शनिवार, 9 जनवरी 2021

शिवराजविजयः

महाकविश्रीमदम्बिकादत्तव्यासविरचितः

शिवराजविजयः

प्रथमो विरामः"


विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत्"

(भा. १०/१/२५)

अर्थ- भगवान विष्णु की माया में बड़ी सामर्थ्य है जिसने इस संपूर्ण चराचर संसार को मोहित कर रखा है।

"हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः साधुः समत्वेन भयाद्विमुच्यते"         [भागवतम् १०/७/३१]

अर्थ - दुष्ट हिंसक जन अपने पाप से ही मारा गया और सज्जन अपने समत्व बुद्धि के कारण भय से मुक्त हो गया।


अरुण एष प्रकाशः पूर्वस्यां भगवतो मरीचिमालिनः। एष भगवान् मणिराकाशमण्डलस्य, चक्रवर्ती खेचर-चक्रस्य, कुण्डलमाखण्डलदिशः, दीपको ब्रह्माण्डभाण्डस्य, प्रेयान् पुण्डरीकपटलस्य, शोकविमोकः कोकलोकस्य, अवलम्बो रोलम्बकदम्बस्य, सूत्रधारः सर्वव्यवहारस्य, इनश्च दिनस्य । अयमेव अहोरात्रं जनयति, अयमेव वत्सरं द्वादशसु भागेषु विभनक्ति, अयमेव कारणं षण्णामृतूनाम्, एष एवाङ्गीकरोति उत्तरं दक्षिणं चायनम्, एनेनैव सम्पादिता युगभेदाः, एनेनैव कृताः कल्पभेदा:, एनमेवाऽऽश्रित्य भवति परमेष्ठिनः परार्द्धसङ्खया, असावेव चर्कर्ति बर्भर्ति जर्हर्ति च जगत्, वेदा एतस्यैव वन्दिनः, गायत्री अमुमेव गायति, ब्रह्मनिष्ठा ब्राह्मणा अमुमेवाहरहरुपतिष्ठन्ते । धन्य एष कुलमूलं श्रीरामचन्द्रस्य, प्रणम्य एष विश्वेषामिति उदेष्यन्तं भास्वन्तं प्रणमन् निजपर्णकुटीरात् निश्चक्राम कश्चित् गुरुसेवनपटुर्विप्रवटुः ।

अर्थ- पूर्व दिशा में भगवान सूर्य का लाल रंग का या प्रकाश फैल गया है। यह भगवान सूर्य आकाश मंडल के मणि हैं। नक्षत्र समूहों के चक्रवर्ती सम्राट् हैं, इंद्र की दिशा अर्थात् पूर्व दिशा के कुंडल हैं, इस ब्रह्मांड रूपी  पात्र अर्थात् ् संसार को प्रकाशित करने वाले दीपक हैं, कमल-समूह के अतिशय प्रिय हैं, चकवा चकवी के शोक को दूर करने वाले हैं, भ्रमरसमूह के आश्रय हैं, जगत् का सम्पूर्ण व्यवहार इन्हीं से चलता है, दिवस के स्वामी हैं, इन्हीं से दिन और रात बनते हैं। यही वर्ष को बारह भागों में बाँटते हैं। इन्हीं से छह ऋतुएँ बनती हैं, ये ही उत्तरायण और दक्षिणायनरूप सूर्य मार्ग का अवलंबन करते हैं । इन्होंने ही चतुर्युगों (सत्ययुग, त्रेता, द्वापरयुग और कलयुग) का भेद किया है। इन्होंने ही कल्पों का विभाजन किया है। इन्हीं को आधारभूत बनाकर ब्रह्मा की अंतिम परार्ध संख्या पूर्णता को प्राप्त करती है। ये ही इस जगत् की बार-बार रचना करते हैं, बार-बार उसका भरण-पोषण करते हैं और बार-बार उसका संहार करते हैं, वेद इन्हीं की वन्दना करते हैं, गायत्री मन्त्र इन्हीं की स्तुति गाता है। वेद ब्राह्मण प्रतिदिन इनकी उपासना करते हैं। ये ही वे धन्य व्यक्ति हैं, जिनसे रामचन्द्र जी का वंश प्रवर्तित हुआ। यह सबके प्रणाम करने योग्य हैं। ऐसा कहकर उदय होते सूर्य को प्रणाम करता हुआ गुरुसेवापरायण एक ब्राह्मण ब्रह्मचारी अपनी पर्णकुटी से बाहर निकला ।


"अहो ! चिररात्राय सुप्तोऽहम्, स्वप्नजालपरतन्त्रेणैत्र महान् पुण्यमयः समयोऽतिवाहितः, सन्ध्योपासन-समयोऽमस्मद्गुरुचरणानाम्, तत्सपदि अवचिनोमि कुसुमानि" इति चिन्तयन् कदलीदलमेकमाकुञ्च्य, तृणशकलैः सन्धाय, पुटकं विधाय, पुष्पावचयं कर्त्तुमारेभे ।

अर्थ- ओह! मैं बहुत देर तक सोता रह गया, निद्रारूपी जाल में फंस कर मैंने बहुमूल्य समय गवा दिया,  हमारे गुरु जी की संध्योपासना का समय है। इसलिए अभी फूल चुनकर लाऊं, यह सोचता हुआ वह केले के एक पत्ते को मोड़कर तिनके के टुकड़ों से जोड़ कर दोना बनाकर फूल चुनने लगा।


बटुरसौ आकृत्या सुन्दरः, वर्णेन गौरः, जटाभिर्ब्रह्मचारी, वयसा षोडशवर्षदेशीयः, कम्बुकण्ठः, आयतललाटः, सुबाहुर्विशाललोचन-श्चाऽऽसीत् ।

अर्थ - आगे बताते हैं कि वह पर्णकुटी से निकलने वाला बटु कैसा था - वह ब्राह्मण बालक आकृति से अत्यंत सुंदर और गोरे रंग का था। जटाओं से वह ब्रह्मचारी प्रतीत होता था, उसकी अवस्था लगभग 16 वर्ष की थी, उसका कंठ शंख जैसा और ललाट चौड़ा था, उसकी भुजाएं सुंदर और नेत्र बड़े-बड़े थे।


इति चिन्तयन् कदलीदलकुञ्जायितस्य एतत्कुटीरस्य समन्तात् पुष्पवाटिका, पूर्वतः परम-पवित्र-पानीयं परस्सहस्र-पुण्डरीक-पटल-परिलसितं पतत्रि-कुल-कूजित-पूजितं पयःपूरितं सर आसीत् । दक्षिणतश्चैको निर्झर झर्झर-ध्वनि-ध्वनित-दिगन्तरः, फल-पटलाऽऽस्वाद-चपलित-चञ्चुपतङ्गकुलाऽऽक्रम-णाधिक-विनत-शाख-शाखि-समूह व्याप्तः सुन्दरकन्दरः पर्वतखण्ड आसीत् ।

अर्थ - चारों तरफ से केले के वृक्षों से घिरी होने के कारण कुञ्ज के समान प्रतीत होने वाली इस कुटिया के चारों ओर एक पुष्पवाटिका थी । पूर्व की ओर परमपवित्र जल वाला सहस्रों श्वेतकमलों से परिपूर्ण, पक्षियों के कलरव से सुशोभित और पानी से लबालब भरा एक सरोवर था। दक्षिण की ओर झरने की झरझर ध्वनि से दिशाओं को मुखरित करने वाली, फल खाने से चञ्चल हो गई हैं चोंच जिसकी ऐसे पक्षियों के फुदक-फुदक कर बैठने से और भी अधिक झुक जाने वाली शाखाओं वाले वृक्षों से व्याप्त तथा सुन्दर गुफाओं वाली एक पहाड़ी थी ।


यावदेषह्मचारी बटुरलिपुञ्जमुद्धूय कुसुमकोरकानवचिनोति; तावत् तस्यैव सतीर्थ्योऽपरस्तत्समानवयाः कस्तूरिका-रेणु-रूपित इव श्यामः, चन्दन-चर्चितभाल:, कर्पूरागुरुक्षोदच्छुरित-वक्षो-बाहु-दण्डः, सुगन्धपटलैरुन्निद्रयन्निव निद्रा-मन्थराणि कोरकनिकुरम्बकान्तरालसुप्तानि मिलिन्दवृन्दानि झटिति समुपसृत्य निवारयन् गौरवटुमेवमवादीत् -

अर्थ- ज्यों ही वह ब्रह्मचारी बालक भौंरों को उड़ाकर फूल की कलियां तोड़ने लगा, उसका सहपाठी और समवयस्क दूसरा ब्रह्मचारी जो कस्तूरी की बुकनी से सना हुआ-सा साँवले रङ्ग का था, मस्तक पर चन्दन लगाये था और वक्षःस्थल तथा भुजाओं पर कपूर और अगर की बुकनी रमाये था, नींद से अलसाये और कलियों के अन्दर सोये हुए भौंरों को सुगन्ध की महक से जगाता हुआ सा सद्यः समीप आकर उस गोरे बालक को मना करता हुआ बोला -

"अलं भो अलम् ! मयैव पूर्वमवचितानि कुसुमानि, त्वं तु चिरं रात्रावजागरीरिति क्षिप्रं नोत्थापितः, गुरुचरणा अत्र तडागतटे सन्ध्यामुपासते, संस्थापिता मया निखिला सामग्री तेषां समीपे । यां च सप्तवर्षकल्पाम्, यावनत्रासेन निःशब्दं रुदतीम्, परमसुन्दरीम् , कलितमानवदेहामिव सरस्वतीं सान्त्वयन्, मरन्दमधुरा अपः पाययन्, कन्दखण्डानि भोजयन्, त्वं त्रियामाया यामत्रयमनैषीः, सेयमधुना स्वपिति, उद्बुद्ध्य च पुनस्तथैव रोदिष्यति, तत्परिमार्गणीयान्येतस्याः पितरौ गृहं च"।

इति संश्रुत्य उष्णं निःश्वस्य यावत् सोऽपि किञ्चिद् वक्तुमियेष तावद-कस्मात् पर्वतशिखरे निपपात उभयोर्दृष्टिः ।

अर्थ - बस करो बस ! मैंने पहले ही फूल तोड़ रखे हैं। तुम देर रात्रि तक जागते रहे इसलिये मैंने नहीं जगाया । गुरुजी यहाँ तालाब के किनारे सन्ध्योपासना कर रहे हैं। मैंने सारी सामग्री उनके पास पहुँचा दी है। लगभग सात वर्षं अवस्थावाली, यवनों के भय से सिसकती परमसुन्दरी, मानव देह धारण करके आई हुई सरस्वती के समान जिस कन्या को ढ़ांढस बंधाते, मरन्द मधुर जलपान कराते और कुन्दों के टुकड़े खिलाते हुए, तुमने रात्रि के तीन पहर बिता दिये थे, वह इस समय सो रही है, जागने पर पुनः रोयेगी, इसलिये उसके माता-पिता और घर का पता लगाना चाहिए ।

यह सुनकर गरम सांस लेकर ज्यों ही उसने भी कुछ कहना चाहा, त्यों ही सहसा उन दोनों की दृष्टि पहाड़ी की चोटी पर पड़ी ।


तस्मिन् पर्वते आसीदेको महान् कन्दरः । तस्मिन्नेव महामुनिरेक: समाधौ तिष्ठति स्म । कदा स समाधिमङ्गीकृतवानिति कोऽपि न वेत्ति । ग्रामणी-ग्रामीण-ग्रामाः समागत्य मध्ये-मध्ये तं पूजयन्ति प्रणमन्ति स्तुवन्ति च । तं केचित् कपिल इति, अपरे लोमश इति, इतरे जैगीषव्य इति, अन्ये च मार्कण्डेय इति विश्वसन्ति स्मः । स एवायमधुना शिखरादवतरन् ब्रह्मचारिबटुभ्यामदर्शि ।

अर्थ - उस पर्वत में एक बहुत बड़ी गुफा थी, उसमें एक महा मुनि समाधि लगाये थे। उन्होंने समाधि कब लगाई थी, इसका पता किसी को न था। कभी-कभी बीच बीच में ग्राम प्रधान और गाँववासी उनका पूजन, वन्दन और स्तवन कर आते थे। उन्हें कोई कपिल, कोई लोमश, कोई जैगीषव्य और कोई मार्कण्डेय कहता था। दोनों ब्रह्मचारियों ने इस समय उन्हीं को शिखर से उतरते देखा ।


"अहो ! प्रबुद्धो मुनिः ! प्रबुद्धो मुनिः ! इत एवाऽऽगच्छति, इत एवाऽऽगच्छति, सत्कार्योऽयम् सत्कार्योऽयम्" इति तौ सम्भ्रान्तौ बभूवतुः ।

अर्थ- अरे ! मुनि जाग गये ! मुनि जाग गये ! इसी ओर आ रहे हैं, इसी ओर आ रहे हैं, हम दोनों को इनका सत्कार करना चाहिए, इनका सत्कार करना चाहिए, यह कहते हुए वे दोनों प्रसन्नता के कारण हड़बड़ा जैसे गये । क्योंकि दीर्घकाल से समाधिस्थ मुनि के जाग जाने से लोगों को अत्यंत प्रसन्नता हुई है।


अथ समापितसन्ध्यावन्दनादिक्रिये समायाते गुरौ, तदाज्ञया नित्यनियम-सम्पादनाय प्रयाते गौरवटौ, छात्रगण-सहकारेण प्रस्तुतासु च स्वागतसामग्रीषु, 'इत आगम्यताम्, सनाथ्यतामेष आश्रमः' इति  सप्रणाममभिगम्य वदत्सु निखिलेषु, योगिराज आगत्य तन्निर्दिष्टकाष्ठपीठं भास्वानिवोदयगिरिमारुरोह, उपाविशच्च ।

अर्थ -  इसके पश्चात् सन्ध्यावन्दनादि कृत्य समाप्त करके गुरु के आ जाने और उनकी आज्ञा से गौर ब्रह्मचारी के, सन्ध्यावन्दन आदि नित्य कर्म करने के लिए चले जाने पर छात्रों के सहयोग से स्वागत सामग्री के आ जाने और प्रणामपूर्वक सभी उपस्थित लोगों के "इधर पधारिये, इस आश्रम को सनाथ कीजिए" यह कहने पर योगिराज आकर उनके दिखाये आसन पर उदयाचल पर सूर्य की भाँति बैठ गये ।


तस्मिन् पूज्यमाने, ‘योगिराडुत्थित’ इति ‘आयात’ इति च आकर्ण्य कर्णपरम्परया बहवो जनाः परितः स्थिताः । सुघटितं शरीरम्, सान्द्रां जटाम्, विशालान्यङ्गानि, अङ्गारप्रतिमे नयने, मधुरां गम्भीरां च वाचं वर्णयन्तश्चकिता इव सञ्जाताः ।

अर्थ - जब गुरु और छात्रों द्वारा उनकी पूजा हो ही रही थी तभी, योगिराज समाधि से जब गए है और यहां आए हैं, यह समाचार एक दूसरे से सुनकर चारों ओर लोगों की भीड़ लग गई। उनके सुगठित शरीर, घनी जटाओं, विशाल अङ्गों, अङ्गारों के समान लाल नेत्रों और मधुर गम्भीर वाणी का बखान करते हुए लोग चकित और मन्त्रमुग्ध से हो गये ।


अथ योगिराजं सम्पूज्य यावदीहितं किमपि आलपितुम्, तावत् कुटीराद् अश्रूयत तस्या एव बालिकायाः सकरुणरोदनम् ।

ततः "किमिति ? कुत इति ? केयमिति ? कथमिति ?" पृच्छापरवशे योगिराजे ब्रह्मचारिगुरुणा बालिकां सान्त्वयितुं श्यामवटुमादिश्य कथितम् –

अर्थ- इसके पश्चात् योगिराज का विधिवत् पूजन सत्कार कर ज्यों ही ब्रह्मचारी के गुरु ने उनसे कुछ कहना चाहा त्यों ही कुटी से उस कन्या का करुण क्रंदन सुनाई पड़ा।

तब योगिराज के यह क्या ? कहाँ से आई ? यह कौन है ? कैसे आई ? यह पूछने पर ब्रह्मचारी के गुरु ने श्यामवटु को बालिका को ढाढ़स बंधाने के लिए भेजकर कहना प्रारम्भ किया।


‘भगवन् ! श्रूयताम् यदि कुतूहलम् । ह्यः सम्पादित-सायन्तनकृत्ये, अत्रैव कुशाऽऽस्तरणमधितिष्ठिते मयि, परितः समासीनेषु छात्रवर्गेषु धीर-समीरस्पर्शेन मन्दमन्दमान्दोल्यमानासु व्रततिषु, समुदिते यामिनीकामिनी- चन्दनबिन्दौ इव इन्दौ, कौमुदीकपटेन सुधाधारामिव वर्षति गगने, अस्मन्नीतिवार्तां शुश्रूषुषु इव मौनमाकलयत्सु पतंगकुलेषु, केरवविकाश हर्षप्रकाशमुखरेषु चञ्चरीकेषु, अस्पष्टाक्षरम्, कम्पमाननिःश्वासम्, श्लथत्कण्ठम्, घर्घरितस्वनम्, चीत्कारमात्रम्, दीनतामयम्, अत्यवधानश्रव्यत्वादनुमितदविष्ठतं क्रन्दनमश्रौषम् ।

अर्थ- भगवन् ! यदि आपको इसका वृत्तान्त जानने की जिज्ञासा है तो सुनिए – कल सायंकालीन नित्यकर्म से निवृत्त होकर मैं यहीं कुशासन पर बैठा था और मेरे चारों ओर छात्रगण बैठे हुये थे, मन्द-मन्द वायु के झोंकों से लताएं धीरे-धीरे हिल रहीं थीं, निशा नायिका के भालतिलक सदृश चन्द्रमण्डल उदित हो चुका था, आकाश चांदनी के बहाने मानों अमृत बरसा रहा था, पक्षिगण मानों हम लोगों की नीति चर्चा सुनने की इच्छा से मौन धारण किये थे और कुमुदों के खिल जाने से भौंरे हर्षातिरेक से गुनगुना रहे थे, कि मैंने किसी का अस्पष्ट अक्षरों और कम्पित निःश्वासों वाला रुंधे गले से निकलने वाला, घरघर शब्दमय, चीत्कारमय और दीनतापूर्ण करुण क्रन्दन सुना । रोने की आवाज ध्यान देने पर ही सुनाई देती थी, जिससे उसके बहुत दूर होने का अनुमान होता था ।


तत्क्षणमेव च "कुत इदम् ? किमिदमिति दृश्यताम् ज्ञायताम्" इत्यादिश्य छात्रेषु विसृष्टेषु, क्षणानन्तरं छात्रेणैकेन भयभीता सवेगमत्युष्णं दीर्घं निःश्वसती, मृगीव व्याघ्राऽऽघ्राता, अश्रुप्रवाहैः स्नाता, सवेपथुः कन्यकैका अङ्के निधाय समानीता । चिरान्वेषणेनापि च तस्याः सहचरी सहचरो वा न प्राप्तः । तां च चन्द्रकलयेव निर्मिताम्, नवनीतेनेव रचिताम्, मृणालगौरीम्, कुन्दकोरकाग्रदतीम् सक्षोभं रुदतीमवलोक्याऽस्माभिरपि न पारितं निरोद्धुं नयनवाष्पाणि ।

अर्थ - मैंने उसी समय ही 'यह आर्तस्वर कहीं से बा रहा है ? क्या बात है ? देखकर पता लगाओ' यह आज्ञा देकर छात्रों को भेजा और क्षण भर बाद ही एक छात्र, डरी हुई, जल्दी-जल्दी, गरम और लम्बी साँसें ले रही, बाघ से सूंघी गई हरिणी के समान, आँसुओं से नहाई हुई और काँपती हुई एक बालिका को गोद में उठाकर लाया । काफी देर तक खोजने पर भी उसकी कोई सखी या उसका कोई साथी नहीं मिला । चन्द्रमा की कलाओं से रची गई सी, मक्खन से बनाई गई सी, कमलनाल के समान गोरी ओर कुन्द कलिका के अग्रभाग के समान दांतों वाली उस बालिका को व्याकुल होकर रोते देख हम लोग भी अपने आँसू न रोक सके ।


अथ 'कन्यके ! मा भैषीः, पुत्रि ! त्वाम् मातुः समीपे प्रापयिष्यामः, दुहितः ! खेदं मा वह, भगवति ! भुङ्क्ष्व किञ्चित्, पिब पयः, एते तव भ्रातरः, यत् कथयिष्यसि, तदेव करिष्यामः, मा स्म रोदनैः प्राणान् संशयपदवीमारोपय, मा स्म कोमलमिदं शरीरं शोकज्वालावलीढं कार्षीः इति सहस्रधा बोधनेन कथमपि सम्बुद्धा किंचिद् दुग्धं पीतवती । ततश्च मया क्रोडे उपवेश्य, "बालिके ! कथय क्व ते पितरौ ? कथमेतस्मिन्नाश्रमप्रान्ते समायाता? कि ते कष्टम् ? कथमारोदीः ? किं वाञ्छसि ? किं कुर्मः ?" इति पृष्टा मुग्धतया अपरिकलितवाक्पाटवा, भयेन विशिथिलवचनविन्यासा, लज्जया अतिमन्दस्वरा, शोकेन रुद्धकण्ठा, चकितचकितेव कथं कथमपि अबोधयदस्मान् यदेषा अस्मिन्नेदीयस्येव ग्रामे वसतः कस्यापि ब्राह्मणस्य तनयाऽस्ति ।

अर्थ -  उसके बाद बेटी ! डरो मत, बच्ची ! तुम्हें माँ के पास पहुँचा देंगे, बेटी, अफसोस मत करो, रानी बिटिया, कुछ खाओ, दूध पियो, ये तुम्हारे भाई हैं, जो कुछ तुम कहोगी हम वही करेंगे, रो-रोकर प्राणों को संदेह में मत डालो, इस कोमल शरीर को शोकाग्नि की लपटों से मत झुलसाओ, इस प्रकार हजारों तरह से समझाने-बुझाने पर किसी प्रकार आश्वस्त हो उस कन्या ने कुछ दूध पिया। तदनन्तर मैंने उसे गोद में लेकर पूछा, बच्ची ! बतलाओ तुम्हारे माता-पिता कहाँ रहते हैं ? तुम इस आश्रम के किनारे कैसे आ गई ? तुम्हें क्या कष्ट है ? तुम रोती क्यों थी ? क्या चाहती हो ? हम तुम्हारे लिये क्या करें ? छोटी बच्ची होने के कारण भाषणचातुरी से एकदम अपरिचित, भय के मारे अव्यवस्थित शब्दों में बोलने वाली, लज्जा से धीमे स्वर और शोक से रुंधे गले वाली, अत्यन्त चकित हुई सी इस बालिका ने बड़ी कठिनाई से हमें बताया कि यह समीप के ही गाँव में रहने वाले किसी ब्राह्मण की कन्या है ।

एनां च सुन्दरीमाकलय्य कोऽपि यवनतनयो नदीतटान्मातुर्हस्तादाच्छिद्य क्रन्दन्ती नीत्वाऽपससार । ततः किञ्चिदध्वानमतिक्रम्य यावदसिधेनुकां सन्दर्श्य बिभीषकयाऽस्याः क्रन्दनकोलाहल शमयितुमियेष, तावदकस्मात्कोऽपि काल-कम्बल इव भल्लूको वनान्तादुपाजगाम । दृष्ट्वैव यवनतनयोऽसौ तत्रैव त्यक्त्वा कन्यकामिमां शाल्मलितरुमेकमारुरोह । विप्रतनया चेयं पलाशपलाशिश्रेण्यां प्रविश्य घुणाक्षरन्यायेन इत एव समायाता यावद् भयेन पुनारोदितुमारव्धवती, तावदस्मच्छात्रेणैवाऽऽनीते’ति ।

अर्थ - इसे सुन्दर देखकर कोई मुसलमान का पुत्र नदी के किनारे से माँ के हाथ से छीनकर, रोती-बिलखती हुई इसको भागा। कुछ दूर जाकर उसने छुरा दिखाकर डराकर, इसको चुप करना चाहा, इतने में ही एकाएक काले कम्बल सा एक रीछ जङ्गल के किनारे से उधर आ निकला । उसे देखते ही मुसलमान का लड़का, इस लड़की को वहीं छोड़, एक सेमर के पेड़ पर चढ़ गया और यह ब्राह्मण कन्या पलाशवृक्षों के झुरमुट में प्रवेश कर घुणाक्षर न्याय से इधर आकर मारे भय से पुनः रोने लगी, इसी बीच हमारा छात्र इसे यहां ले आया।


"तदाकर्ण्य कोपज्वालाज्वलित इव योगी प्रोवाच- "विक्रमराज्येऽपि कथमेष पातकमयो दुराचाराणामुपद्रवः ?" ततः स उवाच -

महात्मन् ! क्वाधुना विक्रमराज्यम् ? वीरविक्रमस्य तु भारतभुवं विरहय्य गतस्य वर्षाणां सप्तदशशतकानि व्यतीतानि । क्वाधुना मन्दिरे मन्दिरे जय-जय ध्वनिः ? क्व सम्प्रति तीर्थे तीर्थे घण्टानादः ? क्वाद्यापि मठे मठे वेदघोषः ? अद्य हि वेदा विच्छद्य वीथीषु विक्षिप्यन्ते, धर्मशास्त्राण्युद्धूय धूमध्वजेषु ध्मायन्ते, पुराणानि पिष्ट्वा पानीयेषु पात्यन्ते, भाष्याणि भ्रंशयित्वा भ्रष्ट्रेषु भर्ज्यन्ते; क्वचिन्मन्दिराणि भिद्यन्ते, क्वचित्तुलसी वनानि छिद्यन्ते, कवचिद् दारा अपह्रियन्ते, क्वचिद् धनानि लुण्ठ्यन्ते, क्वचिदार्तनादाः, क्वचिद् रुधिरधाराः, क्वचिदग्निदाहः, क्वचिद् गृहनिपातः" इत्येव श्रूयतेऽलोक्यते च परितः । 

अर्थ - - यह सुनकर क्रोधाग्नि की लपटों से प्रदीप्त हुए से योगिराज बोले - 'विक्रमादित्य के राज्य में भी दुराचारियों का यह पापमय उपद्रव कैसा ?'

इसके बाद ब्रह्मचारी  गुरु ने कहा - महात्मा जी, अब विक्रमादित्य का राज्य कहाँ ? वीर विक्रम को तो भारतभूमि को छोड़कर गये १७ सौ वर्ष बीत गये। अब मन्दिरों में जय-जयकार कहाँ ? तीर्थों में घण्टा निनाद कहाँ ? मठों में वेद-ध्वनि कहाँ ? अब तो वेदों की पुस्तकें फाड़-फाड़कर सड़कों पर बिखेरी जाती हैं, धर्मशास्त्र के ग्रन्थ उछाल कर आग में झोंके जाते हैं, पुराण की पुस्तकें पीस कर पानी में फेंकी जाती हैं और भाष्यग्रन्थ तोड़-मरोड़ कर भाड़ों में झोंके जाते हैं। कहीं मन्दिर तोड़े जाते हैं कहीं तुलसी वृक्ष काटे जाते हैं कहीं स्त्रियों का अपहरण किया जाता है और कहीं धनसम्पत्ति लूटी जाती है। कहीं करुण क्रन्दन है तो कहीं खून की धारा, कहीं अग्निकाण्ड है और कहीं गृहध्वंस । चारों ओर यही सुनाई देता है और यही दिखाई देता है ।

तदाकर्ण्य दुःखितश्चकितश्च योगिराडुवाच -"कथमेतत् ? ह्य एव पर्वतीयाञ्छकान् विनिर्जित्य महता जयघोषेण स्वराजधानीमायातः श्रीमानादित्यपदलाञ्छनो वीरविक्रमः । अद्यापि तद्विजयपताका मम चक्षुषोरग्रत इव समुद्धूयन्ते, अधुनापि तेषां पटहगोमुखादीनां निनादः कर्णशष्कुलीं पूरयतीव, तत्कथमद्य वर्षाणां सप्तदशशतकानि व्यतीतानि" इति ?

ततः सर्वेषु स्तब्धेषु चकितेषु च ब्रह्मचारिगुरुणा प्रणम्य कथितम् –

अर्थ- यह सुनकर खिन्न और विस्मित हुए योगिराज ने कहा "यह कैसे ? श्रीमान् आदित्यपद से सुशोभित वीर विक्रम अभी कल ही पर्वत प्रान्त निवासी शकों को जीतकर महान् जय जयकार के साथ अपनी राजधानी उज्जयिनी आये हैं। आज भी उनकी विजयपताकाएँ मेरे नेत्रों के सामने फहरा सी रही हैं, इस समय भी उनके नगाड़े, तुरही आदि बाजों की ध्वनि मेरे कर्णविवरों को पूर्ण सी कर रही हैं, फिर आज सत्रह सौ वर्ष कैसे बीत गये ?"

योगिराज के ये वचन सुनकर सबके स्तब्ध और विस्मित हो जाने पर ब्रह्मचारी के गुरु ने प्रणाम कर कहा -

भगवन् ? बद्धसिद्धासनैर्निरुद्ध-निःश्वासैः प्रबोधितकुण्डलिनीकैर्वि-जितदशेन्द्रियैरनाहतनाद-तन्तुमवलम्ब्याऽऽज्ञाचक्रं संस्पृश्य, चन्द्रमण्डलं भित्त्वा, तेजः पुञ्जमविगणय्य, सहस्रदलकमलस्यान्तः प्रविश्य, परमात्मानं साक्षात्कृत्य, तत्रैव रममाणैर्मृत्युमृत्युञ्जयैरानन्दमात्रस्वरूपैर्ध्यानावस्थितैर्भवादृशैर्न ज्ञायते कालवेगः। तस्मिन् समये भवता ये पुरुषा अवलोकिताः तेषां पञ्चादशत्तमोऽपि पुरुषो नावलोक्यते । अद्य न तानि स्त्रोतांसि नदीनाम्, न सा संस्था नगराणाम्, न सा आकृतिर्गिरीणाम्, न सा सान्द्रता विपिनानाम् । किमधिकं कथयामो भारतवर्षमधुना अन्यादृशमेव सम्पन्नमस्ति ।

अर्थ- भगवन् ! सिद्धासन बाँध कर, साँस रोककर कुण्डलिनी को जगाकर, दशों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर, अनहदनाद (सुषुम्णा के मध्य में स्थित, योगशास्त्र में अनाहत नाम से प्रसिद्ध चतुर्थ पद्म से उत्पन्न होने वाले नाद) के तन्तु का अवलम्बन कर (भौंहों के बीच में स्थित द्विदलात्मक) आज्ञा चक्र को ध्यान का लक्ष्य बनाकर, षोडशदलात्मक चक्र 'चन्द्रमण्डल' को भेद कर, चन्द्रचक्रवर्ती महाप्रकाश का तिरस्कार कर, सहस्रारचक्र के अन्दर प्रविष्ट हो परब्रह्म का साक्षात्कार कर उसी में रमण करने वाले, मृत्यु के विजेता, आनन्दस्वरूप और ध्यान में स्थित आप जैसे महात्माओं को समय की गति का भान नहीं होता। उस समय आपने जिन लोगों को देखा होगा, उनकी पचासवीं पीढ़ी का पुरुष भी आज नहीं दिखाई देता। आज नदियों के वे स्रोत नहीं रहे, नगरों की वह स्थिति नहीं रही, पर्वतों का वह आकार नहीं रहा और जङ्गलों की वह गहनता नहीं रही। अधिक क्या कहें भारतवर्ष इस समय दूसरा-सा ही हो गया है ।


इदमाकर्ण्य किञ्चित् स्मित्वेव परितोऽवलोक्य च योगी जगाद - "सत्यं न लक्षितो मया समयवेगः । यौधिष्ठिरे समये कलितसमाधिरहं वैक्रमसमये उदस्थाम्। पुनश्च वैक्रमसमये समाधिमाकलय्य अस्मिन् दुराचारमये समयेऽहमुत्थितोऽस्मि। अहं पुनर्गत्वा समाधिमेव कलयिष्यामि, किन्तु तावत् संक्षिप्य कथ्यतां का दशा भारतवर्षस्येति ।’

अर्थ - यह सुनकर कुछ मुस्कराते हुए से चारों ओर देखकर योगिराज बोले- वस्तुतः मुझे समय की गति की प्रतीति नहीं हुई। युधिष्ठिर के समय में समाधि लगाकर में विक्रम के समय में जागा था, और पुन: विक्रम के समय में समाधिस्थ होकर इस अनाचारमय समय में जागा हूँ। मैं फिर जाकर समाधि ही लगाऊंगा, फिन्तु तब तक संक्षेप करके कहिये कि भारतवर्ष की क्या दशा है ?


तत्संश्रुत्य भारतवर्षीय-दशा-संस्मरणसंजात-शोको हृदयस्थप्रसादसम्भारोद्गिरणश्रमेणेवातिमन्थरेण स्वरेण "मा स्म धर्मध्वंसनघोषणैर्योगिराजस्य धैर्यमवधीरय" इति कण्ठं रुन्धतो वाष्पानविगणय्य, नेत्रे प्रमृज्य, उष्णं निःश्वस्य, कातराभ्यामिव नयनाभ्यां परितोऽवलोक्य ब्रह्मचारिगुरुः प्रवक्तुमारभत - "भगवन् ! दम्भोलिघटितेय रसना, या दारुणदानवोदन्तोदीरणैर्न दीर्य्यते, लौहसारमयं हृदयम्, यत्संस्मृत्य यावनान्परस्सहस्रान दुराचारान् शतधा न भिद्यते, भस्मसाच्च न भवति । धिगस्मान्, येऽद्यापि जीवामः, श्वसिमः, विचराम: आत्मनः आर्य्यवंश्यांश्चाभिमन्यामहे।"

अर्थ - यह सुनकर भारतवर्ष की दुर्दशा के स्मरण से ब्रह्मचारी के गुरु का शोक उमड़ आया। मानो हृदय स्थित प्रसन्नता के प्रकाशन करने के श्रम में धीमे पड़ गये स्वर से, धर्मविध्वंस की कथाओं से योगिराज का धैर्य मत डिगाओ, यह कहते हुए से गला रूंधने वाले आँसुओं की परवाह न कर आँखें पोछकर गरम सांस लेकर, कातर नेत्रों से चारों ओर देखकर ब्रह्मचारी के गुरु ने कहना प्रारम्भ किया -

भगवन् ! मेरी यह जीभ वज्र से बनी है, जो भीषण म्लेच्छों के वृत्तान्त के वर्णन से कट नहीं जाती, मेरा हृदय लोहे का बना है, जो यवनों के हजारों दुराचारों को स्मरण कर टुकड़े-टुकड़े नहीं जाता और जलकर राख नहीं हो जाता । धिक्कार है हम लोगों को जो आज भी जीते हैं, साँस लेते हैं, इधर उधर घूमते हैं और अपने को आर्यों का वंशज मानते हैं ।


 उपक्रमममुमाकर्ण्य अवलोक्य च मुनेर्विमनायमानं हरिद्राद्रवक्षालितमिव वदनम्, निपतद्वारिबिन्दुनी नयने, अञ्चितरोमकञ्चुकं शरीरम्, कम्पमानमधरम्, भज्यमानं च स्वरम्, अवागच्छत् "सकलानर्थमयः, सकलवञ्चनामयः, सकलपापमयः, सकलोपद्रवमयश्चायं वृत्तान्तः" इति अतएव तत्स्मरणमात्रेणापि खिद्यत एष हृदये, "तन्नाहमेनं निरर्थं जिग्लापयिषामि, न वा चिखेदयिषामि" इति च विचिन्त्य – 

अर्थ- इस उपक्रम को सुनकर और ब्रह्मचारी के गुरु के हल्दी से रंगे हुए से पीले उदास चेहरे, आँसू बरसाते नेत्रों, रोमाञ्चित शरीर, कांपते ओष्ठ और लड़खड़ाते स्वर से योगिराज समझ गये कि यह सारा वृत्तान्त अनर्थो, वंचनाओ  तथा पाप और उपद्रव की घटनाओं से भरा है, यही कारण है कि उसका स्मरण करके ही इनका मन खिन्न हो जाता है। अतः मैं इन्हें व्यर्थ में खिन्न न करूँगा, यह सोचकर -


"मुने ! विलक्षणोऽयं भगवान् सकल-कला-कलाप-कलनः सकलकालनः करालः कालः । स एव कदाचित् पयःपूरपूरितान्यकूपारतलानि मरूकरोति । सिंह-व्याघ्र-भल्लूक-गण्डक-फेरु-शश-सहस्र-व्याप्तान्यरण्यानि जनपदीकरोतिमन्दिर-प्रासाद-हर्म्य-शृङ्गाटक-चत्वरोद्यानतडागगोष्ठमयानि नगराणि च काननीकरोति। निरीक्ष्यताम् कदाचिदस्मिन्नेव भारते वर्षे यायजूकै राजसूयादियज्ञा व्ययाजिषतकदाचिदिहैव वर्षवाताऽऽतपहिमसहानि तपांसि अतापिषत । सम्प्रति तु म्लेच्छैर्गावो हन्यन्तेवेदा विदीर्य्यन्तेस्मृतयः संमृद्यन्तेमन्दिराणि मन्दुरीक्रियन्ते, सत्यः पात्यन्तेसन्तश्च सन्ताप्यन्ते । सर्वमेतन्माहात्म्यं तस्यैव महाकालस्येति कथं धीरधौरेयोऽपि धैर्यं विधुरयसि शान्तिमाकलय्याति सङ्क्षेपेण कथय यवनराजवृत्तान्तम् । न जाने किमित्यनावश्यकमपि शुश्रूषते मे हृदयम्" इति कथयित्वा तूष्णीमवतस्थे । 

अर्थ-  हे मुनि ! सारी कल्पनाओं के निर्माता और सबके संहारक, भगवान् महाकाल बड़े ही विलक्षण हैं। वे ही कभी जलप्रवाह से परिपूर्ण समुद्रतलों को मरुस्थल बना देते हैं, हजारों सिंहों, बाघों, भालुओं, गेड़ों, सियारों और खरगोशों से भरे जङ्गलों को नगर बना देते हैं, तथा मन्दिरों, राजमहलों, अट्टालिकाओं, चौराहों, चबूतरों, उपवनों, सरोवरों और गोशालाओं से भरे नगरों को जङ्गल बना देते हैं। देखिये कभी इसी भारतवर्ष में याज्ञिकों ने राजसूय आदि यज्ञ किये थे, कभी यहीं पर वर्षा, आंधी, धूप और हिमपात सहकर तपस्याएं की गयी थी, परन्तु इस समय म्लेच्छों द्वारा गायें मारी जाती हैं, वेद की पुस्तकें फाड़ी जाती हैं, स्मृतियाँ कुचली जाती हैं, मन्दिर घुड़साल बनाये जाते हैं, सतियों का सतीत्व नष्ट किया जाता है और सज्जनों को कष्ट पहुंचाया जाता है। यह सब उसी महाकाल की महिमा है, आप धीर श्रेष्ठ होकर भी धैर्य क्यों खोते हैं ? शान्त होकर अति संक्षेप में यवनराज्य का वृत्तान्त कहिये । अनावश्यक समझते हुए भी, न जाने क्यों मन इसे सुनना चाहता है।' यह कहकर योगिराज चुप हो गये।


अथ स मुनिः -"भगवन् ! धैर्येण, प्रसादेन, प्रतापेन, तेजसा, वीर्येण, विक्रमेण, शान्त्या, श्रिया, सौख्येन, धर्मेण, विद्यया च सममेव परलोकं सनाथितवति तत्र भवति वीरविक्रमादित्ये शनैः शनैः पारस्परिकविरोधविशिथिलीकृतस्नेहबन्धनेषु राजसु, भामिनी-भ्रूभङ्ग-भूरिभाव-प्रभावपराभूत-वैभवेषु भटेषु, स्वार्थ-चिन्ता-सन्तान-वितानैकतानेष्वमात्यवर्गेषु, प्रशंसामात्रप्रियेषु, प्रभुषु, "इन्द्रस्त्वं वरुणस्त्वं कुबेरस्त्वम्" इति वर्णनामात्रसक्तेषु बुधजनेषु कश्चन गजिनीस्थाननिवासी महामदो यवनः ससेनः प्राविशद् भारते वर्षे । स च प्रजा विलुण्ठ्य, मन्दिराणि निपात्य, प्रतिमा विभिद्य परश्शतान् जनांश्च दासीकृत्य, शतशः उष्ट्रेषु रत्नान्यारोप्य स्वदेशमनैषीत् । एवं स ज्ञातास्वादः पौनःपुन्येन द्वादशवारमागत्य भारतमलुलुण्ठत् । तस्मिन्नेव च स्वसंरम्भे एकदा गुर्जरदेशचूडायितं सोमनाथतीर्थमपि धूलीचकार । अद्य तु तत्तीर्थस्य नामापि केनापि न स्मर्यते; परं तत्समये तु लोकोत्तरं तस्य वैभवमासीत् । तत्र हि महार्ह-वैदूर्य-पद्मराग-माणिक्य मुक्ता-फलादि-जटितानि कपाटानि स्तम्भान्, गृहावग्रहणीः, भित्ती:, वलभीः विटङ्कानि च निर्मथ्य, रत्ननिचयमादाय शतद्वयमणसुवर्णश्रृंखलावलम्बिनीं चञ्चच्चाकचक्यचकितीकृतावलोकलोचननिचयां महाघण्टां प्रसह्य सङ्गृह्य महादेवमूर्तावपि गदामुदतूतुलत् ।

अर्थ - इसके बाद उस मुनि ने कहना प्रारम्भ किया "भगवन् ! धैर्य, प्रसन्नता, प्रताप, तेज, बल, पराक्रम, शान्ति, शोभा, सुख, धर्म और विद्या के साथ वीरविक्रमादित्य के परलोक चले जाने पर राजाओं के पारस्परिक स्नेहबन्धन के आपसी झगड़ों के कारण ढीले पड़ जाने पर, वीरों के कामिनियों के कटाक्षों और हाव-भाव के प्रभाव में आकर सारी सम्पदा नष्ट कर चुकने पर मंत्रियों के मात्र स्वार्थ चिन्तापरायण हो जाने पर, राजाओं के प्रशस्तिप्रिय हो जाने पर विद्वानों के आप इन्द्र है, आप है, आप कुबेर है, कहकर चाटुकारिता करके प्रभुओं को प्रसन्न करने में लग जाने पर गजिनीवासी महमूद नाम के यवन ने सेना के साथ भारतवर्ष में प्रवेश किया। यह प्रजा को लूटकर मन्दिरों को ध्वस्तकर, मूर्तियों को तोड़कर, सैकड़ों लोगों को दास बनाकर सैकड़ों ऊँटों पर रत्न लादकर, अपने देश को ले गया। इस प्रकार स्वाद जान जाने के कारण बार-बार आकर उसने १२ बार भारतवर्ष को लूटा। अपने इन्हीं हमलों में उसने एक बार गुजरात के आभूषणतुल्य सोमनाथ तीर्थ को भी मिट्टी में मिला दिया। आज तो उस तीर्थ का नाम भी किसी को याद नहीं है, पर उस समय उसका वैभव लोकोत्तर था। उसमें बहुमूल्य वैदूर्य (मूंगा), पद्मराग, हीरे और मोती जड़े दरवाजों, खम्भों, देहलियों, दीवारों, बल्लियों और कबूतरों के दरबों को छानकर, रत्नराशि लेकर दो सौ मन सोने की जंजीर में लटकने वाली और दैदीप्यमान चमचमाहट से दर्शकों के नेत्रों को चकाचौंध कर देने वाली महाघण्टा को जबरन हथिया कर, महादेव की मूर्ति पर भी गदा उठाई।

अथ "वीर ! गृहीतमखिल वित्तम्, पराजिता आर्य्यसेनाः, बन्दीकृता वयम्, सञ्चितममलं यशः, इतोऽपि न शाम्यति ते क्रोधश्चेदस्मांस्ताडय, मारय, छिन्धि, भिन्धि, पातय, मज्जय, खण्डय, कर्तय, ज्वालय, किन्तु त्यजेमामकिञ्चित्करीं जडां महादेव-प्रतिमाम् । यद्येवं न स्वीकरोषि तद् गृहाणास्मत्तोऽन्यदपि सुवर्णकोटिद्वयम्, त्रायस्व, मैनां भगवन्मूर्त्तिं स्प्राक्षीः" इति साम्रेडं कथयत्सु रुदत्सु पतत्सु विलुण्ठत्सु प्रणमत्सु च पूजकवर्गेषु, 'नाहं मूर्तीर्विक्रीणामि, किन्तु भिनद्मि' इति सङ्गर्ज्य जनताया हाहाकार-कल-कलमाकर्णयन् घोरगदया मूर्तिमतुत्रुटत्। गदापातसमकालमेव चानेकार्बुदपद्ममुद्रामूल्यानि रत्नानि मूर्तिमध्यादुच्छलितानि परितोऽवाकीर्यन्त । स च दग्धमुखः तानि रत्नानि मूर्तिखण्डानि च क्रमेलकपृष्ठेष्वारोप्य सिन्धुनदमुत्तीर्य स्वकीयां विजयध्वजिनीं गजिनीं नाम राजधानीं प्राविशत् ।

अर्थ - उसके बाद पुजारियों के 'वीर! तुमने सारा धन लिया, हिन्दुओं की सेनाओं को हरा दिया, हम लोगों को बन्दी बना लिया, निर्मल यश का सञ्चय कर लिया, यदि इतने पर भी तुम्हारा क्रोध शान्त न हुआ हो तो हमें मारो, चीर डालो, काट डालो, ऊपर पहाड़ से गिरा दो, समुद्र में डुबा दो, टुकडे-टुकड़े कर डालो, कतर डालो, जला डालो, लेकिन इस बेचारी जड़ महादेव की मूर्ति को छोड़ दो । यदि इस तरह भी स्वीकार न हो तो हमसे दो करोड़ स्वर्णमुद्राएँ और ले लो, रक्षा करो, इस मूर्ति को मत छुओं यह कहकर बार-बार विनय करने पर रोने-गिड़गिड़ाने, पैरों पड़ने, भूमि पर लोटने और प्रणाम करने पर, 'मैं मूर्ति बेचता नहीं, किन्तु तोड़ता हूँ' ऐसा गरजकर जनता को हाहाकार ध्वनि के बीच उस (महमूद गजनवी) ने भीषण गदा से मूर्ति तोड़ डाली । गदा गिरते ही अनेक अरब पद्म मूल्य के रत्न मूर्ति से उछलकर इधर-उधर बिखर गये । वह मुँहजला उन उन रत्नों और मूर्ति खण्डों को ऊँटों की पीठ पर लादकर, सिन्धुनदी को पार कर अपनी विजयपताका के साथ राजधानी गजनी में प्रवेश किया ।

अथ कालक्रमेण सप्ताशीत्युत्तरसहस्रतमे (१०८७) वैक्रमाब्दे सशोकं सकष्टञ्च प्राणांस्त्यक्तवति महामदे, गोरदेशवासी कश्चित् शहाबुद्दीननामा प्रथमं गजिनीदेशमाक्रम्य, महामदकुलं धर्मराज-लोकाध्वन्यध्वनीनं विधाय, सर्वाः प्रजाश्च पशुमारं मारयित्वा तद्रुधिरार्द्रमृदा गोरदेशे बहून् गृहान् निर्माय चतुरङ्गिण्याऽनीकिन्या भारतवर्षं प्रविश्य, शीतलशोणितानप्यसयन् पञ्चाशदुत्तर-द्वादशशतमितेऽब्दे (१२५०) दिल्लीमश्वयाम्बभूव ।

अर्थ - तदनन्तर, समय के फेर से वि० सं० १०८७ में महमूद की शोक और मलेशपूर्वक मृत्यु हो जाने पर गोर देश निवासी शहाबुद्दीन नामक किसी यवन ने पहले गजनी देश पर आक्रमण करके, महमूद के वंशजों को यमलोक के पथ का पथिक बना कर सारी प्रजा को पशुओं की मौत मार कर प्रजा के रक्त से मिली मिट्टी से गोरदेश में अनेक महलों का निर्माण कर चतुरंगिणी सेना के साथ भारतवर्ष में प्रवेश कर, ठण्डे खून वाले (युद्ध की इच्छा से रहित) भारतीयों को भी तलवार के घाट उतारते हुए, १२५० में दिल्ली को घुड़सवार सेना से भर दिया।

ततो दिल्लीश्वरं पृथ्वीराजं कान्यकुब्जेश्वरं जयचंद्र च पारस्परिक विरोध-ज्वर-ग्रस्तं विस्मृतराजनीतिं भारतवर्षदुर्भाग्यायमाणमाकलय्यानायासेनोभावपि विशस्य, वाराणसीपर्यन्तमखण्डमण्डलम-कण्टकमकीटकिट्टं महारत्नमिव महाराज्यमङ्गीचकार । तेन वाराणस्यामपि बहवोऽस्थिगिरयः प्रचिताः, रिङ्गत्तरङ्ग-भङ्गा-गङ्गाऽपि शोणितशोणा शोणीकृता, परस्सहस्राणि च देवमन्दिराणि भूमिसात्कृतानि । स एव प्राधान्येन भारते यावनराज्याङ्कुराऽऽरोपकोऽभूत् । तस्यैव च कश्चित् क्रीतदासः कुतुबुद्दीननामा प्रथमभारतसम्राट् सञ्जातः।


अर्थ - तत्पश्चात् मुहम्मद गोरी ने दिल्लीश्वर पृथ्वीराज और कन्नौज नरेश जयचन्द को आपसी फूट रूपी ज्वर से ग्रस्त, राजनीति के ज्ञान से शून्य और भारतवर्ष का दुर्भाग्यस्वरूप समझकर दोनों को अनायास मारकर वाराणसी तक विस्तृत, निष्कण्टक, कीट और मल से अस्पृष्ट महारत्न के समान राज्य पर अधिकार कर लिया। वाराणसी में भी उसने हड्डियों के पहाड़ चुन दिए, चञ्चल तरङ्गों वाली गङ्गा को भी (भारतीयों के) रुधिर से रंग कर शोणनद जैसी बना दिया और हजारों देव मन्दिरों को धूल में मिला दिया। भारतवर्ष में यवनराज्य का बीजारोपण मुख्यतः उसी ने किया और उसी का कुतुबुद्दीन नाम का एक गुलाम भारतवर्ष का प्रथम बन सम्राट हुआ ।

तमारभ्याद्यावधि राक्षसा एवं राज्यमकार्षुः । दानवा एव च दीनानदीदलन् । अभूत् केवलम् अकबरशाह-नामा यद्यपि गूढशत्रुर्भारतवर्षस्य, तथापि शान्तिप्रिया विद्वत्प्रियश्च । अस्यैव प्रपौत्रो मूर्तिमदिव कलियुगं गृहीतविग्रह इव चाधर्मः, आलमगीरोपाधिधारी अवरङ्गजीवः सम्प्रति दिल्लीवल्लभतां कलङ्कयति । अस्यैव पताकाः केकयेषु, मत्स्येषु, मगधेषु, अङ्गेषु, वङ्गेषु, कलिङ्गेषु च दोधूयन्ते, केवलं दक्षिणदेशेऽधुनाऽप्यस्य परिपूर्णो नाधिकारः संवृत्तः ।

अर्थ - उस कुतुबुद्दीन से लेकर आज तक राक्षसों ने हो राज्य किया है । और दानवों ने ही दोनों की निर्मम हत्या की है। केवल अकबर नाम का बादशाह – यद्यपि वह भी भारत वर्ष का गुप्तशत्रु था— कुछ शान्ति प्रिय और विद्वानों का आदर करने वाला हुआ उसी का प्रपोत्र, मूर्तिमान कलियुग और शरीर धारण करके आया हुआ अधर्म सा औरङ्गजेब - जिसने 'आलमगीर' उपाधि धारण कर रखी है - इस समय दिल्ली के शासन को कलङ्कित कर रहा है। केकय अर्थात् पंजाब प्रान्त में झेलम और चिनाव के मध्यभाग, मत्स्य (राजस्थान ), मगध (दक्षिण बिहार) अङ्ग (पूर्वी बिहार) बङ्ग (बंगाल) कलिङ्ग (उड़ीसा) में आज इसी के झण्डे फहरा रहे हैं, केवल दक्षिण देश ही ऐसा है जहां अभी भी इसका पूरा अधिकार नहीं हो पाया है ।


दक्षिणदेशो हि पर्वतबहुलोऽस्ति अरण्यानीसङ्कुलश्चास्तीति चिरोद्योगेनापि नायमशकन्महाराष्ट्रकेसरिणो हस्तयितुम् । साम्प्रतमस्यैवाऽऽत्मीयो दक्षिण-देशशासकत्वेन "शास्तिखान" नामा प्रेष्यत इति श्रूयते । महाराष्ट्रदेशरत्नम्, यवन-शोणित-पिपासाऽऽकुलकृपाणः, वीरता-सीमन्तिनी-सीमन्तसुन्दर-सान्द्र-सिन्दूर-दान-देदीप्यमान-दोर्दण्डः, मुकुटमणिर्महाराष्ट्राणाम्, भूषणं भटानाम्, निधिर्नीतीनाम्, कुलभवनं कौशलानां पारावारः परमोत्साहानाम् कश्चन प्रातः स्मरणीयः, स्वधर्माऽऽग्रहग्रहग्रहिलः, शिव इव धृतावतारः शिववीरश्चास्मिन् पुण्यनगरान्नेदीयस्येव सिंहदुर्गे ससेनो निवसति। विजयपुराधीश्वरेण साम्प्रतमस्य प्रवृद्धं वैरम् । "कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्" इत्यस्य सारगर्भा महती प्रतिज्ञा । सतीनाम्, सताम्, त्रैवर्णिकस्यार्यकुलस्य धर्मस्य, भारतवर्षस्य च आशा-सन्तान-वितानस्यायमेवाऽऽश्रयः। इयमेव वर्तमाना दशा भारतवर्षस्य । किमधिकं विनिवेदयामो योगबलावगतसकलगोप्यतमवृत्तान्तेषु योगिराजेषु" इति कथयित्वा विरराम ।

अर्थ - दक्षिण देश में पर्वतों की अधिकता है और घने जङ्गल भी वहाँ बहुत हैं, इसीलिये बहुत दिनों के प्रयत्न के बाद भी औरङ्गजेब सिंहसदृश मराठों को वश में नहीं कर सका। सुना जाता है कि अब उसी का सगा सम्बन्धी शाइस्ता खाँ दक्षिण देश का शासक बनाकर वहाँ भेजा जा रहा है। महाराष्ट्र देश के रत्न, यवनों के रक्त की प्यासी तलवार वाले, वीरतारूपी नायिका की माँग में सुन्दर चटकीला सिन्दूर लगाने से देदीप्यमान भुजाओं वाले, मराठों के मुकुटमणि, योद्धाओं के आभूषण, नीतियों के निधान, निपुणताओं के कुलगृह, परम उत्साहों के सागर, प्रातःस्मरणीय, सनातनधर्म के तम पालक अवतारधारण कर आये शिवसदृश महाराज शिवाजी पूना नगर से अत्यन्त निकट सिहगढ़ में सेना सहित रह रहे हैं। बीजापुर नरेश के साथ इस समय उनकी शत्रुता बढ़ी हुई है । 'या तो कार्य को ही पूरा करूंगा या देह को ही नष्ट कर डालूंगा' यह इनकी सारगर्भित गम्भीर प्रतिज्ञा है। सतियों, सज्जनों, द्विजों, आर्यों, धर्म और भारतवर्ष की आशाओं के एकमात्र आधार यही हैं। भारतवर्ष की यही वर्तमान दशा है। आप योगिराज हैं और योगबल से सारे अत्यन्त गुह्य वृत्तान्त भी जानते हैं, अतः आप से अधिक क्या कहना ? यह कहकर मुनि चुप हो गये।

तदाकर्ण्य विविध-भाव-भङ्ग-भासुर-वदनो योगिराजो मुनिराजं तत्सहचरांश्च निपुणं निरीक्ष्य, तेषामपि शिववीरान्तरङ्गतामङ्गीकृत्य, मुनिवेषव्याजेन स्वधर्मरक्षाव्रतिनश्चोररीकृत्य "विजयतां शिववीरः, सिद्ध्यन्तु भवतां मनोरथाः" इति मन्दं व्याहार्षीत् ।

अर्थ - यह वृत्तान्त सुनकर, योगिराज का मुख विविध भाव भंगिमाओं से खिल उठा । उन्होंने मुनि और उनके साथियों को सम्यक् प्रकार से देखकर उन्हें भी शिवाजी के अन्तरङ्ग सहायक समझकर, और मुनि वेष के बहाने अपने धर्म की रक्षा करने में कटिबद्ध जानकर, धीरे से वीर शिवाजी की जय हो, आपके मनोरथ पूरे हों, यह कहा।


अथ किमपि पिपृच्छिषामीति शनैरभिधाय बद्धकरसम्पुटे सोत्कण्ठे जटिलमुनौ "अवगतम् यवनयुद्धे विजय एव, दैवादापद्ग्रस्तोऽपि च सखिसाहाय्येनाऽऽत्मानमुद्धरिष्यति" इति समभाणीत् । मुनिश्च गृहीतमित्युदीर्य, पुनः किञ्चिद् विचार्य्येव स्मृत्वेव च, दीर्घमुष्णं निःश्वस्य, रोरुध्यमानैरपि किञ्चिदुद्गतैर्वाष्पबिन्दुभिराकुलनयनो "भगवन् ! प्रायो दुर्लभो युष्मादृक्षाणां साक्षात्कार इत्यपराऽपि पृच्छाऽऽच्छादयति माम्" इति न्यवेदीत् । स च "आम् ! ऊरीकृतम् जीवति सः सुखेनैवास्ते" इत्युदतीतरत् । अथ 'तं कदा द्रक्ष्यामि" इति पुनः पृष्टवति "तद्विवाहसमये द्रक्ष्यसि" इत्यभिधाय, बहूनि सान्त्वनावचनानि च गम्भीरस्वरेणोक्त्वा सपदि उपत्यकाम्, गण्डशैलान् अधित्यकां चाऽऽरुह्य पुनस्तस्मिन्नेव पर्वतकन्दरे तपस्तप्तुं जगाम ।

अर्थ -  तत्पश्चात्, धीरे से मैं कुछ पूछना चाहता हूँ यह कहकर जटाधारी मुनि के उत्कण्ठापूर्वक हाथ जोड़ने पर योगिराज बोले, समझ लिया, यवनयुद्ध में शिवाजी को जीत ही होगी, दुर्दैव से आपत्तिग्रस्त होकर भी मित्रों की सहायता से वे अपने को उबार लेंगे। मुनि ने भी भगवन् ! समझ गया यह कह कर पुनः कुछ विचार सा करके, कुछ स्मरण सा करके, लम्बी और गरम साँस लेकर रोके जाने पर भी कुछ निकल आये अश्रुकणों से व्याकुल नेत्र होकर निवेदन किया, भगवन् ! आप के समान महात्माओं का दर्शन दुर्लभ है अत: एक और प्रश्न मुझे उत्सुक कर रहा है। योगिराज ने हाँ कहकर स्वीकार किया कि वह जीवित है और सुखपूर्वक ही है । यह उत्तर देने पर मुनि ने पुनः पूछा उसे कब देखूंगा ? उसके विवाह के समय देखोगे । यह कह कर गंभीर स्वर से अनेक प्रकार के आश्वासन देकर योगिराज उसी समय पर्वत की घाटी, पर्वत से गिरी हुई शिलाओं और पर्वत के ऊपर की भूमि पर चढ़कर पुनः उसी गुफा में तपस्या करने चले गये ।

ततः शनैः शनैर्निर्यातेष्वपरिचितजनेषु, संवृत्ते च निर्मक्षिके, मुनिर्गौरबटुमाहूय, विजयपुराधीशाऽऽज्ञया शिववीरेण सह योद्धुं ससेनं प्रस्थितस्य अफजलखानस्य विषये यावत् किमपि प्रष्टुमियेष, तावत् पादचारध्वनिमिव कस्याप्यश्रौषीत् । तमवधार्यान्यमनस्के इव मुनौ गौरवबटुरपि तेनैव ध्वनिना कर्णयोः कृष्ट इव समुत्थाय, निपुणं परितो निरीक्ष्य, ‘पर्य्यट्य, 'कोऽयम्' ?’ इति च साम्रेडं व्याहृत्य, कमप्यनवलोक्य पुनर्निवृत्य, 'मन्ये मार्जारः कोऽपि' इति मन्दं गुरवे निवेद्य पुनस्तथैवोपविवेश । मुनिश्च ‘मा स्म कश्चिचदितरः श्रौषीत्’ इति सशङ्कः क्षणं विरम्य पुनरुपन्यस्तुमारेभे ।

अर्थ - उसके बाद, अपरिचित लोगों के धीरे-धीरे चले जाने और एकान्त हो जाने पर मुनि ने ज्यों ही गौर बटु को बुलाकर, वीजापुर नरेश की आशा से वीर शिवाजी के साथ लड़ने के लिए सेना के साथ प्रस्थान किये हुए अफजल खां के विषय में कुछ पूछना चाहा, तभी किसी के पैरों की ध्वनि सुनाई पड़ी। उसे सुनकर मुनि के उदास से हो जाने पर वह गौर ब्रह्मचारी भी उसी ध्वनि से कानों को आकृष्ट किये जैसा उठकर चतुरता से चारों ओर देखकर घूमकर 'कौन' इस प्रकार बार-बार कहकर किसी को भी न देख पुनः लौटकर 'ऐसा लगता है कि कोई बिल्ली है' यह धीरे से गुरुजी से कहकर पुनः वैसे ही बैठ गया। मुनि ने कोई दूसरा न सुन ले इस आशंका से थोड़ी देर तक रुककर कहना प्रारम्भ किया ।


"वत्स गौरसिंह ! अहमत्यन्तं तुष्यामि त्वयि, यत्त्वमेकाकी अफजलखानस्य त्रीनश्वान् तेन दासीकृतान् पञ्चब्राह्मणतनयांश्च मोचयित्वा आनीतवानसीति । कथं न भवेरीदृशः ? कुलमेवेदृशं राजपुत्रदेशीयक्षत्रियाणाम्" । तावत् पुनरश्रूयत मर्मरः पादक्षेपश्च । ततो विरम्य, मुनिः स्वयमुत्थाय, प्रोच्चं शिलापीठमेकमारुह्य, निपुणतया परितः पश्यन्नपि कारणं किमपि नावलोकयामास चरणाक्षेपशब्दस्य । अतः पुनरेकतानेन निपुणं निरीक्षमाणेन गौरसिंहेन दृष्ट्म यत् कुटीरनिकटस्थनिष्कुटककदलीकूटे द्वित्रास्तरवोऽतितरां कम्पन्ते इति ।

अर्थ - पुत्र गौरसिंह ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हैं, जो कि तुम अकेले ही अफजल खाँ के तीन घोड़ों तथा उसके द्वारा दास बनाये गये पाँच ब्राह्मणपुत्रों को छुड़ाकर ले आये हो । तुम ऐसे क्यों न होंगे ? राजपूताने के क्षत्रियों की कुल परम्परा ही ऐसी है। तभी पुनः मर्मर ध्वनि तथा पैरों की आहट सुनाई पड़ी । तब रुककर मुनि ने स्वयं उठकर एक ऊँचे शिलापीठ पर चढ़कर चतुरतापूर्वक चारों ओर देखते हुए भी पैरों की आहट का कोई कारण नहीं देखा । इसीलिए पुन: एकाग्र मन से भलीभांति देखते हुए गौरसिंह ने देखा कि कुटी के समीप की गृहवाटिका के केलों के समूह में दो-तीन पेड़ अधिक हिल रहे हैं ।

तदेव संशयस्थानमित्यङ्गुल्या निर्दिश्य, कुटीरवलीके गोपयित्वा स्थापितानामसीनामेकमाकृष्य, रिक्तहस्तेनैव मुनिना पृष्ठतोऽनुगम्यमानः कपोलतलविलम्बमानान् चक्षुश्चुम्बिनः कुटिलकचान् वामकराङ्गुलिभिरपसारयन्, मुनिवेषोऽपि किञ्चिद् कोपकषायितनयनः करकम्पितकृपाकृपणकृपाणो महादेवमारिराधयिषुस्तपस्विवेषोऽर्जुन इव शान्तवीररसद्वयस्नातः सपदि समागतवान् तन्निकटे, अपश्यच्च लता-प्रतान-वितान-वेष्टित-रम्भा-स्तम्भत्रितयस्य मध्ये नीलवस्त्रखण्डवेष्टितमूर्द्धानं हरितकञ्चुकं श्यामवसनानद्धकटितटकर्बुराधोवसनम्, काकासनेनोपविष्टम्, रम्भालवाललग्नाधोमुखखड्गत्सरुन्यस्तविपर्यस्तहस्तयुगलम्, लशुनगन्धिभिर्निश्वासैः कदलीकिसलयानि मलिनयन्त्रम्, नवाङ्कुरितश्मश्रुश्रेणिच्छलेन कन्यकापहरणपङ्ककलङ्ककलङ्किताननम्, विंशतिवर्षकल्पं यवनयुवकम् । ततः परस्परं चाक्षुषे सम्पन्ने दृष्टोऽहमिति निश्चित्य, उत्प्लुत्य कोशात् कृपाणमाकृष्य, युयुत्सुः सोऽपि सम्मुखमवतस्थे । ततस्तयोरेवं संजाताः परस्परमालापाः ।


गौरसिंहः - कुतो रे यवनकुलकलङ्क ?

यवनयुवकः – आः ! वयमपि कुत इति प्रष्टव्याः ? भारतीयकन्दरिकन्दरेष्वपि वयं विचराम:, श्रृङ्गलाङ्गूलविहीनानां हिन्दुपदव्यवहार्याणां च युष्मादृक्षाणां पशूनामाखेटक्रीडया रमामहे ।

गौरसिंहः - [सक्रोधं विहस्य] वयमपि तु स्वाङ्कागतसत्त्ववृत्तयः शिवस्य गणाः अत्रैव निवसामः, तत्सुप्रभातमद्य, स्वयमेव त्वं दीर्घदावदहने पतङ्गायितोऽसि ।

यवनयुवकः - अरे रे वाचाल ! ह्यो रात्रौ युष्मत्कुटीरे रुदतीं समायातां ब्राह्मणतनयां सपदि प्रयच्छथ, तत् कदाचिद् दयया जीवतोऽपि त्यजेयम्, अन्यथा मदसिभुजङ्गिन्या दष्टाः क्षणात् कथावशेषाः संवर्त्स्यथ । कलकलमेतमाकर्ण्य श्यामबटुरपि कन्यासमीपादुत्थाय दृष्ट्वा च हन्तुमेतं यवनवराकं पर्य्याप्तोऽयं गौरसिंह इति मा स्म गमदन्योऽपि कश्चित् कन्यकामपजिहीर्षुरिति वलीकादेकं विकटखड्गमाकृष्य त्सरौ गृहीत्वा कन्यकां रक्षन्, तदध्युषितकुटीरनिकट एव तस्थौ ।

गौरसिंहस्तु कुटीरान्तः कन्यकाऽस्ति, सा च यवनवधव्यसनिनि मयि जीवति न शक्या द्रष्टुमपि, किं नाम स्प्रष्टुम् ? तद् यावत्तव कवोष्णशोणिततृषित एष चन्द्रहासो न चलति, तावत् कूर्दनं वा उत्फालं वा यच्चिकीर्षसि तद्विधेहि" इत्युक्त्वा व्यालीढमर्य्यादया सज्ज: समतिष्ठत । ततो गौरसिंहः दक्षिणान् वामांश्च परश्शतान् कृपाणमार्गानङ्गीकृतवतः, दिनकरकरस्पर्शचतुर्गुणीकृतचाकचक्यैः चञ्चच्चन्द्रहासचमत्कारैश्चक्षूंषि मुष्णतः, यवनयुवकहतकस्य, केनाप्यनुपलक्षिताद्योगः, अकस्मादेव स्वासिना कलितकलेदसञ्जातस्वेदजलजालं विशिथिलकचकुलमालं भग्नभ्रूभयानकभालं शिरश्चिच्छेद । अथ मुनिरपि दाडिमकुसुमास्तरणाच्छन्नायामिव गाढरुधिरदिग्धायां ज्वलदङ्गारचितायां चितायामिव वसुधायां शयानं वियुज्यमानभारतभुवमालिङ्गन्तमिव निर्जीवीभवदङ्गबन्धचालनपरं शोणितसङ्घातव्याजेनान्तः स्थितरजोराशिमिवोद्गिरन्तं कलितसायन्तनघनाऽऽडम्बरविभ्रमं सततताम्रचूडभक्षणपातकेनेव ताम्रीकृतं छिन्नकन्धरं यवनहतकमवलोक्य सहर्षं ससाधुवादं सरोमोद्गमं च गौरसिंहमाश्लिष्य, भ्रूभङ्गमात्राऽऽज्ञप्तेन भृत्येन मृतककञ्चुककटिबन्धोष्णीषादिकमन्विष्याऽऽनीतं पत्रमेकमादाय सगणः स्वकुटीरं प्रविवेश ।

॥ इति प्रथमो निश्वासः ॥


द्वितीयो निश्वासः

 

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्

भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः ।

इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे,

हा हन्त ! हन्त !  नलिनीगज उज्जहार ॥ (स्फुटकम्)

            इतस्तु स्वतन्त्र-यवनकुल-भुज्यमान-विजयपुराधीश-प्रेषितः पुण्यनगरस्य समीप एव प्रक्षालित-गण्डशैल-मण्डलायाः, निझरवारिधारा पूरपूरितप्रबल-प्रवाहायाः, पश्चिम-पारावार-प्रान्तप्रसूत-गिरि-ग्राम-गुहा-गर्भनिर्गताया अपि प्राच्यपयोनिधि-चुम्बन-चञ्चुरायाः, रिङ्गत्तरङ्ग-भङ्गोद्भूतावर्त्त-शत-भीमायाः, भीमाया नद्याः, अनवरत-निपद्वकुल-कुल-कुसुम-कदम्ब-सुरभीकृतमपि नीरं वगाहमान-मत्त-मतङ्गज-मद-धाराभिः कटूकुर्वन् हय-हेषा-ध्वनि-प्रतिध्वनि-बधिरीकृत-गव्यूति-मध्यगाध्वनीनवर्गः, पटकुटीरकूट-विहित-शारदाम्भोधर-विडम्बनः, निरपराध-भारताऽभिजनजनपीडन-पातक-पटलैरिव समुद्धूययमान-नीलध्वजैरुपलक्षितः, विजयपुरस्यान्यतमः सेनानीः अफजलखानः प्रतापदुर्गादविदूर एव शिववीरेण सहाऽऽहवद्यूतेन चिक्रीडिषुः ससेनस्तिष्ठति स्म । अथ जगतः प्रभातजालमाकृष्य, कमलानि सम्मुद्रय, कोकान् सशोकीकृत्य, सकल-चराचर-चक्षुः-सञ्चार-शक्तिं शिथिलीकृत्य, कुण्डलेनेव निजमण्डलेन पश्चिमामाशां भूषयन्, वारुणी-सेवनेनेव माञ्जिष्ठमञ्जिमरञ्जितः, अनवरत-भ्रमण-परिश्रम-श्रान्त इव सुषुप्सुः, म्लेच्छगण-दुराचार-दुःखाऽऽक्रान्त-वसुमतीवेदनामिव समुद्रशायिनि निविवेदयिषुः, वैदिक-धर्म-ध्वंस-दर्शन-सञ्जातनिर्वेद इव गिरिगहनेषु प्रविश्य तपश्चिकीर्षुः, धर्म-ताप-तप्त इव समुद्रजले सिस्नासुः, सायंसमयमवगत्य सन्ध्योपासनमिव विधित्सुः, ‘नास्ति कोऽपि मत्कुले, यः सकण्ठग्रहं धर्म-ध्वंसिनो यवनहतकान् यज्ञियादस्माद् भारतगर्भान्निस्सारयेत्’ इति चिन्ताऽऽक्रान्त इव कन्दरि-कन्दरेषु प्रविविक्षुर्भगवान् भास्वान्, क्रमशः क्रूरकरानपहाय, दृश्य-परिपूर्ण-मण्डलः संवृत्य, श्वेतीभूय, पीतीभूय, रक्तीभूय च गगनधरातलाभ्यामुभयत आक्रम्यमाण इवाण्डाकृतिमङ्गीकृत्य, कलि-कौतुक-कवलीकृत-सदाचार-प्रचारस्य पातक-पुञ्ज-पिञ्जरित-धर्मस्य च यवन-गण-ग्रस्तस्य भारतवर्षस्य च स्मारयन्, अन्धतमसे च जगत् पातयन्, चक्षुषामगोचर एव सञ्जातः । ततः संवृत्ते किञ्चिदन्धकारे धूप-धूमेनेव व्याप्तासु हरित्सु भुशुण्डीं स्कन्धे निधाय निपुणं निरीक्षमाणः, आगत-प्रत्यागतञ्च विदधानः, प्रतापदुर्ग-दौवारिकः, कस्यापि पादक्षेपध्वनिमिवाऽश्रौषीत् । ततः स्थिरीभूय पुरतः पश्यन् सत्यपि दीप-प्रकाशेऽवतमसवशादागन्तारं कमप्यनवलोकयन्, गम्भीरस्वरेणैवमवादीत् – ‘कः कोऽत्र भोः ?’ कः कोऽत्र भोः ? इति ।

            अथ क्षणानन्तरं पुनः स एव पादध्वनिरश्रावीति भूयः साक्षेपमवोचत् – क एष मामनुत्तरयन् मुमूर्षुः समायाति बधिरः ? ततो ‘दौवारिक ! शान्तो भव, किमिति व्यर्थ मुमूर्षुरिति बधिर इति च वदसि ?’ इति वक्तारमपश्यतैवाऽऽकर्णि मन्द्रस्वरमेदुरा वाणी । अथ ‘तत्किं नाज्ञायि अद्यापि भवता प्रभुवर्य्याणामादेशो यद् दौवारिकेण प्रहरिणा वा त्रिः पृष्टोऽपि प्रत्युत्तरमददद् हन्तव्य इति’ इत्येवं भाषमाणेन द्वाःस्थेन ‘क्षम्यतामेष आगच्छामि, आगत्य च निखिलं निवेदयामि’ इति कथयन् द्वादशवर्षेण केनापि भिक्षुबटुनाऽनुगम्यमानः कोऽपि काषायवासाः, धृत-तुम्बी-पात्रः, भस्मच्छुरित-ललाटः, रुद्राक्ष-मालिकासनाथितकण्ठः, भव्यमूर्तिः संन्यासी दृष्टः । ततस्तयोरेवमभूदालापः ।

संन्यासी – कथमस्मान् संन्यासिनोऽपि कठोरभाषणैस्तिरस्करोषि ?

दौवारिकः – भगवन् ! भवान् संन्यासी तुरीयाश्रमसेवीति प्रणम्यते, परन्तु प्रभूणामाज्ञामुल्लङ्घ्य निजपरिचयमदददेवाऽऽयातीत्याक्रुश्यते ।

संन्यासी – सत्यं क्षान्तोऽयमपराध:, परमद्यावधि, संन्यासिनः, ब्रह्मचारिणः, पण्डिताः, स्त्रियः, बालाश्च न किमपि प्रष्टव्याः, आत्मानमपरिचाययन्तोऽपि प्रवेष्टव्याः ।

दौवारिकः – संन्यासिन् ! संन्यासिन् ! बहूक्तम्, विरम, न वयं दौवारिका ब्रह्मणोऽप्याज्ञां प्रतीक्षामहे । किन्तु यो वैदिकधर्मरक्षाव्रती, यश्च संन्यासिनां ब्रह्मचारिणां तपस्विनां च संन्यासस्य ब्रह्मचर्यस्य तपसश्चान्तरायाणां हन्ता, येन च वीरप्रसविनीयमुच्यते कोङ्कणदेशभूमिः, तस्यैव महाराज-शिववीरस्याऽऽज्ञां वयं शिरसा वहामः ।

संन्यासी – अथ किमप्यस्तु पन्थान निर्दिश, आवां शिववीरनिकटे जिगमिषावः ।

दौवारिकः – अलमालप्यापि तत् प्राह्णे महाराजस्य सन्ध्योपासनसमय भवादृशानां प्रवेशसमयो भवति; न तु रात्रौ ।

संन्यासी – तत्किं कोऽपि न प्रविशति रात्रौ ?

दौवारिकः – (साक्षेपम् )  कोऽपि कथं न प्रविशति ? परिचिता वा प्राप्त-परिचयपत्रा वा आहूता वा प्रविशन्ति, न तु भवादृशाः; ये तुम्बीं गृहीत्वा द्वाराद् द्वारम्-इति कथयन्नेव तत्तेजसेव धर्षितो मध्य एव विरराम ।

संन्यासी - (स्वगतम्) राजनीति-निष्णातः शिववीरः । सर्वथा दौवारिकता-योग्य एवायं द्वारपाल: स्थापितोऽस्ति। परीक्षितमप्येनमेकस्मिन् विषये पुनः परीक्षिष्ये तावत् । (प्रकटम्) दौवारिक ! इत आयाहि, किमपि कर्णे कथयिष्यामि ।

दौवारिकः – (तथा कृत्वा) कथ्यताम् ।

संन्यासी – निरीक्षस्व त्वमधुना दौवारिकोऽसि, प्राणानगणयन् जीविकां निर्वहसि, त्वं सहस्रं वाऽयुतं वा मुद्रा राशीकृताः कदापि प्राप्स्यसीति न कथमपि सम्भाव्यते ।

दौवारिकः – आम्, अग्रे कथ्यताम् ।

संन्यासी – वयञ्च संन्यासिनो वनेषु गिरिकन्दरेषु च विचरामः , सर्वं रसायनतत्त्वं विद्मः।

दौवारिकः – स्यादेवम्, अग्रे अग्रे ?

संन्यासी – तद् यदि त्वं मां प्रविशन्तं न प्रतिरुन्धेः तदधुनैव परिष्कृतं पारद-भस्म तुभ्यं दद्याम्, यथा त्वं गुञ्जामात्रेणापि द्वापञ्चाशत् सङ्ख्याकतुलापरिमितं ताम्रं जाम्बूनदं विधातुं शक्नुयाः ।

दौवारिकः – हंहो ! कपटसंन्यासिन् ! कथं विश्वासघातं स्वामिवञ्चनं च शिक्षयसि ? ते केचनान्ये भवन्ति जार-जाताः, ये उत्कोचलोभेन स्वामिनं वञ्चयित्वा आत्मानमन्धतमसे पातयन्ति, न वयं शिवगणास्तादशाः । (संन्यासिनो हस्तं धृत्वा) इतस्तु सत्यं कथय कस्त्वम् ? कुत आयातः ? केन वा प्रेषितः ?

संन्यासी – (स्मित्वेव) अथ त्वं मां कं मन्यसे ?

दौवारिकः – अहं तु त्वामस्यैव ससेनस्याऽऽयातस्य अफजलखानस्य –

संन्यासी – (विनिवार्य मध्य एव) धिग् धिग् !

दौवारिकः – कस्याप्यन्यस्य वा गूढचरं मन्ये । तदादेशं पालयिष्यामि प्रभुवर्यस्य (हस्तमाकृष्य) आगच्छ दुर्गाध्यक्ष-समीपे, स एवाभिज्ञाय त्वया यथोचितं व्यवहरिष्यति ।

ततः संन्यासी तुः – "त्यज, नाहं पुतरायास्यामि, नाहं पुनरेवं कथयिष्यामि, महाशयोऽसि, दयस्व दयस्व" इति सहस्रधा समचकथत्, तथापि दौवारिकस्तु तमाकृष्य नयन्नेव प्रचलितः । अथ यावद् द्वारस्थ स्तम्भोपरि संस्थापितायां काच-मञ्जूषायां जाज्वल्यमानस्य प्रबल-प्रकाशस्य दीपस्य समीपे समायातः, तावत् संन्यासिनोक्तम् -"दौवारिक ! अपि मां पूर्वमपि कदाऽप्यद्राक्षीः ?" ततो दौवारिकः पुनस्तं निपुणं निरीक्षमाणो मन्द्रेण स्वरेण, अरुणापाङ्गाभ्यां लोचनाभ्याम्, गौरतरेण वर्णेन, चुम्बितयौवनेन वयसा, निर्भीकेण हारिणा च मुखमण्डलेन पर्यचिनोत् । भुशुण्डी-समुत्तोलेन-किण-कर्कश-करग्रहमपहाय, सलज्ज इव च नम्रीभूय, प्रणमन्नुवाच "आः ! कथं श्रीमान् गौरसिंह आर्यः ? क्षम्यतामनुचितव्यवहार एतस्य ग्राम्य-वराकस्य" । तदवधार्य तस्य पृष्ठे हस्तं विन्यस्यन् संन्यासिरूपो गौरसिंहः समावोचत - दौवारिक ! मया बहुशः परीक्षितोऽसि, ज्ञातोऽसि यथायोग्य एव पदे नियुक्तोऽसि चेति । त्वादृक्षा एव प्रभूणां पुरस्कारभाजनानि भवन्ति, लोकद्वयं च विजयन्ते । तव प्रामाणिकतां जानीत एवाऽत्रभवान् प्रभुवर्य्यः, परमहमपि विशिष्य कीर्तयिष्यामि । निर्दिश तावत्, कुत्र श्रीमान् ? किञ्चानुतिष्ठति ? ततः पुनर्बद्धाञ्जलेर्दौवारिकस्य किमपि कर्णे कथितमाकर्ण्य प्रधानद्वारमुल्लङ्घ्य नेदीयस्यामेकस्या निम्बतरु-तल-वेदिकायां सहचरं समुपवेश्य, तुम्बीमेकतः संस्थाप्य, स्वाङ्गरक्षिकावरण-काषायवसनं चैकतो निम्बशाखायामवलम्बय्य पट-खण्डेन पक्ष्मणोः कपोलयोः कर्णयोर्भ्रुवोश्चिबुके नासायां केशप्रान्तेषु च छुरितामिव विभूतिं प्रोञ्छ्य, स्कन्धयोः पृष्ठे च लम्बमानान् मेचकान् कुञ्चितान् कचानाबध्य, सहचरपोटलिकात उष्णीषमादाय, शिरसि चाऽऽधाय, सुन्दरमुत्तरीयं चैकं स्कन्धयोर्निक्षिप्य, दौवारिक-निर्देशानुसारं श्रीशिववीरालङ्कृतामट्टालिकां प्रति प्रातिष्ठत । शिववीरस्तु कस्याञ्चिच्चन्द्रचुम्बिन्यां सान्द्र-सुधासार-संलिप्तभित्तिकायां धूपधूपितायां गजदन्तिकावलम्बित-विविध-च्छुरिकाखड्गरिष्टिकायां सुवर्ण पिञ्जर-परिलम्बमान शुक-पिक-चकोर-सारिका-कलकूजितायामट्टालिकायां सन्ध्यामुपास्योपविष्ट आसीत् । परितश्च तस्यैव खर्वामप्यखर्वपराक्रमां श्यामामपि यशःसमूह-श्वेतीकृत-त्रिभुवनां कुशासनाश्रयामपि सुशासनाश्रयां पठन-पाठनादि-परिश्रमानभिज्ञामपि नीतिनिष्णातां स्थूलदर्शनामपि सूक्ष्मदर्शनां ध्वंसकाण्डव्यसनिनीमपि धर्मधौरेयीं कठिनामपि कोमलाम् उग्रामपि शान्तां शोभित विग्रहामपि दृढ़सन्धि-बन्धां कलितगौरवामपि कलितलाघवां विशाल-ललाटां प्रचण्डबाहुदण्डां शोणापाङ्गां कम्बुग्रीवां सुनद्धस्नायुं वर्तुल-श्यामश्मश्रुं धारिताकृतिमिव वीरतां विग्रहिणीमिव धीरतां समासादित-समर-स्फूर्ति-मूर्तिं दर्शं दर्शं परं प्रसादमासादयन्तस्तस्य वयस्याः कटानध्यवसन् । तेषु च अफजलखान-दमन-विषयकवार्तामारिप्सुष्वेव कश्चिद् वेत्रहस्तः प्रतीहारः प्रविश्य, वेत्रं कक्षे संस्थाप्य, शिरो नमयित्वा, अञ्जलिं बद्ध्वा न्यवीविदत्-"प्रभो ! श्रीमान् गौरसिंहो दिदृक्षतेऽत्रप्रभवन्तम्" । तदाकर्ण्य "आम् !  प्रवेशय प्रवेशय" इति सानन्दं सोत्साहं च कथितवति महाराष्ट्रमण्डलाऽऽखण्डले, प्रतीहारो निवृत्य, सपद्येव तं प्रावीविशत् ।  तमवलोक्यैव "इत इतो गौरसिंह ! उपविश, उपविश । चिराय दृष्टोऽसि अपि कुशलं कलयसि ? अपि कुशलिनस्तव सहवासिनः ? अप्यङ्गीकृतमहाव्रतं निर्वहथ यूयम् ? अपि कश्चिन्नूतनो वृत्तान्तः ?" इति कुसुमानीव वर्षता पीयूष-प्रवाहेणेव सिञ्चता मृदुना वचनजातेन तत्रभवता शिववीरेणाऽऽद्रियमाणः, आपृच्छ्यमानश्च, त्रिःप्रणम्य, अन्तरङ्ग-मण्डली-जुष्ट-कटे समुपविश्य, करौ सम्पुटीकृत्य भगवन् ! अखिलं कुशलं प्रभूणामनुग्रहेणाऽस्माकमखिलानाम् अङ्गीकृत-महाव्रते च मा स्म पदं धात् कश्चनान्तराय इत्येव सदा प्रार्थ्यते भगवान् भूतनाथः । नूतनः प्रत्नश्च को नामाद्यतनसमये वक्तव्यः श्रोतव्यश्च वृत्तान्तः, ऋते दुराचारात् स्वच्छन्दानामुच्छृङ्खलानामुच्छिन्नसच्छीलानां म्लेच्छ-हतका नाम्" इति कथयामास। ततश्च तेषामेवमभूदालापः ।

शिववीरः – अथ कथ्यतां को वृत्तान्तः ? का च व्यवस्था अस्मन्महाव्रताश्रम-परम्परायाः ?

गौरसिंहः – भगवन् ! सर्वं सुसिद्धम्, प्रतिगव्यूत्यन्तरालमङ्गीकृतसनातन-धर्म-रक्षा-महाव्रतानां धारित-मुनि-वेषाणां वीरवराणामाश्रमाः सन्ति । प्रत्याश्रमं च वलीकेषु गोपयित्वा स्थापिताः परश्शताः खड्गाः, पटलेषु तिरोभाविताः शक्तयः, कृशपुञ्जान्त:स्थापिता भुशुण्डयश्च समुल्लसन्ति । उञ्छस्य, शिलस्य, समिदाहरणस्य इङ्गुदीपर्य्यन्वेषणस्य, भूर्जपत्रपरिमार्गणस्य, कुसुमावचयनस्य, तीर्थाटनस्य, सत्सङ्गस्य च व्याजेन, केचन जटिलाः, परे मुण्डिनः, इतरे काषायिणः, अन्ये मौनिनः, अपरे ब्रह्मचारिणश्च बहवः पटवो बटवश्चराः सञ्चरन्ति । विजयपुरादुड्डीयाऽत्राऽऽगच्छन्त्या मक्षिकाया अप्यन्तःस्थितं वयं विद्मः, किं नाम एषां यवनहतकानाम् ? शिववीरः – साधु साधु, कथं न स्यादेवम् ? भारतवर्षीया यूयम्, तत्रापि महोच्चकुलजाताः, अस्ति चेदं भारतं वर्षम्, भवति च स्वाभाविक एवानुरागः सर्वस्यापि स्वदेशे, पवित्रतमश्च यौष्माकीण: सनातनो धर्मः तमेते जाल्माः समूलमुच्छिन्दन्ति । अस्ति च "प्राणा यान्तु, न च धर्मः" इत्यार्याणां दृढः सिद्धान्तः । महान्तो हि धर्मस्य कृते लुण्ठ्यन्ते, पात्यन्ते, हन्यन्ते, न धर्मं त्यजन्ति, किन्तु धर्मस्य रक्षायै सर्वसुखान्यपि त्यक्त्वा निशीथेष्वपि, वर्षास्वपि, ग्रीष्म-घर्मेष्वपि, महारण्येष्वपि, कन्दरिकन्दरेष्वपि, व्यालवृन्देष्वपि, सिंह-सङ्घेष्वपि, वारण-वारेष्वपि, चन्द्रहास-चमत्कारेष्वपि च निर्भया विचरन्ति । तद् धन्याः स्थ यूयं वस्तुत आर्यवंशीयाः, वस्तुतश्च भारववर्षीयाः । अथ कथ्यतां कोऽपि विशेषोऽवगतो वा अपजलखानस्य विषये ?

गौरसिंहः – "अवगतः, तत्पत्रमेव दर्शयामि" इति व्याहृत्य, उष्णीषसन्धौ स्थापितं कन्यापहारक- यवन-युवक-मृत-शरीरवस्त्रान्तःप्राप्तं पत्रं बहिश्चकार ।

सर्वे च विजयपुराधीशमुद्रामवलोक्य "किमतेत् ? कुत एतत् ? कथमेतत् ? कस्मादेतत् ?” इति जिज्ञासमानाः सोत्कण्ठा वितस्थिरे । गौरसिंहस्तु शिववीरस्यापि तत्प्राप्ति-चरित-शुश्रूषामवगत्य संक्षिप्य सर्वं वृत्तान्तमवोचत् । ततस्तु ‘दर्श्यताम् प्रसार्यताम्, पठ्यताम्, कथ्यताम्, किमिदम् ?’ इति पृच्छति शिववीरे गौरसिंहो व्याजहार – भगवन् ! सर्पाकारैरक्षरैः पारस्य-भाषायां लिखितं पत्त्रमेतदस्ति । एतस्य सारांशोऽयमस्ति-विजयपुराधीशः स्वप्रेषितमफजलखानं सेनापतिं सम्बोध्य लिखति यत् - "वीरवर ! महाराष्ट्र-राजेन सह योद्धुं, प्रस्थितोऽसाति मा स्म भूत्कश्चनान्तरायस्तव विजये । शिवं युद्धे जेष्यसि चेत्, पद्भ्यां सिंहं जितवानसीति मंस्ये, किन्तु सिंहहननापेक्षया जीवतः सिंहस्य वशीकार एवाधिकं प्रशस्यः । तद् यदि छलेन जीवन्तं शिवमानयेः तद् वीरपुङ्गवोपाधि-दानसहकारेण तव महतीं पदवृद्धिं कुर्य्याम् । गोपीनाथ पण्डितोऽपि मया तव निकटे प्रस्थापितोऽस्ति, स मम तात्पर्यं विशदीकृत्य तव निकटे कथयिष्यति । प्रयोजनवशेन शिवमपि साक्षात्करिष्यति" इति । इत्याकर्णयत एव शिववीरस्य अरुणकौशेय जाल-निबद्धौ मीनाविव नयने सञ्जाते, मुखं च बाल-भास्कर-बिम्ब-विडम्बनामाललम्बे, अधरं च धीरताधुरामधरीकृतवान् ।

अथ स दक्षिण-कर-पल्लवेन श्मश्रु परामृशन्नाकाशे दृष्टिं बद्ध्वा ‘अरे रे विजयपुर-कलङ्क ! स्वयमेव जीवन् शिवः तव राजधानीमाक्रम्य, वीरपुङ्गवोपाधिसहकारण तव महतीं पदवृद्धिमङ्गीकरिष्यति, तत्किं प्रेषयसि मृत्योः क्रीडनकानेतान् कदर्य्य-हतकान् ?’ - इति साम्रेडमवोचत् । अपृच्छच्च "ज्ञायते वा कश्चिद् वृत्तान्तो गोपीनाथपण्डितस्य ?" यावद् गौरसिंहः किमपि विवक्षति तावत्प्रतीहारः प्रविश्य 'विजयतां महाराजः’ इति त्रिर्व्याहृत्य, करौ सम्पुटीकृत्य, शिरो नमयित्वा कथितवान्-‘भगवन् ! दुर्गद्वारि कश्चन गोपानाथनामा पण्डितः श्रीमन्तं दिदृक्षुरुपतिष्ठते । नायं समयः प्रभूणां दर्शनस्य, पुनरागम्यताम् इति बहुशः कथ्यमानोऽपि किञ्चनात्यावश्यककार्यम्" इति प्रतिजानाति । तदत्र प्रभुचरणा एवं प्रमाणम्-इति । तदवगत्य "सोऽयं गोपीनाथः, सोऽयं, गोपीनाथ:" इति साम्रेडं सतर्कं सोत्साहं च व्याहृतवत्सु निखिलेषु, शिववीरेण निजबाल्यप्रियो माल्यश्रीकनामा सम्बोध्य कथितो यद् "गम्यतां दुर्गान्तर एव महावीरमन्दिर तस्मै वासस्थानं दीयताम्, भोज्य- पर्यङ्कादि-सुखद-सामग्रीजातेन सत्क्रियताम्, ततोऽहमपि साक्षात्करिष्यामि " इति । ततो बाढमित्युक्त्वा प्रयाते माल्यश्रीके "महाराज ! आज्ञा चेदहमद्यैव अफजलखानं कथमपि साक्षात्कृत्य, तस्याऽखिल व्यवसित विज्ञाय प्रभुचरणेषु विनिवेदयामि, नाधुना मम क्षान्तिः शान्तिश्च, यतः संन्यासिवेषोऽहं समागच्छन् द्वयोर्यवनभटयोर्वार्तयाऽवागमम्, यत् श्व एवैते युयुत्सन्तेइति गौरसिंहो मन्दं कर्णान्तिकं व्याहार्षीत् ।

ततो "वीर ! कुशलोऽसि, सर्वं करिष्यसि, जाने तव चातुरीम्, तद् यथेच्छं गच्छ, नाहं व्याहन्मि तवोत्साहम्, नीतिमार्गान् वेत्सि, किन्तु परिपन्थिन एते अत्यन्तनिर्दयाः, अतिकदर्य्याः, अतिकूटनीतयश्च सन्ति । एतैः सह परम-सावधानतया व्यवहरणीयम्" इति कथयित्वा शिववीरस्तं विससर्ज । गौरसिंहस्तु त्रिः प्रणम्य, उत्थाय, निवृत्य, निर्गत्य, अवतीर्य, सपदि तस्या एवं निम्ब-तरु-तल-वेदिकायाः समीप आगत्य, स्वसहचरं कुमारमिङ्गितेनाऽऽहूय कस्मिंश्चित् स्वसंकेतित-भवने प्रविश्य, आत्मनः कुमारस्यापि च केशान् प्रसाधनिकया प्रसाध्य, मुखमार्द्रपटेन प्रोच्छ्य ललाटे सिन्दूर-बिन्दु तिलकं विरचय्य उष्णीषमपहाय, शिरसि सूचिस्यूतां सौवर्ण-कुसुम-लतादि-चित्र-विचित्रितामुष्णीषिकां सन्धार्य, शरीरे हरित कौशेय-कञ्चुकिकामायोज्य, पादयोः शोण-पटट-निर्मितमधोवसनामाकलय्य, दिल्लीनिर्मिते महार्हे उपानहौ धारयित्वा, लघीयसीं तानपूरिकामेकां सह नेतुं सहचर-हस्ते समर्प्य, गुप्तच्छुरिकां दन्तावलदन्त-मुष्टिकां यष्टिकां मुष्टौ गृहीत्वा, पटवासैर्दिंगन्तं दन्तुरयन्, करस्थपटखण्डेन मुहुर्मुहुराननं प्रोञ्छन् गायकवेषेण अफजलखान-शिविराभिमुखं प्रतस्थे । अथ तौ त्वरितं गच्छन्तौ, सपद्येव परश्शत-श्वेतपट-कुटीरैः शारद-मेघ-मण्डलायितं दीपमाला-विहित-बहुल-चाकचक्यम् अफजलखान-शिविरं दूरत एवं पश्यन्तौ, यावत्समीपमागच्छतस्तावत् कश्चन कोकनदच्छवि-वस्त्र-खण्ड-वेष्टित-मूर्द्धा, कटिपर्यन्तसुनद्ध-काकश्यामाङ्गरक्षिक:, कर्बुराधोवसनः, शोण-श्मश्रुः, विजयपुराधीश-नामाङ्कित-वर्तुल-पित्तल-पटिट्का परिकलित-वाम-वक्षस्थलः स्कन्धे भुशुण्डी निधाय, इतस्ततो गतागतं कुर्वन् सावष्टम्भमृदुभाषया उवाच- ‘कोऽयं कोऽयम् ?' इति; ततो गौरसिंहेनापि 'गायकोऽहं श्रीमन्तं दिदृक्षे' इति समार्दवं व्याख्यायि । ततो गम्यतामन्येऽपि गायका वादकाश्च सम्प्रत्येव गताः सन्ति' इति कथयति प्रहरिणि, ‘घृतेन स्नातु भवद्रसना' इति व्याहरन् शिविरमण्डलं प्रविवेश ।

तत्र च क्वचित् खट्वासु पर्यङ्केषु चोपविष्टान्, सगडगडाशब्दं ताम्रक-धूममाकृष्य, मुखात् कालसर्पानिव श्यामल-निःश्वासानुद्गिरतः, स्वहृदयकालिमानमिव प्रकटयतः, स्वपूर्वपुरुषोपार्जित-पुण्यलोकानिव फूत्कारैरग्निसात् कुर्वतः, मरणोत्तरमतिदुर्लभं मुखाग्निसंयोगं जीवन-दशायामेवाऽऽकलयतः, प्राप्ताधिकारकलिताखर्वगर्वान् क्वचिद् "हरिद्रा, हरिद्रा लशुनं लशुनम्, मरिचं मरिचम्, चुक्रं चुक्रम्, वितुन्नकं वितुन्नकम्, शृङ्गवेरं शृङ्गवेरम्, रामठं रामठम्, मत्स्यण्डी मत्स्यण्डी, मत्स्या मत्स्याः, कुक्कुटाण्डं, कुक्कुटाण्डम्, पललं पललम्" इति कलकलैर्बालानां निद्रां विद्रावयतः समीप-संस्थापित कुतू-कुतुप-कर्करी कण्डोल-कट-कटाह-कम्बिकडम्बान्, उग्रगन्धीनि मांसानि शूलाकुर्वतः, नखम्पचा यवागूः स्थालिकासु प्रसारयतः, हिंगुगन्धीनि तेमनानि तिन्तिडीरसैर्मिश्रयतः, परिपिष्टेषु कलम्बेषु जम्बीर-नीरं निश्च्योतयतः, मध्ये मध्ये समागच्छतस्ताम्रचूडान् व्यंजन-ताडनैः पराकुर्वतः, त्रपु-लिप्तेषु ताम्र-भाजनेषु आरनालं परिवेष-यतः सूदान्; कवचिद्वक्रप्रसाधितकाकपक्षान्, मदव्याघूर्णित-शोण- नयनान्, सपारस्परिक-कण्ठग्रहं पर्य्यटतः, यौवन-चुम्बित-शरीरान्, स्वसौन्दर्य-गर्व-भारेणेव मन्दगतीन्, अनवरताक्षिप्तकुसुमबाणैरिव कुसुमैर्भूषितान्, वसना-तिरोहिताङ्गच्छटान्, विविध-पटवास-वासितानपि चिरास्नानमहामलिन-महोत्कट-स्वेद-पूर्तिगन्ध-प्रकटीकृतास्पृश्यतान् यवनयुवकान्, क्वचिद् - "अहो ! दुर्गमता महाराष्ट्रदेशस्य ! अहो, दुराधर्षता महाराष्ट्राणाम्, अहो, वीरता शिववीरस्य, अहो ! निर्भयता एतत्सेनानीनाम्, अहो त्वरितगतिरेतद्घोटकानाम्, आः ! किं कथयाम: ? दृष्ट्वैव चमत्कारं शिववीर-चन्द्रहासस्य न वयं पारयामो धैर्यं धर्तुंम्, न च शक्नुमो युद्धस्थाने स्थातुम्, को नाम द्विशिरा यः शिवेन योद्धुं गच्छेत् ? कश्च नाम द्विपृष्ठो यस्तद्भटैरपि छलालापं विदध्यात् ? वयं बलिनः, आस्माकीना महती सेना, तथाऽपि न जानीमः, किमिति कम्पत इव क्षुभ्यतीव च हृदयम् । 'यवनानां पराजयो भविष्यति, अफजलखानो विनङ्क्ष्यति' इति न विद्य: को जपतीव कर्णे, लिखतीव सम्मुखे, क्षिपतीव चान्तःकरणे। मा स्म भोः ! मैवं स्यात्, रक्ष भोः ! रक्ष जगदीश्वर ! अथवा सम्बोभवीतितमामेवमपि, योऽयमफजलखानः सेनापति-पद-विडम्बनोऽपि 'शिवेन योत्स्ये हनिष्यामि ग्रहीष्यामि वा' इति सप्रौढि विजयपुराधीशमहासभायां प्रतिज्ञाय समायातोऽपि, शिवप्रतापं च विदन्नपि "अद्य नृत्यम्, अद्य गानम्, अद्य लास्यम्, अद्य मद्यम्, अद्य वाराङ्गना, अद्य भ्रूकुंसक:, अद्य वीणावादनम्" इति स्वच्छन्दैरुच्छृङ्खलाऽऽचरणैर्दिनानि गमयति । न च यः कदापि विचारयति, यत् कदाचित् परिपन्थिभि: प्रेषिता काचन वारवधूरेव मामासवेन सह विषं पाययेत्, कोऽपि नट एव ताम्बूलेन सह गरल ग्रासयेत्, कोऽपि गायक एव वा वीणया सह खड्गमानीय खण्डयेदित्यादि; ध्रुव एव तस्य विनाशः, ध्रुवमेव पतनम् ध्रुवमेव च पशुमारं मरणम्। तन्न वयं तेन सह जीवन-रत्नं हारयिष्यामः" इति व्याहरतः; इतरांश्च –

"मैवं भोः ! श्व एव आहव-क्रीडाऽस्माकं भविष्यति, तत् श्रूयते सन्धिवार्ता-व्याजेन शिव एकत आकारयिष्यते, यावच्च स स्वसेनामपहाय एकाकी अस्मत्स्वामिना सहाऽऽलपितुमेकान्तस्थाने यास्यति; तावद् वयं श्येना इव शकुनिमण्डले महाराष्ट्रसेनायां, छिन्धि भिन्धि-इति कृत्वा युगपदेव पतिष्यामः, वसन्त-वाताहत-नीरसच्छदानिव च क्षणेन विद्रावयिष्यामः ।

इतस्तु छलेनाऽस्मत्स्वामिसहचराः शिवं पाशैर्बद्ध्वा पिञ्जरे स्थापयित्वा तं जीवन्तमेव वशंवदं करिष्यन्ति । परन्तु गोप्यतमोऽयं विषयो मा स्म भूत कस्यापि कर्णगतः – इति कर्णान्तिकं मुखमानीयोत्तरयतः साङ्ग्रामिक-भटानवलोकयन्; "धन्या भवन्तो येषां गोप्यतमा अपि विषया एवं वीथिषु विकीर्यन्ते । महाराष्ट्रा धूर्ताचार्याः, नैतेषु भवतां धूर्तता सफला भवति" इत्यात्मन्येवाऽऽत्मना कथयन्, स्वप्रभाधर्षित-सकल-रक्षकगणः स्वसौन्दर्येणाऽऽकर्षयन्निव विश्वेषां मनांसि, सपद्येव प्रधान-पट-कुटीर-द्वारमाससाद । तत्र च प्रहरिण- मालोकयदुक्तवांश्च यत् "पुण्यनगर-निवासी गायकोऽहमत्रभवन्तं गान-रस-रसायनैरमन्दमानन्दयितुमिच्छामि" इति । तदवगत्य स भ्रूसञ्चारेण कञ्चित् निवेदकं सूचितवान् । स चान्तःप्रविश्य, क्षणानन्तरं पुनर्बहिर्निगत्य गायकमपृच्छत् -किं नाम भवतः ? पूर्वं च कदाऽपि समायातो न वा ?" अथ स आह - 'तानरङ्गनामाऽहं कदाचन युष्मत्कर्णमस्पृशम् । न पूर्वं कदाऽपि ममात्रोपस्थातुं संयोगोऽभूत्, अद्य भाग्यान्यनुकूलानि चेत्, श्रीमन्तमवलोकयिष्यासि" इति । स च 'आम्' इत्युदीर्य पुनः प्रविश्य क्षणानन्तरं निर्गत्य च, विचित्रगायकममुं सह निनाय । तानरङ्गस्तु तेनैव तानपूरिका-हस्तेन बालकेनाऽनुगम्यमानः, शनैः शनैः प्रविश्य, प्रथमं द्वितीयं तृतीयं च द्वारमतिक्रम्य, कांश्चित् मृदङ्गस्वरान् सन्दधतः, कांश्चिद् वीणावरणमुन्मुच्य, प्रवाल प्रोञ्छ्य, कोणं कलयतः, कांश्चिदविचलोऽयमेतेनैव सह योज्यन्तामपरवाद्यानीति वंशीरवं साक्षीकुर्वतः, कांश्चित् कलित-नेपथ्यान् पादयोर्नूपुरं बध्नतः, कांश्चित् स्कन्धावलम्बिगुटिकातः करतालिकामुत्तोलयतः; कांश्चिच्च कर्णे दक्षकरं निधाय, चक्षुषी सम्मील्य, नासामाकुञ्च्य, पातितोभयजानूपविश्य, वाम-हस्तं प्रसार्य, तन्त्रीस्वरेण स्व-काकलीं मेलयतः; सम्मुखे च पृष्ठत: पार्श्वतश्चोपविष्टैः कैश्चित् ताम्बूलवाहकैः, अपरैर्निष्ठ्यूतादान-भाजनहस्तैः, अन्यैरनवरत-चालितचामरैः, इतरैर्बद्धाञ्जलिभिर्लालाटिकैः परिवृतम्, रत्नजटितोष्णीषिकामस्तकम्, सुवर्ण सूत्र-रचित-विविध-कुसुम-कुड्मल-लता-प्रतानाङ्कित-कञ्चुकं महोपबर्हमेकं क्रोडे संस्थाप्य, तदुपरि सन्धारित-भुजद्वयम्, रजत-पर्य्यङ्के विविध-फेन-फेनिल-क्षीरधि-जल तलच्छविमङ्गी-कुर्वत्यां तूलिकायामुपविष्टमफजलखानं न ददर्श । ततस्तु तानरङ्ग-प्रभा-वशीभूतेषु सर्वेषु 'आगम्यतामागम्यतामास्यतामास्यताम्' इति कथयत्सु, तानरङ्गोऽपि सादरं दक्षिणहस्तेनाऽऽदरसूचकसङ्केत-सहकारेण यथानिर्दिष्टस्थानमलञ्चकार ।

ततस्तु इतरगायकेषु सगर्वं सासूयं सक्षोभं साक्षेपं सचक्षुर्विस्फारणं सशिरःपरिवर्तनं च तमालोकयत्सु अफजलखानेन सह तस्यैवमभूदालापः ।

अफजलखानः – किन्देशवास्तव्यो  भवान् ?

तानरङ्गः – श्रीमन् ! राजपुत्रदेशीयोऽहमस्मि ।

अफजल० – ओः ! राजपुत्रदेशीयः ?

तान० – आम् ! श्रीमन् !

अफ० – तत् कथमत्र महाराष्ट्रदेशे ?

तान० – सेनापते ! मम देशाटनव्यसनं मां देशाद्देशं पर्याटयति ।

अफ० – आः ! एवम् ! तत्किं प्रायः पर्य्यटति भवान् ?

तान० – एवं चमूपते ! नव्यान् देशानवलोकयितुम्, नवा नवा भाषा अवगन्तुम्, नूतना नूतना गान-पारिपाटीश्च कलयितुम् एधमानमहाभिलाष एष जनः ।

अफ० – अहो ! ततस्तु बहुदर्शी बहुज्ञश्च भवान् ! अथ बङ्गदेशे गतो भवान् ? श्रूयतेऽतिवैलक्षण्यं तद्देशस्य ।

तानरङ्गः – सेनापते ! वर्षत्रयात् पूर्वमहं काश्यां गङ्गायां सस्नाय, उज्जयिनीदेशायक्षत्रियकुलालंकृतं भोजपुरदेशमालोक्य, गङ्गागण्डकतटोपविष्टं हरिहरनाथं प्रणम्य, विलासिकुल-विलसितं पाटलिपुत्रपुरमुल्लङ्घ्य, सीताकुण्डविक्रमचण्डिकादिपीठपटलपूजितं विक्रमयशः सूचकदुर्गावशेषशोभितं देवधुनीतरङ्गक्षालितप्रान्तं मुद्गलपुरं निरीक्ष्य, कर्णदुर्गस्थानेन तद्यशोमहामुद्रयेवाङ्कितमङ्गदेशं दिनत्रयमध्युष्य, अतिवर्द्धमानवैभवं वर्द्धमान-नगरं च सम्यक् समालोक्य, यथोचित-सम्भारैस्तारेकेश्वरमुपस्थाय, ततोऽपि पूर्वं वङ्गदेशे, पूर्ववङ्गेऽपि च चिरमहभटाट्यामकार्षम् ।

अफ० – किं किं किं पूर्ववङ्गेऽपि ?

तान आम् श्रीमन् ! पूर्ववङ्गमपि सम्यगवालुलोकदेष जनः, यत्र प्रान्तप्ररूढां पद्मावलीं परिमर्दयन्ती पद्मेव द्रवीभूता पयःपूरप्रवाहपरम्पराभिः पद्मा प्रवहति, यत्र ब्रह्मपुत्र इव शत्रुसेनानाशन-कुशल: ब्रह्मदेशं विभजन् ब्रह्मपुत्रो नाम नदो भूभागं क्षालयति, यत्र साम्ल-सुमधुररसपूरितानि फूत्कारोद्धूतभूति-ज्वलदङ्गार विजित्वर-वर्णानि जगत्प्रसिद्धानि नारङ्गाण्युद्भवन्ति, यद्देशीयानां जम्बीराणां रसालानां तालानां नारिकेलानां खर्जूराणां च महिमा सर्वदेश-रसज्ञानां साम्रेडं कर्ण स्पृशति, यत्र च भयङ्कराऽऽवर्त-सहस्राऽऽकुलासु स्रोतस्वतीषु सहोहोकारं क्षेपणीः क्षिपन्तः, अरित्रं चालयन्तः, बडिशं योजयन्तः, कुवेणीस्थम्रियमाणमत्स्य-परीवर्त्तानालोकमालोकमानन्दतः, अदृष्टतटेष्वपि महाप्रवाहेषु स्वल्पया कूष्माण्डफक्किकाकारया नौकया भिन्नाञ्जनलिप्ता इव मसीस्नाता इव साकारा अन्धकारा इव काला धीवरबाला निर्भयाः क्रीडन्ति ।

अफजल० – (स्वयं हसन्, सर्वाश्च हसतः पश्यन्) सत्य सत्यम् ! ! धन्यो भवान्, योऽल्पेनैव वयसैवं विदेश-भ्रमणैश्चातुरीं कलयति ।

तानरंगः – धन्य एव यदि युष्मादृशैरभिनन्द्ये !

अफजल० – (क्षणानन्तरम्) अथ भवान् मूर्छनाप्रधानं गायति, तानप्रधानं वा ?

तानरंगः – ईदृक्षं तादृक्षं च ।

अफजल० – (क्षणानन्तरम्) अस्तु, आलप्यतां कश्चन रागः ।

तानरंगः – (किञ्चिद् विचार्य) आज्ञा चेदेकां राग-माला-गीतिं गायामि, यत्र प्रत्याभोगं नवीन एव रागो भवेदेकेनैव च ध्रुवेण सङ्गन्छेत्, तत्तद्राग- नामानि च तत्रैव प्राप्येरन् ।

अफजल० – आ: ! किमेवम् ? ईदृशं तु गानं न प्रायः श्रूयते, तद् गीयताम् ।

ततस्तानपूरिकायाः स्वरान् सम्मेल्य पातित-वामजानुस्तानपूरिकातुम्बं क्रोडे निधाय दक्षपादस्योत्थितजानुनि च दक्ष-हस्त-कूर्पर-स्थापन-पुरःसरं तेनैव हस्तेन तर्जन्यङ्गुल्या तानपूरिकां रणयन् स्वकण्ठेनापि त्रीन् ग्रामान् सप्तस्वरांश्च समधात् । तन्मात्रश्रवणेनैव मुग्धेष्विवाऽसखिलेषु इमां रागमाला-गीतिमगायत् –

सखि ! हे नन्द-तनय आगच्छति ॥ सखि० ॥

मन्दं मन्दं मुरली-रणनैः समधिक-सुखं प्रयच्छति ॥

भैरव-रूपः पापिजनानां सतां सुख-करो देवः ।

कलित-ललित-मालती-मालिकः सुरवरवाञ्छित-सेवः ॥

सारङ्गैः सारङ्ग-सुन्दरो दृग्भिर्निपीयमानः ।

चपला-चपल चमत्कृति वसनो विहित-मनोहर- गान: ॥

श्रीवत्सेन लाञ्छितो हृदये श्रीलः श्रीदः श्रीशः ।

सर्व-श्रीभिर्युतः श्रीपतिः श्री मोहनो गवीश: ॥

गौरी-पतिना सदा भावितो बर्हिण-बर्ह-किरीटः ।

कनककशिपु-कदनो बलि-मथनो विहित-दशानन -कीट: ॥

अथ एतावदेव श्रुत्वा अतितरां प्रसन्नेषु पारिषदेषु, ससाधुवादं वितीर्णकङ्कणे च अफजलखाने, तानरङ्गोऽपि सप्रसादं तानपूरिकां भूमौ संस्थाप्य अफजलखानस्य गुणग्राहितां प्रशशंस ।

अथ अफजलखानः क्रमशो मैरेय-मद-परवशतां वहन् उवाच- यत्-कथ्यतामस्मिन् प्रान्ते भवादृशानां गुण-ग्राहकाः के सन्ति ? के वा कवितायाः संगीतस्य च मर्माऽवगच्छन्ति ? ततस्तानरङ्गोऽचकथत् को नामाऽपरः शिववीरात् ? स एव राजनीतौ निष्णातः, स एव सैन्धवाऽऽरोह-विद्या-सिन्धुः, स एव चन्द्रहासचालने चतुरः, स एव मल्ल-विद्या-मर्मज्ञः, स एव बाण-विद्या-वारिधिः, स एव पण्डित-मण्डल-मण्डनः, स एव धैर्य धारि-धौरेयः, स एव वीरवारवरः, स एव पुरुष पौरुष-परीक्षकः, स एव दीन-दुःख-दावदहनः, स एव स्वधर्मरक्षण-सक्षणः, स एव विलक्षण-विचक्षणः, स एव च मादृश-गुणिगण-गुण ग्रहणाऽऽग्रही वर्तते ।

अथ अफजलखाने- तत् किं शिव एष एवं गुण-गण-विशिष्टोऽस्ति ? एवं वा वीर-वरोऽस्ति ? इति सचकितं सभयं सतर्कं सरोमोद्गमं च कथयति, किञ्चिद् विचार्येव नीति-कौशल-पुरःसरं गौरः पुनरवादीत । भगवन् ! सामान्य-राजभृत्यस्य पुत्रः शिववीरो यदि नाम नाऽभविष्यत्, स्वयमीदृश ऊर्जस्वलः, तत्कथं स्वर्णदेव-सदृशसहचरं प्राप्स्यत् ? तद्द्वारा समस्तं कल्याण-प्रदेशं कल्याणदुर्गं च स्वहस्तगतमकरिष्यत् ? कथं तोरण दुर्ग-भोग-भाजनतामकलयिष्यत् ? कथं तोरण-दुर्गाद् दक्षिण-पूर्वस्यां पर्वतस्य शिखरे महेन्द्र-मन्दिर-खण्डमिव धर्षितारि-वर्गं डमरु-हुडुक्कारतोषितभर्गं रायगढनामकं महादुर्ग्गं व्यरचयिष्यत् ? कथं वा तपनीय-भित्तिका जटित- महारत्न-किरणावली-वितन्यमान-महावितान-वितति-विरोचित-प्रताप-तापित-परिपन्थि-निवहं चन्द्रचुम्बन-चतुर-चारु-शिखर-निकरं भुशुण्डिकाकिणाङ्कित-प्रचण्ड-भुजदण्ड-रक्षक-कुल-विधीयमान-परस्सहस्रपरिक्रमं धमद्धमद्दोधूयमानाऽनेक-ध्वज-पटल-निर्मथित-महाकाशं प्रताप-दुर्गं निरमापयिष्यत् ? कथं वा 'आगत एष शिववीरः' इति भ्रमेणापि सम्भाव्य अस्य विरोधिषु केचन मूर्च्छिताः निपतन्ति, अन्ये विस्मृत-शस्त्रास्त्राः पलायन्ते इतरे महात्रासाऽऽकुञ्चितोदरा विशिथिल-वाससो नग्ना भवन्ति, अपरे च शुष्कमुखा दशनेषु तृणं सन्धाय साम्रेडं प्रणिपात-परम्परा रचयन्तो जीवनं याचन्ते ।

ततस्तस्य महाप्रतापमवगत्य किञ्चिद्भीते इव तच्छत्रूणां चावहेलामाकलय्य किञ्चिदरुण-नयने इव, दक्षिण-हस्ताङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां श्मश्र्वग्रं परिमृजति यवन-सेनापतौ, तानरङ्गः पुनर्न्यवेदयत् –

"परन्त्वद्य सिंहेन सह शिवस्य साम्मुख्यमस्ति, तन्मन्ये इयमस्तमनवेला तत्प्रतापसूर्यस्य ।"

तत् कर्णे कृत्वा सन्तुष्ट इव सकन्धराकम्पं सेनापतिरुवाच-‘अथाऽत्र संग्रामे कस्य विजय: सम्भाव्यते ?

स उवाच-श्रीमन् ! यदि शिवस्य साहाय्यं साक्षाच्छिव एव न कुर्यात्; तद् विजयपुरस्यैव विजयः ।’

अथ सहासं सोऽब्रवीत् – को नाम खपुष्पायितः शशश्रृङ्गायितः कमठी स्तन्यायितः सरीसृप-श्रवणायितः भेक-रसनायितः वन्ध्यापुत्रायितश्च शिवोऽस्ति ? य एनं रक्षिष्यति, दृश्यतां श्व एवैषोऽस्माभिः पाशैर्बद्ध्वा चपेटैस्ताड्यमानो विजयपुरं नीयते । इति सकष्टमाकर्ण्य, "स्यादेवं भगवन् !" इति कथयति तानरङ्गे अभिमान-परवशः स स्वसहचरान् सम्बोध्य पुनरादिशत्- भो भो योद्धारः ! सूर्योदयात् प्रागेव भवन्तः पञ्चाऽपि सहस्राणि सादिनां दशाऽपि च सहस्राणि पत्तीनां सज्जीकृत्य युद्धाय तिष्ठत । गोपीनाथपण्डितद्वाराऽऽहूतोऽस्ति मया शिव-वराकः । तद् यदि विश्वस्य स समागच्छेत्, ततस्तु बद्ध्वा जीवन्तं नेष्यामः अन्यथा तु सदुर्गमेनं धूलीकरिष्यामः। यद्यप्येवं स्पष्टमुदीरणं राजनीति-विरुद्धम्, तथाऽपि मदावेशस्तु न प्रतीक्षते विवेकम् । तदवधार्य समस्तक-कूर्चान्दोलनम्-"यदाज्ञाप्यते यदाज्ञाप्यते" इति वाचां धारासम्पातैरिव स्नापयत्सु पारिषदेषु, "गोपनीयोऽयं वृत्तान्तः कथं स्पष्टं कथ्यते ?" इति दुर्मनायमानेष्विव च अकस्मादेव प्रविश्य सूदेनोक्तम्-"श्रीमन् ! व्यत्येति भोजनसमयः" । तत् श्रुत्वा "आः ! एवं किलैतत्" इति सोत्प्रासं सविस्मयं सकूर्चोद्धूननं सोपबर्ह-ताडनमुच्चार्य सपद्युत्थाय,'पुनरागम्यताम्' इति तानरङ्गं विसृज्य सेनापतिरन्तः प्रविवेश । तानरङ्गश्च यथागतं निववृते ।

इतस्तु प्रतापदुर्गे विहिताहारव्यापारे रजतपर्यङ्किकामेकामधिष्ठिते किञ्चित् तन्द्रापरवशे इव गोपीनाथे, शिववीरः शनैरुपसृत्य प्रणम्य, उपाविशदवोचच्च -‘अहो ! भाग्यमस्माकं यदालयं युष्मादृशा भूदेवाः स्वचरणरजोभिः पावयन्ति’ इति ।

अथ तयोरेवमभूवन्नालापाः –

गोपीनाथः – राजन् ! कोऽत्र संदेहः ? सर्वथा भाग्यवानसि, परं साम्प्रतं नाऽहं पण्डितत्वेन कवित्वेन वा समायातोऽस्मि, किन्तु यवनराजदूतत्वेन । तत् श्रूयतां यदहं निवेदयामि ।

शिववीरः - शिव ! शिव ! खलु खलु खल्विदमुक्त्वा, येषां श्रीमतां चरणेनाऽङ्कितं विष्णोरपि वक्ष:स्थलमैश्वर्यमुद्रयेव मुद्रितं विभाति, न तेषां ब्राह्मण-कुल-कमल-दिवाकराणां यवन-कैङ्कर्यकलङ्क-पङ्को युज्यते, यं श्रृण्वतोऽपि मम स्फुटत इव कर्णौ । तथाऽपि कुलीना निरभिमाना भवन्ति-इति आनीतश्चेत् कश्चित् संदेशः, तदेष आज्ञाप्यतां श्रीमच्चरणकमलचञ्चरीकः ।

गोपीनाथः – वीर ! कलिरेष कालः, यवनाऽऽक्रान्तोऽयं भारतभूभागः, तन्नाऽस्माकं तथा तानि तेजांसि, यथा वर्णयसि । साम्प्रतं तु विजयपुराधीश-वितीर्णां भृतिं भुञ्जे इति तदाज्ञामेव परिपालयामि । तत् श्रूयतां तदादेशः!

शिववीरः – आर्य ! अवदधामि ।

गोपीनाथः – कथयति विजयपुरेश्वरो यद्- "वीर ! परित्यज नवामिमां चञ्चलतामस्माभिः सह युद्धस्य, त्वदपेक्षयाऽत्यन्तमधिकं बलिनो वयम्, प्रवृद्धोऽत्र कोषः, महती सेना, बहूनि दुर्गाणि, बहवश्च वीराः सन्ति । तच्छुभमात्मना इच्छसि चेत्, त्यक्त्वा निखिलां चञ्चलताम्, शस्त्रं दूरतः परित्यज्य, करप्रदत्तामङ्गीकृत्य, समागच्छ मत्सभायाम् । मत्तः प्राप्तपदश्चिरं जीविष्यसि, अन्यथा तु सदुर्दशं निहतः कथावशेषः संवर्त्स्यसि । तत् केवलं त्वयि दययैव सन्देशं प्रेषयामि, अङ्गीकुरु । मा स्म वृद्धायाः प्रसविन्याः रजतश्वेतां पक्ष्मपङ्क्तिमश्रु-प्रवाह- दुर्दिने पातय" – इति ।

शिववीरः – भगवन् ! कथयेदेवं कश्चिद् यवनराजः, परं किं भवानपि मामनुमन्यते-यद् ये अस्मदिष्टदेवमूर्तीर्भंङ्क्त्वा , मन्दिराणि समुन्मूल्य, तीर्थस्थानानि पक्कणीकृत्य, पुराणानि पिष्ट्वा, वेदपुस्तकानि विदार्य च, आर्यवंशीयान् बलाद् यवनीकुर्वन्ति; तेषामेव चरणयोरञ्जलिं बद्ध्वा लालाटिकतामङ्गीकुर्याम् ? एवं चेद् धिङ् मां कुल-कलङ्कं क्लीबम्; यः प्राणभयेन सनातनधर्मद्वेषिणां दासेरकृतां वहेत् । यदि चाऽहमाहवे म्रियेय, वध्येय ताड्येय वा, तदैव धन्योऽहम्, धन्यौ च मम पितरौ । कथ्यतां भवादृशां विदुषामत्र का सम्मतिः ?

गोपीनाथः – (विचार्य) राजन् ! धर्मस्य तत्त्वं जानासि, तन्नाऽहं स्वसम्मतिं कामपि दिदर्शयिषामि । महती ते प्रतिज्ञा, महतवोद्देश्यमिति प्रसीदामितमाम् । नारायणस्तव साहाय्यं विदधातु ।

शिववीरः – करुणानिधान ! नारायण: स्वयं प्रकटीभूय न प्रायेण साहाय्यं विदधाति, किन्तु भवादृश-महाशय-द्वारैव । तत् प्रतिज्ञायतां काऽपि सहायता ।

गोपीनायः – राजन् ! कथ्यतां किमहं कर्याम्, परं यथा न मामधर्मः स्पृशेत तथैव विधास्यामि ।

शिववीरः – शान्तं पापम् । कोऽत्राधर्मः ? केवलं श्वोऽस्मिन्नुद्यान-प्रान्तस्थ-पट-कुटीरे यवनसेनापतिः अफजलखानः आनेयः, यथा तेनैकाकिनाऽहमेकाकी मिलित्वा किमप्यालपामि ।

ततः परं गोपीनाथेन सह शिववीरस्य बहुविधा आलापा अभूवन्, यै: शिववीरस्य उदारहृदयतां धार्मिकतां शूरतां चाऽवगत्य गोपीनाथोऽतितरां पर्य्यतुष्यत् ।

अथ स तमाशीर्भिरनुयोज्य यावत्प्रतिष्ठते, तावदुपातिष्ठत ससहचरस्तानरङ्गः । गोपीनाथस्तु तमनवलोकयन्निव तस्मिन्नेव निशीथे दुर्ग्गादवातरत् । कपटगायको गौरसिंहस्तु शिववीरेण सह बहुश आलप्य, सेनाऽभिनिवेश-विषये च सम्मन्त्र्य, तदाज्ञातः स्ववासस्थानं जगाम ।

शिववीरोऽप्यन्यसेनापतीन् यथोचितमादिश्य, स्वशयनागारं प्रविश्य होरात्रयं यावत्किञ्चन निद्रासुखमनुभूय, अल्पशेषायामेव रजन्यामुदतिष्ठत् ।

शिववीरसेनास्तु यथासङ्केतं प्रथममेव इतस्ततो दुर्गप्राचीरान्तरालेषु गहन-लता-जालेषु उच्चावच-भूभाग व्यवधानेषु सज्जाः पर्यवातिष्ठन्त । बहवोऽश्वारोहा यवन-पट-कुटीर कदम्बकं परिक्रम्य ततः पश्चादागत्य अवसरं प्रतिपालयन्ति स्म । इतश्च सूर्यप्रभाभिररुणीक्रियमाणे भूभागे अरुण-श्मश्रवोऽपि सेना: सज्जीकृतवन्तः ।

बहवो-‘वयमद्य शिवमवश्यमेव विजेष्यामहे; परं तथाऽपि न जानीमहे किमिति कम्पत इव हृदयम्, अहो! विलक्षणः प्रताप एतस्य, पवनेऽपि प्रवहति, पतत्रेऽपि पतति, पत्रेऽपि मर्मरीभवति, स एवाऽऽगत इत्यभिशङ्क्यतेऽस्माभिः । अहह ! ! विचित्रोऽयं वीरो, यो दुर्गप्राचीरमुल्लङ्घ्य, प्रहरिपरीवारमविगणय्य, लोहार्गलश्रृङ्खलासहस्र नद्धानि करिकुम्भाघात सहानि द्वाराणि प्रविश्य, विकोशचन्द्रहासाऽसिधेनुका-रिष्टि-तोमर-शक्ति-त्रिशूल-मुद्गर-भुशुण्डी-कराणां रक्षकाणां मण्डलमवहेल्य, प्रियाभिः सह पर्य्यङ्केषु सुप्तानामपि प्रत्यर्थिनां वक्षःस्थलमारोहति, निद्रास्वपि तान् न जहाति, स्वप्नेष्वपि च विदारयति । कथमेतस्य चञ्चच्चन्द्रहास- चमत्कार-चाकचक्य-चिल्लीभूत-चक्षुष्काः समराङ्गणे स्थास्यामः ?" इति चिन्ताचक्रमारूढा अपि कथं कथमपि कैश्चित् वीरवरैर्वर्धितोत्साहाः समरभूमिमवातरन् । अथ कथञ्चित् प्रकाश बहुले संवृत्ते नभःस्थले, परस्परं परिचीयमानासु आकृतिषु कमलेष्विव विकचतामासादयत्सु वीरवदनेषु, भ्रमरालिष्विव परितः प्रस्फुरन्तीषु असि-पंक्तिषु, चाटकैर-चकचकायितेषु कवचचमत्कारेषु गोपीनाथ-पण्डितो वारमेकं शिववीरदिशि परतश्च यवनसेनापति-दिशि गतागतं विधाय, सेनाद्वयस्य मध्य एव कस्मिंश्चित् पटकुटीरे अफजलखानमानेतुं प्रबबन्ध ।

शिववीरोऽपि कौशेय-कञ्चुकस्याऽन्तर्लोह-वर्म परिधाय, सुवर्णसूत्र-ग्रथितोष्णीषस्याऽप्यधस्तादायसं शिरस्त्राणं संस्थाप्य, सिंहनख-नामकं शस्त्रविशेषं करयोरारोप्य दृढ़बद्ध-कटिरफजलखान-साक्षात्काराय सज्जस्तिष्ठति स्म । अफजलखानोऽपि च-'यदाऽहमेनं साक्षात्कृत्य, करताडनमेकं कुर्य्याम्, तदैव तालिकाध्वनि-समकालमेव अमुकामुकैः श्येनैरिवाऽभिपत्य पाशैरेष बन्धनीयः सेनया च क्षणात् तत्सेना झञ्झया घनघटेवाऽपनेया" इति सङ्केत्य, सूक्ष्म-वसन-परिधानः, वज्रक-जटितोष्णोषिकः, गलविलु-लितपद्मराग-माल; मुक्ता-गुच्छ-चोचुम्ब्यमान भालः, निश्वास-प्रश्वास-परिमथित-मद्यगन्ध परिपूरित-पार्श्व-देशान्तरालः, शोणश्मश्रुकूर्च-विजित-नूतन-प्रवालः, कञ्चुक-स्यूत-काञ्चन-कुसुम-जालः, विविधवर्ण-वर्णनीय शिविकामारुह्य निर्दिष्पटकुटीराभिमुखं प्रतस्थे ।

इतस्तु कुरङ्गमिव तुरङ्गं नर्त्तयन् रश्मिग्राह-वेषेण गौरसिंहेनाऽनुगम्यमानः माल्यश्रीक-प्रभृतिभिर्वीरवरैर्युद्धसज्जैः सतर्कं निरीक्ष्यमाणः शिववीरोऽपि तस्यैव सङ्केतितस्य समागमस्थानस्य निकटे एव सव्यकरेण वल्गामाकृष्याऽश्वमवारुधत् ॥

ततस्तु, इतोऽश्वात् शिववीरः, ततस्तु शिबिकातोऽफजलखान: अपि युगपदेवाऽवतरताम्, परस्परं साक्षात्कृत्य च, उभावप्युत्सुकाभ्यां नयनाभ्याम्, सत्वराभ्यां पादाभ्याम्, स्वागताऽऽम्रेडनतत्परेण वदनेन आश्लेषाय प्रसारिताभ्यां च हस्ताभ्यां कौशेयास्तरणविरोचितायां बहिर्वेदिकायां धावमानौ परस्परमालिलिङ्गतुः।

शिववीरस्तु आलिङ्गनच्छलेनैव स्वहस्ताभ्यां तस्य स्कन्धौ दृढं गृहीत्वा सिंहनखैर्जत्रुणी कन्धरां च व्यपाटयत् । रुधिरदिग्धं च तच्छरी कटि-प्रदेशे समुत्तोल्य भूपृष्ठेऽपोथयत् । तत्क्षणादेव च शिववीरध्वजिन्यां महाध्वज एकः समुच्छितः । तत्समकालमेव यवनशिविरस्य पृष्ठस्थिता शिववीरसेना शिविरमग्निसात्कृतवती, पुरःस्थितसेनासु च अकस्मादेव महाराष्ट्रकेसरिणः समपतन् । तेषां 'हरहर महादेव' गर्जनपुरस्सरं ‘छिन्धि भिन्धि-मारय-विपोथय’ इति कोलाहलः, प्रत्यर्थिनां च 'खुदा-तौबा-अल्लादि' पारस्यपदमयः कलकलो रोदसी समपूरयत्।

ततो यवनसेनासु शतशः सादिनः, गगनं चोचुम्ब्यमानाः, कृत-दिगन्त-प्रकाशाः, कडकडा-ध्वनि-धर्षित-प्रान्त-प्रजाः उड्डीयमान-दन्दह्यमान परस्सहस्र-पटखण्ड-विहित-हैम-विहङ्गम-विभ्रमाः ज्योतिरिङ्गणायितपरस्कोटि स्फुलिङ्ग-रिङ्गित-पिङ्गीकृतप्रान्ताः दोधूयमान-धूम-घटापटल परि-पात्यमान-भसित-सितीकृतानोकहाः, सकलकलध्वनि पलायमानैः पतत्रि-पटलैरिव सोसूच्यमानाः शिविरघस्मरा ज्वाला माला अवलोक्य, सहाहाकारं तदभिमुखं प्रयाताः । अपरे च महाराष्ट्राऽसि भुजङ्गिनीभिर्दन्दश्यमाना, केचन "त्रायस्व, त्रायस्व" इति साम्रेडं व्याहरमाणाः, पलायमानाः, अन्ये धीरा वीराश्च-"तिष्ठत रे तिष्ठत धूर्तधुरीणाः ! महाराष्ट्रहतकाः ! किमिति चौरा इव लुण्ठका इव दस्यव इव च यवनसेनापतीनाक्राम्यथ ? समागच्छत सम्मुखम्, यथा शाम्येदस्मच्चन्द्रहासानां चिरप्रवृद्धा महाराष्ट्र-रुधिराऽऽस्वाद-तृषाइति सक्ष्वेडं सङ्गर्ज्ज्य, युद्धाय सज्जाः समतिष्ठन्त ।

तेषां चाऽश्वानां सव्यापसव्यमार्गैः खुरक्षुण्णा व्यदीर्यत वसुधा । खड्गखटखटाशब्दैः सह च प्रादुरभूवन् स्फुलिङ्गाः । रुधिरधाराभि: जपासुमनस्समाच्छन्नमिवाऽभूद्रणाङ्गणम् । तदवलोक्य गौरसिंहो मृतस्याऽफजलखानस्य शोणितशोणं शोणशरीरं प्रलम्बवेणु-दण्डाग्रेषु बद्धवा समुत्तोल्य सर्वान् संदर्श्य सभेरीनादं घोषितवान् यद् - "दृश्यतां, दृश्यतामितो हतोऽयं यवन-सेनापतिः, ततश्चाऽग्निसात्कृतानि ससकल-सामग्री-जातानि-शिबिराणि, परितश्च बहूनि विनाशितानि यवनवीर-कदम्बकानि, तत्किमिति अवशिष्टा यूयं मुधा बकगृध्रश्रृगालानां भोज्याः संवर्तध्वे ? शस्त्राणि त्यक्त्वा पलायध्वम् पलायध्वम्, यथा नेयं भूः कदुष्णैर्भवतां सद्यश्छिन्न-कन्धरागलद्रुधिर- प्रवाहैर्भवद्रमणीनां च कज्जल-मलिनैर्बाष्पपूरैरार्दा भवेद्" इति । तदवधार्य दृष्ट्वा च रुधिरदिग्धं क्रीडापुत्तलायितं स्वस्वामिशरीरं, सर्वे ते हतोत्साहा विसृज्य शस्त्राणि कान्दिशीका दिशो भेजुः ।

ससेनः शिववीरश्च विजयशङ्खनादैः रोदसी सम्पूर्य रणाङ्गणशोधनाधिकार माल्यश्रीकाय समर्प्य, प्रतापदुर्गं प्रविश्य मातुश्चरणौ प्रणनाम ।

॥ इति द्वितीयो निश्वासः ॥

तृतीयो निश्वासः

"जीवन् नरो भद्रशतानि पश्येत्"

-       स्फुटकम्

"संसारेऽपि सतीन्द्रजालमपरं यद्यस्ति तेनापि किम्"

                                                                                    - भर्तृहरिः

तत्र पर्ण-कुटीरे तु कथं कथमपि दाडिमाद्यास्वादन-तत्परां कुसुम-गुच्छैर्मनो विनोदयन्तीं बालिकां गुरोः समीपे परित्यज्य तदाज्ञया तत्पितरौ समन्वेष्टुम्, अन्तर्गोपितक्षुरप्रच्छुरिकां यष्टिकामेकां हस्तेन धृत्वा, तैरेव श्याम-श्यामैः गुच्छगुच्छैः लोललोलैः कुञ्चित-कुञ्चितैः कचैः ब्रह्मचारिबटुवेष एव श्यामबटुरासन्नग्रामटिकादिशि-समगात् । ततो "हन्त ! कथमद्यपि शूली त्रिशूलेन नैतान् शूलाकरोति ? कथं खड्गिनी खड्गेन न खण्डयति ? कथं चक्री चक्रेण न चूर्णयति ? कथं पाशी पाशैर्न पाशयति ? कथं हली हलेन नाऽवहेलयति ? कथं वा जम्भारातिर्दम्भोलिघातैर्दम्भिन एतानम्भोधिजलस्तम्भाऽऽरम्भेषु न पातयति ? अहह ! क इतोऽप्यधिकोऽनर्थो भविता यद् भगवानवतरिष्यति । शिव ! शिव !! न शक्यते द्रष्टुमपि यदेतैर्निर्दयहृदयैः परमपूजनीयानां ब्राह्मणानामपि अत्यल्पवयस्का अपि बालिका अपह्रियन्ते । धिगेतान् धर्मादपि निर्भीकान् अभीकान"- इति चिन्तासन्तानवितानैकताने एव ब्रह्मचारिगुरौ, सपद्येव न्यविशत् श्यामबटुः सह देवशर्म्मणा वर्षीयसा ब्राह्मणेन । स तु वाष्पक्षालितोपनयनः शोकाधिककम्पितगात्रयष्टिः प्रविश्यैव दृष्ट्वैव तां बालिकां "कुतः कुतः कोशले ! इत्युदीर्यतामङ्के जग्राह ।

साऽपि प्रक्षिप्य दाडिमखण्डम्, निरस्य च कोरकस्तबकक्रीडनकम्, तं कराभ्यां कण्ठे गृहीत्वा मुक्तकण्ठं रुरोद ।

वृद्धोऽपि च एकं करं तत्पृष्ठे विन्यस्य, अन्येन च तस्याः शिरः परिमृशन् कोशले ! कानि पातकानि पूर्वजन्मनि कृतवत्यसि ? यद् बाल्य एवं त्वत्पिता सङ्ग्रामे म्लेच्छहतकैर्धर्मराजनगराद्ध्वन्यः कृतः । माता च तव ततोऽपि पूर्वमेव कथावशेषा संवृत्ता, यमलौ भ्रातरौ च तव द्वादशवर्षदेश्यावेव आखेटव्यसनिनौ महार्हभूषणभूषितौ तुरगावारुह्य वनं गतौ दस्युभिरपहृताविति न श्रूयते तयोर्वार्ताऽपि, त्वं तु मम यजमानस्य पुत्रीति स्वपुत्रीव मयैव सह नीता, वर्द्ध्यसे च । अहह ! कथं वारं वारं बालैव सुन्दरकन्याविक्रयव्यसनिभिर्यवनवराकैरपह्रियसे ? भगवदनुग्रहेण च कथं कथमपि मत्करमुक्ता पुनः प्राप्यसे । परमात्मन् । त्वमेव रक्षैनामनाथां दीनां क्षत्रियकुमारीम्" इति सकरुणं विललाप ।

तदाकर्ण्य सर्वेऽपि चकिताः स्तब्धाः अश्रुमुखाश्च संवृत्ताः । कुटीराध्यक्षो ब्रह्मचारी च निजमपि किञ्चिद् बन्धुवियोगदुःखं स्मारित इव वाष्पव्रजोद्गमदुर्दिनग्लपितमुखः कथं कथमपि धैर्यमाधाय वदनं पटेन परिमृज्य पुनरवदधे । तावत्कुटीराद् बहिः कस्मिंश्चित् कार्ये व्यासक्तो गौरबटुर्विलापेनैतेन कर्णयोराकृष्यमाण इव त्वरितमन्तः प्रविवेश । पौन: पुन्येन दृष्ट्वा च तां कन्यां देवशर्म्माणं वृद्धं ब्राह्मणञ्च, परिपक्व-तालीदलीभूत-कपोलपालीकः, उदञ्चितरोममाली, त्वरितकोष्णश्वासप्रश्वासशाली, शारदशर्वरीशर्वरी-  सार्वभौमकिरणोद्भूतोद्भूतकीलालालीव्यालीढचन्द्रकान्तजालीभूतलोचनः, बाष्पावरुद्धकण्ठः कमपि वृत्तान्तं स्मारित इव, कमपि चिरविनष्टं प्रेयांसं प्रापित इव, किमपि चिरानुभूतं दुःखं पुनरनुभावित इव च स्मारं स्मारमिव किमपि स्वसमानदशं श्यामबटुं सम्बोध्य कातरेण भज्यमानेन कम्पमानेन च स्वरेणाऽचकथत् - श्याम ! श्याम ! श्रृणोषि श्रृणोषि ?’ इति !

अथ श्यामबटुरपि अश्रुभिः स्नातो गौरस्य करं गृहीत्वा 'तात ! श्रृणोमि, सेयं सौवर्णी अस्मद्भगिनी, स चाऽयं पूज्यपादः पुरोहितः" इति कथयन् गौरमपि प्रकटं रोदयन् रुरोद । तदाकर्ण्य क्षणं सर्वेऽपि कुटीरस्थाः काष्ठविग्रहा इव चित्रलिखिता इव च संवृत्ता: ।

देवशर्माऽपि च स्तब्धीभूतामिव कन्यकां तस्मिन्नेव कुशविष्टरे उपवेश्य चक्षुषी स्थिरीकृत्य "वत्सौ ! किं वीरस्य खड्गसिंहस्य तनयौ युवाम् ?" इति कथयन् वलीपलितौ वार्द्धक्यवेपमानौ बाहू प्रससार । तौ चाऽऽत्मनः पित्रोरपि पूजनीयं पुरोहितं साष्टाङ्गं प्रणेमतुः । स च कथमप्युत्थाय, उत्थाप्य च तौ, समाश्लिष्य स्वनयनवारिधाराभिस्तावभ्यषिञ्चत् ।

ततो मुहूर्तं यावत्तु परितः प्रसर्पिभिः करुणोद्गार-प्रवाहैरेव पर्यपूर्यत सा कुटी । अथ कथमपि रिङ्गत्तुङ्ग-तिमिङ्गिलगिल-परिवर्त्त-प्रसङ्गसङ्ग-सभङ्ग-तरङ्ग-रङ्ग-प्राङ्गण-सोदरीभूतं हृदयं वशीकृत्य, अनुजां सुवर्णवर्णां सौवर्णीनाम्ना बाल्य एव प्रसिद्धां कोशलामङ्के संस्थाप्य, समुपविष्टे गौरे, श्यामेऽपि च तस्या एव समीपे समुपविश्य तस्या एव पृष्ठं परिमृजति; पूज्यपादे पुरोहिते च क्रियासमभिहारेणोद्गच्छतो वाष्पान् पटान्तेन परिहरति; कुटीराध्यक्षः कुतुकपरवशः सम्बोध्य गौरश्यामौ समुवाच –

"वत्सौ गौर श्यामौ ! जानेऽहं वा क्षत्रियोचिताचारेषु चातन्द्रितौ सनातनधर्मविप्लवासहनौ नीतिकुशलौ परोपकारव्यसनिनौ दुर्बलात्कारपरायण-तुच्छ-यवनच्छेदेच्छोच्छलच्छटाच्छन्नौ, बालावप्यबालपराक्रमौ, सकलकलाकलापकोविदौ गुणिगणगणनीयौ च, किन्तु नाऽद्यावधि कदाऽपि भवतोर्जन्मस्थानादिप्रश्नप्रसङ्गोऽभूत्। आकर्ण्य च भवतोर्दुःखमयमपि विलापमयमपि चाऽऽलापं महत् कुतूहलमस्माकं वर्वर्ति । तत्समाश्वस्य धैर्यमाधाय सङ्क्षेपेण कथ्यतां का भवतोर्जन्मभूः ? कथमत्राऽऽगतौ ? किमेषा सहोदरा स्वसा ? सत्यमेव किं भुवं विरहय्य लोकान्तरं सनाथितवन्तौ युष्मत्पितरौ ? क्व यौष्माकीणपैतृपितामहिकसम्पत्तिः ? किं भवतोरुद्देश्यम् ?" इत्यादि। तदाकर्ण्य चक्षुषो विमृज्य मुख प्रोञ्छ्य कण्ठं रुन्धतो वाष्पान् कथमपि संरुध्य इन्दीवरयोरुपरि भ्रमतो भ्रमरानिव लोचनयोरञ्चितान् कुञ्चितकुञ्चितान् मेचकान् कचानपसार्य निस्तन्द्रेण मन्द्रेण स्वरेण गौरसिंहो वक्तुमारभत -"अस्ति कश्चन धैर्यधारिधुरन्धरैः, धर्मोद्धारधौरेयैः, सोत्साहसाहसचञ्च्चन्द्रहासैः, सुशक्तिसुशक्तिभिः, सद्यश्छिन्न-परिपन्थिगलगलच्छोणितच्छुरितच्छन्नच्छुरिकैः, भयोद्भेदनभिन्दिपालैः, स्वप्रतिकूल-कुलोन्मूलनानुकूलव्यापार-व्यासक्त-शूलैः, धन-विघ्नविघट्टकघर्घराघोषघोरशतध्नीकैः, प्रत्यर्थि-शुण्डि-शुण्डा खण्डनोद्दण्डभुशुण्डीकैः प्रचण्डदोर्दण्डवैदग्ध्यभाण्डप्रकाण्डैः, क्षत्रियवर्यैरार्यवर्यैरर्यवर्यैश्च व्याप्तो राजपुत्रदेशः । यत्र कोषपूरिताः काञ्चनमया इव सानुमन्तः, महार्हमणिगणजटिल-जाम्बूनदभूषणभूषिता गन्धर्वा इव जनाः, विचित्रगवाक्षजालाऽट्टालिकाऽङ्गणकपोतपालिकाचत्वरगोष्ठभित्तिका: विश्वकर्मरचिता इव गृहाः, सादिकरस्थकशाग्रचालनसङ्केतसञ्चलितसप्तिसमूहशफसम्मर्द्दसमुद्धूतधूलिधूसरिताश्च मार्गाः । अस्ति तस्मिन्नेव राजपुत्रदेशे उदयपुरनाम्नी काचन राजधानी, यत्रत्याः क्षत्रियकुलतिलका यवनराजवशंवदताकर्द्दमसम्मर्दैर्न कदाऽप्याऽत्मानं कलङ्कयामासुः" इति कथयत्येव गौरसिंहे, ब्रह्मचारिगुरुरपि कोष्णं निःश्वस्य - "को न जानीते उदयपुरराज्यम् ? यदीय-चित्रपुरदुर्गे परस्सहस्राः क्षत्रियकुलाङ्गनाः, कमला इव विमलाः, शारदा इव विशारदाः, अनुसूया इवाऽनसूयाः, यशोदा इव यशोदाः, सत्या इव सत्याः, रुक्मिण्य इव रुक्मिण्यः, सुवर्णा इव च सुवर्णाः, सत्य इव सत्यः, सम्भाव्यमानयवन-बलात्कार-धिक्कारोजस्वल-तेजस्काः, योगाग्निनेव पतिविरहाग्निनेव स्वक्रोधाग्निनेव च सन्दीपितासु ज्वाला-जालाञ्चितासु चितासु, स्मारं-स्मारं स्वपतीन् पश्यतामेव स्वकीयानां परकीयानां च क्षणात् पतङ्गतामङ्गीकृत्य, "गङ्गाधरस्याऽङ्गभूषणतामगमन्-इति मन्दं व्याजहार । तदाकर्ण्य करुणया दुःखेन कोपेन आश्चर्येण वैमनस्येन ग्लान्या च क्षालितहृदयेषु निखिलेषु गौरसिंहः पुनः स्ववृत्तान्तं वक्तुमुपचक्रमे यत् - "तद्राज्यस्यैवाऽन्यतमो भूस्वामी खङ्गसिंहो नामाऽस्मत्तातचरण आसीत् ।"

खड्गसिंहनाम्ना परिचित इव ब्रह्मचारी समधिकमबाधित । स च पूर्ववदेव वक्तुं प्रावृतत् । अस्मज्जननी तु बालावेवाऽऽवां स्तनन्धयामेव चास्मत्सहोदरीं सौवर्णीं परित्यज्य, भुवं विरहयाम्बभूव । अस्मत्तातचरणश्च कैश्चित् तुरुष्कैर्लुण्ठकप्रायैर्युद्धक्रीडां कुर्वन् पृष्ठतः केनाऽपि विशालभल्लेनाऽऽहतो वीरगतिमगमत् । ततः पुरोहितेनैव पाल्यमानावावामपि यमलौ भ्रातरौ गौर-श्यामौ एकदा मित्रैः सहाऽऽखेटार्थं निःसृतौ तुरगौ चालयन्तौ मार्गभ्रष्टौ अकस्मात् काम्बोजीयदस्युवारेणाऽऽवृत्तौ तनैवाऽपहृतमहार्हभूषणौ गृहीताश्वौ बद्धौ च सहैव वनाद्वनमनायिष्वहि । "यद्यपि शत्रुसन्ताना निर्दयं हन्तव्या एव, तथाऽपि नासा-भूषण-मौक्तिके इव वीणा-तुम्बाविव श्यामकर्ण-हयाविव च मनोहररूपौ समानाकारौ समानवयस्कौ समानपरिणाहौ समानस्वभावौ समानस्वरौ समानगुणौ केवलं वर्णमात्रतो भिन्नौ रामकृष्णाविवामू गौरश्यामौ बालकौ । तदवश्यं बहुमूल्याविति कुत्रापि कस्यचिदपि महाधनस्य हस्ते विक्रयणीयौइति तेषां घोरतरान् संल्लापान् श्रृण्वन्तौ "कथं पलायावहे ? कथं वा मुच्यावहे ?" इत्यनवरतं चिन्तयन्तौ कथं कथञ्चित् कञ्चित् समयमयापयाव ।

अथैकदा कञ्चित्पान्थसार्थमवलोक्य तल्लुलुण्ठयिषया सर्वेष्वपि तस्य पन्थानमेवानुसृतेषु आवाभ्यामपि पलायनावसरो लब्धः । यावच्चाऽऽवां वस्त्राणि परिधाय, परिकरे असिधेनुकां बद्ध्वा, बाहुमूले निस्त्रिशं चर्म्म च लम्बयित्वा, तद्भुशुण्डिकानामेवैकामल्पीयसीमात्मोत्तोलयोग्यां सज्जां करे धृत्वा, उपकारिकाया बहिर्निर्गतौ, तावद् दृष्टम् - यदेको रक्षकः खड्गहस्तो नौ बहिर्गमनाद् वारयतीति । अथाऽऽवाभ्यां भुशुण्डिकां सन्धायोक्तम्- "अलमलं कदर्य ! किमप्यधिकं वक्ष्यसि तत्स्थानात्पादमेकमपि च प्रचलिष्यसि चेत्; क्षणेन परेतपतिपालितपुरीपान्थं विधास्यावः" इत्याकलय्य भयेन काष्ठभूते तस्मिन् मूढरक्षके; मयि च तथैव बद्धलक्ष्ये स्थिते; मदिङ्गितानुसारेण श्याम-सिंहस्तस्या एवोपकार्य्यायाः प्रान्ते बद्धानां फेनवर्षिणामश्वानां कौचिच्चण्डवेगौ श्यामकर्णावाजानेयौ उन्मुच्य, वल्गामायोज्य सर्वतः सज्जीकृत्य चैकमारुह्य रक्षकोपरि भुशुण्डिकां तथैव सज्जीकृतवान् । ततश्चाऽहमप्यपरं हयमारुह्य तस्य ग्रीवामास्फोट्य नर्तयन् रक्षकरं साम्रेडं तर्ज्जनैर्हतोत्साह मृतप्रायं च विधाय, श्यामसिंहमिङ्गितवान् । अथाऽऽवां द्वावपि वायुवेगाभ्यामश्वाभ्यामज्ञातेनैवाऽपथा, उपत्यकात् उपत्यकाम्, वनाद् वनम्, प्रान्तराच्च प्रान्तरमुल्लङ्घमानौ तेनैव दिनेन गव्यूति-पञ्चकं प्रयातौ । सायं समये च कामपि ग्रामटिकामासाद्य अन्यतमस्य गृहस्य द्वारं गतौ । तच्च हनुमन्मन्दिरमवगत्य तस्मिन् प्रविष्टौ तदध्यक्षेण केनचित् साधुना च सस्वागतमाग्रहेण वासितौ, तत्रैव निवासमकृष्वहि ।

अथ तत्प्रदत्तमेव हनुमत्प्रसादीभूतं मोदकादि समास्वाद्य, तस्यैव भृत्येनाऽऽनीतं यवस-भारं वाजिनोरग्रे पातयित्वा, मन्दिरस्यैव बहिर्वेदिकायामितस्ततः पर्यटन्तौ मुहूर्तमावामवास्थिष्वहि ।

ततश्च दुग्धधाराभिरिव प्रथमं प्राचीं सङ्क्षाल्य, भसितच्छुरितामिव विधाय, चन्दनैरिव सञ्चर्च्य, कुन्दकुसुमैरिवाऽऽकीर्य, गगनसागर-मीने इव, मनोजमनोज्ञहंसे इव, विरहिनिकृन्तनरौप्यकुन्तप्रान्ते इव, पुण्डरीकाक्षपत्नीकरपुण्डरीकपत्रे इव, शारदाभ्रसारे इव, सप्तसप्तिसप्तिपादच्युते राजतखुरत्रे इव, मनोहरतामहिलाललाटे इव, कन्दर्पकीर्तिलताङ्कुरे इव, प्रजाजननयनकर्पूरखण्डे इव, तमीतिमिरकर्त्तनशाणोल्लीढनिस्त्रिंशे इव च समुदिते चैत्रचन्द्रखण्डे; तत्प्रकाशेन स्फुटं प्रतीयमानासु सर्वासु दिक्षु, अहं परितो दृक्पातमकार्षम्, अद्राक्षं च यदुत्तराभिमुखम्, तद् विशालं मन्दिरमस्ति, तद्द्वारस्योभयतः सुधालिप्तभित्तिकायां विशालैः सिन्दूराक्षरैः 'जयति हनुमान्' रामदूतो विजयतेतराम्' 'विजयतामक्षक्षयकारी'-इति बहूनि वाक्यानि गदादिचिह्नानि च लिखितानि सन्ति । तत उत्तरस्यामेकः स्वल्पः शैलखण्डः, पूर्वस्यां गहनं वनम्, पश्चिमाया च स्वल्पमेकं पल्वलमासीत् । यद्यप्यसौ पर्वतखण्डो नात्यन्तं भयानक इव, तथाऽपि विविधगण्डशैलावृतः, झरझर्झरध्वनिपूरितदिगन्तरालः, महीरुहसमूहसमावृतः, उच्चावच-सानु-प्रचय-सूचित-विविधकन्दरश्चाऽऽसीत् । चन्द्रचन्द्रिकाचाकचक्यात् स्फुटमवालोक्यन्तैतस्योपत्यकाः ।

ततश्च झिल्ली-झङ्कारेणेव केनचित् विलक्षणेन अनाहतध्वनिनेव पर्यपूर्यत वसुधा, विचित्र एव कश्चन परस्सहस्रतानपूरषड्जस्वरसोदरो वनरात्रिध्वनिः, तमेव स्वरं गम्भीरं विशकलय्य आकर्णयता समश्रावि कीचकध्वनिरपि, तत्राऽप्यवदधता साक्षादकारि मधुकरनिकरझङ्कारः, पुनरेकाग्रतामङ्गीकुर्वता समाकर्णि स्रोतस्संसरणसत्कारः, तस्मिन्नपि च लयमिवाऽऽकलयता समन्वभावि समीरणसमीरित-किसलयपरिप्लवता- प्रभूतस्वनः, तथापि च स्थिरतां बिभ्रता प्रत्यक्षीकृतं सुधाधारामप्यधरीकुर्वत्, वीणारणनमपि विगणयत्, मधु विधुरयत्, मरन्दं मन्दयत्, कल-काकलीकलनपूजितं कोकिलकुलकूजितम् । ततश्च बहूनामेव मधुरकण्ठानां वन्यपतत्रिणां स्थगितमन्थराऽऽरावाः समाकर्णिषत । अथाऽनुभवन् धीरसमीरस्पर्शसुखम्, साम्रेडमवलोकयंश्च तारकितं नभः, स्मारं स्मारं स्वगृहस्य, महाचिन्तापारावारे इवाऽहं न्यमाङ्क्षम् । ततः पृष्ठतो भित्तिकामाश्रित्य, करौ कटिप्रदेशे संस्थाप्य साम्मुखीन-शिखरिशिखरे चक्षुषी स्थिरयित्वा, आत्मानमपि विस्मृत्य व्यचारयं यत् - "अहह ! दुरदृष्टोऽस्मि !! धन्यावावयोः पितरौ यौ सुखिनावेवाऽऽवां परित्यज्य दिवं सनाथितवन्तौ, न तयोरदृष्टे पुत्र-विश्लेषदुःखं व्यलेखि धात्रा । नितान्तं पापिनौ चाऽऽवाम् यौ बाल्य एवेदृशीषु दुरवस्थासु पतितौ । का दशा भवेत् साम्प्रतमावयोरनुजायाः सौवर्ण्याः ? हन्त !! हतभाग्या सा बालिका; या अस्मिन्नेव वयसि पितभ्यां परित्यक्ता, आवयोरप्यदर्शनेन क्रन्दनैः कण्ठं कदर्थयति । अहह ! सततमस्मत्क्रोडैक-क्रीडनिकाम्, सततमस्मन्मुखचन्द्रचकोरीम्, सततमस्मत्कण्ठरत्नमालाम्, सततमस्मत्सहभोजिनीम्, बाल्यलुलितैः, मधुर-मधुरैः, सुधास्यन्दनैः, दाद-दादेति भाषणैः आवयोः हृदयं हरन्तीम्, क्षणमात्रमस्मदनवलोकनेनाऽपि वाष्प्रवाहैः कपोलौ मलिनयन्तीम्, कथमेनां वृद्धः पुरोहितः सान्त्वयिष्यति ? अस्मज्जनकाविशेषः पुरोहित एव वा कथं नौ विना जीविष्यति ? परमेश्वर ! तथा विधेहि यथा जीवन्तं वृद्धं पुरोहितं सौवर्णीं साक्षात्कुर्वः’ –

इति चिन्ता-चक्रमारूढ एव आत्मानं विस्मृत्य भित्तिकासंसक्त एव शनैरस्खलम् । प्राप्तसंज्ञश्च समपश्यं यत् श्यामसिंहो मन्दिर-पूजकाश्च मामुत्थापयन्ति-इति । अथाऽऽवां तेन साधुना मन्दिरस्याऽन्तर्नीतौ महावीरमूर्ति-समीपे चोपवेशितौ ।

ततोऽवलोक्य तां वज्रेणैव निर्मिताम्, साकारामिव वीरताम्, गदामुद्यम्य दुष्टदल-दलनार्थमुच्छलन्तीमिव केशरिकिशोरमूर्तिम्, न जाने कथं वा कुतो वा किमिति वा प्रातरन्धकार इव, वसन्ते हिम इव, बोधोदयेऽबोध इव, ब्रह्मसाक्षात्कारे भ्रम इव च झटित्यपससार आवयोः शोकः । प्राकाशि च हृदये यद् –

‘अलं बहुलचिन्ताभिः ! कश्चन पुरुषार्थः स्वीक्रियताम्, न खलु बुद्ध्यतां यदावामेव दुरदृष्टवशात् त्यक्तकुटुम्बौ वने पर्य्यटावः- इति, किन्तु कोशलेश्वरतनयो रामलक्ष्मणावपि चतुर्दशवर्षाणि यावद् दण्डकारण्ये भ्रान्तवन्तौ । " इति ।

ततः साधोश्चरणयोः प्रणम्य मयोक्तम् - "भगवन् ! नास्त्यविदितं किमपि भवादृशानां सदाचार- दृढव्रतिनाम् । तत्कथ्यतां किमावां करवाव ? कुतो गच्छाव ? कथमावयोः श्रेयः- सम्पत्तिः स्याद् ?’ इति ।

ततो हनुमत्पूजकेन सर्वमस्मद्वृत्तान्तं पृष्ट्वा ज्ञात्वा च काष्ठपट्टिकायां घृतोन्मथित-सिन्दूरेण किमपि यन्त्रमिवोल्लिख्य, चन्दनैः सञ्चर्च्य, कुसुमैराकीर्य, धूपेन धूपयित्वा, किमपि क्षणं ध्यात्वेव च मम हस्ते पूगीफलमेकं दत्त्वा, "वत्स ! अस्मिन् यन्त्रे कस्मिन्नपि कोष्ठे यथारुचि क्रमुकफलमिदं स्थापय" इत्यवाचि । तत एकतमे कोष्ठे निहितक्रमुके मयि महूर्तम् अङ्गुलिपर्वसु किमपि गणयित्वेव स मामवादीत् –

"वत्स ! कदाऽपि मा स्म गमो गृहं प्रति, यतो मार्गे पर्वततटीषु अरण्यानीषु च बहवः काम्बोजीया यवन-दस्यवो भवतोर्ग्रहणाय विचरन्ति । दस्युभिः क्रियासमभिहारेण चङ्क्रम्यमाणं देशमवलोक्य भवद्ग्रामवासिनः सर्वेऽपि स्वं स्वमालयं परित्यज्य इतस्ततो गताः ।

" ततः 'सौवर्णि ! सौवर्णि ! पुरोहित ! पुरोहित !' इति सक्षोभं व्याहृतवतोरावयोः पुनः स साधुरवोचद्, यत् –

"पुरोहितोऽपि युष्मद्रत्नादिनिधिं क्वचन संकेतित-भूमि-कुहरे स्थापयित्वा, एकां धात्रीं दास-चतुष्टयमेकं चाऽश्वं सह नीत्वा महाराष्ट्र पञ्चाननपरिपूरितां कोङ्कणभूमिं प्रति प्रस्थितः ।

तदाकलय्य "सत्यं सत्यमेवम्" इति समस्तकान्दोलनं स्वीकृतवति पुरोहिते; 'ततस्ततः' इति मुखरीभूतेषु च कुटीरस्थ-सकलजनेषु भूयस्तदुक्तिं व्याजहार गौरसिंहो यद् –

"न शोचनीयं भवद्भ्यां किमपि तयोर्विषये, गन्तव्यं च तस्मिन्नेव शिववीराधिष्ठिते गिरि-गरिष्ठे कोङ्कणदेशे । कियत्समयानन्तरं तत्रैव भगिन्या पुरोहितेन च सह साक्षात्कारोऽपि भविष्यति" इति प्रावोचत् । ततस्तु भ्रमर-झङ्कारेणेव "अहो! अहो ! आश्चर्यमाश्चर्यम्, धन्यो मन्त्राणां प्रभावः, धन्यमिष्टबलम्, चित्रा धर्मनिष्ठा, अवितर्क्यस्तपःप्रतापः, विलक्षणा नैष्ठिकी वृत्तिः" इति मन्द्रस्वरमेदुरेण श्रोतृजनवचनकलापेन झङ्कृते तस्मिन् निकुञ्जे; "ततः कथं प्रचलितौ ? कथमत्राऽऽध्यातौ ? का घटना घटिता ? क उपायः कृतः ? किमाचरितम्?" इति कुतूहलपरवशे विस्फारितनयने उद्ग्रीवे समनुकूलितकर्णे विस्मृतान्यकथे कृतावधाने च परिकरवर्गे श्यामसिंहस्याऽङ्के दत्तदृष्टिं सौवर्णी तदङ्के संस्थाप्य, पातितोभयजानु समुपविश्य, राजतराजिका इव कपोलयोरुत्तरोष्ठे च समुद्भताः स्वेदकणिका उत्तरीयप्रान्तेन परिमृज्य पुनरात्मवृत्तान्तं वक्तुं प्रारभत यद् –

अथ भगवन् ! श्रूयते सुदूरमस्मात् स्थानात् कोङ्कणदेशः, मध्ये च विकटा अटव्यः, शतशः शैलश्रेणयः, त्वरितधारा धुन्यः, पदे-पदे च भयानकभल्लूकानामम्बूकृतसङ्कुलानाम्, मुस्तामूलोत्खनन-घुर्घुरायित-घोर-घोणानां घोणिनाम्, पङ्कपरीवर्त्तोन्मथित-कासाराणां कासराणाम्, नरमांसं बुभूक्षूणां तरक्षूणाम्, विकटकरटिकटविपाटन-पाटव-पूरितसंहननानां सिंहानाम्, नासाग्रविषाणशाणनच्छलविहितगण्डशैलखण्डानां खड्गिनाम्, दोदुल्यमान-द्विरेफदल-पेपीयमान-दानधारा-धुरन्धराणां सिन्धुराणाम्, कृपा-कृपण-कृपाणच्छिन्न-दीनाऽध्वनीन-गल-तल-गलत्पीनधारशोणित-बिम्दु-वृन्द-रञ्जित-वारबाण-सारसनोष्णीष धारणा-कलिताऽखर्व-गर्व-बर्बराणां लुण्ठकनिकराणां च सर्वथा साक्षात्कारसम्भवः । बालावावाम्, अविज्ञातोऽध्वा, भोगसमयो दुर्ग्रहाणाम्, अश्वावेव सहायौ, जनपद-शून्यमेतत् प्रान्तरम्, तत्कथं गच्छेव ? कथं धैर्यं धारयेव ? कथं वा कोङ्कणदेशं प्राप्स्याव इति विश्वसेव ?" इति सचिन्तं विनिवेदितवति मयि, स साधुरावयोः पृष्ठे हस्तं विन्यस्य –

"हनुमान् सर्वं साधयिष्यति, मा स्म चिन्तासन्तानवितानैरात्मानं दुःखाकुरुतम् । यथा सरलेनोपायेन कोङ्कणदेशं प्राप्स्यथस्तथा प्रभाते निर्देक्ष्यामि । साम्प्रतमित आगम्यताम्, पीयतामिदमेला-गोस्तनी-केसर- शर्करा-सम्पर्क-सुधा-विस्पर्द्धि-महिषी-दुग्धम्, दासा इमे पादसंवाहनैस्तैलसम्मर्दैर्व्यजनचालनैश्च भवन्तौ विगतक्लमौ विधास्यन्ति । न किमपि भयमधुना वां हतूमतश्चरणयोः शरणमायातयोः । सुखेन सुप्यताम् । असंशयमेव प्रातरेव हनूमत्पूजनसमये सर्वं कार्यं सेत्स्यति"- इति समाश्वासयत् ।

आवां च तन्निर्दिष्टेनैव सोपानेन अट्टालिकामारुह्य एकस्मिन् गृहे प्रविष्टौ, तत्र च राजकुमारयोग्यां पर्यङ्कादि-सामग्रीमवलोक्य नितान्त-चकितौ प्रसन्नौ च अभूव । अथ भूयस्तत्प्रदत्त मोदकादि किञ्चिद् भुक्त्वा, पयः पीत्वा, ताम्बूलं चर्वयन्तौ, दासैः पादयोः पीड्यमानौ, व्यजनैर्वीज्यमानौ, स्वभाग्योदयसोपानं साधोः साधुतां मनस्येव प्रशंसमानावेव चाऽशयिष्वहि । अयं चिरकालान्तरमावाभ्यां निःशङ्कशयनसमयो लब्धः, इत्येकयैवाऽनन्दमय्या वितर्कविचारादि-सम्पर्क-शून्यया असम्प्रज्ञात-समाधि-सोदरयेव-निद्रया समस्तां रजनीमजीगमाव ।

ततः केनापि धमद्धमद्ध्वनिनेव बोधितौ, दक्षतो वामतश्च परिवृत्य, चक्षुषी परिमृज्य, साङ्गुलि-ग्रथन-हस्त-प्रसारणं सस्नायुपीडनं च विजृम्भ्य, भूमिं प्रणम्य, पर्यङ्कादुत्तीर्य, काष्ठाद् बहिरागत्य, साञ्जलि मारुति-ध्वजमवलोक्य, करतले निरीक्ष्य, भित्तिकावलम्बितमुकुरेष्वात्मानं साक्षात्कृत्य, भगवन्नामानि जपन्तौ, कांश्चित्प्रातःस्मरणश्लोकांश्च रटन्तौ, परस्परं "सुखमावामस्वाप्स्व, प्रसन्नं नौ चेतः" इति शनैरालपन्तौ च, तस्मिन्नेव मन्दिरस्योर्ध्वे खण्डे शतपदीमकरवाव । तावदश्रूयत स एव बहुलीभूतो ध्वनिः ।

ततो गवाक्षतो निकुब्जीभूय दृष्टं यत् पञ्चषाः साधवो वस्त्रवेष्टितमस्तकाः समीपस्थापितजलपूर्णपात्रा: पाषाणखण्डैर्दन्तधावनमुखं मृदूकरणाय कुट्टन्ति । अवलोकितं च यदस्मिन्नपि समये शर्वरी-तमांसि नाऽम्बरं साकल्येन जहति । स्वच्छाऽपि प्राची नाऽधुनाऽप्यरुणिमानमङ्गीकरोति । विराव-बहुलान्यपि वयांसि न सम्प्रत्यपि विहाय नीडाधिष्ठानकुटानुड्डीयन्ते । गिरिग्रामटिकागृहेभ्यो व्यावर्तमाना अपि विटपिनो न स्वफल-पुष्प-पत्राऽऽकार-परिचय-प्रदानर्जातीः प्रकटयन्ति । उत्तरोत्तर-तस्तारतारतरै रुतैः रतार्त्तिमीरयन्त्यपि तरुण-तित्तिरी न तरोरवतरति । आालोकाऽऽलोक-कृतकिञ्चिच्छोकमोकोऽपि च कोको न वराकीं कोकीमुपसर्पति ।

अथेदृशीमेव मनोहारिणीं शोभामवलोकयन्तौ कम्पित-कुन्दकलापस्य, उन्मीलन्मालती-मुकुल-मकरन्द चौरस्य पाटलि-पटल-पराग-पुञ्ज पिञ्जरितस्य शनैः शनैः फरफरायमाण-शुक-पिकादि-पतगोन्मथ्यमानस्य पलाशिपलाशाग्र-विलुलत्तुषारकणिकापहरणशीतलस्य समीरस्य स्पर्शसुखमनुभवन्तौ, तत्रैव पूर्वस्या अट्टालिकायाः दक्षिणस्याम्, दक्षिणस्याश्च पश्चिमायाम्, पश्चिमाया अप्युत्तरस्याम्, ततश्च पुनः पूर्वस्यामिति पौनः पुन्येन पर्य्यटन्तौ मुहूर्त्तमयापयाव ।

तस्मिन्नेव समये एकेन ब्रह्मचारिबटुनाऽऽगत्य निवेदितम्, यत् 'सपदि प्रभात-क्रिया निर्वहणीयेत्याऽऽदिशति तत्रभवान् साधुशिरोमणिः'' तदाकर्ण्य, बाढमित्यङ्गीकृत्य, षष्टिसहस्रबालखिल्यकषायवसनविधूतायामिव, मन्देहदेशशोणितायामिव, अरुणाऽरुणिम-रञ्जितायामिव, मोमुद्यमान-नरीनृत्यमान-परस्कोटि-ताम्रचूड-चूडा-प्रतिबिम्ब-संवलितायामिव, पोस्फुट्यमान-स्वर्गङ्गा-कोकनद-पटल-व्याप्तायामिव, भक्तजनभक्ति-प्रभाव-भाविताऽऽविर्भाव-च्छिन्नमस्ता-कन्धरोच्छलच्छोणित-स्नातायामिव, वसन्तोत्सवो-च्छालित-सिन्दूरान्धकारान्धीकृतायामिव, तातप्यमान-ताम्रद्युति-चौरायां प्राच्यां, तत्प्रभया शोणशोणैः सोपानैरवतीर्य, मारुति-मन्दिर-द्वारि मस्तकमवनमय्य, झटित्येव स्नान-पूर्वाः क्रियाः समाप्य तेनैव ब्रह्मचारिबटुना निर्दिश्यमानमार्गौ, पूर्वाऽवलोकित-वेशन्तादारादेव पश्चिमतः किञ्चिदमृतोदं नाम महासरः समासादितवन्तौ ।

तत्र वरटाभिरनुगम्यमानानां राजहंसानाम्, पक्षति-कण्डूति-कषण-चञ्चल-चञ्चुपुटानां मल्लिकाक्षाणाम्, लक्ष्मणा-कण्ठस्पर्श-हर्ष-वर्ष-फुल्लाऽङ्गरुहाणां सारसानाम्, भ्रमद्-भ्रमर-झङ्कार-भार-विद्रावित-निद्राणां, कारण्डवानां च तास्ताः शोभाः पश्यन्तौ, तडागतट एव पम्फुल्यमानानां मकरन्द-तुन्दिलानामिन्दीवराणां समीपत एव मसृण-पाषाण-पट्टिकासु, कुशासनानि मृगचर्मासनानि ऊर्णासनानि च विस्तीर्योपविष्टानां, गायत्री-जप-पराधीन-दशनवसनानाम्, कलितललित-तिलकालकानाम्, दर्भाङ्गुलीयकालङ्कृताङ्गुलीनां, मूर्तिमतामिव ब्रह्मतेजसाम्, साकाराणामिव तपसाम्, धृतावताराणामिव च ब्रह्मचर्याणां मुनीनां दर्शनं कुर्वन्तौ, कृतनित्यक्रियं परिपुष्ट-तुलसीमालिकाऽङ्कितकण्ठं सिन्दूरोर्ध्व-पुण्ड्रमण्डित-ललाटम्, रामचरणचिह्नमुद्रा-मुद्रित-बाहुदण्ड-वक्षःस्थलं हनूमन्मन्दिराध्यक्षं प्रणतवन्तौ ।

तेन चाऽऽज्ञप्तम् - ‘यद्यायुष्मन्तौ सपदि महाराष्ट्रदेशं जिगमिषथश्चेदचिरेणैव मस्तके सम्मर्द्य एतद् रामरजः तडागे निमज्जतासि’ इत्यवधार्य्य आवां तथैव व्यधिष्वहि ।

तदाज्ञया वस्त्राणि परिधाय च तत्समीपे समुपविश्य, तेन च समन्त्रजपं कुश-जलेनाऽभ्युक्षितौ हनुमदङ्ग- रञ्जितसिन्दूरेण विहिततिलकौ स्वकीयौ सैन्धवौ समारुक्ष्व । ततः पञ्चषान् व्यूढवयस्कान् जटिलान् सुपरिणाहान् वाहानारूढान् आवाभ्यां सह गन्तुमाज्ञाप्य मन्दिराध्यक्षोऽभाषिष्ट –

"कुमारौ ! इतः पुण्यनगरपर्यन्तं प्रतिगव्यूत्यन्तरालं महाव्रताऽऽश्रम-परम्पराः सन्ति । सर्वत्र कुटीरेषु संन्यासिनो भक्ता विरक्ताश्न निवसन्ति । कियद् दूरपर्यन्तं पञ्चषाः सहाया युवयोः सहचरा भविष्यन्ति परस्ताच्छिथिलिते लुण्ठकभये एकेनैव केनचिदश्वारोहेण प्रदर्शित-मार्गौ सुखेन यथाभिलषितं देशं यास्यथः । सहायकपरिवर्तनं स्थाने स्थाने स्वयमेव भविष्यति, न तत्र युवयोः कयाऽपि विचिकित्सया भाव्यम् । श्रान्तैः श्रान्तैराश्रमेषु विश्रमणीयम्, निदिद्रासद्भिः कुटीरेष्वेव निद्रा द्राघणीया, विलेपनाऽभ्यङ्गस्नान-पानाऽशनसंवाहनादि-सौकर्य सर्वत्र सहायकाः साधयिष्यन्ति'' इति ।

ततस्तं प्रणम्य तथैव ससहायौ आवां प्रचलितौ । सहचर-निर्दिष्टेनैव सर्वैरविज्ञेयेन वन्य-द्रुम-जालरुद्धेन गण्डशैल-परिक्रमणाऽधित्यकाऽधिरोहणोपत्यकापरिलङ्घन-तटिनी-तरणाद्यायास-दीक्षा-दक्षेण पथा प्रचलन्तौ मध्ये-मध्ये कुटीरेषु विरमन्तौ तत्र-तत्र सुस्वादु-भोजनैः सकलसमुचितसामग्रीसाहाय्यैः सुखेन विश्रान्ति-सुखमनुभवन्तौ तत्र-तत्र परिवर्तितसहायकौ दिनकतिपयैरेकस्या नद्यास्तटमयासिष्व । तत्रैकस्य चिञ्चावृक्षस्य स्कन्धे प्रलम्बरज्ज्वा निजाऽऽजानेयावाबध्य निकटस्थयूपतरुशाखायां च वस्त्रादीनि संलम्बय्य स्नातुं जलमवागाहिष्वहि । अस्मत्सहचरश्च निजाश्वस्य पृष्ठमार्द्रयन्निव तं वल्गायां गृहीत्वा पर्य्यटयितुमारब्ध ।

ततो जलाद् बहिरागत्य तिन्तिडीशाखात शुष्कवस्त्रे परिधाय, इतस्ततः पर्यट्याऽपि च कां भूमिमायातौ- इति निश्चेतुं नाऽपारयाव । तावदकस्माद् दृष्टं यदुत्तरतः खुरधूलिभिः पार्श्व-परिवर्त्ति-लताकुसुम-परागान् द्विगुणयन्तं लाङ्गूल-चामरेण वीजयन्तं मुखफेनैः पुष्पाणीव वर्षन्तं कञ्चित् श्याम-कर्णशारदाभ्रश्वेतं वाजिनमारुह्य लोलत्खड्ग-वर्म्माच्छन्न-पृष्ठदेशः कवच-शिञ्जित-विजितकोकिल-शावक निकर-कूजितो वीरवेषः कश्चिच्छ्यामो युवा समायातीति ।

स च क्षणेनैवाऽऽगत्य, नौ सकलं वृत्तान्तं पृष्ट्वा, विज्ञाय च प्रावोचत् - "अवगतम्, भवतोरेव विषये दृष्टस्वप्नः शिववीरो भवन्तौ स्मरति, तत्सपद्यश्वावारुह्य आगम्यताम् न वां भयं किमपि व्यतीतो भवतोर्दुःखमयः समयःइति ।

ततः साश्चर्यं सपदि वस्त्राणि परिधाय सहचरमाकार्य तेन सहाश्वावारुह्य तमनुसृत्य तत्प्रदिष्ट वासादिसौकर्यमङ्गीकृत्य सपद्येव निविवृत्सन्तं जटिल-सहचरं साश्लेषमनुज्ञाप्य यथासमयं शिववीरं साक्षात्कृत्याऽवगतम्-यदेष एव महात्मा भटवेषेणाऽस्मन्निकटे भीमानद्यास्तटं गत आसीदिति ।

तत्कालमारभ्याद्यावधि तस्यैव करकमलच्छायायां वसावः, भगिनी-वियोग-तापश्चिरादासीत्, सोऽप्यद्य निवृत्तः, पुरोहितचरणावपि दृष्टौ, इति सर्वं शुभमेव परस्तात् सम्भाव्यते’ इत्येष आवयोर्वृत्तान्तः ।

ततो मुहूर्तं सर्वेऽप्येतद्वृत्तान्तस्यैव पौर्वापर्य-स्मरण-पराधीना इवाऽऽसिषत परिशेषे च पुटपाकवदन्तरेव दन्दह्यमानेन वाष्पव्रातेन आविलस्याऽपि अप्रकटित-बहिश्चेष्टस्य ब्रह्मचारिगुरोः प्रार्थनया देवशर्म्मणा तोरणदुर्गसमीपे हनूमन्मन्दिरे एव निवासः स्वीकृतः । तदेव च प्रबन्धुं सर्वेऽपि कुटीरादुत्थिताः ।

॥ इति तृतीयो निश्वासः ॥

चतुर्थो निश्वासः

"कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम् ।"

-       स्फुटकम्

मासोऽयमाषाढः, अस्ति च सायं समयः, अस्तं जिगमिषुर्भगवान् भास्करः सिन्दूर-द्रव-स्नातानामिव वरुण-दिगवलम्बिनामरुण-वारिवाहानामभ्यन्तरं प्रविष्टः । कलविङ्काश्चाटकैररुतैः परिपूर्णेषु नीडेषु प्रतिनिवर्तन्ते । वनानि प्रतिक्षणमधिकाधिकां श्यामतां कलयन्ति । अथाऽकस्मात् परितो मेघमाला पर्वतश्रेणीव प्रादुरभूत् । क्षणं सूक्ष्मविस्तारा, परतः प्रकटित-शिखरि-शिखर-विडम्बना, अथ दर्शित-दीर्घ-शुण्ड-मण्डित-दिगन्त-दन्तावल-भयानकाकारा, ततः पारस्परिक-संश्लेष-विहित-महान्धकारा च समस्तं गगनतलं पर्यच्छदीत् ।

अस्मिन् समये एकः षोडशवर्षदेशीयो गौरो युवा हयेन पर्वतश्रेणीरुपर्युपरि गच्छति स्म । एष सुघटितदृढशरीरः, श्याम-श्यामैर्गुच्छगुच्छै: कुञ्चित-कुञ्चितैः कच-कलापैः, कमनीय-कपोलपालिः, दूरागमनायासवशेन सूक्ष्म-मौक्तिक-पटलेनेव स्वेद-बिन्दु-व्रजेन समाच्छादित-ललाट-कपोल-नासाग्रोत्तरोष्ठः; प्रसन्न-वदनाम्भोज-प्रदर्शित-दृढ-सिद्धान्त-महोत्साहः, राजत-सूत्र-शिल्पकृत-बहुल-चाकचक्य-वक्र हरितोष्णीष-शोभितः, हरितेनैव च कञ्चुकेन प्रकटीकृत-व्यूढगूढचरता-कार्यः, कोऽपि शिववीरस्य विश्वासपात्रं सिंहदुर्गात् तस्यैव पत्रमादाय तोरणदुर्गं प्रयाति ।

तावदकस्मादुत्थितो महान् झञ्झावातः, एकः सायंसमयप्रयुक्तः स्वभाव-वृत्तोऽन्धकारः, स च द्विगुणितो मेघमालाभि: । झञ्झावातोद्धतै रेणुभिः शीर्णपत्रैः कुसुमपरागैः शुष्कपुष्पैश्च पुनरेषु द्वैगुण्यं प्राप्तः । इह पर्वत-श्रेणीतः पर्वतश्रेणीः, वनाद् वनानि, शिखराच्छिखराणि, प्रपातात् प्रपाताः अधित्यकातोऽधित्यकाः, उपत्यकात उपत्यकाः, न कोऽपि सरलो मार्गः, नानुद्भेदिनी भूमिः, पन्था अपि च नाऽवलोक्यते । क्षणे- क्षणे हयस्य खुराश्चिक्कण-पाषाण-खण्डेषु प्रस्खलन्ति । पदे-पदे दोधूयमाना वृक्ष-शाखाः सम्मुखमाघ्नन्ति, परं दृढसङ्कल्पोऽयं सादी न स्वकार्याद् विरमति । परितः स-हडहडाशब्दं दोधूयमानानां परस्सहस्रवृक्षाणां, वाताघात-संजात-पाषाण पातानां प्रपातानां, महान्धतमसेन ग्रस्यमानानामिव सत्त्वानां क्रन्दनस्य च भयानकेन स्वनेन कवलीकृतमिव गगनतलं परं नैष वीरः स्वकार्याद् विरमति ।

कदाचित् किञ्चिद् भीत इव घोटकः पादाभ्यामुत्तिष्ठति, कदाचिच्चलन्नकस्मात् परिवर्त्तते, कदाचिदुत्प्लुत्य च गच्छति । परमेष वीरो वल्गां संयच्छन्, मध्ये-मध्ये सैन्धवस्य स्कन्धौ कन्धरां च करतलेनाऽऽस्फोटयन्, चुचुत्कारेण सान्त्वयंश्च न स्वकार्याद् विरमति । तावदारब्धश्चञ्चच्चञ्चल-चामीकर-रेखाकाराभिश्चञ्चलाभिरपि स्वचमत्कारः । यावदेकस्यां दिशि नयने विक्षिपन्ती, कर्णौ स्फोटयन्ती, अवलोचकान् कम्पयन्ती, वन्यांस्त्रासयन्ती, गगनं कर्त्तयन्ती, मेघान् सौवर्णकषेणेव घ्नती, अन्धकारमग्निमेव दहन्ती, चपला चमत्करोति, तावदन्यस्यामपि अपरा ज्वालाजालेनेव बलाहकानावृणोति, स्फुरणोत्तरं स्फुरणं गर्ज्जनोत्तरं गर्ज्जनमिति परश्शत-शतघ्नी-प्रचारजन्येनेव कन्दरि-कन्दर-प्रतिध्वनिभिश्चतुर्गुणितेन महाशब्देन पर्यपूर्यत साऽरण्यानी । परमधुनाऽपि- "देहं वा पातयेयं कार्यं वा साधयेयम्" इति कृतप्रतिज्ञोऽसौ शिववीरचरो न निजकार्यान्निवर्त्तते ।

यस्याऽध्यक्षः स्वयं परिश्रमी, कथं स न स्यात् स्वयं परिश्रमी ? यस्य प्रभुः स्वयं साहसी, कथं स न भवेत् स्वयं साहसी ? यस्य स्वामी स्वयमापदो न गणयति, कथं स गणयेदापदः ? यस्य च महाराजः स्वयं सङ्कल्पितं निश्चयेन साधयति, कथं स न साधयेत् स्वसंङ्कल्पितम् ? अस्त्येष महाराज-शिववीरस्य दयापात्रं चरः, तत्कथमेष झञ्झाविभीषिकाभिर्विभीषितः प्रभुकार्यं विगणयेत् ? तदितोऽप्येष तथैव त्वरितमश्वं चालयंश्चलति ।

अथ किञ्चित् स्रोतस्समुल्लङ्घमानोऽस्य तुरङ्गः कस्यापि दोधूयमानतरोः शाखया तथाऽभिहितो यथोच्छलन् भूमौ पपात, सादिनं चैकतः समपीपतत् । किन्तु तत्क्षणादेव सादी समुत्थितो वाजिनो वल्गां गृहीत्वा, सचुचुत्कारं ग्रीवां पृष्ठं चाऽऽस्फोट्य, अज्ञासीद् यदश्वः स्वेदैः स्नातोऽस्तीति । तच्चक्षुषी विस्फार्य, पार्श्वस्थ-पलाशिनं निपुणं निरीक्ष्य, तच्छाखायामेव कानिचिन्निजवस्तून्यासज्य, दक्षिणकरधृतरश्मिरश्वं शनैः-शनैः परिभ्रमयितुमारेभे । अश्वश्च फेनान् पातयन् कन्धरामुद्धूनयन् ह्रेषा-रवैश्चिर-परिश्रमं प्रकटयन् प्रस्यन्दजलासिक्तभूभागः, समुत्सृष्टपुरीषः, शुष्कस्वेदः, मूहूर्त्तार्द्धेनैव विस्मृतपरिश्रमः, सगतिस्तम्भं खुराग्रैर्भूमिमुत्खनन्, कर्णावुत्तम्भयन्, लाङ्गूलं लोलयन्, सादिनो दक्षिणदेशे पृष्ठं निकटयन्, पुनरेनं वोढुं परतो धावितुं च समीहां समसूसुचत् ।

तावदकस्मात् पूर्वस्यामतिरक्ताऽति-प्रलम्बातिभयानका सकडकडा-शब्दं सौदामिनी समदेदीप्यत, तच्चमत्कारचकितं चाश्वमेष यावत् स्थिरयति, तावत् स-तडतडा-शब्द पूगस्थलैर्बिन्दुभिर्वर्षितुमारब्धः मघवा, परं रामकार्यार्थं प्रतिष्ठमानेव मारुतिनेव न सह्यते कार्यहानिः शिववीरचरेण । तत्क्षणमेवाऽसौ पुनः सज्जीभूय समुत्प्लुत्य घोटकपृष्ठमारुरोह । घोटकश्च पुनस्त्वरितगत्या प्रचलितः । यदा-यदा विद्युद् विद्योतते, तदा-तदा पन्था अवलोक्यते, तदनुसन्धानेनेव वाहोऽयं शिलातलानि परिक्राम्यन् लताप्रतानानि त्यजन् स्रोतांस्युल्लंघमानः गर्तांश्च परिजहदुच्चचाल । तावद् दूरतः एवाऽऽलोक्यत तोरणदुर्गदीपः, इतश्च चरस्यैतस्य दृढप्रतिज्ञतां निर्भीकतां सोत्साहतां स्वामिकार्य-साधन-सत्य-सङ्कल्पतां च परीक्ष्येव प्रशशाम वृष्टिः । अम्ल-बलेन दुग्धमिव च खण्डशोऽभून्मेघमाला, ददृशे च पूर्वस्यां कलानाथः ।

अथ क्षणेनैव पार्वत-नदी-वेग इव निर्जगाम झञ्झावातोत्पातोऽपि । ततो नूतन-वारिधारा-क्षालन-प्रकटित-परम-हारित्यानां परस्कोटि-कीर-पटल-परीतानामिव समवालोक्यत लोचन-रोचिका शोभा पलाशिनाम्। सादी च चञ्चच्चन्द्रचमत्कारेण द्विगुणितोत्साहः "मा भूद् द्वाररोधो मद्गमनात् पूर्वमेव" इति सत्वर-सत्वरः, झिल्ली-रव-मिश्रित-कवच शिञ्जितः, वार्ष-वारि-व्रज-विधूत-स्वेद-बिन्दु-सन्दोहः साधुवादसंवर्द्धित-हेषमाण-हयोत्साहः सपद्येव तोरण-दुर्ग-यामिक-पादचार-परिमर्दितायां भुवि समाजगाम ।

अथ "को भवान् ? कुतो भवान् ?" इति यामिकेन पृष्टः, दत्तनिजपरिचयः, द्वारपालेनाऽपि--"साधु ! साधु! महता परिश्रमेण समायातोऽसि, उच्चैर्निश्वसिति तेऽश्वः, स्विन्नानि तव गात्राणि, आर्द्राणि तव वस्त्राणि, धन्योऽसि, तथापि खेदं नाऽऽवहसि, समये समागतोऽसि, अवेक्षते तवैव पन्थानं दुर्गाधीशः । प्रविश्यताम्, अश्व उन्मुच्यताम्, सत्वरमेव च तेनाऽपि साक्षात्कारो विधीयताम्" इति सादरमालप्यमानो दुर्गं प्रविवेश ।

अश्वमुन्मुच्य परस्सहस्र-पतग-पटल कलकलोन्निद्रस्य सुदूरं-वितत-काण्ड-प्रकाण्डस्य चैकस्य पनसवृक्षस्य शाखायामाबध्य, अविश्रान्त एव दुर्गाध्यक्ष-समीपमगमत् ।

तत्र तयोरेवमभूदालापः –

दुर्ग्गाध्यक्षः (दूरत एव) 'एहि, एहि, समये समायातोऽसि ' मुहूर्तं नाऽऽयास्यश्चेद् द्वारेषु रुद्धेषु बहिरेव समस्तां रजनीमवत्स्यः ।

सादी – विध्नास्त्वभूवन्, परं माहात्म्यमेतत् प्रभु-प्रतापस्य, यत् तदीया विघ्नैर्न व्याहन्यन्ते ।

दुर्गाध्यक्षः – (तं शिरो नमयन्तं जीवेत्युक्त्वा ) उपविश, उपविश । ततो दुर्गाध्यक्षस्तु चुम्बित-यौवनामप्यत्यक्त-बालभावां तस्य मधुरामाकृतिं पश्यन् सचकितं विचारयितुमारेभे, यत्- 'कथं बाल एव प्रेषितः श्रीमता महाराष्ट्रराजेन गुप्तविषयसन्धानेषु" क्षणमवस्थाय च "द्रक्ष्यामि प्रथमं किमेतेनाऽऽनीतं पत्रादिकम्" इति निश्चित्य "भगवन् ! प्रभुणैकान्ते मामाहूय प्रदत्तमिदं पत्रमस्ति, तत्स्वीक्रियताम्" इति कटिबन्धनान्निःसार्य ददतो हस्तादादाय, उत्थाय च स्तम्भावलम्बित-दीप्रकाशेन तूष्णीं मनस्येव पठित्वा, आकुञ्च्य, पूर्वोपविष्टमञ्चे उपविश्य, पुनः पौनः पुन्येन अलि-पटल-विनिन्दिकांस्तस्य कुञ्चित-कच-गुच्छान्, उत्पत्स्यमान-केशाङ्कुरस्विन्नमुत्तरोष्ठम्, अतिमसृणकमलोदर-किसलयसोदरौ कपोलौ, उन्नतमंसम्, दीर्घौ बाहू, माधुर्यवर्षिणी अक्षिणी, विनयभरेणेव विनतां कन्धराम्, तेजसेव गौरमङ्गम्, दाक्षिण्येनेवाऽङ्कितं ललाटम्, भद्रतयेव च स्नातं शरीरम् विलोकयन्, वारं वारं विचिन्तयंश्च मशकैरप्यशङ्कनीयम्, मक्षिकाभिरप्यनीक्षणीयम् समीरणेनापि अनीरणीयम्, प्रकाशेनाऽप्यप्रकाशनीयम् लेखन्याऽप्यलेखनीयम्, पत्रेणाऽपि चाऽप्रकटनीयम्, गुप्ततमं वृत्तान्तम् उपबर्हलग्नपृष्टः भ्रूमध्यस्थापिताऽचलदृष्टिः, क्षणं समाधिस्थित इव विचारपरवशोऽभूत् ।

ततश्च पुनः सादिन आननं समवलोक्य, समप्राक्षीत् - वत्स ! तत्रभवतः समीपात् कदा प्रचलितोऽसि ?

स ऊचे-भगवन् ! मार्त्तण्ड-मण्डले निम्लोचति ।

तेनोक्तम्--कथं तर्हि प्रलम्बमुत्कटं चाद्ध्वानमुल्लङ्घ्य, वात्या विधूय, अल्पेनैव समयेन समायातोऽसि ?

स चाह – श्रीमन् ! ईदृश एवाऽऽसीदादेशोऽत्र भवतः ।

ततः परं च – "अस्मै गुप्तसन्देशाः कथनीया न वा ? एष स्वस्मादपि आच्छाद्य मदुक्तं प्रभुकर्णातिथीकरिष्यति न वा ? यतो लिपिः कस्याऽपि कर्णे जपस्य हस्तेऽपि पतेद्, इति वाग्भिरेवोदीरणीयो मम सन्देशः, इति परोक्षयेयैनं वाग्जालैः" इति विविच्य दुर्गाधीशस्तेन बहुशः समालपत् । अन्ततश्च तं सर्वथा गुप्तसन्देशयोग्यमाकलय्य, मनस्येव हर्षमनुभवंश्चिरं प्रशशंस शिवराजं यत्- "नैतेषु विषयेषु कदाऽपि सतन्द्रोऽवतिष्ठते महाराजः, स सदा योग्यमेव जनं पदेषु नियुनक्ति, नूनं बालोऽप्येषोऽबालहृदयोऽस्ति, तदस्मै कथयिष्यामि अखिलं वृत्तान्तम्, पत्रं च केषुचिद् विषयेषु समर्पयिष्यामि ।" एवमालपच्च ­­–

दुर्गाधीशः – मन्ये क्षत्रियोऽसि ।

सादी आम् श्रीमन् ।

दुर्गाधीशः – (स्मित्वा) नाऽन्येषामपत्यान्येवं तेजस्वीनि दृढहृदयानि प्रभुभक्तानि च भवन्ति (पुनः सम्मुखमवलोक्य) किं ते नाम ?

सादी – (अञ्जलिं बद्ध्वा) आर्य ! मां रघुवीरसिंह इति वदन्ति जनाः ।

दुर्गाधीशः – चिरञ्जीव, (क्षणं विरम्य) अस्तु, सम्प्रति दुर्गात् बहिरेव साम्मुखीने हनूमन्मन्दिरे रात्रिमतिवाहय, श्वस्तु, किञ्चिदुदञ्चति मरीचिमालिनि अत्राऽऽगत्य पत्रादिकं गृहीत्वा महाराजनिकटे यातासि ।

रघुवीरः 'बाढम् !' इति शिरो नमयित्वा, प्रतिनिवृत्य, पनसशाखातोऽश्वमुन्मुच्य, दुर्गाध्यक्ष-प्रेषितस्य भृत्यस्यैकस्य हस्ते वल्गादानपुरःसरं समर्प्य, अपरदासेरकेण व्यादिष्टमार्गो नववारिद-वारि-बिन्दु-वृन्द-सम्पर्क-प्रकटित-सिन्धुर-सन्दोह-सन्तर्पण-मधुरगन्धिम्, रजनीकर-कर-निकर-विरोचितां भूमिमालोकयन्, मन्दं मन्दमाससाद मारुति-मन्दिरम् । तत्र च आगन्तुकानामेव निवासाय कलित-यथोचित-साधनानां प्रकोष्ठानामन्यतमे प्रविश्य, गवाक्षानुन्मुद्रय, वाताभिमुखं नागदन्तिकासु वर्म वस्त्राणि चाऽवलम्ब्य आसन्नकूपाज्जलमुत्तोल्य हस्तपादं प्रक्षाल्य, हनुमन्मूर्तिं दृष्ट्वा कमपि नित्यनियममिव निर्वाह्य, दुर्गाध्यक्षप्रेषितं किञ्चिदाहारादिकमुपगृह्य, ग्रीषमसुखावहानां वातानां सुखमनुभवन्, कदाचिच्चन्द्रम्, कदाचित्तारकाः, कदाचिद् गिरिशिखराणि, कदाचिद् दुर्गप्राचीरम्, कदाचित् सुदूरपर्य्यटद्यामिकयातायातम्, कदाचिन्नतोन्नतभूभागान्, कदाचिच्चाऽब्भ्रङ्कषान् हनुमन्मन्दिरकलशान् अवलोकयन्, मन्दिरात् पश्चिमतः परिक्रमापरपादाहति-पिच्छिल पाषाण-पट्टिका-परिष्कृतवेदिकायां पर्यटन् कञ्चित् समयमतिवाहयाम्बभूव ।

तावत् तेन पयःफेनाऽऽसार-च्छवि-विजित्वरया ज्योत्स्नया द्विगुणितोत्साहेन, धीर-समीर-स्पर्श-शान्त-श्रमेण, प्रस्फुरच्चन्द्रकला-कलिका-भ्रमद्-भ्रमर-झङ्कार-भर-मन्द्र-स्वर-पीयूष-शीकर-परिमार्जित-श्रवणेन समश्रूयन्त केचित् शुकीर्मूकयन्तः, हंसीर्ध्वंसयन्तः, सारिका: सारयन्तः, कोकिलान विकलयन्तः, वीणां च विगणयन्तः, काकलीकलमयाः स्वरालापाः । श्रवणेनैव तेनाऽवगतं यत् आलापा एते कस्या अपि बालिकायाः, सा च लज्जापरवशा, यतो नोच्चैर्गायति, उच्चकुलप्रसूता, यतो नान्या-सामेवमुदारा वाक्, समीपवर्तिनी, यतः स्फुट: स्वरः, पूर्वस्यामुपविष्टा च यतस्तत एव मूर्च्छन्ति मूर्छनाः ।

अथ कर्णाविव गृहीत्वा आकृष्टो रघुवीरसिंहो मन्दिरं दक्षिणतः प्रदक्षिणीकृत्य तथैव प्रदक्षिण-वेदिकया तत्क्षणमेव मन्दिरस्याऽग्निकोणे कपोत-पोतक-गूङ्कार-मधुर-कपोतपालिकाऽधस्तम्भाऽरम्भ-निकटे समुपतस्थेऽवालोकयच्च यत् पूर्वस्यामस्ति विशाला पुष्पवाटिका, यस्यामतिमुक्तलताः सौरभेण विष्णुपदमपि मदयन्ति, यूथिकाः सुगन्धतरङ्गैर्हरितामपि हृदयं हरन्ति, पाटलि-पटलानि-अलिपटलरसनाश्चटुलयन्ति, मालतिकाश्च मरन्द-बिन्दु-सन्दोहैर्वसुमतीं वासयन्ति । तस्यां मन्दिरपूर्वद्वार-सम्मुखे एवाऽस्त्येका परमरमणीया ज्योत्स्ना-स्पर्श-प्रकटित द्विगुणतर-चाकचक्या सोपानत्रयालङ्कृत-चतुरवरोहा हंसपक्षवलक्षच्छवि-विजित्वर-धवल-ग्राव-वेदिका । अस्यामागन्तुकानामुपवेशाय रचिताः पाषाणमया एव कतिचन मञ्चाः, तेषामन्यतमे उपविष्टा बालिकैका ।

सेयं वर्णेन सुवर्णम्, कलरवेण पुंस्कोकिलान्, केशै रोलम्बकदम्बानि, ललाटेन कलाधर-कलाम्, लोचनाभ्यां खञ्जनान्, अधरेण बन्धुजीवम्, हासेन ज्योत्स्नां तिरस्कुर्वती, वयसा एकादशमिव वर्षं स्पृशन्ती, श्याम कौशेय-वस्त्र-परिधाना, श्वेत-बिन्दु-सन्दोह-सङ्कुल-रक्ताम्बरकञ्चुकिका, कण्ठे एकयष्टिकां नक्षत्रमालां बिभ्रती, सिन्दूर-चर्चा-रहित-धम्मिल्लेन परिशिष्टं पाणिपीडनमिति प्रकटयन्ती, हस्ते पाटलिकुसुमस्तबकमेकमादाय शनैः शनैः भ्रामयन्ती, तमेवाऽवलोकयन्ती च, अविदितबहुलतानतारतम्यं मन्द-मन्दम्, मुग्ध मुग्धम्, मधुर-मधुरम् किञ्चित् गायतीति ।

यद्यपि नैतया सरस्वती सरूपया अज्ञात-तातोत्सङ्ग-शयनाऽतिरिक्त-सांसारिक सुखया कदाऽपि गातुं शिक्षितम्, न वा गायकानां तास्ताः कर्णरसायन-मूर्छनाः कर्णातिथीकृताः, तथाऽपि भज्यमानमपि, त्रुट्यमानमपि, आम्रेड्यमानमपि, अदर्शित-राग-विशेषमपि, आरोहावरोह-ध्रुवाभोगालङ्कारादि-कथाशून्यमपि, निजकल्पनामात्रम्, तद्देशीय ग्राम्यस्त्री-गानानुकल्पम्, सुदीर्घ-स्वर-रणनं गानमिदं परमसरसं परममधुरं परमहारि चाऽऽसीत् ।

रघुवीरसिंहस्तु स्वरालाप-श्रवणेनैव परवशो विलोक्यैनां 'कोऽहम् ? क्वाऽहम् ? केयम् ? किमिदम् ?' इत्यखिलं यौगपद्येनैव विसस्मार ।

अहो ! आश्चर्यम्, य एषः फणि-फणा-फूत्कारेष्वपि सक्रोधहर्यक्षजृम्भारम्भेष्वपि भल्ल-तल्लजाग्र-परिस्पर्धि-खर-नखर-भल्लधावनेष्वपि, घन-घनाघन-घर्षण-विघट्टि-गैरिक-व्रात-जल-प्रपात-गिरि-गह्वरोत्फाले-ष्वपि, तरलतर-तरङ्ग तोयाऽऽवर्त-शताऽऽकुल-तरङ्गिणी-तीव्रतर-वेगेष्वपि, गण्डक-मण्डल-घोणा-घर्षण-घोरघर्घराऽऽघोषघोरतर प्रान्तरेष्वपि च धैर्यं नाऽऽत्याक्षीत्, कार्यजातं न व्यस्मार्षीत्, आत्मानं च न न्यगकार्षीत्; तस्याऽधुना स्विद्यन्त्यङ्गानि, एजते गात्रयष्टिः, विमनायते हृदयम्, अञ्चन्ति रोमाणि, क्षुभ्यति च मनः । तत्कथमिदम् ? किमिदम् ? कुत इदम् ? अहह ! सत्यम् ! सत्यम् वीरबालोऽप्येष प्राप्याऽवसरम् आहतो मदनमृगयुना ।

तावदकस्मात् "रघुवीर ! रघुवीर ! त्वं शिववीरस्य चरोऽसि, गूढाऽभिसन्धिषु प्रेष्यसे, अल्पं तव वेतनम्, साधारणी तवाऽवस्था, खड्गधारावलेहनमिव कष्टतरं तव कार्यम्, कैशोरं वयः, अबहुदर्शि हृदयम्, सर्वत्र जागरूको राजदण्डः, अवितर्कणीया च भाविनी घटना । तन्मा स्म त्वं मुखचन्द्रावलोकनैरधर-सीधुतृषाभिः, कोमलाङ्गाऽऽलिलिङ्गिषाभिः, मधुरालाप-शुश्रूषाभिश्चाऽत्मानं विक्रीणीष्व '"-इत्यन्तःकरणेन स्वयमेव प्रबोधितो नेत्रे प्रमृज्य स्तम्भावष्टम्भं परिहाय, लोचनयोरुपरि स्फुरतः कुञ्चित-कचानपसार्य, शीतलं निःश्वस्य च; आत्मनो दशां स्मरन्नेव पुनस्तामेव कौमारात्परं वयश्चुचुम्बिषन्तीं कुसुम-कुड्मल-घूर्णन-व्याजेन यूनां मनो घूणयन्तीं' सौन्दर्य-सारावतारस्वरूपामैक्षिष्ट ।

"अथ सा तु "सौवर्णि ! सौवर्णि ! तातस्त्वामाकारयति-" इति कस्यापि बटोरिव वाचमाकर्ण्य, 'आम् ! एषा आगच्छामि' इति मधुरमुदीर्य, उत्थाय, वेदिकातोऽवतीर्य, वाटिकायामेव दक्षिणतः सुधाधवलमेकं गृहं प्राविशत्।

रघुवीरसिंहस्य समीपत एवं गतेति गमन-समये सचकितं सगतिस्तम्भं परिवृत्त-ग्रीवं "कोऽयम् ?" इत्येनं क्षणमवलोकयामास । परतश्च स्यात् "कोऽपि" इति समुपेक्ष्य गृहं प्रविष्टेत्यपरोऽपि जातो वशीकार-प्रयोग प्रचारः ।

रघुवीरश्च ततः प्रतिनिवृत्य, पुनः स्वाघिकृत-कोण-कोष्ठमेवाऽऽयातः ।

तत्र च गवाक्ष-जाल-प्रसारितैः राजत-मार्जनी-निभैः कलानिधि-कर- निकरैः समूह्य संशोधित इवाऽन्धकारे; पयः-पयोधि-फेनैरिवाऽऽस्तृते शयनीय पीठे उपविश्य, कदाचिदध इव मुखं विदधत्, कदाचित् कपोलं करे कलयन्, कदाचिज्जालान्तरेण तारकमण्डलमवलोकयन्, कदाचित्किमिति मृषा-चिन्तनैरित्यात्मनैवाऽऽत्मानं सान्त्वयन, कदाचिच्च 'निद्रे ! कुत इव विद्रुताऽसि ?' इत्यशान्तिं बिभ्रत्, पार्श्वतः पार्श्वे परिवर्तमानो होरामेकामयापयत् ।

ततश्च "अहह ! शिववीरकार्येष्वसम्पादितमेकमवशिष्यते" इति किञ्चित् संस्मृत्येव, कशयेव ताडितः सपद्युत्थाय 'मन्दिरपुरोहितः क्व ?' इति कांश्चिदापृच्छ्य, केनचिन्निर्दिष्टमार्गस्तस्यामेव वाटिकायां तदेव बालिकया प्रविष्टचरं गृहं प्रविवेश ।

तत्र चैकस्मिन् प्रकाण्ड-कोष्ठे निरैक्षिष्ट यद् एकस्यामारकूटदीपिकायां प्रदीप एको ज्वलति, कुश-काशासनान्यनेकानि आस्तृतानि, आरक्तवेष्टनेषु बहुशः पुस्तकानि पीठिका अधिष्ठापितानि, नागदन्तिकासु धौतवस्त्राणि पट्टाम्बराणि च लम्बन्ते, एकस्मिन् शरावे मसीपात्रम, लेखनी, छुरिका, गैरिकम्, उपनेत्रं चाऽऽयोजितमस्ति । पात्रान्तरे च खादिरं चूर्णम्, आर्द्रवस्त्र-वेष्टितानि नागवल्लीदलानि, पूगानि, शङ्कुला, देवकुसुमानि, एलाः, जाति-पत्राणि, कर्पूरं च विन्यस्तमस्ति । तन्मध्यत एव च महोपबर्हमेकं पृष्ठत आश्रित्य पादौ प्रसार्य उपविष्ट एको वृद्धः, सम्मुखस्थश्च छात्र एकः पादौ संवाहयति, अपरश्च किञ्चित् तालिपत्र-पुस्तकं दीप-समीपे पठति, वृद्धश्च किञ्चिन्निद्रा-मन्थरश्छात्र प्रश्नानुसारेण मध्ये-मध्ये आलस्यमुन्मुच्य, किमप्यर्द्ध-विशिथिल-शब्दैरुत्तरयति इति ।

अथैनं पाद-संवाहन-परश्छात्रोऽवलोक्य 'को भवान्' इत्यपृच्छत् । एष च "श्रीमतां समरविजयिनां महाराष्ट्र-राजानां भृत्योऽस्मि" इति मन्दमभ्यधात् । तदवधार्य वृद्धोऽपि नेत्रे विस्फार्य निन्द्रामन्थरेण स्वरेण "आस्यतामास्यताम्" इति प्रणमन्तमुवाच । सोऽपि प्रणम्य, समुपविश्य, दत्त-निज-परिचयः, कुशलादि-वार्ता आलप्य, क्षणानन्तरं तदादेशानुसारेण करौ सम्पुटीकृत्य न्यवेदयत् –

"भगवन् ! प्रणम्य भवन्तं तत्रभवान् महाराष्ट्र-राजः कथयति, यत्-साम्प्रतं शस्तिखान-द्वारा पुण्यनगरमपि हस्तितवता दिल्लीश्वरेण सह योद्धुमुपक्रान्तमस्ति, परमल्पीयसी अस्मत्सेना, असहयोगिनः पार्श्वस्थ- पृथिवीपतयः अङ्ग-बङ्ग-कलिङ्गेष्वपि समुद्धूत-ध्वजाः परिपन्थिनः, शैशवादेव यवनवराकैर्महाप्रवृद्धं मम वैरम्, सन्धेश्च कथामात्रमपि न सम्बोभवीति, यद्यप्यल्पेऽपि मामका युद्ध विद्यासु कुशलाः सन्ति तथाऽपि किं भावीति मध्ये मध्ये संशेते हृदयम, भवांस्तु प्रसिद्धोऽस्मद्देशे दैवज्ञः, तद् विचार्य कथ्यतां किं भावि ?" इति ।

तदवगत्य, पादावाकुञ्च्य "विजयतां शिवराज:" इत्यभिधाय, ताम्बूलवीटिकां रचयितुं छात्रमेकमिङ्गितेनाऽऽदिश्य, पृष्ठस्थद्वाराभिमुखं ग्रीवां परिवर्त्य, "वत्से ! सौवर्णि ! वत्से सौवर्णि !" इत्याकार्य, "इयमस्मि तात ?" इति आगतां च तां "वत्से ? तासां यूथिकामालिकानामेकां मालां प्रसादमोदकं चैकमानय"-इत्यभिधाय, बाढमित्युक्त्वा तथा विहितवत्यां च तस्याम् रघवीराभिमुखं "गृहाण, भुक्त्वेद प्रसादमधुरान्नं निद्रामनुभव, यादृशं च स्वप्नमवलोकयितासि; तथा प्रातरेव मां कथयितासि, व्येति रजनी, तद् गच्छ, शेष्व" इत्युदीर्य समागतां सौवर्णीमेव मोदकमर्पयितुं मालां च कण्ठे निक्षेप्तुमिङ्गितवान् ।

सा चाऽवलोक्य तमेव पूर्वावलोकितं युवानम्, व्रीडा-भर-मन्थराऽपि ताताज्ञया बलादिव प्रेरिता ग्रीवां नमयन्ती, आत्मनाऽऽत्मन्येव निविशमाना, स्वपादाग्रमेवाऽऽलोकयन्ती, मोदक-भाजन-सभाजितं सव्येतरकरं तदग्रे प्रासारयत् । स चाऽऽत्मनो भावं कष्टेन संवृण्वंस्तद्धस्तादुदतूतुलत् । पुनश्च साऽञ्चलकोणं कटि-कच्छ प्रांते आयोज्य, हस्ताभ्यां मालिकां विस्तार्य नत-कन्धरस्य रघुवीरस्य ग्रीवायां चिक्षेप, ईषत्कम्पितगात्रयष्टिश्च शनैर्यथागतं निववृते ।

सैवेयं गौर-श्याम-सिंहयोरनुजा सौवर्णी, या शैशव एव यवन-तनये नाऽपहृता, यस्याश्च वास्तविकं नाम कौशलेति, स चाऽयं देवशर्मा ब्राह्मणः, यो गौरसिंहस्य कुल-पुरोहितः कौशलायाश्च रक्षकः ।

ततः प्रणम्य, देवशर्मच्छात्रदत्ता वीटिकामादाय प्रतिनिवृत्य, रघुवीरोऽपि तथैव सुप्तः । को जानाति कोशलारघुवीरयोः काभिर्भावनाभिरद्यतनी रजनी व्यत्येतीति ।

अथोषस्येवोत्थाय नित्यकृत्यानि निर्वर्त्य, यावद् देवशर्मणः समीपमुपतिष्ठासते; तावद् दौर्गिकदूतेनाऽऽकारितो दुर्गाध्यक्षमासाद्य, तद्दत्तं पत्रादिकं वाचनिक-सन्देशं चाऽऽदाय, पुण्यनगरमधिवसतः शास्तिखानस्य प्रकृत-वृत्तान्तं तत्प्रश्नानुसारं व्याहृत्य, निवृत्य, देवशर्माणं प्रणम्य, सङ्क्षिप्य स्व-स्वप्न-वृत्तान्तमकथयत्, यत् –

"यथा मया प्रभुणा च खड्गः समुत्तोलितः शास्तिखानश्च दृष्ट्वैवैतत्पलायितः" इति ।

स चाऽङ्गुलिपर्वसु किमपि गणयित्वेव प्रोवाच, यद् –

"यवनैः सह विजयः, आर्यैश्च पराजयः ।

"पुनश्च त प्रणम्य जिगमिषन्तमुवाच, यत् –

'तावद् बहिरेवोद्याने पर्य्यट, यावद् हनूमत्प्रसादसिन्दूरं प्रेषयामि, यत्कृततिलको दुर्द्धर्षो भवति शत्रूणाम्" इति ।

स च ‘तथेत्युक्त्वा बहिरागत्य पर्यटन् पूर्वद्युः सौवर्ण्या सनाथितां वेदिकां समायातः, स्मृतवांश्च पूर्वदिनवृत्तान्तम्, अवालोकयच्च सौवर्ण्यध्युषित-चरं पाषाणमञ्चम् । तावन्निपुणं निरीक्ष्य दृष्टवान्, यदेका एकयष्टिका मौक्तिकमाला तत्र पतिताऽस्तीति, तां चोत्थाप्य तस्या एवेयमिति निश्चित्य, तस्यै समर्पयामीति विचार्य इतस्ततश्चक्षुर्निचिक्षेप ।

अथ व्यलोकयत्, यद् वाटिकायाम् एव कोशलाऽपि कदलीदलपुटकमेकं वामकरे संस्थाप्य, दक्षिण-कर-पल्लवेन कुसुमपतङ्गान् उद्धूय कुसुमान्यवचिनोति ।

ततश्च क्षणं विचारभारैर्निरुद्धगतिरपि शङ्काऽऽतङ्कमपास्य, मालां हस्ते आदाय शनैस्तदभिमुखमेव प्रतस्थे । सा च तस्मिन्नतिसमीपमायाते पादाहतिमाकर्ण्य अवालुलोकत् । तस्यां चाऽतिचकितायामिव स्तब्धायामिव च रघुवीरोऽवादीत् –

"भगवति ! भवत्या इयं मालिका तत्र पतिता, मया लब्धेति प्रत्यर्पयितुमायातोऽस्मि इति अनुमन्यसे चेदेनां यथास्थानं निवेशयामि ।"

सा च व्रीडया कुलाङ्गनाङ्गीकृत-महाव्रतेन च स्तब्धवाक् न किञ्चन प्रावोचत् । रघुवीरश्च वाचयमतामप्यङ्गीकारभङ्गीमङ्गीकृत्य तदन्तिकमागत्य, सौवर्णीचित्रं मानस-भित्तिकायामालिख्य नक्षत्रमालां तत्कण्ठे प्राक्षिपत्, पवित्रतमानि स्फुटतम-यौवनोद्भेद-लक्ष्म-रहितानि च तदङ्गानि नाऽस्प्राक्षीत् ।

ततस्तस्यां मौनेनैवैकतः प्रयातायाम्, स्वयं पुनर्मन्दिरद्वारमागत्य देवशर्मणोऽन्यतमच्छात्रेणाऽऽनीतं सिन्दूरमादाय पुनरश्वमारुह्य मारुतनन्दनं संस्मृत्य तोरणदुर्गात् सिंहदुर्गं प्रतस्थे ।

॥ इति चतुर्थो निश्वासः ॥

॥ इति प्रथमो विराम: समाप्तः ॥

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