शनिवार, 24 अप्रैल 2021

मेघदूतम् (सामान्य परिचय)

  • इस खण्डकाव्य के लेखक  महाकवि कालिदास है । यह खण्डकाव्य दूतकाव्य के रूप में एक गीतिकाव्य है, जिसमें एक यक्ष का विरह वर्णित है ।
  • संस्कृत के गीतिकाव्यों का आदिम ग्रन्थ कालिदास का मेघदूत है।
  • मेघः एव दूतः यस्मिन् काव्ये तत् मेघदूतम् । इस प्रकार मेघदूतम् में बहुव्रीहि समास है ।
  • संस्कृत के गीतिकाव्यों का आदिमग्रन्थ महाकवि कालिदास का मेघदूतम् ही है ।
  • यह दो भागों में विभक्त है - पूर्वमेघ और उत्तरमेघ
  • इस खण्डकाव्य में कुल 115 पद्य हैं । मल्लिनाथ ने 121 पद्य स्वीकार किये हैं, किन्तु 6 श्लोकों को प्रक्षिप्त मानते हुए 115 की संख्या को प्रामाणिक माना है । वल्लभदेव की टीका के अनुसार 111 पद्य हैं । पूर्वमेघ में 63 और उत्तरमेघ में 52 पद्य हैं ।
  • पूर्वमेघ में अलकापुरी तक के मार्ग का वर्णन है ।
  • उत्तरमेघ में अलकापुरी का वर्णन है ।
  • इस खण्डकाव्य का प्रधान रस विप्रलम्भ श्रृंगार है ।
  • अलंकार - उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग है ।
  •  सम्पूर्ण मेघदूतम् में मन्दाक्रान्ता छन्द है ।
  • मन्दाक्रान्ता छन्द का लक्षण - "मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ गयुग्मम्" इस लक्षण के अनुसार मन्दाक्रान्ता छन्द के प्रत्येक पाद में मगण (SSS), भगण (Sll), नगण (lll), दो तगण (SSl, SSl) तथा दो गुरु होते हैं । इसमें प्रत्येक चरण में 17  वर्ण होते हैं । चौथे, छठे तथा सातवें वर्णों पर यति होती है ।
  • इस खण्डकाव्य या गीतिकाव्य की रीति- वैदर्भी है । वैसे भी कालिदास वैदर्भी रीति के लिए प्रसिद्ध हैं। कहा भी गया है - वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालीदासोविशिष्यते ।
  • मेघदूतम् में प्रसाद एवं माधुर्य गुण की प्रधानता है ।
  • मेघदूतम् का मङ्गलाचरण - वस्तुनिर्देशात्मक है ।
  • मङ्गलाचरण -
                                कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः
                                शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्त्तुः ।
                                यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
                                स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ।।

  • उपजीव्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण से लिया गया है और दूत की कल्पना बाल्मीकीयरामायण से ली है।
  • यक्ष को अल्काधीश्वर कुबेर ने जो शाप दिया उसका आधार पद्मपुराण है । वहाँ के योगिनी नामक आषाढ़-कृष्ण-एकादशी-महात्म्य प्रसंग में यह कथा संक्षेप में है ।
  • इस खण्डकाव्य का नायक - यक्ष है जो कि धीरललित नायक है ।  ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसका नाम हेममाली है।
  • नायिका - यक्षिणी है, जो कि स्वकीया एवं पद्मिनी नायिका है । जिसका नाम ब्रह्मवैवर्तपुारण में विशालाक्षी है।
  • इसके प्रमुख पात्र - यक्ष, यक्षिणी, मेघ, कुबेर (यक्षाधिपति) ।
  • मेघदूतम् के आरम्भ  में यक्ष अपने शापावधि के 8 माह काट चुका है और 4 माह शेष बचे हैं ।
  • यक्षों के अधिपति कुबेर की राजधानी अलका है । इसकी स्थिति हिमालय पर्वत श्रृंखला के कैलाश नामक शिखर पर बतलायी गयी है ।
  • रामगिरि पर्वत की स्थिति मल्लिनाथ तथा वल्लभ ने चित्रकूट मानी है, जो बुन्देलखण्ड में है ।
  • टीकाएं - मेघदूतम् पर अब तक लगभग 20 भाषाओं में 50 से अधिक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं, लेकिन मल्लिनाथ की टीका सबसे प्रामाणिक मानी जाती है ।
  • सबसे सर्वश्रेष्ट टीका मल्लिनाथ की सञ्जीवनी टीका है ।
  • जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने मेघदूतम् का जर्मन भाषा में पद्यानुवाद किया है ।
  • श्वेट्ज ने जर्मन भाषा में गद्यानुवाद किया है ।
  • आर्थर राइडर और एच.जी.रूक ने अंग्रेजी में मेघदूतम् का पद्यानुवाद किया है ।
  • हिन्दी भाषा में मेघदूतम् के 6 पद्यानुवाद हो चुके हैं ।
  • डॉ. कीथ ने मेघदूतम् को शोकगीत कहा है ।
  • भारतीय मत में मेघदूत शोकगीत या करुणगीत न होकर विरहगीत या विप्रलम्भगीत है।
  • क्षेमेन्द्र ने सुवृत्ततिलक में सुवशा कालिदासस्य मन्दाक्रान्ता विराजते कहकर मन्दाक्रान्ता छन्द की प्रशंसा की है ।
  • कालिदास की इस कृति के विषय में समीक्षको ने कहा है कि - मेघे माघे गतं वयः ।
प्रमुख सूक्तियां -
  • कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाऽचेतनेषु।
  • याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।
  • आशाबन्ध: कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम्।
         सद्य: पाति प्रणयि हृदयं विप्रोगे रुणद्धि ॥
  • न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
        प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः ॥
  • रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ॥
  • स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥
  • मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः ॥
  • ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ॥
  • आपन्नार्तिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्युत्तमानाम् ॥
  • के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः ॥
  • सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् ॥
  • प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा ॥
  • कान्तोदन्तः सुहृदुपगतः संगमात्किञ्चिदूनः ॥
  • अव्यापन्नः कुशलमबले पृच्छति त्वां वियुक्तः,   पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव ॥
  • कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा, नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्र-नेमि-क्रमेण ॥
  • स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगा-  दिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ॥
  • प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव ॥

मेघ के अलकापुरी तक जाने में वर्णित प्रदेश, नदियाँ और पर्वत

 

प्रदेश नदियाँपर्वत
माल प्रदेशरेवा (नर्मदा नदी)रामगिरी        
दशार्ण(1)वेत्रवतीआम्रकूट
विदिशा(2)निर्विन्ध्या(5)विन्ध्याचल
अवन्ति(3)सिन्धु(6)नीचै(9)
उज्जयिनी(4)गन्धवती(7)देवगिरि
दशपुरगम्भीरा(8)हिमालय
ब्रह्मावर्तचर्मण्वती (चम्बल नदी)    क्रौंच
कुरुक्षेत्रसरस्वतीकैलाश
कनखलगंगा...........

  1.  दशार्ण की राजधानी विदिशा है जो कि वेत्रवती नदी पर स्थित है ।
  2. विदिशा में नीचै पर्वत है ।
  3. उज्जयिनी जाते समय रास्ते में पड़ती है ।
  4. उज्जयिनी जिसका दूसरा नाम विशाला भी है ।
  5. निर्विन्ध्या नदी उज्जयिनी जाते हुए रास्ते में पड़ती है ।
  6. शिप्रा नदी के तट पर उज्जयिनी नगरी बसा हुआ है ।
  7. गन्धवती नदी महाकाल के उद्यान के समीप स्थित है ।
  8. गम्भीरा नदी उज्जयिनी से अलकापुरी को जाते हुए रास्ते में पड़ती है ।
  9. वैश्याओं से युक्त, विदिशा नगरी में यह पर्वत है ।
पूर्वमेघ में मेघ के मार्ग में क्रमशः वर्णित नदियों का परिचय -
1. रेवा नदी -
                            स्थित्वा तस्मिन् वनचर-वधू-भुक्त-कुञ्जे मुहूर्तं
                            तोयोत्सर्ग-द्रुततर-गतिस्तत्परं वर्त्म तीर्णः ।
                            रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णाँ
                            भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमङ्गे गजस्य ।। (श्लो-19)
        
        यक्ष मेघ से कहता है कि आम्रकूट पर्वत वनवासियों की स्त्रियों द्वारा उपभुक्त हैं। उस आम्रकूट पर्वत पर दो घडी रुककर, जल बरसा कर जब तुम हल्का हो जाओगे तो तुम्हारी गति तीव्र हो जाएगी। आम्रकूट से प्रस्थान करने के बाद मेघ को उबड़-खाबड़ विन्ध्याचल पर्वत मिलेगा । जैसे हाथी के शरीर पर रेखाएं चित्रित होती हैं उसी प्रकार विंध्याचल की तलहटी में बिखरी हुई रेवा नदी (नर्मदा) मिलेगी।

2. वेत्रवती नदी -
                            तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं
                            गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा ।
                            तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात्
                            सभ्रूभङ्गं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि ।।    (श्लो. 25)

        यक्ष मेघ से कहता है कि, उस विदिशा नामक राजधानी में जाकर तुम वहाँ पर अपनी सम्पूर्ण कामुकता का फल प्राप्त करोगे । तुम वेत्रवती नदी के किनारे सुन्दर गर्जना के साथ चञ्चल लहरों वाले जल को, भ्रू-विलासयुक्त नायिका के अधर-पान के समान स्वादिष्ट जल पियोगे ।  अर्थात् तुम वेत्रवती का जल वहाँ पीयोगे । वेत्रवती नदी की उपमा भ्रूभङ्गयुक्त नायिका से की गई है ।

3. निर्विन्ध्या नदी -
                           वीचिक्षोभ-स्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः
                           संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभेः ।
                           निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः सन्निपत्य
                            स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ।।    (श्लो. 29)
        उज्जयिनी जाते हुए मेघ मार्ग में निर्विन्ध्या नदी से मिलता है जो पक्षियों की पंक्ति रूपी करधनी वाली है। निर्विन्ध्या अपनी भंवर रूपी नाभि दिखाती है और उसके द्वारा दिखाया गया विभ्रम ही प्रथम प्रणयवचन है। अर्थात् प्रेमी के निकट हाव भाव का प्रगट करना ही स्त्रियों का प्रथम प्रेम-वचन है - स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ।
4. सिन्धु नदी -
                           वेणीभूत-प्रतुनु-सलिलाSसावतीतस्य सिन्धुः
                            पाण्डुच्छाया तट-रुह-तरु-भ्रंशिभिर्जीर्णपर्णैः ।
                            सौभाग्यं ते सुभग ! विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती
                            कार्श्यं येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः ।। (श्लो. 30)
        यक्ष मेघ से कहता है - निर्विन्ध्या को पार कर मेघ सिन्धु नदी के समीप पहुंचेगा ।  हे मेघ  ! तुम सौभाग्यशाली हो कि सिन्धु नदी तुम्हारे विरह में एक वेणी के समान पतली जल धारा वाली हो गई है और कृश होकर तुम्हारे सौभाग्य को व्यक्त कर रही है । उस सिन्धु नदी के तट के किनारे उगे हुए वृक्षों से गिरने वाले पीले पत्तों से उसकी छाया पीली हो गई है इसलिए तुमको वह उपाय करना चाहिए जिससे वह दुर्बलता त्याग दे ।

5. शिप्रा नदी -
                        दीर्घीकुर्वन् पटु मदकलं कूजितं सारसानां
                        प्रत्यूषेषु स्फुटित-कमलामोद-मैत्री-कषायः ।
                        यत्र स्त्रीणां हरति सुरत-ग्लानिमङ्गानुकूलः
                        शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः ।। (श्लो. 32)
        
        शिप्रावात को नदी के चाटुकार प्रियतम के रूप में चित्रित किया गया है । यह शिप्रावात स्त्रियों की सुरत क्रीडा को हरने वाला है । प्रातः काल सारसों के तेज कूजन को यह शिप्रावात बहुत दूर तक ले जाती है । शिप्रा नदी में कमल लगे हुए हैं और कमलों से जब शिप्रावात अर्थात् वायु की मैत्री होती है तो वायु सुगन्धित हो जाती है । इसी नदी के तट पर उज्जयिनी है।

6. गन्धवती नदी -
                        भर्तुः कण्ठच्छविरिति गणैः सादरं वीक्ष्यमाणः
                        पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डीश्वरस्य ।
                        धूतोद्यानं कुवलय-रजोगन्धिभिर्गन्धवत्या-
                        स्तोयक्रीडा-निरत-युवति-स्नानतिक्तैर्मरुद्भिः ।। (श्लो. 34)
        
        यक्ष मेघ से कहता है कि तुम कमलों के परागों से सुगन्धित व जलक्रीड़ा में संलग्न युवतियों के स्नान द्रव्यों से सुरभित गन्धवती नामक नदी की वायु से कम्पित (झूमते) उद्यानों वाले तीनों लोकों के गुरु, चण्डी के स्वामी अर्थात् महादेव के पवित्र मंदिर में जाओगे । तुम्हारी छवि नील कण्ठ के समान है इसलिए महादेव के गणों के द्वारा तुम बहुत आदर के साथ देखे जाओगे ।

7. गम्भीरा नदी -
                        गम्भीरयाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने
                        छायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम् ।
                        तस्मादस्याः कुमुदविशदान्यर्हसि त्वं न धैर्या-
                        न्मोघीकर्तुं चटुल-शफरोद्वर्तन-प्रेक्षितानि ।।
                        तस्याः किंचित् करधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं
                        नीत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधो नितम्बम् ।
                        प्रस्थानं ते कथमपि सखे ! लम्बमानस्य भावि
                        ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ।।     (श्लो- 41-42)
        उज्जयिनी के पक्षात् मेघ के मार्ग में गम्भीरा नदी आती है। मेघ गम्भीरा नदी का जल पियेगा।किन्तु वहाँ देर न करे ऐसा निर्देश भी मेघ को मिलता है। ज्ञातस्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः । प्रसिद्ध गम्भीरा नदी के वर्णन में आती है, जिसका अर्थ है - सम्भोग के आस्वाद को जान चुका कौन-सा पुरुष खुली जाँचवाली (कामिनी) को छोड़ सकने में समर्थ होगा ? अर्थात् कोई भी नहीं। यक्ष जल को 'गम्भीरा' का वस्त्र, किनारों को नितम्ब तथा बेंत की शाखाओं को उसका हाथ बताता है।

8. चर्मण्वती नदी -
                        आराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लङ्घिताध्वा
                        सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभयाद् वीणिभिर्मुक्तमार्गः ।
                        व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्
                        स्त्रोतोमूर्त्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम् ।।
                        त्वय्यादातुं जलमवनते शार्ङ्गिणो वर्णचौरे
                        तस्याः सिन्धोः पृथुमपि तनुं दूरभावात्प्रवाहम् ।
                        प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्ज्य दृष्टी-
                        रेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम् ।।    (श्लो- 46-47)

यक्ष मेघ से कहता है कि, तुम सरकण्डों के वन में उत्पन्न देव कार्तिकेय की आराधना करके रास्ते को पार करना । जल कणों के भय से वीणा लिए हुए सिद्ध के जोड़ों केे द्वारा तुम्हारा मार्ग छोड़ दिया जायेगा । जब तुम चर्मण्वती नदी का जल लेने के लिए झुकोगे तो तुमको उस नदी का सम्मान करना चाहिए जो रन्तिदेव की कीर्ति-स्वरूपा है। जब तुम जल लेने के लिए झुकोगे तो तुम भगवान् कृष्ण के वर्ण को चुराने वाले लगोगे और उस नदी के प्रवाह को दूर से देखने पर मोटा होने पर भी पतला दिखायी देगा । आकाश में विचरण करने वाले जब तुमको एक टक नजर से देखेंगे कि मानो पृथ्वी के गले में पड़ी हुई मोतियों की माला के बीच में एक इन्द्रनील मणि शोभायमान हो रही है । क्योंकि तुम्हारा यह शरीर उस चर्मण्वती नदी मे बड़ी इन्द्रनील मणि के समान दिखाई देगी ।

9. सरस्वती -

                            हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्कां

                            बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे ।

                             कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य ! सारस्वतीनाम्

                             अन्तःशुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः ।। (श्लो - 50)

यक्ष मेघ से कहता है कि, हे सौम्य !  बन्धु बांधवों (पांडव और कौरव) के प्रति प्रेम के कारण बलरामजी महाभारत के युद्ध से विमुख होकर तीर्थयात्रा पर चले गये थे और बलराम जी ने अपनी अत्यन्त प्रिय सुरा को, जिसे उनकी पत्नी रेवती बना कर देती थी, ऐसी सुरा को त्याग कर जिस सरस्वती नदी के जल का सेवन किया, उसी सरस्वती नदी के जल का सेवन करके अंदर से पवित्र  हो जाओगे और केवल तुम वर्ण मात्र से श्याम रह जाओगे ।  उनकी पत्नी रेवती के आँखों की उपमा सरस्वती नदी से की गयी है। लाङ्गली (हल) अर्थात् बलराम का नाम है ।

10. गंगा नदी -

                        तस्माद् गच्छेरनुकनखलं शैलराजावतीर्णां

                        जह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम् ।

                        गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः

                         शंभोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोर्मिहस्ता ।।    (श्लो. 51)

कुरुक्षेत्र से आगे कनखल नामक पर्वतीय तीर्थस्थल पर मेघ पहुँचेगा, जहाँ पर सगर-पुत्रों के लिए स्वर्गारोहण की सीढ़ी बनी, हिमालय से अवतीर्ण गंगा अपने फेन और लहरों रूपी हाथों से शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा और शिव की जटाओं को पकड़ कर पार्वती जी का उपहास करती सी, जह्नुकन्या गङ्गा का दर्शन होगा ।

2 टिप्‍पणियां:

Jagdanand Jha ने कहा…

त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ताः

प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययादाश्वसन्त्यः ।

कः सन्नद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां

न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः॥१.८॥

संस्कृत पाठशाला Sanskrit Pathashala ने कहा…

तां चावश्य दिवसगणनातत्परामेकपत्नी
मव्यापन्नामविहतगतिर्दक्ष्यसि भ्रातृजायाम् ।
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम्
सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ॥1.10॥

शुकनासोपदेश प्रश्नोत्तरी

नोटः- यह सभी प्रश्न किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे गये हैं । प्रश्न 1 - बाणभट्टस्य गद्ये रीतिरस्ति - पञ्चाली प्रश्न 2- शुकनासोपदेश...