शनिवार, 24 अप्रैल 2021

मेघदूतम् (सामान्य परिचय)

  • इस खण्डकाव्य के लेखक  महाकवि कालिदास है । यह खण्डकाव्य दूतकाव्य के रूप में एक गीतिकाव्य है, जिसमें एक यक्ष का विरह वर्णित है ।
  • संस्कृत के गीतिकाव्यों का आदिम ग्रन्थ कालिदास का मेघदूत है।
  • मेघः एव दूतः यस्मिन् काव्ये तत् मेघदूतम् । इस प्रकार मेघदूतम् में बहुव्रीहि समास है ।
  • संस्कृत के गीतिकाव्यों का आदिमग्रन्थ महाकवि कालिदास का मेघदूतम् ही है ।
  • यह दो भागों में विभक्त है - पूर्वमेघ और उत्तरमेघ
  • इस खण्डकाव्य में कुल 115 पद्य हैं । मल्लिनाथ ने 121 पद्य स्वीकार किये हैं, किन्तु 6 श्लोकों को प्रक्षिप्त मानते हुए 115 की संख्या को प्रामाणिक माना है । वल्लभदेव की टीका के अनुसार 111 पद्य हैं । पूर्वमेघ में 63 और उत्तरमेघ में 52 पद्य हैं ।
  • पूर्वमेघ में अलकापुरी तक के मार्ग का वर्णन है ।
  • उत्तरमेघ में अलकापुरी का वर्णन है ।
  • इस खण्डकाव्य का प्रधान रस विप्रलम्भ श्रृंगार है ।
  • अलंकार - उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग है ।
  •  सम्पूर्ण मेघदूतम् में मन्दाक्रान्ता छन्द है ।
  • मन्दाक्रान्ता छन्द का लक्षण - "मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ गयुग्मम्" इस लक्षण के अनुसार मन्दाक्रान्ता छन्द के प्रत्येक पाद में मगण (SSS), भगण (Sll), नगण (lll), दो तगण (SSl, SSl) तथा दो गुरु होते हैं । इसमें प्रत्येक चरण में 17  वर्ण होते हैं । चौथे, छठे तथा सातवें वर्णों पर यति होती है ।
  • इस खण्डकाव्य या गीतिकाव्य की रीति- वैदर्भी है । वैसे भी कालिदास वैदर्भी रीति के लिए प्रसिद्ध हैं। कहा भी गया है - वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालीदासोविशिष्यते ।
  • मेघदूतम् में प्रसाद एवं माधुर्य गुण की प्रधानता है ।
  • मेघदूतम् का मङ्गलाचरण - वस्तुनिर्देशात्मक है ।
  • मङ्गलाचरण -
                                कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः
                                शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्त्तुः ।
                                यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
                                स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ।।

  • उपजीव्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण से लिया गया है और दूत की कल्पना बाल्मीकीयरामायण से ली है।
  • यक्ष को अल्काधीश्वर कुबेर ने जो शाप दिया उसका आधार पद्मपुराण है । वहाँ के योगिनी नामक आषाढ़-कृष्ण-एकादशी-महात्म्य प्रसंग में यह कथा संक्षेप में है ।
  • इस खण्डकाव्य का नायक - यक्ष है जो कि धीरललित नायक है ।  ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसका नाम हेममाली है।
  • नायिका - यक्षिणी है, जो कि स्वकीया एवं पद्मिनी नायिका है । जिसका नाम ब्रह्मवैवर्तपुारण में विशालाक्षी है।
  • इसके प्रमुख पात्र - यक्ष, यक्षिणी, मेघ, कुबेर (यक्षाधिपति) ।
  • मेघदूतम् के आरम्भ  में यक्ष अपने शापावधि के 8 माह काट चुका है और 4 माह शेष बचे हैं ।
  • यक्षों के अधिपति कुबेर की राजधानी अलका है । इसकी स्थिति हिमालय पर्वत श्रृंखला के कैलाश नामक शिखर पर बतलायी गयी है ।
  • रामगिरि पर्वत की स्थिति मल्लिनाथ तथा वल्लभ ने चित्रकूट मानी है, जो बुन्देलखण्ड में है ।
  • टीकाएं - मेघदूतम् पर अब तक लगभग 20 भाषाओं में 50 से अधिक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं, लेकिन मल्लिनाथ की टीका सबसे प्रामाणिक मानी जाती है ।
  • सबसे सर्वश्रेष्ट टीका मल्लिनाथ की सञ्जीवनी टीका है ।
  • जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने मेघदूतम् का जर्मन भाषा में पद्यानुवाद किया है ।
  • श्वेट्ज ने जर्मन भाषा में गद्यानुवाद किया है ।
  • आर्थर राइडर और एच.जी.रूक ने अंग्रेजी में मेघदूतम् का पद्यानुवाद किया है ।
  • हिन्दी भाषा में मेघदूतम् के 6 पद्यानुवाद हो चुके हैं ।
  • डॉ. कीथ ने मेघदूतम् को शोकगीत कहा है ।
  • भारतीय मत में मेघदूत शोकगीत या करुणगीत न होकर विरहगीत या विप्रलम्भगीत है।
  • क्षेमेन्द्र ने सुवृत्ततिलक में सुवशा कालिदासस्य मन्दाक्रान्ता विराजते कहकर मन्दाक्रान्ता छन्द की प्रशंसा की है ।
  • कालिदास की इस कृति के विषय में समीक्षको ने कहा है कि - मेघे माघे गतं वयः ।
प्रमुख सूक्तियां -
  • कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाऽचेतनेषु।
  • याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।
  • आशाबन्ध: कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम्।
         सद्य: पाति प्रणयि हृदयं विप्रोगे रुणद्धि ॥
  • न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
        प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः ॥
  • रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ॥
  • स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥
  • मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः ॥
  • ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ॥
  • आपन्नार्तिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्युत्तमानाम् ॥
  • के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः ॥
  • सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् ॥
  • प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा ॥
  • कान्तोदन्तः सुहृदुपगतः संगमात्किञ्चिदूनः ॥
  • अव्यापन्नः कुशलमबले पृच्छति त्वां वियुक्तः,   पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव ॥
  • कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा, नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्र-नेमि-क्रमेण ॥
  • स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा-  दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ॥
  • प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव ॥

मेघ के अलकापुरी तक जाने में वर्णित प्रदेश, नदियाँ और पर्वत

 

प्रदेश नदियाँपर्वत
माल प्रदेशरेवा (नर्मदा नदी)रामगिरी        
दशार्ण(1)वेत्रवतीआम्रकूट
विदिशा(2)निर्विन्ध्या(5)विन्ध्याचल
अवन्ति(3)सिन्धु(6)नीचै(9)
उज्जयिनी(4)गन्धवती(7)देवगिरि
दशपुरगम्भीरा(8)हिमालय
ब्रह्मावर्तचर्मण्वती (चम्बल नदी)    क्रौंच
कुरुक्षेत्रसरस्वतीकैलाश
कनखलगंगा...........

  1.  दशार्ण की राजधानी विदिशा है जो कि वेत्रवती नदी पर स्थित है ।
  2. विदिशा में नीचै पर्वत है ।
  3. उज्जयिनी जाते समय रास्ते में पड़ती है ।
  4. उज्जयिनी जिसका दूसरा नाम विशाला भी है ।
  5. निर्विन्ध्या नदी उज्जयिनी जाते हुए रास्ते में पड़ती है ।
  6. शिप्रा नदी के तट पर उज्जयिनी नगरी बसा हुआ है ।
  7. गन्धवती नदी महाकाल के उद्यान के समीप स्थित है ।
  8. गम्भीरा नदी उज्जयिनी से अलकापुरी को जाते हुए रास्ते में पड़ती है ।
  9. वैश्याओं से युक्त, विदिशा नगरी में यह पर्वत है ।
पूर्वमेघ में मेघ के मार्ग में क्रमशः वर्णित नदियों का परिचय -
1. रेवा नदी -
                            स्थित्वा तस्मिन् वनचर-वधू-भुक्त-कुञ्जे मुहूर्तं
                            तोयोत्सर्ग-द्रुततर-गतिस्तत्परं वर्त्म तीर्णः ।
                            रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णाँ
                            भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमङ्गे गजस्य ।। (श्लो-19)
        
        यक्ष मेघ से कहता है कि आम्रकूट पर्वत वनवासियों की स्त्रियों द्वारा उपभुक्त हैं। उस आम्रकूट पर्वत पर दो घडी रुककर, जल बरसा कर जब तुम हल्का हो जाओगे तो तुम्हारी गति तीव्र हो जाएगी। आम्रकूट से प्रस्थान करने के बाद मेघ को उबड़-खाबड़ विन्ध्याचल पर्वत मिलेगा । जैसे हाथी के शरीर पर रेखाएं चित्रित होती हैं उसी प्रकार विंध्याचल की तलहटी में बिखरी हुई रेवा नदी (नर्मदा) मिलेगी।

2. वेत्रवती नदी -
                            तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं
                            गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा ।
                            तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात्
                            सभ्रूभङ्गं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि ।।    (श्लो. 25)

        यक्ष मेघ से कहता है कि, उस विदिशा नामक राजधानी में जाकर तुम वहाँ पर अपनी सम्पूर्ण कामुकता का फल प्राप्त करोगे । तुम वेत्रवती नदी के किनारे सुन्दर गर्जना के साथ चञ्चल लहरों वाले जल को, भ्रू-विलासयुक्त नायिका के अधर-पान के समान स्वादिष्ट जल पियोगे ।  अर्थात् तुम वेत्रवती का जल वहाँ पीयोगे । वेत्रवती नदी की उपमा भ्रूभङ्गयुक्त नायिका से की गई है ।

3. निर्विन्ध्या नदी -
                           वीचिक्षोभ-स्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः
                           संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभेः ।
                           निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः सन्निपत्य
                            स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ।।    (श्लो. 29)
        उज्जयिनी जाते हुए मेघ मार्ग में निर्विन्ध्या नदी से मिलता है जो पक्षियों की पंक्ति रूपी करधनी वाली है। निर्विन्ध्या अपनी भंवर रूपी नाभि दिखाती है और उसके द्वारा दिखाया गया विभ्रम ही प्रथम प्रणयवचन है। अर्थात् प्रेमी के निकट हाव भाव का प्रगट करना ही स्त्रियों का प्रथम प्रेम-वचन है - स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ।
4. सिन्धु नदी -
                           वेणीभूत-प्रतुनु-सलिलाSसावतीतस्य सिन्धुः
                            पाण्डुच्छाया तट-रुह-तरु-भ्रंशिभिर्जीर्णपर्णैः ।
                            सौभाग्यं ते सुभग ! विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती
                            कार्श्यं येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः ।। (श्लो. 30)
        यक्ष मेघ से कहता है - निर्विन्ध्या को पार कर मेघ सिन्धु नदी के समीप पहुंचेगा ।  हे मेघ  ! तुम सौभाग्यशाली हो कि सिन्धु नदी तुम्हारे विरह में एक वेणी के समान पतली जल धारा वाली हो गई है और कृश होकर तुम्हारे सौभाग्य को व्यक्त कर रही है । उस सिन्धु नदी के तट के किनारे उगे हुए वृक्षों से गिरने वाले पीले पत्तों से उसकी छाया पीली हो गई है इसलिए तुमको वह उपाय करना चाहिए जिससे वह दुर्बलता त्याग दे ।

5. शिप्रा नदी -
                        दीर्घीकुर्वन् पटु मदकलं कूजितं सारसानां
                        प्रत्यूषेषु स्फुटित-कमलामोद-मैत्री-कषायः ।
                        यत्र स्त्रीणां हरति सुरत-ग्लानिमङ्गानुकूलः
                        शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः ।। (श्लो. 32)
        
        शिप्रावात को नदी के चाटुकार प्रियतम के रूप में चित्रित किया गया है । यह शिप्रावात स्त्रियों की सुरत क्रीडा को हरने वाला है । प्रातः काल सारसों के तेज कूजन को यह शिप्रावात बहुत दूर तक ले जाती है । शिप्रा नदी में कमल लगे हुए हैं और कमलों से जब शिप्रावात अर्थात् वायु की मैत्री होती है तो वायु सुगन्धित हो जाती है । इसी नदी के तट पर उज्जयिनी है।

6. गन्धवती नदी -
                        भर्तुः कण्ठच्छविरिति गणैः सादरं वीक्ष्यमाणः
                        पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डीश्वरस्य ।
                        धूतोद्यानं कुवलय-रजोगन्धिभिर्गन्धवत्या-
                        स्तोयक्रीडा-निरत-युवति-स्नानतिक्तैर्मरुद्भिः ।। (श्लो. 34)
        
        यक्ष मेघ से कहता है कि तुम कमलों के परागों से सुगन्धित व जलक्रीड़ा में संलग्न युवतियों के स्नान द्रव्यों से सुरभित गन्धवती नामक नदी की वायु से कम्पित (झूमते) उद्यानों वाले तीनों लोकों के गुरु, चण्डी के स्वामी अर्थात् महादेव के पवित्र मंदिर में जाओगे । तुम्हारी छवि नील कण्ठ के समान है इसलिए महादेव के गणों के द्वारा तुम बहुत आदर के साथ देखे जाओगे ।

7. गम्भीरा नदी -
                        गम्भीरयाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने
                        छायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम् ।
                        तस्मादस्याः कुमुदविशदान्यर्हसि त्वं न धैर्या-
                        न्मोघीकर्तुं चटुल-शफरोद्वर्तन-प्रेक्षितानि ।।
                        तस्याः किंचित् करधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं
                        नीत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधो नितम्बम् ।
                        प्रस्थानं ते कथमपि सखे ! लम्बमानस्य भावि
                        ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ।।     (श्लो- 41-42)
        उज्जयिनी के पक्षात् मेघ के मार्ग में गम्भीरा नदी आती है। मेघ गम्भीरा नदी का जल पियेगा।किन्तु वहाँ देर न करे ऐसा निर्देश भी मेघ को मिलता है। ज्ञातस्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः । प्रसिद्ध गम्भीरा नदी के वर्णन में आती है, जिसका अर्थ है - सम्भोग के आस्वाद को जान चुका कौन-सा पुरुष खुली जाँचवाली (कामिनी) को छोड़ सकने में समर्थ होगा ? अर्थात् कोई भी नहीं। यक्ष जल को 'गम्भीरा' का वस्त्र, किनारों को नितम्ब तथा बेंत की शाखाओं को उसका हाथ बताता है।

8. चर्मण्वती नदी -
                        आराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लङ्घिताध्वा
                        सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभयाद् वीणिभिर्मुक्तमार्गः ।
                        व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्
                        स्त्रोतोमूर्त्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम् ।।
                        त्वय्यादातुं जलमवनते शार्ङ्गिणो वर्णचौरे
                        तस्याः सिन्धोः पृथुमपि तनुं दूरभावात्प्रवाहम् ।
                        प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्ज्य दृष्टी-
                        रेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम् ।।    (श्लो- 46-47)

यक्ष मेघ से कहता है कि, तुम सरकण्डों के वन में उत्पन्न देव कार्तिकेय की आराधना करके रास्ते को पार करना । जल कणों के भय से वीणा लिए हुए सिद्ध के जोड़ों केे द्वारा तुम्हारा मार्ग छोड़ दिया जायेगा । जब तुम चर्मण्वती नदी का जल लेने के लिए झुकोगे तो तुमको उस नदी का सम्मान करना चाहिए जो रन्तिदेव की कीर्ति-स्वरूपा है। जब तुम जल लेने के लिए झुकोगे तो तुम भगवान् कृष्ण के वर्ण को चुराने वाले लगोगे और उस नदी के प्रवाह को दूर से देखने पर मोटा होने पर भी पतला दिखायी देगा । आकाश में विचरण करने वाले जब तुमको एक टक नजर से देखेंगे कि मानो पृथ्वी के गले में पड़ी हुई मोतियों की माला के बीच में एक इन्द्रनील मणि शोभायमान हो रही है । क्योंकि तुम्हारा यह शरीर उस चर्मण्वती नदी मे बड़ी इन्द्रनील मणि के समान दिखाई देगी ।

9. सरस्वती -

                            हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्कां

                            बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे ।

                             कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य ! सारस्वतीनाम्

                             अन्तःशुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः ।। (श्लो - 50)

यक्ष मेघ से कहता है कि, हे सौम्य !  बन्धु बांधवों (पांडव और कौरव) के प्रति प्रेम के कारण बलरामजी महाभारत के युद्ध से विमुख होकर तीर्थयात्रा पर चले गये थे और बलराम जी ने अपनी अत्यन्त प्रिय सुरा को, जिसे उनकी पत्नी रेवती बना कर देती थी, ऐसी सुरा को त्याग कर जिस सरस्वती नदी के जल का सेवन किया, उसी सरस्वती नदी के जल का सेवन करके अंदर से पवित्र  हो जाओगे और केवल तुम वर्ण मात्र से श्याम रह जाओगे ।  उनकी पत्नी रेवती के आँखों की उपमा सरस्वती नदी से की गयी है। लाङ्गली (हल) अर्थात् बलराम का नाम है ।

10. गंगा नदी -

                        तस्माद् गच्छेरनुकनखलं शैलराजावतीर्णां

                        जह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम् ।

                        गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः

                         शंभोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोर्मिहस्ता ।।    (श्लो. 51)

कुरुक्षेत्र से आगे कनखल नामक पर्वतीय तीर्थस्थल पर मेघ पहुँचेगा, जहाँ पर सगर-पुत्रों के लिए स्वर्गारोहण की सीढ़ी बनी, हिमालय से अवतीर्ण गंगा अपने फेन और लहरों रूपी हाथों से शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा और शिव की जटाओं को पकड़ कर पार्वती जी का उपहास करती सी, जह्नुकन्या गङ्गा का दर्शन होगा ।

मेघदूतम् (कथावस्तु - पूर्वमेघ)

महाकवि ने वर्णन की दृष्टि से मेघदूत को दो भागों में विभक्त किया है 1. पूर्वमेघ 2. उत्तरमेघ।

पूर्वमेघ में अलका के लिए प्रस्थान करने वाले मेघ के मार्ग का वर्णन है।इसी के वर्णन प्रसङ्ग में अनेक देशों, नदी, पर्वत एवं नगरों का वर्णन है । और उत्तरमेघ में अलका की समृद्धि, ऐश्वर्य, यक्षिणी का सौन्दर्य एवं उसकी वियोगदशा का वर्णन है। अन्तिम कुछ पद्यों में यक्ष का सन्देश वर्णित है।

पूर्वमेघ की कथावस्तु -

  • अलकापुरी के अधीश्वर धनपति कुबेर ने अपने किंकर यक्ष को प्रतिदिन मानसरोवर से 100 ताजे स्वर्णकमल के पुष्प तोड़कर शिव की आराधना के लिए मन्दिर में लाने के काम पर नियुक्त किया था।
  • यह कार्य उसे प्रतिदिन प्रातः काल में करना होता था परन्तु अपनी नव-विवाहिता पत्नी के साथ अधिक समय बिताने के कारण वह प्रातःकाल जल्दी उठ नहीं पाता था। इस कष्ट के निवारण के लिए एक युक्ति का सहारा लेकर अपने कर्तव्य से हटकर प्रातःकाल की बजाय सायंकाल पुष्प तोड़कर मन्दिर में पहुँचाना प्रारम्भ कर दिया। यह क्रम चलता रहा लेकिन इस चालाकी का पता नहीं चल पाया। दुर्भाग्य से एक दिन सायंकाल एक भ्रमर कमल में बन्द हो गया और प्रातःकाल कुबेर के पुष्पार्पण के समय निकलकर उसने कुबेर को डंक मार दिया। पता करने पर कुबेर को यक्ष की कर्तव्यच्युति की जानकारी मिली तो राजा ने इस कर्तव्य के प्रमाद का कारण यक्ष की पत्नी को माना । यक्ष अपनी पत्नी के आसक्ति के कारण अपने कार्य में प्रमाद करता है इसलिए अपने कर्तव्य के पालन में प्रमाद करने वाले यक्ष को  स्वामी कुबेर ने एक वर्ष का निर्वासन अर्थात् अपनी पत्नी से वियुक्त रहने का शाप दे दिया।
          यद्यपि कालिदास ने मेघदूत में कहीं भी इस यक्ष का नाम नहीं लिया परन्तु ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस यक्ष का नाम हेममाली तथा यक्षिणी का नाम विशालाक्षी मिलता है । मेघदूत के आरम्भ में यक्ष अपने शापावधि के 8 माह काट चुका है और चार माह शेष हैं।
  1. शाप के कारण अपनी महिमा को खो देने वाला यक्ष अपना निर्वासित जीवन सीता के स्रान करने से पविल हुए जल वाले तथा घने छायादार वृक्षों वाले रामगिरि पर्वत पर व्यतीत कर रहा है । रामगिरि पर्वत मल्लिनाथ के अनुसार चित्रकूट में है। (श्लो. 1)
  2. एक दिन, आषाढ़ मास के प्रथम दिन में यक्ष जो अत्यन्त निर्वल हो गया है, तथा जिसकी कलाई का कंगन शारीरिक दुर्बलता के कारण गिर गया है, वह मिट्टी के टीले पर टेढ़े होकर दन्त-प्रहार करने वाले हाथी के समान दर्शनीय पर्वतचोटी से सटे मेघ को देखता है। (श्लो. 2)
  3. मेघ को देखते हुए अत्यन्त विरह-वेदना से व्याकुल यक्ष विचार करता है कि मेघ को देखने से सुखी पुरुषो का मन भी आसक्त हो जाता है, तो फिर कंठालिंगन की प्रार्थना करने वाले लोग केसे अपनी प्रियतमा से दूर रह सकेंगे । (श्लो. 3)
  4. यक्ष सर्वप्रथम मेघ के आने पर उसका स्वागत कुटज पुष्प व खिले हुए चमेली के पुष्पों से करता है । तदनन्तर अपनी प्रियतमा के जीवन को चाहते हुए, अपनी कुशलवार्ता अपनी प्रिया तक पहुँचाने के लिए,  मेघ को संदेशवाहक बनाने का निश्चय करता है। (श्लो. 4)
  5. कालिदास यहाँ पर मेघ किन किन पदार्थों से बना है, बताते हैं- धूमज्योतिः सलिलमरुतां अर्थात्  मेघ धूआँ, अग्नि, जल एवं वायु से बना है । काम-पीड़ित यक्ष उस समय यह भी भूल जाता है कि अचेतन मेघ उसका सन्देशवाहक कैसे बनेगा ? यक्ष जड़ मेघ से भी कामार्त के कारण सन्देश ले जाने का निवेदन करता है। (श्लो. 5)
  6. यक्ष मेघ से कहता है कि आप पुष्कर एवं आवर्तक नाम के मेघों के प्रसिद्ध वंश में पैदा हुए हो, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले हो, इन्द्र के प्रधानपुरुष हो और मैं कान्ता-वियुक्त दूरदेश में स्थित हूँ । इसलिए आपसे अपनी प्रियतमा तक सन्देश भेजने की प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि सूक्ति भी है - याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा' अर्थात् गुणवान् से ही याचना करनी चाहिए भले ही याचना व्यर्थ हो जाये, नीच व्यक्ति से याचना नहीं करनी चाहिए, भले ही सफलता प्राप्त हो जाये । (श्लो. 6)
  7. यक्ष मेघ को सन्तप्तों का शरण बताता है और उससे अपना सन्देश अपनी प्रियतमा तक अलका भेजना चाहता है। अलका के बाहरी उद्यान में स्थित भगवान् शिव के मस्तक पर सुशोभित चन्द्र की चाँदनी से वहाँ के महल धवल हैं। (श्लो. 7)
  8. यक्ष मेघ से कहता है कि जब तुम वायु मार्ग में आरोहण करोगे तो उस समय प्रवासी पुरुषों की स्त्रियाँ पति के आगमन की आशा से विश्वास के साथ अपनी केशों के अग्र भाग को उठा कर तुमको देखेंगी । तुम्हारे दिखने पर विरह से व्याकुल स्त्री की कौन उपेक्षा करेगा । (श्लो. 8)
  9. यक्ष मेघ से कहता है कि मन्द-मन्द बहता अनुकूल पवन तुम्हारी यात्रा में सहायता करेगा। चातक पक्षी वामभाग में मधुर ध्वनि करेंगे। गर्भाधान के उत्सव काल के परिचय से बगुलों की पंक्ति आकाश में मेघ की सेवा करेंगी। (श्लो. 9)
  10. यक्ष को विश्वास है कि निर्बाधगति वाला मेघ अलका पहुँचने पर, वियोग के दिनों को गिनने में आसक्त होने के कारण प्राणधारण करती हुई मेरी उस पतिव्रता स्त्री तथा अपनी भाभी यक्षिणी को  अवश्य देखेगा । (श्लो. 10)
  11. यक्ष मेघ से कहता है कि तुम्हारा कानों को मधुर लगने वाला गर्जन सुनकर मानसरोवर जाने को उत्सुक तथा मार्ग में भूख मिटाने के लिए चोंच में कमलनाल के टुकड़े लिए हुए राजहंस तुम्हारे के साथी होंगे। (श्लो.11)
  12. यक्ष मेघ से कहता है कि श्रीरामचन्द्र के चरणचिह्नों से युक्त रामगिरि पर्वत का आलिंगन करके और अपने इस मित्र (रामगिरि पर्वत) से जाने की विदाई लेना। (श्लो. 12)
  13. यक्ष मेघ से कहता है कि हे जलद ! पहले मैं तुम्हारे जाने के अनुकूल मार्ग को कह रहा हूँ, उसे सुनो, फिर उसके बाद मेरा सन्देश सुनना । मार्ग में थक जाने पर पर्वतों पर विश्राम कर लेना और कमजोर हो जाने पर नदियों का हल्का एवं सुपाच्य जल पीकर स्वास्थ्य लाभ कर लेना। (श्लो. 13) 
  14. यक्ष मेघ से कहता है कि तुम्हें जाते देख भोली-भाली सिद्धाङ्गनाएँ ऊपर की ओर मुख करके तुम्हे देखेंगी और सोचेंगी कि, वायु पहाड़ की चोटी  को उड़ाये लिए जा रहा है", और इसी भाव के कारण चकित होकर अपने नयनों से तुम्हें देखेंगी। तुमको इस स्थान से उत्तर की ओर मुख करके आकाश में उड़ना है और रास्ते में तुम्हे दिशाओं के दिग्गजों के प्रहार से बचते हुए जाना। आठ दिङ्नाग हैं, ये प्रत्येक आठों दिशाओं के अधिष्ठाता हैं - 1. ऐरावत 2. पुण्डरीक 3. वामन 4. कुमुद 5. अंजन 6. पुष्पदन्त 7. सार्वभौम 8. सुप्रतीक । (श्लो. 14)
  15. यक्ष मेघ से कहता है कि दीमकों की बाम्बी से निकल रहा इन्द्रधनुष भी यात्रा के लिए  शुभ शकुन प्रकट कर रहा है । जब इन्द्रधनुष रत्नों की कान्तियों के सम्मिश्रण सा दिखाई देगा तब मेघ की शोभा गोपवेशधारी कृष्ण की शोभा जैसी हो जाएगी ।  (श्लो. 15)
  16. यक्ष मेघ से कहता है कि कृषि का फल मेघ पर ही आधारित है, अतः जनपद की वधुएँ अपने नेत्रों से तुम्हें  निहारेंगी । मेघ यात्रा में सर्वप्रथम माल प्रदेश में वर्षा कर वहाँ की भूमि को सुगन्धित करता हुआ कुछ पश्चिम की ओर जाकर पुनः उत्तर की ओर जाएगा। (श्लो. 16) 
  17. यक्ष मेघ से कहता है कि क्योंकि पूर्व में तुमने मूसलाधार वर्षा कर वन की अग्नि को शान्त किया था, तुम्हारे मार्ग जन्य थकान को दूर करने के लिए आम्रकूट पर्वत तुमको अपने सिर पर (चोटी पर) धारण करेगा, क्योंकि - न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्यैः ॥ अर्थात् - क्षुद्र व्यक्ति भी अपने उपकारी मित्र के आने पर विमुख नहीं होता। फिर आम्रकूट तो अवश्य ही स्वागत करेगा । (श्लो. 17) (आम्रकूट पके हुए आम्र से युक्त आम्र वृक्षों वाला पर्वत है।) मेघ की यात्रा का पहला पर्वत आम्रकूट है ।
  18. आम्रकूट पर्वत पके हुए पीले आम्रफलों से भरा है और उस आम्रकूट पर्वत पर जब काली चोटी के समान वर्ण वाला मेघ पहुँचेगा तब देव युगल जब ऊपर से इस पर्वत को देखेंगे तब पृथिवी रूपी नायिका का कुच सा प्रतीत होगा, और मेघ कुच का मध्य श्यामल भाग सा प्रतीत होगा। (श्लो. 18)
  19. यक्ष मेघ से कहता है कि आम्रकूट पर्वत वनवासियों की स्त्रियों  द्वारा उपभुक्त हैं। उस आम्रकूट पर्वत पर दो घडी रुककर, जल बरसा कर जब तुम हल्का हो जाओगे तो तुम्हारी गति  तीव्र हो जाएगी । आम्रकूट से प्रस्थान करने के बाद मेघ को उबड़-खाबड़ विन्ध्याचल पर्वत मिलेगा, उसी विंध्याचल की तलहटी में बिखरी हुई रेवा नदी अर्थात् जैसे हाथी के शरीर पर चित्रित रेखाएं होती हैं वैसी ही विंध्याचल की तलहटी में रेवा (नर्मदा) नदी मिलेगी। (श्लो.19) मेघ के मार्ग में पहली नदी रेवा ( नर्मदा) मिलती है । 
  20. मेघ आम्रकूट पर्वत पर अपना जल बरसा चुका है इसलिए खाली (हल्का) हो गया है और यदि मेघ खाली रहेगा तो मेघ को वायु इधर-उधर उड़ाने में सक्षम होगा लेकिन जब मेघ भारी रहेगा तो वायु नहीं उड़ा पाएगा।  इसलिए यक्ष मेघ से कहता है कि रेवा (नर्मदा) का जल हाथियों के मदों से सुगन्धित तथा जामुन के कुञ्जों से अवरुद्ध है। उस रेवा का जल पीकर भीतर से मजबूत हो जाना, तब तुमको हवा उड़ा नहीं सकेगी। क्योंकि 'रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय', यह लोकोक्ति है । जिसका अर्थ है - भरे हुए को कोई हिला-डुला नहीं सकता है, न ही उड़ा सकता है। किन्तु खाली व्यक्ति को सभी इधर उधर हिला सकते हैं, या उड़ा सकते हैं। (श्लो. 20)
  21. यक्ष कहता है कि जब तुम आगे जाओगे तो हरे और पीले कदम्ब- पुष्प को देखकर, केलों को उखाड़ कर खा कर और तुम्हारे बरसने से पृथ्वी और वनों में जो अत्यधिक सुगन्धि आ गई है उसे सूंघ कर कर तुम्हारे मार्ग को सूचित करेंगे । (श्लो. 21)
  22. सिद्धजन अपनी सिद्धांगनाओं को चातक पक्षी को दिखा रहे है तभी मेघ गर्जन से सिद्ध जनों की स्त्रियाँ मेघ के कम्पन से भयभीत होकर अपने प्रेमियों का आलिङ्गन करेंगी । इसलिए सिद्धांगनाएं तुमको बहुत सम्मान देंगी । (श्लो. 22)
  23. हे मेघ,  तुम मेरा प्रिय करने के लिए संदेश को पहुंचाने के लिए शीघ्र ही जाने की इच्छा रखते हो फिर भी मै ऐसी सम्भावना करता हूं कि पर्वतीय चमेली फूलों से सुगन्धित प्रत्येक पर्वतों पर बैठोगे जिससे तुमको विलम्ब होगा । लेकिन हे मेघ! तुम पर्वतीय चमेली फूलों की सुगंधि तथा मयूरों की सुन्दर एवं लुभावनी वाणी रूप सत्कार के लोभ में देर न करते हुए शीघ्र ही प्रस्थान करने का प्रयास करना। (श्लो. 23)
  24. वहाँ से आगे दशार्णों की प्रसिद्ध राजधानी विदिशा है। विदिशा वेत्रवती नदी के तट पर स्थित है। अर्थात् रेवा को पार कर मेघ दशार्ण देश पहुँचता है । वहाँ पहुंचने पर वहां के सब उपवन केतकी की फूलों से पीले हो जाएंगे, वहाँ के गाँव के वृक्ष काकादि के घोंसला बनाने से भर जाएंगे, पके श्यामवर्ण जम्बूफल से यह देश रमणीय हो जाएगा । (श्लो. 24)
  25. यक्ष मेघ से कहता है कि, उस विदिशा नामक राजधानी में जाकर तुम वहाँ पर अपनी सम्पूर्ण कामुकता का फल प्राप्त करोगे । तुम वेत्रवती नदी के किनारे सुन्दर गर्जना के साथ चञ्चल लहरों वाले जल को, भ्रू-विलासयुक्त नायिका के अधर-पान के समान स्वादिष्ट जल पियोगे ।  अर्थात् तुम वेत्रवती का जल वहाँ पीयोगे । वेत्रवती नदी की उपमा भ्रूभङ्गयुक्त नायिका से की गई है। (श्लो. 25)
  26. विदिशा में मेघ 'नीचैः' नामक पर्वत पर निवास करेगा । वहाँ की गुफाएं नगरवासियों के बढ़े हुए यौवन को प्रकट करते हैं । अर्थात् यह पर्वत वेश्याओं द्वारा प्रयुक्त सुगन्धित पदार्थों से युक्त गुफाओं वाला है। (श्लो. 26)
  27. यक्ष कहता है कि तुम इस प्रकार मार्ग की थकान को दूर करते हुए आगे बढ़ना । (श्लो. 27)
  28. उत्तर की ओर जा रहे मेघ का मार्ग यद्यपि टेढ़ा हो जायेगा, फिर भी यक्ष मेघ को उज्जयिनी जाने का निवेदन करता है। उज्जयिनी के प्रासाद अत्यन्त धवल हैं। यक्ष मेघ को वहाँ की रमणियों के प्रणय-भाव को देखना तथा उनके चंचल चितवनों की मार का आनन्द लेने का निर्देश देता है। और कहता है कि यदि तुमने  सुंदरियों के कटाक्षपात से घायल होते हुए भी कल्पनातीत आनन्द प्राप्त नहीं किया तो तुम्हारा जीवन विफल ही रहेगा। (श्लो. 28)
  29. उज्जयिनी जाते हुए मेघ मार्ग में निर्विन्ध्या नदी से मिलता है जो पक्षियों की पंक्ति रूपी करधनी वाली है। निर्विन्ध्या अपनी भंवर रूपी नाभि दिखाती है और उसके द्वारा दिखाया गया विभ्रम ही प्रथम प्रणयवचन है। अर्थात् प्रेमी के निकट हाव भाव का प्रगट करना ही स्त्रियों का प्रथम प्रेम-वचन है - स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु। (श्लो. 29)
  30. यक्ष कहता है - निर्विन्ध्या को पार कर मेघ सिन्धु नदी के समीप पहुँचेगा जो मेघ के विरह में कृश हो गयी है और मेघ को वह उपाय करना चाहिए जिससे वह दुर्बलता त्याग दे। 
  31. यक्ष मेघ को अवन्ति प्रदेश पहुँचकर सम्पत्ति एवं शोभा से परिपूर्ण विशाला (उज्जयिनी) नामक नगरी को जाने को कहता है। जिस अवन्ती' में वृद्धजन वत्सराज उदयन-वासवदत्ता की कथा कहा करते हैं। उज्जयिनी को दैदीप्यमान स्वर्ग का टुकड़ा कहा गया है। उज्जयिनी को विशाला भी कहा जाता है।
  32. वायु को शिप्रा नदी के चाटुकार प्रेमी के रूप में चित्रित किया गया है इसी नदी के तट पर उज्जयिनी है। उज्जयिनी के बाजार को अत्यन्त वैभवशाली बताते हुए उज्जयिनी को रत्न-सम्पत्तियों के कारण समुद्र से भी बढ़कर बताया है।
  33. यक्ष ने मेघ को बताया है कि उज्जयिनी के पुष्पों से सुगन्धित एवं सुन्दरियों के पाद राग से चिह्नित महलों की शोभा को देखते हुए मार्ग का श्रम दूर कर लेना।
  34. यक्ष ने मेघ को निर्देश देते हुए कमलों के परागों से सुगन्धित व जलक्रीड़ा में संलग्न युवतियो के स्नान द्रव्यों से सुरभित गन्धवती नामक नदी की वायु से कम्पित (झूमते) उद्यानों वाले महादेव के पवित्र मंदिर में जाने को कहता है।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

शिशुपालवधम्

प्रथम सर्ग:

श्रियः पतिः श्रीमति शसितुं जग-
ज्जगन्निवास: वसुदेवसद्मनि।
वसन् ददर्शावतरन्तमम्बराद्
हिरण्यगर्भागभुवं मुनिं हरिः ॥१॥

तिरश्चीनमनूरुसारथे:
प्रसिद्धमूर्ध्वज्वलनं हविर्भुजः ।
पतत्यधो धाम विसारि सर्वतः,
किमेतदित्याकुलमीक्षितं जनैः ॥ २ ॥

चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा,
ततः शरीरीति विभाविताकृतिम् ।
विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति,
 क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः ॥ ३ ॥

नवानधोऽधो बृहत: पयोधरान,
समूढ-कर्पूर-पराग-पाण्डुरम् ।
क्षणं क्षणोत्क्षिप्तगजेन्द्रकृत्तिना,
स्फुटोपमं भूतिसितेन शम्भुना ॥४॥

दधानमम्भोरुह-केसरद्युतीर्जटा: 
शरच्चन्द्र मरीचि रोचिषम् ।
विपाकपिङ्गास्तुहिनस्थलीरुहो,
धराधरेन्द्रं  व्रततीततीरिव ।।५।।

पिशङ्गमौञ्जीयुजमर्जुनच्छविं,
वसानमेणाजिनमञ्जनद्युति ।
सुवर्णसूत्राकलिताधराम्बरां,
विडम्बयन्तं शितिवाससस्तनुम् ॥६॥

विहङ्गराजाङ्गरुहैंरिवायतै-
र्हिरण्मयोर्वीरुहवल्लितन्तुभिः ।
कृतोपवीतं हिमशुभ्रमुच्चकै-
र्घनं घनान्ते तडितां गणैरिव ॥७॥

निसर्गचित्रोज्ज्वलसूक्ष्मपक्ष्मणा,
लसद्बिसच्छेदसिताङ्गसङ्गिना।
चकासतं चारुचमूरुचर्मणा,
कुथेन नागेन्द्रमिवेन्द्रवाहनम् ॥ ८॥

अजस्त्रमास्फालितवल्लकीगुण-
क्षतोज्ज्वलांगुष्ठनखांशुभिन्नया ।
पुर: प्रवालैरिव पूरितार्धया,
विभान्तमच्छस्फटिकाक्षमालया ॥९॥

रणद्भिराघट्टनया नभस्वतः,
पृथग्विभिन्न श्रुतिमण्डलैः स्वरैः ।
स्फुटीभवद्ग्रामविशेषमूर्च्छनाम्,
अवेक्षमाणं महतीं मुहुर्मुहुः ॥१०॥

निवर्त्य सोऽनुव्रजतः कृतानतीन्,
अतीन्द्रियज्ञाननिधिर्नभः सदः ।
समासदत् सादितदैत्यसम्पदः,
पदं महेन्द्रालयचारुचक्रिणः ॥११॥

पतत् पतङ्गप्रतिमस्तपोनिधिः,
पुरोऽस्य यावन्न भुवि व्यलीयत ।
गिरेस्तडित्वानिव तावदुच्चकै-
र्जवेन पीठादुदतिष्ठदच्युतः ॥१२॥

अथ प्रयत्नोन्नमितानमत्फणै-
र्धृते कथञ्चित् फणिनां गणैरधः ।
न्यधायिषातामभिदेवकीसुतम्
सुतेन धातुश्चरणौ भुवस्तले ॥१३॥

तममर्घ्यादिकमादिपुरुषः,
सपर्यया साधु स पर्यपूपुजत् ।
गृहानुपैतं प्रणयाद भीप्सवो,
भवन्ति नापुण्यकृतां मनीषिणः ॥१४॥

न यावदेतावुदपश्यदुत्थितौ,
जनस्तुषाराञ्जनपर्वतादिव ।
स्वहस्तदत्ते मुनिमासने मुनि
श्चिरन्तनस्तावदभिन्यवीविशत्॥१५॥

महामहानीलशिलारुचः पुरो,
निषेदिवान्कंसकृषः स विष्टरे।
श्रितोदयाद्रेरभिसायमुच्चकै-
रचूचुरच्चन्द्रमसोऽभिरामताम्॥१६॥

विधाय तस्यापचितिं प्रसेदुष:
प्रकाममप्रीयत यज्वनां प्रियः।
ग्रहीतुमार्यान् परिचर्यया मुहु-
र्महानुभावा हि नितान्तमर्थिनः ॥१७॥

अशेषतीर्थोपहृता: कमण्डलो-
र्निधाय पाणावृषिणाऽभ्युदीरिताः ।
अघौघविध्वंसविधौ पटीयसी-
र्नतेन मूर्ध्ना हरिरग्रहीदपः॥१८॥

स काञ्चने यत्र मुनेरनुज्ञया
नवाम्बुद-श्याम-वपुर्न्यविक्षत।
जिगाय जम्बूजनितश्रियः श्रियं
सुमेरुश्रृंगस्य तदा तदासनम् ॥१९॥

स तप्तकार्तस्वरभास्वराम्बरः
कठोरताराधिप-लांछनच्छविः ।
विदिद्युते वाडवजातवेदसः
शिखाभिराश्लिष्ट इवाम्भसां निधिः ॥२०॥
रथाङ्गपाणे: पटलेन रोचिषा-
मृषित्विष: संवलिता विरेजिरे ।
चलत्पलाशान्तरगोचरास्तरो-
स्तुषारमूर्तेरिव नक्तमंशव: ॥२१॥

प्रफुल्लतापिच्छनिभैरभीषुभिः
शुभैश्च सप्तच्छदपांशुपाण्डुभिः ।
परस्परेण छुरितामलच्छवी
तदैकवर्णाविव तौ बभूवतुः ॥ २२॥

युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो
जगन्ति यस्यां सविकासमासत् ।
तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विष-
स्तपोधनाभ्यागमसंभवा मुदः ॥२३॥

निदाघधामानमिवाधिदीधितिं
मुदा विकासं मुनिमभ्युपेयुषी।
विलोचने बिभ्रदधिश्रितश्रिणी
स पुण्डरीकाक्ष इति स्फुटोऽभवत् ॥२४॥

सितं सितिम्ना सुतरां मुनेर्वपु-
र्विसारिभिः सौधमिवाथ लंभयन् ।
द्विजावलिव्याजनिशाकरांशुभिः
शुचिस्मितां वाचमवोचदच्युतः॥२५॥

हरत्यघं सम्प्रति हेतुरेष्यतः
शुभस्य पूर्वाचरितैः कृतं शुभैः ।
शरीरभाजां भवदीयदर्शनं
व्यनक्ति कालत्रितयेपि योग्यताम्॥२६॥

जगत्यपर्याप्त सहस्र- भानुना
न यन्नियन्तुं समभावि भानुना ।
प्रसह्य तेजोभिरसंख्यतां गतै-
रदस्त्वया नुन्नमनुत्तमं तमः ॥२७॥

कृतः प्रजाक्षेमकृता प्रजासृजा
सुपात्र-निक्षेप-निराकुलात्मना ।
सदोपयोगेऽपि गुरुस्त्वमक्षयो
निधिः श्रुतीनां धनसम्पदामिव॥२८॥

विलोकनेनैव तवामुना मुने
कृतः कृतार्थोस्मि निवर्हितांहसा।
तथापि शुश्रूषुरहं गरीयसी:
गिरोऽथवा श्रेयसि केन तृप्यते ॥ २९॥

गतस्पृहोऽप्यागमनप्रयोजनं
वदेति वक्तुं व्यवसीयते यया ।
तनोति नस्तामुदितात्मगौरवो
गुरुस्तवैवागम एष धृष्टताम् ॥३०॥

इति ब्रुवन्तं तमुवाच स व्रती
न वाच्यमित्थं पुरुषोत्तम त्वया।
त्वमेव साक्षात्करणीय इत्यत:
किमस्ति कार्यं गुरु योगिनामपि ॥३१॥

उदीर्णरागप्रतिरोधकं जनै-
रभीक्ष्णमक्षुण्णतयाऽतिदुर्गमम् ।
उपेयुषो मोक्षपथं मनस्विन-
स्त्वमग्रभूमिर्निरपाय -संश्रया ॥३२॥

उदासितारं निगृहीतमानसै-
र्गृहीतमध्यात्मदृशा कथञ्चन।
बहिर्विकारं प्रकृते: पृथग्विदुः
पुरातनं त्वां पुरुषं पुराविदः ॥३३॥

निवेशयामासिथ हेलयोद्धृतं
फणाभृतां छादनमेकमोकसः ।
जगत्त्रयैकस्थपतिस्त्वमुच्चकै-
रहीश्वरस्तम्भशिरःसु भूतलम् ॥३४॥

अनन्यगुर्वास्तव केन केवलः
पुराण-मूर्तेः महिमावगम्यते ।
मनुष्यजन्मापि सुरासुरान् गुणै-
र्भवान् भवच्छेदकरैः करोत्यधः ॥३५॥

लघूकरिष्यन्नतिभारभंगुराम्,
अमूं किल त्वं त्रिदिवादवातरः ।
उदूढलोकत्रितयेन साम्प्रतं,
गुरुर्धरित्री क्रियतेतरां त्वया ॥३६॥

निजौजसोज्जासयितुं जगद्रुहा-
मुपाजिहीथा न महीतलं यदि ।
समाहितैरप्यनिरूपितस्ततः,
पदं दृशः स्याः कथमीश मादृशाम् ॥३७॥

उपप्लुतं पातुमदो मदोद्धतै-
स्त्वमेव विश्वम्भर विश्वमीशिषे ।
ऋते रवेः क्षालयितुं क्षमेत कः,
क्षपातमस्काण्डमलीमसं नभः॥३८॥

करोति कंसादिमहीभृतां वधा-
ज्जनो मृगाणामिव यत्तव स्तवम् ।
हरे हिरण्याक्षपुर:सरासुर-
द्विपद्विषः प्रत्युत सा तिरस्क्रिया ।।३९।।

प्रवृत्त एव स्वयमुज्झितश्रमः,
 क्रमेण पेष्टुं भुवनद्विषामसि।
तथापि वाचालतया युनक्ति मां,
मिथस्त्वदाभाषणलोलुपं मनः ॥४०॥

तदिन्द्रसन्दिष्टमुपेन्द्र! यद्वचः,
क्षणं मया विश्वजनीनमुच्यते ।
समस्तकार्येषु गतेन धुर्यता-
महिद्विषस्तद् भवता निशम्यताम् ॥४१॥

अभूदभूमिः प्रतिपक्षजन्मनां,
भियां तनूजस्तपनद्युतिर्दितेः।
यमिन्द्रशब्दार्थनिषूदनं हरे:,
हिरण्यपूर्वं कशिपुं प्रचक्षते ॥४२॥

समत्सरेणासुर इत्युपेयुषा,
चिराय नाम्न: प्रथमाभिधेयताम् ।
भयस्य पूर्वावतरस्तरस्विना,
मनस्सु येन द्युसदां न्यधीयत ॥४३॥

दिशामधीशांश्चतुरो यतः सुरान्,
अपास्य तं रागहृताः सिषेविरे।
अवापुरारभ्य ततश्चला इति,
प्रवादमुच्चैरयशस्करं श्रियः ॥४४॥

पुराणि दुर्गाणि निशातमायुधं,
बलानि शूराणि घनाश्च कञ्जुका: ।
स्वरूपशोभैकफलानि नाकिनां,
गणैर्यमाशंक्य तदादि चक्रिरे॥४५॥

स सञ्चरिष्णुर्भुवनान्तरेषु यां,
यदृच्छयाऽशिश्रियदाश्रयः श्रियः ।
अकारि तस्यै मुकुटोपलस्खलत्-
करैस्त्रिसन्ध्यं त्रिदशैर्दिशे नमः॥४६॥

सटाच्छटाभिन्नघनेन बिभ्रता,
नृसिंह! सैंहीमतनुं तनुं त्वया ।
स मुग्धकान्ता-स्तन-सङ्गभंगुरै-
रुरोविदारं प्रतिचस्करे नखैः ॥४७॥

विनोदमिच्छन्नथ दर्पजन्मनो,
रणेन कण्ड्वास्त्रिदशैः समं पुनः ।
स रावणो नाम निकामभीषणं,
बभूव रक्षः क्षतरक्षणं दिवः ॥४८॥

प्रभुर्बुभूषुर्भुवनत्रयस्य यः,
शिरोऽतिरागाद्दशमं चिकर्तिषुः ।
अतर्कयद् विघ्नमिवेष्टसाहसः,
प्रसादमिच्छासदृशं पिनाकिनः॥४९॥

समुत्क्षिपन्यः पृथिवीभृतां वरं,
वरप्रदानस्य चकार शूलिनः ।
त्रसत्तुषाराद्रि-सुता-ससम्भ्रम-
स्वयंग्रहाश्लेषसुखेन निष्क्रयम् ॥५०॥

पुरीमवस्कन्द लुनीहि नन्दनं,
मुषाण रत्नानि हरामराङ्गनाः ।
विगृह्य चक्रे नमुचिद्विषा बली,
य इत्थमस्वास्थ्यमहर्दिवं दिवः ॥५१॥

सलीलयातानि न भर्तुरभ्रमो-
र्न चित्रमुच्चै: श्रवस: पदक्रमम् ।
अनुद्रुतः संयति येन केवलं,
बलस्य शत्रुः प्रशशंस शीघ्रताम् ॥५२॥

अशक्नुवन् सोढुमधीरलोचनः,
सहस्ररश्मेरिव यस्य दर्शनम् ।
प्रविश्य हेमाद्रिगुहागृहान्तरं,
निनाय बिभ्यद्दिवसानि कौशिकः ॥५३॥

बृहच्छिलानिष्ठुरकण्ठघट्टनाद्,
विकीर्णलोलाग्निकणं सुरद्विषः।
जगत्प्रभोरप्रसहिष्णु वैष्णवं,
न चक्रमस्याक्रमताधिकन्धरम् ॥५४॥

विभिन्नशंख: कलुषीभवन्मुहु-
र्मदेन दन्तीव मनुष्यधर्मणः ।
निरस्तगाम्भीर्यमपास्तपुष्पकं,
प्रकम्पयामास न मानसं न सः ॥५५॥

रणेषु तस्य प्रहिताः प्रचेतसा,
सरोष-हुङ्कार-पराङ्मुखीकृताः ।
प्रहर्तुरेवोरग-राज-रज्जवो,
जवेन कण्ठं सभयाः प्रपेदिरे ॥५६॥

परेतभर्तुर्महिषोऽमुना धनु-
र्विधातुमुत्खातविषाणमण्डलः।
हृतेऽपि भारे महतस्त्रपाभराद्-
उवाह दुःखेन भृशानतं शिरः ॥५७॥

स्पृशन् सशंकः समये शुचावपि,
स्थितः कराग्रैरसमग्रपातिभिः।
अघर्मघर्मोदकबिन्दुमौक्तिकै-
रलञ्चकारास्य वधूरहस्करः ॥५८॥

कलासमग्रेण गृहानमुञ्चता,
मनस्विनीरुत्कयितुं पटीयसा ।
विलासिनस्तस्य वितन्वता रतिं,
न नर्मसाचिव्यमकारि नेन्दुना ॥५९॥ 

विदग्धलीलोचितदन्तपत्रिका-
विधित्सया नूनमनेन मानिना ।
न जातु वैनायकमेकमुद्धृतं,
विषाणमद्यापि पुनः प्ररोहति ॥६०॥

निशान्त-नारी-परिधान-धूनन-
स्फुटागसाप्यूरुषु लोलचक्षुषः ।
प्रियेण तस्यानपराधबाधिताः,
प्रकम्पनेनानुचकम्पिरे सुराः ॥६१॥

तिरस्कृतस्तस्य जनाभिभाविना,
मुहुर्महिम्ना महसां महीयसाम्।
बभार बाष्पैर्द्विगुणीकृतं तनु-
स्तनूनपाद् धूमवि॒तानमाधिजैः ॥६२॥

परस्य मर्माविधमुज्झतां निजं,
द्विजिह्वतादोषमजिह्मगामिभिः ।
तामिद्धमाराधयितुं सकर्णकैः,
कुलैर्न न भेजे फणिनां भुजङ्गता॥६३॥

तदीयमातङ्गघटाविघट्टितै:,
कटस्थल-प्रोषित-दानवारिभिः
गृहीतदिक्कैरपुनर्निवर्तिभि-
श्चिराय याथार्थ्यमलम्भि दिग्गजैः ॥६४॥

अभीक्ष्णमुष्णैरपि तस्य सोष्मणः,
सुरेन्द्र वन्दी-श्वसितानिलैर्यथा ।
सचन्दनाम्भ:कणकोमलैस्तथा,
वपुर्जलार्द्रापवनैर्न निर्ववौ ॥६५॥

तपेन वर्षाः शरदा हिमागमो,
वसन्तलक्ष्म्या शिशिरः समेत्य च ।
प्रसूनक्लृप्तिं दधतः सदर्तवः,
पुरेऽस्य वास्तव्यकुटुम्बितां ययुः ॥६६॥

अमानवं जातमजं कुले मनोः,
प्रभाविनं भाविनमन्तमात्मनः ।
मुमोच जानन्नपि जानकीं न यः,
सदाभिमानैकधना हि मानिनः॥६७॥

स स्मरत्यदो दाशरथिर्भवन् भवान्,
अमुं वनान्ताद्वनितापहारिणम्।
पयोधिमाबद्धचलज्जलाविलं,
विलंघ्य लङ्का निकषा हनिष्यति ॥६८॥

अथोपपत्तिं छलनापरोऽपराम्,
अवाप्य शैलूष इवैष भूमिकाम् ।
तिरोहितात्मा शिशुपालसंज्ञया,
प्रतीयते सम्प्रति सोऽप्यसः परैः ॥६९॥

स बाल आसीद्वपुसा चतुर्भुजो,
मुखेन पूर्णेन्दुनिभस्त्रिलोचनः ।
युवा कराक्रान्तमहीभृदुच्चकै-
रसंशयं सम्प्रति तेजसा रविः ॥७०॥

स्वयं विधाता सुरदैत्यरक्षसाम्,
अनुग्रहावग्रहयोर्यदृच्छया ।
दशाननादीनभिराद्धदेवता-
वितीर्णवीर्यातिशयान् हसत्यसौ ॥७१॥

बलावलेपादधुनाऽपि पूर्ववत्,
प्रबाध्यते तेन जगज्जिगीषुणा ।
सतीव योषित्प्रकृतिः सुनिश्चला,
पुमांसमभ्येति भवान्तरेष्वपि ॥७२॥

तदेनमुल्लंघितशासनं विधे-
र्विधेहि कीनाशनिकेतनातिथिम्।
शुभेतराचारविपक्त्रिमापदो,
निपातनीया हि सतामसाधवः ॥७३॥

हृदयमरिवधोदयादुदूढ-
द्रढिम दधातु पुनः पुरन्दरस्य।
घनपुलकपुलोमजाकुचाग्र-
द्रुतपरिरम्भ-निपीडन-क्षमत्वम् ॥७४॥

ओमित्युक्तवतोथ शार्ङ्गिण इति व्याहृत्य वाचं नभ-
स्तस्मिन्नुत्पतिते पुरः सुरमुनाविन्दोः श्रियं बिभ्रति ।
शत्रूणामनिशं विनाशपिशुनः क्रुद्धस्य चैद्यं प्रति,
व्योम्नीव भ्रकुटिच्छलेन वदने केतुश्चकारास्पदम् ॥७५॥

॥ इति महाकविमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्रीकृष्णनारदसम्भाषणं नाम प्रथमो सर्गः ॥

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

रघुवंशमहाकाव्यम् (द्वितीय: सर्ग:)

महाकविकालिदासविरचितम्
रघुवंशमहाकाव्यम्
द्वितीयः सर्गः

अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् ।
वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच ॥ १ ॥
अन्वयः- अथ यशोधनः प्रजानाम् अधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्यां पीतप्रतिबद्धवत्सां ऋषेः धेनुम् वनाय मुमोच ॥ १ ॥

हिन्दी अनुवाद- तदनन्तर प्रभात होने पर कीर्तिधन राजा (दिलीप) ने ऋषि (वसिष्ठ) की उस गौ को वन के लिए खोल दिया, जिसे पत्नी (सुदक्षिणा) ने गन्ध और माला समर्पित की थी तथा दूध पीने के उपरान्त जिसके बछड़े को बांध दिया गया था ॥ १ ॥

तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया ।
मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत् ।। २ ।।

अन्वय- अपांसुलानाम् धुरि कीर्तनीया मनुष्येश्वरधर्मपत्नी तस्याः खुरन्यासपवित्रपासुं मार्ग्गं स्मृतिः श्रुतेः अर्थम् इव अन्वगच्छत् ॥२॥

हिन्दी अनुवाद - राजा (दिलीप) की, पतिव्रताओं में प्रथमगणनीय, धर्मपत्नी (सुदक्षिणा) उस (नन्दिनी) के खुर विन्यास से पवित्र धूलि वाले मार्ग पर ऐसे चली जैसे वेद के अर्थ पर स्मृति चलती है।

निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्यशोभिः ।
पयोधरीभूतचतुःसमुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् ॥ ३ ॥

अन्वयः- दयालुः यशोभिः सुरभिः राजा तां दयितां निवर्त्य सौरभेयीं पयोधरी भूतचतुःसमुद्राम् उर्वीम् इव जुगोप ॥ ३ ॥
हिन्दी अनुवाद- दयालु एवं कीर्ति से कमनीय राजा (दिलीप) ने उस प्रियतमा सुदक्षिणा को लौटाकर सुरभि (नामक गौ) की सन्तान नन्दिनी, जिसके दूध से चारों समुद्र तिरस्कृत थे, की गौ का रूप धारण करने वाली पृथ्वी; जिसके चारों समुद्र चार थन बने हुए थे; के समान रक्षा की ॥ ३ ॥

व्रताय तेनानुचरेण धेनोर्न्यषेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्गः ।
न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्यगुप्ता हि मनोः प्रसूतिः ।।४॥

अन्वयः- व्रताय धेनोः अनुचरेण तेनं शेषः अनुयायिवर्गः अपि न्यषेधि। तस्य शरीररक्षा च अन्यतः न हि मनोः प्रसूतिः स्ववीर्यगुप्ता ॥ ४ ॥

हिन्दी अनुवाद- व्रत सम्पन्न करने के लिए गौ (नन्दिनी) के अनुचर उस (दिलीप) ने अवशिष्ट सेवक वर्ग को भी अपने साथ रहने के लिए मना कर दिया। उसके शरीर की रक्षा औरों से सम्भव नहीं थी, क्योंकि मनु की सन्तान तो अपने पराक्रम से ही सुरक्षित रहती है ॥ ४ ॥

आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां कण्डूयनैर्दशनिवारणैश्च ।
अव्याहतैः स्वैरगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत् ॥५॥

अन्वयः- सम्राट् सः आस्वादवद्भिः तृणानां कवलैः कण्डूयनैः दंशनिवारणैः अव्याहतैः स्वैरगतै: च तस्या समाराधनतत्परः अभूत् ।

हिन्दी अनुवाद- वे सम्राट् (दिलीप) घास के स्वादिष्ट कौर देते, खुजलाते, डाँस हटाते और चलने-फिरने में कोई बाधा न डालते हुए उस (नन्दिनी) की सेवा में तत्पर हो गए ॥ ५ ॥

स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां निषेदुषीमासनबन्धधीरः ।
जलाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ॥६॥

अन्वयः- भूपतिः तां स्थितां स्थितः प्रयातां उच्चलितः निषेदुषीम् आसनबन्धधीरः जलम आददानां  जलाभिलाषी छायेव अन्वगच्छत् ॥ ६ ॥
हिन्दी अनुवाद - राजा दिलीप छाया की तरह उस (नन्दिनी) के पीछे-पीछे चले। वह खड़ी होती तो वे खड़े हो जाते, चलती तो चल पड़ते, बैठती तो आसन लगाकर बैठ जाते और पानी पीती तो पानी की अभिलाषा करते ॥ ६ ॥

स न्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मीं तेजाविशेषानुमितां दधान: ।
आसीदनाविष्कृतदानराजिरन्तर्मदावस्थ इव द्विपेन्द्रः ।। ७ ।।

अन्वय:- यस्तचिह्नम् अपि तेजोविशेषानुमितां राजलक्ष्मीं दधानः सः अनाविष्कृतदानराजि अन्तर्मदाावस्थ: द्विपेन्द्रः इव आसीत् ॥ ७ ॥

हिन्दी अनुवाद- छत्र, चंवर आदि चिह्नों के बिना भी जिसका (राजा की) कान्तिविशेष से अनुमान लगाया जा सकता था, उस राजलक्ष्मी को धारण करते हुए वे (राजा दिलीप) अपने भीतर मद की सत्ता बनाए हुए उस हाथी के समान लग रहे थे जिसकी मद-रेखा अभी प्रकट नहीं हुई थी ॥ ६ ॥

लताप्रतानोद्ग्रथितैः स केशैरधिज्यधन्वा विचचार दावम् ।
रक्षापदेशान्मुनिहोमधेनोर्वन्यान्विनेष्यन्निव दुष्टसत्त्वान् ॥८॥

अन्वयः- लताप्रतानोद्ग्रथितैः केशः सः अधिज्यधन्वा मुनिहोमधेनोः रक्षापदेशात् वन्यान्  दुष्टसत्त्वान्  विनेष्यन् इव दावं विचचार ॥८॥

हिन्दी अनुवाद- वे दिलीप जिन्होंने लता-तन्तुओं से अपने केश बाँध रखे थे और जिनके धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; मुनि (वसिष्ठ) को रक्षा के बहाने से मानों जंगल के दुष्ट जींवों को प्रशिक्षित करने के लिए वन में विचरण कर रहे थे ॥ ८ ॥

विसृष्टपार्श्वानुचरस्य तस्य पार्श्वद्रुमाः पाशभृता समस्य।
उदीरयामासुरिवोन्मदानामालोकशब्दं वयसां विरावैः ।। ९ ।।

अन्वयः - विसृष्टपार्श्वानुचरस्य पाशभृता समस्य तस्य पार्श्वद्रुमाः उन््मदानां वयसाम् विरावैः इव आलोकशब्दम् उदीरयामासुः ॥ ९ ॥

हिन्दी अनुवाद- वरुण के समान प्रभावशाली उन (दिलीप) के पार्श्ववर्ती अनुचरों को लौटा चुकने पर अगल-बगल के वृक्षों ने उन्मत्त पक्षियों के शोर से मानों 'जय' शब्द का उच्चारण किया ॥ ९ ॥

मरुत्प्रयुक्ताश्च मरुत्सखाभं तमर्च्यमारादभिवर्तमानम् ।
अवाकिरन् बाललता: प्रसूनैराचारलाजैरिव पौरकन्याः ।।१०॥

अन्वयः- मरुत्प्रयुक्ता: बाललताः आरात् अभिवर्तमानम् मरुत्सखाभम् अर्च्यम् तं प्रसूनैः पौरकन्याः आचारलाजैैरिव अवाकिरन् ॥ १० ॥

हिन्दी अनुवाद - अग्नि के समान आभा वाले अर्चनीय उन (दिलीप) के निकट आने पर वायु के द्वारा प्रेरित नूतन लताओं ने उन पर इस प्रकार फूल बरसाए जिस प्रकार पुरवासियों की कन्याएँ शिष्टाचार के तहत उन पर धान की खीलें बरसाया करती थीं ॥

धनुर्भृतोऽप्यस्य दयार्द्रभावमाख्यातमन्तःकरणैर्विशङ्कै: ।
विलोकयन्त्यो वपुरापुरक्ष्णां प्रकामविस्तारफलं हरिण्यः ।।११।।

अन्वयः – धनुर्भृतः अपि अस्य विशङ््कै: अन्तःकरणैः दयार्द्रभावं वपुः विलोकयन्त्यः हरिण्यः अक्ष्णां प्रकामविस्तारफलम् आपुः ।

हिन्दी अनुवाद - दिलीप के धनुर्धर होने पर भी हिरनियों के बेखटक अन्तःकरणों ने यह (इसका) दया से द्रवित होने का भाव है ऐसा जतला दिया । ऐसे शरीर को देखती हुई हिरनियों ने आँखों की विशालता का फल प्राप्त कर लिया ।

स कीचकैर्मारुतपूर्णरन्ध्रै: कूजद्भिरापादितवंशकृत्यम् ।
शुश्राव कुञ्जेषु यशः स्वमुच्चैरुद्गीयमानं वनदेवताभिः ॥१२॥

अन्वयः- : सः मारुतपूर्णरन्ध्रै: कूजद्भिः कीचकैः आपादितवंशकृत्यं कुञ्जेषु वनदेवताभिः उच्चैः उद्गीयमानं स्वं यशः शुश्राव ।

हिन्दी अनुवाद- उन्होंने (राजा दिलीप ने) कुंजों में वनदेवताओं के द्वारा ऊँचे स्वर में गाया जाता हुआ अपना वह यश सुना, जिसमें वायुपूरित छिद्रोंवाले (अत एव) गूँजते कीचक नामक बाँसों से बाँसुरी का काम लिया गया था ।

पृक्तस्तुषारैर्गिरिनिर्झराणामनोकहाकम्पितपुष्पगन्धी ।
तमातपक्लान्तमनातपत्रमाचरपूतं पवन: सिषेवे ।।१३।।

अन्वयः– गिरिनिर्झराणां तुषारैः पृक्तः अनोकहाकम्पितपुष्पगन्धी पवनः अनातपत्रम् आतपक्लान्तं तं सिषेवे ।

हिन्दी अनुवाद- पहाड़ी झरनों की ठण्डी फुहारों से लदी, वृक्षों के हौले-हौले हिलते फूलों की सुगंध से बसी वायु ने उनकी (राजा दिलीप की) सेवा की, जो छत्र से रहित थे, धूप से थके हुए थे किन्तु आचरण से पवित्र थे ।

शशाम वृष्ट्याऽपि विना दवाग्निरासीद् विशेषा फलपुष्पवृद्धिः ।
ऊनं न सत्त्वेष्वधिको बबाधे तस्मिन् वनं गोप्तरि गाहमाने ।।१४।।

अन्वयः- गोप्तरि तस्मिन् वन गाहमाने (सति) वृष्ट्या विना अपि दवाग्निः शशाम। फलपुष्पवृद्धिः विशेषा आसीत्। सत्वेषु अधिक ऊनं न बबााधे ।

हिन्दी अनुवाद- उन रक्षक दिलीप के वन में प्रवेश करने पर बिना वृष्टि के दावाग्नि शान्त हो गई, फल और फूलों की वृद्धि और अधिक हो गई और जीवों में प्रबल जीव ने दुर्बल जीव को पीड़ित नहीं किया ॥

सञ्चारपूतानि दिगन्तराणि कृत्वा दिनान्ते निलयाय गन्तुम् ।
प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा पतङ्गस्य मुनेश्च धेनुः ॥१५॥

अन्वयः- पल्लवरगताम्रा पतङ्गस्य प्रभा मुनेः धेनुः च दिगन्तराणि सञ्चारपूतानि कृत्वा दिनान्ते निलयाय गन्तुं प्रचक्रमे ।

हिन्दी अनुवाद - पल्लवों की ललाई के समान ललाई लिए सूर्य-कान्ति और मुनि (वसिष्ठ) की गौ (ये दोनों ही) दिशाओं के अन्तराल को अपने-अपने संचार से पवित्र कर दिन हनने पर (क्रमशः) छिपने के लिए और अपने घर (आश्रम) के लिए जाने की तैयारी करने लगीं । 

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

कादम्बरी

 महाकविबाणभट्टविरचिता

कादम्बरी

(आविन्ध्याटवीवर्णनात् कथामुखम्)

रजोजुषे जन्मनि सत्त्वृत्तये

स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे ।

अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे

त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः ॥१॥

अन्वय:-  प्रजानां जन्मनि रजोजुषे स्थितौ सत्त्ववृतये प्रलये तमः:स्पृशे, सर्गस्थितिनाशहेतवे त््त्रयीमयाये त्रिगुणात्मने अजाय नमः ॥ १ ॥

हिन्दी अनुवाद- प्रजाओं की उत्पत्ति (के समय) में रजोगुण सम्पन्न, पालन (के समय) में सत्त्वगुण सम्पन्न तथा प्रलय (के समय) में तमोगुण सम्पन्न (क्रमश) सृष्टि, पालन तथा संहार के निमित्त कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इन तीन रूपों वाले, अथवा वेदत्रयी स्वरूप वाले त्रिगुणात्मक नित्य ब्रह्म को नमस्कार है।

टिप्पणी - यथासंख्य अलंकार, वंशस्थ छन्द ।

जयन्ति बाणासुरमौलिलालिता

दशास्यचूडामणिचक्रचुम्बिन ।

सुरासुराधीशशिखान्तशायिनो

भवच्छिदस्त्र्यम्बकपादपांसव: ॥ २ ॥

अन्वयः- बाणासुरमौलिलालिता दशास्यचूडामणिचक्रचुम्बिन: सुरासुराधीशशिखान्तशायिन: भवच्छिद: त्र्यम्बकपादपांसव: जयन्ति ॥

हिन्दी अनुवाद - बाणासुर के मस्तक द्वारा सेव्य, रावण के मुकुट की मणियों का स्पर्श करनेवाली, देव और असुरों के अधीश्वरों की शिखा के अप्रभाग पर विराजने वाली तथा संसार का बन्धन काटने वाली शिवजी के चरणों की रज की जय हो ।

टिप्पणी- (१) इस श्लोक में भगवान् शिव की स्तुति की गई है।

(२) अनुप्रास अलंकार

(३) वंशस्थ छन्द ।

जयत्युपेन्द्रः स चकार दूरतो
विभित्सया यः क्षणलब्धलक्ष्यया ।
दृशैव कोपारुणया रिपोरुरः
स्वयं भयाद्भिन्नभिवास्त्रपाटलम् ।। ३ ॥

अन्वय- सः उपेन्द्रः जयति, य: बिभित्सया दूरतः क्षणलब्धलक्षया कोपारुणया दशा एवं रिपोः उर: भयात् स्वयं भिन्नम् इव अस्रपाटलम् चकार ।

हिन्दी अनुवाद- उन (नृसिंहरूपधारी) विष्णु की जय हो, जिन्होंने चीर डालने की इच्छा से दूर से ही क्षण भर में लक्ष्य तक पहुँची क्रोध से लाल दृष्टि द्वारा ही शत्रु के वक्षस्थल को रुधिर से लाल बना दिया, मानो वह भय से स्वयं ही विदीर्ण हो गया था ।

टिप्पणी- (१) इस श्लोक में भगवान नृसिंह का स्मरण किया गया है। (२) उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार।

(३) वंशस्थ छन्द।


नमामि भर्वोश्चरणाम्बुजद्वयं

सशेखरैर्मौखरिभिः कृतार्चनम् ।

समस्त-सामन्त-किरीट-वेदिका-

विटङ्क पीठोल्लुठितारुणागुलि ।। ४ ।।


अन्वयः- सशेखरैः मौखरिभिः कृतार्च्चनम्, समस्त-सामन्त- किरीट-वेदिका-विटङ्क पीठोल्लुठितारुणाङ्गुलि भर्वोः चरणाम्बुजद्वयं नमामि ।

हिन्दी अनुवाद- मैं भर्वु के उन दोनों चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जिनकी अर्चना मुकुटधारी मौखरीवंश के राजाओं ने की है और जिनकी उंगलियाँ सभी सामन्तों के मुकुटों की वेदिका के उन्नतभाग से रगड़ खाने के कारण लाल हो गई हैं ।

टिप्पणी – (१) इस श्लोक में कवि ने अपने गुरु की वन्दना की है।

(२) भर्वु: बाणभट्ट के गुरुजी का नाम है।

(३) रूपक अलंकार

(४) वंशस्थ छन्द


अकारणाविष्कृतवैरदारुणा-

दसज्जनात् कस्य भयं न जायते ।

विषं महाहेरिव यस्य दुर्वच:

सुदुःसहं सन्निहितं सदा मुखे ॥५॥


अन्वय: – अकारणाविष्कृतवैरदारुणात् असज्जनात् कस्य भयं न जायते, यस्य मुखे महाहे: विषम् इव सुदुःसहं दुर्वचः यदा सन्निहितम् ।

हिन्दी अनुवाद- बिना कारण (वजह) के ही वैर करने के कारण भयंकर स्वभाववाले दुर्जन जिसके मुख में अत्यन्त असह्य दुर्वचन वैसे ही सदैव बना रहता है जैसे बड़े साँप के मुख में विष से किसे भय नहीं होता ।

टिप्पणी-  (१) इस श्लोक में दुर्जन की निन्दा की गई है।

(२) उपमा अलंकार

(३) वंशस्थ छन्द ।


कटु क्वणन्तो मलदायकाः खला

स्तुदन्त्यलं बन्धनशृङ्खला इव ।

मनस्तु साधुध्वनिभिः पदे पदे

हरन्ति सन्तो मणिनूपुरा इव ॥ ६ ॥


अन्वय:- कटु क्वणन्तः, मलदायकाः बन्धनश्रृङ्खला इव खलाः अलं तुदन्ति । सन्तः तु मणिनूपुराः इव पदे पदे साधुध्वनिभिः मनः हरन्ति ।

हिन्दी अनुवाद- जैसे कर्णकटु शब्द करने वाली तथा बन्धन के स्थल को काला बना देने वाली जंजीरे वैसे ही कटु वचन बोलने वाले तथा दूसरों पर मिथ्या कलङ्क लगाने वाले दुष्ट व्यक्ति अत्यधिक दुःख देते हैं। इसके विपरीत सज्जन पद-पद पर मधुर ध्वनि से प्रत्येक पादन्यास पर मणि के नूपुर की तरह मन मोह लेते हैं ।

टिप्पणी – (१) यहाँ दुर्जन की निन्दा और सज्जन की प्रशंसा की गई है।

(२) उपमा अलंकार।

(३) वंशस्थ छन्द ।


सुभाषितं हारि विशत्यधो गला-

दुर्जनस्यार्करिपोरिवामृतम् ।

तदेव धत्ते हृदयेन सज्जनो

हरिर्महारत्नमिवातिनिर्मलम् ।।७॥


अन्वयः- हारि सुभाषितं दुर्जनस्य गलात् अधः अर्करिपोः अमृतम् इव न विशति तत् एव सज्जनः हरिः अतिनिर्मलं महारत्नम् इव, हृदयेन धत्ते ।

हिन्दी अनुवाद - मनोहर सुभाषित दुर्जन के गले से वैसे ही नहीं उतरता जैसे राहु के गले के नीचे अमृत । किन्तु सज्जन उसे ही अपने हृदय पर इस प्रकार धारण करते हैं जैसे भगवान् विष्णु अत्यन्त स्वच्छ कौस्तुभ मणि को अपने हृदय पर धारण करते हैं ।

टिप्पणी – (१) दुर्जन को सुन्दर वचन अच्छे नहीं लगते, सज्जन अच्छे वचनों पर अपने को न्योछावर कर देता है- यही दोनों का अन्तर है।

(२) उपमा अलंकार

(३) वंशस्थ छन्द


स्फुरत्कलालापविलास कोमला

करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम् ।

रसेन शय्यां स्वयमभ्युपागता

कथा जनस्याभिनवा वधूरिव ॥ ८ ॥

अन्यय:- स्फुरत्कलालापविलासकोमला, रसेन स्वयं शय्याम् अभ्युपागता कथा अभिनवा वधूः इव जनस्य हृदि कौतुकाधिकं रागं करोति ।

हिन्दी अनुवाद - स्फुरित होते मधुर कथोपकथन की माधुरी से कोमल पदशय्या को स्वयं प्राप्त होती अभिनव कथा शृंगारादि रस से कुतूहल की अधिकता से युक्त हो वैसे ही सहृदय के हृदय में राग उत्पन्न कर देती है, जैसे स्फुरित होते मधुर आलाप और विलासों से मनोहर अभिनव वधू सेज पर स्वयं आकर प्रेम से पति के मन में उत्कण्ठा और अनुराग उत्पन्न कर देती है ।

टिप्पणी – (१) कथा की प्रशंसा की गई है।

(२) उपमा और श्लेष अलंकार

(३) वंशस्थ छन्द


हरन्ति कं नोज्ज्वलदीपकोपमैर्नवै:

पदार्थरुपपादिताः कथा: ।

निरन्तरश्लेषघना: सुजातयो

महास्रजश्र्चम्पक कुड्मलैरिव ।। ९ ।।

अन्वयः– उज्ज्वलदीपकोपमैः नवैः पदार्थै: उपपादिताः, निरन्तरश्लेषघना:, सुजातयः कथाः उज्ज्वलदीपकोपमैः चम्पककुड्मलैः उपपादिताः, निरन्तरश्लेषघनाः, सुजायः महास्रजः इव के न हरन्ति ।

हिन्दी अनुवाद - सुन्दर दीपक एवं उपमा अलंकारों से युक्त, नए-नए अर्थों वाले पदों से विरचित, निरन्तर श्लेष अलंकार के प्रयोग से सघन सुन्दर जाति के छन्दों से युक्त कथा, दीप्तिमान प्रदीप-समान नई-नई चम्पा की कलियों से निर्मित, सुन्दर जाति नामक फूल से युक्त सघन रूप में एक-दूसरे से मिलाकर प्रथित होने में सघन महामाला के समान किसको आकर्षित नहीं करती ? अर्थात् सभी को आकृष्ट करती है ।


बभूव वात्स्यायनवंशसम्भवो

द्विजो जगद्गीतगुणोऽग्रणीः सताम् ।

अनेकगुप्तार्च्चित-पाद-पङ्कजः

कुबेरनामांश इव स्वयम्भुवः ।। १० ।।

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...