- इस खण्डकाव्य के लेखक महाकवि कालिदास है । यह खण्डकाव्य दूतकाव्य के रूप में एक गीतिकाव्य है, जिसमें एक यक्ष का विरह वर्णित है ।
- संस्कृत के गीतिकाव्यों का आदिम ग्रन्थ कालिदास का मेघदूत है।
- मेघः एव दूतः यस्मिन् काव्ये तत् मेघदूतम् । इस प्रकार मेघदूतम् में बहुव्रीहि समास है ।
- संस्कृत के गीतिकाव्यों का आदिमग्रन्थ महाकवि कालिदास का मेघदूतम् ही है ।
- यह दो भागों में विभक्त है - पूर्वमेघ और उत्तरमेघ ।
- इस खण्डकाव्य में कुल 115 पद्य हैं । मल्लिनाथ ने 121 पद्य स्वीकार किये हैं, किन्तु 6 श्लोकों को प्रक्षिप्त मानते हुए 115 की संख्या को प्रामाणिक माना है । वल्लभदेव की टीका के अनुसार 111 पद्य हैं । पूर्वमेघ में 63 और उत्तरमेघ में 52 पद्य हैं ।
- पूर्वमेघ में अलकापुरी तक के मार्ग का वर्णन है ।
- उत्तरमेघ में अलकापुरी का वर्णन है ।
- इस खण्डकाव्य का प्रधान रस विप्रलम्भ श्रृंगार है ।
- अलंकार - उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग है ।
- सम्पूर्ण मेघदूतम् में मन्दाक्रान्ता छन्द है ।
- मन्दाक्रान्ता छन्द का लक्षण - "मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ गयुग्मम्" इस लक्षण के अनुसार मन्दाक्रान्ता छन्द के प्रत्येक पाद में मगण (SSS), भगण (Sll), नगण (lll), दो तगण (SSl, SSl) तथा दो गुरु होते हैं । इसमें प्रत्येक चरण में 17 वर्ण होते हैं । चौथे, छठे तथा सातवें वर्णों पर यति होती है ।
- इस खण्डकाव्य या गीतिकाव्य की रीति- वैदर्भी है । वैसे भी कालिदास वैदर्भी रीति के लिए प्रसिद्ध हैं। कहा भी गया है - वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालीदासोविशिष्यते ।
- मेघदूतम् में प्रसाद एवं माधुर्य गुण की प्रधानता है ।
- मेघदूतम् का मङ्गलाचरण - वस्तुनिर्देशात्मक है ।
- मङ्गलाचरण -
- उपजीव्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण से लिया गया है और दूत की कल्पना बाल्मीकीयरामायण से ली है।
- यक्ष को अल्काधीश्वर कुबेर ने जो शाप दिया उसका आधार पद्मपुराण है । वहाँ के योगिनी नामक आषाढ़-कृष्ण-एकादशी-महात्म्य प्रसंग में यह कथा संक्षेप में है ।
- इस खण्डकाव्य का नायक - यक्ष है जो कि धीरललित नायक है । ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसका नाम हेममाली है।
- नायिका - यक्षिणी है, जो कि स्वकीया एवं पद्मिनी नायिका है । जिसका नाम ब्रह्मवैवर्तपुारण में विशालाक्षी है।
- इसके प्रमुख पात्र - यक्ष, यक्षिणी, मेघ, कुबेर (यक्षाधिपति) ।
- मेघदूतम् के आरम्भ में यक्ष अपने शापावधि के 8 माह काट चुका है और 4 माह शेष बचे हैं ।
- यक्षों के अधिपति कुबेर की राजधानी अलका है । इसकी स्थिति हिमालय पर्वत श्रृंखला के कैलाश नामक शिखर पर बतलायी गयी है ।
- रामगिरि पर्वत की स्थिति मल्लिनाथ तथा वल्लभ ने चित्रकूट मानी है, जो बुन्देलखण्ड में है ।
- टीकाएं - मेघदूतम् पर अब तक लगभग 20 भाषाओं में 50 से अधिक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं, लेकिन मल्लिनाथ की टीका सबसे प्रामाणिक मानी जाती है ।
- सबसे सर्वश्रेष्ट टीका मल्लिनाथ की सञ्जीवनी टीका है ।
- जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने मेघदूतम् का जर्मन भाषा में पद्यानुवाद किया है ।
- श्वेट्ज ने जर्मन भाषा में गद्यानुवाद किया है ।
- आर्थर राइडर और एच.जी.रूक ने अंग्रेजी में मेघदूतम् का पद्यानुवाद किया है ।
- हिन्दी भाषा में मेघदूतम् के 6 पद्यानुवाद हो चुके हैं ।
- डॉ. कीथ ने मेघदूतम् को शोकगीत कहा है ।
- भारतीय मत में मेघदूत शोकगीत या करुणगीत न होकर विरहगीत या विप्रलम्भगीत है।
- क्षेमेन्द्र ने सुवृत्ततिलक में सुवशा कालिदासस्य मन्दाक्रान्ता विराजते कहकर मन्दाक्रान्ता छन्द की प्रशंसा की है ।
- कालिदास की इस कृति के विषय में समीक्षको ने कहा है कि - मेघे माघे गतं वयः ।
- कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाऽचेतनेषु।
- याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।
- आशाबन्ध: कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम्।
- न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
- रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ॥
- स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥
- मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः ॥
- ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ॥
- आपन्नार्तिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्युत्तमानाम् ॥
- के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः ॥
- सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् ॥
- प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा ॥
- कान्तोदन्तः सुहृदुपगतः संगमात्किञ्चिदूनः ॥
- अव्यापन्नः कुशलमबले पृच्छति त्वां वियुक्तः, पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव ॥
- कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा, नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्र-नेमि-क्रमेण ॥
- स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा- दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ॥
- प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव ॥
मेघ के अलकापुरी तक जाने में वर्णित प्रदेश, नदियाँ और पर्वत
प्रदेश | नदियाँ | पर्वत |
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माल प्रदेश | रेवा (नर्मदा नदी) | रामगिरी |
दशार्ण(1) | वेत्रवती | आम्रकूट |
विदिशा(2) | निर्विन्ध्या(5) | विन्ध्याचल |
अवन्ति(3) | सिन्धु(6) | नीचै(9) |
उज्जयिनी(4) | गन्धवती(7) | देवगिरि |
दशपुर | गम्भीरा(8) | हिमालय |
ब्रह्मावर्त | चर्मण्वती (चम्बल नदी) | क्रौंच |
कुरुक्षेत्र | सरस्वती | कैलाश |
कनखल | गंगा | ........... |
- दशार्ण की राजधानी विदिशा है जो कि वेत्रवती नदी पर स्थित है ।
- विदिशा में नीचै पर्वत है ।
- उज्जयिनी जाते समय रास्ते में पड़ती है ।
- उज्जयिनी जिसका दूसरा नाम विशाला भी है ।
- निर्विन्ध्या नदी उज्जयिनी जाते हुए रास्ते में पड़ती है ।
- शिप्रा नदी के तट पर उज्जयिनी नगरी बसा हुआ है ।
- गन्धवती नदी महाकाल के उद्यान के समीप स्थित है ।
- गम्भीरा नदी उज्जयिनी से अलकापुरी को जाते हुए रास्ते में पड़ती है ।
- वैश्याओं से युक्त, विदिशा नगरी में यह पर्वत है ।
यक्ष मेघ से कहता है कि, तुम सरकण्डों के वन में उत्पन्न देव कार्तिकेय की आराधना करके रास्ते को पार करना । जल कणों के भय से वीणा लिए हुए सिद्ध के जोड़ों केे द्वारा तुम्हारा मार्ग छोड़ दिया जायेगा । जब तुम चर्मण्वती नदी का जल लेने के लिए झुकोगे तो तुमको उस नदी का सम्मान करना चाहिए जो रन्तिदेव की कीर्ति-स्वरूपा है। जब तुम जल लेने के लिए झुकोगे तो तुम भगवान् कृष्ण के वर्ण को चुराने वाले लगोगे और उस नदी के प्रवाह को दूर से देखने पर मोटा होने पर भी पतला दिखायी देगा । आकाश में विचरण करने वाले जब तुमको एक टक नजर से देखेंगे कि मानो पृथ्वी के गले में पड़ी हुई मोतियों की माला के बीच में एक इन्द्रनील मणि शोभायमान हो रही है । क्योंकि तुम्हारा यह शरीर उस चर्मण्वती नदी मे बड़ी इन्द्रनील मणि के समान दिखाई देगी ।
9. सरस्वती -
हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्कां
बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे ।
कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य ! सारस्वतीनाम्
अन्तःशुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः ।। (श्लो - 50)
यक्ष मेघ से कहता है कि, हे सौम्य ! बन्धु बांधवों (पांडव और कौरव) के प्रति प्रेम के कारण बलरामजी महाभारत के युद्ध से विमुख होकर तीर्थयात्रा पर चले गये थे और बलराम जी ने अपनी अत्यन्त प्रिय सुरा को, जिसे उनकी पत्नी रेवती बना कर देती थी, ऐसी सुरा को त्याग कर जिस सरस्वती नदी के जल का सेवन किया, उसी सरस्वती नदी के जल का सेवन करके अंदर से पवित्र हो जाओगे और केवल तुम वर्ण मात्र से श्याम रह जाओगे । उनकी पत्नी रेवती के आँखों की उपमा सरस्वती नदी से की गयी है। लाङ्गली (हल) अर्थात् बलराम का नाम है ।
10. गंगा नदी -
तस्माद् गच्छेरनुकनखलं शैलराजावतीर्णां
जह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम् ।
गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः
शंभोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोर्मिहस्ता ।। (श्लो. 51)
कुरुक्षेत्र से आगे कनखल नामक पर्वतीय तीर्थस्थल पर मेघ पहुँचेगा, जहाँ पर सगर-पुत्रों के लिए स्वर्गारोहण की सीढ़ी बनी, हिमालय से अवतीर्ण गंगा अपने फेन और लहरों रूपी हाथों से शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा और शिव की जटाओं को पकड़ कर पार्वती जी का उपहास करती सी, जह्नुकन्या गङ्गा का दर्शन होगा ।