महाकविबाणभट्टविरचिता
कादम्बरी
(आविन्ध्याटवीवर्णनात् कथामुखम्)
रजोजुषे जन्मनि सत्त्वृत्तये
स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे ।
अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः ॥१॥
अन्वय:- प्रजानां जन्मनि रजोजुषे स्थितौ सत्त्ववृतये प्रलये तमः:स्पृशे, सर्गस्थितिनाशहेतवे त््त्रयीमयाये त्रिगुणात्मने अजाय नमः ॥ १ ॥
हिन्दी अनुवाद- प्रजाओं की उत्पत्ति (के समय) में रजोगुण सम्पन्न, पालन (के समय) में सत्त्वगुण सम्पन्न तथा प्रलय (के समय) में तमोगुण सम्पन्न (क्रमश) सृष्टि, पालन तथा संहार के निमित्त कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इन तीन रूपों वाले, अथवा वेदत्रयी स्वरूप वाले त्रिगुणात्मक नित्य ब्रह्म को नमस्कार है।
टिप्पणी - यथासंख्य अलंकार, वंशस्थ छन्द ।
जयन्ति बाणासुरमौलिलालिता
दशास्यचूडामणिचक्रचुम्बिन ।
सुरासुराधीशशिखान्तशायिनो
भवच्छिदस्त्र्यम्बकपादपांसव: ॥ २ ॥
अन्वयः- बाणासुरमौलिलालिता दशास्यचूडामणिचक्रचुम्बिन: सुरासुराधीशशिखान्तशायिन: भवच्छिद: त्र्यम्बकपादपांसव: जयन्ति ॥
हिन्दी अनुवाद - बाणासुर के मस्तक द्वारा सेव्य, रावण के मुकुट की मणियों का स्पर्श करनेवाली, देव और असुरों के अधीश्वरों की शिखा के अप्रभाग पर विराजने वाली तथा संसार का बन्धन काटने वाली शिवजी के चरणों की रज की जय हो ।
टिप्पणी- (१) इस श्लोक में भगवान् शिव की स्तुति की गई है।
(२) अनुप्रास अलंकार
(३) वंशस्थ छन्द ।
जयत्युपेन्द्रः स चकार दूरतोविभित्सया यः क्षणलब्धलक्ष्यया ।
दृशैव कोपारुणया रिपोरुरः
अन्वय- सः उपेन्द्रः जयति, य: बिभित्सया दूरतः क्षणलब्धलक्षया कोपारुणया दशा एवं रिपोः उर: भयात् स्वयं भिन्नम् इव अस्रपाटलम् चकार ।
हिन्दी अनुवाद- उन (नृसिंहरूपधारी) विष्णु की जय हो, जिन्होंने चीर डालने की इच्छा से दूर से ही क्षण भर में लक्ष्य तक पहुँची क्रोध से लाल दृष्टि द्वारा ही शत्रु के वक्षस्थल को रुधिर से लाल बना दिया, मानो वह भय से स्वयं ही विदीर्ण हो गया था ।
टिप्पणी- (१) इस श्लोक में भगवान नृसिंह का स्मरण किया गया है। (२) उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार।
(३) वंशस्थ छन्द।
नमामि भर्वोश्चरणाम्बुजद्वयं
सशेखरैर्मौखरिभिः कृतार्चनम् ।
समस्त-सामन्त-किरीट-वेदिका-
विटङ्क पीठोल्लुठितारुणागुलि ।। ४ ।।
अन्वयः- सशेखरैः मौखरिभिः कृतार्च्चनम्, समस्त-सामन्त- किरीट-वेदिका-विटङ्क पीठोल्लुठितारुणाङ्गुलि भर्वोः चरणाम्बुजद्वयं नमामि ।
हिन्दी अनुवाद- मैं भर्वु के उन दोनों चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जिनकी अर्चना मुकुटधारी मौखरीवंश के राजाओं ने की है और जिनकी उंगलियाँ सभी सामन्तों के मुकुटों की वेदिका के उन्नतभाग से रगड़ खाने के कारण लाल हो गई हैं ।
टिप्पणी – (१) इस श्लोक में कवि ने अपने गुरु की वन्दना की है।
(२) भर्वु: बाणभट्ट के गुरुजी का नाम है।
(३) रूपक अलंकार
(४) वंशस्थ छन्द
अकारणाविष्कृतवैरदारुणा-
दसज्जनात् कस्य भयं न जायते ।
विषं महाहेरिव यस्य दुर्वच:
सुदुःसहं सन्निहितं सदा मुखे ॥५॥
अन्वय: – अकारणाविष्कृतवैरदारुणात् असज्जनात् कस्य भयं न जायते, यस्य मुखे महाहे: विषम् इव सुदुःसहं दुर्वचः यदा सन्निहितम् ।
हिन्दी अनुवाद- बिना कारण (वजह) के ही वैर करने के कारण भयंकर स्वभाववाले दुर्जन जिसके मुख में अत्यन्त असह्य दुर्वचन वैसे ही सदैव बना रहता है जैसे बड़े साँप के मुख में विष से किसे भय नहीं होता ।
टिप्पणी- (१) इस श्लोक में दुर्जन की निन्दा की गई है।
(२) उपमा अलंकार
(३) वंशस्थ छन्द ।
कटु क्वणन्तो मलदायकाः खला
स्तुदन्त्यलं बन्धनशृङ्खला इव ।
मनस्तु साधुध्वनिभिः पदे पदे
हरन्ति सन्तो मणिनूपुरा इव ॥ ६ ॥
अन्वय:- कटु क्वणन्तः, मलदायकाः बन्धनश्रृङ्खला इव खलाः अलं तुदन्ति । सन्तः तु मणिनूपुराः इव पदे पदे साधुध्वनिभिः मनः हरन्ति ।
हिन्दी अनुवाद- जैसे कर्णकटु शब्द करने वाली तथा बन्धन के स्थल को काला बना देने वाली जंजीरे वैसे ही कटु वचन बोलने वाले तथा दूसरों पर मिथ्या कलङ्क लगाने वाले दुष्ट व्यक्ति अत्यधिक दुःख देते हैं। इसके विपरीत सज्जन पद-पद पर मधुर ध्वनि से प्रत्येक पादन्यास पर मणि के नूपुर की तरह मन मोह लेते हैं ।
टिप्पणी – (१) यहाँ दुर्जन की निन्दा और सज्जन की प्रशंसा की गई है।
(२) उपमा अलंकार।
(३) वंशस्थ छन्द ।
सुभाषितं हारि विशत्यधो गला-
दुर्जनस्यार्करिपोरिवामृतम् ।
तदेव धत्ते हृदयेन सज्जनो
हरिर्महारत्नमिवातिनिर्मलम् ।।७॥
अन्वयः- हारि सुभाषितं दुर्जनस्य गलात् अधः अर्करिपोः अमृतम् इव न विशति तत् एव सज्जनः हरिः अतिनिर्मलं महारत्नम् इव, हृदयेन धत्ते ।
हिन्दी अनुवाद - मनोहर सुभाषित दुर्जन के गले से वैसे ही नहीं उतरता जैसे राहु के गले के नीचे अमृत । किन्तु सज्जन उसे ही अपने हृदय पर इस प्रकार धारण करते हैं जैसे भगवान् विष्णु अत्यन्त स्वच्छ कौस्तुभ मणि को अपने हृदय पर धारण करते हैं ।
टिप्पणी – (१) दुर्जन को सुन्दर वचन अच्छे नहीं लगते, सज्जन अच्छे वचनों पर अपने को न्योछावर कर देता है- यही दोनों का अन्तर है।
(२) उपमा अलंकार
(३) वंशस्थ छन्द
स्फुरत्कलालापविलास कोमला
करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम् ।
रसेन शय्यां स्वयमभ्युपागता
कथा जनस्याभिनवा वधूरिव ॥ ८ ॥
अन्यय:- स्फुरत्कलालापविलासकोमला, रसेन स्वयं शय्याम् अभ्युपागता कथा अभिनवा वधूः इव जनस्य हृदि कौतुकाधिकं रागं करोति ।
हिन्दी अनुवाद - स्फुरित होते मधुर कथोपकथन की माधुरी से कोमल पदशय्या को स्वयं प्राप्त होती अभिनव कथा शृंगारादि रस से कुतूहल की अधिकता से युक्त हो वैसे ही सहृदय के हृदय में राग उत्पन्न कर देती है, जैसे स्फुरित होते मधुर आलाप और विलासों से मनोहर अभिनव वधू सेज पर स्वयं आकर प्रेम से पति के मन में उत्कण्ठा और अनुराग उत्पन्न कर देती है ।
टिप्पणी – (१) कथा की प्रशंसा की गई है।
(२) उपमा और श्लेष अलंकार
(३) वंशस्थ छन्द
हरन्ति कं नोज्ज्वलदीपकोपमैर्नवै:
पदार्थरुपपादिताः कथा: ।
निरन्तरश्लेषघना: सुजातयो
महास्रजश्र्चम्पक कुड्मलैरिव ।। ९ ।।
अन्वयः– उज्ज्वलदीपकोपमैः नवैः पदार्थै: उपपादिताः, निरन्तरश्लेषघना:, सुजातयः कथाः उज्ज्वलदीपकोपमैः चम्पककुड्मलैः उपपादिताः, निरन्तरश्लेषघनाः, सुजायः महास्रजः इव के न हरन्ति ।
हिन्दी अनुवाद - सुन्दर दीपक एवं उपमा अलंकारों से युक्त, नए-नए अर्थों वाले पदों से विरचित, निरन्तर श्लेष अलंकार के प्रयोग से सघन सुन्दर जाति के छन्दों से युक्त कथा, दीप्तिमान प्रदीप-समान नई-नई चम्पा की कलियों से निर्मित, सुन्दर जाति नामक फूल से युक्त सघन रूप में एक-दूसरे से मिलाकर प्रथित होने में सघन महामाला के समान किसको आकर्षित नहीं करती ? अर्थात् सभी को आकृष्ट करती है ।
बभूव वात्स्यायनवंशसम्भवो
द्विजो जगद्गीतगुणोऽग्रणीः सताम् ।
अनेकगुप्तार्च्चित-पाद-पङ्कजः
कुबेरनामांश इव स्वयम्भुवः ।। १० ।।
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