अर्थ - कुत्ता रोटी देने वाले के आगे पूंछ हिलाता है, झुककर, और मुंह तथा पेट दिखाकर अनेक प्रकार की चापलूसी करता परन्तु हाथी अपने अन्नदाता की ओर धीरज से देख कर खाता जाता है। अर्थात् श्रेष्ठ जन चापलूसी नहीं करते ।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते । सजातो येन जातेन याति वंशः
समुन्नतिम् । । ३२ । ।
अर्थ- इस परिवर्तनशील संसार में वही मनुष्य जन्मा है जिसके जन्म से वंश की उन्नति हुई हो नहीं तो संसार में सभी मरते और जन्मते हैं ।
कुसुमस्तवकस्येव द्वे गतीस्तु मनस्विनाम् ।मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशीर्यते वन
एव वा । । ३३ । ।
अर्थ- पुष्प के गुच्छे के समान श्रेष्ठ विचारवाले पुरुषों की दो गति होती हैं, या तो सब लोगों के सिर पर विराजते हैं या वन में ही सूख जाते हैं ।
सन्त्यन्येऽपि
बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषा-स्तान्प्रत्येष
विशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।द्वावेव
ग्रसते दिवाकरनिशाप्राणेश्वरौ भास्करौभ्रातः पर्वणि पश्य दानवपतिः
शीर्षावशेषाकृतिः । । ३४ । ।
अर्थ- हे भ्राता ! यद्यपि बृहस्पति आदि अन्य पांच ग्रह भी आकाश में हैं परन्तु अधिक पराक्रम की इच्छा करने वाला राहु उससे बैर नहीं करता और केवल शिर रहने पर भी पूर्ण चन्द्र और सूर्य को ग्रसता है । भाव इसका यह कि पराक्रमी लोग शत्रुता भी करते हैं तो तेजस्वी लोगों से ही, अन्य छोटों से नहीं।
वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितांकमठपतिना
मध्येपृष्ठं सदा स विधार्यते
।तमपि कुरुते क्रोडाधीनं
पयोधिरनादरा-दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः । । ३५ । ।
अर्थ- चौदह भुवनों को अपने फन पर धारण करने वाले शेषजी को भी कच्छप अपनी पीठ पर लिये हुए है । परन्तु समुद्र ने उस कच्छप का भी अनादर के साथ शूकर के आधीन कर दिया। सारांश यह कि श्रेष्ठ पुरुषों के चरित्र भी विचित्र ही होते हैं ।
वरं पक्षच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिश-प्रहारैर्रुद्गच्छद्बहुलदहनोद्गारगुरुभिः
।तुषाराद्रेः
सूनोरहह पितरि क्लेशविवशेन चासौ सम्पातः पयसि पयसां
पत्युरुचितः । । ३६ । ।
अर्थ- इन्द्र के वज्र से निकली हुई अग्नि से भस्म हो कर मर जाना अच्छा था, परन्तु अपने पिता हिमालय को दुःखी और संतप्त छोड़ कर मैनाक को अपनी रक्षा के लिये समुद्र की शरण में जाना उचित न था।अर्थात् मनुष्य को अपने वंश में कलंक लगा कर और अपने परिवार को दुख में छोड़कर किसी नीच शत्रु की शरण में कभी नहीं जाना चाहिए।
सिंहः
शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु
वयस्तेजसो हेतुः । । ३७ । ।
अर्थ- शेरका बच्चा ही क्यों न हो वह मतवाले हाथी को मारने के लिए दौड़ता है, क्योंकि तेजस्वियों का यह स्वभाव ही है, अवस्था तेज का कारण नहीं है।
जातिर्यातु
रसातलं गुणगणैस्तत्राप्यधो गच्छता-च्छीलं
शैलतटात्पतत्वभिजनः सन्दह्यतां वह्निना ।शौर्ये
वैरिणि वज्रमाशु
निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलंयेनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे । ।
३८ । ।
अर्थ- चाहे जाति पाताल को चली जाए, सभी गुण उससे भी नीचे गिर जाएं, शील भले ही पर्वत से गिर कर नष्ट हो जाए, कुटुंब के लोग अग्नि में जलकर मर जाएं, शूरता के ऊपर बिजली गिर पड़े, परन्तु हमें केवल द्रव्य से ही काम है क्योंकि उसके बिना सभी गुण तृणवत् हैं ।
तानीन्द्रियाणी सकलानि तदेव कर्मसा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहिता: पुरुषः स एव
त्वन्य: क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् । ।३९ । ।
अर्थ- मनुष्य की वही इन्द्रियां हैं, वही बुद्धि है और वचन भी वही है परन्तु एक धन की गर्मी न रहने से मनुष्य क्षणमात्र में और का और ही हो जाता है। यह धन की महिमा विचित्र है।
यस्यास्ति
वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः ।स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे
गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ॥४०॥
अर्थ- जिस मनुष्य के पास धन है, वही अच्छे कुल वाला, बुद्धिमान्, शास्त्रवेत्ता, गुणी, सुवक्ता और सुन्दर स्वरूपवाला समझा जाता है। भावार्थ यह है कि सब गुण धन के ही आश्रय रहते हैं ।
दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति
यतिः सङ्गात्सुतो लालना-द्विप्रोऽनध्ययनात्कुलं
कुतनयाच्छीलं खलोपासनात् ।ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि
कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रया-न्मैत्री चाप्रणयात् समृद्धिरनयात्त्यागप्रमादाद्धनम् । । ४१ । ।
अर्थ- अनुचित सलाह को मानने से राजा, लोगों के संबंध से योगी, दुलार करने से पुत्र, अध्ययन न करने से ब्राह्मण, कुपुत्र से वंश, दुष्टों के संसर्ग से अच्छा आचरण, शराब पीने से लज्जा, बार-बार न देखने से खेती, परदेश में अर्थात् दूर रहने से प्रेम, स्नेह के न होने से मित्रता, अनीति से ऐश्वर्य और दान में असावधानता से धन नष्ट हो जाता है ।
दानं
भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया
गतिर्भवति । । ४२ । ।
अर्थ- धन की ये तीन गतियां होती हैं - देना, भोग करना और नष्ट हो जाना । जो न दान देता है, न भोग करता है उसकी अर्थात् उसके धन की तीसरी गति हो जाती है, अर्थात् उसका नाश हो जाता है ।
मणिः
शाणोल्लीढः समरविजयी हेतिनिहितोमदक्षीणो
नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः ।कलाशेषश्चन्द्रः
सुरतमृदिता बालवनिता-स्तनिम्ना शोभन्ते
गलितविभवाश्चार्थिषु नराः । । ४३। ।
अर्थ- शान पर खरीदा गया रत्न, युद्ध में विजयी शूर, मदमस्त हाथी, शरद् ऋतु में कुछ कुछ सूखे हुए किनारों वाली नदी, दूज का चांद, सुरत के मर्दन चुम्बन आदि से थकी हुई नवयौवना स्त्री और याचकों में धन का व्यय करने वाले पुरुष ये सब अपनी हानि या दुर्बलता से ही शोभा पाते हैं ।
परिक्षीणः
कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतयेस
पश्चात्सम्पूर्णः गणयति
धरित्रीं तृणसमाम्
।अतश्चानैकान्त्याद् गुरुलघुतयाऽर्थेषु धनिना-मवस्था वस्तूनि प्रथयति च सङ्कोचयति च । । ४४ । ।
अर्थ- दरिद्रता की अवस्था में मनुष्य एक मुट्ठी जौ की इच्छा करता है। वही फिर संपन्न होने पर दुनिया को तृण के समान समझता है। क्योंकि यही दोनों चंचल अवस्थाएँ मनुष्य को गुरु और लघु बनाती हैं। अर्थात् धनावस्था और दरिद्रावस्था ही मनुष्य को बड़ा और छोटा बनाती है।
राजन्दुधुक्षसि
यदि क्षितिधेनुमेतांतेनाद्य वत्समिव
लोकममुं
पुषाण ।तस्मिंश्च सम्यगनिशं परिपोष्यमाणेनानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः । । ४५। ।
अर्थ - हे राजा ! यदि तुम पृथ्वी रूपी गाय को दुहना चाहते हो, तो इस समय बछड़े के तुल्य इस प्रजावर्ग का पोषण करो । प्रजावर्ग का नित्य अच्छी तरह पालन करने पर ही पृथ्वी कल्पलता की भाँति अनेक प्रकार के फलों को देती है । अर्थात् बिना प्रजा पालन किए राजाओं को लाभ नहीं होता ।
सत्याऽनृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।
नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा चवाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा । । ४६ । ।
अर्थ – राजनीति वेश्या की भांति अनेक रूप वाली होती हुई कभी सच्ची, कभी झूठी, कभी कठोर वचन बोलने वाली, कभी मीठे वचन बोलने वाली, कभी घातक, कभी दयायुक्त, कभी स्वार्थरत, कभी दान में दक्ष, नित्य व्यय करने वाली तथा नित्य ही प्रचुर धन पैदा करने वाली होती है ।
आज्ञा
कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां दानं भोगो मित्रसंरक्षणं च ।येषामेते षड्गुणा न
प्रवृत्ताः कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण ॥४७॥
अर्थ - हे राजन् ! जिन राजाओं में आज्ञा करना, यश प्राप्त करना, ब्राह्मणों का पालन करना, दान देना, ऐश्वर्य का उपभोग करना तथा मित्रों की रक्षा करना- ये छः गुण नहीं मिलते उनका आश्रय लेने से क्या लाभ ?
यद्धात्रा
निभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनंतत्प्राप्नोति
मरुस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् ।तद्धीरो
भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा सा कृथाःकूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति
तुल्यं जलम्
। । ४८ । ।
अर्थ- कम या ज्यादा विधाता ने जो कुछ तुम्हारे भाग्य में लिख दिया है, उतना पुरुष मरुस्थल में भी अवश्य ही प्राप्त कर सकता है, उससे ज्यादा तुमको सुमेरु पर्वत पर भी नहीं मिल सकता। इसलिए धैर्य धारण करो, किसी धनी से याचना न करो क्योंकि देखो, घड़ा समुद्र और कुएं से समान जल ही ग्रहण करता है।
त्वमेव चातकाधारोऽसीति
केषां न गोचरः ।किमम्भोदवरास्माकं कार्पण्योक्तं
प्रतीक्षसे । । ४९ । ।
अर्थ- हे मेघ ! तुम ही हम पपहियों के एक मात्र आधार हो, इस बात को कौन नहीं जानता ? हमारे दीन वचनों की प्रतीक्षा फिर क्यों करते हो ?
रे
रे चातक! सावधानमनसा मित्र! क्षणं श्रूयता-मम्भोदा बहवो वसन्ति
गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ।केचिद्वृष्टिभिरार्द्रयन्ति
वसुधां गर्जन्ति केचिद्वृथायं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा
ब्रूहि दीनं वचः । । ५०। ।
अर्थ- हे चातक! सावधान होकर क्षण भर मेरी बात सुन। आकाश में बहुत से बादल हैं, पर सभी दयालु नहीं होते हैं, कुछ बादल तो बरस कर पृथ्वी को गीली कर देते हैं और कुछ तो व्यर्थ ही गरजते रहते हैं। इसलिए हे मित्र ! तुम जिसको देखो उसके सामने याचना मत करो । सभी के आगे अपना दुखड़ा नहीं रोना चाहिए। बल्कि अपना दुख उससे कहना चाहिए जो कि उसे दूर करने में समर्थ हो।
अकरुणत्वमकारणविग्रहः परधने परयोषिति च
स्पृहा ।स्वजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता
प्रकृतिसिद्धमिदं
हि दुरात्मनाम्॥५१॥
अर्थ- दया न करना, बिना कारण के लड़ाई करना, पराए धन तथा स्त्री को पाने की इच्छा करना तथा सज्जनों और बान्धवों के साथ असहनशीलता का बर्ताव करना, ये छः अवगुण दुर्जनों में स्वभाव से ही पाये जाते हैं ।
दुर्जनः
परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि
सन् ।मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयङ्करः । । ५२। ।
अर्थ- विद्या से भूषित होने पर भी दुर्जन त्याग करने योग्य है । क्या मणि से अलंकृत होने पर भी सर्प भयङ्कर नहीं होता ?
जाड्यं
ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवंशूरे
निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि ।तेजस्विन्यवलिप्तता
मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरेतत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनां यो
दुर्जनैर्नाङ्कितः । । ५३। ।
अर्थ- दुष्ट लोग, लज्जावान् को शिथिल, व्रतधारी को दम्भी, पवित्र को कपटी, शूर को निर्दयी, सुधि को मूर्ख, प्रियवादी को चापलूस, तेजस्वी को घमंडी, वक्ता को बकवादी और स्थिर चित्त वाले को आलसी कहते हैं। तो गुणियों का कौन सा गुण है जिसमें दुर्जनों ने दोष न निकाला हो।
लोभश्चेदगुणेन
किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैःसत्यं
चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् ।सौजन्यं
यदि किं गुणै:
सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैःसद्विद्या यदि किं धनैरपयशो
यद्यस्ति किं मृत्युना । । ५४। ।
अर्थ- यदि लोभ तो किसी और दुर्गुणों का क्या प्रयोजन ? यदि परनिंदा हो तो किसी पाप का क्या काम ? यदि सत्य हो तो तपस्या की क्या आवश्यकता ? यदि मन शुद्ध हो तो तीर्थ से क्या लाभ ? यदि सज्जनता है तो और गुणों से क्या प्रयोजन ? यदि कीर्ति है तो आभूषणों की क्या आवश्यकता ? यदि उत्तम विद्या है तो धन से क्या प्रयोजन? यदि अपयश है तो मृत्यु की क्या जरूरत ?
शशी
दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनीसरो विगतवारिजं मुखमनक्षरं स्वाकृतेः ।प्रभुर्धनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनोनृपाङ्गणगतः खलो मनसि सप्त शल्यानि मे । । ५५ । ।
अर्थ - दिन का मलिन चंद्रमा, यौवन हीन स्त्री, कमल हीन सरोवर, सुन्दर पुरुष का विद्यारहित मुख, कंजूस स्वामी या राजा, सदा दुर्दशा में पड़़ा हुआ सज्जन तथा राजसभा में दुष्ट। ये सातों मेरे मन में काँटे की भाँति चुभते रहते हैं ।
न
कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो
नाम भूभुजाम्
।होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो वहति
पावकः । । ५६ । ।
अर्थ- क्रोध करने वाले राजा अपने आत्मीय जनों को भी नहीं छोड़ते । जिस तरह हवन करने वाले को भी अग्नि छूते ही जला देती है, उसी तरह राजा भी किसी के नहीं होते।
मौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वाधृष्टः
पार्श्वे वसति च सदा
दूरतश्चाप्रगल्भः ।क्षान्त्या
भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातःसेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः । । ५७। ।
अर्थ- सेवक मौन रहने पर गूंगा, बातें करने में निपुण होने पर बकवादी, समीप रहने पर ढीठ, दूर रहने पर मूर्ख, क्षमा करने पर कायर और बात न सहने पर कुलहीन कहलाता है । अर्थात् सेवा धर्म ही बड़ा कठिन है । यह योगियों के लिये भी अगम्य ।
उद्भासिताखिलखलस्य
विशृङ्खलस्यप्राग्जातविस्तृतनिजाधमकर्मवृत्तेः
।दैवादवाप्तविभवस्य
गुणद्विषोऽस्यनीचस्य गोचरगतैः सुखमाप्यते कैः ॥ ५८ । ।
अर्थ- जो सभी को दुष्ट बनाता है, जो स्वेच्छाचारी या मर्यादा-रहित है, जो पूर्वजन्म के कुकर्मों के कारण बहुत बड़ा दुराचारी है, जो सौभाग्य से धनी हो गया है और जो सद्गुणों से द्वेष रखने वाला है ऐसे नीच के अधीन रद्द कर कौन सुखी हो सकता है ?
आरम्भगुर्वी
क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छायेव
मैत्री खलसज्जनानाम् ॥५९॥
अर्थ- दुष्टों की मित्रता दोपहर की छाया के समान आरंभ में बहुत लम्बी चौड़ी होती है और बाद में क्रमशः घटती जाती है । ठीक इसके विलोम सज्जनों की मैत्री भी दोपहर के बाद की परिछाई की भाँति पहले बहुत थोड़ी सी होती है और बाद में प्रतिक्षण बढ़ती जाती है ।
मृगमीनसज्जनानां
तृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनाम् ।लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो
जगति । । ६०। ।
अर्थ- हिरन, मछली और सज्जन ये तीनों घाास, जल और संतोष पर ही अपनी जीविका निर्धारित करते हैं परन्तु व्याघ्र केवट, और कुटिल लोग उनसे बिना कारण ही संसार में शत्रुता करते हैं ।
वाञ्छा
सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रताविद्यायां
व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद्भयं ।भक्तिः
शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खलेयेष्वेते निवसन्ति
निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः । । ६१। ।
अर्थ- सत्संगति की इच्छा, दूसरों के गुणों से प्रीति, बड़ों से नम्रता, विद्या में व्यसन, अपनी स्त्री से प्रेम, लोक निन्दा से भय, परमात्मा में भक्ति, मन को अपने वश में करने की शक्ति और दुष्टों के संग का त्याग - ये निर्मल गुण जिन पुरुषों में हो उन्हें हम नमस्कार करते हैं।
विपदि
धैर्यमथाभ्युदये
क्षमा सदसि वाक्यपटुता युधि विक्रमः ।यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ
प्रकृतिसिद्धमिदं
हि महात्मनाम्॥६२॥
अर्थ- विपत्ति में धैर्य, ऐश्वर्य में क्षमा, सभा में वचनचातुर्य, संग्राम में पराक्रम, कीर्ति को प्राप्त करने में विशेष रुचि तथा वेदाध्ययन में आसक्ति-ये सब बातें महापुरुषों में स्वभाविक ही होती हैं ।
प्रदानं
प्रच्छन्नं गृहमुपगते
सम्भ्रमविधिःप्रियं
कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।अनुत्सेको
लक्ष्म्यामनभिभवगन्धाः
परकथाःसतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् । । ६३ । ।
अर्थ- गुप्त दान देना, घर में आए हुए अतिथि का स्वागत करना, उपकार करके चुप रहना, कृतज्ञता प्रगट करना, धन पाकर अभिमान न करना और दूसरों की चर्चा केेे प्रसंग में किसी की निंदा न करना - इस प्रकार तलवार की धार के समान कठिन व्रत का उपदेश सज्जनों को न जाने किसने दिया है ?
करे
श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयितामुखे
सत्या वाणी विजयिभुजयोर्वीर्यमतुलम् ।हृदि
स्वच्छा वृत्तिः श्रुतिमधिगतं
च श्रवणयोर्विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां
मण्डनमिदम् । । ६४ । ।
अर्थ- हाथ दान देने से, मस्तक बड़े लोगों के पैर पर गिरने से, मुख सत्य बोलने से, भुजा पराक्रम से, हृदय स्वच्छता से, कान शास्त्र सुनने से बढ़ाई के योग्य होते हैं और यही महात्माओं के लिए धन आदि के बिना ही पर्याप्त आभूषण हैं ।
सम्पत्सु
महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम् ।आपत्सु च महाशैलशिलासङ्घातकर्कशम् । । ६५ । ।
अर्थ- सम्पत्ति काल में महापुरुषों का चित्त कमल से भी कोमल रहता है और विपद् काल में बड़े़े पर्वत की चट्टानों के समूह की भांति कठोर हो जाता है ।
सन्तप्तायसि
संस्थितस्य पयसो नामाऽपि
न ज्ञायतेमुक्ताकारतया
तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।स्वात्यां
सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायतेप्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो
जायते । । ६६ । ।
अर्थ- जलते हुए लोहे पर पानी पड़ने पर उसका नाश हो जाता है, वही बूंद कमल-पत्र पर पड़ने से मोती की भाँति चमकता है, और फिर वही बूंद स्वाती नक्षत्र में समुद्र की सीपी में पड़ कर मोती हो जाता है। अर्थात् निकृष्ट, मध्यम तथा उत्तम गुण प्रायः संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं।
प्रीणति यः सुचरितै: पितरं स
पुत्रोयद्भर्तुरेव
हितमिच्छति
तत्कलत्रम्
।तन्मित्रमापदि सुखे च
समक्रियं य-देतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते । । ६७। ।
अर्थ- जो अपने अच्छे कामों से पिता को प्रसन्न करता है वही पुत्र है, जो पति का कल्याण चाहती है वही स्त्री है, जो विपत्ति और सुख में एक सा व्यवहार करता है वही मित्र है। संसार में इन तीनों को पुण्य करने वाले ही पाते हैं ।
एको
देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।एको वासः पत्तने वा वने वा ह्येका
भार्या सुन्दरी वा दरी वा॥६८॥
अर्थ- मनुष्य को किसी एक देवता को इष्ट मानना चाहिए, वह चाहे विष्णु हो या शिव हो, एक मित्र हो, चाहे वह राजा हो या योगी हो, एक ही निवास स्थान होना चाहिए चाहे जंगल हो या नगर हो और एक ही पत्नी होनी चाहिए चाहे वह सुंदरी हो या कंदरा हो।
नम्रत्वेनोन्नमन्तः
परगुणकथनैः स्वान्गुणान्ख्यापयन्तःस्वार्थान्सम्पादयन्तो
विततपृथुतरारम्भयत्नाः परार्थे ।क्षान्त्यैवाऽक्षेपरुक्षाक्षरमुखरमुखान्दुर्जनान्दूषयन्तःसन्तः साश्चर्यचर्या जगति बहुमताः
कस्य नाभ्यर्चनीयाः । । ६९। ।
अर्थ- नम्रता से ही वाले, दूसरों की प्रशंसाा करके अपनी गुण ग्राहकता का परिचय देते वाले, परोपकार करते हुए अपने कार्य को साधने वाले, मेंढक और कुटिल लोगों को अपनी क्षमा से दूषित करने वाले, ऐसे आश्चर्ययुक्त आचरणवाले, परमपूज्य सज्जन संसार में किसके पूजनीय नहीं होते ?
भवन्ति
नम्रास्तरवः फलोद्गमे
नवाम्बुभिर्भूमिविलम्बिनो
घनाः ।अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एवैष
परोपकारिणाम्॥७०॥
अर्थ- जिस प्रकार फल होने पर वृक्ष छुक जाते हैं, नये जल भरने से मेघ झुक जाता है, वैसे ही सत्पुरुष लोग भी संपत्ति पाकर उद्धत नहीं होते बल्कि अधिक नम्र हो जाते हैं । अर्थात् परोपकारी का स्वभाव ही नम्र होता है ।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ।
विभातिकायः करुणापराणां परोपकारैर्न
तु चन्दनेन । । ७१। ।
अर्थ- कान की शोभा शास्त्र सुनने से होती है न कि कुण्डल पहनने से, हाथ दान से शोभित होता है न कि कंकण पहिनने में, इसी प्रकार शरीर की शोभा परोपकार करने से होती है न कि चन्दन लगाने से ।
पापान्निवारयति
योजयते हितायगुह्यं निगूहति
गुणान्प्रकटीकरोति ।आपद्गतं च न जहाति ददाति कालेसन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः । । ७२ । ।
अर्थ - अच्छे मित्र का लक्षण बताते हैं- अच्छा मित्र वही है जो मित्र को बुरे कामों से रोकता है और हित के कार्यों में लगाता है ।उसकी गुप्त छिपाने योग्य बातों को छिपाया है और उसके गुणों को प्रकट करता है। विपत्ति के समय अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ता और समय पड़ने पर यथासामर्थ्य द्रव्य से भी सहायता करता है ।
पद्माकरं
दिनकरो विकचीकरोतिचन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम् ।नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददातिसन्तः स्वयं परहिते विहिताभियोगा: । ७३ । ।
अर्थ- विना माँगे ही सूर्य कमलों को विकसित करता है, चंद्रमा कहे बिना ही कुमुद-समूह को प्रफुल्लित करता है और मेघ भी विना याचना किये ही जल देता है । उसी प्रकार सज्जन लोग भी अपने आप ही दूसरों की भलाई किया करते हैं ।
एके
सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यजन्ति येसामान्यास्तु
परार्थमुद्यमभृतः
स्वार्थाविरोधेन ये ।तेऽमी
मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति येये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते
के न जानीमहे । । ७४। ।
अर्थ – सज्जन वे होते हैं जो अपने स्वार्थ को छोड़ कर दूसरों की भलाई करते हैं और कुछ लोग साधारण श्रेणी के होते हैं जो अपने स्वार्थ को साधते हुए भी दूसरों के लिए उद्यम करते हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरे के हित का नाश करते हैं उन्हें मनुष्यों के रूप में राक्षस समझना चाहिए, परन्तु जो व्यर्थ ही दूसरों के हित का नाश करते हैं वे कौन है ? यह हम नहीं जानते ।
क्षीरेणात्मगतोदकाय
हि गुणा दत्ता: पुरा तेऽखिला:क्षीरोत्तापमवेक्ष्य तेन पयसा स्वात्मा
कृशानौ हुतः ।गन्तुं
तावकमुन्मनस्तदभवद्दृष्ट्वा
तु मित्रापदंयुक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां
मैत्री पुनस्त्वीदृशी । । ७५। ।
अर्थ- पहले दूध ने अपने में मिले जल को अपने सारे गुण दे दिये। फिर जब दूध आग पर रखा गया तो दूूध को जलता देख जल भी अपना शरीर आग में जलाने लगा । फिर दूध ने अपने मित्र का नाश देख स्वयं आग में जाने के लिए व्याकुल हो गया, परन्तु जल के छींटे पड़ते ही दूध शांत हुआ । सत्पुरुषों की मैत्री दूध और जल जैैसी ही होती है ।
इतः
स्वपिति केशवः कुलमितस्तदीयद्विषा-मितश्च शरणार्थिनां
शिखरिणां गणाः शेरते ।इतोऽपि
बडवानलः सह समस्तसंवर्तकै-रहो विततमूर्जितं
भरसहं सिन्धोर्वपुः । । ७६ । ।
अर्थ- अहो ! समुद्र का शरीर कैसा बलवान, विशाल तथा भार सहने वाला है, इसमें एक तरफ विष्णु भगवान् विश्राम कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ पर्वतों के समूह पड़़े हैं और समीप ही वडवानल प्रलयाग्नि सहित मौजूद है । सत्पुरुष भी समुद्र के ही समान होते हैं।
तृष्णां
छिन्धि भज क्षमां जहि मदं पापे रतिं मा कृथाःसत्यं
ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वज्जनम् ।मान्यान्मानय
विद्विषोऽप्यनुनय प्रख्यापय प्रश्रयंकीर्तिं पालय दुःखिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् । । ७७ । ।
अर्थ- तृष्णा को त्याग कर, क्षमा का सेवन कर, गर्व को छोड़, पापों से प्रीति न कर, सच बोलो, सज्जनों के मार्ग का अनुसरण करो, विद्वानों की सेवा करो, पूज्य लोगों का आदर करो, शत्रुओं को भी प्रसन्न रखो, अपने गुणों की प्रसिद्धि कर अपनी कीर्ति का पालन कर दीन-दुखी जनों पर दया करो—क्योंकि यही सत्पुरुषों के लक्षण हैं ।
मनसि
वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा-स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यंनिजहृदि विकसन्तः सन्त सन्तः कियन्तः । । ७८। ।
अर्थ- मन, वचन और शरीर में सत्कर्मरूपी अमृत से भरे हुए तीनों लोकों को अनेक उपकारों से तृप्त करने वाले तथा दूसरे के लेशमात्र गुण को ही पर्वत समान बड़ा बनाकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सज्जन संसार में कुछ ही हैं अर्थात् विरले ही होते हैं।
किं
तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वायत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव ।मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेणकङ्कोलनिम्बकटुजा अपि
चन्दनाः स्युः । । ७९। ।
अर्थ- उस सोने के सुमेरु पर्वत और चाँदी के कैलाश पर्वन से संसार क्या लाभ, जिन पर पैदा होने वाले वृक्ष जैसे के तैसे ही बने रहते हैं। हम तो मलयपर्वत को ही अच्छा समझते हैं जिसके संसर्ग से कंकोल, नीम और कुटज प्रभृति कड़वे वृक्ष भी चन्दन वृक्ष हो जाते हैं ।
रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न
देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् ।सुधां विना न पययुर्विरामं न
निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ॥८०॥
अर्थ- समुद्र मथते समय, देवता विभिन्न प्रकार के बहुमूल्य रत्नों से संतुष्ट नहीं हुए । भयंकर विष से भी भयभीत होकर उन्होंने अपना उद्योग न त्यागा । जब तक अमृत नहीं पा लिया, उन्होंने विश्राम न किया । अविरत परिश्रम ही करते रहे । अर्थात् वीर पुरुष अपने निश्चित अर्थ - इच्छित पदार्थ को पाये बिना, बीच मे घबरा कर अपना काम नहीं छोड़ते ।
क्वचित्पृथ्वीशय्य: क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनम्क्वचिच्छाकाहार: क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः ।क्वचित्कन्थाधारी
क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरोमनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न
च सुखम्
। । ८१। ।
अर्थ- जो लोग मनस्वी और कार्य की सिद्धि चाहने वाले होते हैं वे सुख दुख को नहीं गिनते । अर्थात् सुख दु:ख की परवाह नहीं करते। मौका पड़ने पर कभी तो भूमि पर ही सो जाते हैं और कभी पलंग पर शयन करते हैं। कभी साग पात खाकर ही निर्वाह करते हैं और कभी अच्छे अच्छे पदार्थों का भोजन करते हैं। कभी तो गुदड़ी के टुकड़े को ही ओढ़कर दिन बिताते हैं तो कभी सुन्दर वस्त्र धारण करते हैं ।
ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमोज्ञानस्योपशमः
श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ।अक्रोधस्तपसः
क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजतासर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ॥८२॥
अर्थ- ऐश्वर्य का भूषण सज्जनता, शूरता का भूषण वाक्संयम, ज्ञान का भूषण शांति, शास्त्र पढ़ने का भूषण विनय, धन का भूषण सुपात्र को दान देना, तप का भूषण क्रोध-हीनता, प्रभुता का भूषण क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है, किन्तु सबका कारणस्वरूप सदाचार सभी गुणों का सर्वोत्तम भूषण है।
निन्दन्तु
नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तुलक्ष्मीः
समाविशतु गच्छतु वा यथेष्ठम् ।अद्यैव
वा मरणमस्तु
युगान्तरे वान्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न
धीराः । । ८३ । ।
अर्थ- नीति निपुण लोग निन्दा करें चाहें प्रशंसा, लक्ष्मी आए चाहे चली जाय, आज ही मृत्यु हो जाए अथवा कल्पान्त में हो, पर धीर पुरुष न्याय संगत मार्ग से जरा भी इधर-उधर नहीं होते।
भग्नाशस्य करण्डपिण्डिततनोर्म्लानेन्द्रियस्य क्षुधाकृत्वाऽऽखुर्विवरं स्वयं
निपतितो नक्तं मुखे भोगिनः ।तृप्तस्तत्पिशितेन
सत्वरमसौ
तेनैव यातः यथालोकाः पश्यत दैवमेव हि नृणां वृद्धौ
क्षये कारणम्
। । ८४। ।
अर्थ- जीवन से निराश, भूूख से आतुर सर्प पिटारे में कैद है। रात को चूहा उस पिटारे में छेद करके पहुँच जाता है और सर्प उसके मांस को खाकर तृप्त होता है। फिर वह सर्प अपनी भूख मिटा कर उसी छिद्र द्वारा बाहर निकल जाता है। हे मनुष्यों ! देखो, क्षय और वृद्धि का प्रधान कारण भाग्य ही है ।
आलस्यं
हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कुर्वाणो
नावसीदति । । ८५। ।
अर्थ - आलस्य मनुष्यों का उनके शरीर में ही रहने वाला बहुत बड़ा शत्रु है। उद्यम अर्थात् पुरुषार्थ के समान कोई मित्र नहीं है, जिसे करने पर मनुष्य दुःख नहीं पाता ।
छिन्नोऽपि
रोहति तरुर्क्षीणोऽप्युपचीयते
पुनश्चन्द्रः ।इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न ते विपदा । । ८६। ।
अर्थ- कट जाने पर भी वृक्ष फिर से बढ़ सकता है, क्षीण चन्द्रमा फिर पूरा हो जाता है। इसी प्रकार विचार करनेे वाले सज्जन लोग विपत्ति से नहीं घबड़ाते ।
नेता
यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाःस्वर्गो
दुर्गमनुग्रहः
किल हरेरैरावतो वारणः ।इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि
बलभिद्भग्नः परैः सङ्गरेतद्युक्तं ननु दैवमेव शरणं
धिग्धिग्वृथा पौरुषम् ॥८७॥
अर्थ – बृहस्पति के समान जिसके मंत्री हैं, वज्र जिसका अस्त्र है, देवगण जिसके सिपाही हैं, स्वर्ग जैसा जिसका किला है, जिसका ऐरावत जैसा वाहन और जिस पर श्री विष्णु भगवान् का अनुग्रह है ऐसे ऐश्वर्य तथा शक्ति से युक्त इन्द्र भी शत्रुओं से युद्ध में हार गया तो यह स्पष्ट है कि देव ही केवल रक्षक है, निरर्थक पौरुष को बार बार धिक्कार है।
अर्थ- देवताओं को हम प्रणाम करते हैं, पर वह तो ब्रह्मा के आधीन हैं। ब्रह्मा भी हम को पूर्व कर्मानुसार फल देते हैं, इसलिये फल और ब्रह्मा दोनों ही कर्म के आधीन हैं। इस कारण हम कर्म ही सर्व श्रेष्ठ मानते हैं जिस पर कि विधि का भी वंश नहीं चलता है।
ब्रह्मा
येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माडभाण्डोदरे
विष्णुर्येन
दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।
रुद्रो
येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यं एव गगने
तस्मै नमः कर्मणे । । ९४। ।
अर्थ- जिस कर्म ने ब्रह्मा को कुम्हार की भांति ब्रह्माण्ड रचने, विष्णु को अत्यंत दु:खदायक दशावतार धारण करने की कठिनाई में डाल दिया, महादेव को कपाल हाथ में लेकर भिक्षा माँगने को और सूर्य को नित्य चक्कर लगाने को मजबूर किया उस कर्म को नमस्कार है।
नैवाकृति: फलति नैवा कुलं न शीलं
विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा ।
भाग्यानि पूर्वतपसा खलु सञ्चितानि
काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः । । ९५। ।
अर्थ- मनुष्य को न तो सुन्दर आकृति, उत्तम कुल, शील, विद्या और खूब अच्छी तरह से की हुई सेवा, ये सब कुछ फल नहीं देते बल्कि पूर्व जन्म की संचित किया हुआ भाग्य ही समय समय पर वृक्ष की भाँति फल देती है ।
वने
रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा
रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥ ९६॥
अर्थ- वन में, युद्ध में, शत्रु, जल तथा आग के बीच, महासमुद्र में, पर्वत की चोटी पर, सुप्तावस्था में, असावधानी की हालत में तथा विषमावस्था में पड़ने पर पहले किये गये पुण्य ही रक्षा करते हैं ।
या
साधूंश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः
प्रत्यक्षं
कुरुते परीक्षममृतं
हालाहलं तत्क्षणात् ।
तामाराधय सत्क्रियां
भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं
हे साधो ! व्यसनैर्गुणेषु
विपुलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः । । ९७ । ।
अर्थ- हे सज्जन ! यदि आप मनोवांछित फल चाहते हो तो उस ऐश्वर्यशाली अच्छे कर्म का सेवन करो जो दुष्टों को सज्जन, मूर्खों को विद्वान्, शत्रुओं को मित्र, आँखों से परे की वस्तु को आँखों के सामने तथा विष को तत्काल अमृत कर देता है। बहुत दुःख देने वाले गुण में व्यर्थ प्रयत्न न करो ।
गुणवदगुणवद्वा
कुर्वता कार्यजातं
परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ।
अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्ते
र्भवति
हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः । । ९८ । ।
अर्थ- कार्य योग्य हो या अयोग्य, कार्य करने वालों को परिणाम पर विचार कर लेना चाहिये । बिना विचारे शीघ्रता से किये गये काम का फल मरण पर्यन्त हृदय को जलाता और काँटे की भांति जलाने वाला होता है ।
स्थाल्यां
वैदूर्यमय्यां पचति तिलकणांश्चन्दनैरिन्धनौघैः
सौवर्णैर्लाङ्गलाग्रैर्विलिखति
वसुधामर्कमूलस्य
हेतोः ।
कृत्वा
कर्पूरखण्डान्वृत्तिमिह
कुरुते कोद्रवाणां समन्तात्
प्राप्येमां कर्मभूमिं न चरति मनुजो
यस्तोप मन्दभाग्यः ॥९९॥
अर्थ- जो मन्दभाग्य पुरुष इस कर्मभूमि को पाकर पुण्य कर्म नहीं करता, वह मानों मरकत मणि के बरतन में लहसुन को चंदन के ईंधन से पकाता है, अर्क की जड़ को पाने के लिए खेत में सोने का हल चलाता है तथा कपूर के टुकड़े काटकर कोदों के खेत की मेंड बनाता है ।
मज्जत्वम्भसि
यातु मेरुशिखरं शत्रुं जयत्वाहवे
वाणिज्यं
कृषिसेवने च सकला विद्याः कलाः शिक्षताम् ।
आकाशं
विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं
नाभाव्यं
भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कुत: ॥ १००॥
अर्थ- चाहे समुद्र में गोते लगाओ, चाहे सुमेरु के शिखर पर जाओ; चाहे भयंकर युद्ध में शत्रुओं को जीतो, चाहे वाणिज्य व्यापार आदि सारी विद्याओं को सीखें, चाहे बड़े प्रयत्न करके आकाश में पक्षी की भांति उड़ो, परंतु संसार में कर्म के प्रताप से अनहोनी बात नहीं होती और होने वाली बात का निवारण भी कैसे हो सकता है ?
भीमं
वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं
सर्वो
जनः स्वजनतामुपयान्ति तस्य ।
कृत्स्ना च भूर्भवति
सन्निधिरत्नपूर्णा
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य
। । १०१ । ।
अर्थ- जिस मनुष्य के पास पूर्व जन्म के बहुत पुण्य हैं, उस मनुष्य के लिये भयानक वन भी अच्छे नगर के समान हो जाता है । सभी लोग उसके सगे हो जाते हैं और सम्पूर्ण पृथ्वी भी उसके लिये रत्नों से पूर्ण हो जाती है हो जाती है ।
को
लाभो गुणिसङ्गमः किमसुखं
प्राज्ञेतरैः सङ्गतिः
का
हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्त्वे रतिः ।
कः
शूरो विजितेन्द्रियः प्रियतमा काऽनुव्रता किं धनं
विद्या किं सुखमप्रवासगमनं राज्यं किमाज्ञाफलम् । । १०२ । ।
अर्थ- लाभ क्या है ? गुणियों का साथ, दुःख क्या है ? मूर्खों का सङ्ग, हानि क्या है ? समय की बरबादी, कुशलता क्या है ? धर्मानुराग, वीर कौन है ? इन्द्रियों को जीतने वाला, स्त्री कौन है? अनुकूल आचरण करने वाली, धन क्या है ? विद्या, सुख क्या है ? परदेश में न जाना तथा राज्य क्या है ? अपनी इच्छा के अनुसार रहना ।
अप्रियवचनदरिद्रैः
प्रियवचनधनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः ।
परपरिवादनिवृत्तैः
क्वचित्क्वचिन्मण्डिता वसुधा । । १०३ । ।
अर्थ- अप्रिय बोलने वाले दरिद्र, प्रियभाषी धनी, अपनी ही स्त्री से रति करने वाले और पराई निन्दा से रहित पुरुष सभी स्थान पर नहीं होते। उनसे कहीं-कहीं पृथ्वी शोभायमान है ।
कदर्थितस्यापि
हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम् ।
अधोमुखस्यापि कृतस्य
वह्नेर्नाधः शिखा याति कदाचिदेव॥१०४॥
अर्थ- धैर्यवान् पुरुष घोर दुःख पड़ने पर भी अपने धैर्य को नहीं छोड़ता, क्योंकि प्रज्वलित अग्नि के उल्टा कर देने पर भी उसकी शिखा ऊपर ही को रहती है, कभी नीचे की ओर नहीं जाती।
कान्ताकटाक्षविशिखा
न लुनन्ति यस्य
चित्तं
न निर्दहति कोपकृशानुतापः
।
कर्षन्ति
भूरिविषयाश्च न लोभपाशै-
र्लोकत्रयं
जयति कृत्स्नमिदं
स धीरः । । १०५ । ।
अर्थ- जिसके चित्त को सुन्दर स्त्री के कटाक्षरूपी बाण घायल नहीं कर देते, क्रोध रूपी अग्नि की आँच नहीं जलाती तथा नाना प्रकार के विषय लोोभ की रस्सियों से अपनी ओर नहीं खींचते, वह धीर पुरुष तीनों लोकों को जीत लेता है अर्थात् अपने वंश में कर लेता है ।
एकेनापि
हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम् ।
क्रियते भास्करेणैव
स्फारस्फुरिततेजसा ॥१०६॥
अर्थ- जिस तरह एक ही तेजस्वी सूर्य सारे जगत् को प्रकाशित करता है; उसी तरह एक ही शूरवीर सारी पृथ्वी पाँव तले दबाकर अपने वश में कर लेता है ।
वह्निस्तस्य
जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणान्
मेरुः
स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते ।
व्यालो
माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं
समुन्मीलति । । १०७ । ।
अर्थ - सारे मनुष्यों का अभीष्टतम सदाचार जिस पुरुष के शरीर में विराजमान है उसके लिए आग पानी हो जाती है, समुद्र छोटी नदी हो जाती है, सुमेरु पर्वत चोटी सी शिला सा मालूम होता है, सिंह तुरन्त हिरन हो जाता है, सर्प उसके लिए फूलों की माला सा हो जाता है तथा विष अमृत की वर्षा के समान हो जाता है ।
लज्जागुणौघजननीं
जननीमिव
स्वा-
मत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाम् ।
तेजस्विनः
सुखमसूनपि
सन्त्यजन्ति
सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् । । १०८ । ।
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