महाकविकालिदासविरचितम्
रघुवंशमहाकाव्यम्
द्वितीयः सर्गः
अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् ।
वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच ॥ १ ॥
अन्वयः- अथ यशोधनः प्रजानाम् अधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्यां पीतप्रतिबद्धवत्सां ऋषेः धेनुम् वनाय मुमोच ॥ १ ॥
हिन्दी अनुवाद- तदनन्तर प्रभात होने पर कीर्तिधन राजा (दिलीप) ने ऋषि (वसिष्ठ) की उस गौ को वन के लिए खोल दिया, जिसे पत्नी (सुदक्षिणा) ने गन्ध और माला समर्पित की थी तथा दूध पीने के उपरान्त जिसके बछड़े को बांध दिया गया था ॥ १ ॥
तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया ।
मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत् ।। २ ।।
अन्वय- अपांसुलानाम् धुरि कीर्तनीया मनुष्येश्वरधर्मपत्नी तस्याः खुरन्यासपवित्रपासुं मार्ग्गं स्मृतिः श्रुतेः अर्थम् इव अन्वगच्छत् ॥२॥
हिन्दी अनुवाद - राजा (दिलीप) की, पतिव्रताओं में प्रथमगणनीय, धर्मपत्नी (सुदक्षिणा) उस (नन्दिनी) के खुर विन्यास से पवित्र धूलि वाले मार्ग पर ऐसे चली जैसे वेद के अर्थ पर स्मृति चलती है।
निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्यशोभिः ।
पयोधरीभूतचतुःसमुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् ॥ ३ ॥
अन्वयः- दयालुः यशोभिः सुरभिः राजा तां दयितां निवर्त्य सौरभेयीं पयोधरी भूतचतुःसमुद्राम् उर्वीम् इव जुगोप ॥ ३ ॥
हिन्दी अनुवाद- दयालु एवं कीर्ति से कमनीय राजा (दिलीप) ने उस प्रियतमा सुदक्षिणा को लौटाकर सुरभि (नामक गौ) की सन्तान नन्दिनी, जिसके दूध से चारों समुद्र तिरस्कृत थे, की गौ का रूप धारण करने वाली पृथ्वी; जिसके चारों समुद्र चार थन बने हुए थे; के समान रक्षा की ॥ ३ ॥
व्रताय तेनानुचरेण धेनोर्न्यषेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्गः ।
न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्यगुप्ता हि मनोः प्रसूतिः ।।४॥
अन्वयः- व्रताय धेनोः अनुचरेण तेनं शेषः अनुयायिवर्गः अपि न्यषेधि। तस्य शरीररक्षा च अन्यतः न हि मनोः प्रसूतिः स्ववीर्यगुप्ता ॥ ४ ॥
हिन्दी अनुवाद- व्रत सम्पन्न करने के लिए गौ (नन्दिनी) के अनुचर उस (दिलीप) ने अवशिष्ट सेवक वर्ग को भी अपने साथ रहने के लिए मना कर दिया। उसके शरीर की रक्षा औरों से सम्भव नहीं थी, क्योंकि मनु की सन्तान तो अपने पराक्रम से ही सुरक्षित रहती है ॥ ४ ॥
आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां कण्डूयनैर्दशनिवारणैश्च ।
अव्याहतैः स्वैरगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत् ॥५॥
अन्वयः- सम्राट् सः आस्वादवद्भिः तृणानां कवलैः कण्डूयनैः दंशनिवारणैः अव्याहतैः स्वैरगतै: च तस्या समाराधनतत्परः अभूत् ।
हिन्दी अनुवाद- वे सम्राट् (दिलीप) घास के स्वादिष्ट कौर देते, खुजलाते, डाँस हटाते और चलने-फिरने में कोई बाधा न डालते हुए उस (नन्दिनी) की सेवा में तत्पर हो गए ॥ ५ ॥
स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां निषेदुषीमासनबन्धधीरः ।
जलाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ॥६॥
अन्वयः- भूपतिः तां स्थितां स्थितः प्रयातां उच्चलितः निषेदुषीम् आसनबन्धधीरः जलम आददानां जलाभिलाषी छायेव अन्वगच्छत् ॥ ६ ॥
हिन्दी अनुवाद - राजा दिलीप छाया की तरह उस (नन्दिनी) के पीछे-पीछे चले। वह खड़ी होती तो वे खड़े हो जाते, चलती तो चल पड़ते, बैठती तो आसन लगाकर बैठ जाते और पानी पीती तो पानी की अभिलाषा करते ॥ ६ ॥
स न्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मीं तेजाविशेषानुमितां दधान: ।
आसीदनाविष्कृतदानराजिरन्तर्मदावस्थ इव द्विपेन्द्रः ।। ७ ।।
अन्वय:- यस्तचिह्नम् अपि तेजोविशेषानुमितां राजलक्ष्मीं दधानः सः अनाविष्कृतदानराजि अन्तर्मदाावस्थ: द्विपेन्द्रः इव आसीत् ॥ ७ ॥
हिन्दी अनुवाद- छत्र, चंवर आदि चिह्नों के बिना भी जिसका (राजा की) कान्तिविशेष से अनुमान लगाया जा सकता था, उस राजलक्ष्मी को धारण करते हुए वे (राजा दिलीप) अपने भीतर मद की सत्ता बनाए हुए उस हाथी के समान लग रहे थे जिसकी मद-रेखा अभी प्रकट नहीं हुई थी ॥ ६ ॥
लताप्रतानोद्ग्रथितैः स केशैरधिज्यधन्वा विचचार दावम् ।
रक्षापदेशान्मुनिहोमधेनोर्वन्यान्विनेष्यन्निव दुष्टसत्त्वान् ॥८॥
अन्वयः- लताप्रतानोद्ग्रथितैः केशः सः अधिज्यधन्वा मुनिहोमधेनोः रक्षापदेशात् वन्यान् दुष्टसत्त्वान् विनेष्यन् इव दावं विचचार ॥८॥
हिन्दी अनुवाद- वे दिलीप जिन्होंने लता-तन्तुओं से अपने केश बाँध रखे थे और जिनके धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; मुनि (वसिष्ठ) को रक्षा के बहाने से मानों जंगल के दुष्ट जींवों को प्रशिक्षित करने के लिए वन में विचरण कर रहे थे ॥ ८ ॥
विसृष्टपार्श्वानुचरस्य तस्य पार्श्वद्रुमाः पाशभृता समस्य।
उदीरयामासुरिवोन्मदानामालोकशब्दं वयसां विरावैः ।। ९ ।।
अन्वयः - विसृष्टपार्श्वानुचरस्य पाशभृता समस्य तस्य पार्श्वद्रुमाः उन््मदानां वयसाम् विरावैः इव आलोकशब्दम् उदीरयामासुः ॥ ९ ॥
हिन्दी अनुवाद- वरुण के समान प्रभावशाली उन (दिलीप) के पार्श्ववर्ती अनुचरों को लौटा चुकने पर अगल-बगल के वृक्षों ने उन्मत्त पक्षियों के शोर से मानों 'जय' शब्द का उच्चारण किया ॥ ९ ॥
मरुत्प्रयुक्ताश्च मरुत्सखाभं तमर्च्यमारादभिवर्तमानम् ।
अवाकिरन् बाललता: प्रसूनैराचारलाजैरिव पौरकन्याः ।।१०॥
अन्वयः- मरुत्प्रयुक्ता: बाललताः आरात् अभिवर्तमानम् मरुत्सखाभम् अर्च्यम् तं प्रसूनैः पौरकन्याः आचारलाजैैरिव अवाकिरन् ॥ १० ॥
हिन्दी अनुवाद - अग्नि के समान आभा वाले अर्चनीय उन (दिलीप) के निकट आने पर वायु के द्वारा प्रेरित नूतन लताओं ने उन पर इस प्रकार फूल बरसाए जिस प्रकार पुरवासियों की कन्याएँ शिष्टाचार के तहत उन पर धान की खीलें बरसाया करती थीं ॥
धनुर्भृतोऽप्यस्य दयार्द्रभावमाख्यातमन्तःकरणैर्विशङ्कै: ।
विलोकयन्त्यो वपुरापुरक्ष्णां प्रकामविस्तारफलं हरिण्यः ।।११।।
अन्वयः – धनुर्भृतः अपि अस्य विशङ््कै: अन्तःकरणैः दयार्द्रभावं वपुः विलोकयन्त्यः हरिण्यः अक्ष्णां प्रकामविस्तारफलम् आपुः ।
हिन्दी अनुवाद - दिलीप के धनुर्धर होने पर भी हिरनियों के बेखटक अन्तःकरणों ने यह (इसका) दया से द्रवित होने का भाव है ऐसा जतला दिया । ऐसे शरीर को देखती हुई हिरनियों ने आँखों की विशालता का फल प्राप्त कर लिया ।
स कीचकैर्मारुतपूर्णरन्ध्रै: कूजद्भिरापादितवंशकृत्यम् ।
शुश्राव कुञ्जेषु यशः स्वमुच्चैरुद्गीयमानं वनदेवताभिः ॥१२॥
अन्वयः- : सः मारुतपूर्णरन्ध्रै: कूजद्भिः कीचकैः आपादितवंशकृत्यं कुञ्जेषु वनदेवताभिः उच्चैः उद्गीयमानं स्वं यशः शुश्राव ।
हिन्दी अनुवाद- उन्होंने (राजा दिलीप ने) कुंजों में वनदेवताओं के द्वारा ऊँचे स्वर में गाया जाता हुआ अपना वह यश सुना, जिसमें वायुपूरित छिद्रोंवाले (अत एव) गूँजते कीचक नामक बाँसों से बाँसुरी का काम लिया गया था ।
पृक्तस्तुषारैर्गिरिनिर्झराणामनोकहाकम्पितपुष्पगन्धी ।
तमातपक्लान्तमनातपत्रमाचरपूतं पवन: सिषेवे ।।१३।।
अन्वयः– गिरिनिर्झराणां तुषारैः पृक्तः अनोकहाकम्पितपुष्पगन्धी पवनः अनातपत्रम् आतपक्लान्तं तं सिषेवे ।
हिन्दी अनुवाद- पहाड़ी झरनों की ठण्डी फुहारों से लदी, वृक्षों के हौले-हौले हिलते फूलों की सुगंध से बसी वायु ने उनकी (राजा दिलीप की) सेवा की, जो छत्र से रहित थे, धूप से थके हुए थे किन्तु आचरण से पवित्र थे ।
शशाम वृष्ट्याऽपि विना दवाग्निरासीद् विशेषा फलपुष्पवृद्धिः ।
ऊनं न सत्त्वेष्वधिको बबाधे तस्मिन् वनं गोप्तरि गाहमाने ।।१४।।
अन्वयः- गोप्तरि तस्मिन् वन गाहमाने (सति) वृष्ट्या विना अपि दवाग्निः शशाम। फलपुष्पवृद्धिः विशेषा आसीत्। सत्वेषु अधिक ऊनं न बबााधे ।
हिन्दी अनुवाद- उन रक्षक दिलीप के वन में प्रवेश करने पर बिना वृष्टि के दावाग्नि शान्त हो गई, फल और फूलों की वृद्धि और अधिक हो गई और जीवों में प्रबल जीव ने दुर्बल जीव को पीड़ित नहीं किया ॥
सञ्चारपूतानि दिगन्तराणि कृत्वा दिनान्ते निलयाय गन्तुम् ।
प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा पतङ्गस्य मुनेश्च धेनुः ॥१५॥
अन्वयः- पल्लवरगताम्रा पतङ्गस्य प्रभा मुनेः धेनुः च दिगन्तराणि सञ्चारपूतानि कृत्वा दिनान्ते निलयाय गन्तुं प्रचक्रमे ।
हिन्दी अनुवाद - पल्लवों की ललाई के समान ललाई लिए सूर्य-कान्ति और मुनि (वसिष्ठ) की गौ (ये दोनों ही) दिशाओं के अन्तराल को अपने-अपने संचार से पवित्र कर दिन हनने पर (क्रमशः) छिपने के लिए और अपने घर (आश्रम) के लिए जाने की तैयारी करने लगीं ।
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