लेखक - भवभूति
विधा - नाटक
प्रधान रस - करुण
रीति - वैदर्भी रीति करुण प्रसंगों में और वीर रस के प्रसंगों में गौडी
अङ्क - सात
उपजीव्य - 1. वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड (सर्ग 42-97 तक) 2. पद्मपुराण (पाताल खण्ड 1-68 तक)
- उत्तररामचरितम् विदूषक रहित नाटक है।
- प्रथम अङ्क में चित्रवीथी की योजना है।
- तृतीय अङ्क में छायाङ्क की योजना है। इस छायाङ्क की सबसे बड़ी विशेषता है राम के सीता विषयक वियोग जन्य दुःख को देखकर सीता के मन में राम के प्रति आक्रोश की समाप्ति ।
- उत्तररामचरितम् के द्वितीय अंक के प्रारंभ में वासन्ती और आत्रेयी के द्वारा शुद्ध विष्कम्भक का प्रयोग किया गया है।
- उत्तररामचरितम् के सप्तम अङ्क में गर्भ नाटक की योजना भवभूति की उदात्त मौलिकता की परिचायिका है।
- उत्तररामचरितम् में कुल 256 श्लोक हैं ।
- भवभूति ने उत्तररामचरितम् में 19 छन्दों का प्रयोग किया है ।
- उत्तररामचरितम् में अनुष्टुप् के पश्चात् शिखरिणी छन्द का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है ।
- उत्तररामचरितम् में कुल पात्रों की संख्या 30 है । इनके अतिरिक्त 6 पात्रों का उल्लेख मात्र है ।
- ऋष्यश्रृंग विभाण्डक मुनि के पुत्र थे।
- उत्तररामचरितम् में प्रयोगातिशय नामक प्रस्तावना है।
- प्रमुख पात्र - पुरूष पात्र - राम (नायक), शम्बूक (प्रतिनायक) लक्षमण, वशिष्ठ, वाल्मीकि, ऋष्यश्रृङ्ग, अष्टावक्र, अगस्त्य, सुमन्त्र, दुर्मुख (गुप्तचर), मुनिबालक सौधातकि, लव, कुश, दण्डायन, चन्द्रकेतु, जनक, कञ्चुुुकी।
- स्त्री पात्र - सीता (नायिका), भागीरथी, गोदावरी, तमसा (नदी), मुरला (नदी), वासन्ती (वनदेवता), पृथ्वी, आत्रेयी, कौशल्या, अरुन्धती आदि ।
- उत्तररामचरितम् का मङ्गलाचरण अनुष्टुप् छन्द में है जिसमें नमस्कारात्मक मंगलाचरण है -
विन्देम देवतां वाचममृतामात्मनः कलाम् ।।
- मङ्गलाचरण में द्वादशपदा नान्दी है।
- उत्तररामचरितम् पद में समास है - उत्तरं च तत् रामचरितम् उत्तररामचरितम् (कर्मधारय समास), उत्तरं रामचरितं यस्मिन् तत् उत्तररामचरितम् (बहुव्रीहि समास) ।
सात अंकों के नाम और श्लोक संख्या -
अंक सं. | अङ्क नाम | श्लोक सं. |
---|---|---|
1. | चित्र दर्शन | 51 |
2. | पञ्चवटी प्रवेश | 30 |
3. | छायाङ्क | 48 |
4. | कौशल्या जनक योग | 29 |
5. | कुमार विक्रम | 35 |
6. | कुमार प्रत्यभिज्ञान | 42 |
7. | सम्मेलन | 21 |
उत्तररामचरितम् का कथानक (1-3 अंक)
प्रथम अंक - नान्दी के अनन्तर सूत्रधार रङ्गमञ्च पर आकर भवभूति का परिचय देता हुआ उनके द्वारा निर्मित 'उत्तररामचरितम्' को अभिनीत करने की बात कहता है। वह अपने को अयोध्यावासी कल्पित करके नट से बातचीत करता हुआ आश्चर्य के साथ पूछता है कि इस समय जबकि महाराज राम का पट्टाभिषेक अभी-अभी हुआ है ड्योढ़ी पर चारण भाटों द्वारा मङ्गल गान क्यों नहीं किया जा रहा है। नट उसे बतलाता है कि लंका युद्ध के सभी साथी- हनुमान, सुग्रीव आदि तथा विभिन्न दिशाओं से आये हुए ऋषि एवं राजा गण श्री राम द्वारा विदा कर दिये गये हैं तथा वशिष्ठ के संरक्षण में राम की माताएँ, अरुन्धती आदि जामाता ऋष्यशृंग के द्वादश वार्षिक यज्ञ में सम्मिलित होने को चले गये हैं। यही कारण है कि राजद्वार सुनसान पड़ा हुआ है। सूत्रधार के द्वारा 'जामाता' के सम्बन्ध में जिज्ञासा करने पर नट उसे समझाता है कि किस प्रकार राजा दशरथ के शान्ता नाम की एक कन्या थी वह उन्होंने निःसन्तान राजा रोमपाद को दत्तक पुत्री के रूप में दे दी थी। उस कन्या का विवाह ऋष्यशृंङ्ग के साथ हुआ था। उन्हीं ऋष्य शृङ्ग ने बारह वर्ष तक चलने वाला यह यज्ञानुष्ठान आरम्भ किया है जिसमें रघुवंश के बड़े बूढ़े लोग गये हुए हैं। सूत्रधार और नट के वार्तालाप से यह भी पता चलता है कि देवी सीता के सम्बन्ध में निन्दापरक किंवदन्ती समाज में प्रचलित है और यदि यह बात कदाचित् राम तक पहुँच गई तो बहुत बुरा होगा । इसी समय इन दोनों को ज्ञात होता है कि आज महाराज जनक के भी मिथिला चले जाने पर देवी सीता बहुत ही दुःखी हो गई हैं। उन्हें सान्त्वना देने के लिए राम राजदरबार से रङ्गमहल में गये हुए हैं। यहीं प्रस्तावना समाप्त हो जाती है ।
रंगमञ्च पर राम सीता को सान्त्वना देते हैं। इसी समय गुरु वशिष्ठ के सन्देश वाहक के रूप में ऋषि अष्टावक्र पधारते हैं। कुशल प्रश्न के अनन्तर ऋषि बतलाते हैं कि कुल गुरु वशिष्ठ ने देवी सीता को वीर प्रसविनी होने का आशीर्वाद दिया है, भगवती अरुन्धती और देवी शान्ता ने सीता के गर्भ 'दोहद' को पूर्ण करने का राम को सन्देश दिया है तथा भगवान् वशिष्ठ ने राम को सन्देश भेजा है कि प्रत्येक परिस्थितियों में प्रजानुरञ््जन आवश्यक है । राम यह सन्देश शिरोधार्य करते हैं। अष्टावक्र विश्राम को चले जाते हैं। इसी समय लक्ष्मण आकर देवी सीता और श्री राम से चित्रकार अर्जुन द्वारा अभिलिखित चित्रवीथी देखने की प्रार्थना करते हैं। तीनों ही चित्रवीथी में राम के बाल्यावस्था से लेकर दक्षिणारण्य में जनस्थान की घटनाओं तक के विविध चित्र देखते हैं। जृम्भकास्त्रों के दर्शन, सीता राम का पाणिग्रहण संस्कार का मनोरम दृश्य, बाल घुटाये हुए विवाह के लिए दीक्षित चारों भाई, परशुराम के साथ विवाद का दृश्य, मन्थरा वृत्तान्त, वनगमन के विविध दृश्य – शृङ्गवेरपुर भागीरथी दर्शन, दक्षिणारण्य-पथिकत्व, प्रस्रवण पर्वत, गोदावरी नदी, पंचवटी, जन स्थान आदि को देखकर राम सीता प्रमुदित होते हैं। पुराने दिनों की सङ्कट के समय की स्मृति से कभी हर्ष, कभी विषाद, कभी भय और कभी उत्कण्ठा के भावों से सम्मोहित होकर दोनों ही एक विशेष प्रकार का सन्तोष अनुभव करते हैं। इन दृश्यों को देखकर सीता को पुनः इन वनों को, भागीरथी को देखने का दोहद (गर्भिणी स्त्री की इच्छा) होता है। राम तत्काल उसे पूरा करने के लिए लक्ष्मण को आदेश देते हैं कि सीता की यह इच्छा पूरी की जाये ।
चित्र दर्शन से कठोर गर्भा सीता थक जाती हैं। राम उन्हें सहारा देकर विश्राम कराते हैं। इसी समय दुर्मुख नामक गुप्तचर आकर राम के कान में बतलाता कि है किस प्रकार सीता के सम्बन्ध में रावण के घर किञ्चत् काल तक रहने के कारण लोकापवाद फैला हुआ है। राम यह बात सुनकर मूर्च्छित हो जाते हैं। किन्तु तत्काल लोकानुरंजन के लिए सीता को भी परित्याग करने की अपनी प्रतिज्ञा स्मरण करके, सीता को परम पवित्र जानते हुए केवल प्रजाजन सन्तुष्टि के लिए सदा-सदा के लिए सीता का परित्याग करने का निश्चय कर लेते हैं तथा जो रथ सीता को वन विहार के लिए लाया गया था, उसी पर चढ़ाकर लक्ष्मण के साथ सीता को भेज देते हैं। सीता यही जानती हैं कि वे अभी केवल घूमने जा रही हैं किन्तु राजा राम का लक्ष्मण को आदेश था कि कहीं भयावह अरण्य में सीता को छोड़कर वे चले आयें। इस प्रकार आसन्न प्रसवा सीता का केवल प्रजा को सन्तुष्ट करने के लिए राम परित्याग कर देते हैं और स्वयं भी उस परित्याग जन्य दुःख से अत्यन्त पीड़ित हो जाते हैं।
द्वितीय अङ्क - द्वितीय अङ्क विविध प्रकार की सूचनाओं और घटनाओं से भरा है। आरम्भ में वाल्मीकि आश्रम से चलकर अगस्त्याश्रम को जाती हुई तापसी आयी और वन देवता वासन्ती का वार्तालाप होता है। आत्रेयी वासन्ती को बतलाती है कि इस प्रदेश में अगस्त्य जैसे ब्रह्मवेत्ता महर्षि रहते हैं। उनसे निगमान्त विद्या का अध्ययन करने के लिए वाल्मीकि के आश्रय से आ रही हूँ । वासन्ती द्वारा यह पूछने पर कि अन्य ऋषि भी पुराण ब्रह्मवादी वाल्मीकि के पास ही वेदाध्ययन को आते हैं फिर आप उन्हें छोड़कर अगस्त्य के पास क्यों जा रही हैं - आत्रेयी बतलाती है कि वाल्मीकि के आश्रम में अनेक अध्ययन प्रत्यूह उपस्थित हो गये हैं। एक तो यह कि भगवान् वाल्मीकि के पास किसी देवता विशेष के द्वारा दो विचित्र बालक पहुंचाये गये हैं जिन्होंने अभी-अभी माँ का दूध छोड़ा है। ऋषि ने उनका नाम कुश और लव रक्खा है तथा उन्हें प्रयोग और संहार के मन्त्र सहित जुम्भुकास्त्र सिद्ध हैं । महर्षि वाल्मीकि ने उनके चूड़ाक उपनयन आदि संस्कार स्वयं किये हैं तथा उन्हें वेदत्रयी अध्यापन आरम्भ कराया है। वे बढ़े तीव्र प्रतिभा सम्पन्न बालक हैं उनके साथ हमारा अध्ययन योग सम्भव नहीं है। दूसरे-एक दिन दोपहर के स्नान के लिए जब महर्षि तमसा नदी जा रहे थे तो मार्ग में उन्होंने किलोल करते हुए क्रौञ्च पक्षी के जोड़े में से एक को व्याध के द्वारा मारा जाता हुआ देखा और तत्काल शोक से द्रवित होकर उनके मुख से यह प्रथम संस्कृत वाणी उद्भूत हुई -
मा विषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौञ्च मिथुनादेकमवधी: काम मोहितम् ॥
उसी समय ब्रह्मा ने प्रकट होकर ऋषि से कहा कि आपको शब्द ब्रह्म की सिद्ध हो चुकी है, अब आप रामचरित लिखें । ब्रह्मा की आज्ञा मान कर महर्षि ने रामायण लिखना आरम्भ कर दिया है। अतः अब ऋषि को पढ़ाने का समय ही नहीं मिलता। यही अध्ययन प्रत्यूह हैं।
इतना कहकर आत्रेयी जाना चाहती है और अगस्त्याश्रम का मार्ग पूछती है। जब उसे यह पता लगता है कि जहाँ वह खड़ी है वहाँ तो तपोवन पंचवटी गोदावरी नदी प्रस्रवण पर्वत जनस्थान है तो वह आह भर कर जानकी का स्मरण कर विलाप करने लगती है। आत्रेयी वासन्ती को बताती है कि किस प्रकार लोकापवाद से बचने के लिए राजा राम ने वैदेही का परित्याग कर दिया है और आज तक उनका कोई पता नहीं है, निश्चित ही हिंसक जन्तुओं ने सीता को खा डाला होगा । वासन्ती के यह पूछने पर कि आर्या अरुन्धती, वशिष्ठ आदि के होते हुए भी राम ने यह दुष्कृत्य कैसे कर डाला, आत्रेयी बतलाती है कि उस समय ये सब लोग ऋष्यशृंग के यहाँ यज्ञ में गये हुए थे। इतना ही नहीं, राम ने तो अब स्वर्णमयी सीता की प्रतिकृति को सहधर्मचारिणी बनाकर अश्वमेध यज्ञ आरम्भ कर दिया है। विश्व विजय का द्योतक मेध्याश्व भी भेज दिया गया है जिसका संरक्षक सेनापति लक्ष्मण पुत्र चन्द्रकेतु है। आत्रेयी ने एक घटना की सूचना और दी कि एक दिन अपने मृतक पुत्र को राजद्वार पर पटककर ब्राह्मण ने छाती पीटकर रोना आरम्भ कर दिया। राम ने राजा के दोष के बिना प्रजा की अकाल मृत्यु नहीं हो सकती यह मानकर अपना ही दोष समझा। इसी बीच आकाशवाणी ने बताया कि शम्बूक नामक एक वृषल तपस्या कर रहा है— उसे मारकर ब्राह्मण पुत्र को जीवित किया जा सकता है। तभी से राम पुष्पक विमान पर चढ़कर सभी दिशाओं में उस शम्बूक को ढूंढ़ते फिर रहे हैं। वासन्ती बताती है कि इसी जनस्थान में शम्बूक तपस्या कर रहा है। यह जानकर कि राम इस प्रसंग में यहीं आ सकते हैं - वासन्ती प्रमुदित होती है। ये विविध आश्चर्यजनक सूचनायें देकर आत्रेयी चली जाती है।
रंगमंच पर पुष्पक विमान पर सवार राम का प्रवेश होता है। उन्होंने जनस्थान में शम्बूक का वध कर दिया है। वह दिव्य पुरुष होकर राम की स्तुति करता हुआ अपने गुरु अगस्त्य के पास चला जाता है। इधर राम को जब यह पता चलता है कि यह पंचवटी और जनस्थान का संभाग है तो वे सीता के साथ बनवास के दिनों की याद करके विह्वल हो जाते हैं। सीता के साथ के विविध प्रसंग, घटनायें एवं वे भूमि भाग देखकर राम फूट-फूट कर रोने लगते हैं। इसी समय ऋषि अगस्त्य का सन्देश लेकर शम्बूक पुनः आता है और राम ऋषि को सम्मानित करने एवं भगवती लोपामुद्रा का स्नेह प्राप्त करने के लिए अनिच्छा पूर्वक भी पंचवटी से चले जाते हैं।
तृतीय अंक - आरम्भ में शुद्ध विष्कम्भक के माध्यम से विविध सूचनायें दी गई हैं। अधिष्ठात्री देवियों के रूप में 'तमसा' और 'मुरला' दो नदियाँ 'रंगमंच पर आती हैं। दोनों के वार्तालाप द्वारा यह ज्ञात होता है कि भगवती लोपामुद्रा ने आशंकित होकर गोदावरी के पास मुरला के द्वारा यह सन्देश भिजवाया है कि शम्बूक को मारने के बाद राम जब अयोध्या जाने लगेंगे तो मार्ग में पूर्वानुभूत पंचवटी जनस्थान आदि प्रदेशों को देखकर उन्हें सीता का स्मरण हो आयेगा और भावाभिभूत होकर हो सकता है कि वे अनेक बार मूच्छित हो जायें, उस समय सावधान रहना और अपनी शीतल तरंग वायुओं से आवश्यकता पड़ने पर राम को शीतलता प्रदान कर उन्हें सचेतन रखने का पूरा प्रयत्न करना। इस पर तमसा कहती है कि बड़े बूढ़ों की यह आशंका और उनका यह स्नेह उचित ही है किन्तु राम पर शोक द्रवित होकर कोई संकट न आये- इसकी व्यवस्था तो भगवती भागीरथी ने पहले से ही कर दी है। तमसा बताती है कि किस प्रकार जब लक्ष्मण सीता को वन प्रान्त में छोड़कर चले गये तो प्रसव वेदना से पीड़ित होकर सीता ने अपने को गङ्गा की धार में झोंक दिया था, वहीं उन्होंने दो बच्चों को जन्म दिया और कुछ दिन तक पृथ्वी एवं भागीरथी ने माता को अपने पास ही रसातल में रखा । बाद में जब बच्चे माँ का दूध छोड़ने की अवस्था में पहुंचे तो गंगा ने वे दोनों बच्चे महर्षि वाल्मीकि को दे दिये । इस समय शम्बूक के प्रसंग में राम का यहाँ आना जानकर भगवती भागीरथी भी सीता को लेकर गोदावरी के पास आई हुई हैं। उन्होंने मुझे (तमसा को) आदेश दिया है कि मैं सीता के साथ ही रहूं और सीता को आदेश दिया है कि तेरे बच्चों की बारहवीं वर्ष गांठ है, द्वादश आदित्य तुम्हारे श्वसुर वंश के पूर्व गुरु हैं अतः यह द्वादश वर्ष बच्चों के लिए अत्यधिक माङ्गलिक है । आज तुम अपने हाथ से चुने हुए पुष्पों से भगवान् सूर्य की पूजा करो । पृथ्वी पर तुम्हें मेरे प्रभाव से वन देवता भी नहीं देख सकते हैं और की तो बात क्या है। किन्तु तुम सबको ही देख सकती हो। इस वार्तालाप के बाद रंगमंच पर विरह व्यथा से पीड़ित जानकी आती हैं। इसी समय राम भी पुष्पक पर चढ़ कर अयोध्या जाते हुए वहाँ रुक जाते हैं । जैसे ही राम विमान को रुकने का आदेश देते हैं उनके इस मेघ गम्भीर शब्द को सुनकर सीता पहचान जाती हैं। तमसा बतलाती है कि किस प्रकार शम्बूक को मारने के प्रसंग में राम का यहाँ आना सम्भावित है। दोनों राम को पहचानती हैं – किन्तु राम गङ्गादेवी के प्रभाव और वरदान के कारण प्रत्यक्ष सीता नहीं देख पाते हैं। राम उन पूर्व परिचित एवं प्रिया सीता के साथ उपभुक्त स्थानों को देखकर मूर्च्छित हो जाते हैं । अत्यन्त कारुणिक वातावरण के मध्य सीता राम का स्पर्श करती हैं। राम इस पूर्व परिचित स्पर्श को पाकर पुनः होश में आते हैं और सीता को ढूँढ़ने लगते हैं- किन्तु सीता उन्हें नहीं दिखती हैं।
इसी समय वनदेवता वासन्ती का प्रवेश होता है। वह घबड़ाती हुई कहती है कि सीता देवी ने जिसे अपने हाथों से सल्लकी के पल्लव खिला-खिलाकर बड़ा किया था वह हाथी का छोटा बच्चा अपनी बहू हथिनी के साथ जल विहार कर रहा था कि अन्य मदमत्त गजपति ने उस पर आक्रमण कर दिया। सीता यह सुनकर व्यग्र हो जाती हैं। वासन्ती को देखकर राम और सीता दोनों ही आश्चर्य में पड़ जाते हैं। जब वासन्ती राम से कहती है कि देव शीघ्रता करें उस करिकलभ को बचाने के लिए। जटायु शिखर के दक्षिण में सीता तीर्थ से होकर गोदावरी के तट पर पहुँच जायेंगे- वहीं तो है वह इन पूर्व परिचित स्थानों के नाम सुनकर और उन्हें देखकर राम का हृदय विदीर्ण होने लगता है। राम चलना ही चाहते हैं कि वासन्ती सूचना देती है कि वह करिकलभ विजयी हो गया है । सभी प्रमुदित होते हैं। सीता कामना करती हैं कि वह दीर्घायु अपनी प्रिया से अवियुक्त रहे। इसी प्रसंग में सीता को अपने पुत्रों का स्मरण हो आता है। वे सोचती हैं- यह हाथी का बच्चा तो इतना बड़ा हो गया मेरे बच्चे जाने कितने बड़े हो गये होंगे। मैं कितनी अभागिनी हूँ- जिसे न केवल आर्य पुत्र विरह ही सहना पड़ा बल्कि पुत्र विरह भी भोगना पड़ रहा है। तमसा सीता को सान्त्वना देती है। इसी समय एक मयूर दिख जाता है। वासन्ती राम को बतलाती है कि यह वह मयूर है जिसे सीता ने पाला पोसा था और जिसे वह नृत्य सिखाया करती थीं- अब यह कदम्ब वृक्ष पर अपनी वधू के साथ बैठा हुआ अनान्दित हो रहा है। वासन्ती राम को वह शिलापट्टक भी दिखाती है जहाँ बैठकर सीता हरिणों को तृण चुगाती थीं और हरिण उन्हें घेरे रहते थे। राम उसे देखकर व्याकुल हो जाते हैं, सीता भी उन स्थानों को, उन दृश्यों को देखकर और अपनी स्थिति पर विचार कर अत्यन्त दुःखी हो जाती हैं। अब राम और वासन्ती एक स्थान पर बैठ जाते हैं, वार्तालाप आरम्भ करते हुए वासन्ती राम से केवल कुमार लक्ष्मण की कुशल पूछती है, सीता की चर्चा नहीं करती ! राम अनसुनी कर देते हैं। वासन्ती पुनः राम को 'महाराज' सम्बोधन करते हुए कुमार लक्ष्मण की ही कुशल पूछती है। इस निष्प्रणय सम्बोधन को सुनकर राम समझ जाते हैं कि वासन्ती को सीता के सम्बन्ध में सब कुछ विदित हो गया है। राम द्रवित होने लगते हैं। वासन्ती राम के इस कृत्य पर उन्हें रोष भरा उपालम्भ देती है। राम कहते हैं कि यह सब मैंने 'लोकरंजन' के लिए किया है। दुःखी राम का इस वातावरण में हृदय विदीर्ण होने लगता है, वे प्रलाप करने लगते हैं और अपनी वेदना थामते हुए वासन्ती को बताते हैं कि आज देवी सीता के परित्याग को बारह वर्ष हो गये, उसका नाम भी समाप्त हो गया फिर भी यह कठोर राम जीवित है। वासन्ती राम को विविध प्रकार से सान्त्वना देती है, प्रसंग बदलती है किन्तु राम का शोकवेग कम नहीं होता है और वे पुनः मूर्च्छित हो जाते हैं। तमसा के समझाने पर पुनः सीता राम का स्पर्श करती हैं, राम पुनः चेतना प्राप्त करते हैं। सीता ही का स्पर्श जानकर उन्हें ढूंढ़ने का प्रयत्न करते हैं । किन्तु वहाँ खड़ी हुई सीता को गंगा के प्रभाव के कारण देख नहीं पाते हैं। राम का स्पर्श पाकर सीता को भी सांसारिक भाव के साथ सत्वोद्रेक होता है। कुछ देर के लिए वे भूल जाती हैं कि मैं परित्यक्ता हूँ। राम को सतत देखते रहने को वे लालायित हो जाती हैं। राम सोचते हैं कि सीता के प्रथम वियोग में मेरे बहुत सहायक थे किन्तु संप्रति इस वियोग में तो सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान सब का ही शौर्य व्यर्थ है। यहाँ न नल सेतु बना सकते हैं, और न लक्ष्मण के बाण कारगर सिद्ध हो सकते हैं, यह तो निरवधि वियोग है। यह सुनकर सीता और भी विषण्ण हो जाती हैं। इसके बाद राम अयोध्या जाना चाहते हैं और कहते हैं कि वहाँ हिरण्मयी सीता की प्रतिकृति देखकर ही कुछ मनोविनोद करूंगा। यह जानकर सीता का परित्याग जन्य दुःख, राम के प्रति मन्यु सब समाप्त हो जाते हैं। राम पुष्पक पर चढ़कर चले जाते हैं, वासन्ती राम की और तमसा सीता की मङ्गल कामना करती हुई चली जाती है।
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