मंगलवार, 19 जनवरी 2021

नीतिशतकम्

 

श्रीमद्भर्तृहरिकृतम्

नीतिशतकम्

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये ।
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ॥१॥

अर्थ- दशों दिशाओं और तीनों कालों में रहने वाले, अनंत चैतन्य मूर्ति केवल अनुभव से जानने योग्य, शांत और परम तेजस्वी परमात्मा को नमस्कार है।


यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोsन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या
धिक्तां च तं च मदनं च इमां च मां च । । २ । ।

अर्थ- जिससे  मैं प्रॆम रखता हूं वह अन्य पुरुष पर मुग्ध है। वह पुरुष किसी अन्य स्त्री में आसक्त है। उस पुरुष की अभिलाषित स्त्री मुझपर प्रसन्न है। इसलिए रानी को, रानी द्वारा चाहे हुए पुरुष को, उस पुरुष की चाही हुई वेश्या को तथा मुझे धिक्कार है और सबसे अधिक कामदेव को धिक्कार है ।

अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥ ३॥

अर्थ- अज्ञानी सुखपूर्वक और ज्ञानी बड़ी सरलता से समझ सकता है, परंतु अल्पज्ञ को ब्रह्मा भी नहीं सुधार सकते।

प्रसह्यमणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरात्-
समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये-
न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमराधयेत् । । ४ । ।

अर्थ- मनुष्य बल द्वारा मगर की दाढ़ों की नोक से मणि निकाल सकता है, चंचल तरंगों से शोभित समुद्र को तैर सकता है और कुपित सर्प को भी पुष्पमाला के समान सिर में धारण कर सकता है, परंतु मूर्ख के चित्त को, जो कुकर्म में फंस रहा है, नहीं हटा सकता ।

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडय-
न्पिबेच्चमृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादये-
न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् । । ५ । ।

अर्थ-- कदाचित्, यत्न द्वारा बालू से भी तेल निकल सकता है, प्यासा मनुष्य मृगतृष्णा से भी अपनी प्यास बुझा सकता है और खोजने से खरगोश का सींग भी मिल सकता है। यह सब बातें असंभव होने पर ही संभव हो सकती हैं, परंतु मूर्ख मनुष्य के मन को सुधारना नितांत असंभव है ।


ब्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोद्धुं समुज्जृम्भते
छेत्तुं वज्रमणीञ्छीरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यते ।
माधुर्यें मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते
नेतुं वाञ्छन्ति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ॥६॥

अर्थ- जो मनुष्य अपने अमृत रूपी वचनों द्वारा खल मनुष्य को सन्मार्ग में लाना चाहता है वह मानो कमल की कोमल डंडी के सूत से हाथी को बांधना चाहता है, शिरीष के पुष्प की पंखुड़ी से हीरे को बेधने का यत्न करता है और बूंद भर शहद से खारे समुद्र को मीठा करना चाहता ।

स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः ।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम् । । ७ । ।

अर्थ- मौन रहना अपने आधीन गुण है, ब्रह्मा ने इसको मूर्खता को ढंकना बताया है और विशेषकर पंडितों की सभा में तो यह मूर्खों का बहुत बड़ा आभूषण है।  अर्थात मूर्ख भी किसी सभ्य समाज में मौन होकर बैठा रहे तो सभी लोग उसे योग्य ही समझेंगे।

यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः
यदा किञ्चित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः । । ८ । ।

अर्थ- जब मैं अल्पज्ञ था तब मदोन्मत्त हाथी की भांति मुझे यह गर्व था कि मैं सर्वज्ञ हूं। लेकिन जब पंडितों द्वारा मुझे कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ तब मैंने अपने को मूर्ख जाना और मेरा सारा मद ज्वर की भांति उतर गया।

कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगर्हि जुगुप्सितं
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् । । ९ । ।

अर्थ- जिस प्रकार कोई कुत्ता कीड़ों से युक्त, लार से भीगे, दुर्गंधि से भरे, निन्दित, नीरस एवं मांस रहित मनुष्य की हड्डी को खाते समय अपने पास खड़े हुए इन्द्र को देखकर भी शंका नहीं करता उसी प्रकार क्षुद्र मनुष्य जिस वस्तु का ग्रहण करता है उसकी तुच्छता पर ध्यान नहीं देता।

शिरः शार्वं स्वर्गात्पतति शिरस्तत्क्षितिधरं
महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।। १० ।।

अर्थ- गंगा जी सर्वप्रथम स्वर्ग से महादेव के सिर पर गिरीं, वहां से ऊंचे पर्वत पर, उस पर्वत से भूमि पर और इसी तरह क्रमशः नीचे गिरते गिरते और कम होतेे होते समुद्र में गिरीं । इसी प्रकार विवेक भ्रष्ट मनुष्य भी अनेक प्रकार से नीचे को ही गिरते जाते हैं।

शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक्च्छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदो दण्डेन गो गर्दभौ ।
व्याधिर्भेषजसङ्ग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् । । ११ । ।

अर्थ- जल से अग्नि का, छाते से धूप का, अंकुश से मदोन्मत्त हाथी का, डंडे से दुष्ट बैल और गधे का, मंत्र प्रयोग से विष का और अनेक प्रकार की औषधियों से रोगों का निवारण हो सकता है। इस प्रकार सबका शास्त्रों के अनुसार औषधि है परंतु मूर्ख मनुष्य की कोई औषधि नहीं है।

साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनां । । १२ 

अर्थ- जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला कौशल की विद्या से अनजान है, वह साक्षात् बिना पूंछ और सींग वाला पशु है। यह इस विलक्षण पशु का उत्तम भाग्य है कि घास नहीं खाता और जीता रहता है।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । । १३ । ।

अर्थ- जिस मनुष्य में विद्या, दान, ज्ञान, शील, गुण और धर्म, ये कुछ भी नहीं है वे संसार मेंं पृथ्वी पर भार रूप हुए मनुष्य रूप में पशु के समान विचरण करते हैं।

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि । । १४ । ।

अर्थ-- पहाड़ों और वनों में जंगली पशुओं के साथ रहना अच्छा है परंतु मूर्खों के साथ इंद्र भवन में भी रहना बुरा है ।

शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमा
विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोर्निर्धनाः ।
तज्जाड्यं वसुधादिपस्य कवयस्त्वर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः । । १५ । ।

अर्थ- शास्त्रों के शब्दों से जिनकी वाणी सुंंदर है, जिनकी विद्या छात्रों को पढ़ाने योग्य है और जो संसार में प्रसिद्ध हैं, ऐसे कवि जिस राजा के राज्य में निर्धन रहते हैं, वह राजा मूर्ख है। कवि बिना धन के ही सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं, क्योंकि जिन्होंने मणियों का मूल्य घटा दिया है वह परीक्षक ही कुपरीक्षक है, किंतु मणि किसी प्रकार दूषित नहीं ।

हर्तुर्याति न गोचरं किपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा
ह्यर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमाननिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम्
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यन्तर्धनं
येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते । । १६ । ।

अर्थ- चोरों को दिखाई नहीं देता, सर्वदा सुख देने वाला, दान देने पर भी बढ़ने वाला और प्रलय काल में भी जिस का नाश नहीं होता ऐसा छिपा हुआ विद्या रूपी धन जिसके पास है, हे राजा लोगों !  उनसे अभिमान मत करो क्योंकि उनकेे समान संसार में दूसरा और कौन है ?

अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्था-
स्तृणमिव लघुलक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां
न भवति विसतन्तुर्वारणं वारणानाम् । । १७ । ।

अर्थ- हे राजाओं ! जिनको मोक्ष के साधन प्राप्त हैं उन पंडितों का अपमान कभी मत करो क्योंकि उनको तुम्हारी तृणवत् तुच्छ उस प्रकार नहीं रोक सकती जिस प्रकार मदमस्त गजराज को कमल की  डंडी का सूत नहीं बाँध सकता ।

अम्भोजिनीवनविहारविलासमे
हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता ।
न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां
वैदग्ध्यकीर्तिपहर्तुसौ समर्थः । । १८ । ।

अर्थ- यदि विधाता हंस पर क्रोध करे, तब वह उस के कमल वन में रहने के आनन्द को नष्ट कर सकता है परंतु उसके दूध और जल के अलग करने के प्रसिद्ध चातुर्य और उससे मिलने वाले यश को नष्ट करने में वह (विधाता) सर्वथा असमर्थ है।


केयूरा न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् । । १९ । ।

अर्थ- मनुष्य को वाजूबन्द, चन्द्रमा के समान उज्वल मोतियों का हार, स्नान, चन्दन, पुष्प, माला, और केशों का सँवारना आदि भूषित नहीं कर सकता किन्तु उसको केवल संस्कारयुक्त वाणी ही अलंकृत कर सकती है, क्योंकि वस्त्र आभूषण आदि सब नष्ट होनेवाले हैं परन्तु वाणीरूप आभूषण ही सच्चा आभूषण है।


विद्या नाम नरस्य रूपधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न तु धनं विद्याविहीनः पशुः । । २० । ।

अर्थ- विद्या ही मनुष्य की शोभा और छिपा हुआ धन है । विद्या ही भोग, यश और सुख को देने वाली है। विद्या गुरुओं का गुरु है। परदेश में विद्या ही भाई बंधु होती है। विद्या ही परम देवता है। राजा लोगों में भी विद्या की ही पूजा होती है धन की नहीं ।इसलिये जो विद्या से हीन है उसे पशु ही समझना चाहिये ।

क्षान्तिश्चेद्वचेन किं किरिभिः क्रोधोऽस्तिचेद्देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधं किं फलं ।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या यदि
व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् । । २१ । ।

अर्थ - यदि क्षमा है तो वचन से क्या?  शांति हैं उसे वचन से क्या ? जिसमें क्रोध है उसे शत्रु की क्या आवश्यकता है ? जिसकी जाति (विरादरी) है उसे अग्नि से क्या प्रयोजन ? जिस के शुभ मित्र हैं उसे औषधि से क्या ? जिसके साथ बुरे मनुष्य रहते हैं उसका सर्प और दवा बिगाढ़ेगा ? जिसके पास विद्या है उसे धन की क्या आवश्यकता ? जो लज्जावान् है उसे और भूषणों का क्या करना है ? इसी प्रकार जो सुन्दर कविता कर सकता है उस की दृष्टि में राज्य क्या है?  अर्थात् कविता के आगे राज्य तुच्छ है।

दाक्षिण्यं स्वजने दया परिजने शाठ्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने विद्वविद्वज्जनेष्वार्जवम्।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धूर्त्तता
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः । । २२ । ।

अर्थ- जो लोग अपने कुटुम्ब पर उदारता, दूसरों पर दया, दुष्टों के साथ दुष्टता, साधुओं से प्रीति, राज सभा में नीति, पंडितों के साथ सरलता, शत्रुओं से शूरता, बड़े लोगों से क्षमा और स्त्रियों से धूर्तता का बर्ताव करते हैं वहीं कलावान् है और यह संसार उसी के आश्रय में है।

जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं

मानोन्नतिं दिशति पापपाकरोति ।

चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं

सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् । । २३ । ।

अर्थ- सत्संगति, बुद्धि की जड़ता को दूर करती, वचन में सच्चाई लाती है, प्रज्ञा बढ़ाती, दुष्ट कर्म को दूर करती, चित्त को प्रसन्न करती और सब जगह यश को फैलाती । कहो कौन सी ऐसी भलाई है जिसे सत्संगति सिद्ध नहीं करती ? अर्थात् सभी भलाइयों का स्थान सत्संगति है।

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् । । २४ । ।

अर्थ- ऐसे पुण्यात्मा कवि जो आठों रसों में सिद्धि प्राप्त कर चुके हों सब मनुष्यों में उत्तम हैं । क्योंकि उनकी कीर्तिरूप देह को कभी बुढ़ापे और मरण का भय नहीं होता ।

सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः ।
आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं
तुष्टे विष्टपहारिणीष्टदहरौ सम्प्राप्यते देहिनाम् । । २५ । ।
अर्थ- जिन पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं और भाग्य अनुकूल होता है, उन्हें ही सदाचारी पुत्र, पतिव्रता स्त्री, अनुग्रह करने वाला स्वामी, प्रेमी मित्र, सरल चित्त कुटुम्बी, क्लेश रहित मन, सुन्दर स्वरूप, चिरस्थायी धन और विद्या के प्रभाव से चमकता हुआ चेहरा (मुख) प्राप्त होता है।

प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्
तृष्णास्रोतो विभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः । । २६ । ।

अर्थ- जीव हिंसा न करना, पराये धन को हरण करने से डरना, सत्य बोलना, समयानुसार यथाशक्ति दान देना, पर स्त्रियों की  बातें न सुनना न करना, तृष्णा के प्रवाह को तोड़ना, गुरुजनों के आगे नम्र रहना, प्राणी मात्र पर दया रखना, सब शास्त्रों पर विश्वास रखना और नित्य के नैमित्तिक कार्यों को न छोड़ना।  यही सर्वसम्मत और शास्त्रों में यही कल्याण का मार्ग बताया गया है। अर्थात् मनुष्यों के कल्याण का उत्तम मार्ग यही है ।

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः-
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति । । २७ । ।

अर्थ- नीच लोग विघ्न भय के कारण कार्य आरंभ ही नहीं करते, मध्यम श्रेणी के मनुष्य कार्य तो प्रारम्भ कर देते हैं परन्तु विघ्न पड़ जाने पर उसे बीच ही में छोड़ देते हैं। किन्तु उत्तम लोग बारंबार विघ्न पड़ने पर भी प्रारम्भ किये हुए कार्य को बिना पूरा किए नहीं छोड़ते ।

असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः
प्रियान्याय्यावृत्तिर्मलिनसुभङ्गेऽप्यसुकरम्
विपद्युच्चैः स्थेयं पदनुविधेयं च महतां
सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिम् । । २८ । ।

अर्थ- अच्छे पुरुषों को चाहिए कि क्षुद्रजनों से याचना न करें, निर्धन मित्र से कुछ न मांगे किन्तु न्यायानुकूल प्रिय जीविका करें, प्राण जाने के भय भी खोटा काम न करें, विपत्ति में धैर्य धारण करें । इस प्रकार तलवार की धार से भी तेज प्रतिपालन को उपदेश सज्जनों के लिये किसने किया ? किसी ने नहीं यह सज्जनों का स्वाभाविकगुण है ।

क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपिकष्टां दशा-
मापन्नोऽपि विपन्नदीधितिरिति प्राणेषु नश्यत्स्वपि ।
मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्धस्पृहः
किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहताग्रेसरः केसरी । । २९ । ।

अर्थ- भूंख से दुर्बल, बुढ़ापे से क्रश, पराक्रम हीन, शोचनीय दशा को प्राप्त, तेज रहित और जिसके प्राण निकल रहे हों, मत्त हाथी के माथे के मांस की चाह करने वाला और अभिमानियों में अग्रसर सिंह घास को खायेगा अर्थात् कदापि नहीं । अर्थात् विपन्न होने की दशा में भी श्रेष्ठ लोग अपने कर्तव्य को नहीं भूलते । 

स्वल्पं स्नायुवसावशेषमलिनं निर्मांप्यस्थि गोः
श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये ।
सिंहो जम्बुकङ्कमागतपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विपं
सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छन्ति जनः सत्त्वानुरूपं फलम् । । ३०। ।

अर्थ- स्नायु और चर्बी में सने हुए मांस रहित बैल की हड्डी के छोटे से टुकड़े को पाकर कुत्ता बहुत प्रसन्न होता है, यद्यपि वह हड्डी उस कुत्ते की भूंख को हर नहीं सकती परन्तु सिंह अपनी गोद में आए हुए गीदड़ को छोड़ देता और हाथी को मारना चाहता है । इससे यह सिद्ध होता है कि सभी लोग पुरुषार्थ के अनुसार ही फल की इच्छा करते हैं ।

लाङ्गूलचालनधश्चरणावपातं भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनञ्च । श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्क्ते । । ३१ । ।

अर्थ - कुत्ता रोटी देने वाले के आगे पूंछ हिलाता है, झुककर, और मुंह तथा पेट दिखाकर अनेक प्रकार की चापलूसी करता परन्तु हाथी अपने अन्नदाता की ओर धीरज से देख कर खाता जाता है। अर्थात् श्रेष्ठ जन चापलूसी नहीं करते ।

परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते । 
सजातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् । । ३२ । ।

अर्थ- इस परिवर्तनशील संसार में वही मनुष्य जन्मा है जिसके जन्म से वंश की उन्नति हुई हो नहीं तो संसार में सभी मरते और जन्मते हैं ।

कुसुमस्तवकस्येव द्वे गतीस्तु मनस्विनाम् ।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशीर्यते वन एव वा । । ३३ । ।

अर्थ- पुष्प के गुच्छे के समान श्रेष्ठ विचारवाले पुरुषों की दो गति होती हैं, या तो सब लोगों के सिर पर विराजते हैं या वन में ही सूख जाते हैं ।

सन्त्यन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषा-
स्तान्प्रत्येष विशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।
द्वावेव ग्रसते दिवाकरनिशाप्राणेश्वरौ भास्करौ
भ्रातः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः । । ३४ । ।

अर्थ- हे भ्राता ! यद्यपि बृहस्पति आदि अन्य पांच ग्रह भी आकाश में हैं परन्तु अधिक पराक्रम की इच्छा करने वाला राहु उससे बैर नहीं करता और केवल शिर रहने पर भी पूर्ण चन्द्र और सूर्य को ग्रसता है । भाव इसका यह कि पराक्रमी लोग शत्रुता भी करते हैं तो तेजस्वी लोगों से ही, अन्य छोटों से नहीं।

वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितां
कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स विधार्यते ।
पि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा-
दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः । । ३५ । ।

अर्थ- चौदह भुवनों को अपने फन पर धारण करने वाले शेषजी को भी कच्छप अपनी पीठ पर लिये हुए है । परन्तु समुद्र ने उस कच्छप का भी अनादर के साथ शूकर के आधीन कर दिया। सारांश यह कि श्रेष्ठ पुरुषों के चरित्र भी विचित्र ही होते हैं ।

वरं पक्षच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिश-
प्रहारैर्रुद्गच्छद्बहुलदहनोद्गारगुरुभिः ।
तुषाराद्रेः सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे
न चासौ सम्पातः पयसि पयसां पत्युरुचितः । । ३६ । ।

अर्थ- इन्द्र के वज्र से निकली हुई अग्नि से भस्म हो कर मर जाना अच्छा था, परन्तु अपने पिता हिमालय को दुःखी और संतप्त छोड़ कर मैनाक को अपनी रक्षा के लिये समुद्र की शरण में जाना उचित न था।अर्थात् मनुष्य को अपने वंश में कलंक लगा कर और अपने परिवार को दुख में छोड़कर किसी नीच शत्रु की शरण में कभी नहीं जाना चाहिए।

सिंहः शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः । । ३७ । ।

अर्थ- शेरका बच्चा ही क्यों न हो वह मतवाले हाथी को मारने के लिए दौड़ता है, क्योंकि तेजस्वियों का यह स्वभाव ही है, अवस्था तेज का कारण नहीं है। 

जातिर्यातु रसातलं गुणगणैस्तत्राप्यधो गच्छता-
च्छीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः सन्दह्यतां वह्निना ।
शौर्ये वैरिणि वज्रमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं
येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे । । ३८ । ।

अर्थ- चाहे जाति पाताल को चली जाए, सभी गुण उससे भी नीचे गिर जाएं, शील भले ही पर्वत से गिर कर नष्ट हो जाए, कुटुंब के लोग अग्नि में जलकर मर जाएं, शूरता के ऊपर बिजली गिर पड़े, परन्तु हमें केवल द्रव्य से ही काम है क्योंकि उसके बिना सभी गुण तृणवत् हैं ।

तानीन्द्रियाणी सकलानि तदेव कर्म
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहिता: पुरुषः स एव
त्वन्य: क्षणेन भवतीति विचित्रमेत् । ।३९ । ।

अर्थ- मनुष्य की वही इन्द्रियां हैं, वही बुद्धि है और वचन भी वही है परन्तु एक धन की गर्मी न रहने से मनुष्य क्षणमात्र में और का और ही हो जाता है। यह धन की महिमा विचित्र है। 

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ॥४०॥

अर्थ- जिस मनुष्य के पास धन है, वही अच्छे कुल वाला, बुद्धिमान्, शास्त्रवेत्ता, गुणी, सुवक्ता और सुन्दर स्वरूपवाला समझा जाता है। भावार्थ यह है कि सब गुण धन के ही आश्रय रहते हैं ।

दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः सङ्गात्सुतो लालना-
द्विप्रोऽनध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात् ।
ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रया-
न्मैत्री चाप्रणयात् समृद्धिरनयात्त्यागप्रमादाद्धनम् । । ४१ । ।

अर्थ- अनुचित सलाह को मानने से राजा, लोगों के संबंध से योगी, दुलार करने से पुत्र, अध्ययन न करने से ब्राह्मण, कुपुत्र से वंश, दुष्टों के संसर्ग से अच्छा आचरण, शराब पीने से लज्जा, बार-बार न देखने से खेती, परदेश में अर्थात् दूर रहने से प्रेम, स्नेह के न होने से मित्रता, अनीति से ऐश्वर्य और दान में असावधानता से धन नष्ट हो जाता है ।

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति । । ४२ । ।

अर्थ- धन की ये तीन गतियां होती हैं - देना, भोग करना और नष्ट हो जाना । जो न दान देता है, न भोग करता है उसकी अर्थात् उसके धन की तीसरी गति हो जाती है, अर्थात् उसका नाश हो जाता है ।


मणिः शाणोल्लीढः समरविजयी हेतिनिहितो
मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः ।
कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृदिता बालवनिता-
स्निम्ना शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु नराः । । ४३। ।

अर्थ- शान पर खरीदा गया रत्न, युद्ध में  विजयी शूर, मदमस्त  हाथी, शरद् ऋतु में कुछ कुछ सूखे हुए किनारों वाली नदी, दूज का चांद, सुरत के मर्दन चुम्बन आदि से थकी हुई नवयौवना स्त्री और याचकों में धन का व्यय करने वाले पुरुष ये सब अपनी हानि या दुर्बलता से ही शोभा पाते हैं ।

परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये
स पश्चात्सम्पूर्णः गणयति धरित्रीं तृणसमाम्
अतश्चानैकान्त्याद् गुरुलघुतयाऽर्थेषु धनिना-
मवस्था वस्तूनि प्रथयति च सङ्कोचयति च । । ४४ । ।

अर्थ- दरिद्रता की अवस्था में मनुष्य एक मुट्ठी जौ की इच्छा करता है। वही फिर संपन्न होने पर दुनिया को तृण के समान समझता है। क्योंकि यही दोनों चंचल अवस्थाएँ मनुष्य को गुरु  और लघु बनाती हैं। अर्थात् धनावस्था और दरिद्रावस्था ही मनुष्य को बड़ा और छोटा बनाती है।

राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां
तेनाद्य वत्समिव लोकमुं पुषाण
तस्मिंश्च सम्यगनिशं परिपोष्यमाणे
नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः । । ४५। ।

अर्थ - हे राजा ! यदि तुम पृथ्वी रूपी गाय को दुहना चाहते हो, तो इस समय बछड़े के तुल्य इस प्रजावर्ग का पोषण करो । प्रजावर्ग का नित्य अच्छी तरह पालन करने पर ही पृथ्वी कल्पलता की भाँति अनेक प्रकार के फलों को देती है । अर्थात् बिना प्रजा पालन किए राजाओं को लाभ नहीं होता ।

सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।
नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च
वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा । । ४६ । ।

अर्थ – राजनीति वेश्या की भांति अनेक रूप वाली होती हुई कभी सच्ची,  कभी झूठी, कभी कठोर वचन बोलने वाली, कभी मीठे वचन बोलने वाली, कभी घातक, कभी दयायुक्त, कभी स्वार्थरत, कभी दान में दक्ष, नित्य व्यय करने वाली तथा नित्य ही प्रचुर धन पैदा करने वाली होती है ।

आज्ञा कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां दानं भोगो मित्रसंरक्षणं चयेषामेते षड्गुणा न प्रवृत्ताः कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण ॥४७॥

अर्थ - हे राजन् ! जिन राजाओं में आज्ञा करना, यश प्राप्त करना, ब्राह्मणों का पालन करना, दान देना, ऐश्वर्य का उपभोग करना तथा मित्रों की रक्षा करना- ये छः गुण नहीं मिलते उनका आश्रय लेने से क्या लाभ ?

यद्धात्रा निभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनं
तत्प्राप्नोति मरुस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम्
तद्धीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा सा कृथाः
कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलम् । । ४८ । ।

अर्थ- कम या ज्यादा विधाता ने जो कुछ तुम्हारे भाग्य में लिख दिया है, उतना पुरुष मरुस्थल में भी अवश्य ही प्राप्त कर सकता है, उससे ज्यादा तुमको सुमेरु पर्वत पर भी नहीं मिल सकता। इसलिए धैर्य धारण करो, किसी धनी से याचना न करो क्योंकि देखो, घड़ा समुद्र और कुएं से समान जल ही ग्रहण करता है।

त्वमेव चातकाधारोऽसीति केषां न गोचरः ।
किमम्भोदवरास्माकं कार्पण्योक्तं प्रतीक्षसे । । ४९ । ।

अर्थ- हे मेघ ! तुम ही हम पपहियों के एक मात्र आधार हो, इस बात को कौन नहीं जानता ? हमारे दीन वचनों की प्रतीक्षा फिर क्यों करते हो ?

रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र! क्षणं श्रूयता-
म्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ।
केचिद्वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद्वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः । । ५०। ।

अर्थ- हे चातक! सावधान होकर क्षण भर मेरी बात सुन। आकाश में बहुत से बादल हैं, पर सभी दयालु नहीं होते हैं, कुछ बादल तो बरस कर पृथ्वी को गीली कर देते हैं और कुछ तो व्यर्थ ही गरजते रहते हैं। इसलिए हे मित्र ! तुम जिसको देखो उसके सामने याचना मत करो । सभी के आगे अपना दुखड़ा नहीं रोना चाहिए। बल्कि अपना दुख उससे कहना चाहिए जो कि उसे दूर करने में समर्थ हो।

अकरुणत्वकारणविग्रहः परधने परयोषिति च स्पृहा ।स्वजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम्॥५१॥

अर्थ- दया न करना, बिना कारण के लड़ाई करना, पराए धन तथा स्त्री को पाने की इच्छा करना तथा सज्जनों और बान्धवों के साथ असहनशीलता का बर्ताव करना,  ये छः अवगुण दुर्जनों में स्वभाव से ही पाये जाते हैं ।

दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्पः किसौ न भयङ्करः । । ५२। ।

अर्थ- विद्या से भूषित होने पर भी दुर्जन त्याग करने योग्य है । क्या मणि से अलंकृत होने पर भी सर्प भयङ्कर नहीं होता ?

जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं
शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि ।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे
तत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनां यो दुर्जनैर्नाङ्कितः । । ५३। ।

अर्थ- दुष्ट लोग, लज्जावान् को शिथिल, व्रतधारी को दम्भी, पवित्र को कपटी, शूर को निर्दयी,  सुधि को मूर्ख, प्रियवादी को चापलूस, तेजस्वी को घमंडी, वक्ता को बकवादी और स्थिर चित्त वाले को आलसी कहते हैं। तो गुणियों का कौन सा गुण है जिसमें दुर्जनों ने दोष न निकाला हो।

लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्
सौजन्यं यदि किं गुणै: सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना । । ५४। ।

अर्थ- यदि लोभ  तो किसी और दुर्गुणों का क्या प्रयोजन ? यदि परनिंदा हो तो किसी पाप का क्या काम ? यदि सत्य हो तो तपस्या की क्या आवश्यकता ? यदि मन शुद्ध हो तो तीर्थ से क्या लाभ ? यदि सज्जनता है तो और गुणों से क्या प्रयोजन ? यदि कीर्ति है तो आभूषणों की क्या आवश्यकता ? यदि उत्तम विद्या है तो धन से क्या प्रयोजन? यदि अपयश है तो मृत्यु की क्या जरूरत ?

शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी
सरो विगतवारिजं मुखनक्षरं स्वाकृतेः ।
प्रभुर्धनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनो
नृपाङ्गणगतः खलो मनसि सप्त शल्यानि मे । । ५५ । ।

अर्थ - दिन का मलिन चंद्रमा, यौवन हीन स्त्री, कमल हीन सरोवर, सुन्दर पुरुष का विद्यारहित मुख, कंजूस स्वामी या  राजा, सदा दुर्दशा में पड़़ा हुआ सज्जन तथा राजसभा में दुष्ट।   ये सातों मेरे मन में काँटे की भाँति चुभते रहते हैं ।

न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम्
होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो वहति पावकः । । ५६ । ।

अर्थ- क्रोध करने वाले राजा अपने आत्मीय जनों को भी नहीं छोड़ते । जिस तरह हवन करने वाले को भी अग्नि छूते ही जला देती है, उसी तरह राजा भी किसी के नहीं होते।

मौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा
धृष्टः पार्श्वे वसति च सदा दूरतश्चाप्रगल्भः ।
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनाप्यगम्यः । । ५७। ।

अर्थ- सेवक मौन रहने पर गूंगा, बातें करने में निपुण होने पर बकवादी, समीप रहने पर ढीठ, दूर रहने पर मूर्ख, क्षमा करने पर कायर और बात न सहने पर कुलहीन कहलाता है । अर्थात् सेवा धर्म ही बड़ा कठिन है । यह योगियों के लिये भी अगम्य ।

उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य
प्राग्जातविस्तृतनिजाधमकर्मवृत्तेः ।
दैवादवाप्तविभवस्य गुणद्विषोऽस्य
नीचस्य गोचरगतैः सुखमाप्यते कैः ॥ ५८ । ।

अर्थ- जो सभी को दुष्ट बनाता है, जो स्वेच्छाचारी या मर्यादा-रहित है, जो पूर्वजन्म के कुकर्मों के कारण बहुत बड़ा दुराचारी है, जो सौभाग्य से धनी हो गया है और जो सद्गुणों से द्वेष रखने वाला है ऐसे नीच के अधीन रद्द कर कौन सुखी हो सकता है ?

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥५९

अर्थ- दुष्टों की मित्रता दोपहर की छाया के समान आरंभ में बहुत लम्बी चौड़ी होती है और बाद में क्रमशः घटती जाती है । ठीक इसके विलोम सज्जनों की मैत्री भी दोपहर के बाद की परिछाई की भाँति पहले बहुत थोड़ी सी होती है और बाद में प्रतिक्षण बढ़ती जाती है ।

मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनाम्
लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति । । ६०। ।

अर्थ- हिरन, मछली और सज्जन ये तीनों घाास, जल और संतोष पर ही अपनी जीविका निर्धारित करते हैं परन्तु  व्याघ्र केवट, और कुटिल लोग उनसे बिना कारण ही संसार में शत्रुता करते हैं ।

वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता
विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद्भयं ।
भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले
येष्वेते निवसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः । । ६१। ।

अर्थ- सत्संगति की इच्छा, दूसरों के गुणों से प्रीति, बड़ों से नम्रता, विद्या में व्यसन, अपनी स्त्री से प्रेम, लोक निन्दा से भय, परमात्मा में भक्ति, मन  को अपने वश में करने की शक्ति और दुष्टों के संग का त्याग - ये निर्मल गुण जिन पुरुषों में हो उन्हें हम नमस्कार करते हैं।

विपदि धैर्यथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्यपटुता युधि विक्रमः ।यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥६२॥

अर्थ- विपत्ति में धैर्य, ऐश्वर्य में क्षमा, सभा में वचनचातुर्य, संग्राम में पराक्रम, कीर्ति को प्राप्त करने में विशेष रुचि तथा वेदाध्ययन में आसक्ति-ये सब बातें महापुरुषों में स्वभाविक ही होती हैं ।

प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः
प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।
अनुत्सेको लक्ष्म्यानभिभवगन्धाः परकथाः
सतां केनोद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिम् । । ६३ । ।

अर्थ-  गुप्त दान देना, घर में आए हुए अतिथि का स्वागत करना, उपकार करके चुप रहना, कृतज्ञता प्रगट करना, धन पाकर अभिमान न करना और दूसरों की चर्चा केेे प्रसंग में किसी की निंदा न करना - इस प्रकार तलवार की धार के समान कठिन व्रत का उपदेश सज्जनों को न जाने किसने  दिया है ?

करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयिता
मुखे सत्या वाणी विजयिभुजयोर्वीर्यतुलम्
हृदि स्वच्छा वृत्तिः श्रुतिधिगतं च श्रवणयोर्
विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिम् । । ६४ । ।

अर्थ- हाथ दान देने से, मस्तक बड़े लोगों के पैर पर गिरने से, मुख सत्य बोलने से, भुजा पराक्रम से, हृदय स्वच्छता से, कान शास्त्र सुनने से बढ़ाई के योग्य होते हैं और यही महात्माओं के  लिए धन आदि के बिना ही पर्याप्त  आभूषण हैं ।

सम्पत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमम्
आपत्सु च महाशैलशिलासङ्घातकर्कशम् । । ६५ । ।

अर्थ- सम्पत्ति काल में महापुरुषों का चित्त कमल से भी कोमल रहता है और विपद् काल में बड़े़े पर्वत की चट्टानों के समूह की भांति कठोर हो जाता है ।

सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।
स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते । । ६६ । ।

अर्थ- जलते हुए लोहे पर पानी पड़ने पर उसका नाश हो जाता है, वही बूंद कमल-पत्र पर पड़ने से मोती की भाँति चमकता है, और फिर वही बूंद स्वाती नक्षत्र में समुद्र की सीपी में पड़ कर मोती हो जाता है। अर्थात् निकृष्ट, मध्यम तथा उत्तम गुण प्रायः संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं।

प्रीणति यः सुचरितै:  पितरं स पुत्रो
यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम्
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं य-
देतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते । । ६७। ।

अर्थ- जो अपने अच्छे कामों से पिता को प्रसन्न करता है वही पुत्र है, जो पति का कल्याण चाहती है वही स्त्री है, जो विपत्ति और सुख में एक सा व्यवहार करता है वही मित्र है। संसार में इन तीनों को पुण्य करने वाले ही पाते हैं ।

एको देवः केशवो वा शिवो वा ह्येकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।
एको वासः पत्तने वा वने वा ह्येका भार्या सुन्दरी वा दरी वा॥६८॥

अर्थ- मनुष्य को किसी एक देवता को इष्ट मानना चाहिए, वह चाहे विष्णु हो या शिव हो, एक मित्र हो, चाहे वह राजा हो या योगी हो, एक ही निवास स्थान होना चाहिए चाहे जंगल हो या नगर हो और एक ही पत्नी होनी चाहिए चाहे वह सुंदरी हो या कंदरा हो।

नम्रत्वेनोन्नमन्तः परगुणकथनैः स्वान्गुणान्ख्यापयन्तः
स्वार्थान्सम्पादयन्तो विततपृथुतरारम्भयत्नाः परार्थे ।
क्षान्त्यैवाक्षेपरुक्षाक्षरमुखरमुखान्दुर्जनान्दूषयन्तः
सन्तः साश्चर्यचर्या जगति बहुमताः कस्य नाभ्यर्चनीयाः । । ६९। ।

अर्थ- नम्रता से ही वाले, दूसरों की प्रशंसाा करके अपनी गुण ग्राहकता का परिचय देते वाले, परोपकार करते हुए अपने कार्य को साधने वाले, मेंढक और कुटिल लोगों को अपनी क्षमा से दूषित करने वाले, ऐसे आश्चर्ययुक्त आचरणवाले, परमपूज्य सज्जन संसार में किसके पूजनीय नहीं होते ?

भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गम नवाम्बुभिर्भूमिविलम्बिनो घनाः ।अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥७०॥

अर्थ- जिस प्रकार फल होने पर वृक्ष छुक जाते हैं, नये जल भरने से मेघ झुक जाता है, वैसे ही सत्पुरुष लोग भी संपत्ति पाकर उद्धत नहीं होते बल्कि अधिक नम्र हो जाते हैं । अर्थात् परोपकारी का  स्वभाव ही नम्र होता है ।

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ।
विभातिकायः करुणापराणां परोपकारैर्न तु चन्दनेन । । ७१। ।

अर्थ- कान की शोभा शास्त्र सुनने से होती है न कि कुण्डल पहनने से, हाथ दान से शोभित होता है न कि कंकण पहिनने में, इसी प्रकार शरीर की शोभा परोपकार करने से होती है न कि चन्दन लगाने से ।

पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः । । ७२ । ।

अर्थ - अच्छे मित्र का लक्षण बताते हैं- अच्छा मित्र वही है जो मित्र को बुरे कामों से रोकता है और हित के कार्यों में लगाता है ।उसकी गुप्त छिपाने योग्य बातों को छिपाया है और उसके गुणों को प्रकट करता है। विपत्ति के समय अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ता और समय पड़ने पर यथासामर्थ्य द्रव्य से भी सहायता करता है ।

पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
सन्तः स्वयं परहिते विहिताभियोगा: । ७३ । ।

अर्थ- विना माँगे ही सूर्य कमलों को विकसित करता है, चंद्रमा कहे बिना ही कुमुद-समूह को प्रफुल्लित करता है और मेघ भी विना याचना किये ही जल देता है । उसी प्रकार सज्जन लोग भी अपने आप ही दूसरों की भलाई किया करते हैं ।

एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यजन्ति ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे । । ७४। ।

अर्थ – सज्जन वे होते हैं जो अपने स्वार्थ को छोड़ कर दूसरों की भलाई करते हैं और कुछ लोग साधारण श्रेणी के होते हैं जो अपने स्वार्थ को साधते हुए भी दूसरों के लिए उद्यम करते हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरे के हित का नाश करते हैं उन्हें मनुष्यों के रूप में राक्षस समझना चाहिए, परन्तु जो व्यर्थ ही दूसरों के हित का नाश करते हैं वे कौन है ? यह हम नहीं जानते ।

क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ता: पुरा तेऽखिला:
क्षीरोत्तापवेक्ष्य तेन पयसा स्वात्मा कृशानौ हुतः ।
गन्तुं तावकमुन्मनस्तदभवद्दृष्ट्वा तु मित्रापदं
युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां मैत्री पुनस्त्वीदृशी । । ७५। ।

अर्थ- पहले दूध ने अपने में मिले जल को अपने सारे गुण दे दिये। फिर जब दूध आग पर रखा गया तो दूूध को जलता देख जल भी अपना शरीर आग में जलाने लगा । फिर दूध ने अपने मित्र का नाश देख स्वयं आग में जाने के लिए व्याकुल हो गया, परन्तु जल के छींटे पड़ते ही दूध शांत हुआ । सत्पुरुषों की मैत्री दूध और जल जैैसी ही होती है ।

इतः स्वपिति केशवः कुलमितस्तदीयद्विषा-
मितश्च शरणार्थिनां शिखरिणां गणाः शेरते ।
इतोऽपि बडवानलः सह समस्तसंवर्तकै-
रहो विततमूर्जितं भरसहं सिन्धोर्वपुः । । ७६ । ।

अर्थ- अहो ! समुद्र का शरीर कैसा बलवान, विशाल तथा भार सहने वाला है, इसमें एक तरफ विष्णु भगवान् विश्राम कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ पर्वतों के समूह पड़़े हैं और समीप ही वडवानल प्रलयाग्नि सहित मौजूद है । सत्पुरुष भी समुद्र के ही समान होते हैं।

तृष्णां छिन्धि भज क्षमां जहि मदं पापे रतिं मा कृथाः
सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वज्जनम् ।
मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय प्रख्यापय प्रश्रयं
कीर्तिं पालय दुःखिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् । । ७७ । ।

अर्थ- तृष्णा को त्याग कर, क्षमा का सेवन कर, गर्व को छोड़, पापों से प्रीति न कर, सच बोलो, सज्जनों के मार्ग का अनुसरण करो, विद्वानों की सेवा करो, पूज्य लोगों का आदर करो, शत्रुओं को भी प्रसन्न रखो, अपने गुणों की प्रसिद्धि कर अपनी कीर्ति का पालन कर दीन-दुखी जनों पर दया करो—क्योंकि यही सत्पुरुषों के लक्षण हैं ।

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा-
स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्त सन्तः कियन्तः । । ७८। ।

अर्थ- मन, वचन और शरीर में सत्कर्मरूपी अमृत से भरे हुए तीनों लोकों को अनेक उपकारों से तृप्त करने वाले तथा दूसरे के लेशमात्र गुण को  ही पर्वत समान बड़ा बनाकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सज्जन संसार में कुछ ही हैं अर्थात् विरले ही होते हैं।

किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा
यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव ।
मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण
कङ्कोलनिम्बकटुजा अपि चन्दनाः स्युः । । ७९। ।

अर्थ- उस सोने के सुमेरु पर्वत और चाँदी के कैलाश पर्वन से संसार क्या लाभ, जिन पर पैदा होने वाले वृक्ष जैसे के तैसे ही बने रहते हैं। हम तो मलयपर्वत को ही अच्छा समझते हैं जिसके संसर्ग से कंकोल, नीम और कुटज प्रभृति कड़वे वृक्ष भी चन्दन वृक्ष हो जाते हैं ।

रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम्
सुधां विना न पययुर्विरामं न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ॥८०॥

अर्थ- समुद्र मथते समय, देवता विभिन्न प्रकार के बहुमूल्य रत्नों से संतुष्ट नहीं हुए । भयंकर विष से भी भयभीत होकर उन्होंने अपना उद्योग न त्यागा । जब तक अमृत नहीं पा लिया, उन्होंने विश्राम न किया । अविरत परिश्रम ही  करते रहे । अर्थात् वीर पुरुष अपने निश्चित अर्थ - इच्छित पदार्थ को पाये बिना, बीच मे घबरा कर अपना काम नहीं छोड़ते ।

क्वचित्पृथ्वीशय्य: क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनम्
क्वचिच्छाकाहार: क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः ।
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् । । ८१। ।

अर्थ-  जो लोग मनस्वी और कार्य की सिद्धि चाहने वाले होते हैं वे सुख दुख को नहीं गिनते । अर्थात् सुख दु:ख की परवाह नहीं करते। मौका पड़ने पर कभी तो भूमि पर ही सो जाते हैं और कभी पलंग पर शयन करते हैं। कभी साग पात खाकर ही निर्वाह करते हैं और कभी अच्छे अच्छे पदार्थों का भोजन करते हैं। कभी तो गुदड़ी के टुकड़े को ही ओढ़कर दिन बिताते हैं तो कभी सुन्दर वस्त्र धारण करते हैं ।

ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो
ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ।
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता
सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ॥८२॥

अर्थ- ऐश्वर्य का भूषण सज्जनता, शूरता का भूषण वाक्संयम, ज्ञान का भूषण शांति, शास्त्र पढ़ने का भूषण विनय, धन का भूषण सुपात्र को दान देना, तप का भूषण क्रोध-हीनता, प्रभुता का भूषण क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है, किन्तु सबका कारणस्वरूप सदाचार सभी गुणों का सर्वोत्तम भूषण है।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्ठम्
अद्यैव वा मरणस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः । । ८३ । ।

अर्थ- नीति निपुण लोग निन्दा करें चाहें प्रशंसा, लक्ष्मी आए चाहे चली जाय, आज ही मृत्यु हो जाए अथवा कल्पान्त में हो, पर धीर पुरुष न्याय संगत मार्ग से जरा भी इधर-उधर नहीं होते।

भग्नाशस्य करण्डपिण्डिततनोर्म्लानेन्द्रियस्य क्षुधा
कृत्वाऽऽखुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुखे भोगिनः ।
तृप्तस्तत्पिशितेन सत्वरसौ तेनैव यातः यथा
लोकाः पश्यत दैवमेव हि नृणां वृद्धौ क्षये कारणम् । । ८४। ।

अर्थ- जीवन से निराश, भूूख से आतुर सर्प पिटारे में कैद है। रात को चूहा उस पिटारे में छेद करके पहुँच जाता है और सर्प उसके मांस को खाकर तृप्त होता है। फिर वह सर्प अपनी भूख मिटा कर उसी छिद्र द्वारा बाहर निकल जाता है। हे मनुष्यों ! देखो, क्षय और वृद्धि का प्रधान कारण भाग्य ही है ।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कुर्वाणो नावसीदति । । ८५। ।

अर्थ - आलस्य मनुष्यों का उनके शरीर में ही रहने वाला बहुत बड़ा शत्रु है। उद्यम अर्थात् पुरुषार्थ के समान कोई मित्र नहीं है, जिसे करने पर मनुष्य दुःख नहीं पाता ।

छिन्नोऽपि रोहति तरुर्क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः ।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न ते विपदा । । ८६। ।

अर्थ- कट जाने पर भी वृक्ष फिर से बढ़ सकता है, क्षीण चन्द्रमा फिर पूरा हो जाता है। इसी प्रकार विचार करनेे वाले सज्जन लोग विपत्ति से नहीं घबड़ाते ।

नेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः
स्वर्गो दुर्गनुग्रहः किल हरेरैरावतो वारणः ।
इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलभिद्भग्नः परैः सङ्गरे
तद्युक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिग्वृथा पौरुषम् ॥८७॥

अर्थ  बृहस्पति के समान जिसके मंत्री हैं, वज्र जिसका अस्त्र है, देवगण जिसके सिपाही हैं, स्वर्ग जैसा जिसका किला है, जिसका ऐरावत जैसा वाहन और जिस पर श्री विष्णु भगवान् का अनुग्रह है ऐसे ऐश्वर्य तथा शक्ति से युक्त इन्द्र भी शत्रुओं से युद्ध में हार गया तो यह स्पष्ट है कि देव ही केवल रक्षक है, निरर्थक पौरुष को बार बार धिक्कार है।

कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी ।
तथाऽपि सुधिया भाव्यं सुविचार्यैव कुर्वता । । ८८ । ।

अर्थ- यद्यपि मनुष्यों को कर्मानुसार फल मिलते है और भी कर्मानुसार ही हो जाती है फिर भी बुद्धिमानों को खूब विचार पूर्वक ही काम करने चाहिये।

खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्ताडितो मस्तके
वाञ्छन्देशनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः ।
तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः
प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः । । ८९ । ।

अर्थ - किसी गंजे आदमी का सिर धूप से जलने लगा तो वह छाया की इच्छा से भाग्य से एक ताड़ के वृक्ष के नीचे जाकर खड़ा हो गया । वहाँ ऊपर से एक बड़ा ताड़-फल उसके सिर पर बढ़े जोर से गिरा । उससे उसकी खोपड़ी फट गई । अर्थात् भाग्यहीन मनुष्य जहाँ जाता है, उसकी विपत्ति भी प्रायः उसके साथ ही साथ जाती है ।

रविनिशाकरयोर्ग्रहपीडनं गजभुजङ्गमयोरपि बन्धनम्
मतिमतां च विलोक्य दरिद्रतां विधिरहो ! बलवानिति मे मतिः॥९०॥

अर्थ- सूर्य और चन्द्रमा का राहु द्वारा पीड़ित होना, हाथी और सर्प का बंधन में होना तथा बुद्धिमानों की दरिद्रता को देखकर मेरा यही विचार है कि भाग्य ही बलवान् है ।

सृजति तावदशेषगुणकरं पुरुषरत्नलङ्करणं भुवः ।
तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेदहह ! कष्टमपण्डितता विधेः॥९१॥

अर्थ-  ओह ! बड़े दुःख की बात है कि यह ब्रह्मा की कैसी मूर्खता है कि वह सब गुणों की खान तथा पृथ्वी के भूषण पुरुष रत्न को पैदा करता है और फिर उसी को क्षणभंगुर बना देता है।

पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किं
नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः । । ९२ । ।

अर्थ - यदि करील के पेड़ में पत्ते नहीं लगते तो इसमें बंंसत का क्या दोष है ? यदि उल्लू को दिन में नहीं दिखता तो इसमें सूर्य का क्या दोष है ? यदि चातक के मुख में वर्षा की बूंदों की धारा नहीं गिरती तो इसमें बादल का क्या दोष है ? विधाता ने जो भाग्य में लिख दिया है भला उसे कौन मिटा सकता है।

नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।
फलं कर्मायत्तं यदि किरगणैः किं च विधिना
नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति । । ९३। ।

अर्थ- देवताओं को हम प्रणाम करते हैं, पर वह तो ब्रह्मा के आधीन हैं। ब्रह्मा भी हम को पूर्व कर्मानुसार फल देते हैं, इसलिये फल और ब्रह्मा दोनों ही कर्म के आधीन हैं। इस कारण हम कर्म ही सर्व श्रेष्ठ मानते हैं जिस पर कि विधि का भी वंश नहीं चलता है।

ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माडभाण्डोदरे
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यं एव गगने तस्मै नमः कर्मणे । । ९४। ।

अर्थ- जिस कर्म ने ब्रह्मा को कुम्हार की भांति ब्रह्माण्ड रचने, विष्णु को अत्यंत दु:खदायक दशावतार धारण करने की कठिनाई में डाल दिया, महादेव को कपाल हाथ में लेकर भिक्षा माँगने को और सूर्य को नित्य चक्कर लगाने को मजबूर किया उस कर्म को नमस्कार है।

नैवाकृति: फलति नैवा कुलं न शीलं
विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा ।
भाग्यानि पूर्वतपसा खलु सञ्चितानि
काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः । । ९५। ।

अर्थ- मनुष्य को न तो सुन्दर आकृति, उत्तम कुल, शील, विद्या और खूब अच्छी तरह से की हुई सेवा, ये सब कुछ फल नहीं देते बल्कि पूर्व जन्म की संचित किया हुआ भाग्य ही समय समय पर वृक्ष की भाँति फल देती है ।

वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥ ९६॥

अर्थ- वन में, युद्ध में, शत्रु, जल तथा आग के बीच, महासमुद्र में, पर्वत की चोटी पर, सुप्तावस्था में, असावधानी की हालत में तथा विषमावस्था में पड़ने पर पहले किये गये पुण्य ही रक्षा करते हैं ।

या साधूंश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः
प्रत्यक्षं कुरुते परीक्षमृतं हालाहलं तत्क्षणात् ।
तामाराधय सत्क्रियां भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं
हे साधो ! व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः । । ९७ । ।

अर्थ- हे सज्जन ! यदि आप मनोवांछित फल चाहते हो तो उस ऐश्वर्यशाली अच्छे कर्म का सेवन करो जो दुष्टों को सज्जन, मूर्खों को विद्वान्, शत्रुओं को मित्र, आँखों से परे की वस्तु को आँखों के सामने तथा विष को तत्काल अमृत कर देता है। बहुत दुःख देने वाले गुण में व्यर्थ प्रयत्न न करो ।

गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यजातं
परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ।
अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्ते
र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः । । ९८ । ।

अर्थ- कार्य योग्य हो या अयोग्य, कार्य करने वालों को परिणाम पर विचार कर लेना चाहिये । बिना विचारे शीघ्रता से किये गये काम का फल मरण पर्यन्त हृदय को जलाता और काँटे की भांति जलाने वाला होता है ।

स्थाल्यां वैदूर्यमय्यां पचति तिलकणांश्चन्दनैरिन्धनौघैः
सौवर्णैर्लाङ्गलाग्रैर्विलिखति वसुधार्कमूलस्य हेतोः ।
कृत्वा कर्पूरखण्डान्वृत्तिमिह कुरुते कोद्रवाणां समन्तात्
प्राप्येमां कर्मभूमिं न चरति मनुजो यस्तोप मन्दभाग्यः ॥९९॥

अर्थ- जो मन्दभाग्य पुरुष इस कर्मभूमि को पाकर पुण्य कर्म नहीं करता, वह मानों मरकत मणि के बरतन में लहसुन को चंदन के ईंधन से पकाता है, अर्क की जड़ को पाने के लिए खेत में सोने का हल चलाता है तथा कपूर के टुकड़े काटकर कोदों के खेत की मेंड बनाता है ।

मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रुं जयत्वाहवे
वाणिज्यं कृषिसेवने च सकला विद्याः कलाः शिक्षताम् ।
आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं
नाभाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कुत: ॥ १००॥

अर्थ- चाहे समुद्र में गोते लगाओ, चाहे सुमेरु के शिखर पर जाओ; चाहे भयंकर युद्ध में शत्रुओं को जीतो, चाहे वाणिज्य व्यापार आदि सारी विद्याओं को सीखें, चाहे बड़े प्रयत्न करके आकाश में पक्षी की भांति उड़ो,  परंतु संसार में कर्म के प्रताप से अनहोनी बात नहीं होती और होने वाली बात का निवारण भी कैसे हो सकता है  ?

भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं
सर्वो जनः स्वजनतामुपयान्ति तस्य ।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य । । १०१ । ।

अर्थ- जिस मनुष्य के पास पूर्व जन्म के बहुत पुण्य हैं, उस मनुष्य के लिये भयानक वन भी अच्छे नगर के समान हो जाता है । सभी लोग उसके सगे हो जाते हैं और सम्पूर्ण पृथ्वी भी उसके लिये रत्नों से पूर्ण हो जाती है हो जाती है ।

को लाभो गुणिसङ्गमः किसुखं प्राज्ञेतरैः सङ्गतिः
का हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्त्वे रतिः ।
कः शूरो विजितेन्द्रियः प्रियतमा काऽनुव्रता किं धनं
विद्या किं सुखप्रवासगमनं राज्यं किमाज्ञाफलम् । । १०२ । ।

अर्थ- लाभ क्या है ? गुणियों का साथ, दुःख क्या है ? मूर्खों का सङ्ग, हानि क्या है ? समय की बरबादी, कुशलता क्या है ? धर्मानुराग, वीर कौन है ? इन्द्रियों को जीतने वाला, स्त्री कौन है? अनुकूल आचरण करने वाली, धन क्या है ? विद्या, सुख क्या है ? परदेश में न जाना तथा राज्य क्या है ? अपनी इच्छा के अनुसार रहना ।

अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनधनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः ।
परपरिवादनिवृत्तैः क्वचित्क्वचिन्मण्डिता वसुधा । । १०३ । ।

अर्थ- अप्रिय बोलने वाले दरिद्र, प्रियभाषी धनी, अपनी ही स्त्री से रति करने वाले और पराई निन्दा से रहित पुरुष सभी स्थान पर नहीं होते। उनसे कहीं-कहीं पृथ्वी शोभायमान है ।

कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधः शिखा याति कदाचिदेव॥१०४॥

अर्थ- धैर्यवान् पुरुष घोर दुःख पड़ने पर भी अपने धैर्य को नहीं छोड़ता, क्योंकि प्रज्वलित अग्नि के उल्टा कर देने पर भी उसकी शिखा ऊपर ही को रहती है, कभी नीचे की ओर नहीं जाती।

कान्ताकटाक्षविशिखा न लुनन्ति यस्य
चित्तं न निर्दहति कोपकृशानुतापः ।
कर्षन्ति भूरिविषयाश्च न लोभपाशै-
र्लोकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीरः । । १०५ । ।

अर्थ- जिसके चित्त को सुन्दर स्त्री के कटाक्षरूपी बाण घायल नहीं कर देते, क्रोध रूपी अग्नि की आँच नहीं जलाती तथा नाना प्रकार के विषय लोोभ की रस्सियों से अपनी ओर नहीं खींचते, वह धीर पुरुष तीनों लोकों को जीत लेता है अर्थात् अपने वंश में कर लेता है ।

एकेनापि हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम्
क्रियते भास्करेणैव स्फारस्फुरिततेजसा ॥१०६॥

अर्थ- जिस तरह एक ही तेजस्वी सूर्य सारे जगत् को प्रकाशित करता है; उसी तरह एक ही शूरवीर सारी पृथ्वी पाँव तले दबाकर अपने वश में कर लेता है ।

वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणान्
मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते ।
व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति । । १०७ । ।

अर्थ - सारे मनुष्यों का अभीष्टतम सदाचार जिस पुरुष के शरीर में विराजमान है उसके लिए आग पानी हो जाती है, समुद्र छोटी नदी हो जाती है, सुमेरु पर्वत चोटी सी शिला सा मालूम होता है, सिंह तुरन्त हिरन हो जाता है, सर्प उसके लिए फूलों की माला सा हो जाता है तथा विष अमृत की वर्षा के समान हो जाता है ।

लज्जागुणौघजननीं जननीमिव स्वा-
त्यन्तशुद्धहृदयानुवर्तमानाम्
तेजस्विनः सुखसूनपि सन्त्यजन्ति
सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् । । १०८ । ।

अर्थ- तेजस्वी और सत्य पालन में लगे पुरुष, लज्जादि गुणों को उत्पन्न करने वाली अपनी माता के समान शुद्ध हृदय वाली स्वतंत्र प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ते, चाहे इसके लिये उन्हें अपना प्राण ही क्यों न छोड़ना पड़े। अर्थात् अपने प्राणों को भी सुखपूर्वक त्याग देते हैं।

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