्यां भिन्नो भवत्युभयसम्बन्ध्याश्रितश्चैकश्च । यथा भेरीदण्डयोः संयोगः । स हि भेरीदण्डाभ्यां भिन्नस्तदुभयाश्रितश्चैकश्च । न च विशेषणविशेष्यभावस्तथा । तथाहि दण्डपुरुषयोर्विशेषणविशेष्यभावो न ताभ्यां भिद्यते । न हि दण्डस्य विशेषणत्वमर्थान्तरं, नापि पुरुषस्य विशेष्यत्वमर्थान्तरमपि तु स्वरूपमेव । अभावस्यापि विशेषणत्वाद् विशेष्यत्वाच्च । न चाभावे कस्यचित् पदार्थस्य द्रव्याद्यन्यतमस्य सम्भवः । तस्मादभावस्य स्वोपरक्तवुद्धिजनकत्वं यत्स्वरूपं तदेव विशेषणत्वं, न तु पदार्थान्तरम् ।

एवं व्याप्यव्यापकत्वकारणत्वादयोऽप्यूह्याः । स्वप्रतिबद्धबुद्धिजनकत्वं स्वरूपमेव हि व्यापकत्वमग्न्यादीनाम् । कारणत्वमपि कार्यानुकृतान्वयव्यतिरेकि स्वरूपमेव हि तन्त्वादीनां, नत्वर्थान्तरमभावस्यापि व्यापकत्वात्कारणत्वाच्च । नह्यभावे सामान्यादिसम्भवः ।

तदेवं विशेषणविशेष्यभावो न विशेषणविशेष्यस्वरूपाभ्यां भिन्नः । नाष्युभयाश्रितो, विशेषणे विशेषणभावमात्रस्य सत्त्वाद् विशेष्यभावस्याभावाद्, विशेष्ये च विशेष्यभावमात्रस्य सद्भावाद्, विशेषणभावस्याभावात् । नाप्येको, विशेषणं च विशेष्यं च तयोर्भाव इति द्वन्द्वात् परं श्रूयमाणो भावशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । तथा च विशेषणभावो विशेष्यभावश्चेत्युपपन्नम् । द्वावेतावेकश्च सम्बन्धः तस्माद् विशेषणविशेष्यभावो न सम्बन्धः । एवं व्याप्यव्यापकभावादयोऽपि सम्बन्धशब्दप्रयोगस्तूभयनिरूपणीयत्वसाधर्म्येणोपचारात् ।

तथा चासम्बद्धस्याभावस्येन्द्रियेण ग्रहणं न सम्भवति ।

सत्यम् । भावावच्छिन्नत्वाद् व्याप्तेर्भावं प्रकाशयदिन्द्रियं प्राप्तमेव प्रकाशयति, नत्वभावमपि । अभावं प्रकाशयदिन्द्रियं विशेषणविशेष्यभावमुखेनैवेति सिद्धान्तः ।

असम्बद्धाभाभवग्रहेऽतिप्रसङ्गदोषस्तु विशेषणतयैव निरस्तः । समश्च परमते ।

यत्रोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः ।

नैकः पर्यनुयोक्तव्यस्तादृगर्थविचारणे ॥

प्रामाण्यवादः

इदमिदानीं निरूप्यते । जलादिज्ञाने जाते, तस्य प्रामाण्यमवर्धाय कश्चिज्जलादौ प्रवर्तते । कश्चित्तु सन्देहादेव प्रवृत्तः प्रवृत्त्युत्तरकाले जलादिप्रतिलम्भे सति प्रामाण्यमवधारयतीति वस्तुगतिः ।

अत्र कश्चिदाह । प्रवृत्तेः प्रागेव प्रामाण्यावधारणात् । अस्यार्थः । येनैव यज्ज्ञानं गृह्यते तेनैव तद्गतं प्रामाण्यमपि न तु ज्ञानग्राहकादन्यज् ज्ञानधर्मस्य प्रामाण्यस्य ग्राहकम् । तेन ज्ञानग्राहकातिरिक्तानपेक्षत्वमेव स्वतस्त्वं प्रामाण्यस्य ज्ञानं च प्रवृत्तेः पूर्वमेव गृहीतं कथमन्यथा प्रामाण्याप्रामाण्यसन्देहोऽपि स्यात् । अनधिगते धर्मिणिऽसन्देहानुदयात् । तस्मात् प्रवृत्तेः पूर्वमेव ज्ञातान्यथानुपपत्तिप्रसूतयाऽर्थापत्त्या ज्ञाने गृहीते ज्ञानगतं प्रामाण्यमप्यर्थापत्त्यैव गृह्यते । ततः पुरुषः प्रवर्तते । न तु प्रथमं ज्ञानमात्रं गृह्यते ततः प्रवृत्त्युत्तरकाले फलदर्शनेन ज्ञानस्य प्रामाण्यमवधार्यते ।

अत्रोच्यते । ज्ञाततान्यथानुपपत्तिप्रसूतयाऽर्थापत्त्या ज्ञानं गृह्यते इति यदुक्तं तदेव वयं न मृष्यामहे तया प्रामाण्यग्रहस्तु दूरत एव । तथा हि इदं किल परस्याभिमतम् । घटादिविषये ज्ञाने जाते 'मया ज्ञातोऽयं घटः' इति घटस्य ज्ञातता प्रतिसन्धीयते । तेन ज्ञाने जाते सति ज्ञातता नाम कश्चिद्धर्मो जात इत्यनुमीयते । स च ज्ञानात्पूर्वमजातत्वात्, ज्ञाने जाते च जातत्वादन्वयव्यतिरेकाभ्यां ज्ञानेन जन्यत इत्यवधार्यते । एवं च ज्ञानजन्योऽसौ ज्ञातता नाम धर्मो ज्ञानमन्तरेण नोपपद्यते कारणाभावे कार्यानुदयात् । तेनार्थापत्त्या स्वकारणं ज्ञानं ज्ञाततयाऽऽक्षिप्यत इति । न चैतद्युक्तम् । ज्ञानविषयतातिरिक्ताया ज्ञातताया अभावात् ।

ननु ज्ञानजनितज्ञातताधारत्वमेव हि घटादेर्ज्ञानविषयत्वम् । तथा हि न तावत् तादात्म्येन विषयता, विषयविषयिणोर्घटज्ञानयोस्तादात्म्यानभ्युपगमात् । तदुत्पत्त्या तु विषयत्वे इन्द्रियादेरपि विषयत्वापत्तिः । इन्द्रियादेरपि तस्य ज्ञानस्योत्पत्तेः । तेनेदमनुमीयते । ज्ञानेन घटे किञ्चिज्जनितं येन घट एव तस्य ज्ञानस्य विषयो नान्यः । इत्यतो विषयत्वान्यथानुपपत्तिप्रसूतयाऽर्थापत्त्यैव ज्ञाततासिद्धिः, नतु प्रत्यक्षमात्रेण ।

मैवम् । स्वभावादेव विषयविषयितोपपत्तेः । अर्थज्ञानयोरेतादृश एव स्वाभाविको विशेषो येनानयोर्विषयविषयिभावः । इतरथातीतानागतयोर्विषयत्वं न स्यात् । ज्ञानेन तत्र ज्ञातताजननासम्भवादसति धर्मिणि धर्मजननायोगात् ।

किञ्च, ज्ञातताया अपि स्वज्ञानविषयत्वात् तत्रापि ज्ञाततान्तरप्रसङ्गस्तथा चाऽनवस्था । अथ ज्ञाततान्तरमन्तरेणापि स्वभावादेव विषयत्वं ज्ञाततायाः । एवं चेत् तर्हि घटादावपि किं ज्ञाततयेति ।

अस्तु वा ज्ञातता तथापि तन्मात्रेण ज्ञानं गम्यते ज्ञातताविशेषेण प्रमाणज्ञानाव्यभिचारिणा प्रामाण्यमिति कुत एव ज्ञानग्राहकप्राह्यता प्रामाण्यस्य । अथ केनचिज्ज्ञातताविशेषेण प्रमाणज्ञानाव्यभिचारिणा ज्ञानप्रामाण्ये सहैव गृह्येते । एवं चेदप्रामाण्येऽपि शक्यमिदं वक्तुम् । केनचिज्ज्ञातताविशेषेण अप्रमाणज्ञानाव्यभिचारिणा ज्ञानाप्रामाण्ये सहैव गृह्येते इत्यप्रामाण्यमपि स्वत एव गृह्यताम् ।

अथेवमप्यप्रामाण्यं परतस्तर्हि प्रामाण्यमपि परत एव गृह्यताम् । ज्ञानग्राहकादन्यत इत्यर्थः । ज्ञानं हि मानसप्रत्यक्षेणैव गृह्यते प्रामाण्यं पुनरनुमानेन । तथाहि जलज्ञानानन्तरं जलार्थिनः प्रवृत्तिर्द्वेधा, फलवती, अफला चेति । तत्र या फलवती प्रवृत्तिः सा समर्था तया तज्ज्ञानस्य याथार्थ्यलक्षणं प्रामाण्यमनुमीयते । प्रयोगश्च विवादाध्यासितं जलज्ञानं प्रमाणं, समर्थप्रवृत्तिजनकत्वात् । यन्न प्रमाणं तन्न समर्थां प्रवृत्तिं जनयति यथा प्रमाणाभास इति केवलव्यतिरेकी ।

अत्र च फलवत्प्रवृत्तिजनकं यज्जलज्ञानं तत्पक्षः, तस्य प्रामाण्यं साध्यं याथार्थ्यमित्यर्थः । न तु प्रमाकरणत्वं, स्मृत्या व्यभिचारापत्तेः । हेतुस्तु समर्थप्रवृत्तिजनकत्वं फलवत्प्रवृत्तिजनकत्वमिति यावत् ।

अनेन तु केवलव्यतिरेक्यनुमानेनाभ्यासदशापन्नस्य ज्ञानस्य प्रामाण्येऽवबोधिते तद्दृष्टान्तेन जलप्रवृत्तेः पूर्वमपि तज्जातीयत्वेन लिङ्गेनान्वयव्यतिरेक्यनुमानेनान्यस्य ज्ञानस्यानभ्यासदशापन्नस्य प्रामाण्यमनुमीयते । तस्मात् परत एव प्रामाण्यं न ज्ञानग्राहकेणैव गृह्यत इति ।

चत्वार्येव प्रमाणानि युक्तिलेशोक्तिपूर्वकम् ।

केशवो बालबोधाय यथाशास्त्रमवर्णयत् ॥

इति प्रमाणपदार्थः समाप्तः ।

प्रमेयनिरूपणम्

प्रमाणान्युक्तानि, अथ प्रमेयाण्युच्यन्ते ।

'आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम्' इति सूत्रम् ।

तत्रात्मत्वसामान्यवानात्मा । स च देहेन्द्रियादिव्यतिरिक्तः, प्रतिशरीरं भिन्नो नित्यो बिभुश्च । स च मानसप्रत्यक्षः । विप्रतिपत्तौ तु बुद्ध्यादिगुणलिङ्गकः । तथा हि बुद्ध्यादयस्तावद् गुणाः अनित्यत्वे सत्येकेन्द्रियमात्रग्राह्यत्वात् । गुणश्च गुण्याश्रित एव ।

तत्र बुद्ध्यादयो न गुणा भूतानां मानसप्रत्यक्षत्वात् । ये हि भूतानां गुणास्ते न मनसा गृह्यन्ते यथा रूपादयः । नापि दिक्कालमनसां गुणा, विशेषगुणत्वात् । ये हि दिक्कालादिगुणाः संख्यादयो न ते विशेषगुणास्ते हि सर्वद्रव्यसाधारणगुणा एव । बुद्ध्यादयस्तु बिशेषगुणा, गुणत्वे सत्येकेन्द्रियमात्रग्राह्यत्वाद्, रूपवत् अतो न दिगादिगुणाः ।

तस्मादेभ्योऽष्टभ्यो व्यतिरिक्तो बुद्ध्यादीनां गुणानामाश्रयो वक्तव्यः स एवात्मा ।

प्रयोगश्च, बुद्धयादयः पृथिव्याद्यष्टद्रव्यव्यतिरिक्तद्रव्याश्रिताः, पृथिव्याद्यष्टद्रव्यानाश्रितत्वे सति गुणत्वात्। यस्तु पृथिव्याद्यष्टद्रव्यव्यतिरिक्तद्रव्याश्रितो न भवति, नासौ पृथिव्याद्यष्टद्रव्यव्यतिरिक्तद्रव्यानाश्रितत्वे सति गुणोऽपि भवति यथा रूपादिरिति केवलव्यतिरेकी । अन्वयव्यतिरेकी वा । तथाहि, बुद्ध्यादयः पृथिव्याद्यष्टद्रव्यव्यतिरिक्तद्रव्याश्रिताः पृथिव्याद्यष्टद्रव्यानाश्रितत्वे सति गुणत्वात् । यो यदनाश्रितो गुणः स तदतिरिक्ताश्रितो भवति । यथा पृथिव्याद्यनाश्रितः शब्दः पृथिव्याद्यतिरिक्ताकाशाश्रय इति । तथा च बुद्ध्यादयः पृथिव्याद्यष्टद्रव्यातिरिक्ताश्रयाः ।

तदेवं पृथिव्याद्यष्टद्रव्यव्यतिरिक्तो नवमं द्रव्यमात्मा सिद्धः । स च सर्वत्र कार्योपलम्भाद् विभुः, परममहत्परिमाणवानित्यर्थः । विभुत्वाच्च नित्योऽसौ व्योमवत् । सुखादीनां वैचित्र्यात् प्रतिशरीरं भिन्नः ।

शरीरम्

तस्य भोगायतनमन्त्यावयवि 'शरीरम्' । सुखदुःखान्यतरसाक्षात्कारो भोगः । स च यदवच्छिन्न आत्मनि जायते तद्भोगायतनं , तदेव शरीरम् । चेष्टाश्रयो वा शरीरम् । चेष्टा तु हिताहितप्राप्तिपरिहारार्था क्रिया, न तु स्पन्दनमात्रम् ।

तस्य भोगायतनं अन्त्यावयवि 'शरीरम्' । यह शरीर का लक्षण किया गया है। उस आत्मा के भोग का आश्रय अन्त्य अवयवी शरीर कहलाता है।

इन्द्रियम्

शरीरसंयुक्तं ज्ञानकरणमतीन्द्रियं इन्द्रियम्' । अतीन्द्रिमिन्द्रियमित्युच्यमाने कालादेरपीन्द्रियत्वप्रसङ्गोऽत उक्तं ज्ञानकरणमिति । तथापीन्द्रियसन्निकर्षेतिप्रसङ्गोऽत उक्तं शरीरसंयुक्तमिति । शरीर संयुक्तं ज्ञानकरणमिन्द्रियमित्युच्यमाने आलोकादेरिन्द्रियत्वप्रसङ्गोऽत उक्तमतीन्द्रियमिति । तानि चेन्द्रियाणि षट् । घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्रमनांसि ।

तत्र गन्धोपलब्धिसाधनमिन्द्रियं घ्राणम् । नासाग्रवर्ति । तच्च पार्थिवं गन्धवत्वाद् घटवत् । गन्धवत्वञ्च गन्धग्राहकत्वात् । यदिन्द्रियं रूपादिषु पञ्चसु मध्ये यं गुणं गृह्णाति तदिन्द्रियं तद्गुणसंयुक्तं, तथा चक्षु रूपग्राहकं रूपवत् ।

रसोपलब्धिसाधनमिन्द्रियं रसनम् । जिह्वाग्रवति । तच्चाप्यं रसवत्वात् । रसवत्वञ्च रूपादिषु पञ्चसु मध्ये रसस्यैवाभिव्यञ्जकत्वाल्लालावत् ।

रूपोपलब्धिसाधनमिन्द्रियं चक्षुः । कृष्णताराग्रवर्ति । तच्च तैजसं, रूपादिषु पञ्चसु मध्ये रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् प्रदीपवत् ।

स्पर्शोपलब्धिसाधनमिन्द्रियं त्वक् सर्वशरीरव्यापि । तत्तु वायवीयं रूपादिपु पञ्चसु मध्ये स्पर्शस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् अङ्गसङ्गिसलिलशैत्याभिव्यञ्जकव्यजनवातवत् ।

शब्दोपलब्धिसाधनमिन्द्रियं श्रोत्रम् । तच्च कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नमाकाशमेव, न द्रव्यान्तरं शब्दगुणत्वात् । तदपि शब्दग्राहकत्वात् । यदिन्द्रियं रूपादिषु पञ्चसु मध्ये यद्गुणव्यञ्जकं तत् तद्गुणसंयुक्तं यथा चक्षुरादि रूपग्राहकं रूपादियुक्तम् । शब्दग्राहकञ्च श्रोत्रमतः शब्दगुणकम् ।

सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः । तञ्चाणुपरिमाणं, हृदयान्तर्वर्ति ।

ननु चक्षुरादीन्द्रियसद्भावे किं प्रमाणम् ? उच्यते । अनुमानमेव । तथाहि रूपाद्युपलब्धयः करणसाध्याः क्रियात्वात्, छिदिक्रियावत् ।

अर्थाः

अर्थाः षट्पदार्थाः । ते च द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः । प्रमाणादयो यद्यप्यत्रैवान्तर्भवन्ति तथापि प्रयोजनवशाद् भेदेन कीर्तनम् । तत्र समवायिकारणं द्रव्यम् । गुणाश्रयो वा । तानि च द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्याकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव ।

पृथिव्यादि द्रव्याणि

तत्र पृथिवीत्वसामान्यवती पृथिवी काठिन्यकोमलत्वाद्यवयवसंयोगविशेषेण युक्ता । घ्राण-शरीर-मृत्पिण्ड-पाषाण-वृक्षादिरूपा । रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभाग-परत्व-अपरत्व-गुरुत्व-द्रवत्व-संस्कारवती । सा च द्विविधा, नित्याऽनित्या च । नित्या परमाणुरूपा । अनित्या च कार्यरूपा । द्विविधायाः पृथिव्या रूप-रस-गन्ध-स्पर्शो अनित्याः पाकजाश्च । पाकस्तु तेजः संयोगः, तेन पृथिव्याः पूर्व रूपादयो नश्यन्त्यन्ये जन्यन्त इति पाकजाः ।

अप्त्वसामान्ययुक्ता आपः । रसनेन्द्रियशरीरसरित्समुद्रहिमकरकादिरूपाः । गन्धवर्जस्नेहयुक्तपूर्वोक्तगुणवत्यः । नित्या अनित्याश्च । नित्यानां रूपादयो नित्या एव । अनित्यानां रूपादयोऽनित्या एव ।

तेजस्वसामान्यवत् तेजः । चक्षुःशरीरसवितृसुवर्णवह्निविद्युदादिप्रभेदम् । रूप-स्पर्श-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभाग-परत्वाऽपरत्व-द्रवत्व-संस्कारवत् । नित्यमनित्यञ्च पूर्ववत् । तच्चतुर्विधम् ।

१. उद्भूतरूपस्पर्शम् । २. अनुद्भूतरूपस्पर्शम् । ३. अनुद्भूतरूपमुद्भूतस्पर्शम् । ४. उद्भूतरूपमनुद्भूतस्पर्शञ्चेति ।

उद्भूतरूपस्पर्श यथा सौरादितेजः पिण्डीभूतं तेजो वह्न्यादिकम् ।

सुवर्णन्तु उद्भूताभिभूतरूपस्पर्शम् । तदनुद्भूतरूपत्वेऽचाक्षुषं स्यात्, अनुद्भूतस्पर्शत्वे त्वचा न गृह्येत । अभिभवस्तु बलवत्सजातीयेन पार्थिवरूपेण स्पर्शन च कृत: ।

अनुद्भूतरूपस्पर्शं तेजो यथा चक्षुरिन्द्रियम् । अनुद्भूतरूपमुद्भूतस्पर्शं यथा तप्तवारिस्थं तेजः । उद्भूतरूपमनुद्भूतस्पर्शं यथा प्रदीपप्रभामण्डलम् ।

वायुत्वाभिसम्बन्धवान् वायुः । त्वगिन्द्रियप्राणवातादिप्रभेदः । स्पर्श संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभाग-परत्व-अपरत्व-वेगवान् । स च स्पर्शाद्यनुमेयः । तथाहि योऽयं वायौ वाति, अनुष्णाशीतस्पर्श उपलभ्यते स गुणत्वाद् गुणिनमन्तरेणानुपपद्यमानो गुणिनमनुमापयति । गुणी च वायुरेव । पृथिव्याद्यनुपलब्धेः । वायुपृथिवीव्यतिरेकेण अनुष्णाशीतस्पर्शाभावात् । स च द्विविधो नित्याऽनित्यभेदात् । नित्यः परमाणुरूपो वायुः, अनित्यः कार्यरूप एव ।

कार्यद्रव्याणामुत्पत्तिविनाशक्रमः

तत्र पृथिव्यादीनां चतुर्णां कार्यद्रव्याणामुत्पत्तिविनाशक्रमः कथ्यते द्वयोः परमाण्वोः क्रियया संयोगे सति द्वयणुकमुत्पद्यते । तस्य परमाणु समवायिकारणं, तत्संयोगोऽसमवायिकारणम्, अदृष्टादि निमित्तकारणम् । ततो द्वयणुकानां त्रयाणां क्रियया संयोगे सति त्र्यणुकमुत्पद्यते । तस्य द्वयणुकानि समवायिकारणं, शेषं पूर्ववत् । एवं त्र्यणुकैश्चतुर्भिश्चतुरणुकम् । चतुरणुकैरपरं स्थूलतरं, स्थूलतरैरपरं स्थूलतमम् । एवं क्रमेण महापृथिवी, महत्य आपो, महत् तेजो, महांश्च वायुरुत्पद्यते । कार्यगता रूपादयः स्वाश्रयसमवायिकारणगतेभ्योरूपादिभ्यो जायन्ते । 'कारणगुणा हि कार्यगुणानारभन्ते' इति न्यायात् ।

इत्थमुत्पन्नस्य रूपादिमतः कार्यद्रव्यस्य घटादेरवयवेषु कपालादिषु नोदनादभिघाताद्वा क्रिया जायते । तया विभागस्तेनावयव्यारम्भकस्यासमवायिकारणीभूतस्य संयोगस्य नाशः क्रियते, ततः कार्यद्रव्यस्य घटादेरवयविनो नाशः । एतेनावयव्यारम्भकासमवायिकारणनाशे द्रव्यनाशो दर्शितः ।

क्वचित् समवायिकारणनाशे द्रव्यनाशो यथा पूर्वोक्तस्यैव पृथिव्यादेः संहारे सञ्जिहीर्षोर्महेश्वरस्य सञ्जिहीर्षा जायते । ततो द्वयणुकारम्भकेषु परमाणुषु क्रिया, तया विभागः, ततस्तयोः संयोगनाशे सति द्वयणुकेषु नष्टेषु स्वाश्रयनाशात् त्र्यणुकादिनाशः । एवं क्रमेण पृथिव्यादिनाशः । यथा वा तन्तूनां नाशे पटनाशः । तद्गतानां रूपादीनां स्वाश्रयनाशेनैव नाशः । अन्यत्र तु सत्येवाश्रये विरोधिगुणप्रादुर्भावेण विनाशः । यथा पाकेन घटादौ रूपादिनाश इति ।

परमाणुसिद्धिः

किं पुनः परमाणुसद्भावे प्रमाणम् ?

उच्यते, यदिदं जालं सूर्यमरीचिस्थं सर्वतः सूक्ष्मतमं रज उपलभ्यते तत् स्वल्पपरिमाणद्रव्यारब्धं कार्यद्रव्यत्वाद् घटवत् । तच्च द्रव्यं कार्यमेव महद्द्रव्यारम्भकस्य कार्यत्वनियमात् । तदेवं द्वयणुकाख्यं द्रव्यं सिद्धम् । तदपि स्वल्पपरिमाणसमवायिकारणारब्धं कार्यद्रव्यत्वाद् घटवत् । यस्तु द्वययणुकारम्भकः स एव परमाणुः । स चानारब्ध एव ।

ननु कार्यद्रव्यारम्भकस्य कार्यद्रव्यत्वाभिचारात् तस्य कथमनारब्धत्वम् ? उच्यते, अनन्तकार्यपरम्परादोषप्रसङ्गात् । तथा च सत्यनन्तद्रव्यारब्धत्वाविशेषेण मेरुसर्षपयोरपि तुल्यपरिमाणत्वप्रसङ्गः । तस्मादनारब्ध एव परमाणुः ।

द्व्यणुकादीनामवयवनियमः

द्व्यणुकं तु द्वाभ्यामेव परमाणुभ्यामारभ्यते । एकस्यानारम्भकत्वात्, त्र्यादिकल्पनायां प्रमाणाभावात् । त्र्यणुकं तु त्रिभिरेव द्वयणुकैरारभ्यते । एकस्यानारम्भकत्वात् । द्वाभ्यामारम्भे कार्यगुणमहत्त्वानुपपत्तिप्रसङ्गात् । कार्ये हि महत्त्वं कारणमहत्त्वाद्वा कारणबहुत्वाद्वा । तत्र प्रथमस्यासम्भवाच्चरममेषितव्यम् । न च चतुरादिकल्पनायां प्रमाणमस्ति त्रिभिरेक महत्त्वारम्भोपपत्तेरिति ।

शब्दगुणमाकाशम् । शब्द-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभागवत् । एकं विभु नित्यञ्च । शब्दलिङ्गकञ्च ।

शब्दलिङ्गकत्वमस्य कथं ?

परिशेषात् । 'प्रसक्तप्रतिषेधेऽन्यत्राप्रसङ्गात् परिशिष्यमाणे सम्प्रत्ययः परिशेषः । तथाहि शब्दस्तावद् विशेषगुणः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाद् रूपादिवत् । गुणश्च गुण्याश्रित एव । न चास्य पृथिव्यादिचतुष्टयमात्मा च गुणी भवितुमर्हति, श्रोत्रग्राह्यत्वाच्छब्दस्य । ये हि पृथिव्यादीनां गुणा न ते श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यन्ते, यथा रूपादयः, शब्दस्तु श्रोत्रेण गृह्यते । न दिक्कालमनसां गुणो विशेषगुणत्वात् | अत एभ्योऽष्टभ्योऽतिरिक्तः शब्दगुणी एषितव्यः, स एवाकाश इति ।

स चैको, भेदे प्रमाणाभावात् । एकत्वेनैवोपपत्तेः । एकत्वाच्चाकाशत्वं नाम सामान्यमाकाशे न विद्यते सामान्यस्यानेकवृत्तित्वात्-विभु चाकाशम् परममहत्परिमाणवदित्यर्थः' । सर्वत्र तत्कार्योपलब्धेः । अतएव विभु त्वान्नित्यमिति ।

कालोऽपि दिग्विपरीतपरत्वापरत्वानुमेयः । संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभागवान् । एको नित्यो विभुश्च । कथमस्य दिग्विपरीतपरत्वापरत्वानुमेयत्वम् । उच्यते । सन्निहिते वृद्धे सन्निधानादपरत्वार्हे तद्विपरीतं परत्वं प्रतीयते । व्यवहिते यूनि व्यवधानात् परत्वार्हे तद्विपरीतमपरत्वम् । तदिदं तत्तद्विपरीतं परत्वमपरत्वञ्ज कार्यं तत्कारणस्य दिगादेरसम्भवात् कालमेव कारणमनुमापयति । स चैकोऽपि वर्तमानातीतभविष्यत्क्रियोपाधिवशाद् वर्तमानादिव्यपदेशं लभते, । पुरुष इव पच्यादिक्रियोपाधिवशात् पाचक-पाठकादिव्यपदेशम् । नित्यत्वविभुत्वे चास्य पूर्ववत् ।

कालविपरीतपरत्वापरत्वानुमेया दिक् । एका नित्या विभ्वी च । संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभागवती । पूर्वादिप्रत्ययैरनुमेया । तेषामन्यनिमित्तासम्भवात् । पूर्वस्मिन् पश्चिमे वा देशे स्थितस्य वस्तुनस्तादवस्थ्यात् । सा चैकापि सवितुस्तत्तद्देशसंयोगोपाधिवशात् प्राच्यादिसंज्ञां लभते ।

आत्मत्वाभिसम्बन्धवान् आत्मा । सुखदुःखादिवैचित्र्यात् प्रतिशरीरं भिन्नः । स चोक्त एव । तस्य सामान्यगुणाः संख्यादयः पञ्च, बुद्ध्यादयो नव विशेषगुणाः । नित्यत्व-विभुत्वे पूर्ववत् ।

मनस्त्वाभिसम्बन्धवन्मनः । अणु, आत्मसंयोगि, अन्तरिन्द्रियम् सुखाद्युपलब्धिकारणं नित्यञ्च । संख्याद्यष्टगुणवत् । तत्संयोगेन बाह्येन्द्रियमर्थग्राहकम् । अतएव सर्वोपलब्धिसाधनम् । तच्च न प्रत्यक्षम्, अपित्वनुमानगम्यम् । तथाहि सुखाद्युपलब्धयश्चक्षुराद्यतिरिक्तकरणसाध्याः, असत्स्वपि चक्षुरादिषु जायमानत्वात् । यद्वस्तु यद्विनैवोत्पद्यते तत् तदतिरिक्तकरणसाध्यं, यथा कुठारं विनोत्पद्यमाना पचनक्रिया तदतिरिक्तवह्न्यादिकरणसाध्या । यच्च करणं तन्मनः तञ्च चक्षुराद्यतिरिक्तम् । तच्चाणुपरिमाणम् । द्रव्याण्युक्तानि।

गुणाः

अथ गुणा उच्यन्ते । सामान्यवान् असमवायिकारणं स्पन्दात्मा गुणः । स च द्रव्याश्रित एव । रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभाग-परत्व-अपरत्व-गुरुत्व-द्रवत्व-स्नेह-शब्द-बुद्धि-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्म-अधर्म-संस्कार-भेदाच्चतुर्विंशतिधा ।

१- तत्र रूपं चक्षुर्मात्रग्राह्यो विशेषगुणः । पृथिव्यादित्रयवृत्ति । तच्च शुक्लाद्यनेकप्रकारकम् । पाकञ्च पृथिव्याम् । तच्चाऽनित्यं पृथिवीमात्रे । आप्यतैजसपरमाण्वोर्नित्यम् । आप्यतैजसकार्येष्वनित्यम् । शुक्लभास्वरमपाकजं तेजसि । तदेवाभास्वरमप्सु ।

२- रसो रसनेन्द्रियग्राह्यो विशेषगुणः पृथिवीजलवृत्तिः । तत्र पृथिव्यां मधुरादिषट्प्रकारो मधुर-अम्ल-लवण-कटु-कषाय-तिक्त-भेदात्, पाकजश्च अप्सु मधुरोऽपाकजो नित्योऽनित्यश्च । नित्यः परमाणुभूतास्वप्सु कार्यभूतास्वनित्यः ।

३- गन्धो घ्राणग्राह्यो विशेषगुणः । पृथिवीमात्रवृत्तिः । अनित्य एव । स द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । जलादौ गन्धप्रतिभानं तु संयुक्तसमवायेन द्रष्टव्यम् ।

४- स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यो विशेषगुणः । पृथिव्यादिचतुष्टयवृत्तिः । स च त्रिविधः शीत-उष्ण-अनुष्णाशीतभेदात् । शीतः पयसि, उष्णस्तेजसि, अनुष्णाशीतः पृथिवीवाय्वोः । पृथिवीमात्रे ह्यनित्यः । आप्य-तैजस-वायवीयपरमाणुषु नित्यः, आप्यादिकार्येष्वनित्यः । एते च रूपादयश्चत्वारो महत्त्वैकार्थसमवेतत्वे सत्युद्भूता एव प्रत्यक्षाः ।

५- संख्या एकत्वादिव्यवहारहेतुः सामान्यगुणः । एकत्वादिपरार्द्धपर्यन्ता । तत्रैकत्वं द्विविधं नित्यानित्यभेदात् । नित्यगतं नित्यमनित्यगतमनित्यम् । स्वाश्रयसमवायिकारणगतैकत्वजन्यञ्च । द्वित्वञ्चानित्यमेव । तच्च द्वयोः पिण्डयोः 'इदमेकम्' इत्यपेक्षाबुद्धया जन्यते । तत्र द्वौ पिण्डौ समवायिकारणे । पिण्डयोरेकत्वे असमवायिकारणे, अपेक्षाबुद्धिर्निमित्तकारणम् । अपेक्षाबुद्धिविनाशादेव द्वित्वविनाशः । एवं त्रित्वाद्युत्पत्तिर्विज्ञेया ।

६- परिमाणं मानव्यवहारासाधारणं कारणम् । तच्चतुर्विधम्, अणु, महद्, दीर्घ, ह्रस्वञ्चेति । तत्र कार्यगतं परिमाणं सख्या-परिमाण-प्रचय-योनि । तद्यथा द्व्यणुकपरिमाणमीश्वरापेक्षाबुद्धिजन्यपरमाणुद्वित्वजनितत्वात् संख्यायोनि, संख्याकारणकमित्यर्थः । त्र्यणुकपरिमाणञ्च स्वाश्रयसमवायिकारणगतबहुत्वसंख्यायोनि । चतुरणुकादिपरिमाणन्तु स्वाश्रयसमवायिकारणपरिमाणजन्यम् । तूलपिण्डपरिमाणन्तु स्वाश्रयसमवायि-कारणावयवानां प्रशिथिलसंगोगजन्यम् । परमाणुपरिमाणञ्चाकाशादिगतं नित्यमेव ।

७- पृथक्त्वम् पृथग्यवहारासाधारणं कारणम् । तच्च द्विविधम । एकपृथक्त्वं द्विपृथक्त्वादिकञ्च । तत्राद्यं नित्यगतं नित्यमनित्यगतमनित्यम् । द्विपृथक्त्वादिकञ्चानित्यमेव ।

८- संयोगः संयुक्तव्यवहारहेतुर्गुणः । स च द्वयाश्रयोऽव्याप्यवृत्तिश्च । स च त्रिविधः । अन्यतरकर्मजः, उभयकर्मजः, संयोगजश्चेति । तत्रान्यतरकर्मजो यथा क्रियावता श्येनेन सह निष्क्रियस्य स्थाणोः संयोगः । अस्य हि श्येनक्रिया असमवायिकारणम् । उभयकर्मजो यथा सक्रिययोर्मल्लयोः संयोगः । संयोगजो यथा कारणाकारणसंयोगात् कार्याकार्यसंयोगः । यथा हस्ततरुसंयोगेन कायतरुसंयोगः ।

६- विभागोऽपि विभक्तप्रत्ययहेतुः । संयोगपूर्वको द्वयाश्रयः । स च त्रिविधोऽन्यतरकर्मजः, उभयकर्मजो विभागजश्चेति । तत्र प्रथमो यथा श्येनक्रियया शैलश्येनयोर्विभागः । द्वितीयो यथा मल्लयोर्विभागः । तृतीयो यथा हस्ततरुविभागात् कायतरुविभागः ।

द्वित्वे च पाकजोपत्तौ विभागे च विभागजे ।

यस्य न स्खलिता बुद्धिस्तं वै वैशेषिकं विदुः ॥

१०-११- परत्वापरपरत्वे परापरव्यवहारासाधारणकारणे । ते तु द्विविधे दिक्कृते कालकृते च । तत्र दिक्कृतयोरुत्पत्तिः कथ्यते । एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोरिदमस्मात् सन्निकृष्टमिति बुद्ध्यानुगृहीतेन दिक्पिण्डसंयोगेनापरत्वं सन्निकृष्टे जन्यते । विप्रकृष्टबुद्ध्या तु परत्वं विप्रकृष्टे जन्यते । सन्निकर्षस्तु पिण्डस्य द्रष्टुः शरीरापेक्षया संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वम् । तद्भूयस्त्वं विप्रकर्ष इति ।

कालकृतयोस्तु परत्वापरत्वयोरुत्पत्तिः कथ्यते । अनियतदिगवस्थितयोर्युवस्थविरपिण्डयोः 'अयमस्मादल्पतरकालसम्बद्धः' इत्यपेक्षाबुद्ध्यानुगृहीतेन कालपिण्डसंयोगेनासमवायिकारणेन यूनि, अपरत्वम् । 'अयमस्माद् बहुतरकालेन सम्बद्धः' इति धिया स्थविरे परत्वम् ।

१२- गुरुत्वमाद्यपतनासमवायिकारणम् । पृथिवीजलवृत्ति यथोक्तं-संयोग-वेग-प्रयत्नाभावे सति गुरुत्वात् पतनमिति ।

१३- द्रवत्वमाद्यस्यन्दनासमवायिकारणम् । भूतेजोजलवृत्ति । भूतेजसोर्घृतादिसुवर्णयोरग्निसंयोगेन द्रवत्वं नैमित्तिकम् । जले नैसर्गिक द्रवत्वम् ।

१४- स्नेहश्चिक्कणता । जलमात्रवृत्तिः, कारणगुणपूर्वको, गुरुत्वादिवद् यावद्द्रव्यभावी ।

१५- शब्दः श्रोत्रग्राह्यो गुणः । आकाशस्य विशेषगुणः ।

ननु कथमस्य श्रोत्रेण ग्रहणं यतो भेर्यादिदेशे शब्दो जायते श्रोत्रन्तु पुरुषदेशेऽस्ति । सत्यम् । भेरीदेशे जातः शब्दो वीचीतरङ्गन्यायेन कदम्बमुकुलन्यायेन वा सन्निहितं शब्दान्तरमारभते । स च शब्दः शब्दान्तरमितिक्रमेण श्रोत्रदेशे जातोऽन्त्यः शब्दः श्रोत्रेण गृह्यते न त्वाद्यो नापि मध्यमः । एवं वंशे पाट्यमाने दलद्वयविभागदेशे जातः शब्दः शब्दान्तरारम्भक्रमेण श्रोत्रदेशेऽन्त्यं शब्दं जनयति । सोऽन्त्यः शब्दः श्रोत्रेण गृह्यते नाद्यो न मध्यमः । भेरीशब्दो मया श्रुत' इति मतिस्तु भ्रान्तैव । भेरीशब्दोत्पत्तौ भेर्याकाश-संयोगोऽसमवायिकारणं, भेरीदण्डसंयोगो निमित्तकारणम् । एवं वंशोत्पाटनाच्चटचटाशब्दोत्पत्तौ वंशदलाकाशविभागोऽसमवायिकारणं, दलद्वयविभागो निमित्तकारणम् । इत्थमाद्यः शब्दः संयोगजो विभागजो वा । अन्त्यमध्यमशब्दास्तु शब्दासमवायिकारणका अनुकूल वातनिमित्तकारणकाः । यथोक्तं - "संयोगाद् विभागाच्छ-ब्दाञ्च शब्द निष्पत्तिः' इति । आद्यादीनां सर्वशब्दानामाकाशमेकमेव समवायिकारणम् । कर्मबुद्धिवत् त्रिक्षणावस्थायित्वम् । तत्राद्यमध्यमशब्दाः कार्यशब्दनाश्याः । अन्त्यस्तूपान्त्वेन उपान्तस्त्वन्त्येन सुन्दोपसुन्दन्यायेन विनश्येते । इदं त्वयुक्तम् । उपान्त्येन त्रिक्षणावस्थायिनोऽन्त्यस्य, द्वितीयक्षणमात्रानुगामिना तृतीयक्षणे चासताऽन्त्यनाशजननासम्भवात् । तस्मादुपान्त्यनाशादेवान्त्यनाश इति । विनाशित्वञ्च शब्दस्यानुमानत् । तथाहि, अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाद् घटवदिति । शब्दस्यानित्यत्वं साध्यम् । अनित्यत्वञ्च विनाशावच्छिन्नस्वरूपत्वं, न तु विनाशावच्छिन्नसत्तायोगित्वं, प्रागभावे सत्ताहीनेऽनित्यत्वाभावप्रसङ्गात् । सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वं हेतुः । इन्द्रियग्राह्यत्वादित्युच्यमाने आत्मनि व्यभिचारः स्यादत उक्तं बाह्येति । एवमपि तेनैव योगिबाह्येन्द्रियेण ग्राह्ये परमाण्वादौ व्यभिचारः स्यादतो योगिनिरासार्थमुक्तमस्मदादीति ।

किं पुनर्योगिसद्भावे प्रमाणम् ?

उच्यते । परमाणवः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वाद् घटवदिति । तथापि सामान्यादिना व्यभिचारोऽत उक्तं सामान्यवत्त्वे सतीति । सामान्यादित्रयस्य निःसामान्यत्वात् ।

१६- अर्थप्रकाशो बुद्धिः । नित्याऽनित्या च । ऐशी बुद्धिर्नित्या, अन्यदीया त्वनित्या ।

१७- प्रीतिः सुखम् । तच्च सर्वात्मनामनुकूलवेदनीयम् ।

१८- पीडा दुःखम् । तच्च सर्वात्मनां प्रतिकूलवेदनीयम् ।

१९- राग इच्छा ।

२०- क्रोधो द्वेषः ।

२१- उत्साहः प्रयत्नः ।

बुद्ध्यादयः षड् मानसप्रत्यक्षाः ।

२-२३- धर्माऽधर्मौ सुखदुःखयोरसाधारणकारणे । तौ चाप्रत्यक्षावप्यागमगम्यावनुमानगम्यौ च । तथाहि देवदत्तस्य शरीरादिकं देवदत्तविशेषगुणजन्यं कार्यत्वे सति देवदत्तस्य भोगहेतुत्वात् । देवदत्तप्रयत्नजन्यवस्तुवत् । यश्च शरीरादिजनक आत्मविशेषगुणः स एव धर्मोऽधर्मश्च । प्रयत्नादीनां शरीराद्यजनकत्वादिति ।

२४- संस्कारव्यवहाराऽसाधारणं कारणं संस्कारः ।

संस्कारस्त्रिविधो वेगो भावना स्थितिस्थापकश्च । तत्र वेगः पृथिव्यादिचतुष्टयमनोवृत्तिः । स च क्रियाहेतुः। भावनाख्यस्तु संस्कार आत्ममात्रवृत्तिरनुभवजन्यः स्मृतिहेतुः । स चोद्बुद्ध एव स्मृतिं जनयति । उद्बोधश्च सहकारिलाभः । सहकारिणश्च संस्कारस्य सदृशदर्शनादयः । तथा चोक्तम् –

'सादृश्यादृष्टचिन्ताद्याः स्मृतिबीजस्य बोधकाः ।'

इति । स्थितिस्थापकस्तु स्पर्शवद्द्रव्यविशेषवृत्तिः । अन्यथाभूतस्य स्वाश्रयस्य धनुरादेः पुनस्तादवस्थ्यापादकः । एते च बुद्ध्यादयोऽधर्मान्ता भावना च आत्मविशेषगुणाः ।

गुणा उक्ताः ।

कर्माणि

कर्माणि उच्यन्ते । चलनात्मकं कर्म, गुण इव द्रव्यमात्रवृत्ति । अविभुद्रव्यपरिमाणेन मूर्तत्वापरनाम्ना सहैकार्थसमवेतं विभागद्वारा पूर्वसंयोगनाशे सत्युत्तरदेशसंयोगहेतुश्च । तच्च उत्क्षेपण-अपक्षेपण-आकुञ्चन- प्रसारण-गमनभेदात् पञ्चविधम् । भ्रमणादयस्तु गमनग्रहणेनैव गृह्यन्ते ।

सामान्यम्

अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सामान्यम् । द्रव्यादित्रयवृत्ति, नित्यमेकमनेकानुगतञ्च । तच्च द्विविधं, परमपरञ्च । परं सत्ता बहुविषयत्वात् । सा चानुवृत्तिप्रत्ययमात्रहेतुत्वात् सामान्यमात्रम् । अपरं द्रव्यत्वादि । अल्पविषयत्वात् । तञ्च व्यावृत्तेरपि हेतुत्वात् सामान्यं सद् विशेषः ।

अत्र कश्चिदाह 'व्यक्तिव्यतिरिक्तं सामान्यं नास्ति' इति । तत्र वयं ब्रूमः किमालम्बना तर्हि भिन्नेषु विलक्षणेषु पिण्डेष्वेकाकारा बुद्धिर्विना सर्वानुगतमेकम् । यश्च तदालम्बनं तदेव सामान्यमिति ।

ननु तस्याऽतद्व्यावृत्तिकृतैवैकाकारा बुद्धिरस्तु । तथाहि, सर्वेष्वेव हि गोपिण्डेषु, अगोभ्योऽश्वादिभ्यो व्यावृत्तिरस्ति । तेनागोव्यावृत्तिबिषय एवायमेकाकारः प्रत्ययोऽनेकेषु, न तु विधिरूपगोत्वसामान्यविषयः । मैवम्। विधिमुखेनैवैकाकारस्फुरणात् ।

विशेषः

विशेषो नित्यो नित्यद्रव्यवृत्तिः । व्यावृत्तिबुद्धिमात्रहेतुः । नित्यद्रव्याणि त्वाकाशादीनि पञ्च । पृथिव्यादयश्चत्वारः परमाणुरूपाः ।

समवाय

अयुतसिद्धयोः सम्बन्धः समवायः । स चोक्त एव । नन्ववयवावयविनावष्ययुतसिद्धौ तेन तयोः सम्बन्ध: समवाय इत्युक्तम् । न चैतद् युक्तम् । अत्रयवातिरिक्तस्यावयविनोऽभावात् । परमाणव एव बहवस्तथाभूताः सन्निकृष्टाः घटोऽयं घटोऽयमिति गृह्यन्ते ।

अत्रोच्यते । अस्त्येकः स्थूलो घट इति प्रत्यक्षा बुद्धिः । न च सा परमाणुष्वनेकेष्वस्थूलेष्वतीन्द्रियेषु भवितुमर्हति । भ्रान्तेयं बुद्धिरिति चेत् । न । बाधकाभावात् ।

तदेवं षट्पदार्था द्रव्यादयो वर्णिताः । ते च विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वाद् भावरूपा एव ।

अभावरूपः सप्तमः पदार्थः

इदानीं निषेधमुखप्रमाणगम्योऽभावरूपः सप्तमः पदार्थः प्रतिपाद्यते । स च अभावः संक्षेपतो द्विविधः । संसर्गाभावोऽन्योऽन्याभावश्चेति । संसर्गाभावोऽपि त्रिविधः । प्रागभावः, प्रध्वंसाभावोऽत्यन्ताभावश्चेति ।

उत्पत्तेः प्राक् कारणे कार्यस्याभावः प्रागभावः । यथा तन्तुषु पटाभावः । स चानादिरुत्पत्तेरभावात् । विनाशी च, कार्येस्यैव तद्विनाशरूपत्वात् ।

उत्पन्नस्य कारणेऽभावः प्रध्वंसाभावः । प्रध्वंसो विनाश इति यावत् । यथा भग्ने घटे कपालमालायां घटाभावः । स च मुद्गप्रहारादिजन्यः । स चोत्पत्तिमानप्यविनाशी नष्टस्य कार्यस्य पुनरनुत्पत्तेः ।

त्रैकालिकोऽभावोऽत्यन्ताभावः । यथा वायौ रूपाभावः । अन्योन्याभावस्तु तादात्म्यप्रतियोगिताकोऽभावः । 'घटः पटो न भवति' इति । तदेवमर्था व्याख्याताः ।

विज्ञानवादनिरासः

ननु ज्ञानाद् ब्रह्मणो वा अर्था व्यतिरिक्ता न सन्ति । मैवम् । अर्थानामपि प्रत्यक्षादिसिद्धत्वेनाशक्यापलापत्वात् ।

५ बुद्धिः

बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानं प्रत्यय इत्यादिभिः पर्यायशब्दैर्याऽभिधीयते सा बुद्धिः । अर्थप्रकाशो वा बुद्धिः । सा च संक्षेपतो द्विविधा । अनुभव: स्मरणं च । अनुभवोऽपि द्विविधो, यथार्थोऽयथार्थश्चेति ।

तत्र यथार्थोऽर्थाऽविसंवादी । स च प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्जन्यते । यथा चक्षुरादिभिरदुष्टैर्घटादिज्ञानम् । धूमलिङ्गकमग्निज्ञानम् । गोसादृश्यदर्शनाद् गवयशब्दवाच्यताज्ञानम् । 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वाक्याज्ज्योतिष्टोमस्य स्वर्गसाधनताज्ञानञ्च ।

अयथार्थस्तु अर्थव्यभिचारी, अप्रमाणजः । स त्रिविधः । संशयस्तर्को विपर्ययश्चेति, संशयतर्कौ वक्ष्येते ।

विपर्ययस्तु अतस्मिंस्तद्ग्रहः । भ्रम इति यावत् । यथा पुरोवर्तिन्यरजते शुक्तिकादौ रजतारोपः, 'इदं रजतम्' इति । स्मरणमपि यथार्थमयथार्थश्चेति द्विविधम् । तदुभयं जागरे । स्वप्ने तु सर्वं ज्ञानं स्मरणमयथार्थञ्च । दोषवशेन तदिति स्थाने इदमित्युदयात् ।

सर्वञ्च ज्ञानं निराकारमेव न तु ज्ञानेऽर्थेन स्वस्याकारो जन्यते । साकारज्ञानवादनिराकरणात् । अत एवाकारेणार्थानुमानमपि निरस्तम् । प्रत्यक्षसिद्धत्वाद् घटादेः । सर्वं ज्ञानमर्थनिरूप्यं, अर्थप्रतिबद्धस्यैव तस्य मनसा निरूपणात् । घटज्ञानवानहं, इत्येतावन्मात्रं गम्यते न तु 'ज्ञानवानहम्' इत्येतावन्मात्रं ज्ञायते ।

६ मनः

अन्तरिन्द्रियं मनः । तच्चोक्तमेव ।

७ प्रवृत्तिः

प्रवृत्तिः धर्माधर्ममयी यागादिक्रिया, तस्या जगद् व्यवहारसाधकत्वात् ।

८ दोषाः

दोषा राग-द्वेष-मोहाः । राग इच्छा । द्वेषो मन्युः, क्रोध इति यावत् । मोहो मिथ्याज्ञानं विपर्यय इति यावत् ।

९ प्रेत्यभावः

पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः । स चात्मनः पूर्वदेहनिवृत्तिः, अपूर्व देहसङ्घातलाभः ।

१० फलम्

फलं पुनर्भोगः सुखदुःखान्यतरसाक्षात्कारः ।

११ दुःखम्

पीडा दुःखम् । तच्चोक्तमेव ।

१२ अपवर्गः

मोक्षोऽपवर्गः । स चैकविंशतिप्रभेदभिन्नस्य दुःखस्यात्यन्तिकी निवृत्तिः। एकविंशतिभेदास्तु शरीरं, षडिन्द्रियाणि, षड् विषयाः, षड् बुद्धयः, सुखं दुःखञ्चेति गौणमुख्यभेदात् सुखं तु दुःखमेव दुःखानुषङ्गित्वात् । अनुषङ्गोऽविनाभावः । स चायमुपचारो मधुनि विषसंयुक्ते मधुनोऽपि विषपक्षनिक्षेपवत् । स पुनरपवर्गः कथं भवति ? उच्यते । शास्त्राद् विदितसमस्तपदार्थत्त्वस्य, विषयदोषदर्शनविरक्तस्य मुमुक्षोर्ध्यायिनो ध्यानपरिपाकवशात् साक्षात्कृतात्मनः क्लेशहीनस्य, निष्कामकर्मानुष्ठानादनागतधर्माऽधर्मावनर्जयतः पूर्वोपात्तञ्च धर्माऽधर्मप्रचयं योगर्द्धिप्रभावाद् विदित्वा, समाहृत्य भुञ्जानस्य पूर्वकर्मनिवृत्तौ वर्तमानशरीरापगमे पूर्वशरीराभावाच्छरीराद्येकविंशतिदुःखसम्बन्धो न भवति कारणाभावात् । सोऽयमेकविंशतिप्रभेदभिन्नदुःखहा- निर्मोक्षः । सोऽपवर्ग इत्युच्यते ।

३ संशयः

एकस्मिन् धर्मिणि विरुद्धनानार्थावमर्शः संशयः । स च त्रिविधः । विशेषादर्शने सति समानधर्मदर्शनजः, विप्रतिपत्तजः, असाधारणधर्मश्चेति । तत्रैको विशेषादर्शने सति समानधर्मदर्शनजः यथा 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति। एकस्मिन्नेव हि पुरोवर्तिनि द्रव्ये स्थाणुत्वनिश्चायकं वक्रकोटरादिकं पुरुषत्वनिश्चायकञ्च शिरःपाण्यादिकं विशेषमपश्यतः स्थाणुपुरुषयोः समानधर्ममूर्ध्वत्वादिकञ्च पश्यतः पुरुषस्य भवति संशयः 'किमयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति ।

द्वितीयस्तु संशयो विशेषादर्शने सति विप्रतिषत्तिजः । स यथा 'शब्दो नित उत अनित्य' इति । तथा ह्येको ब्रूते शब्दो नित्य इति, अपरो ब्रूते शब्दोऽनित्य इति । तयोर्विप्रतिपत्त्या मध्यस्थस्य पुंसो विशेषमपश्यतो भवति संशयः 'किमयं शब्दो नित्य' उतानित्य इति ।

तृतीयोऽसाधारणधर्मदर्शनजस्तु संशयो यथा नित्यादनित्याच्च व्यावृत्तेन भूमात्रासाधारणेन गन्धवत्त्वेन विशेषमपश्यतो भुवि नित्यत्वानित्यत्वसंशयः । तथाहि 'सकलनित्यव्यावृत्तेन गन्धवत्त्वेन योगाद् भूः किमनित्या, उत सकलानित्यव्यावृत्तेन तेनैव योगान्नित्या' इति संशयः ।

४ प्रयोजनम्

येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत् प्रयोजनम् । तच्च सुखदुःखावाप्तिहाना । तदर्था हि प्रवृत्तिः सर्वस्य ।

५ दृष्टान्तः

वादिप्रतिवादिनोः संप्रतिपत्तिविषयोऽर्थो दृष्टान्तः । स द्विविधः । एकः साधर्म्यदृष्टान्तो यथा धूमवत्त्वस्य हेतोर्महानसम् । द्वितीयस्तु वैधर्म्यदृष्टान्तः । यथा तस्यैव महाहृद इति ।

६ सिद्धान्तः

प्रामाणिकत्वेनाभ्युपगतोऽर्थः सिद्धान्तः । स चतुर्धा । सर्वतन्त्र-प्रतितन्त्र-अधिकरण-अभ्युपगम-सिद्धान्तभेदात् । तत्र सर्वतन्त्रसिद्धान्तो यथा धर्मिमात्रसद्भावः । द्वितीयो यथा नैयायिकस्य मते मनस इन्द्रियत्वम् । तद्धि समानतन्त्रे वैशेषिके सिद्धम् । तृतीयो यथा क्षित्यादिकर्तृत्व सिद्धौ कर्तुः सर्वज्ञत्वम् । चतुर्थो यथा जैमिनीयस्य नित्यानित्यविचारो यथा भवतु, अस्तु 'तावच्छब्दो गुण' इति ।

७ अवयवाः

अनुमानवाक्यस्यैकदेशा अवयवाः । ते च प्रतिज्ञादयः पञ्च । तथा च न्यायसूत्रम् –

'प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः'

तत्र साध्यधर्मविशिष्टपक्षप्रतिपादकं वचनं प्रतिज्ञा, यथा पर्वतोऽयं वह्निमानिति । तृतीयान्तं पञ्चम्यन्तं वा लिङ्गप्रतिपादकं वचनं हेतुः । यथा धूमवत्त्वेन धूमवत्त्वादिति वा । सव्याप्तिकं दृष्टान्तवचनमुदाहरणम् । यथा यो यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा महानस इति । पक्षे लिङ्गोपसंहारवचनमुपनयः । यथा वह्निव्याप्यधूमवांश्चायमिति, तथा चायमिति वा । पक्षे साध्योपसंहारवचनं निगमनम् । यथा तस्मादग्निमान् इति, तस्मात्तथेति वा । एते च प्रतिज्ञादयः पञ्चानुमानवाक्यस्यावयवा इवावयवा, न तु समवायिकारणं, शब्दस्याकाशसमवेतत्वादिति ।

८ तर्कः

तर्कोऽनिष्टप्रसङ्गः । स च सिद्धव्याप्तिकयोर्धर्मयोर्व्याप्याङ्गीकारेण अनिष्टव्यापकप्रसञ्जनरूपः । यथा 'यद्यत्र घटोऽभविष्यत् तर्हि भूतलमिवाद्रक्ष्यत्' इति ।

स चायं तर्क: प्रमाणानामनुग्राहकः । तथाहि 'पर्वतोऽयं साग्निः उतानग्निः' इति सन्देहानन्तरं यदि कश्चिन्मन्येतानग्निरयमिति तदा तं प्रति 'यद्ययमनग्निरभविष्यत् तदानग्नित्वादधूमोऽप्यभविष्यत्' इत्यधूमत्वप्रसञ्जनं क्रियते । स एष प्रसङ्गस्तर्क इत्युच्यते । अयं चानुमानस्य विषयशोधकः । प्रवर्तमानस्य धूमवत्त्वलिङ्गकानुमानस्य विषयमग्निमनुजानाति। अनग्निमत्त्वस्य प्रतिक्षेपात् । अतोऽनुमानस्य भवत्यनुग्राहक इति ।

अत्र कश्चिदाह, 'तर्कः संशय एवान्तर्भवति' इति । तन्न । एककोटिनिश्चितविषयत्वात् तर्कस्य ।

९ निर्णयः

निर्णयोऽवधारणज्ञानम् । तञ्च प्रमाणानां फलम् ।

१० वादः

तत्त्वबुभुत्सोः कथा वादः । स चाष्टनिग्रहाणामधिकरणम् । ते च न्यून-अधिक-अपसिद्धान्ताः, हेत्वाभासपञ्चकञ्च, इत्यष्टौ निग्रहाः ।

११ जल्पः

उभयसाधनवती विजिगीषुकथा जल्पः । सा च यथासम्भवं सर्वनिग्रहाणामधिकरणम् । परपक्षे दूषिते स्वपक्षस्थापनप्रयोगावसानश्च ।

१२ वितण्डा

स एव स्वपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा । सा च परपक्षदूषणमात्रपर्यवसाना । नास्य वैतण्डिकस्य स्थाप्यः पक्षोऽस्ति ।

कथा तु नानावक्तृकपूर्वोत्तरपक्षप्रतिपादकवाक्यसन्दर्भः ।

१३ हेत्वाभासाः

उक्तानां पक्षधर्मत्वादिरूपाणां मध्ये येन केनापि रूपेण हीना अहेतवः । तेऽपि कतिपयहेतुरूपयोगाद्धेतुवदाभासमाना हेत्वाभासाः । ते च असिद्ध-विरुद्ध-अनैकान्तिक-प्रकरणसम- कालात्ययापदिष्ट-भेदात् पञ्चैव ।

अत्रोदयनेन 'व्याप्तस्य हेतोः पक्षधर्मतया प्रतीतिः सिद्धिस्तदभावोऽसिद्धिः' इत्यसिद्धिलक्षणमुक्तम् । तञ्च यद्यपि विरुद्धादिष्वपि सम्भवतीति साङ्कर्यं प्रतीयते । तथापि यथा न साङ्कर्य तथोच्यते । यो हि साधने पुरः परिस्फुरति समर्थश्च दुष्टज्ञतौ स एव दुष्टज्ञप्तिकारको दूषणमिति यावत् नान्य इति । तेनैव पुरावस्फूर्तिकेन दुष्टौ ज्ञापितायां कथापर्यवसाने जाते तदुपजीविनोऽन्यस्यानुपयोगात् । तथा च सति यत्र विरोधो साध्यविपर्ययव्याप्याख्यो दुष्टज्ञप्तिव्यभिचारादयस्तथाभूतास्तेऽनैकान्तिकादयस्त्रयः । ये पुनर्व्याप्तिपक्षधर्मता-विशिष्टहेतुस्वरूपज्ञप्त्यभावेन पूर्वोक्ता असिद्ध्यादयो दुष्टज्ञप्तिकारकाः, दूषणानीति यावत् । तथाभूतः सोऽसिद्धः ।

स च त्रिविधः । आश्रयासिद्ध-स्वरूपासिद्ध-व्याप्यत्वासिद्धभेदात् । तत्र यस्य हेतोराश्रयो नावगम्यते स आश्रयासिद्धः । यथा 'गगनारविन्दं सुरभि, अरविन्दत्वात्, सरोजारविन्दवत् । अत्र हि गगनारविन्दमाश्रयः स च नास्त्येव ।

अयमप्याश्रयासिद्धः । तथाहि 'घटोऽनित्यः कार्यत्वात् पटवत्' इति । नन्वाश्रयस्य घटादे सत्त्वात् कार्यत्वादिति हेतुर्नाश्रयासिद्धः, सिद्धसाधकस्तु स्यात्, सिद्धस्य घटानित्यत्वस्य साधनात् ।

मैवम् । न हि स्वरूपेण कश्चिदाश्रयो भवत्यनुमानस्य, किन्तु सन्दिग्धधर्मवत्त्वेन । तथा चोक्तं भाष्ये –

'नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थेऽपि तु सन्दिग्धेऽर्थे न्यायः प्रवर्तते'

न च घटे नित्यत्वसन्देहोऽस्ति । अनित्यत्वस्य निश्चितत्वात् । तेन यद्यपि स्वरूपेण घटो विद्यते, तथाप्यनित्यत्वसन्देहाभावान्नासावाश्रय इत्याश्रयासिद्धत्वादहेतुः ।

स्वरूपासिद्धस्तु स उच्यते यो हेतुराश्रये नावगम्यते । यथा 'सामान्यमनित्यं कृतकत्वात्' इति । कृतकत्वं हि हेतुराश्रये सामान्ये नास्त्येव ।

भागासिद्धोऽपि स्वरूपासिद्ध एव । यथा 'पृथिव्यादयश्चत्वारः परमाणवो नित्यगन्धवत्त्वात्' इति । गन्धवत्त्वं हि पक्षीकृतेषु सर्वेषु नास्ति, पृथिवीमात्रवृत्तित्वात् । अतएव भागे स्वरूपासिद्धः ।

तथा विशेषणासिद्ध-विशेष्यासिद्ध-असमर्थविशेषणा-सिद्ध-असमर्थविशेष्यासिद्धादयः स्वरूपासिद्धभेदाः। तत्र विशेषणासिद्धो यथा 'शब्दो नित्यो द्रव्यत्वे सत्यस्पर्शत्वात्' । अत्र हि द्रव्यत्वविशिष्टमस्पर्शत्वं हेतुर्नास्पर्शत्वमात्रम् । शब्दे च द्रव्यत्वं विशेषणं नास्ति गुणत्वात्, अतो विशेषणासिद्धः । न चासति विशेषणे द्रव्यत्वे तद्विशिष्टमस्पर्शत्वमस्ति । विशेषणाभावे विशिष्टस्याप्यभावात् । यथा दण्डमात्राऽभावे पुरुषाऽभावे वा दण्ड विशिष्टस्य पुरुषस्याभावः । तेन सत्यप्यस्पर्शत्वे द्रव्यत्वविशिष्टस्य हेतोरभावात् स्वरूपासिद्धत्वम् ।

विशेष्यासिद्धो यथा 'शब्दो नित्योऽस्पर्शत्वे सति द्रव्यत्वात्' इति । अत्रापि विशिष्टो हेतुः । न च विशेष्याऽभावे विशिष्टं स्वरूपमस्ति । विशिष्टश्च हेतुर्नास्त्येव ।

असमर्थविशेषणासिद्धो यथा, 'शब्दो नित्यो गुणत्वे सत्यकारणकत्वात्' । अत्र हि विशेषणस्य गुणत्वस्य न किञ्चित् सामर्थ्यमस्तीति | विशेष्यस्याकारणकत्वस्यैव नित्यत्वसाधने सामर्थ्यात् । अतोऽसमर्थविशेषणता । स्वरूपासिद्धत्वं तु विशेषणाभावे विशिष्टस्याप्यभावात् ।

ननु विशेषणं गुणत्वं तत्र शब्देऽस्त्येव, तत्कथं विशेषणाभावः ? सत्यमस्त्येव गुणत्वं, किन्तु न तद्विशेषणम् । तदेव हि हेतोर्विशेषणं भवति यदन्यव्यवच्छेदेन प्रयोजनवत् । गुणतवं तु निष्प्रयोजनमतोऽसमर्थमित्युक्तमेव ।

असमर्थविशेष्यो यथा तत्रैव तद्वैपरीत्येन प्रयोगः । तथाहि, 'शब्दो नित्योऽकारणकत्वे सति गुणत्वात्' इति। अत्र तु विशेषणमात्रस्यैव नित्यत्वसाधने समर्थत्वाद् विशेष्यमसमर्थम् । स्वरूपासिद्धत्वं तु विशेष्याभावे विशिष्टाभावाद्, विशिष्टस्य च हेतुत्वेनोपादानात् । शेषं पूर्ववत् ।

व्याप्यत्वासिद्धस्तु स एव यत्र हेतोर्व्याप्तिर्नावगम्यते । स द्विविधः । एकः साध्येनासहचरितः, अपरस्तु सोपाधिकसाध्यसम्बन्धी । तत्र प्रथमो यथा 'यत् सत् तत् क्षणिकं यथा जलधरः, संश्च विवादास्पंदीभूतः शब्दादिः' इति । अत्र हि शब्दादिः पक्षः, तस्य क्षणिकत्वं साध्यं, सत्त्वं हेतुः - न चास्य हेतोः क्षणिकत्वेन सह व्याप्तौ प्रमाणमस्ति ।

इदानीमुपाधिसहितो व्याप्यत्वासिद्धः प्रदर्श्यते । तद्यथा 'स श्यामो मैत्रीतनयत्वात् परिदृश्यमानमैत्रीतनयस्तोमवत्' इति । अत्र हि मैत्री तनयत्वेन श्यामत्वं साध्यते । न च मैत्रीतनयत्वं श्यामत्वे प्रयोजकं, किन्तु शाकाद्यन्नपरिणाम एवात्र प्रयोजक: । प्रयोजकश्चोपाधिरुच्यते । अतो मैत्रीतनयत्वेन श्यामत्वेन सम्बन्धे शाकाद्यन्नपरिणाम एवोपाधिः । यथा वाग्नेर्धूमसम्बन्धे आर्द्रेन्धनसंयोगः । अतएवोपाधिसम्बन्धाद् व्याप्तिर्नास्तीति व्याप्यत्वासिद्धोऽयं मैत्रीतनयत्वादिर्हेतुः ।

तथा परोऽपि व्याप्यत्वासिद्धः । यथा 'क्रत्वन्तर्वर्तिनी हिंसा अधर्मसाधनं हिंसात्वात् क्रतुबाह्यहिंसावत्' इति । न च हिंसात्वमधर्मे प्रयोजकं किन्तु निषिद्धत्वमुपाधिरिति पूर्ववदुपाधिसद्भावाद् व्याप्यत्वासिद्धोऽयं हिंसात्वं हेतुः ।

ननु 'साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापको यः स उपाधिः' इत्युपाधिलक्षणम् । तञ्च निषिद्धत्वे नास्ति तत् कथं निषिद्धत्वमुपाधिरिति ।

मैवम् । निषिद्धत्वेऽप्युपाधिलक्षणस्य विद्यमानत्वात् । तथा हि साध्यस्य अधर्मजनत्वकस्य व्यापकं निषिद्धत्वम् । यत्र यत्राधर्मसाधनत्वं, तत्र तत्रावश्यं निषिद्धत्वमिति निषिद्धत्यस्य विद्यमानत्वात् । न च यत्र यत्र हिसात्वं, तत्र तत्रावश्यं निषिद्धत्वं क्रत्वङ्गहिंसायां व्यभिचारात् । अस्ति हि क्रत्वङ्गहिसायां हिंसात्वं, न चात्र निषिद्धत्वमिति । तदेवं त्रिविधोऽसिद्धो दर्शितः ।

संप्रति विरुद्धः कथ्यते । साध्यविपर्ययव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः । यथा 'शब्दो नित्यः कृतकत्वात्' इति अत्र हि नित्यत्वं साध्यं, कृतकत्वं हेतुः । तद्विपर्ययेण चानित्यत्वेन कृतकत्वं व्याप्तं, यतो यद्यत् कृतकं तत्तत् खल्वनित्यमेव। अतः साध्यविपर्ययव्याप्तत्वात् कृतकत्वं हेतुविरुद्धः ।

साध्यसंशयहेतुरनैकान्तिकः सव्यभिचार । इति वोच्यते । स द्विविधः । साधारणानैकान्तिको असाधारणानैकान्तिकश्चेति । तत्र प्रथमः, पक्ष सपक्ष-विपक्षवृत्तिः । यथा 'शब्दो नित्यः प्रमेयत्वात्' इति । अत्र प्रमेयत्वं हेतुः पक्षे शब्दे, सपक्षे नित्ये व्योमादौ, विपक्षे चानित्ये घटादौ विद्यते । सर्वस्यैव प्रमेयत्वात् । तस्मात् प्रमेयत्वं हेतुः साधारणानैकान्तिकः ।

असाधारणानैकान्तिकः स एव यः सपक्षविपक्षाभ्यां व्यावृत्तः पक्ष एव वर्तते । यथा 'भूर्नित्या गन्धवत्त्वात्' इति । अत्र गन्धवत्त्वं हेतुः । स च सपक्षान्नित्याद् व्योमादेः, विपक्षाच्चानित्याज्जलादेर्व्यावृत्तो, गन्धवत्त्वस्य प्रथिवीमात्रवृत्तित्वादिति ।

व्यभिचारस्तु लक्ष्यते । सम्भवत्सपक्षविपक्षस्य हेतोः सपक्षवृत्तित्वे सति विपक्षाद् व्यावृत्तिरेव नियमो गमकत्वात् । तस्य च साध्यविपरीतताव्याप्तस्य तन्नियमाभावो व्यभिचारः । स च द्वेधा सम्भवति । सपक्ष- विपक्षयोर्वृत्तौ, ताभ्यां व्यावृत्तौ च ।

यस्य प्रतिपक्षभूतं हेत्वन्तरं विद्यते स प्रकरणसमः । स एव सत्प्रतिपक्षः इति चोच्यते । तद्यथा 'शब्दोऽनित्यो नित्यधर्मानुपलव्धेः', 'शब्दो नित्योऽनित्यधर्मानुपलब्धेः' इति । अत्र साध्यविपरीतसाधकं समानबलमनुमानान्तरं प्रतिपक्ष इत्युच्यते । यः पुनरतुल्यबलो न स प्रतिपक्षः ।

तथाहि विपरीतसाधकानुमानं त्रिविधं भवति । उपजीव्यम् , उपजीवकम् , अनुभयं चेति । तत्राद्यं बाधकं बलवत्त्वात् । यथा 'अनित्यपरमाणुर्मूर्तत्वाद् घटवत्' इत्यस्य परमाणुसाधकानुमानं नित्यत्वं साधयदपि न प्रतिपक्षः । किन्तु बाधकमेवोपजीव्यत्वात् । तच्च धर्मिग्राहकत्वात् । न हि प्रमाणेनागृह्यमाणे धर्मिणि परमाणावनित्यत्वानुमानमिदं सम्भवति, आश्रयासिद्धेः । अतोऽनेनानुमानेन परमारणुग्राहकस्य प्रामाण्यमप्यनुज्ञातमन्यथाऽस्योदयासम्भवात् । तस्मादुपजीव्यं बाधकमेव । उपजीवकं तु दुर्बलत्वाद् बाध्यम् । यथेदमेवानित्यत्वानुमानम् । तृतीयं तु सत्प्रतिपक्षं समबलत्वात् ।

यस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणेन पक्षे साध्याभावः परिच्छिन्नः स कालात्ययापदिष्टः । स एव बाधितविषय इत्युच्यते । यथा 'अग्निरनुष्णः कृतकत्वाज्जलवत्' । अत्र कृतकत्वं हेतुः । तस्य च यत् साध्यमनुष्णत्वं तस्याभावः प्रत्यक्षेणैव परिच्छिन्नः । त्वगिन्द्रियेणाग्नेरुष्णत्वपरिच्छेदात् ।

तथा परोऽपि कालात्ययापदिष्टो, यथा, 'घटस्य क्षणिकत्वे साध्ये प्रागुक्तं सत्त्वं हेतुः' । तस्यापि च यत् साध्यं क्षणिकत्वं तस्याऽभावोऽक्षणिकत्वं प्रत्यभिज्ञातर्कादिलक्षणेन प्रत्यक्षेण परिच्छिन्नम् । स एवायं घटो यो मया पूर्वमुपलब्धः' इति प्रत्यभिज्ञया पूर्वानुभवजनितसंस्कारसहकृतेन्द्रियप्रभवया पूर्वापरकालनया घटस्य स्थायित्वपरिच्छेदादिति ।

एते चासिद्धादयः पञ्च हेत्वाभासा यथा कथञ्चित् पक्षधर्मत्वाद्यन्यत मरूपहीनत्वादहेतवः स्वसाध्यं न साधयन्तीति ।

येऽपि लक्षणस्य केवलव्यतिरेकिहेतोस्त्रयो दोषा अव्याप्ति-अतिव्याप्ति-असम्भवास्तेऽप्यत्रैवान्तर्भवन्ति, न तु पञ्चभ्योऽधिकाः । तथाहि, अतिव्याप्तिर्व्याप्यत्वासिद्धः । विपक्षमात्रादव्यावृत्तत्वात् सोपाधिकत्वाच्च । यथा गोलक्षणस्य पशुत्वस्य । गोत्वे हि सास्नादिमत्त्वं प्रयोजकं, न तु पशुत्वम् । तथा अव्याप्तिर्भागासिद्धत्वम् । यथा गोलक्षणस्य शाबलेयत्वस्य । एवम् असम्भवोऽपि स्वरूपासिद्धिः । यथा गोलक्षणस्यैकशफत्वस्येति ।

१४ छलम्

अभिप्रायान्तरेण प्रयुक्तस्य शब्दस्यार्थान्तरं परिकल्प्य दूषणाभिधानं छलम् । यथा 'नवकम्बलोऽयं देवदत्तः' इति वाक्ये नूतनाभिप्रायेण प्रयुक्तस्य नवशब्दस्यार्थान्तरमाशंक्य कश्चित् दूषयति । 'नास्य नव कम्बलाः सन्ति दरिद्रत्वात् । न ह्यस्य द्वयमपि सम्भाव्यते कुतो नव' इति । स च वादी छलवादितया ज्ञायते ।

१५ जातिः

असदुत्तरं जातिः । सा च उत्कर्षसम-अपकर्षसम-आदि भेदेन बहुविधा । विस्तरभिया नेह कृत्स्नोच्यते । तत्राव्याप्तेन दृष्टान्तगतधर्मेण साध्ये पक्षे अव्यापकधर्मस्यापादनम् उत्कर्षसमा जातिः । यथा शब्दोऽनित्यः कृतकत्वाद् घटवदित्युक्ते कश्चिदेवमाह 'यदि कृतकत्वेन हेतुना घटवच्छब्दोऽनित्यः स्यात् तर्हि तेनैव हेतुना तद्वदेव शब्दः सावयवोऽपि स्यात् ।

अपकर्षसमा तु दृष्टान्तगतेन धर्मेणाव्याप्तेनाव्यापकस्य धर्माभावस्यापादनम् । यथा पूर्वस्मिन् प्रयोगे कश्चिदेवमाह 'यदि कृतकेन हेतुना घटवच्छब्दोऽनित्यः स्यात् तेनैव हेतुना घटवदेव हि शब्दः श्रावणोऽपि न स्यात्। न हि घटः श्रावण' इति ।

१६ निग्रहस्थानानि

पराजयहेतुः निग्रहस्थानम् । तच्च न्यून-अधिक-अपसिद्धान्त अर्थान्तर-अप्रतिमा मतानुज्ञा-विरोध आदि भेदाद् बहुविधमपि विस्तरभयान्नेह कृत्स्नमुच्यते । यद् विवक्षितार्थे किञ्चिदूनं तन्न्यूनम् । विवक्षितात् किञ्चिदधिकम् अधिकम् । सिद्धान्तादपध्वंसः - अपसिद्धान्तः । प्रकृतेनानभिसम्बद्धार्थवचनम् अर्थान्तरम् । उत्तरापरिस्फूर्तिः अप्रतिभा । पराभिमत-स्वार्थस्य स्वप्रतिकूलस्य स्वयमेवाभ्यनुज्ञानं स्वीकारो मतानुज्ञा । इष्टार्थभङ्गो विरोधः ।

उपसंहारः

इहात्यन्तमुपयुक्तानां स्वरूपभेदेन भूयो भूयः प्रतिपादनम् । यदनतिप्रयोजनं तदलक्षणमदोषाय । एतावतैव बालव्युत्पत्तिसिद्धेः ।

                                                इति श्रीकेशवमिश्रविरचिता तर्कभाषा समाप्ता ॥ 

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...